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गुरुवार, 1 मार्च 2018

samiksha


कृति चर्चा:


‘दृगों में इक समंदर है’ समाहित गीतिकाव्य का निनादित प्रवाह  
-    आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: दृगों में इक समंदर है, हिंदी गीतिका / मुक्तिका संग्रह, प्रो. विश्वंभर शुक्ल, प्रथम संस्करण, २०१७, ISBN ९७८-९३-८५४२८-३७-१, पृष्ठ ११६, मूल्य १२५/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक्टर २३, राज नगर गाज़ियाबाद, रचनाकार संपर्क ८४ ट्रांस गोमती, त्रिवेणी नगर–प्रथम, डालीगंज रेलवे क्रोसिंग, लखनऊ २२६०२०, चलभाष ९४१५३२५२४६, ईमेल vdshukla01@gmail.com]
*
हिंदी गीति काव्य के जैसी  सरस, सहज, सरल काव्य माधुरी विश्व की अन्य किसी भी भाषा में नहीं है. संस्कृत से विरासत में प्राप्त हिंदी पिंगल शास्त्र में हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह अगणनीय छंद वैविध्य, अनगिनत शिल्प प्रकार तथा अकल्पनीय भाव भंगिमाएँ हैं. गीति-काव्य की चार पंक्तियों से अधिक लम्बी ऐसी काव्य रचनाएँ जिनमें तुकांत-पदांत प्रमुख लक्षण हो, मुक्तिका या गीतिका कही जा रही हैं. हिंदी के गढ़ लखनऊ के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यविद प्रो. विशम्भर शुक्ल रचित दृगों में इक समंदर को पढ़ना सम-सामयिक और आधुनिक गीति-काव्य की नवीन्तन और अद्यतन भावमुद्राओं से साक्षात करने की तरह है. प्रो. शुक्ल हिंदी काव्य ही नहीं अर्थशास्त्र के भी विद्वान हैं. अर्थशास्त्र में उन्होंने अधिकतम उपयोगिता, उपयोगिता ह्रास और मितव्ययिता छात्रों को तो पढ़ाया ही काव्यशास्त्र के क्षेत्र में उसका भरपूर उपयोग भी किया है. फलत: उनकी गीति रचनाओं में शब्दों का अपव्यय देखने नहीं मिलाता. वे उतना ही लिखते हैं जिससे पाठक में और पढ़ने की प्यास शेष रह जाए. उनकी रचनाएँ नपी-तुली, संतुलित अभिव्यक्ति की जीवंत बानगी प्रस्तुत करती हैं. 

अधुनातन दृष्टिकोण के साथ पारंपरिक सनातनता का सम्मिश्रण करने का नैपुण्य उनके शिक्षक ने उनके जीवन का अंग बना दिया है. अत: ‘दृगों में इक समंदर है’ का श्री गणेश माँ वाणी को नमन से होना स्वाभाविक है. इकतीस वर्णिक सरस्वती वंदना में मनहरण घनाक्षरी कवित्त का प्रयोगकर रचनाकार अपनी छांदस परिपक्वता का आभास करा देता है. इस छंद के विधान ८-८-८-७ पर लय को वरीयता देता कवि माँ शारदा आँगन की तुलसी से घर को महकाने की प्रार्थना करता है-
भोर मुसकाती आई संग  मुसकाइये                                                   
मातु वीणावादिनी की वीथिका सजाइए
खोलते प्रसून कहें जीवन में रंग भरें
लेखनी की तूलिका से चित्र तो बनाइये
आ गए मुंडेर पर विहाग विहान लिए
सूर्य को प्रणाम कर सृजन जगाइए
तन-मन शुद्ध है तो सारे सुख जगती के
आँगन की तुलसी से घर महकाइए
बेला है सृजन की तो भाव अलबेले हों
वाणी को नमन कर लेखनी उठाइये

रचना में पदांत में व्यवहृत क्रिया पद के अंत में ‘ए’ और ‘ये’ दोनों का प्रयोग चौंकाता है. केन्द्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा जारी ‘देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण’ के अनुसार जिन शब्दों में मूल रूप से ‘य’ और ‘व’ शब्द के अंग हों उनके साथ ‘ये’ का उपयोग आवश्यक है, शेष के साथ ‘ए’ का.

मानव जातीय हाकली छंद से सादृश्य रखता यौगिक जातीय विधाता छंद में रचित ‘आखर शब्द पराग लिखो’ में कवि ने अपेक्षाकृत छोटे छंद का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है-
जीवन में अनुराग लिखो
प्रतिदिन प्रखर विहाग लिखो
सुमन सुहाने मुस्काएं
आखर, शब्द, पराग लिखो
प्रकृति नटी के रँग निरखो
पर्वत, बादल, आग लिखो
धीर समंदर लहरें भी
नदिया, कूप, तड़ाग लिखो
मन में जो भी भाव जगें
उन सबको बेलाग लिखो
गहन तिमिर में चमके जो
धवल मनुज का भाग लिखो

राष्ट्रीय भावधारा के प्रबल समर्थक विशम्भर जी ‘मातु भारती अभिनन्दन’ शीर्षक रचना में माँ भारती का वंदन करते हैं. इस रचना में विधाता छंद का प्रयोग करते समय शुक्ल जी पदांत के ‘गुरु गुरु’ को ‘गुरु लघु लघु’ कर प्रयोग करते हैं. इस परिवर्तन से यह छंद यौगिक जातीय  होते हुए भी विधाता नहीं रह जाता. मैंने ऐसे लगभग ४०० छंदों का अन्वेषण कर लेखानाधीन ‘छ्न्द कोष’ में उन्हें स्थान दिया है किंतु इस कृति के प्रकाशन तक इस छंद का भिन्न नाम न होने से इसे संकर विधाता ही कहना होगा.

कृति के अभिकथन में भोपाल निवासिनी कवयित्री कांति शुक्ल जी ने विशम्भर की के काव्य लेखन में कथ्य की संक्षिप्तता, शिल्प की सांगीतिकता, छंदानुशासन के साथ भाव प्रवणता तथा सहज सम्प्रेषणीयता को उनका वैशिष्ट्य उचित ही बताया है. कांति जी ने इन रचनाओं में समाज के मर्म को समझने की सामर्थ्य, विद्रूपताओं और विसंगतियों को इंगित कर दिशा-दर्शन, अर्थ गाम्भीर्य, भाव सूक्ष्मता, रसोद्रेक, पारदर्शिता, सामयिकता आदि का सम्यक संकेत किया है.

हिंदी साहित्य के प्रखर अध्येता और विद्वान् डॉ. उमाशंकर शुक्ल ‘शितिकंठ’ ने इन रचनाओं को ‘’भावों और विचारों की सहज प्रवाही और बहुरंगी दीप्ति से उद्भासित’’ ठीक ही कहा है.

व्यंग्यकार-दोहाकार अरुण अर्णव खरे शुक्ल जी के सृजन में अन्तर्निहित जीवन-दृष्टि, गहन-समझ और सशक्त अभिव्यक्ति को सहज सोकोमल भावनाओं, मानवीय संवेदनाओं से संगुम्फित पाते हैं.

शुक्ल जी समाज की नब्ज़ पर अँगुली रखकर काव्य साधना करते हैं. वे भारतीयों द्वारा खुद के कर्तव्य की अवहेलना कर अन्यों को सुझाव देने की दुष्प्रवृत्ति से सुपरिचित हैं. पर्यावरण प्रदूषण, सामाजिक बिखराव तथा कर्तव्य बोध की कमी को एक ही रचना में गूंथकर वे परिवर्तन का आव्हान करते हैं-
आओ कुछ बात करें गति के ठहराव की
उफनाई नदी और बंधी हुई नाव की
अलग-अलग आँगन हैं, व्योम पृथक सबके
दंगों की क्यारी में फसलें सद्भाव की
दीवारें कब विवस्त्र हो जाएं क्या पता
बंद अभी रहने दो पुस्तिका सुझाब की.

शुक्ल जी भारतीय वांग्मय के मिथकों का वर्तमान सन्दर्भों में कुशलता से उपयोग कर पाते हैं-

हमने उंगली पे उठाये पर्वत / कृष्ण देखे हैं, पुरंदर देखे
*
जन्मता नहीं न होता नष्ट / त्यागकर वसन, गहे आकार
कृष्ण ने दिया यहे संदेश / कर्म ही श्रेष्ठ, शेष निस्सार
*
विष ही नहीं, अमिय पा जाते / करते कुछ दिन मंथन लोग
*
बीस मात्रिक महादैशिक जातीय अरुण छंद में ‘छंद हैं प्यास के’ शीर्षक रचना कम शब्दों में अधिक बात कह सकने की सामर्थ्य की बानगी है-
छंद हैं प्यास के / मूक विश्वास के
रश्मियों ने लिखे / गीत मधुमास के
दिन सहेजे गए / हास-परिहास के
उम्र ने पल जिए / सिर्फ उल्लास के
व्यर्थ अनुबंध ये / दूर हैं पास के
शेष हैं कोष में / फल ये संत्रास के

सामान्यत: हिंदी छंदों से अनभिग्य युवा पीढ़ी और नव रचनाकारों के लिए शुक्ल जी का लेखन उन्हें उनकी जमीन से जोड़ने का सशक्त माध्यम हो सकता है. यदि रचनाओं के साथ पाद टिप्पणी में छंद का नाम और विधान इंगित हो तो अनुकरण आसन हो सकता है. प्रसाद गुण सम्पन्न भाषा सहज बोधगम्य है. शुक्ल जी शब्दों की सांझा विरासत के हिमायती हैं और अभिव्यक्ति की आवश्यकतानुसार शब्दों का प्रयोग करते हैं. ‘दृगों में इक समंदर है’ का स्वागत न केवल नवोदितों अपितु विद्वज्जनों द्वारा भी होगा. यह दरीचे से आटे ताज़ा हवा के झोंके की तरह है.

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com , web www.divyanarmada.in

aalekh:

आलेख:
हिंदी को ग़ज़ल को डॉ. रोहिताश्व अस्थाना का अवदान
आचार्य संजीव  वर्मा 'सलिल'
*
'हिंदी ग़ज़ल' अर्थात गंगा-यमुना, देशी भाषा और जमीन, विदेशी लय और धुन। फारसी लयखण्डों और छंदों (बहरों) की जुगलबंदी है हिंदी ग़ज़ल। डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़ल की उत्पत्ति, विकास, प्रकार और प्रभाव पर 'हिंदी ग़ज़ल: उद्भव और विकास' नामित शोध करनेवाले प्रथम अध्येता हैं। हिंदी ग़ज़लकरों को स्थापित-प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने हिन्दी ग़ज़ल पंचशती (५ भाग), हिंदी ग़ज़ल के कुशल चितेरे तथा चुनी हुई हिंदी गज़लें संकलनों के माध्यम से महती भूमिका का निर्वहन किया है। विस्मय यह कि शताधिक हस्ताक्षरों को उड़ान के लिए आकाश देनावाला यह वट-वृक्ष खुद को प्रकाश में लाने के प्रति उदासीन रहा। उनका एकमात्र गजल संग्रह 'बाँसुरी विस्मित है' वर्ष १९९९ में मायाश्री पुरस्कार (मथुरा) से पुरस्कृत तथा २०११ में दुबारा प्रकाशित हुआ। हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल से अलग स्वतंत्र अस्तित्व की प्रतीति कराकर उसे मान्यता दिलाने वाले शलाका पुरुष के विषय में डॉ. कुंवर बेचैन ने ठीक ही लिखा है: ''रोहिताश्व अस्थाना एक ऐसा नाम जिसने गज़ल को विषय बनाकर, उसे सम्मान देकर पहल शोध कार्य किया जिसके दो संस्करण सुनील साहित्य सदन दिल्ली से प्रकाशित हो चुके हैं। रोहिताश्व अस्थाना एक ऐसा नाम जिसने अनेक ग़ज़लकारों को सम्मिलित कर समवेत संकलनों के प्रकाशन की योजना को क्रियान्वित किया, एक ऐसा नाम जिसने गीत भी लिखे और गज़लें भी। .... साफ़-सुथरी बहारों में कही/लिखी इन ग़ज़लों ने भाषा का अपना एक अलग मुहावरा पकड़ा है। प्रतीक और बिम्बों की झलक में कवि का मंतव्य देखा जा है। उनकी ग़ज़लों में उनके अनुभवों का पक्कापन दिखाई देता है।''

डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण' के अनुसार ''हिंदी में ग़ज़ल लिखनेवालों में गिने-चुने रचनाकार ही ग़ज़ल के छंद-विधान की साधना करने के बाद ग़ज़ल लिखने का प्रयास करते हैं जिनमें मैं डॉ. रोहिताश्व को अग्रणी ग़ज़लकारों में रखता हूँ।'' स्पष्ट है कि  हिंदी ग़ज़ल को छंद-विधान के अनुसार लिखे जाने की दिशा में रोहिताश्व जी का काम ध्वजवाहक का रहा है । उनके कार्य के महत्व को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए उस समय की परिस्थितियों का आकलन करना होगा जब वे हिंदी ग़ज़ल को पहचान दिलाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। तब उर्दू ग़ज़ल का बोल बाला था, आज की तरह न तो अंतर्जाल था, न चलभाष आदि। अपनी अल्प आय, जटिल पारिवारिक परिस्थितियों और आजीविकीय दायित्वों के चक्रव्यूह में घिरा यह अभिमन्यु हिंदी ग़ज़ल के पौधे की जड़ों में प्राण-प्रण  से जल सिंचन कर रहा था जबकि आज हिंदी गज़ल के नाम उर्दू की चाशनी मिलाने वाले हस्ताक्षर जड़ों में मठा  डालने की कोशिश कर रहे थे। उस जटिल समय में अस्थाना जी ने अपराजेय जीवत का परिचय देते हुए साधनों के अभाव में और बाल साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होने के बाद भी हिंदी ग़ज़ल पर शोध करने का संकल्प किया और पूर्ण समर्पण के साथ उसे पूरा भी किया।

यही नहीं 'हिंदी ग़ज़ल: उद्भव और विकास' शीर्षक शोध कार्य के समांतर अस्थाना जी ने 'हिंदी ग़ज़ल पंचदशी' के ५ संकलन सम्पादित-प्रकाशित कर ७५ हिंदी ग़ज़लकारों को प्रतिष्ठित करने में महती भूमिका निभाई। उनके द्वारा जिन कलमों को प्रोत्साहित किया गया उनमें लब्ध प्रतिष्ठित डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', डॉ. योगेंद्र बख्शी, डॉ. रविन्द्र उपाध्याय, डॉ. राकेश सक्सेना, दिनेश शुक्ल, सागर मीरजापुरी, डॉ. ओमप्रकाश सिंह, डॉ. गणेशदत्त सारस्वत, रवीन्द्र प्रभात, अशोक गीते, आचार्य भगवत दुबे, पूर्णेंदु कुमार सिंह, राजा चौरसिया, डॉ, राजकुमारी शर्मा 'राज', डॉ. सूर्यप्रकाश अस्थाना सूरज भी सम्मिलित हैं। संकलन प्रशन के २० वर्षों बाद भी अधिकाँश गज़लकार ण केवल सकृत हैं उनहोंने हिंदी ग़ज़ल को उस मुकान पर पहुँचाया जहाँ वह आज है। अस्थाना जी के इस कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, पद्म श्री नीरज, पद्म श्री चिरंजीत, कमलेश्वर कुंवर बेचैन, कुंवर उर्मिलेश,  चंद्रसेन विराट, डॉ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी, ज़हीर कुरैशी, डॉ. महेंद्र कुमार अग्रवाल आदि ने की।

महाप्राण निराला के समीपस्थ रहे हिंदी साहित्य के पुरोधा आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने डॉ. अस्थाना के अवदान का मूल्यांकन करते हुए लिखा- "डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़लों में नए प्राण फून्कनेवाले हैं, स्वयं रचकर और सुयोग्यों को प्रकाश में लाकर। उनका प्रसाद मुझे मिल चुका है।" पद्मश्री नीरज ने डॉ. अष्ठाना को आशीषित करते हुए लिखा- "आपने ग़ज़ल के विकास और प्रसार में इतना काम किया है कि अब आप ग़ज़ल के पर्याय बन गए हैं। हिंदी ग़ज़ल के सही रूप की पहचान करवाने और उसे जन-जन तक पहुंचाने में आपकी भूमिका ऐतहासिक महत्त्व की है और इसके लिए हिंदी साहित्य आपका सदैव ही ऋणी रहेगा।" पद्म श्री चिरंजीत ने भी डॉ. अस्थाना के काम के महत्त्व को पहचाना- "ग़ज़ल विधा को लेकर आपने बड़े लगाव और रचनात्मक परिश्रम से 'हिंदी गजल पंचदशी' जैसा सारस्वत संयोजन संपन्न किया है। इस ऐतिहासिक कार्य के लिए आपको और पंचदशी के संकलनों को हमेशा याद किया जाएगा। ग़ज़ल  समन्वित संस्कृति की पैरोकार भी है और प्रमाण भी।"

समर्थ रचनाकार और समीक्षक डॉ. उर्मिलेश ने डॉ. अस्थाना को हिंदी ग़ज़ल को "पारिवेशिक यथार्थ और जीवन के सरोकारों से सम्बद्ध कर अपनी अनुभूतियों की बिम्बात्मक और पारदर्शी अभिव्यक्ति" करने का श्रेय देते हुए "हिंदी ग़ज़ल में हिंदी भाषा और साहित्य के संस्कारों को अतिरिक्त सुरक्षा देकर ग़ज़ल की जय यात्रा को  संभव बनाने के लिए उनकी प्रशस्ति की।

सारिका संपादक प्रसिद्ध उपन्यासकार कमलेश्वर ने अस्थाना जी के एकात्मिक लगाव और रचनात्मक परिश्रम का अभिनन्दन करते हुए हिन्दी ग़ज़ल के माध्यम से समन्वित संस्कृति की पैरोकारी करने के लिए उनके कार्य को चिरस्मरणीय बताया है।   ख्यात गीत-ग़ज़ल-मुक्तककार चन्द्रसेन विराट ने इन हिंदी ग़ज़लों में समय की हर धड़कन को सुनकर उसे सही परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करने की छटपटाहट पाने के साथ भाषिक छन्दों, रूपाकारों से परहेज न कर अपनी विशिष्ट हिंदी काव्य परंपरा से उद्भूत आधुनिक मानव जीवन की सभी संभाव्य एवं यथार्थ संवेदनाओं को समेटती हुई अपनी मूल हिंदी प्रकृति, स्वभाव, लाक्षणिकता, स्वाद एवं सांस्कृतिक पीठिका का रक्षण करने की प्रवृत्ति देखी है।

हिंदी ग़ज़ल के शिखर हस्ताक्षर कुंवर बेचैन के अनुसार अस्थाना जी की गज़लें एक ओर तथाकथित राजनीतिज्ञों पर प्रहार करती हैं तो दूसरी ओर धर्मान्धता के विकराल नाखूनों की खरोंचों से उत्पीडित मानव की चीख को स्वर देती दिखाई देती हैं। वे एक ओर सामाजिक विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं क्रूर रूढ़ियों से भी हाथापाई करती हैं तो दूसरी ओर आर्थिक परिवेश में होनेवाली विकृतियों और अन्यायों का पर्दाफाश करती हैं। कथ्य की दृष्टि से इन ग़ज़लों में ऐसी आँच है जो अन्याय सहन करनेवाले इनसान के ठन्डेपन को गर्म कर उसे प्रोत्साहित करती है।  उर्दू ग़ज़ल के ख्यात हस्ताक्षर ज़हीर कुरैशी यह मानते हैं कि डॉ. अस्थाना की कोशिशों से लगातार आगे बढ़ रहा हिंदी ग़ज़ल का कारवां मंजिल पर जाकर ही दम लेगा। डॉ. तारादत्त निर्विरोध ने हिंदी ग़ज़लों में अपने समय की अभिव्यक्ति अर्थात समसामयिकता पाई है। डॉ. राम प्रसाद मिश्र ने हिंदी ग़ज़ल के प्रबल पक्षधर और उसकी अस्मिता के प्रतिपादक के रूप में डॉ. अस्थाना का मूल्यांकन किया है। वे हिंदी ग़ज़ल को धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद के साथ खड़ा पाते हैं।

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने डॉ. रोहिताश्व अस्थाना के सकल कार्य का अध्ययन करने के बाद उनकी हिंदी ग़ज़लों में कथ्य की छंदानुशासित अभिव्यक्ति का वैशिष्ट्य पाया है। समय साक्षी ग़ज़लों में हिंदी भाषा के व्याकरण और पिंगल के प्रति डॉ. अस्थाना की सजगता को उल्लेखनीय बताते हुए सलिल जी ने हिंदी के वैश्विक विस्तार के परिप्रेक्ष्य में भाषिक संकीर्णता और पारंपरिक शैथिल्यता से मुक्ति को विशेष रूप से इंगित किया है।
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chitra alankar: jhanda

फागुन
[ चित्र अलंकार: झंडा ]
*
ठंड के आलस्य को अलविदा कह
बसंती उल्लास को ले साथ, मिल-
बढ़ चलें हम ज़िदगी के रास्ते पर
आम के बौरों से जग में फूल-फल.
रुक
नहीं
जाएँ,
हमें
मग
देख
कर,
पग
बढ़ाना है.
जूझ बाधा से
अनवरत अकेले
धैर्य यारों आजमाना है.
प्रेयसी मंजिल नहीं मायूस हो,
कहीं भी हो, खोज उसको आज पाना है.
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salil. sanjiv@gmailcom, ७९९९५५९६१८
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holi par dohe

होली पर दोहे
होली पर दोहे कहें, डाल कलम में रंग
पढ़कर पाठक झूमते, चढ़ जाए ज्यों भंग
*
श्यामल ने गुरुग्राम में जमकर किया धमाल
विश्वंभर ढोलक लिए, सलिल दे रहे ताल
*
ठंडाई में मिलाकर, लता पिलातीं भंग
लाड़ो पीकर मौन हैं, मंजू करतीं जंग
*
वीणा गाएँ कबीरा, वसुधा कहती फाग
भोग लगा कर खा गईं, गुझिया भक्तन जाग
*
मुँह पर लगा दिनेश के, कविताओं का रंग
सिंह सुनीता हो कहे, करना मुझे न तंग
*
योगराज लघुकथा की, पिचकारी ले हाथ
रामेश्वर को रंग रहे, प्रमुदित कांता साथ
*
गुझिया खाकर नट गए, वाह सत्यजित वाह
बागी भूले बगावत, गले लगे भर आह
*
सीमा बची न कल्पना, मेघा डाल फुहार
पुष्पा-कमल भिगा रही, ताक डालती धार
*
राम मलें बलराम के, मुँह पर लाल गुलाल
उदयवीर चंद्रेश को, बना रहे हैं ढाल
*
'पहले आप' न कह रहे, लखनऊआ कविराज
निर्मल-मधुकर शीश पर, हुरियारों का ताज
*
शांत मनोज शलभ करें, अमरनाथ सँग स्वाँग
ॐ ॐ नीरव कहें, व्योम नचें डिंग-डाँग
*
पिचकारी ले पूर्णिमा, शशि-संध्या मधु संग
शीला आभा को रंगें, देख रंजना दंग
*
ले प्रवीण ने प्रेरणा, गुँजा दिया नवगीत
यायावर राजेंद्र मिल, बढ़ा रहे हैं प्रीत
*
स्नेह-साधना कर सफल, शुभ ऋतुराजी पर्व
दिल को दिल से जोड़ दे, हों हर्षित कवि सर्व
***
१-३-२०१८

chhandon kee holi

: छंदों की होली :
संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
चले आओ गले मिल लो, पुलक इस साल होली में
भुला शिकवे-शिकायत, लाल कर दें गाल होली में
बहाकर छंद की सलिला, भिगा दें स्नेह से तुमको
खिला लें मन कमल अपने, हुलस इस साल होली में
0
नहीं माया की गल पाई है अबकी दाल होली में
नहीं अखिलेश-राहुल का सजा है भाल होली में
अमित पा जन-समर्थन, ले कमल खिल रहे हैं मोदी
लिखो कविता बने जो प्रेम की टकसाल होली में
0
ईंट पर ईंट हो सहयोग की इस बार होली में
लगा सरिए सुदृढ़ कुछ स्नेह के मिल यार होली में
मिला सीमेंट सद्भावों की, बिजली प्रीत की देना
रचे निर्माण हर सुख का नया संसार होली में
0
न छीनो चैन मन का ऐ मेरी सरकार होली में
न रूठो यार लगने दो कवित-दरबार होली मे
मिलाकर नैन सारी रैन मन बेचैन फागुन में
गले मिल, बाॅंह में भरकर करो सत्कार होली में
0
करो जब कल्पना कवि जी रॅंगीली ध्यान यह रखना
पियो ठंडाई, खा गुझिया नशीली होश मत तजना
सखी, साली, सहेली या कि कवयित्री सुना कविता
बुलाती लाख हो, सॅंग सजनि के साजन सदा सजना
0
हुरियारों पे शारद मात सदय हों, जाग्रत सदा विवेक रहे
हैं चित्र जो गुप्त रहे मन में, साकार हों कवि की टेक रहे
हर भाल पे, गाल पे लाल गुलाल हो शोभित अंग अनंग बसे
मुॅंह काला हो नापाकों का, जो राहें खुशी की छेंक रहे
0
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी मोहे बरजो न राधिका
आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो मुॅंह ही न फेर ले साॅंसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाॅंवरे से साॅंवरे की कामना भी बाॅंवरी
बैन से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका
0
लाल-पीले गाल, नीली नाक, माथा कच हरा, श्याम ठोड़ी, श्वेत केशों की छटा है मोहती 
दंत हैं या दामिनी है, कौन कहें देख हँसी, फागुनी है सावनी भी, छवि-छटा सोहती
कहे दोहा पढ़े हरिगीतिका बौरा रही है, बाल शशि देख शशिमुखी,मुस्कुरा रही 
झट बौरा बढ़े गौरा को लगाने रंग जब, चला पिचकारी गोरी रंग बरसा गई 
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देवकी नंदन 'शांत'

सुकवि अभियंता देवकी नन्दन 'शांत' लखनऊ
जन्म दिवस पर शत अभिनन्दन
अर्पित अक्षत कुंकुम चन्दन
*
देवकी नन्दन शांत के लिए इमेज परिणाम

जन्म दिवस पर दीप जलाओ, ज्योति बुझाना छोडो यार
केक न काटो बना गुलगुले, करो स्नेहियों का सत्कार

देवकी नन्दन शांत के लिए इमेज परिणाम

शीश ईश को प्रथम नवाना, सुमति-धर्म माँगो वरदान
श्रम से मुँह न चुराना किंचित, जीवन हो तब ही रसखान

देवकी नन्दन शांत के लिए इमेज परिणाम

आलस से नित टकराना है, देना उसे पटककर मात
अन्धकार में दीप जलना, उगे रात से 'सलिल' प्रभात
*
शांत जी की एक रचना

देवकी नन्दन शांत के लिए इमेज परिणाम

दीपक बन जाऊँ या फिर मैं दीपक की बाती बन जाऊँ
दीपक बाती क्या बनना है दिपती लौ घी की बन जाऊँ

दीपक बाती घृत-युत लौ से अन्तर्मन की ज्योति जलाकर
मन-मन्दिर में बैठा सोचूँ, पूजा की थाली बन जाऊँ

पूजा की थाली की शोभा अक्षत चन्दन सुमन सुगंधित
खुशबू चाह रही है मैं भी शीतल चन्दन सी बन जाऊँ

शीतल चन्दन की खुशबू में रंगों का इक इन्द्रधनुष है
इन्द्रधनुष की है अभिलाषा तान मैं सरगम की बन जाऊँ

सरगम के इन ‘शान्त’ सुरों में मिश्रित रागों का गुंजन है
तान कहे मैं भी कान्हा के अधरों की वंशी बन जाऊँ

— देवकी नन्दन ‘शान्त’
स्व. श्यामलाल उपाध्याय जी को जन्मतिथि पर सादर श्रृद्धा-सुमन समर्पित.
*













हिंदी हित श्वास-श्वास जिए श्यामलाल जी,
याद को नमन सौ-सौ बार कीजिए.
प्रेरणा लें हम जगवाणी हिंदी को करेंगे,
हिंदी ही दीवाली होगी, हिंदी-होली भीजिए.
काव्य मंदाकिनी न रुके बहती रहे,
सलिल संजीव सँग संकल्प लीजिए.
श्याम की विरासत न बिसराइए कभी.
श्याम की संतानों ये शपथ आज लीजिए.
अभिन्न सखा
संजीव 'सलिल'
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