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बुधवार, 3 जनवरी 2018

navgeet

एक नवगीत-
*
सुनों मुझे भी
कहते-कहते थका
न लेकिन सुनते हो.
सिर पर धूप
आँख में सपने
ताने-बाने बुनते हो.
*
मोह रही मन बंजारों का
खुशबू सीली गलियों की
बचे रहेंगे शब्द अगरचे
साँझी साँझ न कलियों की
झील अनबुझी
प्यास लिये तुम
तट बैठे सिर धुनते हो
*
थोड़ा लिखा समझना ज्यादा
अनुभव की सीढ़ी चढ़ना
क्यों कागज की नाव खे रहे?
चुप न रहो, सच ही कहना
खेतों ने खत लिखा
चार दिन फागुन के
क्यों तनते हो?
*
कुछ भी सहज नहीं होता है
ठहरा हुआ समय कहता
मिला चाँदनी को समेटते हुए
त्रिवर्णी शशि दहता
चंदन वन सँवरें
तम भाने लगा
विषमता सनते हो
*
खींच लिये हाशिये समय के
एक गिलास दुपहरी ले
सुना प्रखर संवाद न चेता
जन-मन सो, कनबहरी दे
निषिद्धों की गली
का नागरिक हुए
क्यों घुनते हो?
*
व्योम के उस पार जाके
छुआ मैंने आग को जब
हँस पड़े पलाश सारे
बिखर पगडंडी-सड़क पर
मूँदकर आँखें
समीक्षा-सूत्र
मिथ्या गुनते हो
***
३.१.२०१६
टीप - वर्ष २०१५ में प्रकाशित नवगीत संग्रहों के शीर्षकों को समेटती रचना।

दोहा दुनिया

शिव-परिवार न जन्मना,
नहीं देह-संबंध.
स्नेह-भावना तंतुमय,
है अनादि अनुबंध.
.
शिवा-पुत्र शिव का नहीं,
शिव लें अपना मान.
शिव-सुत अपनातीं शिवा,
छिड़कें उस पर जान.
.
वृषभ-बाघ दुश्मन मगर,
संग भुलाकर बैर.
कुशल तभी जब मनाएँ,
सदा परस्पर खैर.
.
अमृत-विष शशि-सर्प भी,
हैं विपरीत स्वभाव.
किंतु परस्पर प्रेम से,
करते 'सलिल' निभाव.
.
गजमुख गणपति स्थूल हैं,
कार्तिक चंचल-धीर.
कोई किसी से कम नहीं,
दोनों ही मति-धीर.
.
गरल ताप को शांत कर,
बही नर्मदा धार,
शिव-तनया सोमात्मजा
दर्शन से उद्धार.
.
शिव न शत्रुता पालते,
रहते परम प्रसन्न.
रहते खाली हाथ पर,
होते नहीं विपन्न.
.
3.1.2018

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

laghukatha

लाघुकथान्कुर: १
सुनीता सिंह
*
लघुकथा - हिसाब
रीमा दफ्तर से घर पहुँची, शाम के छः बज चुके थे। दरवाज़े का ताला खोल ही रही थी कि पड़ोस की दो महिलाएँ वहाँ से गुजरीं। उनमें से एक महिला बुजुर्ग तथा दूसरी मध्यम उम्र की थी। रीमा ने एक माह पूर्व ही अपने पति विहान के साथ वहाँ रहने आई थी। उन महिलाओं ने शिष्टाचारवश रीमा से हालचाल पूछा। जैसे ही उन्हें पता चला कि रीमा नौकरी करती है, दोनों महिलाओं की आँखों में एक चमक सी आ गई। बुजुर्ग महिला बोली "बेटी, तुम बहुत भाग्यशाली हो। तुम्हारे हाथ में अपनी तनख्वाह का पैसा होता है। पति के सामने हर जरूरत के लिए हाथ फैलाने की जरूरत नहीं होती। जब-जहाँ जरूरत हो खर्च कर सकती हो, मन मसोसकर कर आँसू बहाने की जरूरत नहीं होगी।"
फिर दूसरी महिला बोल पड़ी "एक हम लोगों को देखो। पति से माह भर के खर्च के लिए एकमुश्त रकम मिलती है और हमें महीना खत्म होने पर एक-एक पैसे का हिसाब देना पड़ता है। समय से पहले पैसे ख़त्म होने या कम पड़ने पर चार बातें सुननी पड़ती हैं कि कैसे कम पड़ गया? तुम फालतू खर्च कम किया करो। उस वक्त बहुत ख़राब लगता है। अच्छा है, तुम्हें इन सब से नहीं गुजरना होता।"
इतना कहकर वे अपने अपने घर चली गईं। रीमा के दिमाग में उनकी कही बातों में छलका गहरा दर्द काफी देर तक बादलों की तरह घूमता रहा।
@सुनीता सिंह (2-1-2018)
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navgeet

नवगीत : घोंसला * घोंसले में परिंदे ही नहीं आशाएँ बसी हैं * आँधियाँ आयें न डरना भीत हो,जीकर न मरना काँपती हों डालियाँ तो नीड तजकर नहीं उड़ना मंज़िलें तो फासलों को नापते पग को मिली हैं घोंसले में परिंदे ही नहीं आशाएँ बसी हैं * संकटों से जूझना है हर पहेली बूझना है कोशिशें करते रहे जो उन्हें राहें सूझना है ऊगती उषा तभी जब साँझ खुद हंसकर ढली है घोंसले में परिंदे ही नहीं आशाएँ बसी हैं * १२-१-२०१६

suneeta singh

नवगीत के नए हस्ताक्षर - सुनीता सिंह 


संक्षिप्त परिचय- 
नाम: सुनीता सिंह। 
पदनाम: सहायक मुख्य निर्वाचन अधिकारी, उत्तर प्रदेश।  
कार्य/ सेवा: सरकारी सेवा। 
जन्म तिथि: १-७-१९७७। 
शिक्षा: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परा स्नातक। 
डाक का पता: ७/४५९, सेक्टर ७, जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ।    
चलभाष--९४५४४१८१२०। 
***
नवगीत
१. झीनी चदरिया
.
झटके मन को कैसे कैसे
मिलते रहते ऐसे वैसे
खींच फटे न झीनी चदरिया
पांव छिपाते जैसे तैसे।
मिलते आते जाते लोग
भोग चाहते रमते जोग
बेनकाब होते ही उनकी
इबरत को लग जाते रोग
बिछी खाट चौपाल दुअरिया
मिलनसार दिखते हैं कैसे।।
नेता की थाली है सस्ती
रोटी को तरसी है बस्ती
कुलबुल करती भूख पेट में
दो कौड़ी की बिकती हस्ती।
बजी दुगदुगी सुने नगरिया
कोई तो दे जाए पैसे।
पढ़ना लिखना उन्हें सिखा दो
मुफलिस का उद्वार करा दो
बेगारी से मुक्त करें मिल
नव उन्नति की राह दिखा दो।
हँसी बिखेरे आठ पहरिया
मरे न अब तक मरते जैसे ।।
खींच फटे न झीनी चदरिया।
पांव छिपाते जैसे तैसे।।
*
२. झुनझुना
.
रुनझुन रुनझुन करता रहता
पीर झुनझुना पैहम बजता
अपना दिल शफ्फाक रहे
सब वादे इरादे पाक रहें
सबके अपने उल्लू है
सीधा करने ताक रहे
शाख छेकाकर जाते बैठ
वर्चस्व उन्ही का हर शै रहता।।
जब भी मन को समझाया
कठघरे मे खुद को पाया
तोड़ा जिसने खुद को मुंसिफ
हमको मुजरिम पाया
अब तो सभी से ये मन
भरा हुआ सा मानो लगता।।
बुद्धिमता जग फैली
बस हमको ही नही मिली
व्यवहार कुशल चितेर बहुतेरे
पंक गुलाब पंखुड़ी खिली
फिर क्यों सबके भीतर सूना
सन्नाटा सा पसरा लगता।
*
३. भीड़
.
भीड़ पर भारी सड़क है
या सड़क पर भारी भीड़
जिधर भी जाओ
उधर मिलेगा
भीड़ भाड़ का
जाम मिलेगा
पी पी पौं पौं
पम पम चिल्ल पौं
फटफटिया
परवान मिलेगा
चले कतार चींटी की चाल
एक पहर वहीं बन जाये नीड़
भीड़ पर भारी सड़क है
या सड़क पर भारी भीड़
होड़ लगी है
जहाँ भी देखो
आड़े-तिरछे लघु पथ के
अनुगामी देखो
साम दाम संग
दंड भेद में
सिद्धहस्त
मनमानी देखो
बला सी है नैतिकता उनको
बड़ी भी इतनी जैसे चीड़
भीड़ पर भारी सड़क है
या सड़क पर भारी भीड़
तेज बड़ी रफ्तारो मे
पैहम भागने वालो मे
गति अवरोधक जो
आ जाते सहसा राहों मे
दुर्घटनाओं का
डर का परचम रखते है
उड़ना अच्छा है लेकिन
कुछ लगाम जरूरी चाहों मे
मद्धम मद्धम चाल रहे
सहने लायक फिर हो पीड़
भीड़ पर भारी सड़क है
या सड़क पर भारी भीड़
*
४. सफर
.
सफर मे मत पूछो रे भाई
कब कैसे कितनी आफत आई
रेलगाड़ी जैसे
छुक छुक करती चलती
जिन्दगी वैसे ही
रुक रुक आहें भरती
कभी बुलेट सी
सरपट होती
कभी उतर पटरी से
दुर्घटनाएं करती
वहीं दगा की बारी आई
समझा जहाँ नियामत आई
शुक्र खुदाया
लख लख तेरा
येन केन जैसे भी तूने
दिया उबार दिल मेरा
सहयोग सहायता राशि सा
मिल सके कभी क्या जाने
उजड़ी मेरी धरती
बिखरा अम्बर मेरा
सोचकर दिल बैठा जाये
मुझी पर क्यो कयामत आई
चंद लम्हो की होती
रूहो की मुलाकातें
पुरकशिश पर बड़ी होती
पल दो पल की सौगातें
सफर सबका अपना
अपने ही स्टेशन है
साथ का तो पता नही
दिलकश बड़ी हो बातें
चेतन होकर जिया नहीं
समझो तो फिर शामत आई।।
सफर मे मत पूछो रे भाई
कब कैसे कितनी आफत आई
*
५. रीति
.
काज परोज के होते रंग
रिवाज रीति के संग।।
ब्याह शादियों के घर पर
थाप ढोलकों की बजती।
संझा के गीतों मे
आलाप माटियों की सजती।।
हो गयी अनुगूँज जैसे
धूप ढलती बच निकलती
खोये जाते सुर के गुंचे
गूंजते स्पीकर पर
संगीत के अनुनाद
सहज स्वीकार कर
दूर देश से आते ढंग
तीज पर त्योहारों पर
उल्लासित मन जाते कर
सब धर्मो के रंग भरे
स्याह उदासी जाते धर
जब्त सफर मे संग रहे
दिल मे खिली तरंग रहे
स्वार्थ भंग क्यों करते लोग
अमृत घट विष भरते लोग
राजकाज के वश मे
क्यो जहर छोड़ते कश मे
ढंग क्यो होते बेढंग
असर विदेशी चाहे
आए जितना भी जब तब
पूछ लो इतिहास से
आकर रम जाएगा सब
देशी रंग की रंगत मे
फ्यूजन की संगत में
नव खुशबू नया कलेवर
नव स्वादो के नव फ्लेवर
मृदंग ताल शिव डमरू को
का विष चन्दन के तरू को
लिपटे भल लाख भुजंग।।
*
६. इंतजार
.
इन्तिहा की हद
दिखाता है।
इंतजार जब बेहद
हो जाता है।।
पागलों सा ढूंढता दिल
जिस किसी भी चीज को
बस खिंचता जाये बरबस
पुरकशिश नाचीज को
गुरूर का आलम वहीं
उस शय मे बाकायदा
कर शरायत जाता है
दूरियां मीटर नही
बढ़ती किलोमीटर मे
सजदा हुआ अगर
कभी किसी दहर में
तय जानिये हुजूर
मुमकिन भी तब
नामुमकिन हो जाता है
आसमानी वादों की
लम्बी फेहरिस्तें
गगनचुंबी
अमृतवेलों की
मनभावन किस्तें
जुबानी फरिश्ते
रेतमहल जैसे हवा के
मन्द झोके से पल भर मे
सदा के लिए भरभराता है।।
*
७. बूढ़ी आँखें
.
ढल चुकी उम्र की
आखिरी दहलीज है।
उन बूढ़ी आँखो की
तजल्ली बड़ी चीज है।।
चेहरे की सलवटो पर
सन लटो की करवटो पर
बसन्त पतझड़ के नजारे
गौर से पढ़िए तो सारे
परछाईयां वो जिन्दगी की
दुश्वारियाँ बाशिंदगी की
मिली वंशबेलो से उनको
तसल्ली बडी़ चीज है।।
उन बूढ़ी आँखो की
तजल्ली बड़ी चीज है।।
अपनी माटी से हो दूर
रोजी रोटी मे मजबूर
कुछ रोकड़ो की खातिर
खेल दिखाते हो शातिर
उनका धन लूट लिए जाते हो
सहारे पर किसके छोड़े जाते हो
गैरो की रहमत पर बरसा
खारापन बड़ी चीज है ।।
उन बूढ़ी आँखो की
तजल्ली बड़ी चीज है।।
रूह की राहत का
अपनेपन की चाहत का
दो मीठे बोलो की
नन्ही प्यारी कोशिशों की
भागती दौड़ती जिन्दगी से
कुछ पल देना बचा किसी से
छीनते क्यो हो ये
दौलत बड़ी चीज है ।।
उन बूढ़ी आँखो की
तसल्ली बड़ी चीज है।।
*
८. गुरूर
.
उबल रहा गुस्से में
मन में होती जंग
कट गई हवा में
ऊंची उड़ी पतंग
खुद के आगे  औरों की
बनने दें पहचान नहीं
अपना तो अभिमान रहे
दूजे का स्वाभिमान नहीं
गुरूर का भी रूप यही
देखो चुरा लिया लम्हों ने
वक्त हुआ जब तंग
कट गई हवा में
ऊंची उड़ी पतंग
पीटकर ढिंढोरा
खुदी किया अपना इश्हार
परहित जीना  छोड़ दिया
गाथा अपरंपार
साधे जो मन को
सध जाए जीवन
पड़े न रंग में भंग
कट गई हवा में
ऊंची उड़ी पतंग
ऊपर मीठा  लेप लगा
विष भरा अंदर
गुना विचारा अगर नहीं तो
नाच नचायेगा बंदर
जग चलन पे न हो दंग
अति का भोलापन भी
कर जाएगा तंग
कट गई हवा में
ऊंची उड़ी पतंग
*
९. बवंडर
.
बवंडर
खट्टी मीठी यादों का
दे जाता निस्तब्ध मौन

परवाह आसमां पर
लिखे  अशआर
रूहानी चाह
फलक को भी
कर जाती पार
दिखते तो
माकूल हैं पर
निभा पाता है आखिर कौन
सूखे हरे पत्तों का
अंधेरो का
उजालों का
घनघोर बियाबान
ठूंठ होते
जंगलो सा
एक-एक कर मरती सांसे
यादों के सिवा फिर
बचा पाता है कौन
इरादो का
ज़हर हवा में
घोलते हो
विष जार का मुंह
पारिस्थितिक में
खोलते हो
एहसास हों
या प्राणवायु
जाते कुम्हला आते बौर
*
१०. बिखराव
.
साजो-सामान सब
टूटने का बिखरने का
मुफ्त है बाजार में
माया की नगरी
खूब लुभाती
मन भाती
पुरकशिश लगती
समझ मे पर
नहीं आती
मन बुद्धि को
न कुंद कीजिए
सामाजिक व्यवहार में
अमृत के बदले मे
विष भी
मिल सकता है
कमल, गुलाब के संग
खरपतवार भी
खिल सकता है
पीड़ा का ही
तोहफा मिलता
पीड़ा के व्यापार में
नाउम्मीदी का
सूखा सा कुआं
बिलखता जल को
बेजान होते
रिश्तों का धुंआ
उड़े झरोखों से निकल वो
या रब बता जरा
ये मंजर कैसा
इस सुंदर संसार में।।
*
११. सच का भान
.
वादो के
अन्दर की बाते
देख लिया है,
जान लिया है
होती क्या है
सौगातें
झूठे ख्वाब
दिखाती रातें
मन का मनका
फेर रहे
ऐसे भी तो
होती है बाते
अल्फाजो के
मीठे सच को
अब हमने पहचान लिया है ।
कंठ कोकिला
का मीठा है
निम्बोली का
रस तीखा है
दोनो मिलते
इंसानो में
कितना उसका
मन रीता है।
सहअस्तित्व
विरोधी बाते
सम्भव हमने मान लिया है ।।
ऊंचा ताड़ सा
खड़ा हुआ है
नीम अकेले
बड़ा हुआ है
फल नही
छाया नही
गुरूर मे ही
तड़ा हुआ है ।
क्या होगा जब
गिर जायेगा
मन मे सबने भान लिया है।।
*
१२. फ़लसफ़ा जिंदगी का
.
रेत के
दरिया सी
हो चली है जिंदगी
अति ताप है
अति शीत भी
नेह शबनम को
तरसती सीप भी
यत्र-तत्र ही
बिखरे हैं
हरियाली के
गीत भी
खुद ही से है
शत्रुता पर
साथ ही है बंदगी
रेत के
दरिया सी
हो चली है जिंदगी
जश्न क्या हो
मन अकिंचन
अपना मन ही
अपना दर्पन
चलचित्र अनोखा
चलता रहता
कम समरस ज्यादा
अनबन दर्शन
यादें शींरीं
कम आती हैं
कड़वी तो अंबार लगी
रेत के
दरिया सी
हो चली है जिंदगी

जिधर भी देखो
बेजारी है
बस्ती-बस्ती
बेदारी है
खिदमत को
हाजिर हो जब
पड़ी जरूरत की
बारी है
बातें दिलकश
अंदाज निराले
और पुरकशिश नुमाइंदगी
रेत के
दरिया सी

हो चली है जिंदगी।।
उड़ जायें वादे
संग हवा के
जैसे रुई के फाहे
हो आजाद दुआ से
देते सीख बड़ी
उपदेशक रहबर
हो जाते क्यों फिर
बेरहम फिजां में
पीड़ा के
कोहसार मिले पर
आस की दिल मे शमां जली
रेत के
दरिया सी
हो चली है जिंदगी।।
(कोहसार -पहाड़, रहबर-साथी, शींरी -मधुर, बेजारी -- उदासी, बेदारी -- नींद रहित )
*
१३. नक्काशियाँ
.
मन भवन की
देहरी पर
प्रीत की नक्काशियां।
छेड़े मौसम
पवन साज पर
संगीत की धुन,
गुनगुनाता
है पपीहा
सुर मधुर चुन।
जैसे राजमहल में,
बाद बरसो,
गूंजती किलकारियां।।
मन भवन की
देहरी पर
प्रीत की नक्काशियां।

रूह करती
रूह से मिल
अकीदतों की बारिशें
क्या पता मिले
कब अनावृष्टियाँ
फिर बूंद को भी गुजारिशें।।
घनघोर कारे
घिर आए बदरा
सुनामी सी दुश्वारियां।।
मन भवन की
देहरी पर
प्रीत की नक्काशियां।

नीर भरकर
व्यथित नयना
टूटते जलभार से,
चिंद टुकड़े
हो गया उर
यादों के गलहार से।।
कोहसार दर्द का
पसरी दरमियां
बर्फ सी रुसवाईयां।।
मन भवन की
देहरी पर
प्रीत की नक्काशियां।

प्रेम सोता सूखता,
सूर्य तपता

मन गगन पर,
पीली पत्तियां पतझड़ो की
सज गईं
अंतर -चमन पर।।
उगे अंतराल पर
बीज आस से
रोप दी हैं क्यारियाँ।।
मन भवन की
देहरी पर
प्रीत की नक्काशियां।
(अकीदत -- लगाव, कोहसार -- पहाड़)
*
१४. सर्दी
.
कम हो गयी
तपन सूर्य की
ऋतु सर्दी की आई।।
घर कूचे से सोंधी-सोंधी
उड़ती गुड़ की खुशबू।
लड्डू तिल के
सफेद काले
आग में भुनते
शकरकंद संग आलू।।
साथ दही पोहे के,
मीठा लक्ठा , लाई
बनती मुरमुरा मिठाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
शाक थाली
भाजी हरियाली
चना, बथुआ, सरसों,
चाय कॉफी
गरम पेय की
तलब सी लगती मन को
रंग बिरंगे फूलों की,
उपवन गमले क्यारी में,
सुंदर आभा छाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
धूप सेंकने निकले,
बंद पड़े संदूकों में,
मफलर स्वेटर शाल।

रौनक है महलों में लेकिन,
फुटपाथों पर जीवन,
ठिठुरन से हुआ मुहाल।।
रैन बसेरे कमतर, जँह तँह
आग अलाव की जलती
झोपड़ियों मे आफत आई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
सांझ सवेरे
भीगी शबनम
कोहरे का सन्नाटा।
हवा सनसनी
ठंडा पानी
छुट्टी मुश्किल सैर-सपाटा।।
स्वर्गिक सा लगता
सुख जैसे
बैठे रहना ओढ़ रजाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
सूरज का भी
देरी से अलसाई
आँख लिए आना।
लेकिन जल्दी
समेट धूप को
वापस घर को जाना।।
रातें लंबी दिन छोटे
मच्छर मक्खी धरा,
मेघ की नभ से हुई विदाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
कांप रही
हेमंत रात्रि
शिशिर बना हिमकण
ठिठुर रही हैं
चतुर्दिशाएं
मूक विहग के गण।।
छाया ने पी
लिया हो जैसे
बर्फ मिली ठंडाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
पौध धान की
लदी बालियां
कटने को तैयार
मकई बाजरे के
स्वागत में
सजते हाट बाजार।।
मद्धम बहती पुरवाई में

हरित खेत पर छाई
पीली सरसों की तरुणाई।।
ऋतु सर्दी की आई।।
(लक्ठा-- गुड़ और बेसन से बनी एक प्रकार की मिठाई; लाई-- चावल का बना लइया अथवा मुरमुरा; )
*
१५. पेड़
.
पेड़ हमें
जीवन देते हैं
पेड़ों को मत काटिए।
वंशबेल मत छांटिए।।
संतति आगे पूछेगी
किया ये तुम लोगों ने क्या
जन्म हमें दे दीना लेकिन
और दिया तुम लोगों ने क्या।
हवा जहर से भरी हुई
दम घोंटेगी तड़ी हुई
चेत अभी से जाइए।
पेड़ों को मत काटिए।
वंशबेल मत छांटिए।।
सरपत नरकट इमली जामुन
पीपल बरगद नीम कम हुए
गौरैया की चीं चीं गायब
कंक्रीटों के हुए पहरुए।
पंछी नीड़ बनाएं कैसे
चहके गीत सुनाएं कैसे
खाई को पाटिए।।
पेड़ों को मत काटिए।
वंशबेल मत छांटिए।।
सुविधाओं की भेंट चढ़ी
कुहकी पेड़ों की डाली
छीन रहे हम सासें उनकी
जो पाले हमको बन माली।।
एहसान भले न मानिए
चिट अपनी पट खेलिए
पर नेक परंपरा डालिए।।
पेड़ों को मत काटिए।
वंशवेल मत छांटिए।।
*
१६. स्वाद अदरकी
.
दहर अनोखी
स्वाद अदरकी
अब जाने बन्दर ही।।
जोड़ तोड़ कर
डिग्री लेकर
बनते पोथी के विद्वान
हंस बने
फिर बगुलों में
चौपालों की होते शान।
ज्ञान समंदर
भरा हुआ
आखिर उनके अंदर ही।।
दहर अनोखी
स्वाद अदरकी
अब जाने बन्दर ही।।

बाँचे दफ्तर
राजनीति में
महापुराण चटुकारी की
सांसें भी
गिरवी जैसे
रखी चंद उधारी की
समझाए देते
शलजम भी
होता एक चुकंदर ही।।
दहर अनोखी
स्वाद अदरकी
अब जाने बन्दर ही।।

मौन विद्वता
मुखर स्वरों में
खारिज हो आसानी से
जीत कोई
क्या सकता कर
बहस मूढ़ अभिमानी से।।
बने हुए
शुभचिंतक पर
होते पूर्ण पुरंदर ही।।
दहर अनोखी
स्वाद अदरकी
अब जाने बन्दर ही।।
(दहर-दौर, पुरंदर -किला ढहाने वाला)
*
१७. दोहा नवगीत
सोन चिरइया
.
सोन चिरइया
कह रही
मेरे आँसू पोंछ...
जन्म लिया जिसने नहीं,
सकी न दुनिया देख।
भ्रूण अजन्मी मारते,
पालक निर्दय लेख।।
मुझे समझते तात क्यों,
निर्बल अबला दीन,
आने दो मारो नहीं,
जुर्म न हो संगीन।।
चिंतन की
सँकरी गली,
मकड़जाल सी सोच।
सोन चिरइया
कह रही,
मेरे आँसू पोंछ...
हाट गुबार बजार में,
रावण है चहुँ ओर।
है दहेज़ दानव खड़ा,
मुँह बाए पुरजोर।।
दावानल धधके कहीं,
घायल हर माँ-बाप।
जलती यदि बिटिया कहीं,
जीवन हो अभिशाप।।
ढाई आखर
काम के,
ले अक्षत संग खोंछ।
सोन चिरइया
कह रही,
मेरे आँसू पोंछ...
*
१८. दोहा नवगीत
नारी
.
गीली लकड़ी
सी जले,
धुआं नहीं
पर होय।।
बन पुरातन अधुना भी,
नीड़ सजाती जाय।
बासों के झुरमुट पर,
गौरैया बन जाय।।
बतरस मीठा घोलती,
नारी संगतराश।
जिंदगी अभिराम करे,
जैसे फूल पलाश।।
सावन की कजरी बने,
पीर न जाने कोय।
गीली लकड़ी
सी जले,
धुआं नहीं
पर होय।।

पीहर को पाती लिखे
नव ब्याही संताप।
फाड़ फेंक रद्दी करे,
अपनी रहबर आप।।
साज रही कपड़ा लत्ता,
पोत लीप घर द्वार।
खटती चौखट साजती,
सर्वोपरि परिवार।।
प्रलय प्रभंजन सह जाती,
काँट न मन में बोय।
गीली लकड़ी सी जले,
धुंआ नहीं पर होय।।
*
१९. क्या कह सकोगी?
.
क्या सोच कर

आयी यहाँ पर
और क्या तुमको मिला
क्या कह सकोगी
चुन लिया माँ-बाप तुमने
इस धरा पर
आगमन को
ये बताओ
देह देकर आत्मा को
कर लिया
अपना चमन को
ये कहो तो
थे ख्वाब जीने
के सुनहरे
पर मिला तुमको सिला
क्या कह सकोगी
जब चला था
ये पता कि आई
कोख में चाँदनी है
ये बताओ।
वो हलचल तब समां की
सांस कैसे घोंटनी है
ये सुनाओ।।
आयी जिनको स्व मान
उन निर्मोहियों से
क्या गिला
क्या कह सकोगी
चलती सांसो पर चली
जब कैचियों
की धारियां
ये तो बताओ
कट रहे थे
एक एक कर सब
अंग की थी बारियाँ
ये सुनाओ।
फिर मौन चीखो
से निकलता
आह का होगा धुआं
क्या कह सकोगी।।
*
२०. रवानी
.
नीर की बहती रवानी
पीर जैसे हो पुरानी
आँख पर
सजती रहे, ढरती रहे।।

संस्कृति की साज
पर ही शोभती
अल्फाज की फुलवारियाँ।
दर-दर भटकती
आस पर लद
हँस रहीं दुश्वारियाँ।।
तम कहर से
हर दहर तक
कर सफर चलती रहे।
उम्मीद हर
पलती-सँवरती भी रहे।।

कुमुदिनी पहचानती
तट-ताल की
सब शबनमी
गुस्ताखियाँ।
हँस मौसमों की
मार की सह
जाती सभी नादानियाँ।।
अभिराम उसकी

आँख में
नव झलक भी
भरती रहे
नीर पर सजती रहे, खिलती रहे।।
*
२१. सूखा दरख्त
.
ऐ उजड़ते दरख्त की
सूखी टहनियों!,
ठूँठ होती जा रही हो।
क्या समूचे रस धरा ने
सोख डाले हैं
ऐंठती क्यों जा रही हो?
गुँथ गई उलझी
लताओं की शिराएँ सूख कर,
छीन सूरज ने लिये
क्या नेह के प्रतिमान सब?
दानव कुपोषण का
गया क्या लील
तुमको भी यहाँ?,
क्या लौटना
संभव कभी
फिर पल्लवित-पुष्पित जहाँ।।
ऐ तिश्नगी में हारती
दम तोड़ती तरुवर लताओं?,
किस दिशा में
आस का दीपक
जलाती जा रही हो?
क्या समूचे रस धरा ने
सोख डाले हैं,
ऐंठती क्यों जा रही हो?
ये बताओ!
सुलझ उलझी
किस तरह बेलें तुम्हारी?,
गुत्थियाँ

सुलझा रही थी
बेतहाशा बीच भारी?
तार भावों के
बने जंजाल
जहनम जिस तरह।
जा रही दोजख
लताएँ शुष्क
होकर उस तरह।।
ऐ नीरस मौसमों के
बीच में त्यागी
गई तरु वेलियों!
नीड़ में उम्मीद की
कोंपल उगाती जा रही हो।।
क्या समूचे रस धरा ने
सोख डाले हैं,
ऐंठती क्यों जा रही हो?
*
२२. नीलकंठ
.
नयन पट खोलिए
न बैठिए कुम्हलाई के
यूं मन चमन में।
नीलकंठ बन जाइए
फैलाइए पंछियों
सा पर गगन में।।
इबरतें हैं जिंदगी की
हर फिजां की
पुर-तसव्वुर
न उदास रहिए।
तकलीफ या कि
पीर हो
उसका भी कोई
फलसफा है
आस रखिए।।
दीपक जलाए रखिए
सजाए रखिए
जुगनुओं को अंजुमन में।।
नीलकंठ बन जाइए
फैलाइए पंछियों
सा पर गगन में।।

सुबह की

अपनी है रौनक
शाम की अपनी रुबाई
निगाह रखिए।
नीम दोपहर की तपन की
बंदिशों को
तमाम करिए
तबाह करिए।।
तपिश जीवन की जलाए
खाक बनिए बन
निकलिए गुल तपन में।।
नीलकंठ बन जाइए
फैलाइए पंछियों
सा पर गगन में।।
*
२३. निर्झर
.
बन के निर्झर रात दिन
बहता रहे नित
शुष्क रग की वादियों में।
सोता दर्द का क्यों, सूखता नहीं?
ऐ हवाओं पर्ण तुमने
पेड़ से क्यों तोड़ दीना।
वक्त की धारा चली थी
राह जो क्यों मोड़ दीना।।
मोड़ कोई अब तो, सूझता नहीं।।
सोता दर्द का क्यों, सूखता नहीं।।
पीर उर में छुप रहा है
दस्यु जैसे बीहड़ों में।
मार दो मुठभेड़ में
प्रेषित रसद या चीथड़ो में।।
समर्पण नाशाद खुद करता नहीं।
सोता दर्द का क्यों सूखता नहीं।।
वो चट्टान थी फौलाद सी
जो दिख रही थी एकजुट।
भूगर्भ की बस एक हलचल
हुआ प्रकट मजबूत पुट।।
फिर उन्माद का सुर , फूटता नहीं।
सोता दर्द का क्यों, सूखता नहीं।।
*
२४. पर्दाफाश
.
कितने पर्दाफाश हुए हैं,
गर्द भरे आकाश हुए हैं,
अलख निरंजन है ज्ञानी की,
अंदर मुर्दा लाश हुए हैं।।
अनंत काल से संत मुनि जन
मूल्यों पर कर चिंतन मंथन
करें अमल फिर राह दिखाते
तब महिमामंडित हो पाते।।
विषम समय उपमान सभी अब
नैतिकता को पाश हुए हैं।।
अलख निरंजन है ज्ञानी की
अंदर मुर्दा लाश हुए हैं।।
मजबूर समय के मारों के
दुर्दिन के खास दुलारो के
दलदली अनैतिक पंक छिपा
गुलदार कढ़ी कालीन बिछा,
मुंह मे राम बगल मे छूरी,
क्यों बौने आकाश हुए हैं।।
अलख निरंजन है ज्ञानी की
अंदर मुर्दा लाश हुए हैं।।
गर गिरफ्त में फंसे घिसटते,
पियें जहर संताप सिमट के,
कैद तमस चौदह तालों में
मिटता अस्तित्व निवालों में।
सत्ता पर गर हुए विराजित,
रावण कंस विनाश हुए हैं।।
अलख निरंजन है ज्ञानी की,
अंदर मुर्दा लाश हुए हैं।।

*
२५. स्वागत
.
नए साल का स्वागत कर लें।
संकल्पों का फिर घट भर लें।।
बदलता मौसम रंगमंच है,
परंपरा का इंद्रधनुष है,
मेघों की हो गई विदाई,
शिशिर पर जिम्मेदारी आई।
कुछ कँपकपी ले आएगा,
ऐसे ही थोड़े जाएगा।
परिधानों भाषाओं की अब,
माला रंग बिरंगी कर लें।।
नए साल का स्वागत कर लें।
संकल्पों का फिर घट भर लें।।
नए वर्ष का सेलिब्रेशन,
भिन्न भाग में भिन्न अवतरण।
असम में 'बीहू' वहीं केरला,
'पूरम विशु' के रंग में ढला।
'उगादी' आंध्र में तमिलनाडु,
जाये मनाता पुत्थाण्डु।
महाराष्ट्र में मुड़ीपड़वा,
दिल खोलें आवभगत कर लें।।
नए साल का स्वागत कर लें।
संकल्पों का फिर घट भर लें।।
हुए नदी तालाब लबालब,
उमंग में सब तब हर मजहब।
प्रथम हुआ आनंद पृथक है,
प्रथम पुलक की मिले झलक है।
स्पर्श बारिश प्रथम फुहार का,
नव प्रभात खग प्रथम गान का।
पहले पल्लव की अगुवानी,
हिम शैलों से प्रस्फुटित पानी।।
संगीत मधुर प्रथम नमन का।
लय धुन सुर से सभी सँवर लें।।
नए साल का स्वागत कर लें,
संकल्पों से फिर घट भर ले।।
*
२६. नव संवत्सर
.
फिर नव संवत्सर आया।
लिए कामना मंगलमय शुभ,
संदेशों के अवसर लाया।।
नए साल की बाट जोहती
उत्सव की फुलवारी बेहद।
पर्वो की बहुरंगी झांकी,
निरखे मन हो जाए गदगद।।
सूर्य चंद्र की बदली चाल,
थोड़ा सूरज भी अलसाया।।
लिए कामना मंगलमय शुभ,
संदेशों के अवसर लाया।।
दर्शन वाले देश में चली,
हवा प्रदर्शन वाली अब तो।
आचरणों के आवरणों पर,
स्वीकृत ताजा तड़का सबको।।
ज्ञानी की मूरत हैं लेकिन,
फंडा ये कितना मन भाया।।
लिए कामना मंगलमय शुभ,
संदेशो के अवसर लाया।।
यहां दिखाऊ बना रिझाऊ,
नहीं जरूरी रहे टिकाऊ।
कुछ और भी हो, नहीं विशेष,
मिलता फेस को पूरा स्पेस।।
नहीं बूंद भर चाहत अंदर,
बाहर पर सागर छलकाया।।
लिए कामना मंगलमय शुभ,
संदेशों के अवसर लाया।।
*
२७. न्यू ईयर का जश्न
.
रौ में पूरे होनहार,
नैतिकता के खेवनहार,
न्यू ईयर का जश्न मनाएं।।
मन में छुपा हुआ है शूल,
मुंह में खिला हुआ है फूल।
भीतर फांस भड़ास छुपाये,
शुभकामना उमड़ रही निर्मूल।।
और भी बड़ा कमाल

उन दिग्गजों का
झेल रहे जो होकर कूल।।
हम तो सबकी खैर मनाएं।
न्यू ईयर का जश्न मनाएं।।
अशुभचिंतक सच्चे उतने,
शुभचिंतक झूठे हैं जितने।
होड़ लगी जी तोड़ रही है,
जीते ग्रेड हैं किसने कितने।।
स्वांग रचे एहसास बिना जज्बाती।
भ्रम मंजरी भावुकता की,
खामी को खूबी कर जाए।।
न्यू ईयर का जश्न मनाए।।
हार्दिकता की शोबाजी,
प्रदर्शनी में ताजी ताजी,
हो रही साझा खुशियां करने की,
धुआंधार ड्रामेबाजी।
दिल नहीं,
प्रदर्शनी दिल की काम करे,
बाजार कर गुलजार जाये।
न्यू ईयर का जश्न मनाएं।।
*
२८. मुखौटा कल्चर
.
गुलमोहर से अधिक मनोहर
दौर मुखौटा कल्चर का।।
टाइल से भी
चिकनी ज्यादा लगती है
स्टाइल की दावेदारी।
गूढ़ अर्थ हैं छुपे हुए,
स्माइल में बारी-बारी।।
नाम बड़ा हो गया है अब,
बेखौफ उड़ते वल्चर का।।
गुलमोहर से अधिक मनोहर,
दौर मुखौटा कल्चर का।।
नए साल का मौका है,
स्वच्छंद जश्न का धूम-धड़ाका।
आत्ममुग्धता ओतप्रोत हो,
पहने नवीनता का जामा।।
लगे आर्किटेक्चर बदला सा,

आधुनिक स्कल्पचर का।।
गुलमोहर से अधिक मनोहर,
दौर मुखौटा कल्चर का।।
कच्ची या ठर्रा से आगे,
हुए उतारू अंग्रेजी पर।
प्रगतिशीलता शान यही,
पहचान नशे की रंगरेजी पर।।
तीरंदाज धुरंधर जो,
पता बता दे टेक्सचर का।।
गुलमोहर से अधिक मनोहर,
दौर मुखौटा कल्चर का।।
(वल्चर-- गिद्ध, चील ; स्कल्पचर -- मूर्तिकला; टेक्सचर -- बनावट, बुनावट )
*
२९. अनूठी दुनिया
.
दुनिया बड़ी अनूठी है।
पर उतनी ही झूठी है।।
माहौल सजे मेकअप सुंदर,
जमाना हुआ बनावट का।
दिखावट का, सजावट का,
बर्फ के जैसा लगता,
ये तासीर तरावट का।
ऊपर से ठंडा अंदर,
उलझी उलझन खाती ,
जाती खौलाहट का।
कुदरत भी लगती मानो,
खुद से जैसे रूठी है।
दुनिया बड़ी अनूठी है,
पर उतनी ही झूठी है।।
बीमार हैं पर अनारदाने,
जैसा दिखने का हुनर है।
आवरण है, अनावरण है,
मुस्कुराने की कला,
के अपने फ्लेवर हैं।
लगाव नहीं सेंटीमीटर,
और किलोमीटर की बातें।
थर्मामीटर जैसे तेवर हैं।।
नकली हीर अंगूठी है।
मन में बसती ठूंठी है।।

दुनिया बड़ी अनूठी है।
पर उतनी ही झूठी है।।
*
३०. लोकाचार लाचारी
.
लोकाचार लाचारी में
नीम चढ़े करेले भी,
केले से मीठे दिखते हैं।।
पीछे साधे रहे गुलेल
आगे भाषा तेल फुलेल
व्यवहार कुशलता ऐसी कि
उनके आगे दुनिया फेल।।
वफादारी के दावे,
दो दो कौड़ी में बिकते हैं।।
नीम चढ़े करेले भी,
केले से मीठे दिखते हैं।।
मगर से रहकर पानी में,
बैर सरासर नादानी।
जैसे हवा चले वैसे ही,
चलते रहना बुद्धिमानी।।
फलसफे वे टेढ़े आंगन,
नाच न आये रखते हैं।।
नीम चढ़े करेले भी,
केले से मीठे दिखते हैं।।
मन में जितनी है कटुता,
बोली में उतनी पटुता।
हनी हो गई नागफनी अब,
काँट शहद की एकजुटता।।
इत्र प्लास्टिक के फूलों,
पर छिड़के रहते हैं।
नीम चढ़े करेले भी,
केले से मीठे दिखते हैं।।
*
३१. आत्मीयता
.
आत्मीयता के प्रसंग अब,
बंद हो चुके नोट जैसे।।
नये साल का स्वागत करने
उमड़ यूफोरिया जाता है।
प्रसरण मंगल संदेशो के
अनमने से, कुछ बेबुने से
दिल से निकले कुछ बेदिल भी
लेकिन माहौल सजाता है।।
हुई रंगत अपनेपन की
नीरसता की ओट जैसे।
आत्मीयता के प्रसंग अब
बंद हो चुके नोट जैसे।।
दुख औरो के भाते रहते
लेकिन सुख खाते हैं कितना।
नही चोचले होते लगता
संसार यहाँ असार कितना।
फॉर्मेलिटी की क्वालिटी का
ना होता विस्तार इतना।।
आर्टिफिशियल रियल लगता
हुआ वर्चुअल चोट जैसे
आत्मीयता के प्रसंग अब
बंद हो चुके नोट जैसे।।
नैतिकता को भौतिकता के
दौर दहर पड़ते दौरे हैं
शमन दमन की युक्ति उक्ति
को मिलती कितनी ठौरे हैं।
रिश्ते कभी न हो दंगलमय,
सब कुछ हो जाए मंगलमय।
असली पर फसली खुशी की,
पकी जा रही रोट जैसे।
आत्मीयता के प्रसंग अब,
बंद हो चुके नोट जैसे।।
*
३२. गगन पर चांद
.
दूर गगन पर बैठा चांद।
बात इशारों में करता है।।
चांदनी की रेशम चूनर
गोट सितारे वाली झूमर
छम छम छम पायल की सरगम
मद्धम मद्धम गिरती शबनम
उजली रौनक आसमान पर
नेह बरसती इस जहान पर
चाँद निहार रहा टक टक क्यो ।
जाने किस पर वो मरता है।।
दूर गगन पर बैठा चांद
बात इशारों में करता है।।
जब नयन नींद से बोझिल हो
दिल भारी यादों से मिल हो
पीर झरोखा खोला जिसने
रहबर माना बोला जिसने
दूरी से भी सुन लेता वो
अपनापन भी देता है वो।।
आशा के शीतल निर्झर को,
मन की मटकी में भरता है।।
दूर गगन पर बैठा चांद,
बात इशारों में करता है।।
*
३३. चेतना
.
निर्बाध करती
भक्ति की शक्ति जहां में
प्रीत की ही
चेतना है,
बनाए रखिए।
कुछ भाग्य के
कमतर ही होंगे
जो हैं घबराते
बचा पाते नहीं
जब आराध्य को मंदिर
ह्रदय को भी मिल गयी मूरत
मगर गाते नहीं
ह्रदय की गहरी
वादियों में
सज रही सुंदर
मृदुल संवेदना है
सजाए रखिए।
मंद मलय के सुर साज पर
संगीत की सरगम
सजाई है समां ने
स्वयं नटराज सुंदर
नृत्य करते मोहते मन
तार झंकृत आसमां के
नव सुरो के
नव स्वरों को सादगी से
उन्मुक्त नभ
को भेदना है
याद रखिए
जब तलक उम्मीद का
दीपक जले श्रद्धा चले
मिलकर गले
हर हाल मे
तीव्रता की हो लहर
या फिर भंवर के घेर में
हों सिलसिले पड़ताल के
कुरेदने की
आग का दरिया बड़ी
वीभत्सकारी वेदना है
बचाए रखिए।
*
३४. ताजा हो ले
.
तृषा मिटा ले, माजा हो ले।
ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले।
रफ्ता-रफ्ता धीरे-धीरे।
कितनी दूर चला आया।।
कैसी-कैसी पगडंडी से
नीम अकेला ही आया।।
तन जा तन्नक राजा हो ले।।
ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले ।।
आकर-जाते जाकर-आते ।
पल जैसे युग बीत गये।।
लड़ते-भिड़ते रोते-हँसते
सावन कितने रीत गये।।
उम्मीदों का बाजा हो ले।
ऐ दिल! थोड़ा ताजा हो ले ।।
उठते-गिरते गिरते-उठते।
चलना तू भी सीख गया ।।
तूफां फिसलन लाख करे तू
पाँव जमाना सीख गया।।
खुद बन्दा, खुद ख्वाजा हो ले।
ऐ दिल थोड़ा ताजा हो ले ।।
***

नया साल

महान उर्दू शायर फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'(1911-1984) की बेहतरीन नज़्म
......................
ऐ नए साल बता, तुझमें नया-पन क्या है
हर तरफ़ ख़ल्क़ ने क्यूँ शोर मचा रक्खा है

रौशनी दिन की वही, तारों भरी रात वही
आज हम को नज़र आती है हर इक बात वही

आसमाँ बदला है, अफ़सोस, ना बदली है ज़मीं
एक हिंदसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं

अगले बरसों की तरह होंगे क़रीने तेरे
किस को मालूम नहीं बारह महीने तेरे

जनवरी, फ़रवरी और मार्च पड़ेगी सर्दी
और अप्रैल, मई, जून में होगी गर्मी

तेरा मन दहर में कुछ खोएगा, कुछ पाएगा
अपनी मीआद बसर कर के चला जाएगा

तू नया है तो दिखा सुबह नयी, शाम नयी
वरना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई

बे-सबब देते हैं क्यूँ लोग मुबारकबादें
ग़ालिबन भूल गए वक़्त की कड़वी यादें

तेरी आमद से घटी उम्र जहाँ में सब की
'फ़ैज़' ने लिक्खी है यह नज़्म निराले ढब की
............................
अर्थ
(ख़ल्क़ - मानवता)
(हिंदसे - संख्या; जिद्दत - नया-पन)
(अगले - पिछले/गुज़रे हुए; क़रीने - क्रम)
(दहर - दुनिया; मीआद - मियाद/अवधि)
(बे-सबब - बे-वजह; ग़ालिबन - शायद)
(आमद - आना; ढब - तरीक़ा)

दोहा दुनिया

शिव त्रिनेत्र से देखते,
तीन काल-त्रैलोक.
जो घटता स्वीकारते,
देखें सत्य विलोक.
.
ग्यान-कर्म परिणाम क्या?,
किसका-क्या शुभ-लाभ?
सर्व हितैषी सदा शिव,
श्वेत श्याम नीलाभ.
.
शिव न नगरवासी हुए,
शिव का महल न भव्य.
दिशा दिवालें हो गईं,
नील गगन छत नव्य.
.
शिव संकल्प न छोड़ते,
शिव न भूलते भाव,
हर अभाव स्वीकारना,
शिव का सहज स्वभाव.
.
शिव शंकर पर रीझ मन,
हरि शंकर भज नित्य.
पूज उमा शंकर सलिल-
रवि शंकर सान्निध्य.
.
उमा अरुणिमा सूर्य शिव,
हैं श्रद्धा-विश्वास.
श्वास-श्वास में बस रहे,
बने आस-आवास.
.
शिव सम्पद चाहें नहीं,
शिव को भाता भाव.
मन रम जा शिव-भक्ति में,
भागे भूत-अभाव.
.
2.1.2018

सोमवार, 1 जनवरी 2018

paanch navgeet

पाँच नवगीत 
हर दिन
*
सिया हरण को देख रहे हैं
आँखें फाड़ लोग अनगिन।
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
'गिरि गोपाद्रि' न नाम रहा क्यों?
'सुलेमान टापू' क्यों है?
'हरि पर्वत' का 'कोह महाजन'
नाम किया किसने क्यों है?
नाम 'अनंतनाग' को क्यों हम
अब 'इस्लामाबाद' कहें?
घर में घुस परदेसी मारें
हम ज़िल्लत सह आप दहें?
बजा रहे हैं बीन सपेरे
राजनीति नाचे तिक-धिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
हम सबका 'श्रीनगर' दुलारा
क्यों हो शहरे-ख़ास कहो?
'मुख्य चौक' को 'चौक मदीना'
कहने से सब दूर रहो
नाम 'उमा नगरी' है जिसका
क्यों हो 'शेखपुरा' वह अब?
'नदी किशन गंगा' को 'दरिया-
नीलम' कह मत करो जिबह
प्यार न जिनको है भारत से
पकड़ो-मारो अब गईं-गईं
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
पण्डित वापिस जाएँ बसाए
स्वर्ग बनें फिर से कश्मीर
दहशतगर्द नहीं बच पाएं
कायम कर दो नई नज़ीर
सेना को आज़ादी दे दो
आज नया इतिहास बने
बंगला देश जाए दोहराया
रावलपिंडी समर ठने
हँस बलूच-पख्तून संग
सिंधी आज़ाद रहें हर दिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*२४-९-२०१६*

(कश्मीर में हिन्दू नामों को बदलकर योजनाबद्ध तरीके से मुस्लिम नाम रखे जानेके विरोध में)
नवगीत 
*
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा 
पुनर्मरण हर रात। 
चलो बैठ पल दो पल कर लें 
मीत! प्रीत की बात।
*
गौरैयों ने खोल लिए पर
नापें गगन विशाल।
बिजली गिरी बाज पर
उसका जीना हुआ मुहाल।
हमलावर हो लगा रहा है
लुक-छिपकर नित घात
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
आ बुहार लें मन की बाखर
कहें न ऊँचे मोल।
तनिक झाँक लें अंतर्मन में
निज करनी लें तोल।
दोष दूसरों के मत देखें
खुद उजले हों तात!
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
स्वेद-'सलिल' में करें स्नान नित
पूजें श्रम का दैव।
निर्माणों से ध्वंसों को दें
मिलकर मात सदैव।
भूखे को दें पहले,फिर हम
खाएं रोटी-भात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
साक्षी समय न हमने मानी
आतंकों से हार।
जैसे को तैसा लौटाएँ
सरहद पर इस बार।
नहीं बात कर बात मानता
जो खाये वह लात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
लोकतंत्र में लोभतंत्र क्यों
खुद से करें सवाल?
कोशिश कर उत्तर भी खोजें
दें न हँसी में टाल।
रात रहे कितनी भी काली
उसके बाद प्रभात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*****
२४-९-२०१६
एक रचना
कौन हैं हम?
**
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
स्नेह सलिला नर्मदा हैं।
सत्य-रक्षक वर्मदा हैं।
कोई माने या न माने
श्वास सारी धर्मदा हैं।
जान या
मत जान लेकिन
मित्र है साहस-प्रभंजन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
सभ्यता के सिंधु हैं हम,
भले लघुतम बिंदु हैं हम।
गरल धारे कण्ठ में पर
शीश अमृत-बिंदु हैं हम।
अमरकंटक-
सतपुड़ा हम,
विंध्य हैं सह हर विखण्डन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
ब्रम्हपुत्रा की लहर हैं,
गंग-यमुना की भँवर हैं।
गोमती-सरयू-सरस्वति
अवध-ब्रज की रज-डगर हैं।
बेतवा, शिव-
नाथ, ताप्ती,
हमीं क्षिप्रा, शिव निरंजन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
तुंगभद्रा पतित पावन,
कृष्णा-कावेरी सुहावन।
सुनो साबरमती हैं हम,
सोन-कोसी-हिरन भावन।
व्यास-झेलम,
लूनी-सतलज
हमीं हैं गण्डक सुपावन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*
मेघ बरसे भरी गागर,
करी खाली पहुँच सागर।
शारदा, चितवन किनारे-
नागरी लिखते सुनागर।
हमीं पेनर
चारु चंबल
घाटियाँ हम, शिखर- गिरिवन
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि हैं आत्मा चिरन्तन??
*****
१०-९-२०१६
एक रचना -
कौन?
*
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
खुशियों की खेती अनसिंचित,
सिंचित खरपतवार व्यथाएँ।
*
खेत
कारखाने-कॉलोनी
बनकर, बिना मौत मरते हैं।
असुर हुए इंसान,
न दाना-पानी खा,
दौलत चरते हैं।
वन भेजी जाती सीताएँ,
मन्दिर पुजतीं शूर्पणखाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
गौरैयों की देखभाल कर
मिली बाज को जिम्मेदारी।
अय्यारी का पाठ रटाती,
पैठ मदरसों में बटमारी।
एसिड की शिकार राधाएँ
कंस जाँच आयोग बिठाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
रिद्धि-सिद्धि, हरि करें न शिक़वा,
लछमी पूजती है गणेश सँग।
'ऑनर किलिंग' कर रहे दद्दू
मूँछ ऐंठकर, जमा रहे रंग।
ठगते मोह-मान-मायाएँ
घर-घर कुरुक्षेत्र-गाथाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
हर कर्तव्य तुझे करना है,
हर अधिकार मुझे वरना है।
माँग भरो, हर माँग पूर्ण कर
वरना रपट मुझे करना है।
देह मात्र होतीं वनिताएँ
घर को होटल मात्र बनाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
दोष न देखें दल के अंदर,
और न गुण दिखते दल-बाहर।
तोड़ रहे कानून बना, सांसद,
संसद मंडी-जलसा घर।
बस में हो तो साँसों पर भी
सरकारें अब टैक्स लगाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*****
९-८-२०१६
गोरखपुर दंत चिकित्सालय
जबलपुर
*
एक रचना
*
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी 
हमने जिम्मेदारी है?
*
नियम व्यवस्था का
पालन हम नहीं करें,
दोष गैर पर-
निज, दोषों का नहीं धरें।
खुद क्या बेहतर
कर सकते हैं, वही करें।
सोचें त्रुटियाँ कितनी
कहाँ सुधारी हैं?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
भाँग कुएँ में
घोल, हुए मदहोश सभी,
किसके मन में
किसके प्रति आक्रोश नहीं?
खोज-थके, हारे
पाया सन्तोष नहीं।
फ़र्ज़ भुला, हक़ चाहें
मति गई मारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
एक अँगुली जब
तुम को मैंने दिखलाई।
तीन अंगुलियाँ उठीं
आप पर, शरमाईं
मति न दोष खुद के देखे
थी भरमाई।
सोचें क्या-कब
हमने दशा सुधारी है?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
जैसा भी है
तन्त्र, हमारा अपना है।
यह भी सच है
बेमानी हर नपना है।
अँधा न्याय-प्रशासन,
सत्य न तकना है।
कद्र न उसकी
जिसमें कुछ खुद्दारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
कौन सुधारे किसको?
आप सुधर जाएँ।
देखें अपनी कमी,
न केवल दिखलायें।
स्वार्थ भुला,
सर्वार्थों की जय-जय गायें।
अपनी माटी
सारे जग से न्यारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
११-८-२०१६
जनगीत :
हाँ बेटा
संजीव
.
चंबल में 
डाकू होते थे
हाँ बेटा!
.
लूट किसी को
मार किसी को
वे सोते थे?
हाँ बेटा!
.
लुटा किसी पर
बाँट किसी को
यश पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अख़बारों के
कागज़ उनसे
रंग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
पुलिस और
अफसर भी उनसे
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
केस चले तो
विटनेस डरकर
भग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
बिके वकील
झूठ को ही सच
बतलाते थे?
हाँ बेटा!
.
सब कानून
दस्युओं को ही
बचवाते थे?
हाँ बेटा!
.
चमचे 'डाकू की
जय' के नारे
गाते थे?
हाँ बेटा!
.
डाकू फिल्मों में
हीरो भी
बन जाते थे?
हाँ बेटा!
.
भूले-भटके
सजा मिले तो
घट जाती थी?
हाँ बेटा!
.
मरे-पिटे जो
कहीं नहीं
राहत पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अँधा न्याय
प्रशासन बहरा
मुस्काते थे?
हाँ बेटा!
.
मानवता के
निबल पक्षधर
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
तब से अब तक
वहीं खड़े हम
बढ़े न आगे?
हाँ बेटा! 
*

laghukatha

लघु कथा -
आदमी जिंदा है
*
साहित्यिक आयोजन में वक्ता गण साहित्य की प्रासंगिकता पर चिंतन कम और चिंता अधिक व्यक्त कर रहे थे। अधिकांश चाहते थे कि सरकार साहित्यकारों को आर्थिक सहयोग दे क्योंकि साहित्य बिकता नहीं, उसका असर नहीं होता।
भोजन काल में मैं एक वरिष्ठ साहित्यकार से भेंट करने उनके निवास पर जा ही रहा था कि हरयाणा से पधारे अन्य साहित्यकार भी साथ हो लिये। राह में उन्हें आप बीती बताई- 'कई वर्ष पहले व्यापार में लगातार घाटे से परेशं होकर मैंने आत्महत्या का निर्णय लिया और रेल स्टेशन पहुँच गया, रेलगाड़ी एक घंटे विलंब से थी। मरता क्या न करता प्लेटफ़ॉर्म पर टहलने लगा। वहां गीताप्रेस गोरखपुर का पुस्तक विक्रय केंद्र खुला देख तो समय बिताने के लिये एक किताब खरीद कर पढ़ने लगा। किताब में एक दृष्टान्त को पढ़कर न जाने क्या हुआ, वापिस घर आ गया। फिर कोशिश की और सफलता की सीढ़ियाँ चढ़कर आज सुखी हूँ। व्यापार बेटों को सौंप कर साहित्य रचता हूँ। शायद इसे पढ़कर कल कोई और मौत के दरवाजे से लौट सके। भोजन छोड़कर आपको आते देख रुक न सका, आप जिनसे मिलाने जा रहे हैं, उन्हीं की पुस्तक ने मुझे नवजीवन दिया।
साहित्यिक सत्र की चर्चा से हो रही खिन्नता यह सुनते ही दूर हो गयी। प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता? सत्य सामने था कि साहित्य का असर आज भी बरकरार है, इसीलिये आदमी जिंदा है।
३१-१२-२०१५

***

yantriki doha

दोहा सलिला :
भवन माहात्म्य
संजीव
*
[इंस्टिट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, लोकल सेंटर जबलपुर द्वारा गगनचुम्बी भवन (हाई राइज बिल्डिंग) पर १०-११ अगस्त २०१३ को आयोजित अखिल भारतीय संगोष्ठी की स्मारिका में प्रकाशित कुछ दोहे।]
*
भवन मनुज की सभ्यता, ईश्वर का वरदान।
रहना चाहें भवन में, भू पर आ भगवान।१।
*
भवन बिना हो जिंदगी, आवारा-असहाय।
अपने सपने ज्यों 'सलिल', हों अनाथ-निरुपाय।२।
*
मन से मन जोड़े भवन, दो हों मिलकर एक।
सब सपने साकार हों, खुशियाँ मिलें अनेक।३।
*
भवन बचाते ज़िन्दगी, सड़क जोड़ती देश।
पुल बिछुडों को मिलाते, तरु दें वायु हमेश।४।
*
राष्ट्रीय संपत्ति पुल, सड़क इमारत वृक्ष।
बना करें रक्षा सदा, अभियंतागण दक्ष।५।
*
भवन सड़क पुल रच बना, आदम जब इंसान।
करें देव-दानव तभी, मानव का गुणगान।६।
*
कंकर को शंकर करें, अभियंता दिन-रात।
तभी तिमिर का अंत हो, उगे नवल प्रभात७।
*
भवन सड़क पुल से बने, देश सुखी संपन्न।
भवन सेतु पथ के बिना, होता देश विपन्न।८।
*
इमारतों की सुदृढ़ता, फूंके उनमें जान।
देश सुखी-संपन्न हो, बढ़े विश्व में शान।९।
*
भारत का नव तीर्थ है, हर सुदृढ़ निर्माण।
स्वेद परिश्रम फूँकता, निर्माणों में प्राण।१०।
*
अभियंता तकनीक से, करते नव निर्माण।
होता है जीवंत तब, बिना प्राण पाषाण।११।
*
भवन सड़क पुल ही रखें, राष्ट्र-प्रगति की नींव।
सेतु बना- तब पा सके, सीता करुणासींव।१२।
*
करे इमारत को सुदृढ़, शिल्प-ज्ञान-तकनीक।
लगन-परिश्रम से बने, बीहड़ में भी लीक।१३।
*
करें कल्पना शून्य में, पहले फिर साकार।
आंकें रूप अरूप में, यंत्री दे आकार।१४।
*
सिर्फ लक्ष्य पर ही रखें, हर पल अपनी दृष्टि।
अभियंता-मजदूर मिल, रचें नयी नित सृष्टि।१५।
*
सडक देश की धड़कनें, भवन ह्रदय पुल पैर।
वृक्ष श्वास-प्रश्वास दें, कर जीवन निर्वैर।१६।
*
भवन सेतु पथ से मिले, जीवन में सुख-चैन।
इनकी रक्षा कीजिए, सब मिलकर दिन-रैन।१७।
*
काँच न तोड़ें भवन के, मत खुरचें दीवार।
याद रखें हैं भवन ही, जीवन के आगार।१८।
*
भवन न गन्दा हो 'सलिल', सब मिल रखें खयाल।
कचरा तुरत हटाइए, गर दे कोई डाल।१९।
*
भवनों के चहुँ और हों, ऊँची वृक्ष-कतार।
शुद्ध वायु आरोग्य दे, पायें ख़ुशी अपार।२०।
*
कंकर से शंकर गढ़े, शिल्प ज्ञान तकनीक।
भवन गगनचुम्बी बनें, गढ़ सुखप्रद नव लीक।२१।
*
वहीं गढ़ें अट्टालिका जहाँ भूमि मजबूत।
जन-जीवन हो सुरक्षित, खुशियाँ मिलें अकूत।२२।
*
ऊँचे भवनों में रखें, ऊँचा 'सलिल' चरित्र।
रहें प्रकृति के मित्र बन, जीवन रहे पवित्र।२३।
*
रूपांकन हो भवन का, प्रकृति के अनुसार।
अनुकूलन हो ताप का, मौसम के अनुसार।२४।
*
वायु-प्रवाह बना रहे, ऊर्जा पायें प्राण।
भवन-वास्तु शुभ कर सके, मानव को सम्प्राण।२५।
***

chitragupta dohanjali

चित्रगुप्त दोहांजलि:
*
हे चित्रगुप्त भगवान आपकी जय-जय
हे परमेश्वर मतिमान आपकी जय-जय

हे अक्षर अजर अमर अविनाशी अक्षय
हे अजित अमित गुणवान आपकी जय-जय

हे तमहर शुभकर विधि-हरि-हर के स्वामी
हे आत्मा-प्राण निधान आपकी जय-जय

हे चारु ललित शालीन सौम्य शुचि सुंदर
हे अविकारी संप्राण आपकी जय-जय

हे चिंतन मनन सृजन रचना वरदानी
हे सृजनधर्मिता-खान आपकी जय-जय

बेटे को कहती बाप बाप का दुनिया
विधि-पिता ब्रम्ह संतान आपकी जय-जय

विधि-हरि-हर को प्रगटाकर, विधि से प्रगटे
दिन संध्या निशा विहान आपकी जय-जय

सत-शिव-सुंदर सत-चित-आनंद हो देवा
श्री क्ली ह्री कीर्तिवितान आपकी जय-जय

तुम कारण-कार्य तुम्हीं परिणाम अनामी
हे शून्य सनातन गान आपकी जय-जय

सब कुछ तुमसे सब कुछ तुममें अविनाशी
हे कण-कण के भगवान आपकी जय-जय

हे काया-माया-छाया-पति परमेश्वर
हे सृष्टि-सृजन अभियान आपकी जय-जय
**********

vimarsh

विमर्श  :
भर्तृहरि का कथन है -- को लाभो गुणिसंगमः अर्थात ( लाभ क्या है? गुणियों का साथ ) । 
दिव्यनर्मदा तथा फेसबुक ने मुझे इस साल इस लाभ से परिचित करवाया है। आशा करता हूँ  नये साल में मैं इससे और भी ज्यादा लाभांवित हो सकूँगा। फेसबुक को धन्यवाद और अपने सभी फेसबुक मित्रों का कोटी-क़ोटी आभार। नये साल में हम सभी एक दूसरे के विचारों लाभ प्राप्त कर सके इसी आशा के साथ इस पुराने साल को हार्दिक विदाई। चलते-चलते परमविद्वान डा. राधाकृष्णन की कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ-
"सब से अधिक आनंद इस भावना में है कि हमने मानवता की प्रगति में कुछ योगदान दिया है। भले ही वह कितना ही कम, यहाँ तक कि बिल्कुल ही तुच्छ क्यों न हो?" 
***

नवगीत

शिव-शिव कह उठ हर सुबह,
सुमिर शिवा सो रात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
.
समय-शिला पर दे बना,
कोशिश के नव चित्र.
समय-रेत से ले बना,
नया घरौंदा मित्र.
मिला आँख से आँख तू,
समय सुनेगा बात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
.
समय सिया है, सती भी,
तजें राम-शिव जान.
यशोधरा तज बुद्ध बन,
सही समय अनुमान.
बंध रहे सम तो उचित
अनुचित उचित न तात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
.
समय सत्य-सुंदर वरो,
पूज शिवा-शिव संग.
रंग न हों बदरंग अब,
साध्य न बने अनंग.
सतत सजग रह हर समय,
समय न करे दे घात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
...
1.1.2018

रविवार, 31 दिसंबर 2017

navgeet

नवगीत:
एक दिन क्यों?
*
एक दिन क्यों?
हर दिवस को
साल नूतन तुम समझना
*
सुबह जगना
आँख मलना
पैर धरती पर जमाना
गिर पड़ो तो मुस्कुराना
उठ खड़े हो
लक्ष्य पाना।
कोई रोके
कोई टोके, मत उलझना।
*
हो पड़ोसी 
गिद्ध-कौआ
तो न सोना, जगे रहना 
सरहदोँ पर डटे रहना
ध्वजा अपनी
झुक न जाए.
जान लेना 
जाँ न देना, झट सुलझना.
....