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बुधवार, 17 अगस्त 2016

rakhi geet

बंधनों से मुक्त हो जा
 
बंधनों से मुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
कभी अबला रही बहिना
बने सबला अब प्रखर हो
तोड़ देना वह कलाई
जो अचाहे राह रोके
काट लेना जुबां जो
फिकरे कसे या तुझे टोंके
सासरे जा, मायके से
टूट मत, संयुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
बंधनों से मुक्त हो जा

बलि न तेरे हौसलों को
रीति वामन कर सके अब
इरादों को बाँध राखी
तू सफलता वर सके अब
बाँध रक्षा सूत्र तू ही
ज़िंदगी को ज़िंदगी दे
हो समर्थ-सुयोग्य तब ही
समय तुझको बन्दगी दे
स्वप्न हर साकार करने
कोशिशों के बीज बो जा
नयी फसलें उगाना है
बंधनों से मुक्त हो जा

पूज्य बन जा राम राखी
तुझे बाँधेगा जमाना
सहायक हो बँधा लांबा
घरों में रिश्ते जिलाना
वस्त्र-श्रीफल कर समर्पित
उसे जो सब योग्य दिखता
अवनि की हर विपद हर ले
शक्ति-वंदन विश्व करता
कसर कोई हो न बाकी
दाग-धब्बे दिखे धो जा
शिथिल कर दे नेह-नाते
बंधनों से मुक्त हो जा

- संजीव सलिल
१५ अगस्त २०१६
© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

laghukatha

लघुकथा-
टूटती शाखें
*
नुक्कड़ पर खड़े बरगद की तरह बब्बा भी साल-दर-साल होते बदलावों को देखकर मौन रह जाते थे। परिवार में खटकते चार बर्तन अब पहले की तरह एक नहीं रह पा रहे थे। कटोरियों को थाली से आज़ादी चाहिए थी तो लोटे को बाल्टी की बन्दिशें अस्वीकार्य थीं। फिर भी बरसों से होली-दिवाली मिल-जुलकर मनाई जा रही थी।
राजनीति के राजमार्ग के रास्ते गाँव में घुसपैठ कर चुका शहर ने टाट पट्टियों पर बैठकर पढ़ते बच्चे-बच्चियों को ऐसा लुभाया कि सुनहरे कल के सपनों को साकार करने के लिए अपनों को छोड़कर, शहर पहुँच कर छात्रावसों के पिंजरों में कैद हो गए।
कुछ साल बाद कुछ सफलता के मद में और शेष असफलता की शर्म से गाँव से मुँह छिपाकर जीने लगे। कभी कोई आता-जाता गाँववाला किसी से टकरा जाता तो राम राम दुआ सलाम करते हुए समाचार देता तो समाचार न मिलने को कुशल मानने के आदी हो चुके बब्बा घबरा जाते। ये समाचार नए फूल खिलने के कम हो होते थे जबकि चाहे जब खबरें बनती रहती थीं टूटती शाखें।
***

laghukatha

लघुकथा
पहल
*
आपके देश में हर साल अपनी बहिन की रक्षा करने का संकल्प लेने का त्यौहार मनाया जाता है फिर भी स्त्रियों के अपमान की इतनी ज्यादा घटनाएँ होती हैं। आइये! अपनी बहिन के समान औरों की बहनों के मान-सम्मान की रक्षा करने का संकल्प भी रक्षबंधन पर हम सब लें।
विदेशी पर्यटक से यह सुझाव आते ही सांस्कृतिक सम्मिलन के मंच पर छा गया मौन, अपनी-अपनी कलाइयों पर रक्षा सूत्रों का प्रदर्शन करते अतिथियों में कोई भी नहीं कर सका यह पहल।
***

ashok vruksh

लेख
शोक मिटाता वृक्ष अशोक
अशोक का शब्दिक अर्थ है- "शोक न होना"। अशोक वृक्ष को हिन्दू धर्म में पवित्र, लाभकारी और विभिन्न मनोरथों को पूर्ण करने वाला माना गया है। यह पवित्र वृक्ष जिस स्थान पर होता है, वहाँ पर किसी प्रकार का शोक व अशान्ति नहीं रहती। स्त्रियों के सारे शोकों को दूर करने की शक्ति रखता है अशोक। मांगलिक एवं धार्मिक कार्यों में अशोक के पत्तों का प्रयोग किया जाता है। इस वृक्ष पर प्राकृतिक शक्तियों का विशेष प्रभाव माना गया है, जिस कारण यह वृक्ष जिस जगह पर भी उगता है, वहाँ पर सभी कार्य पूर्णतः निर्बाध रूप से सम्पन्न होते हैं। अशोक वृक्ष घर में लगाने से या इसकी जड़ को शुभ मुहूर्त में धारण करने से मनुष्य को सभी शोकों से मुक्ति मिल जाती है। अशोक के वृक्ष की जड़ शुभ मुहूर्त में लाकर विधिपूर्वक पूजन कर धारण करें या पूजा स्थल में रखें, तो धन की कमी नहीं होती। इस वृक्ष को लगाने और उसको सींचने से धन में वृद्धि होती है।

अशोक वृक्ष की जड़ को तांबे के ताबीज में भरकर विधिपूर्वक धारण किया जाए, तो हर असंभव कार्य पूर्ण होने की संभावना बढ़ जाएगी। अशोक वृक्ष को प्रतिदिन जल देने से मनुष्य की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। इसके बीज, पत्ते एवं छाल को पीसकर लेप लगाने से सौंदर्य वृद्धि होती है। इसके बीज या फूल को शहद के साथ मिलाकर खाया जाए, तो कई व्याधियाँ दूर होती हैं। समय अशोक वृक्ष का एक पत्ता अपने सिर पर धारण करके जाने पर कार्य में अवश्य सफलता मिलेगी।श्रीराम ने इसे शोक दूर करने वाले पेड़ की उपमा दी थी। कामदेव के पंच पुष्प बाणों में एक अशोक भी है। दारिद्रता नाश हेतु अशोक वृक्ष का फूल प्रतिदिन पीस कर शहद के साथ मिला कर खाएं तथा लक्ष्मी पूजन करें। बासी मुॅह अशोक की तीन पत्ते खाए तो चिंताओं से मुक्ति मिलती है। अशोक बीज को तांबे में भरकर ताबीज के रूप में धारण करें तो देवी-देवता प्रसन्न हो सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
अशोक को संस्कृत में अशोक, बंगला में अस्पाल, मराठी में अशोपक, गुजराती में आसोपालव तथा देशी पीला फूलनों, तेलुगू में अशोकम्‌, तमिल में अशोघम, सिंहली में होगाश तथा लैटिन में जोनेशिया अशोका अथवा सराका-इंडिका कहते हैं। वैज्ञानिक नाम: Saraca asoca है। अशोक वृक्ष की छाल में हीमैटाक्सिलिन, टेनिन, केटोस्टेरॉल, ग्लाइकोसाइड, सैपोनिन, कार्बनिक कैल्शियम तथा लौह के यौगिक पाए गए हैं, पर अल्कलॉइड और एसेन्शियल ऑइल की मात्रा बिलकुल नहीं पाई गई। टेनिन एसिड के कारण इसकी छाल सख्त ग्राही होती है, बहुत तेज और संकोचक प्रभाव करने वाली होती है, अतः रक्त प्रदर में होने वाले अत्यधिक रजस्राव पर बहुत अच्छा नियन्त्रण होता है।
अशोक का वृक्ष हरित वृक्ष आम के समान 25 से 30 फुट तक ऊँचा, बहुत-सी शाखाओं से युक्त घना व छायादार हाता है। मौलश्री के पेड़ जैसा परन्तु ऊँचाई में उससे छोटा होता है। इसका तना कुछ लालिमा लिए हुए भूरे रंग का होता है। यह वृक्ष सारे भारत में पाया जाता है। इसके पल्लव 9 इंच लंबे, गोल व नोंकदार होते हैं। ये साधारण डण्ठल के व दोनों ओर 5-6 जोड़ों में लगते हैं। कोमल अवस्था में इनका वर्ण श्वेताभ लाल फिर गहरा हरा हो जाता है। पत्ते सूखने पर लाल हो जाते हैं। फल वसंत ऋतु में आते हैं। पहले कुछ नारंगी, फिर क्रमशः लाल हो जाते हैं। ये वर्षा काल तक ही रहते हैं।
अशोक वृक्ष की फलियाँ आठ से दस इंच लंबी चपटी, एक से दो इंच चौड़ी दोनों सिरों पर कुछ टेढ़ी होती है। ये ज्येष्ठ माह में लगती हैं। प्रत्येक में चार से दस की संख्या में बीज होते हैं। फलियाँ पहले जामुनी व पकने पर काले वर्ण की हो जाती हैं। बीज के ऊपर की पपड़ी रक्ताभ वर्ण की, चमड़े जैसी मोटी होती है। औषधीय प्रयोजन में छाल, पुष्प व बीज प्रयुक्त होते हैं। असली अशोक व सीता अशोक, पेण्डुलर ड्रपिंग अशोक जैसी बगीचों में शोभा देने वाली जातियों में औषधि की दृष्टि से भारी अंतर होता है। छाल इस दृष्टि से सही प्रयुक्त हो, यह अनिवार्य है। असली अशोक की छाल बाहर से शुभ्र धूसर, स्पर्श करने से खुरदरी अंदर से रक्त वर्ण की होती है। स्वाद में कड़वी होती है। मिलावट के बतौर कहीं-कहीं आम के पत्तों वाले अशोक का भी प्रयोग होता है, पर यह वास्तविक अशोक नहीं है।
असली-नकली अशोक
अशोक का वृक्ष दो प्रकार का होता है- एक तो असली अशोक वृक्ष और दूसरा उससे मिलता-जुलता नकली अशोक वृक्ष। असली अशोक के वृक्ष को लैटिन भाषा में 'जोनेसिया अशोका' कहते हैं। यह आम के पेड़ जैसा छायादार वृक्ष होता है। इसके पत्ते 8-9 इंच लम्बे और दो-ढाई इंच चौड़े होते हैं। इसके पत्ते शुरू में तांबे जैसे रंग के होते हैं, इसीलिए इसे 'ताम्रपल्लव' भी कहते हैं। इसके नारंगी रंग के फूल वसंत ऋतु में आते हैं, जो बाद में लाल रंग के हो जाते हैं। सुनहरी लाल रंग के फूलों वाला होने से इसे 'हेमपुष्पा' भी कहा जाता है। नकली अशोक वृक्ष के पत्ते आम के पत्तों जैसे होते हैं। इसके फूल सफ़ेद, पीले रंग के और फल लाल रंग के होते हैं। यह देवदार जाति का वृक्ष होता है। यह दवाई के काम का नहीं होता।
अशोक का वृक्ष शीतल, कड़वा, ग्राही, वर्ण को उत्तम करने वाला, कसैला और वात-पित्त आदि दोष, अपच, तृषा, दाह, कृमि, शोथ, विष तथा रक्त विकार नष्ट करने वाला है। यह रसायन और उत्तेजक है। इस वृक्ष का क्वाथ गर्भाशय के रोगों का नाश करता है, विशेषकर रजोविकार को नष्ट करता है। इसकी छाल रक्त प्रदर रोग को नष्ट करने में उपयोगी होती है। अशोक के फल एवं छाल को उबालकर पीने से स्त्रियों को कई रोगों से मुक्ति मिल जाती है। साथ ही यह सौंदर्य में भी वृद्धि करता है।इसकी छाल को उबालकर पीने से कई तरह के चर्म रोगों से मुक्ति मिलती है।
अशोक का वृक्ष घर में उत्तर दिशा में लगाना चाहिए, जिससे गृह में सकारात्मक ऊर्जा का संचारण बना रहता है। घर में अशोक के वृक्ष होने से सुख, शान्ति एवं समृद्धि बनी रहती है एंव अकाल मृत्यु नहीं होती। परिवार की महिलाओं को शारीरिक व मानसिक ऊर्जा में वृद्धि होती है। यदि महिलायें अशोक के वृक्ष पर प्रतिदिन जल अर्पित करती रहें तो उनकी इच्छाएँ एवं वैवाहिक जीवन में सुखद वातावरण बना रहता है। छात्रों की स्मरण शक्ति के लिए अशोक की छाल तथा ब्रहमी समान मात्रा में सुखाकर उसका चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को 1-1 चम्मच सुबह शाम एक गिलास हल्के गर्म दूध के साथ सेवन करने से शीघ्र ही लाभ मिलेगा। अशोक वृक्ष की जड को विधिवत ग्रहण करने से कभी भी धन की कमी नही होती।आप चाहे इसकी जड को धन के स्थान पर रख सकते हैं। इससे घर में बरकत आती है।

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

देवराज दिनेश

विरासत 
देवराज दिनेश 
*
आह्वान

ध्यान से सुनें राष्ट्र-संतान, राष्ट्र का मंगलमय आह्वान.
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.

राष्ट्र पर घिरी आपदा डेक,सजग हों युग के भामाशाह
दान में दे अपना सर्वस्व और पूरी कर मन की चाह 
राष्ट्र के रक्षा के हित आज,खोल दो अपना कोष कुबेर
नहीं तो पछताओगे मीत,हो गई अगर तनिक भी देर 
समझकर हमें निहत्था,प्रबल शत्रु ने हम पर किया प्रहार 
किन्तु अपना तो यह आदर्श,किसी का रखते नहीं उधार 
हमें भी ब्याज सहित प्रतिउत्तर उनको देना है तत्काल
शीघ्र अपनानी होगी शिव को रिपु के नरमुंडों की माल 
राष्ट्र को आज चाहिए वीर, वीर भी हठी हमीर समान .
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
 
राष्ट्र के कण-कण में आज उठ रही गर्वीली आवाज़ 
वक्ष पर झेल प्रबल तूफान शत्रु पर हमें गिरानी गाज 
देश की सीमाओं पर पागल कौवे मचा रहे हैं शोर 
अभी देगा उनको झकझोर,बली गोविन्द सिंह का बाज
किया था हमने जिससे नेह,दिया था जिसको अपना प्यार 
बना वह आस्तीन का सांप,हमीं पर आज कर रहा वार 
समझ हमको उन्मत्त मयूर,मगन-मन देख नृत्य में लीन
किया आघात,न उसको ज्ञात,सांप है मोरों का आहार 
राष्ट्र चाहेगा जैसा,वैसा हीं अब हम देंगे बलिदान .
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
 
राष्ट्र को चाहिए देवी कैकेयी का अदम्य उत्साह 
धूरी टूटे रण की,दे बाँह, पराजय को दे जय की राह 
राष्ट्र को आज चाहिए गीता के नायक का वह उद्घोष 
मोह ताज हर अर्जुन के मानस-पट पर लहराए आक्रोश 
आधुनिक इन्द्र कर रहा आज राष्ट्र हित इंद्रधनुष निर्माण 
यही है धर्म बनें हम इंद्रधनुष की प्रत्यंचा के बाण
इन्द्र-धनु रूपी प्रबल एकता की सतरंगी छवि को देख 
शत्रु के माथे पर भी आज खिंच रही है चिंता की रेख 
राष्ट्र को आज चाहिए एकलव्य से साधक निष्ठावान.
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.

राष्ट्र को आज चाहिए चंद्रगुप्त की प्रबल संगठन-शक्ति 
राष्ट्र को आज चाहिए अपने प्रति राणाप्रताप की शक्ति 
राष्ट्र को आज चाहिए रक्त, शत्रु का हो या अपना रक्त 
राष्ट्र को आज चाहिएभक्त, भक्त भी भगतसिंह के भक्त
राष्ट्र को आज चाहिए फिर बादल जैसे बालक रणधीर 
राष्ट्र की सुख-समृद्धि ले आयें,तोड़ रिपु कारा की प्राचीर 
और बूढ़े सेनानी गोरा की वह गर्व भरी हुंकार
शत्रु के छूट जाये प्राण, अगर दे मस्ती से ललकार 
राष्ट्र को आज चाहिए फिर अपना अल्हड़ टीपू सुल्तान 
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.

आज अनजाने में ही प्रबल शत्रु ने करके वज्र प्रहार 
हमारे जनमानस की चेतना के खोल दिये हैं द्वार 
राष्ट्र-हित इससे पहले कभी न जागी थी ऐसी अनुरक्ति 
संगठित होकर रिपु से आज बात कर रही हमारी शक्ति 
प्रतापी शक्तिसिंह भी देश-द्रोह का जामा आज उतार
राष्ट्र की तूफानी लहरों में करता है गति का संचार 
आज फिर नूतन हिंदुस्तान लिख रहा है अपना इतिहास.
राष्ट्र के पन्ने-पन्ने पर अंकित अपना अदम्य विश्वास .
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मत कहना
मैं तेरे पिंजरे का तोता
तू मेरे पिंजरे की मैना
यह बात किसी से मत कहना।
*
मैं तेरी आंखों में बंदी
तू मेरी आंखों में प्रतिक्षण
मैं चलता तेरी सांस–सांस
तू मेरे मानस की धड़कन
मैं तेरे तन का रत्नहार
तू मेरे जीवन का गहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
हम युगल पखेरू हंस लेंगे
कुछ रो लेंगे कुछ गा लेंगे
हम बिना बात रूठेंगे भी
फिर हंस कर तभी मना लेंगे
अंतर में उगते भावों के
जलजात किसी से मत कहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
क्या कहा! कि मैं तो कह दूंगी!
कह देगी तो पछताएगी
पगली इस सारी दुनियां में
बिन बात सताई जाएगी
पीकर प्रिये अपने नयनों की बरसात
विहंसती ही रहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
हम युगों युगों के दो साथी
अब अलग अलग होने आए
कहना होगा तुम हो पत्थर
पर मेरे लोचन भर आए
पगली इस जग के अतल–सिंधु मे
अलग अलग हमको बहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
***
मजदूर















































geet

गीत 
*
किसके-किसके नाम करूँ मैं, अपने गीत बताओ रे!
किसके-किसके हाथ पिऊँ मैं, जीवन-जाम बताओ रे!!
*
चंद्रमुखी थी जो उसने हो, सूर्यमुखी धमकाया है 
करी पंखुड़ी बंद भ्रमर को, निज पौरुष दिखलाया है 
''माँगा है दहेज'' कह-कहकर, मिथ्या सत्य बनाया है  
किसके-किसके कर जोड़ूँ, आ मेरी जान बचाओ रे! 
किसके-किसके नाम करूँ मैं, अपनी पीर बताओ रे!!
*
''तुम पुरुषों ने की रंगरेली, अब नारी की बारी है 
एक बाँह में, एक चाह में, एक राह में यारी है 
नर निश-दिन पछतायेगा क्यों की उसने गद्दारी है?''
सत्यवान हूँ हरिश्चंद्र, कोई आकर समझाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ कवि की जागीर बताओ रे!!
*
महिलायें क्यों करें प्रशंसा?, पूछ-पूछ कर रूठ रही 
खुद सवाल कर, खुद जवाब दे, विषम पहेली बूझ रही 
द्रुपदसुता-सीता का बदला, लेने की क्यों सूझ रही?   
झाड़ू, चिमटा, बेलन, सोंटा कोई दूर हटाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ अपनी तकदीर बताओ रे!!
*
देवदास पारो को समझ न पाया, तो क्यों प्यार किया?
'एक घाट-घर रहे न जो, दे दगा', कहे कर वार नया 
'सलिल बहे पर रहता निर्मल', समझाकर मैं हार गया
पंचम सुर में 'आल्हा' गाए, 'कजरी' याद दिलाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ जिव्हा-शमशीर बताओ रे!!
*
कुसुम, सुमन, नीलू, अमिता, पूर्णिमा, नीरजा आएँगी 
'पत्नी को परमेश्वर मानो', सबको पाठ पढ़ाएँगी 
पत्नीव्रती न जो कवि होगा, उससे कलम छुड़ाएँगी 
कोई भी मौसम हो तुम गुण पत्नी के ही गाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ कवि आहत वीर बताओ रे!!
***

सोमवार, 15 अगस्त 2016

मनरंजन




 
















स्वतंत्रता दिवस


 




लखनऊ यात्रा

लखनऊ यात्रा १२-८-२०१६

 

बाएं से- अमरनाथ, निर्मल शुक्ल, श्रीमती अनुप्रिया शुक्ल

 

सेल्फी बाएं से- संजीव, श्रीमती सुषमा गुप्त, डॉ. श्याम गुप्त, अमरनाथ 



 प्राप्त पुस्तकोपहार








samiksha

पुस्तक चर्चा-
नवगीत के निकष पर "काल है संक्रांति का"
रामदेव लाल 'विभोर'
*
[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र. दूरभाष ०७६१ २४१११३१, प्रकाशन वर्ष २०१६, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, कवि संपर्क चलभाष ९४२५१८३२४४, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com ]
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' विरचित गीत-कृति "काल है संक्रांति का" पैंसठ गीतों से सुसज्जित एक उत्तम एवं उपयोगी सर्जना है। इसे कृतिकार ने गीत व नवगीत संग्रह स्वयं घोषित किया है। वास्तव में नवगीत, गीत से इतर नहीं है किन्तु अग्रसर अवश्य है। अब गीत की अजस्र धारा वैयक्तिकता व अध्यात्म वृत्ति के तटबन्ध पर कर युगबोध का दामन पकड़कर चलने लगी है। गीतों में व्याप्त कलात्मकता व भावात्मकता में नवता के स्वरूप ने उसे 'नवगीत' नामित किया है। युगानुकूल परिवर्तन हर क्षेत्र में होता आ रहा है। अत:, गीतों में भी हुआ है। नवगीत में गीत के कलेवर में नयी कविता के भाव-रंग दिखते हैं। नए बिंब, नए उपमान, नए विचार, नयी कहन, वैशिष्ट्य व देश-काल से जुडी तमाम नयी बातों ने नवगीत में भरपूर योगदान दिया है। नवगीत प्रियतम व परमात्मा की जगह दीन-दुखियों की आत्मा को निहारता है जिसे दीनबन्धु परमात्मा भी उपयुक्त समझता होगा। 

स्वर-देव चित्रगुप्त तथा वीणापाणी वंदना से प्रारंभ प्रस्तुत कृति के गीतों का अधिकांश कथ्य नव्यता का पक्षधर है। अपने गीतों के माध्यम से कृतिकार कहता है कि 'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती' है और 'गेयता संवेदनों का गान करती' है। नवगीत को एक प्रकार से परिभाषित करनेवाली कृतिकार की इन गीत-पंक्तियों की छटा सटीक ही नहीं मनोहारी भी है। निम्न पंक्तियाँ विशेष रूप से दृष्टव्य हैं-

''नव्यता संप्रेषणों में जान भरती / गेयता संवेदनों का गान करती''

''सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती / मर्मबेधकता न हो तो रार ठनती''

''लाक्षणिकता, भाव, रस, रूपक सलोने, बिम्ब टटकापन मिले बारात सजती''


''नाचता नवगीत के संग लोक का मन / ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?''

''छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किंतु बन आरोह या अवरोह पलता'' -पृष्ठ १३-१४ 

इस कृति में 'काल है संक्रांति का' नाम से एक बेजोड़ शीर्षक-गीत भी है। इस गीत में सूरज को प्रतीक रूप में रख दक्षिणायन की सूर्य-दशा की दुर्दशा को एक नायाब तरीके से बिम्बित करना गीतकार की अद्भुत क्षमता का परिचायक है। गीत में आज की दशा और कतिपय उद्घोष भरी पंक्तियों में अभिव्यक्ति की जीवंतता दर्शनीय है- 

''दक्षिणायन की हवाएँ कँपाती हैं हाड़ 
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी काटती है झाड़'' -पृष्ठ १५

"जनविरोधी सियासत को कब्र में दो गाड़
झोंक दो आतंक-दहशत, तुम जलाकर भाड़" -पृष्ठ १६

कृति के गीतों में राजनीति की दुर्गति, विसंगतियों की बाढ़, हताशा, नैराश्य, वेदना, संत्रास, आतंक, आक्रोश के तेवर आदि नाना भाँति के मंज़र हैं जो प्रभावी ही नहीं, प्रेरक भी हैं। कृति से कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-

"प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखें रहते भी हो सूर" -पृष्ठ २०

"दोनों हाथ लिए लड्डू / रेवड़ी छिपा रहा नेता
मुँह में लैया-गजक भरे / जन-गण को ठेंगा देता" - पृष्ठ २१

"वह खासों में खास है / रुपया जिसके पास है....
.... असहनीय संत्रास है / वह मालिक जग दास है" - पृष्ठ ६८

"वृद्धाश्रम, बालश्रम और / अनाथालय कुछ तो कहते है 
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?" - पृष्ठ ९४

"करो नमस्ते या मुँह फेरो / सुख में भूलो, दुःख में हेरो" - पृष्ठ ४७ 

ध्यान आकर्षण करने योग्य बात कि कृति में नवगीतकार ने गीतों को नव्यता का जामा पहनाते समय भारतीय वांग्मय व् परंपरा को दृष्टि में रखा है। उसे सूरज प्रतीक पसन्द है। कृति के कई गीतों में उसका प्रयोग है। चन्द पंक्तियाँ उद्धरण स्वरूप प्रस्तुत हैं - 

"चंद्र-मंगल नापकर हम चाहते हैं छुएँ सूरज"

"हनु हुआ घायल मगर वरदान तुमने दिए सूरज" -पृष्ठ ३७

"कैद करने छवि तुम्हारी कैमरे हम भेजते हैं" 

"प्रतीक्षा है उन पलों की गले तुमसे मिलें सूरज" - पृष्ठ ३८

कृति के गीतों में लक्षणा व व्यंजना शब्द-शक्तियों का वैभव भरा है। यद्यपि कतिपय यथार्थबोधक बिम्ब सरल व स्पष्ट शब्दों में बिना किसी लाग-लपेट के विद्यमान हैं किन्तु बहुत से गीत नए लहजे में नव्य दृष्टि के पोषक हैं। निम्न पंक्तियाँ देखें- 

"टाँक रही है अपने सपने / नए वर्ष में धूप सुबह की" - पृष्ठ ४२

"वक़्त लिक्खेगा कहानी / फाड़ पत्थर मैं उगूँगा" - पृष्ठ ७५

कई गीतों में मुहावरों का का पुट भरा है। कतिपय पंक्तियाँ मुहावरों व लोकोक्तियों में अद्भुत ढंग से लपेटी गई हैं जिनकी चारुता श्लाघनीय हैं। एक नमूना प्रस्तुत है-

"केर-बेर सा संग है / जिसने देखा दंग है
गिरगिट भी शरमा रहे / बदला ऐसा रंग है" -पृष्ठ ११५

कृति में नवगीत से कुछ इतर जो गीत हैं उनका काव्य-लालित्य किंचित भी कम नहीं है। उनमें भी कटाक्ष का बाँकपन है, आस व विश्वास का पिटारा है, श्रम की गरिमा है, अध्यात्म की छटा है और अनेक स्थलों पर घोर विसंगति, दशा-दुर्दशा, सन्देश व कटु-नग्न यथार्थ के सटीक बिम्ब हैं। एक-आध नमूने दृष्टव्य हैं -

"पैला लेऊँ कमिसन भारी / बेंच खदानें सारी 
पाछूँ घपले-घोटालों सौं / रकम बिदेस भिजा री!" - पृष्ठ ५१

"कर्म-योग तेरी किस्मत में / भोग-रोग उनकी किस्मत में" - पृष्ठ ८०

वेश संत का मन शैतान / खुद को बता रहे भगवान"  - पृष्ठ ८७

वही सत्य जो निज हित साधे / जन को भुला तन्त्र आराधें" - पृष्ठ ११८

कृति की भाषा अधिकांशत: खड़ी बोली हिंदी है। उसमें कहीं-कहीं आंचलिक शब्दों से गुरेज नहीं है। कतिपय स्थलों पर लोकगीतों की सुहानी गंध है। गीतों में सम्प्रेषणीयता गतिमान है। माधुर्य व प्रसाद गुण संपन्न गीतों में शांत रस आप्लावित है। कतिपय गीतों में श्रृंगार का प्रवेश नेताओं व धनाढ्यों पर ली गयी चुटकी के रूप में है। एक उदाहरण दृष्टव्य है -

इस करवट में पड़े दिखाई / कमसिन बर्तनवाली बाई
देह साँवरी नयन कँटीले / अभी न हो पाई कुड़माई
मलते-मलते बर्तन खनके चूड़ी / जाने क्या गाती है?
मुझ जैसे लक्ष्मीपुत्र को / बना भिखारी वह जाती है - पृष्ठ ८३

पूरे तौर पर यह नवगीत कृति मनोरम बन पड़ी है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को इस उत्तम कृति के प्रणयन के लिए हार्दिक साधुवाद।
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समीक्षक संपर्क- ५६५ के / १४१ गिरिजा सदन,
अमरूदही बाग़, आलमबाग, लखनऊ २२६००५, चलभाष- ९३३५७५११८८
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रविवार, 14 अगस्त 2016

rakhi geet

राखी पर एक रचना
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बंधनों से मुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
कभी अबला रही बहिना
बने सबला अब प्रखर हो
तोड़ देना वह कलाई
जो अचाहे राह रोके
काट लेना जुबां जो
फिकरे कसे या तुझे टोंके
सासरे जा, मायके से
टूट मत, संयुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बलि न तेरे हौसलों को
रीति वामन कर सके अब
इरादों को बाँध राखी
तू सफलता वर सके अब
बाँध रक्षा सूत्र तू ही
ज़िंदगी को ज़िंदगी दे
हो समर्थ-सुयोग्य तब ही
समय तुझको बन्दगी दे
स्वप्न हर साकार करने
कोशिशों के बीज बो जा
नयी फसलें उगाना है
बंधनों से मुक्त हो जा
*
पूज्य बन जा राम राखी
तुझे बाँधेगा जमाना
सहायक हो बँधा लांबा
घरों में रिश्ते जिलाना
वस्त्र-श्रीफल कर समर्पित
उसे जो सब योग्य दिखता
अवनि की हर विपद हर ले
शक्ति-वंदन विश्व करता
कसर कोई हो न बाकी
दाग-धब्बे दिखे धो जा
शिथिल कर दे नेह-नाते
बंधनों से मुक्त हो जा
***
सन्दर्भ-
स्कंदपुराण, पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत में वामनावतार प्रसंग के अनुसार दानवेन्द्र राजा बलि का अहंकार मिटाकर उसे जनसेवा के सत्पथ पर लाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन रूप धारणकर भिक्षा में ३ पग धरती मांग कर तीन पगों में तीनों लोकों को नाप लिया तथा उसके मस्तक पर चरणस्पर्श कर उसे रसातल भेज दिया। बलि ने भगवान से सदा अपने समक्ष रहने का वर माँगा। नारद के सुझाये अनुसार इस दिन लक्ष्मी जी ने बलि को रक्षासूत्र बाँधकर भाई माना तथा विष्णु जी को वापिस प्राप्त किया।

भविष्योत्तर पुराण के अनुसार देव-दानव युद्ध में इंद्र की पराजय सन्निकट देख उसकी पत्नी शशिकला (इन्द्राणी) ने तपकर प्राप्त रक्षासूत्र श्रवण पूर्णिमा को इंद्र की कलाई में बाँधकर उसे इतना शक्तिशाली बना दिया की वह विजय प्राप्त कर सका।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'मयि सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव' अर्थात जिस प्रकार सूत्र बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर माला के रूप में एक बनाये रखता है उसी तरह रक्षासूत्र लोगों को जोड़े रखता है।  प्रसंगानुसार विश्व में जब-जब नैतिक मूल्यों पर संकट आता है भगवान शिव प्रजापिता ब्रम्हा द्वारा पवित्र धागे भेजते हैं जिन्हें बाँधकर बहिने भाइयों को दुःख-पीड़ा से मुक्ति दिलाती हैं। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध में विजय हेतु युधिष्ठिर को सेना सहित रक्षाबंधन पर्व मनाने का निर्देश दिया था।

उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहा जाता है तथा यजुर्वेदी विप्रों का उपकर्म (उत्सर्जन, स्नान, ऋषितर्पण आदि के पश्चात नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है.) राजस्थान में रामराखी (लालडोरे पर पीले फुंदने लगा सूत्र) भगवान को, चूड़ाराखी (भाभियों को चूड़ी में) या लांबा (भाई की कलाई में) बांधने की प्रथा है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में बहनें शुभ मुहूर्त में भाई-भाभी को तिलक लगाकर राखी बांधकर मिठाई खिलाती तथा उपहार प्राप्त कर आशीष देती हैं. महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा कहा जाता है. इस दिन समुद्र, नदी तालाब आदि में स्नान कर जनेऊ बदलकर वरुणदेव को श्रीफल (नारियल) अर्पित किया जाता है. उड़ीसा, तमिलनाडु व् केरल में यह अवनिअवित्तम कहा जाता है. जलस्रोत में स्नानकर  यज्ञोपवीत परिवर्तन व ऋषि का तर्पण किया जाता है.