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रविवार, 7 फ़रवरी 2016

एक ग़ज़ल : पयाम-ए-उल्फ़त मिला तो होगा....



पयाम-ए-उल्फ़त मिला तो होगा , न आने का कुछ बहाना होगा
मेरी अक़ीदत में क्या कमी थी ,सबब ये  तुम को  बताना होगा

जो एक पल की ख़ता हुई थी ,वो ऐसा कोई गुनाह कब थी  ?
नज़र से तुमने गिरा दिया है , तुम्ही  को आ कर उठाना  होगा

ख़ुदा के बदले सनमपरस्ती  , ये कुफ़्र  है या कि बन्दगी  है
जुनून-ए-हक़ में ख़बर न होगी, ज़रूर  कोई   दिवाना  होगा

मेरी मुहब्बत है पाक दामन ,रह-ए-मुक़द्दस में नूर -अफ़्शाँ
तो फिर ये परदा है किस की खातिर ,निकाब रुख़ से हटाना होगा

इधर हैं मन्दिर ,उधर मसाजिद ,कहीं किलीसा  की चार बातें
सभी की राहें जो मुख़्तलिफ़ हैं ,तो कैसे यकसाँ ? बताना होगा

कहीं थे काँटे ,कभी था सहरा ,कहीं पे दरिया , कहीं था तूफ़ाँ
कहाँ कहाँ से नहीं हूँ गुज़रा ,ये राज़ तुम ने न जाना  होगा

रहीन-ए-मिन्नत रहूँगा उस का ,कभी वो गुज़रे अगर इधर से
अज़ल से हूँ मुन्तज़िर मैं ’आनन’, न आयेगा वो, न आना होगा

-आनन्द.पाठक-
09413395592
शब्दार्थ
पयाम-ए-उल्फ़त  = प्रेम सन्देश
अक़ीदत = श्रद्धा /विश्वास
सबब = कारण
कुफ़्र = एक ईश्वर को न मानना,मूर्ति पूजा करने वाला
इसी से लफ़्ज़ से ;काफ़िर; बना
रह-ए-मुक़्द्दस में= पवित्र मार्ग मे
नूर-अफ़्शाँ    = ज्योति/प्रकाश बिखेरती हुई 
मसाजिद     =मस्जिदें [ मस्जिद का बहु वचन]
किलीसा = चर्च ,गिरिजाघर
मुख़्तलिफ़ -अलग अलग 
यकसाँ =एक सा .एक समान
अज़ल से = अनादिकाल से
रहीन-ए-मिन्नत=आभारी .ऋणी
मुन्तज़िर = प्रतीक्षारत

muktika

मुक्तिका:
*
जीना अपनी मर्जी से
मगर नहीं खुदगर्जी से
*
गला काटना, ठान लिया?
कला सीख लो दर्जी से
*
दुश्मन से कम खतरा है
अधिक दोस्ती फर्जी से
*
और सभी कुछ पा लोगे
प्यार न मिलता अर्जी से
*
'सलिल' जरा तो सब्र करो
दूर रहो सुख कर्जी से

dwipadi

द्विपदियाँ (अश'आर)
*
उगते सूरज को करे, दुनिया सदा प्रणाम
तपते से बच,डूबते देख न लेती नाम
*
औरों के ऐब देखना, आसान है बहुत
तू एक निगाह, अपने आप पे भी डाल ले
*
आगाज़ के पहले जरा अंजाम सोच ले
शुरुआत किसी काम की कर, बाद में 'सलिल' 
*
उगते सूरज को करे, दुनिया सदा प्रणाम
तपते से बच,डूबते देख न लेती नाम
*
३-२-२०१६
अमरकंटक एक्सप्रेस बी २ /३५
बिलासपुर-भाटापारा 

nazm parinda

एक रचना 
परिंदा 
*
करें पत्ते परिंदों से गुफ्तगू 
व्यर्थ रहते हैं भटकते आप क्यूँ?

बंद पिंजरों में रहें तो हर्ज़ क्या?
भटकने का आपको है मर्ज़ क्या??

परिंदे बोले: 'न बंधन चाहिए 
जमीं घर, आकाश आँगन चाहिए

फुदक दाना चुन सकें हम खुद जहाँ 
उड़ानों पर भी न हो बंदिश वहाँ 

क्यों रहें हम दूर अपनी डाल से?
मरें चाहे, जूझ तो लें हाल से  

चुगा दें चुग्गा उन्हें असमर्थ जो 
तोल कर पर नाप लें वे गगन को

हम नहीं इंसान जो खुद के लिये 
जियें, हम जीते यहाँ सबके लिये'

मौन पत्ता छोड़ शाखा गिर गया 
परिंदा झट से गगन में उड़ गया 
***
२०-१२-२०१५  

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

navgeet- seema hari sharma

नवगीत सलिला:
सीमा हरि शर्मा
१.
ढूँढता हल बावरा मन ढूँढता हल बावरा मन प्रश्न के बाजार में । जीतकर हारा कभी यह जीत जाता हार में मौड़ कैसा भी कठिन हो ज़िन्दगी ये कब थमी है नटी की तरह चलना नभ धरा रस्सी वही । हल कभी भी हो न पाए कुछ गणित संसार में । ढूँढता हल बावरा मन प्रश्न के बाजार में । मौन दिखती जल सतह, पर हलचलों का वास है मिट रही बन लहर हर जो अनकहे इतिहास है चाहती कोई लहर थम कर रहे इस धार में ढूँढता हल बावरा मन प्रश्न के बाजार में धूल मुखड़े पर जमी थी साफ दर्पण ही किया। अनसुना अक्सर किया वो जो कभी मन ने कहा । तन उलझता ही रहा यह जगत के व्यापार में ढूंढता हल बावरा मन प्रश्न के बाजार में । प्रेम विस्तृत नभ कभी यह है धरा सा धैर्य भी । रूह का अहसास पावन नाद है ओंकार की । क्यों उलझ कर रह गया बस देह के अभिसार में । ढूँढता हल बावरा मन प्रश्न के बाजार में । जीतकर हारा कभी यह जीत जाता हार में *
२. 
संस्कृत बृज अवधी से सुवासित, मैं हिंदी हूँ हिन्द की शान। बीते सात दशक आजादी, अब तक क्यों ना मिली पहचान। दुनियाँ के सारे देशों में, मातृभाषा का प्रथमस्थान। उर्दू, आंग्ल, फ़ारसी सबको, आत्मसात कर दिया है मान। हिंदी दिवस मनाता अब तक देखो मेरा हिन्दुस्तान....बीते सात स्वामिनी कैसी मैं घर की, भाषा पराई करती राज। लज्जा आती मुझे बोलकर, इंगलिश के सर धरतेताज। सारे भारत अलख जगाओ भरत खंड की आर्य सन्तान।.......बीते सात है सम्पन्न व्याकरण मेरा नहीं दिला पाया क्यों मान। विद्यालयों की खस्ता हालत कान्वेंटो की जगमग शान बैर न किसी भाषा बोली से मूल बिना ना सकल उत्थान... बीते सात दशक आजादी, अब तक क्यों ना मिली पहचान।... *
३. 
यही गीत ऐसा भी..... हिन्द की शान (पूरा गीत) हिंदी दिवस पर एक नवगीत (14 सितम्बर) संस्कृत बृज अवधी से सुवासित, मैं हिंदी हूँ हिन्द की शान बीते सात दशक आजादी, अब तक क्यों ना मिली पहचान। दुनियाँ के सारे देशों में, मातृभाषा का प्रथमस्थान। उर्दू, आंग्ल, फ़ारसीसबको, आत्मसात कर दिया है मान। हिंदी दिवस मनाता अब भी, मेरा लाडला हिन्दुस्तान....बीते सात कैसी स्वामिनी अपनेघर की, भाषा पराई करती राज। लज्जा आती मुझे बोलकर, इंगलिश के सर धरतेताज। मातृभाषा भले तुम्हारी, करते इंगलिश का सम्मान।..बीते सात उच्च पढाई अंग्रेजी में, कैसे हो मेरा विस्तार? समृद्ध सबसे व्याकरणमेरा, बना न प्रान्तों का आधार बैर न किसी भाषा बोली से, मूल बिना ना सकल उत्थान।..बीते सात जाने बिना दवाई खाते, जो इंगलिश से है अनजान। विद्यालयों की खस्ता हालत, कान्वेंटों की जगमग शान। सारे भारत अलख जगाओ, भरतखंड की आर्य सन्तान। बीते सात दशक आजादी, अब तक क्यों ना मिली पहचान।
*
४. 
भीगे भीगे कोए .... शब्दों के सैलाब उमड़ते अधरों पर आ खोए। नयनों से मुखरित हों कैसे भीगे भीगे कोए। झुलस रही ज्वालामुखियों में जल की शीतल धारा। मीठी नदियाँ रहीं सिमटकर सागर का जल खारा। मृदु मधु झरना अन्तस् कलकल जल खारा बन रोए। नयनों से मुखरित हों कैसे भीगे भीगे कोए। आडम्बर के छद्म आवरण अंत:करण गंधाते। अनुबंधों के शिखर सजीले चुपके से ढह जाते। सदियों से सब देव जगाए मनुज अभी तक सोए। नयनों से मुखरित हों कैसे भीगे भीगे कोए। सीमा हरि शर्मा

navgeet

एक रचना:
*
हम न चलाने देंगे
लेकिन
काम तुम्हारा देश चलाना
*
हम जो जी चाहें करें
कोई न सकता रोक
पग-पग पर टोंकें तुम्हें
कोई न सकता टोंक
तुमसेइज्जत चाहते
तुम्हें भाड़ में झोंक
हम न निभाने देंगे
लेकिन
काम तुम्हारा साथ निभाना
*
बढ़ा रहे तुम हाथ या
झुका रहे हो माथ
वादा कर कर भुलाएँ
कभी न देंगे साथ
तुम बोलोगे 'पथ' अगर
हम बोलेंगे 'पाथ'
हम न बनाने देंगे
लेकिन काम तुम्हारा राह बनाना
*
सीधी होती है कभी
क्या कुत्ते की दुम?
क्या नादां यह मानता
अकल हुई है गुम?
हमें शत्रु से भी बड़े
शत्रु लग रह तुम
हम न उठाने देंगे
लेकिन
काम तुम्हारा देश उठाना
***
 ६-२-२०१६

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

harigitika chhand

​​ 
रसानंद दे छंद नर्मदा १: हरिगीतिका 
हरिगीतिका X 4 = 11212 की चार बार आवृत्ति
​​
दोहा, आल्हा, सार ताटंक,रूपमाला (मदन),
चौपाई
​,​
 छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए 
हरिगीतिका
 
​ ​
से.

हरिगीतिका मात्रिक सम छंद हैं जिसके प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं  यति १६ और १२ मात्राओं पर होती है पंक्ति के अंत में लघु और गुरु का प्रयोग होता है
​ ​
​ 
भिखारीदास ने छन्दार्णव में गीतिका नाम से 'चार सगुण धुज गीतिका' कहकर हरिगीतिका का वर्णन किया है। हरिगीतिका के पारम्परिक उदाहरणों के साथ कुछ अभिनव प्रयोग, मुक्तक, नवगीत, समस्यापूर्ति (शीर्षक पर रचना) आदि नीचे प्रस्तुत हैं

छंद विधान:
०१. हरिगीतिका २८ मात्रा का ४ समपाद मात्रिक छंद है।
०२. हरिगीतिका में हर पद के अंत में लघु-गुरु ( छब्बीसवी लघु, सत्ताइसवी-अट्ठाइसवी गुरु ) अनिवार्य है।
०३. हरिगीतिका में १६-१२ या १४-१४ पर यति का प्रावधान है।
०४. सामान्यतः दो-दो पदों में समान तुक होती है किन्तु चारों पदों में समान तुक, प्रथम-तृतीय-चतुर्थ पद में समान तुक भी हरिगीतिका में देखी गयी है।
०५. काव्य प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के अनुसार हर सतकल अर्थात चरण में (11212) पाँचवी,  बारहवीं, उन्नीसवीं तथा छब्बीसवीं मात्रा लघु होना चाहिए।  कविगण लघु को आगे-पीछे के अक्षर से मिलकर दीर्घ करने की तथा हर सातवीं मात्रा के पश्चात् चरण पूर्ण होने के स्थान पर पूर्व के चरण काअंतिम दीर्घ अक्षर अगले चरण के पहले अक्षर या अधिक अक्षरों से संयुक्त होकर शब्द में प्रयोग करने की छूट लेते रहे हैं किन्तु चतुर्थ चरण की पाँचवी मात्रा का लघु होना आवश्यक है।

मात्रा बाँट: I I   S  IS   S  SI  S S  S  IS  S I I   IS​​   
 या   ​
।। ऽ। ऽ ऽ ऽ।ऽ।।ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ
कहते हुए यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए । 
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ॥ 

उदाहरण : 
०१. मम मातृभूमिः भारतं धनधान्यपूर्णं स्यात् सदा।
     नग्नो न क्षुधितो कोऽपि स्यादिह वर्धतां सुख-सन्ततिः।
     स्युर्ज्ञानिनो गुणशालिनो ह्युपकार-निरता मानवः,
     अपकारकर्ता कोऽपि न स्याद् दुष्टवृत्तिर्दांवः ॥

०२. निज गिरा पावन कर कारन, राम ज तुलसी ह्यो. (रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
                                                                                                                                                              ०३. दुन्दुभी जय धुनि वे धुनि, नभ नग कौतूहल ले. (रामचरित मानस) 
      (यति १४-१४ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)     
                                                                                                                                                              ०४. अति किधौं सरित सुदे मेरी, करी दिवि खेलति ली। (रामचंद्रिका)
      (यति १६-१२ पर, ५वी-१९ वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
                                                                                                                                                              ०५. जननिहि हुरि मिलि चलीं उचित असी सब काहू ई। (रामचरित मानस)
      (यति १६-१२ पर, १२ वी, २६ वी मात्राएँ दीर्घ, ५ वी, १९ वी मात्राएँ लघु)
                                                                                                                                        ०६. करुना निधान सुजा सील सने जानत रारो। (रामचरित मानस) 
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
                                                                                                                                                          ०७. इहि के ह्रदय बस जाकी जानकी उर मम बा है। (रामचरित मानस) 
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी,  २६ वी मात्राएँ लघु, १९ वी मात्रा दीर्घ)
                                                                                                                                                            ०८. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचरित मानस) 
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी,  १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
                                                                                                                                                              ०९. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचंद्रिका)
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी,  १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
                                                                                                                                                १०. जिसको  निज / गौरव था / निज दे का / अभिमा है।
      वह नर हीं / नर-पशु निरा / है और मृक समा है। (मैथिलीशरण गुप्त )
      (यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी,  १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
                                                                                                                                                           ११. जब ज्ञान दें / गुरु तभी  नर/ निज स्वार्थ से/ मुँह मोड़ता।
      तब आत्म को / परमात्म से / आध्यात्म भी / है जोड़ता।।(संजीव 'सलिल')
    
अभिनव प्रयोग:
हरिगीतिका मुक्तक:
      पथ कर वरण, धर कर चरण, थक मत चला, चल सफल हो.
      श्रम-स्वेद अपना नित बहा कर, नव सृजन की फसल बो..
      संचय न तेरा साध्य, कर संचय न मन की शांति खो-
      निर्मल रहे चादर, मलिन हो तो 'सलिल' चुपचाप धो..
      *
      करता नहीं, यदि देश-भाषा-धर्म का, सम्मान तू.
      धन-सम्पदा, पर कर रहा, नाहक अगर, अभिमान तू..
      अभिशाप जीवन बने तेरा, खो रहा वरदान तू-
      मन से असुर, है तू भले, ही जन्म से इंसान तू..
      *
      करनी रही, जैसी मिले, परिणाम वैसा ही सदा.
      कर लोभ तूने ही बुलाई शीश अपने आपदा..
      संयम-नियम, सुविचार से ही शांति मिलती है 'सलिल'-
      निस्वार्थ करते प्रेम जो, पाते वही श्री-संपदा..
      *
      धन तो नहीं, आराध्य साधन मात्र है, सुख-शांति का.
      अति भोग सत्ता लोभ से, हो नाश पथ तज भ्रान्ति का..
      संयम-नियम, श्रम-त्याग वर, संतोष कर, चलते रहो-
      तन तो नहीं, है परम सत्ता उपकरण, शुचि क्रांति का..
      *
      करवट बदल ऋतुराज जागा विहँस अगवानी करो.
      मत वृक्ष काटो, खोद पर्वत, नहीं मनमानी करो..
      ओजोन है क्षतिग्रस्त पौधे लगा हरियाली करो.
      पर्यावरण दूषित सुधारो अब न नादानी करो..
      *
उत्सव मनोहर द्वार पर हैं, प्यार से मनुहारिए. 
पथ भोर-भूला गहे संध्या, विहँसकर अनुरागिए ..
सबसे गले मिल स्नेहमय, जग सुखद-सुगढ़ बनाइए. 
नेकी विहँसकर कीजिए, फिर स्वर्ग भू पर लाइए..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
जलसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें अनवरत,  लय सधे सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
त्यौहार पर दिल मिल खिलें तो, बज उठें शहनाइयाँ.
मड़ई मेले फेसटिवल या हाट की पहुनाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या संग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ.. 
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप निज प्रतिमान को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियाँ अनुमान को..
एक्जामिनेशनटेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यही है,  इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध विनती निवेदन है व्यर्थ मत टकराइए.
हर इल्तिजा इसरार सुनिए, अर्ज मत ठुकराइए..
कर वंदना या प्रार्थना हों अजित उत्तम युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
*
समस्यापूर्ति 

बाँस (हरिगीतिका)
*
रहते सदा झुककर जगत में सबल जन श्री राम से
भयभीत रहते दनुज सारे त्रस्त प्रभु के नाम से
कोदंड बनता बाँस प्रभु का तीर भी पैना बने
पतवार बन नौका लगाता पार जब अवसर पड़े
*
बँधना सदा हँस प्रीत में, हँसना सदा तकलीफ में
रखना सदा पग सीध में, चलना सदा पग लीक में
प्रभु! बाँस सा मन हो हरा, हो तीर तो अरि हो डरा
नित रीत कर भी हो भरा, कस लें कसौटी हो खरा 
​ 
*
नवगीत:
*
पहले गुना
तब ही चुना
जिसको ताजा
वह था घुना
*
सपना वही
सबने बना
जिसके लिए
सिर था धुना
*
अरि जो बना
जल वो भुना
वह था कहा
सच जो सुना
.
(प्रयुक्त छंद: हरिगीतिका)

नवगीत:

*

करना सदा
वह जो सही
*
तक़दीर से मत हों गिले
तदबीर से जय हों किले
मरुभूमि से जल भी मिले
तन ही नहीं मन भी खिले
वरना सदा
वह जो सही
भरना सदा
वह जो सही
*
गिरता रहा, उठता रहा
मिलता रहा, छिनता रहा
सुनता रहा, कहता रहा
तरता रहा, मरता रहा
लिखना सदा
वह जो सही
दिखना सदा
वह जो सही
*
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
सहना सदा
वह जो सही
तहना सदा
वह जो सही
*
(प्रयुक्त छंद: हरिगीतिका)
____________________________________________________________

sher

द्विपदि (शेर)
*
मुझ बिन न तुझमें जां रहे बोला ये तन से मन
मुझ बिन न तू यहां रहे, तन मन से कह रहा

*

sher

द्विपदि (शेर)
*
औरों की ताकिए न 'सलिल' आप घूम-घूम
बीबी, बहिन, दौलत कभी अपनी निहारिए    

*

sher

द्विपदि (शेर)
*
रटकर किताब से नकल की कॉपियों पे रोज
समझे न कुछ परीक्षा मगर पास हो गये  

*

sher

द्विपदि (शेर)
*
सिंदूर-तेल पोत देव हो गये पत्थर 
धंधा ये ब्यूटीपार्लर का आज का नहीं  

*

sher

द्विपदि (शेर)
*
आखर ही आखिरी में रहा आदमी के साथ 
बाकी कलम-दवात से रिश्ते फना हुए 

*

sher

द्विपदि (शेर)
*
जिसको न अपने आप पर विश्वास रह गया
वो आसरा तलाश खुद ही दास हो गया

*

sher

द्विपदि (शेर)
*
हर हसीं हँसी न होगी दिलरुबा कभी
दिल पंजीरी नहीं जो हर को आप बाँट दें

*

sher

द्विपदि (शेर)
*
औरों से पूछताछ की तूने बहुत 'सलिल'
खुद अपने आप से भी कभी बातचीत कर
*

सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

muktika

मुक्तिका
*
कौए अब तो बाज हुए
जुगनू कहते गाज हुए
*
चमरौधा भी सर चढ़कर
बोला हम तो ताज हुए
*
नाम मात्र के कपड़े ही
अब नारी की लाज हुए
*
कल के जिम्मे 'सलिल' सभी
जो करने हैं काज हुए
*
गूँगे गाते हैं ठुमरी
सुरविहीन सब साज हुए
*

muktika

मुक्तिका -
अपना रिश्ता ढहा मकान 
आया तूफां उड़ा मचान 
*
जिसमें गाहक कोई नहीं 
दिल का नाता वही दूकान
*
आँसू, आहें, याद हसीं
दौलत मैं हूँ शाहजहान
*
गम गुम हो गर दुनिया से
कैसे ख़ुशी बने मेहमान?
*
अजय न होना युग-युग तक
विजय मिटाये बना निशान
*

muktika

मुक्तिका-
*
चुप नाज़नीं के कीजिए नखरे सभी कुबूल
वरना हिलेगी जिंदगी की एक-एक चूल 
*
जो कह रहे, कर लो वही, क्या हर्ज़?, फर्ज़ है
आँखों में ख्वाब वस्ल का पल भर भी सके झूल
*
मुस्कान आतिशी मिले तो मान लेना मन
उनका हरेक लफ्ज़ बना जिंदगी का रूल
*
तकनीक प्यार की करो तकरार चंद पल
इज़हार हार का खिलाये धूल में भी फूल
*
हमने 'खलिश' को दिल में बसा सर लिया झुका
तुमने नजर चुरा 'सलिल' को कर लिया कबूल
*