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रविवार, 6 सितंबर 2015

kruti charcha

कृति चर्चा:
'खुशबू सीली गलियों की' : प्राण-मन करती सुवासित  
चर्चाकार: संजीव 
*
[कृति विवरण: खुशबू सीली गलियों की, नवगीत संग्रह, सीमा अग्रवाल, २०१५, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद , गीतकार संपर्क: ७५८७२३३७९३]

*
भाषा और साहित्य समाज और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सतत परिवर्तित होता है. गीत मनुष्य के मन और जीवन के मिलन से उपजी सरस-सार्थक अभिव्यक्ति है रस और अर्थ न हो तो गीत नहीं हो सकता। गीतकार के मनोभाव शब्दों से रास करते हुए कलम-वेणु से गुंजरित होकर आत्म को आनंदित कर दे तो गीत स्मरणीय हो जाता है। 'खुशबू सीती गलियों की' की गीति रस-छंद-अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर नव वसन धारण कर नवगीत की भावमुद्रा में पाठक का मन हरण करने में सक्षम हैं 

गीत और अगीत का अंतर मुखड़े और अंतरे पर कम और कथ्य की प्रस्तुति के तरीके पर अधिक निर्भर है।सीमा जी की ये रचनायें २ से ५ पंक्तियों के मुखड़े के साथ २ से ५ अंतरों का संयोजन करते हैं अपवाद स्वरूप 'झाँझ हुए बादल' में  ६ पंक्तियों के २ अंतरे मात्र हैं केवल अंतरे का मुखड़ाहीन गीत नहीं है शैल्पिक नवता से अधिक महत्त्वपूर्ण कथ्य और छंद की नवता होती है जो नवगीत के तन में मन बनकर निवास करती और अलंकृत होकर पाठक-श्रोता के मन को मोह लेती है 

सीमा जी की यह कृति पारम्परिकता की नींव पर नवता की भव्य इमारत बनाते हुए निजता से उसे अलंकृत करती है ये नवगीत चकित या स्तब्ध नहीं आनंदित करते हैं. धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय पर्वों-त्यहारों की विरासत सम्हालते ये गीत आस्मां में उड़ान भरने के पहले अपने कदम जमीन पर मजबूती से जमाते हैं यह मजबूती देते हैं छंद अधिकाँश नवगीतकार छंद के महत्व को न आंकते हुई नवता की तलाश में छंद में जोड़-घटाव कर अपनी कमाई छिपाते हुए नवता प्रदर्शित करने का प्रयास करते हुई लड़खड़ाते हुए प्रतीत होते हैं किन्तु सीमा जी की इन नवगीतों को हिंदी छंद के मापकों से परखें या उर्दू बह्र के पैमाने पर निरखें वे पूरी तरह संतुलित मिलते हैं पुरोवाक में श्री ओम नीरव ने ठीक ही कहा है कि सीमा जी गीत की पारम्परिक अभिलक्षणता को अक्षुण्ण रखते हुए निरंतर नवल भावों, नवल प्रतीकों, नवल बिम्ब योजनाओं और नवल शिल्प विधान की उद्भावना करती रहती हैं 

 'दीप इक मैं भी जला लूँ' शीर्षक नवगीत ध्वनि खंड २१२२ (फाइलातुन) पर आधारित है  [संकेत- । = ध्वनि खंड विभाजन, / = पंक्ति परिवर्तन, रेखांकित ध्वनि लोप या गुरु का लघु उच्चारण]   

तुम मुझे दो । शब्द / औ मैं /। शब्द को गी। तों में ढालूँ 
  २  १२   २  ।  २ १ /   २   २ /।   २ १  २  २ ।  २  १  २२   = २८ मात्रा 
बरसती रिम । झिम की / हर इक । बूँद में / घुल । कर बहे जो 
 २  १ २   २  ।    २     १ /  २   २  ।  २ १ २  /  २ ।   २  १२  २  = २८ मात्रा 
थाम आँचल । की किनारी ।/ कान में / तुम । ने कहे जो  
 २  १  २  २  ।   २  १  २  २ ।/ २ १  २  / २  ।  २  १२   २  = २८ मात्रा 
फिर उन्हीं निश्  छल  पलों को।/  तुम कहो तो ।/ आज फिर से  
  २   १  २   २   ।   २    १  २  २ ।/   २   १  २  २ ।/  २ १   २   २  = २८ मात्रा  
 गुनगुना लूँ  । तुम मुझे दो । शब्द
  २   १ २  २  ।  २    १ २  २ ।  २ १   = १७ मात्रा 
ओस भीगी । पंखुरी सा / मन सहन / निख ।  रा  है  ऐसे 
 २ १   २ २  ।  २१२   २ । / २    १ २  /    २   । २  १  २ २ = २८ मात्रा 
स्वस्ति श्लोकों । के मधुर स्वर । / घाट पर / बिख। रे हों जैसे
  २  १    २  २ ।  २  १  २    २  । / २ १   २ /    २  ।  २ १ २२ = २८ मात्रा 
नेह की मं । दाकिनी में ।/ झिलमिलाता ।/ दीप इक  = २६ मात्रा    
 २ १ २  २ ।  २ १  २  २ ।/    २   १ २  २ ।/   २१  २   
मैं । भी जला लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ ।  २  १  २  २    २    १ २ २ ।  २ १ = १९ मात्रा   

इस नवगीत पर उर्दू का प्रभाव है। 'और' को औ' पढ़ना, 'की' 'में' 'है' तथा 'हों' का लघु उच्चारण व्याकरणिक दृष्टि से विचारणीय है ऐसे नवगीत गीत हिंदी छंद विधान के स्थान पर उर्दू बह्र के आधार पर रचे गये हैं 
इसी बह्र पर आधारित अन्य नवगीत 'उफ़! तुम्हारा / मौन कितना / बोलता है',  अनछुए पल / मुट्ठियों में / घेर कर', हर घड़ी ऐ/से जियो जै/से यही बस /खास है',  पंछियों ने कही / कान में बात क्या? आदि हैं 

पृष्ठ ७७ पर हिंदी पिंगल के २६ मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद पर आधारित नवगीत [प्रति पंक्ति में १४-१२ मात्राएँ तथा पंक्त्याँत में लघु-गुरु अनिवार्य]  का विश्लेषण करें तो इसमें २१२२ ध्वनि खंड की ३ पूर्ण तथा चौथी अपूर्ण आवृत्ति समाहित किये है स्पष्ट है कि उर्दू बह्रें हिंदी छंद की नीव पर ही खड़ी की गयी हैं. हिंदी में गुरु का लघु तथा लघु का गुरु उच्चारण दोष है जबकि उर्दू में यह दोष नहीं है. इससे रचनाकार को अधिक सुविधा तथा छूट मिलती है
कौन सा पल । ज़िंदगी का ।/ शीर्षक हो । क्या पता?  
 २ १  २   १   ।  २  १  २  २ ।  २ १ २ २   । २ १ २    = १४ + १२ = २६ मात्रा 
हर घड़ी ऐसे जियो /जै।/से यही बस । खास है 
 २  १ २  १।२  १  २  २ ।/ २ १ २  २  ।  २ १   २    = १४ + १२ = २६ मात्रा 

'फूलों का मकरंद चुराऊँ / या पतझड़ के पात लिखूँ' पृष्ठ ९८ में महातैथिक जातीय लावणी (१६-१४, पंक्यांत में मात्रा क्रम बंधन नहीं) का मुखड़ा तथा स्थाई हैं जबकि अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक  प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु नियम को शिथिल किया गया है  

'गीत कहाँ रुकते हैं / बस बहते हैं तो बहते हैं' - पृष्ठ १०९ में २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंदों का मिश्रित प्रयोग है। मुखड़े में १२= १६, स्थाई में १४=१४ व १२ + १६  अंतरों में १६=१२, १४=१४, १२+१६  संयोजनों का प्रयोग हुआ है। गीतकार की कुशलता है  कि कथ्य के अनुरूप छंद के विधान में विविधता होने पर भी लय तथा रस प्रवाह अक्षुण्ण है

'बहुत दिनों के बाद' शीर्षक गीत पृष्ठ ९५ में मुखड़ा 'बहुत दिनों के बाद / हवा फिर से बहकी है' में रोला (११-१३)  प्रयोग हुआ है किन्तु स्थाई में 'गौरैया आँगन में / आ फिर से चहकी है, आग बुझे चूल्हे में / शायद फिर दहकी है तथा थकी-थकी अँगड़ाई / चंचल हो बहकी है' में  १२-१२ = २४ मात्रिक अवतारी जातीय दिक्पाल छंद का प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु-गुरु का पालन हुआ है। तीनों अँतरेरोल छंद में हैं  

'गेह तजो या देवों जागो / बहुत हुआ निद्रा व्यापार' पृष्ठ ६३ में आल्हा छंद (१६-१५, पंक्त्यांत गुरु-लघु) का प्रयोग करने का सफल प्रयास कर उसके साथ सम्पुट लगाकर नवता उत्पन्न करने का प्रयास हुआ है। अँतरे ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय मिश्रित छंदों में हैं

'बहुत पुराना खत हाथों में है लेकिन' में  २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद में मुखड़ा, अँतरे व स्थाई हैं किन्तु यति १०,  १२ तथा ८ पर ली गयी है यह स्वागतेय है क्योंकि इससे विविधता तथा रोचकता उत्पन्न हुई है

सीमा जी के नवगीतों का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष उनका जीवन और जमीन से जुड़ाव है वे कपोल कल्पनाओं में नहीं विचरतीं इसलिए उनके नवगीतों में पाठक / श्रोता को अपनापन मिलता है। आत्मावलोकन और आत्मालोचन ही आत्मोन्नयन की राह दिखाता है। 'क्या मुझे अधिकार है?' शीर्षक नवगीत इसी भाव से प्रेरित है। 

'रिश्तों की खुशबु', 'कनेर', 'नीम', 'उफ़ तुम्हारा मौन', 'अनबाँची रहती भाषाएँ', 'कमला रानी', 'बहुत पुराना खत' आदि नवगीत इस संग्रह की पठनीयता में वृद्धि करते हैं। सीमा जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य प्रसाद गुण संपन्न, प्रवाहमयी, सहज भाषा है। वे शब्दों को चुनती नहीं हैं, कथ्य की आवश्यकतानुसार अपने आप  हैं इससे उत्पन्न प्रात समीरण की तरह ताजगी और प्रवाह उनकी रचनाओं को रुचिकर बनाता है। लोकगीत, गीत और मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) में अभिरुचि ने अनजाने ही नवगीतों में छंदों और बह्रों  समायोजन करा दिया है। 

तन्हाई की नागफनी, गंध के झरोखे, रिवाज़ों का काजल, सोच में सीलन, रातरानी से मधुर उन्वान, धुप मवाली सी, जवाबों की फसल, लालसा के दाँव, सुर्ख़ियों की अलमारियाँ, चन्दन-चंदन बातें, आँचल की सिहरन, अनुबंधों की पांडुलिपियाँ आदि रूपक  छूने में समर्थ हैं. 

इन गीतों में सामाजिक विसंगतियाँ,  वैषम्य से जूझने का संकल्प, परिवर्तन की आहट, आम जन की अपेक्षा, सपने, कोशिश का आवाहन, विरासत और नव सृजन हेतु छटपटाहट सभी कुछ है। सीमा जी के गीतों में आशा का आकाश अनंत है: 
पत्थरों के बीच इक / झरना तलाशें 
आओ बो दें / अब दरारों में चलो / शुभकामनाएँ 
*
टूटती संभावनाओं / के असंभव / पंथ पर 
आओ, खोजें राहतों की / कुछ रुचिर नूतन कलाएँ 
*
उनकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ निराला है:
उफ़, तुम्हारा मौन / कितना बोलता है  
वक़्त की हर शाख पर / बैठा हुआ कल
बाँह में घेरे हुए मधुमास / से पल 
अहाते में आज के / मुस्कान भीगे 
गंध के कितने झरोखे / खोलता है 
तुम अधूरे स्वप्न से / होते गए 
और मैं होती रही / केवल प्रतीक्षा 
कब हुई ऊँची मुँडेरे / भित्तियों से / क्या पता? 
दिन निहोरा गीत / रचते रह गए 
 रातें अनमनी / मरती रहीं / केवल समीक्षा 
 'कम लिखे से अधिक समझना' की लोकोक्ति सीमा जी के नवगीतों के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती है। नवगीत आंदोलन में आ रहे बदलावों के परिप्रेक्ष्य में कृति का महत्वपूर्ण स्थान है. अंसार क़म्बरी  कहते हैं: 'जो गीतकार भाव एवं संवेदना से प्रेरित होकर गीत-सृजन करता है वे गीत चिरंजीवी एवं ह्रदय उथल-पुथल कर देने वाले होते हैं' सीमा जी के गीत ऐसे ही हैं। 

सीमाजी के अपने शब्दों में: 'मेरे लिए कोई शै नहीं जिसमें संगीत नहीं, जहाँ पर कोमल शब्द नहीं उगते , जहाँ भावों की नर्म दूब नहीं पनपती।हंसी, ख़ुशी, उल्लास, सकार निसर्ग के मूल भाव तत्व है, तभी तो सहज ही प्रवाहित होते हैं हमारे मनोभावों में मेरे शब्द इन्हें ही भजना चाहते हैं, इन्हीं का कीर्तन चाहते हैं।' 
यह कीर्तन शोरोगुल से परेशान आज के पाठक के मन-प्राण को आनंदित करने समर्थ है. सीमा जी की यह कीर्तनावली नए-नए रूप लेकर पाठकों को आनंदित करती रहे.
***

   

शनिवार, 5 सितंबर 2015

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'
*
गड्ढों की
गिनती मत कर
मत खोज सड़क.
रुपया माँगे
अगर सिपाही
नहीं भड़क.
पैडल घुमा
न थकना-रुकना
बढ़ना है.
खड़ी चढ़ैया
दम-ख़म साधे
चढ़ना है.
बहा पसीना
गमछा लेकर
पोंछ, न रुक.
रामभरोसे!
बढ़ता चल
सुन सूरज की
बात: 'कीमती
है हर पल.'
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'
*
बचुवा की
लेना किताब,
पैसे हैं कम.
खाँस-खाँस
अम्मा की आँखें
होतीं नम.
चाब न पाते
रोटी, डुकर
दाँत टूटे.
धुतिया फ़टी
पहन घरनी
चुप, सुख लूटे.
टायर-ट्यूब
बदल, खालिस  
सपने मत बुन.
चाय-समोसे  
गटक,
सवारी बैठा,
खाली हाथ
न मल.
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'
*
डिजिटल-फिजिटल
काम न कुछ भी
आना है.
बिटिया को
लोटा लेकर ही
जाना है.
मुई सियासत
अपनेपन में
आग लगा.
दगा दे गयी
नहीं किसी का
कोई सगा.
खाली खाता
ठेंगा दिखा
चिढ़ाता है.
अच्छा मन
कब काम
कभी कुछ
आता है?
अच्छे दिन,
खा खैनी,
रिक्सा खींच
सम्हाल रे!
नहीं फिसल।
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'
*

navgeet

नवगीत:
संजीव 
*
वाजिब है 
वे करें शिकायत 
भेदभाव की आपसे
*
दर्जा सबसे अलग दे दिया
चार-चार शादी कर लें.
पा तालीम मजहबी खुद ही
अपनी बर्बादी वर लें.
अलस् सवेरे माइक गूँजे
रब की नींद हराम करें-
अपनी दुख्तर जिन्हें न देते
उनकी दुख्तर खुद ले लें.
फ़र्ज़ भूल दफ़्तर से भागें
कहें इबादत ही मजहब।
कट्टरता-आतंकवाद से
खुश हो सकता कैसे रब?
बिसरा दी
सूफी परंपरा
बदतर फतवे खाप से.
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
भारत माँ की जय से दूरी
दें न सलामी झंडे को.
दहशतगर्दों से डरते हैं
तोड़ न पाते डंडे को.
औरत को कहते जो जूती
दें तलाक जब जी चाहे-
मिटा रहे इतिहास समूचा
बजा सलामी गुंडे को.
रिश्ता नहीं अदब से बाकी
वे आदाब करें कैसे?
अपनों का ही सर कटवाते
देकर मुट्ठी भर पैसे।
शासन गोवध
नहीं रोकता
नहीं बचाता पाप से
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
दो कानून बनाये हैं क्यों?
अलग उन्हें क्यों जानते?
उनकी बिटियों को बहुएँ
हम कहें नहीं क्यों मानते?
दिये जला, वे होली खेलें
हम न मनाते ईद कभी-
मिटें सभी अंतर से अंतर
ज़िद नहीं क्यों ठानते?
वे बसते पूरे भारत में
हम चलकर कश्मीर बसें।
गिले भुलाकर गले मिलें
हँसकर बाँहों में बाँध-गसें।
एक नहीं हम
नज़र मिलायें
कैसे अपने आपसे?
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
(उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी द्वारा मुस्लिमों से भेदभाव की शिकायत पर)

दोहा सलिला

doha salila:
रचना-रचनाकार को, नित कर नम्र प्रणाम
'सलिल' काम निष्काम कर, भला करेंगे राम
ईश्वर तथा प्रकृति को नमन कर निस्वार्थ भाव से कार्य करने से प्रभु कृपा करते हैं.
परमात्मा धारण करे, काया होकर आत्म
कहलाये कायस्थ तब, तजे मिले परमात्म
निराकार परब्रम्ह अंश रूप में काया में रहता है तो कायस्थ कहलाता है. जब वह काया का त्याग करता है तो पुन: परमात्मा में मिल जाता है.
श्री वास्तव में मिले जब, खरे रहें व्यवहार
शक-सेना हँस जय करें, भट-नागर आचार
वास्तव में समृद्धि तब ही मिलती है जब जुझारू सज्जन अपने आचरण से संदेहों को ख़ुशी-ख़ुशी जीत लेते हैं।
संजय दृष्टि तटस्थ रख, देखे विधि का लेख
वर्मा रक्षक सत्य का, देख सके तो देख
महाभारत युद्ध में संजय निष्पक्ष रहकर होनी को घटते हुए देखते रहे. अपनी देश और प्रजा के रक्षक नरेश (वर्मा = अन्यों की रक्षा करनेवाला) परिणाम की चिंता किये बिना अपनी प्रतिबद्धता के अनुसार युद्ध कर शहीद हुए।
शांत रखे तन-मन सदा, शांतनु तजे न धैर्य
हो न यादवी युद्ध अब, जीवन हो निर्वैर्य
देश के शासक हर स्थिति में तन-मन शांत रखें, धीरज न तजें. आपसी टकराव (कृष्ण के अवसान के तुरंत बाद यदुवंश आपस में लड़कर समाप्त हुआ) कभी न हो. हम बिना शत्रुता के जीवन जी सकें।
सिंह सदृश कर गर्जना, मेघ बरस हर ताप
जगती को शीतल करे, भले शेष हो आप
परोपकारी बदल शेर की तरह गरजता है किन्तु धरती की गर्मी मिटाने के लिये खुद मिट जाने तक बरसता है।

ek chat warta, काम

एक चैट वार्ता:
कुछ दिन पूर्व एक वार्ता आपसे साझा की थी. आज एक अन्य वार्ता से आपको जोड़ रहा हूँ. कोई कहानीकार इन पर कहानी का तन-बाना बुन सकता है. आपसे साझा करने का उद्देश्य समाज में बढ़ रही प्रवृत्तियों का साक्षात है. समाज में हो रहे वैचारिक परिवर्तन का संकेत इन वार्ताओं से मिलता है.

- hi
= नमस्कार
पर्व नव सद्भाव के
संजीव 'सलिल'
*
हैं आ गये राखी कजलियाँ, पर्व नव सद्भाव के.
सन्देश देते हैं न पकड़ें, पंथ हम अलगाव के..
भाई-बहिन सा नेह-निर्मल, पालकर आगे बढ़ें.
सत-शिव करें मांगल्य सुंदर, लक्ष्य सीढ़ी पर चढ़ें..
शुभ सनातन थाती पुरातन, हमें इस पर गर्व है.
हैं जानते वह व्याप्त सबमें, प्रिय उसे जग सर्व है..
शुभ वृष्टि जल की, मेघ, बिजली, रीझ नाचे मोर-मन.
कब बंधु आये? सोच प्रमुदित, हो रही बहिना मगन..
धारे वसन हरितिमा के भू, लग रही है षोडशी.
सलिला नवोढ़ा नारियों सी, कथा है नव मोद की..
शालीनता तट में रहें सब, भंग ना मर्याद हो.
स्वातंत्र्य उच्छ्रंखल न हो यह, मर्म सबको याद हो..
बंधन रहे कुछ तभी तो हम, गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..
बंधन अप्रिय लगता हमेशा, अशुभ हो हरदम नहीं.
रक्षा करे बंधन 'सलिल' तो, त्याज्य होगा क्यों कहीं?
यह दृष्टि भारत पा सका तब, जगद्गुरु कहला सका.
रिपुओं का दिल संयम-नियम से, विजय कर दहला सका..
इतिहास से ले सबक बंधन, में बंधें हम एक हों.
संकल्पकर इतिहास रच दें, कोशिशें शुभ नेक हों..
***
- hi
= कहिए, कैसी हैं?

- thik hu ji
= क्या कर रही हैं आजकल?

- kuch nahi ji. aap kyaa karte ho ji?
=मैं लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर रहा. अब सेवा निवृत्त  हूँ.

- aachha ji
= आपके बच्चे किन कक्षाओं में हैं?

- beta 4th me or beti 3 मे.
= बढ़िया. उनके साथ रोज शाम को रामचरित मानस के ५ दोहे अर्थ के साथ पढ़ा करें। इससे वे नये  शब्द और छंद को समझेंगे। उनकी परीक्षा में उपयोगी होगा। गाकर पढ़ने से आवाज़ ठीक होगी।

- ji. me aapke charan sparsh karti hu. aap bahut hi nek or aachhe insan he.
= सदा प्रसन्न रहें। बच्चों की पहली और सबसे अधिक प्रभावी शिक्षक माँ ही होती है. माँ  बच्चों की सखी भी हो तो बच्चे बहुत सी बुराइयों से बच जाते हैं.

- or sunaao kuch. mujhe aap s bat karke bahut aacha laga ji
= आपके बच्चों के नाम क्या हैं?

- beta sachin beti sandhya
= रोज शाम को एकाग्र चित्त होकर लय सहित मानस का पाठ करने से आजीवन शुभ होता है.

- wah wah kya bat he ji. aap mere guru ji ho
= आपकी सहृदयता के लिए धन्यवाद। बच्चों को बहुत सा आशीर्वाद

- orr sunaao aapko kya pasand he? mere layk koi sewa?
= आप कहाँ तक पढ़ी हैं? कौन से विषय थे.
- 10 pas hu. koi job karna chahti hu.
= अभी नहीं। पहले मन को मजबूत कर १२ वीं पास करें। प्राइवेट परीक्षा दें. साथ में कम्प्यूटर सीखें। इससे आप बच्चों को मदद कर सकेंगी. बच्चों को ८० प्रतिशत अंक मिलें तो समझें आप को मिले. आप के पति क्या करते हैं? आय कितनी है?

- ha par m padhai nahi kar sakti hu. computar chalaana to aata he mujhe
 mobail repering ka kam he dukaan he khud ki
= तब तो सामान्य आर्थिक स्थिति है. बच्चे कॉलेज में जायेंगे तो खर्च अधिक होगा। अभी से सोचना होगा। आप किस शहर में हैं?

- ……।
= आय लगभग १५-२०  हजार रु. मानूं तो भी आपको कुछ कमाना होगा। कम्प्यूटर में माइक्रौसौफ़्ट ऑफिस, माइक्रोसॉफ्ट वर्ड, विंडो आदि सीखना होगा। बच्चे छोटे हैं इसलिए घर में रहना भी जरूरी है. आप घर पर वकीलों और किताबों का टाइपिंग काम करें तो अतिरिक्त आय का साधन हो सकता है. बाहर नौकरी करेंगी तो घर में अव्यवस्था होगी.

- bahar bhi kar lugi yadi job achha he to. 10 hajar s jyada nahi kama pate he.
= अच्छी नौकरी के लिए १० वीं पर्याप्त नहीं है. आजकल प्राइवेट स्कूल १ से ३ हजार में  शिक्षिकाएं रखते हैं जो BA या MA होती हैं. कंप्यूटर से टाइपिंग सीखने में २-३ माह लगेंगे और आप घर पर काम कर अच्छी आय कर सकती हैं. घर कहाँ है?

- steshan k pas men rod par, kabhi aana to hum s jarur milna aap.

= दूसरा रास्ता घर में पापड़, आचार, बड़ी आदि बनाकर बेचना है. यह घर, दूकान तथा सरकारी दफ्तरों में किया जा सकता है. नौकरी करने वाली महिलाओं को घर में बनाने का समय नहीं मिलता। आपसे स्वच्छ, स्वादिष्ट तथा सस्ता सामान मिल सकेगा। त्योहारों आर मिठाई भी बना कर बेच सकती हैं. इसमें लगभग ६० % का फायदा है. जबलपुर में मेरी एक रिश्तेदार ने इसी तरह अपने बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई  कराई है. यह सुझाव  उन्हें भी मैंने ही दिया था.
- thank u ji
= पति के साथ सोच-विचार कर कोई निर्णय करें जिसमें घर और बच्चों को देखते हुए भी आय कर सकें. घर में और कौन-कौन हैं?

- total femli 4 log, sas sasur nahi he, bhai sab aalag rahte he
= फिर तो पूरी जिम्मेदारी आप पर है, वे होते तो आपके बाहर जाने पर बच्चों को बड़े देख लेते। मेरी समझ में बेहतर होगा कि आप घर से ही काम करें।

- ji, hamari bhai ki ladki yahi p rahti he coleej ki padhai kar rahi he ghar ka kam to bo kar leti he. m jyadatar free rahti hu. isliye kuch karne ka socha

= घर में सामान बना कर बेचेंगी, अथवा पढ़ाई करेंगी या टाइपिंग का काम करेंगी तो समय कम पड़ेगा। घर पर करने से घर और बच्चों की देख-रेख कर सकेंगी. थकान होने पर सुस्ता सकेंगी, बाहर की नौकरी में घर छोड़ना होग. समय अधिक लगेगा. आने-जाने में भी खर्च होग. वेतन भी कम ही मिलेगा. उससे अधिक आप घर पर काम कर कमा सकती हैं. बनाया हुआ सामान बिकने लगे तो फिर काम बढ़ता जाता है. त्योहारों पर सहायक रखकर काम करना होता है. मैदा, बेसन आदि बोरों से खरीदने अधिक बचत होती है. आप लड्डू, बर्फी, सेव, बूंदी, मीठी-नमकीन मठरी, शकरपारे, गुझिया, पपड़ियाँ आदि बना लेती होंगी। अभी यह योग्यता घर तक सीमित है.

- mujhe ghumna pasand he. aap jese jankar or sammaniy logos bat karna aacha lagta he. gana gane ka shook he
= जब सामान बना लेंगी तो बेचने के लिए घूमना होगा। सरकारी दफ्तरों में काम करनेवाले कर्मचारी ही आपके ग्राहक होंगे.  जिनके घरों में महिलायें बनाना नहीं जानतीं, बीमार हैं, या आलसी हैं वे सभी घर का बना साफ़-सुथरा सामान खरीदना पसंद करते हैं.गायन अच्छी कला है पर इससे धन कमाना कठिन है.  अधिकांश कार्यक्रम मुफ्त देना होते हैं, लगातार अभ्यास करना होता है. आयोजक या व्यवस्था ठीक न हो तो कठिनाई होती है. पूरी टीम चाहिए। गायक-गायिका, वादक, माइक आदि

- ji, aapko kya pasand he
= आपकी परिस्थितियों, वातावरण और साधनों को देखते हुए अधिक सफलता घर में सामान बनाकर बेचने से मिल सकती है. नौकरीवालों के लिए टिफिन भी बना सकती हैं. इससे घर के सदस्यों का भोजन-व्यय बच जाता है. कमाई होती है सो अलग.
गायन, वादन, नर्तन आदि शौक हो सकते हैं पर इनसे कमाई की सम्भावना काम है.

- aapko kya pasand he
= मुझे हिंदी मैया की सेवा करना पसंद है. रिटायर होने के बाद रोज १०-१२ घंटे लिखता-पढ़ता हूँ. चैटिंग के माध्यम से समस्याएं सुलझाता हूँ.

- thank u. i l u. i lick  u
= प्रभु आपकी सहायता करें.. कंप्यूटर पर हिंदी में लिखना सीख लें.

- aap  bhi kuch sahayta karo
= इतना विचार-विमर्श और मार्गदर्शन सहायता ही तो है.

- haa ji
= आपने गायन के जो कार्यक्रम किये उनसे कितनी आय हुई ?

- मै आपको मिल जाऊँ तो आप क्या करोगे । 1. दोस्ती, 2.प्यार, 3. सेक्स। mene koi karykaran nahi kiya he kewal shook he ghar p gati rahti hu
= मैं केवल लेखन और परामर्श देने में रूचि रखता हूँ. दोस्ती जीवन साथी से, प्यार बच्चों से करना उत्तम है. सेक्स का उद्देश्य संतान उत्पत्ति है. अब उसकी कोई भूमिका नहीं है.

- मै आपसे दोस्ती करना चाहती हूँ,
= सम्बन्ध तन, नहीं मन के हों तभी कल्याणकारी  होते हैं. आप विवाहिता हैं, माँ भी हैं, किसी के चाहने पर भी देह के सम्बन्ध कैसे बना सकती हैं?

- m kuch bhi kar sakti hu, paresan hu. peeso ki jarurathe mujhe
= चरित्र से बड़ा कुछ नहीं है. ऐसा कुछ कभी न करें जिससे आप खुद, पति या बच्चे शर्मिंदा हों. देह व्यापार से आत्मा निर्बल हो जाती है. मन को शांत करें, नित्य मानस-पाठ करें. दुर्गा  जी से सहायता की प्रार्थना करें।

- aap mujhe 10 hajar ru ki madad de sakte ho
= नहीं। अपने सहायक आप हो, होगा सहायक प्रभु तभी. श्रम करें, याचना नहीं।

- ok ji. muft ki salaah to har koi deta he kisi s 2 rupay mago to koi nahi deta. mene aapko aapna samajh kar madad magi thi  kuch bhi kam karne k liy peesa ki jarurat to sabse pahle hoti he   or wo mere pas nahi he ji
= राह पर कदम बढ़ाने से, मंज़िल निकट आती है. ठोकर लगे तो सहारा मिला जाता है अथवा ईश्वर उठ खड़े होने की हिम्मत देता है. किनारे बैठकर याचना करने पर भिक्षा मिल भी जाए तो मंज़िल नहीं मिलती.

- कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई
= आपको भी पर्व मंलमय हो
***

चित्र पर कविता










एक अभिनव अनुष्ठान:
प्रसंग है एक नवयुवती छज्जे पर क्रोधित मुख मुद्रा में है।
उसे देखकर लग रहा है कि जैसे वह छत से कूदकर आत्महत्या करने वाली है।
विभिन्न कवियों से अगर इस पर लिखने को कहा जाता तो वो कैसे लिखते ?
___________________________________
मैथिलीशरण गुप्त
अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी सी है अहो
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो?
धीरज धरो संसार में, किसके नही दुर्दिन फिरे
हे राम! रक्षा कीजिए, अबला न भूतल पर गिरे।
___________________________
रामधारी सिंह दिनकर
दग्ध ह्रदय में धधक रही,
उत्तप्त प्रेम की ज्वाला,
हिमगिरी के उत्स निचोड़,
फोड़ पाताल, बनो विकराला,
ले ध्वन्सो के निर्माण त्रान से,
गोद भरो पृथ्वी की,
छत पर से मत गिरो,
गिरो अम्बर से वज्र सरीखी.
_____________________
श्याम नारायण पांडे
ओ घमंड मंडिनी, अखंड खंड मंडिनी
वीरता विमंडिनी, प्रचंड चंड चंडिनी
सिंहनी की ठान से, आन बान शान से
मान से, गुमान से, तुम गिरो मकान से
तुम डगर डगर गिरो, तुम नगर नगर गिरो
तुम गिरो अगर गिरो, शत्रु पर मगर गिरो।
__________________________
गोपाल दास नीरज
रूपसी उदास न हो, आज मुस्कुराती जा
मौत में भी जिन्दगी, के फूल कुछ खिलाती जा
जाना तो हर एक को, यद्यपि जहान से यहाँ
जाते जाते मेरा मगर, गीत गुनगुनाती जा..
___________________________
गोपाल प्रसाद व्यास
छत पर उदास क्युं बैठी है
तू मेरे पास चली आ री ।
जीवन का सुख दुख कट जाये ,
कुछ मैं गाऊं,कुछ तू गा री। तू
जहां कहीं भी जायेगी
जीवन भर कष्ट उठायेगी ।
यारों के साथ रहेगी तो
मथुरा के पेडे खायेगी।
___________________
सुमित्रानन्दन पंत
स्वर्ण सौध के रजत शिखर पर
चिर नूतन चिर सुन्दर प्रतिपल
उन्मन उन्मन अपलक नीरव
शशि मुख पर कोमल कुन्तल पट
कसमस कसमस चिर यौवन घट
पल पल प्रतिपल
छल छल करती ,निर्मल दृग जल
ज्यों निर्झर के दो नीलकमल
यह रूप चपल, ज्यों धूप धवल
अतिमौन, कौन?
रूपसि बोलो,प्रिय, बोलो न?
______________________
काका हाथरसी
गोरी छज्जे पर चढ़ी, कूदन को तैयार
नीचे पक्का फर्श है, भली करें करतार
भली करें करतार, सभी जन हक्का बक्का
उत चिल्लाये सास, कैच ले लीजो कक्का
कह काका कविराय, अरी मत आगे बढ़ियो
उधर कूदियो नार, मुझे बख्शे ही रहियो।
__________________________
उपरोक्त कविताओं के रचनाकार ओम प्रकाश 'आदित्य' जी हैं. इस प्रसंग पर वर्तमान कवि भी अपनी बात कहें तो अंडंड में वृद्धि होगी.
इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
गोरी छज्जे पर चढ़ी, एक पांव इस पार.
परिवारीजन काँपते, करते सब मनुहार.
करते सब मनुहार, बख्श दे हमको देवी.
छज्जे से मत कूद. मालकिन हम हैं सेवी.
तेरा ही है राज, फँसा मत हमको छोरी.
धाराएँ बहु एक, लगा मत हम पर गोरी..
छोड़ूंगी कतई नहीं, पहुँचाऊंगी जेल.
सात साल कुनबा सड़े, कानूनी यह खेल.
कानूनी यह खेल, पटकनी मैं ही दूंगी.
रहूँ सदा स्वच्छंद, माल सारा ले लूंगी.
लेकर प्रेमी साथ, प्रेम-रुख मैं मोड़ूंगी.
होगी अपनी मौज, तुम्हें क्योंकर छोड़ूंगी..
लड़की करती मौज है, लड़के का हो खून.
एक आँख से देखता, एक-पक्ष क़ानून.
एक-पक्ष क़ानून, मुक़दमे फर्जी होते.
पुलिस कचेहरी मस्त, नित्यप्रति लड़के रोते.
लुट जाता घर बार, हाथ आती बस कड़की.
करना नहीं विवाह, देखना मत अब लड़की..
_______________________________
बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा से क्षमा प्रार्थना सहित
क्यों कूदूँ मैं छत से रे?
तुझ में दम है तो आ घर में बात डैड से कर ले रे!
चरण धूल अम्मा की लेकर माँग आप ही भर ले रे!
पदरज पाकर तर जायेगा जग जाएगा भाग रे!
देर न कर मेरे दिल में है लगी विरह की आग रे!
बात न मानी अगर समझ तू अवसर जाए चूक रे!
किसी सुर के दिल को देगी छेद नज़र बंदूक रे!
कई और भी लाइन में हैं सिर्फ न तुझसे प्यार रे! प्रिय-प्रिय जपते तुझ से ढेरों करते हैं मनुहार रे!
मेरी समिधा:
स्थिति १ :
सबको धोखा दे रही, नहीं कूदती नार
वह प्रेमी को रोकती, छत पर मत चढ़ यार
दरवाज़े पर रुक ज़रा, आ देती हूँ खोल
पति दौरे पर, रात भर, पढ़ लेना भूगोल
स्थिति २
खाली हाथों आये हो खड़े रहो हसबैंड
द्वार नहीं मैं खोलती बजा तुम्हारा बैंड
शीघ्र डिनर ले आओ तो दोनों लें आनंद
वरना बाहर ही सहो खलिश, लिखो कुछ छंद
स्थिति ३:
लेडी गब्बर चढ़ गयी छत पर करती शोर
मम्मी-डैडी मान लो बात करो मत बोर
बॉय फ्रेंड से ब्याह दो वरना जाऊँ भाग
छिपा रखा है रूम में भरवा लूँगी माँग
भरवा लूँगी माँग टापते रह जाओगे
होगा जग-उपहास कहो तो क्या पाओगे?
कहे 'सलिल' कवि मम्मी-डैडी बेबस रेड़ी
मनमानी करती है घर-घर गब्बर लेडी
*
सभी साथी अपनी समिधा हेतु साथी आमंत्रित हैं.
टीप: महीयसी की मूल रचना:
क्या पूजा क्या अर्चन रे!
उस असीम का सुंदर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे!
मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनन्दन रे!
पदरज को धोने उमड़े आते लोचन में जलकण रे!
अक्षत पुलकित रोम, मधुर मेरी पीड़ा का चन्दन रे!
स्नेहभरा जलता है झिलमिल मेरा यह दीपक-मन रे!
मेरे दृग के तारक में नव उत्पल का उन्मीलन रे!
धूप बने उड़ते जाते हैं प्रतिपल मेरे स्पंदन रे
प्रिय-प्रिय जपते अधर, ताल देता पलकों का नर्तन रे!

alankar charcha 5

अलंकार चर्चा: ५
वृत्त्यनुप्रास अलंकार
संजीव
*
हो एकाधिक वर्ण का, एकाधिक दुहराव
वृत्त्यनुप्रास पढ़ें 'सलिल', मन में हो जब चाव
जब काव्य पंक्तियों में एक या एकाधिक वर्णों की एक से अधिक बार आवृत्ति होती है तो वहाँ वृत्त्यनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण:
०१. अजर अमर अक्षर अजित, अमित अनादि अनंत
अटल अचल असुरारि हे!, अगमागम अरि-अंत
यहाँ 'अ' वर्ण की अनेक आवृत्तियाँ हैं.
०२. नेह निनादित नर्मदा
शाश्वत शिवजा शर्मदा
वारि वाहिनी वर्मदा
यहाँ 'अ', 'ष' तथा 'व् ' वर्णों की अनेक आवृत्तियाँ हैं.
०३. फिर जमीं पर कहीं काफ़िर कहीं क़ादिर क्यों है?
फिर जमीं पर कहीं नाफ़िर, कहीं नादिर क्यों है??
कौन किसका है सगा, और किसे गैर कहें
फिर जमीं पर कहीं ताइर, कहीं ताहिर क्यों है?
(काफ़िर = नास्तिक, कादिर = समर्थ ईश्वर, नाफ़िर = घृणा करनेवाला, नादिर = श्रेष्ठ, ताइर = उड़नेवाला, ताहिर = पवित्र)
०४. चंचल चित्त
नचाता नाचे नर
चकराया है.
०५. जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है
वह नर नहीं नरपशु निरा है और मृतक समान है -मैथिली शरण गुप्त
भारतीय काव्य के अंतर्गत ३ वृत्तियाँ मान्य हैं.
१. मधुरा या उपनागरिका
२. कोमला तथा
३. परुषा।
मधुरा वृत्ति में मधुर संगीतमय वर्णों (न, म, च वर्ग) की आवृत्ति होती है। 'ट' वर्ग को छोड़कर शेष सभी वर्णों की सानुनासिक रूप में आवृत्ति इसके अंतर्गत मान्य हैं।
कोमला वृत्ति में य, र, ल, व, ष वर्णों की आवृत्ति तथा अल्प समासयुक्त पद मान्य हैं।
परुषा वृत्ति के अंतर्गत परुष वर्णों ट, ठ, ड, ढ तथा संयुकताक्षरों की आवृत्ति होती है।
इनके आधार पर वृत्यनुप्रास के ३ भेद हैं।
१. मधुर वृत्यनुप्रास: जब च, न, म आदि वर्गों की कई आवृत्ति हों।
उदाहरण:
१. तुम मृदु मानस के भाव और मैं मनोरञ्जिनी भाषा
निराला -परिमल
२. कंकण किंकिणि नुपुर धुनि सुनि, कहत लखन सन राम हृदय गुनि
- तुलसी, मानस
३. चारु चन्द्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल-थल में
मैथिली शरण गुप्त, -पंचवटी
४. मंदिर-मस्जिद में मुदित, मन खोजे मन-मीत
मन मथ मन्मथ दूर कर, 'सलिल' यही है रीत
२. कोमल वृत्यनुप्रास: जहाँ कोमल वर्णों यथा प, ब, य, र, ल, व, स में से किसी की अनेक बार आवृति हो।
उदाहरण:
१. पी-पी टेर पपीहरा, बार-बार थक मौन
बेबस के बस में नहीं, मिलन बताये कौन?
प तथा ब की कई आवृत्तियाँ हैं.
२. हिलते द्रुमदल कल किसलय देती गलबाँही डाली
फूलों का चुम्बन छिड़ती, मधुपों की तान निराली
देखें: ल की अनेक आवृत्तियाँ
३. सरस-सरल सरिता सदृश, प्रवहित कविता-धार
दरस-परस रस-रास है, तरस न कर दीदार
र तथा स की आवृत्तियों पर ध्यान दें
३. परुष वृत्यनुप्रास: जब ट वर्ग (ट, ठ, ड, ढ. ण) या संयुकताक्षरों की अनेक बार आवृत्तियाँ हों।
उदाहरण:
१. टका धरम टका करम, टका ही इष्ट देवता
टका न जिसको मिला सका, टक एक टका देखता
'ट' की आवृत्तियाँ
२. ठठा हँसे लड़के हुई, वृद्धा अतिशय रुष्ट
'ठठरी बँधे' विलाप कर, मन ही मन संतुष्ट
३. सब जात फ़टी दुःख की दुपटी, कपटी न रहैं जहँ एक घटी
निघटी रूचि मीचु घटी हू घटी, सब जीव जतीन की छूटी तटी
अघ ओघ की बेड़ी कटी निकटी, निकटी प्रकटी गुटु ज्ञान गटी
चहुँ ओरन नाचत मुक्ति नटी, गुन धूर जटी बन पंचवटी
***
टीप: आवृत्ति के वर्ण शब्द में कहीं भी हो सकते हैं.
आप अलंकार का प्रयोग करती अपनी तथा अन्यों की काव्य पंक्तियाँ टिप्पणी में प्रस्तुत करें. अन्य की पंक्तियों के साथ रचनाकार का नाम तथा पुस्तक का नाम दें.

दोहा doha

शक-सेना को जीतकर, रचा नवल इतिहास  
स्वविश्वासी ज्योत्स्ना, मिटा सकी खग्रास 

गुरुवार, 3 सितंबर 2015


किससे बेहतर कौन है?, रूप याकि प्रतिरूप
दर्पण सबसे पूछता, भिक्षुक हो या भूप.

बुधवार, 2 सितंबर 2015

roopmala chhand

रूपमाला छंद:
(१४-१४, पंक्त्यांत गुरु-लघु)
कृष्ण नंदन ने न पायी, यशोदा सी मात
गोपिकाएँ ग्वाल गोधन, ले गये सँग तात
*
गा रहा जस प्रीत का जग, बना बैरी खाप
सिंह जैसे गरज प्रेमी, देख काँपा आप
*

doha

: दोहा सलिला :
इंदु गौर मन भा गया, अम्बर नीला खूब
मेघ दाह से श्याम हो, बरसा गम में डूब
*
उषा माधुरी देखकर, होता मुग्ध प्रभात
दिनकर दिन कर हँस दिया, अब न बनेगी बात
*
देख ताल भोपाल का, सिंह हो गया मनोज
संध्या निगले सूर्य को, अम्बर देता भोज
*
केशव के शव संग हुआ, द्वापर युग का अंत
पार्थ पराजित भील से, देखें काँप दिगंत
*
रहे न संपादक 'सलिल', वे विद्वान प्रवीण
जिनके यश का शशि हुआ, किंचित नहीं मलीन
*
जीत इन्द्रियाँ मन हुआ, जब से 'सलिल' जितेंद्र
वंदन करे नरेंद्र का, आकर आप सुरेन्द्र
*

शनिवार, 29 अगस्त 2015

अंग्रेजी कविता

Poem:
VELUES
Sanjiv
*
I slept
I awakened
I entered my childhood
I smiled.
I slept
I awakened
I entered my young age
I quarreled.
I slept
I awakened
I entered my old age
I repented.
An angel came in dream
And asked
If I get a new life
How will I like to live?
I replied
My life and way of living
Are my own
I will live it in the same way.
I will do nothing better
I will do nothing worse
I will like to live in my own way
It's better to die than to live
According to other's values.
***

navgeet

नवगीत :
संजीव 
*















मैं बना लूँ मित्र 
तो क्या साथ 
डेटिंग पर चलोगी?
*
सखी हो तुम
साथ बगिया-गली में
हम खूब खेले
हाथ थामे
मंदिरों में गये
देखे झूम मेले
खाई अमिया तोड़ खट्टी
छीन इमली करी कट्टी
पढ़ी मानस, फाग गायी
शरारत माँ से छिपायी
मैं पकड़ लूँ कान
तो बन सपन
नयनों में प लोगी?
मैं बना लूँ मित्र
तो क्या साथ
डेटिंग पर चलोगी?
*
आस हो तुम
प्यास मटकी उठाकर
पनघट गये हम
हास समझे ज़िंदगी
तज रास, हो
बेबस वरे गम
साथ साया भी न आया
हुआ हर अपना पराया
श्वास सूली पर चढ़े चुप
किन्तु कब तुमसे सके छुप
आखिरी दम हे सुधा!
क्या कभी
चन्दर से मिलोगी?
मैं बना लूँ मित्र
तो क्या साथ
डेटिंग पर चलोगी?
*
बड़ों ने ही
बड़प्पन खोकर
डुबायी हाय नौका
नियति निष्ठुर
दे सकी कब
भूल सुधरे- एक मौक़ा?
कोशिशों का काग बोला
मुश्किलों ने ज़हर घोला
प्रथाओं ने सूर्य सुत तज
कन्हैया की ली शरण भज
पाँच पांडव इन्द्रियों
की मौत कृष्णा
बनोगी, अब ना छलोगी?
मैं बना लूँ मित्र
तो क्या साथ
डेटिंग पर चलोगी?
*

doha salila

दोहा सलिला:
धारण करने योग्य जो, शुभ सार्थक वह धर्म 
जाति कुशलता कर्म की, हैं जीवन का मर्म
*
सूर्य कान्त सब तिमिर हर, देता रहा प्रकाश
सलिल तभी ज्योतित हुआ, आशा का आकाश
*
भट नागर संघर्ष कर, रच दे मंजुल मूल्य 
चित्र गुप्त तब प्रगट हो, मिलता सत्य अमूल्य
*
निवेदिता निष्ठा रही, प्रार्थी था विश्वास
श्री वास्तव में पा सका, सत शिव जनित प्रयास.
*

doha salila

दोहा सलिला :

शक्ति रहित शिव शव बने, प्रकृति-पुरुष मिल ईश
बिना लक्ष्मी चाहता, कौन मिले जगदीश
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व मय देह
पंचतत्व में मिल मिले,इससे सदा विदेह
*
धारण करने योग्य जो, शुभ सार्थक वह धर्म 
जाति कुशलता कर्म की, हैं जीवन का मर्म
*
शक्ति न काया मात्र है, शक्ति अनश्वर तत्व 
काया बन-मिटती रहे, शक्ति ईश का सत्व
*

doha salila

दोहा सलिला:
संजीव 
*
कर न अपेक्षा मूढ़ मन, रख मन में संतोष 
कर न उपेक्षा किसी की, हो तो मत कर रोष
*
बुरा न इतना बुरा है, अधिक बुरा है अन्य
भला भले से भी अधिक, खोजे-मिले अनन्य
*
जो न भलाई देखता, उसका मन है हीन
जो न सराहे अन्य को, उस सा कोई न दीन
*
कभी न कल पर छोड़िए, आज कीजिए काज
कल क्या जाने क्या घटे, कहाँ और किस व्याज
*
अघट न घटता है कभी, घटित हुआ जो ठीक
मीन-मेख मत कर'सलिल', छोड़ पुरानी लीक
*
भीख याचना अपेक्षा, नाम तीन-हैं एक
साथ न उनके हो कभी, गौरव बुद्धि विवेक
*
खरे-खरे व्यवहार कर, तजकर खोटे काम
चाम चाहता काम पर, चाम न चाहे काम
*
ममता संता विषमता, जग-जीवन के रंग
होते हैं सबरंग भी, कभी-कभी बदरंग
*
देख कीर्ति-यश अन्य का, होता जो न प्रसन्न
उससे बढ़कर है नहीं, दूजा कोई विपन्न
*
सोच सकारात्मक रखें, जब भी करें विरोध
स्वस्थ्य विरोध करे वही, जो हो नहीं अबोध
*
शमशानी वैराग का, 'सलिल' न कोई अर्थ
दृढ़ विशवास किये बिना, कार्य सभी हो व्यर्थ
*
गरल-पान कर जो करे,सतत सुधा का दान
उसको सब जग पूजता, कह शंकर भगवान
*
सत-शिव-सुंदर का करें, मन में सदा विचार
सत-चित-आनंद दे 'सलिल', मन को विमल विचार 
*
सूर्य कान्त सब तिमिर हर, देता रहा प्रकाश 
सलिल तभी ज्योतित हुआ, आशा का आकाश
*
निवेदिता निष्ठा रही, प्रार्थी था विश्वास 
श्री वास्तव में पा सका, सत शिव जनित प्रयास
*

chat charcha

चैट चर्चा :
आजकल चैट बातचीत का खूब चलन है. विविध पृष्ठ भूमियों के साथी मित्रता का आग्रह करते हैं. फिर वार्ता का दौर… आजकल दूरदर्शन, फिल्म और पत्रकारिता ने समाज को 'सादा जीवन उच्च विचार' पर 'मौज-मस्ती' मंत्र दे दिया है. खुली हवा ने त्याग-परिश्रम के सिक्कों को खोटा घोषित कर भोग का वातावरण बना दिया है. बहुधा फेसबुक मित्र इसी दिशा के आग्रही होते हैं. कुछ जिज्ञासु, कुछ लती. जिज्ञासा को उचित समाधान न मिले तो वह समाज के लिए घातक होती है. लती को सिर्फ कानून ही सुधार सकता है. चैट मित्रों में पुरुष-महिला और किशोर-वयस्क सभी हैं. बहुधा ये दैहिक सम्बन्ध की सम्भावना तलाशते संपर्क करते हैं. विस्मय है कि किशोरियों से लेकर प्रौढ़ायें तक सीधे आमंत्रण देने में संकोच नहीं करतीं. सच कहूँ तो आरम्भ में मुझे भय लगता था. फिर विचार आया कि भागना समाधान नहीं है. कुछ सकारात्मक प्रयास किया जाए.
आज एक महिला से हुई चैट चर्चा आपके समक्ष प्रस्तुत है. आप इस सम्बन्ध में क्या सोचते हैं?
संकेत: - मित्र, = मैं
- g m ji
= शुभ प्रभात.
- kis diparment me the aap?
= लोक निर्माण विभाग
- pwd ?
- जी
- fir acha paisa banaya hoga
= यही नहीं किया. कविता लिखता रहा और खुश होकर इज्जत से जीता रहा. सरस्वती पुत्र के पास लक्ष्मी नहीं आती.
- subah kitane baje uth jate hai?
= ६-६.३० बजे.
- us ke bad kaya2 karte hai?
= प्रात: भ्रमण, स्नान, पूजन और लेखन
- kitana bhamad karte hai?
= लगभग ३-४ किलोमीटर
- v good
= kitane salo se ye bharmad kar rahe hai?aur regular hai?
- कोशिश करता हूँ. कभी-कभी नहीं भी जा पता
= आपकी क्या दिनचर्या है?
- mai subah 6 se 7 baje tak uthti hoon, thoda yoga, aur kuch nahii
= योग तो शुभ ही शुभ है.
- haa
= गरल-पान कर जो करे,सतत सुधा का दान
उसको सब जग पूजता, कह शंकर भगवान
- app kaun se bhagwan ki pooja karte hai?
= सभी की.
- shankar bhagwan ka?
= शिव-शक्ति, राम-सीता, कृष्ण-राधा, गणेश, चित्रगुप्त जी, हनुमान जी आदि
- shiv shakti ji ke bare me kuch bataye
= शक्ति श्रद्धा है, और विश्वास शंकर. श्रद्धा औरों का शुभ करने की प्रेरणा देती है और विश्वास औरों से अपनी रक्षा करने की सामर्थ्य देता है. माँ के प्रति श्रृद्धा होती है और प्रति विश्वास इसलिए पारवती को जगजननि और शिव को है.
शिव को जगतपिता कहा गया है।
- ohhhh aur bataye
= खुद पर विश्वास हो तो मनुष्य टेढ़े-मेढ़े रस्ते से भी निकल आता है. शिव विश्वास हैं अत: वे योग और भोग, शुभ और अशुभ दोनों के साथ रहकर भी सदा प्रसन्न रहते हैं. हम अपने मन को ऐसा बना सकें तो कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
- bhog kaya hai?
= शरीर को स्वस्थ्य बनाये रखने के लिए जिन वस्तुओं को ग्रहण करना आवश्यक है वह भोग है. भोग को छोड़ कर जिया नहीं जा सकता और अत्यधिक भोग कर भी जिया नहीं जा सकता। स्वस्थ्य जीवन के लिए संयमित भोग आवश्यक है. जैसे बिना खाए भी नहीं जी सकते और अत्यधिक खाकर भी नहीं जी सकते. सीमित मात्रा में खाना जरूरी है.
- ji, mughe laga bhog means sex
= भोग कई तरह का होता है. देह की कई आवश्यकताएं हैं. यौन सम्बन्ध प्रजनन हेतु आवश्यक है.
- deh ki kaya2 awashaktaye hai?
= आप स्वयं देहधारी हैं. जिन वस्तुओं के बिना देह की सुरक्षा न हो सके वे प्राथमिक अनिवार्यताएं हैं. इन्हें सामान्य भाषा में रोटी, कपड़ा और मकान कह सकते हैं.
- ji ab bat bataye kya sahi hai? kya aacha sex se shiv ji prapti hoti hai?
= पूर्व में निवेदन किया है कि शिव विश्वास हैं. मनुष्य अपने जीवन में कोई भी कार्य श्रेष्ठता से करे तो उसका विश्वास बढ़ता है. जैसे कोई विद्यार्थी प्रथम आये, कोई खिलाड़ी बहुत अच्छा खेले, कोई गायक मधुरता से गाये. कोई अभिनेता जीवंत अभिनय करे तो उसका विश्वास बढ़ता है. यही शिवत्व की प्राप्ति है. ऐसा ही अन्य क्रियाओं के सम्बन्ध में है. शिव तत्व गुणवत्ता से सम्बंधित है मात्रा से नहीं
और कोई जिज्ञासा?
- bahut hi insperation bataya aap ne. bahut गyan hai aap me sabhi chij ka
maha dev aap ko swath n lambi aau de
= आप जैसे मित्रों से सीखता रहता हूँ और यथावसर बाँट लेता हूँ. तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा। आपकी सद्भावनाएँ मुझे संबल देंगी।
- sukriya ji

book review

कृति चर्चा:
'थोड़ा लिखा समझना ज्यादा' : सामयिक विसंगतियों का दस्तावेज
चर्चाकार: संजीव
*
[कृति विवरण: थोड़ा लिखा समझना ज्यादा, नवगीत संग्रह, जय चक्रवर्ती, २०१५, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ११९, ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ, संपर्क: एम १/१४९ जवाहर विहार रायबरेली २२९०१० चलभाष ९८३९६६५६९१, ईमेल: jai.chakrawarti@gmail.com ]
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'बचपन में अक्सर दिन भर के कामों से निवृत्त होकर शाम को पिता जी मुझे अपने पास बिठाते और कबीर, तुलसी, मीरा के भजन तथा उस समय की फिल्मों के चर्चित धार्मिक गीत सुनाते.… गीतों में घुले पिता जी के स्वर आज उनके निधन के पच्चीस वर्षों बाद भी मेरे कान में ज्यों के त्यों गूँजते हैं.' १५ नवंबर १९५८ को जन्मे यांत्रिकी अभियंत्रण तथा हिंदी साहित्य से सुशिक्षित जय चक्रवर्ती पितृ ऋण चुकाने का सारस्वत अनुष्ठान इन नवगीतों के माध्यम से कर रहे हैं. दोहा संग्रह 'संदर्भों की आग' के माध्यम से समकालिक रचनाकारों में अपनी पहचान बना चुके जय की यह दूसरी कृति उन्हें साहित्य क्षेत्र में चक्रवर्तित्व की प्रतिष्ठा दिलाने की दिशा में एक और कदम है. निस्संदेह अभी ऐसे कई कदम उन्हें उठाने हैं.
नवगीत समय के सफे पर धड़कते अक्षरों-शब्दों में जन-गण के हृदयों की धड़कनों को संवेदित कर पाठकों-श्रोताओं के मर्म को स्पर्श ही नहीं करता अपितु उनमें अन्तर्निहित सुप्त संवेदनाओं को जाग्रत-जीवंत कर चैतन्यता की प्रतीति भी कराता है. इन नवगीतों में पाठक-श्रोता अपनी अकही वेदना की अभिव्यक्ति पाकर चकित कम, अभिभूत अधिक होता है. नवगीत आम आदमी की अनुभूति को शब्द-शब्द, पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त करता है. इसलिए नवगीत को न तो क्लिष्ट-आभिजात्य संस्कार संपन्न भाषा की आवश्यकता होती है, न ही वह आम जन की समझ से परे परदेशी भाषा के व्याल जाल को खुद पर हावी होने देता है. नवगीत के लिये भाषा, भाव की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है. भाव की प्रतीति करने के लिये नवगीत देशज-विदेशज, तत्सम,-तद्भव, नये-पुराने, प्रचलित-अल्प प्रचलित शब्दों को बिना किसी भेद-भाव के अंगीकार करता है. विद्वान लक्षण-व्यंजना के चक्रव्यूह रचते रहे किन्तु नवगीत जमीन से जुड़े कवि की कलम से निकलकर सीधे जन-मन में पैठ गया. गीत के निधन की घोषणा करनेवाले महामहिमों का निधन हो गया किन्तु गीत-नवगीत समय और परिवेश के अनुरूप चोला बदलकर जी गया. नवगीत के उद्भव-काल के समय की भंगिमा को अंतिम मानकर उसके दुहराव के प्रति अति आग्रही कठघरों की बाड़ तोड़कर नवगीत को जमीन से आकाश के मध्य विचरण करने में सहायक कलमों में से एक जय की भी है. ' पेशे से अभियंता अपना काम करे, क्या खाला का घर समझकर नवगीत में घुस आता है?' ऐसी धारणाओं की निस्सारता जय चक्रवर्ती के इन नवगीतों से प्रगट होती है.
अपनी अम्मा-पिताजी को समर्पित इन ५१ नवगीतों को अवधी-कन्नौजी अंचल की माटी की सौंधी महक से सुवासित कर जय ने जमीनी जड़ें होने का प्रमाण दिया है. जय जनानुभूतियों के नवगीतकार हैं.
'तुम्हारी दृष्टि को छूकर / फिरे दिन / फिर गुलाबों के
तुम्हारा स्पर्श पाकर / तन हवाओं का / हुआ चंदन
लगे फिर देखने सपने / कुँवारी / खुशबुओं के मन
फ़िज़ाओं में / छिड़े चर्चे / सवालों के-जवाबों के '
यौगिक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कवि हिंदी-उर्दू शब्दों के गंगो-जमुनी प्रवाह से अपनी बात कहता है.जीवन के मूल श्रृंगार रस से आप्लावित इस नवगीत में जय की भाषा का सौंदर्य किसी अंकुर और कली के निर्मल लगाव और आकांक्षा की कथा को सर्वग्राही बनाता है.
'लिखे खत तितलियों को / फूल ने / अपनी कहानी के
खनक कर पढ़ गये / कुछ छंद / कंगन रातरानी के
तुम्हारी आहटों से / पर खुले / मासूम ख्वाबों के'
जय के नवगीत माता-पिता को सुमिरकर माँ जैसा होना, पिता तथा खुद से हारे मगर पिता आदि नवगीतों में वात्सल्य रस की नेह-नर्मदा प्रवाहित करते हैं. इनमें कहीं भी लिजलिजी भावुकता या अतिरेकी महत्ता थोपने का प्रयास नहीं है. ये गीत बिम्बों और प्रतीकों का ऐसा ताना-बाना बुनते हैं जिसमें आत्मज की क्षणिक स्मृतियों की तात्विक अभिव्यक्ति सनातनता की प्रतीति कर पाती है:
'माँ होना ही / हो सकता है / माँ जैसा होना' में जय माँ की प्रशंसा में बिना कुछ कहे भी उसे सर्वोपरि कह देते हैं. यह बिना कहे कह दें की कला सहज साध्य नहीं होती.
धरती , नदिया, / धूप, चाँदनी, खुशबू, / शीतलता
धैर्य, क्षमा, करुणा, / ममता, / शुचि-स्नेहिल वत्सलता
किसके हिस्से है / उपमा का / यह अनुपम दोना
माँ को विशेषणों से न नवाज़कर उससे प्राप्त विरासत का उल्लेख करते हुए जय महाभागवत छंद में रचित इस नवगीत के अंत में और किसे आता है / सपनों में / सपने बोना' कहकर बिना कहे ही जय माँ को सृष्टि में अद्वितीय कह देते हैं.
पिता को समर्पित नव गीत में जय 'दुनिया भर से जीते / खुद से- / हारे मगर पिता', 'घर की खातिर / बेघर भटके / सारी उमर पिता', 'किसे दिखाते / चिंदी-चिंदी / अपना जिगर पिता' आदि अभिव्यक्तियों में सिर्फ अंतर्विरोध के शब्द चित्र उपस्थित नहीं करते अपितु पिता से अपेक्षित भूमिका और उस भूमिका के निर्वहन में झेली गयी त्रासदियों के इंगित बिना विस्तार में गये, पाठक को समझने के लिये छोड़ देते हैं. 'चिंदी-चिंदी' शब्द का प्रयोग सामान्यत: कपड़े के साथ किया जाता है, 'जिगर' के साथ 'टुकड़े-टुकड़े' शब्द अधिक उपयुक्त होता।
सजावट, बनावट और दिखावट की त्रित्रासदियों से आहत इस युग की विडम्बनाओं और विसंगतियों से हम सबको प्राय: दिन दो-चार होना होता है. जय गीत के माध्यम से उन्हें चुनौती हैं:
मौत से मत डराओ मुझे / गीत हूँ मैं / मरूँगा नहीं
जन्म जब से हुआ / सृष्टि का
मैं सृजन में हूँ, विध्वंस में / वास मेरा है हर
सांस में / मैं पला दर्द के वंश में
आँखें दिखाओ मुझे / गीत हूँ मैं / डरूँगा नहीं
समय से सवाल करनेवाला गीतकार अपने आप को भी नहीं बख़्शता. वह गीतकार बिरादरी से भी सवाल करता है की जो वे लिख रहे हैं वह वास्तव में देखा है अथवा नहीं? स्पष्ट है की गीतकार कोरी लफ़्फ़ाज़ी को रचनाओं में नहीं चाहता।
आपने जितना लिखा, / दिखा? / सच-सच बताना
शब्द ही तो थे / गये ले आपको / जो व्योम की ऊँचाईयों पर
और धरती से / मिला आशीष चिर सम्मान का / अक्षय-अनश्वर
आपको जितना मिला / उतना दिया? / सच-सच बताना
विशव के पुरातनतम और श्रेष्ठतम संस्कृति का वाहक देश सिर्फ सबसे बड़ा बाजार बनकर इससे अधिक दुखद और क्या हो सकता है? सकल देश के सामाजिक वातावरण को उपभोक्तावाद की गिरफ्त में देखकर जय भी विक्षुब्ध हैं:
लगीं सजने कोक, पेप्सी / ब्रेड, बर्गर और पिज्जा की दुकानें
पसरे हुए हैं / स्वप्न मायावी प्रकृति के / छात्र ताने
आधुनिकता का बिछा है / जाल मेरे गाँव में
लोकतंत्र में लोक की सतत उपेक्षा और प्रतिनिधियों का मनमाना आचरण चिंतनीय है. जब माली और बाड़ ही फसल काटने-खाने लगें तो रक्षा कौन करे?
किसकी कौन सुने / लंका में / सब बावन गज के
राजा जी की / मसनद है / परजा छाती पर
रजधानी का / भाग बाँचते / चारण और किन्नर
ध्वज का विक्रय-पत्र / लिए है / रखवाले ध्वज के
पोर-पोर से बिंधी / हुयी हैं / दहशत की पर्तें
स्वीकृतियों का ताज / सम्हाले / साँपों की शर्तें
अँधियारों की / मुट्ठी में हैं / वंशज सूरज के
शासकों का 'मस्त रहो मस्ती में, आग लगे बस्ती में' वाला रवैया गीतकार को उद्वेलित करता है.
वृन्दावन / आग में दहे / कान्हा जी रास में मगन
चाँद ने / चुरा लीं रोटियाँ / पानी खुद पी गयी नदी
ध्वंस-बीज / लिये कोख में / झूमती है बदचलन नदी
वृन्दावन / भूख से मरे / कान्हा जी जीमते रतन
'कान्हा जी जयंती रातें जीमते रतन' में तथ्य-दोष है. रतन को जीमा (खाया) नहीं जा सकता, रत्न को सजाया या जोड़ा-छिपाया जाता है.
संविधान प्रदत्त मताधिकार के बेमानी होते जाने ने भी कवि को चिंतित किया है. वह नागनाथ-साँपनाथ उम्मीदवारी को प्रश्न के कटघरे में खड़ा करता है:
कहो रामफल / इस चुनाव में / किसे वोट दोगे?
इस टोपी को / उस कुर्ते को / इस-उड़ झंडे को
दिल्ली दुखिया / झेल रही है / हर हथकंडे को
सड़सठ बरसों तक / देखा है / कब तक कब तक देखोगे?
खंड-खंड होती / आशाएँ / धुआँ - धुआँ सपने
जलते पेट / ठिठुरते चूल्हे / खासम-खास बने
गणित लगाना / आज़ादी के / क्या-क्या सुख भोगे?
चलो रैली में, खतरा बहुत नज़दीक है, लोकतंत्र है यहाँ, राजाजी हैं धन्य, ज़ख्म जो परसाल थे, लोकतंत्र के कान्हा, सब के सब नंगे, वाह मालिक ,फिर आयी सरकार नयी आदि नवगीत तंत्र कार्यपद्धति पर कटाक्ष करते हैं.
डॉ. भारतेंदु मिश्र इन नवगीतों में नए तुकांत, नई संवेदना की पड़ताल, नए कथ्य और नयी संवेदना ठीक ही रेखांकित करते हैं. डॉ. ओमप्रकाश सिंह मुहावरों, नए , नए बिम्बों को सराहते हैं. स्वयं कवि 'ज़िंदगी की जद्दोजहद में रोजाना सुबह से शाम तक जो भोगा उसे कागज़ पर उतारते समय इन गीतों के अर्थ ज़ेहन में पहले आने और शब्द बाद में देने' ईमानदार अभिव्यक्ति कर अपनी रचना प्रक्रिया का संकेत करता है. यही कारण है कि जय चक्रवर्ती के ये नवगीत किसी व्याख्या के मोहताज़ नहीं हैं. जय अपने प्रथम नवगीत संग्रह के माध्यम से सफे पर निशान छोड़ने के कामयाब सफर पर गीत-दर-गीत आगे कदम बढ़ाते हुए उम्मीद जगाते हैं.
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