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शनिवार, 29 अगस्त 2015

doha salila

दोहा सलिला:
*
रक्षा किसकी कर सके, कहिये जग में कौन?
पशुपतिनाथ सदय रहें, रक्षक जग के मौन
*
अविचारित रचनाओं का, शब्दजाल दिन-रात
छीन रहा सुख चैन नित, बचा शारदा मात
*
अच्छे दिन मँहगे हुए, अब राखी-रूमाल
श्रीफल कैसे खरीदें, जेब करे हड़ताल 
*
कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
*
आ रक्षण कर निबल का, जो कहलाये पटेल
आरक्षण अब माँगते, अजब नियति का खेल
*
आरक्षण से कीजिए, रक्षा दीनानाथ
यथायोग्य हर को मिले, बढ़ें मिलकर हाथ
*
दीप्ति जगत उजियार दे, करे तिमिर का अंत
श्रेय नहीं लेती तनिक, ज्यों उपकारी संत.
*
तन का रक्षण मन करे, शांत लगाकर ध्यान 
नश्वर को भी तब दिखें अविनाशी भगवान
*
कहते हैं आज़ाद पर, रक्षाबंधन-चाह
रपटीली चुन रहे हैं, अपने सपने राह
*
सावन भावन ही रहे, पावन रखें विचार 
रक्षा हो हर बहिन की, बंधन तब त्यौहार 
*

सोमवार, 24 अगस्त 2015

मंदिर अलंकार

हिंदी पिंगल ग्रंथों में चित्र अलंकार की चर्चा है. जिसमें ध्वज, धनुष, पिरामिड आदि के शब्द चित्र की चर्चा है. वर्तमान में इस अलंकार में लिखनेवाले अत्यल्प हैं. मेरा प्रयास मंदिर अलंकार : 
                                           हिंदी 
                                  जन-मन में बसी 
                                जन प्रतिनिधि हैं दूर.
                       परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
                    जन आकांक्षा गीत है,जनगण-हित  संतूर
                        ज                                         कै 
                        ग                                         सा  
                        वा                                         अ                                      
                       णी                                         द    
                        प                                          भु  
                        र                                          त 
                        छा                                         नू 
                        रहा                                        र।  
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शनिवार, 22 अगस्त 2015

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
कलम नहीं
पेडों की रहती
कभी पेड़ के साथ.
झाड़ न लेकिन
झुके-झुकाता
रोकर अपना माथ.
आजीवन फल-
फूल लुटाता
कभी न रोके हाथ
गम न करे
न कभी भटकता
थामे प्याला-साकी
मानव! क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
तिनके चुन-चुन
नीड बनाते
लाकर चुग्गा-दाना।
जिन्हें खिलाते
वे उड़ जाते 
पंछी तजें न गाना।
आह न भरते
नहीं जानते
दुःख कर अश्रु बहाना
दोष नहीं
विधना को देते,
जियें ज़िंदगी बाकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
जैसा बोये 
वैसा काटे
नादां मनुज अकेला
सुख दे, दुःख ले 
जिया न जीवन  
कह सम्बन्ध झमेला.
सीखा, नहीं सिखाया 
पाया, नहीं
लुटाना जाना।
जोड़ा, काम न आया
आखिर छोड़ी   
ताका-ताकी

मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
 

kavita

एक रचना :
संजीव 
*
मात्र कर्म अधिकार है' 
बता गये हैं ईश। 
मर्म कर्म का चाहकर
बूझ न सके मनीष।
'जब आये संतोष धन
सब धन धूरि समान'
अगर सत्य तो कर्म क्यों
करे कहें इंसान?
कर्म करें तो मिलेगा
निश्चय ही परिणाम।
निष्फल कर्म न वरेगा
कोई भी प्रतिमान।
धर्म कर्म है अगर तो
जो न कर रहे कर्म
जीभर भरते पेट नित
आजीवन बेशर्म
क्यों न उन्हें दंडित करे
धर्म, समाज, विधान?
पूजक, अफसर, सेठ या
नेता दुर्गुणवान।
श्रम उत्पादक हो तभी
देश बने संपन्न।
अनुत्पादक श्रम अगर
होगा देश विपन्न।
जो जितना पैदा करे
खर्च करे कम मीत
तभी जुड़े कुछ, विपद में
उपयोगी हो, रीत।
हर जन हो निष्काम तो
निकल जाएगी जान
रहे सकाम बढ़े तभी
जीवन ले सच मान।
***

muktika

मुक्तिका:
*
तन माटी सा, मन सोना हो
नभ चादर, धरा बिछौना हो
साँसों की बहू नवेली का
आसों के वर सँग गौना हो
पछुआ लय, रस पुरवैया हो
मलयानिल छंद सलोना हो
खुशियाँ सरसों फूलें बरसों
मृग गीत, मुक्तिका छौना हो
मधुबन में कवि मन झूम उठे
करतल ध्वनि जादू-टोना हो
*

muktak

एक मुक्तक:
संजीव 
*
अहमियत न बात को जहाँ मिले 
भेंट गले दिल-कली नहीं खिले 
'सलिल' वहां व्यर्थ नहीं जाइए
बंद हों जहाँ ह्रदय-नज़र किले
*

geet

एक रचना : 
मानव और लहर 
संजीव 
*
लहरें आतीं लेकर ममता, 
मानव करता मोह
क्षुब्ध लौट जाती झट तट से,
डुबा करें विद्रोह
*
मानव मन ही मन में माने,
खुद को सबका भूप
लहर बने दर्पण कह देती,
भिक्षुक! लख निज रूप
*
मानव लहर-लहर को करता,
छूकर सिर्फ मलीन
लहर मलिनता मिटा बजाती
कलकल-ध्वनि की बीन
*
मानव संचय करे, लहर ने
नहीं जोड़ना जाना
मानव देता गँवा, लहर ने
सीखा नहीं गँवाना
*
मानव बहुत सयाना कौआ
छीन-झपट में ख्यात
लहर लुटती खुद को हँसकर
माने पाँत न जात
*
मानव डूबे या उतराये
रहता खाली हाथ
लहर किनारे-पार लगाती
उठा-गिराकर माथ
*
मानव घाट-बाट पर पण्डे-
झंडे रखता खूब
लहर बहांती पल में लेकिन
बच जाती है दूब
*
'नानक नन्हे यूँ रहो'
मानव कह, जा भूल
लहर कहे चन्दन सम धर ले
मातृभूमि की धूल
*
'माटी कहे कुम्हार से'
मनुज भुलाये सत्य
अनहद नाद करे लहर
मिथ्या जगत अनित्य
*
';कर्म प्रधान बिस्व' कहता
पर बिसराता है मर्म
मानव, लहर न भूले पल भर
करे निरंतर कर्म
*
'हुईहै वही जो राम' कह रहा
खुद को कर्ता मान
मानव, लहर न तनिक कर रही
है मन में अभिमान
*
'कर्म करो फल की चिंता तज'
कहता मनुज सदैव
लेकिन फल की आस न तजता
त्यागे लहर कुटैव
*
'पानी केरा बुदबुदा'
कह लेता धन जोड़
मानव, छीने लहर तो
डूबे, सके न छोड़
*
आतीं-जातीं हो निर्मोही,
सम कह मिलन-विछोह
लहर, न मानव बिछुड़े हँसकर
पाले विभ्रम -विमोह
*

parody

एक पैरोडी :
संजीव 
*
उड़ चले हम विदेशों को हँस साथियों 
जो भी बोलें सुनों होके चुप साथियों 
*
सांसदों ज़िद करो मुख न खोलेंगे हम
चाहे कितना कहो कुछ न बोलेंगे हम
काम हो या न हो कोई अंतर नहीं
जैसा चाहें जिसे वैसा तौलेंगे हम
पद न छोड़ेगा कोई कभी साथियों
उड़ चले हम विदेशों को हँस साथियों
*
हम सभाओं में गरजेंगे, बरसेंगे हम
चोट तुम पे करें, तुमको वरजेंगे हम
गोलियाँ सरहदों पे चलें गम नहीं
ईंट-पत्थर की नीति ही बरतेंगे हम
केजरी को न दम लेने दो साथियों
उड़ चले हम विदेशों को हँस साथियों
*
सब पे कीचड़ उछालेंगे हम रोज ही
दिन हैं अच्छे कहाँ, मत करें खोज भी
मन की बातें करें हम, न तुम बोलना
जन उपासे रहो, हम करें भोज भी
कोई सुविधा न छोड़ें कभी साथियों
***

geeta 4

अध्याय १ 
कुरुक्षेत्र और अर्जुन 
कड़ी ४. 

कुरुक्षेत्र की तपोभूमि में 
योद्धाओं का विपुल समूह 
तप्त खून के प्यासे वे सब
बना रहे थे रच-रच व्यूह 
*
उनमें थे वीर धनुर्धर अर्जुन 
ले मन में भीषण अवसाद 
भरा ह्रदय ले खड़े हुए थे 
आँखों में था अतुल विषाद 
*
जहाँ-जहाँ वह दृष्टि डालता
परिचित ही उसको दिखते
कहीं स्वजन थे, कहीं मित्र थे 
कहीं पूज्य उसको मिलते 
*
कौरव दल था खड़ा सामने 
पीछे पाण्डव पक्ष सघन 
रक्त एक ही था दोनों में 
एक वंश -कुल था चेतन 
*
वीर विरक्त समान खड़ा था 
दोनों दल के मध्य विचित्र
रह-रह जिनकी युद्ध-पिपासा 
खींच रही विपदा के चित्र 
*
माँस-पेशियाँ फड़क रही थीं 
उफ़न रहा था क्रोध सशक्त 
संग्रहीत साहस जीवन का 
बना रहा था युद्धासक्त 
*
लड़ने की प्रवृत्ति अंतस की 
अनुभावों में सिमट रही
झूल विचारों के संग प्रतिपल 
रौद्र रूप धर लिपट रही 
*
रथ पर जो अनुरक्त युद्ध में 
उतर धरातल पर आया 
युद्ध-गीत के तेज स्वरों में
ज्यों अवरोह उतर आया 
*
जो गाण्डीव हाथ की शोभा 
टिका हुआ हुआ था अब रथ में 
न्योता महानाश का देकर-
योद्धा था चुप विस्मय में 
*
बाण चूमकर प्रत्यञ्चा को 
शत्रु-दलन को थे उद्यत 
पर तुरीण में ही व्याकुल हो 
पीड़ा से थे अब अवनत 
*
और आत्मा से अर्जुन की 
निकल रही थी आर्त पुकार 
सकल शिराएँ रण-लालायित 
करती क्यों विरक्ति संचार?
*
यौवन का उन्माद, शांति की 
अंगुलि थाम कर थका-चुका 
कुरुक्षेत्र से हट जाने का 
बोध किलकता छिपा-लुका 
*
दुविधा की इस मन: भूमि पर 
नहीं युद्ध की थी राई 
उधर कूप था गहरा अतिशय 
इधर भयानक थी खाई 
*
अरे! विचार युद्ध के आश्रय
जग झुलसा देने वाले 
स्वयं पंगु बन गये देखकर 
महानाश के मतवाले 
*
तुम्हीं क्रोध के प्रथम जनक हो 
तुम में वह पलता-हँसता 
वही क्रिया का लेकर संबल 
जग को त्रस्त सदा करता 
*
तुम्हीं व्यक्ति को शत्रु मानते 
तुम्हीं किसी को मित्र महान 
तुमने अर्थ दिया है जग को 
जग का तुम्हीं लिखो अवसान 
*
अरे! कहो क्यों मूल वृत्ति पर 
आधारित विष खोल रहे 
तुम्हीं जघन्य पाप के प्रेरक 
क्यों विपत्तियाँ तौल रहे? 
*
अरे! दृश्य दुश्मन का तुममें 
विप्लव गहन मचा देता 
सुदृढ़ सूत्र देकर विनाश का 
सोया क्रोध जगा देता
*
तुम्हीं व्यक्ति को खल में परिणित 
करते-युद्ध रचा देते 
तुम्हीं धरा के सब मनुजों को 
मिटा उसे निर्जन करते 
*
तुम मानस में प्रथम उपल बन 
लिखते महानाश का काव्य 
नस-नस को देकर नव ऊर्जा 
करते युद्ध सतत संभाव्य 
*
अमर मरण हो जाता तुमसे 
मृत्यु गरल बनती
तुम्हीं पतन के अंक सँजोकर 
भाग्य विचित्र यहाँ लिखतीं 
*
तुम्हीं पाप की ओर व्यक्ति को 
ले जाकर ढकेल देते 
तुम्हीं जुटा उत्थान व्यक्ति का 
जग को विस्मित कर देते 
*
तुम निर्णायक शक्ति विकट हो 
तुम्हीं करो संहार यहाँ 
तुम्हीं सृजन की प्रथम किरण बन 
रच सकती हो स्वर्ग यहाँ 
*
विजय-पराजय, जीत-हार का 
बोध व्यक्ति को तुमसे है 
आच्छादित अनवरत लालसा- 
आसक्तियाँ तुम्हीं से हैं 
*
तुम्हीं प्रेरणा हो तृष्णा की 
सुख पर उपल-वृष्टि बनते 
जीवन मृग-मरीचिका सम बन 
व्यक्ति सृष्टि अपनी वरते 
*
अरे! शून्य में भी चंचल तुम 
गतिमय अंतर्मन करते 
शांत न पल भर मन रह पाता 
तुम सदैव नर्तन करते 
*
दौड़-धूप करते पल-पल तुम 
तुम्हीं सुप्त मन के श्रृंगार 
तुम्हीं स्वप्न को जीवन देते 
तुम्हीं धरा पर हो भंगार 
*
भू पर तेरी ही हलचल है 
शब्द-शब्द बस शब्द यहाँ 
भाषण. संभाषण, गायन में 
मुखर मात्र हैं शब्द जहाँ 
*
अवसरवादी अरे! बदलते 
क्षण न लगे तुमको मन में 
जो विनाश का शंख फूँकता 
वही शांति भरता मन में 
*
खाल ओढ़कर तुम्हीं धरा पर 
नित्य नवीन रूप धरते 
नये कलेवर से तुम जग की 
पल-पल समरसता हरते 
*
तुम्हीं कुंडली मारे विषधर 
दंश न अपना तुम मारो 
वंश समूल नष्ट करने का 
रक्त अब तुम संचारो 
*
जिस कक्षा में घूम रहे तुम 
वहीँ शांति के बीज छिपे 
अंधकार के हट जाने पर 
दिखते जलते दिये दिपे 
*
दावानल तुम ध्वस्त कर रहे
जग-अरण्य की सुषमा को 
तुम्हीं शांति का चीर-हरण कर 
नग्न बनाते मानव को 

रोदन जन की है निरीहता 
अगर न कुछ सुन सके यहाँ 
तुम विक्षिप्त , क्रूर, पागल से 
जीवन भर फिर चले यहाँ 
*
अरे! तिक्त, कड़वे, हठवादी 
मृत्यु समीप बुलाते क्यों?
मानवहीन सृष्टि करने को 
स्वयं मौत सहलाते क्यों?
*
गीत 'काम' के गाकर तुमने 
मानव शिशु को बहलाया 
और भूख की बातचीत की 
बाढ़ बहाकर नहलाया 
*
सदा युद्ध की विकट प्यास ने 
छला, पतिततम हमें किया 
संचय की उद्दाम वासना, से 
हमने जग लूट लिया 
*
क्रूर विकट घातकतम भय ने 
विगत शोक में सिक्त किया 
वर्तमान कर जड़ चिंता में 
आगत कंपन लिप्त किया 
*
लूट!लूट! तुम्हारा नाम 'राज्य' है 
औ' अनीति का धन-संचय 
निम्न कर्म ही करते आये 
धन-बल-वैभव का संचय 
*
रावण की सोने की लंका 
वैभव हँसता था जिसमें 
अट्हास आश्रित था बल पर 
रोम-रोम तामस उसमें 
*
सात्विक वृत्ति लिये निर्मल 
साकेत धाम अति सरल यहाँ 
ऋद्धि-सिद्धि संयुक्त सतत वह 
अमृतमय था गरल कहाँ?
*
स्वेच्छाचारी अभय विचरते 
मानव रहते हैं निर्द्वंद 
दैव मनुज दानव का मन में 
सदा छिड़ा रहता है द्वंद 
*
सुनो, अपहरण में ही तुमने 
अपना शौर्य सँवारा है 
शोषण के वीभत्स जाल को 
बुना, सतत विस्तारा है 
*
बंद करो मिथ्या नारा 
जग के उद्धारक मात्र तुम्हीं 
उद्घोषित कर मीठी बातें 
मूर्ख बनाते हमें तुम्हीं 
*
व्यक्ति स्वयं है अपना नेता 
अन्य कोई बन सकता 
अपना भाग्य बनाना खुद को 
अन्य कहाँ कुछ दे सकता?
*
अंतर्मन की शत शंकाएँ 
अर्जुन सम करतीं विचलित 
धर्मभूमि के कर्मयुद्ध का 
प्रेरक होता है विगलित 
*
फिर निराश होता थक जाता 
हार सहज शुभ सुखद लगे 
उच्च लक्ष्य परित्याग, सरलतम 
जीवन खुद को सफल लगे 
*
दुविधाओं के भंवरजाल में 
डूब-डूब वह जाता है 
क्या करना है सोच न पाता 
खड़ा, ठगा पछताता है 
*

rochak charcha

रोचक चर्चा:
अगले २० वर्षों में मिटने-टूटनेवाले देश 
साभार : https://youtu.be/1vP3Ju7J4gk
यू ट्यूब के उक्त अध्ययन के अनुसार अगले २० वर्षों में दुनिया के १० देशो के सामने मिटने या टूटने का गंभीर खतरा है. 
१. स्पेन: केटेलेनिआ तथा बास्क क्षेत्रों में स्वतंत्रता की सबल होती मांग से २ देशों में विभाजन.
२. उत्तर कोरिआ: न्यून संसाधनों के कारण दमनकारी शासन के समक्ष आत्मनिर्भरता की नीति छोड़ने की मजबूरी, शेष देशों से जुड़ते ही परिवर्तन और दोनों कोरिया एक होने की मान के प्रबल होने के आसार.
३. बेल्जियम: वालोनिआ तथा फ्लेंडर्स में विभाजन की लगातार बढ़ती मांग.
४. चीन: प्रदूषित होता पर्यावरण, जल की घटती मात्र, २०३० तक चीन उपलब्ध जल समाप्त कर लेगा। प्रांतों में विभाजन की माँग।
५. इराक़: सुन्नी, कुर्द तथा शीट्स बहुल ३ देशों में विभाजन की माँग.
६. लीबिया: ट्रिपोलिटेनिआ, फैजान तथा सायरेनीका में विभाजन
७. इस्लामिक स्टेट: तुर्किस्तान, सीरिया, सऊदी अरब, ईरान, तथा इराक समाप्त कर उसके क्षेत्र को आपस में बांटने के लिये प्रयासरत।
८. यूनाइटेड किंगडम: स्कॉट, वेल्स तथा उत्तर आयरलैंड में स्वतंत्र होने के पक्ष में जनमत।
९. यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका: ५० प्रांतों का संघ, अलास्का तथा टेक्सास में स्वतंत्र होने की बढ़ती माँग।
१०. मालदीव: समुद्र में डूब जाने का भीषण खतरा।
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११. पाकिस्तान: पंजाब, सिंध तथा बलूचों में अलग होने की मांग.
१२. श्री लंका: तमिलों तथा सिंहलियों में सतत संघर्ष।