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शनिवार, 22 अगस्त 2015

गीता गायन ३

गीता गायन 
अध्याय १ 
पूर्वाभास
कड़ी ३. 
*
अभ्यास सद्गुणों का नित कर 
जीवन मणि-मुक्ता सम शुचि हो 
विश्वासमयी साधना सतत 
कर तप: क्षेत्र जगती-तल हो 
*
हर मन सौंदर्य-उपासक है
हैं सत्य-प्रेम के सब भिक्षुक 
सबमें शिवत्व जगता रहता 
सब स्वर्ग-सुखों के हैं इच्छुक 
*
वे माता वहाँ धन्य होतीं 
होती पृथ्वी वह पुण्यमयी 
होता पवित्र परिवार व्ही 
होती कृतार्थ है वही मही 
*
गोदी में किलक-किलक 
चेतना विहँसती है रहती 
खो स्वयं परम परमात्मा में 
आनंद जलधि में जो बहती 
*
हो भले भिन्न व्याख्या इसकी 
हर युग के नयन उसी पर थे 
जो शक्ति सृष्टि के पूर्व व्याप्त 
उससे मिलने सब आतुर थे 
*
हम नेत्र-रोग से पीड़ित हो 
कब तप:क्षेत्र यह देख सके?
जब तक जीवित वे दोष सभी 
तब तक कैसा कब लेख सके?
*
संसार नया तब लगता है 
संपूर्ण प्रकृति बनती नवीन 
हम आप बदलते जाते हैं 
हो जाते उसमें आप लीन 
*
परमात्मा की इच्छानुसार 
जीवन-नौका जब चलती है 
तब नये कलेवर के मानव 
में, केवल शुचिता पलती है 
*
फिर शोक-मुक्त जग होता है 
मिलता है उसको नया रूप 
बनकर पृथ्वी तब तप:क्षेत्र 
परिवर्तित करती निज स्वरूप 
*
जीवन प्रफुल्ल बन जाता है 
भौतिक समृद्धि जुड़ जाती है 
आत्मिक उत्थान लक्ष्य लेकर 
जब धर्म-शक्ति मुड़ जाती है 
*
है युद्ध मात्र प्रतिशोध बुद्धि 
जिसमें हर क्षण बढ़ता 
दो तत्वों के संघर्षण में 
अविचल विकास क्रम वह गढ़ता 
*
कुत्सित कर्मों का जनक यहाँ
अविवेक भयानकतम दुर्मुख 
जिससे करना संघर्ष, व्यक्ति का
बन जाता है कर्म प्रमुख 
*
कर्मों का गुप्त चित्र अंकित 
हो पल-पल मिटता कभी नहीं 
कर्मों का फल दें चित्रगुप्त 
सब ज्ञात कभी कुछ छिपे नहीं 
*
यह तप:क्षेत्र है कुरुक्षेत्र
जिसमें अनुशासन व्याप्त सकल 
जिसका निर्णायक परमात्मा 
जिसमें है दण्ड-विधान प्रबल 

बन विष्णु सृष्टि का करता है 
निर्माण अनवरत वह पल-पल
शंकर स्वरूप में वह सत्ता
संहार-वृष्टि करता छल-छल 
*
'मैं हूँ, मेरा है, हमीं रहें, 
ये अहंकार के पुत्र व्यक्त 
कल्मष जिसका आधार बना 
है लोभ-स्वार्थ भी पूर्व अव्यक्त 
*
कुत्सित तत्वों से रिक्त-मुक्त 
जस को करना ही अनुशासन 
संपूर्ण विश्व निर्मल करने 
जुट जाएँ प्रगति के सब साधन 
*
कौरव-पांडव दो मूर्तिमंत 
हैं रूप विरोधी गतियों के 
ले प्रथम रसातल जाती है 
दूसरी स्वर्ग को सदियों से 
*
आत्मिक विकास में साधक जो 
पांडव सत्ता वह ऊर्ध्वमुखी 
माया में लिपट विकट उलझी 
कौरव सत्ता है अधोमुखी 
*
जो दनुज भरोसा वे करते 
रथ, अश्वों, शासन, बल, धन का 
पर मानव को विश्वास अटल 
परमेश्वर के अनुशासन का 
*
संघर्ष करें अभिलाषा यह 
मानव को करती है प्रेरित 
दुर्बुद्धि प्रबल लालसा बने 
हो स्वार्थवृत्ति हावी उन्मत 
*
हम नहीं जानते 'हम क्या हैं?
क्या हैं अपने ये स्वजन-मित्र? 
क्या रूप वास्तविक है जग का
क्या मर्म लिये ये प्रकृति-चित्र?
*
अपनी आँखों में मोह लिये 
हम आजीवन चलते रहते 
भौतिक सुख की मृगतृष्णा में 
पल-पल खुद को छलते रहते 
*
जग उठते हममें लोभ-मोह 
हबर जाता मन में स्वार्थ हीन 
संघर्ष भाव अपने मन का 
दुविधा-विषाद बन करे दीन 
*
भौतिक सुख की दुर्दशा देख 
होता विस्मृत उदात्त जीवन 
हो ध्वस्त न जाए वह क्षण में 
हम त्वरित त्यागते संघर्षण 
*
अर्जुन का विषाद 
सुन शंख, तुमुल ध्वनि, चीत्कार 
मनमें विषाद भर जाता है 
हो जाते खड़े रोंगटे तब 
मन विभ्रम में चकराता है 
*
हो जाता शिथिल समूचा तन 
फिर रोम-रोम जलने लगता 
बल-अस्त्र पराये गैर बनकर डँसते 
मन युद्ध-भूमि तजने लगता 
*
जिनका कल्याण साधना ही
अब तक है रहा ध्येय मेरा
संहार उन्हीं का कैसे-कब
दे सके श्रेय मुझको मेरा?
*
यह परंपरागत नैतिकता
यह समाजगत रीति-नीति 
ये स्वजन, मित्र, परिजन सारे 
मिट जाएँगे प्रतीक 
*
हैं शत्रु हमारे मानव ही 
जो पिता-पितामह के स्वरूप 
उनका अपना है ध्येय अलग 
उनकी आशा के विविध रूप 
*
उनके पापों के प्रतिफल में 
हम पाप स्वयं यदि करते हैं 
तो स्वयं लोभ से हो अंधे 
हम मात्र स्वार्थ ही वरते हैं 
*
हम नहीं चाहते मिट जाएँ 
जग के संकल्प और अनुभव 
संतुलन बिगड़ जाने से ही 
मिटते कुलधर्म और वैभव 
*
फिर करुणा, दया, पुण्य जग में 
हो जाएँगे जब अर्थहीन 
जिनका अनुगमन विजय करती 
होकर प्रशस्ति में धर्मलीन 
*
मैं नहीं चाहता युद्ध करूँ 
हो भले राज्य सब लोकों का
अपशकुन अनेक हुए देखो 
है खान युद्ध दुःख-शोकों का 
*
चिंतना हमारी ऐसी ही 
ले डूब शोक में जाती है 
किस हेतु मिला है जन्म हमें 
किस ओर हमें ले जाती है?
*
जीवन पाया है लघु हमने 
लघुतम सुख-दुःख का समय रहा 
है माँग धरा की अति विस्तृत 
सुरसा आकांक्षा रही महा 
*
कितना भी श्रम हम करें यहाँ
अभिलाषाएँ अनेक लेकर 
शत रूप हमें धरना होंगे 
नैया विवेचना की खेकर 
*
सीधा-सदा है सरल मार्ग 
सामान्य बुद्धि यह कहती है 
कर लें व्यवहार नियंत्रित हम 
सर्वत्र शांति ही फलती है 
*
ज्यों-ज्यों धोया कल्मष हमने 
त्यों-त्यों विकीर्ण वह हुआ यहाँ
हम एक पाप धोने आते 
कर पाप अनेकों चले यहाँ 
*
प्राकृतिक कार्य-कारण का जग 
इससे अनभिज्ञ यहाँ जो भी 
मानव-मन उसको भँवर जाल 
कब समझ सका उसको वह भी 
*
है जनक समस्याओं का वह 
उससे ही जटिलतायें प्रसूत 
जानना उसे है अति दुष्कर 
जो जान सका वह है सपूत
*
अधिकांश हमारा विश्लेषण 
होता है अतिशय तर्कहीन 
अधिकांश हमारी आशाएँ 
हैं स्वार्थपूर्ण पर धर्महीन 
*
जो मुक्ति नहीं दे सकती हैं
जीवन की किन्हीं दशाओं में 
जब तक जकड़े हम रहे फँसे 
है सुख मरीचिका जीवन में 
*
लगता जैसे है नहीं कोई 
मेरा अपना इस दुनिया में 
न पिता-पुत्र मेरे अपने 
न भाई-बहिन हैं दुनिया में 
*
उत्पीड़न की कैसी झाँकी 
घन अंधकार उसका नायक
चिंता-संदेह व्याप्त सबमें 
एकाकीपन जिसका गायक 
*
जब भी होता संघर्ष यहाँ 
हम पहुँच किनारे रुक जाते 
साहस का संबल छोड़, थकित 
भ्रम-संशय में हम फँस जाते 
*

navgeet

एक रचना
संजीव
*
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा 
*
भाग गया परदेशी शासन
गूँज रहे निज देशी भाषण
वीर शहीद स्वर्ग से हेरें
मँहगा होता जाता राशन
रँगे सियार शीर्ष पर बैठे
मालिक बेबस नौकर ऐंठे
कद बौने, लंबी परछाई
सूरज लज्जित, जुगनू ऐंठे
सेठों की बन आयी, भाई
मतदाता की शामत आई
प्रतिनिधि हैं कुबेर, मतदाता
हुआ सुदामा, प्रीत न भायी
मन ने चाही मन की बातें
मन आहत पा पल-पल घातें
तब-अब चुप्पी-बहस निरर्थक
तब भी, अब भी काली रातें
ढोंग कर रहे
संत फकीरा
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
जनसेवा का व्रत लेते जो
धन-सुविधा पा क्षय होते वो
जनमत की करते अवहेला
जनहित बेच-खरीद गये सो
जनहित खातिर नित्य ग्रहण बन
जन संसद को चुभे दहन सम
बन दलाल दल करते दलदल
फैलाते केवल तम-मातम
सरहद पर उग आये कंटक
हर दल को पर दल है संकट
नाग, साँप, बिच्छू दल आये
किसको चुनें-तजें, है झंझट
क्यों कोई उम्मीदवार हो?
जन पर क्यों बंदिश-प्रहार हो?
हर जन जिसको चाहे चुन ले
इतना ही अब तो सुधार हो
मत मतदाता
बने जमूरा?
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
चयनित प्रतिनिधि चुन लें मंत्री
शासक नहीं, देश के संत्री
नहीं विपक्षी, नहीं विरोधी
हटें दूर पाखंडी तंत्री
अधिकारी सेवक मनमानी
करें न, हों विषयों के ज्ञानी
पुलिस न नेता, जन-हित रक्षक
हो, तब ऊगे भोर सुहानी
पारदर्शितामय पंचायत
निर्माणों की रचकर आयत
कंकर से शंकर गढ़ पाये
सब समान की बिछा बिछायत
उच्छृंखलता तनिक नहीं हो
चित्र गुप्त अपना उज्जवल हो
गौरवमय कल कभी रहा जो
उससे ज्यादा उज्जवल कल हो
पूरा हो
हर स्वप्न अधूरा
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*

geet

एक रचना:
संजीव
*
अरमानों की फसलें हर दिन ही कुदरत बोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
उठ आशीष दीजिए छोटों को महके फुलवारी
नमन ईश को करें दूर हों चिंता पल में सारी
गीत ग़ज़ल कवितायेँ पोयम मंत्र श्लोक कुछ गा लें
मन की दुनिया जब जैसी चाहें रच खूब मजा लें
धरती हर दुःख सह देती है खूब न पर रोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
देश-विदेश कहाँ कैसा क्या भला-बुरा बतलायें
हम न जहाँ जा पाये पढ़कर ही आनंद मनायें
मौसम लोग, रीतियाँ कैसी? कैसा ताना-बाना
भारत की छवि कैसी? क्या वे चाहें भारत आना?
हरे अँधेरा मौन चाँदनी, नील गगन धोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
*

muktak

मुक्तक
संजीव
*
शहादतों को भूलकर सियासतों को जी रहे 
पड़ोसियों से पिट रहे हैं और होंठ सी रहे
कुर्सियों से प्यार है, न खुद पे ऐतबार है-
नशा निषेध इस तरह कि मैकदे में पी रहे
*
जो सच कहा तो घेर-घेर कर रहे हैं वार वो
हद है ढोंग नफरतों को कह रहे हैं प्यार वो
सरहदों पे सर कटे हैं, संसदों में बैठकर-
एक-दूसरे को कोस, हो रहे निसार वो
*
मुफ़्त भीख लीजिए, न रोजगार माँगिए
कामचोरी सीख, ख्वाब अलगनी पे टाँगिए
फर्ज़ भूल, सिर्फ हक की बात याद कीजिए-
आ रहे चुनाव देख, नींद में भी जागिए
*
और का सही गलत है, अपना झूठ सत्य है
दंभ-द्वेष-दर्प साध, कह रहे सुकृत्य है
शब्द है निशब्द देख भेद कथ्य-कर्म का-
वार वीर पर अनेक कायरों का कृत्य है
*
प्रमाणपत्र गैर दे: योग्य या अयोग्य हम?
गर्व इसलिए कि गैर भोगता, सुभोग्य हम
जो न हाँ में हाँ कहे, लांछनों से लाद दें -
शिष्ट तज, अशिष्ट चाह, लाइलाज रोग्य हम
*
गंद घोल गंग में तन के मुस्कुराइए
अनीति करें स्वयं दोष प्रकृति पर लगाइए
जंगलों के, पर्वतों के नाश को विकास मान-
सन्निकट विनाश आप जान-बूझ लाइए
*
स्वतंत्रता है, आँख मूँद संयमों को छोड़ दें
नियम बनायें और खुद नियम झिंझोड़-तोड़ दें
लोक-मत ही लोकतंत्र में अमान्य हो गया-
सियासतों से बूँद-बूँद सत्य की निचोड़ दें
*
हर जिला प्रदेश हो, राग यह अलापिए
भाई-भाई से भिड़े, पद पे जा विराजिए
जो स्वदेशी नष्ट हो, जो विदेशी फल सके-
आम राय तज, अमेरिका का मुँह निहारिए
*
धर्महीनता की राह, अल्पसंख्यकों की चाह
अयोग्य को वरीयता, योग्य करे आत्म-दाह
आँख मूँद, तुला थाम, न्याय तौल बाँटिए-
बहुमतों को मिल सके नहीं कहीं तनिक पनाह
*
नाम लोकतंत्र, काम लोभतंत्र कर रहा
तंत्र गला घोंट लोक का विहँस-मचल रहा
प्रजातंत्र की प्रजा है पीठ, तंत्र है छुरा-
राम हो हराम, तज विराम दाल दल रहा
*
तंत्र थाम गन न गण की बात तनिक मानता
स्वर विरोध का उठे तो लाठियां है भांजता
राजनीति दलदली जमीन कीचड़ी मलिन-
लोक जन प्रजा नहीं दलों का हित ही साधता
*
धरें न चादरों को ज्यों का त्यों करेंगे साफ़ अब
बहुत करी विसंगति करें न और माफ़ अब
दल नहीं, सुपात्र ही चुनाव लड़ सकें अगर-
पाक-साफ़ हो सके सियासती हिसाब तब
*
लाभ कोई ना मिले तो स्वार्थ भाग जाएगा
देश-प्रेम भाव लुप्त-सुप्त जाग जाएगा
देस-भेस एक आम आदमी सा तंत्र का-
हो तो नागरिक न सिर्फ तालियाँ बजाएगा
*
धर्महीनता न साध्य, धर्म हर समान हो
समान अवसरों के संग, योग्यता का मान हो
तोडिये न वाद्य को, बेसुरा न गाइए-
नाद ताल रागिनी सुछंद ललित गान हो
*
शहीद जो हुए उन्हें सलाम, देश हो प्रथम
तंत्र इस तरह चले की नयन कोई हो न नम
सर्वदली-राष्ट्रीय हो अगर सरकार अब
सुनहरा हो भोर, तब ही मिट सके तमाम तम
=====

muktak

एक मुक्तक:
संजीव 
*
अहमियत न बात को जहाँ मिले 
भेंट गले दिल-कली नहीं खिले 
'सलिल' वहां व्यर्थ नहीं जाइए
बंद हों जहाँ ह्रदय-नज़र किले
*

muktika

मुक्तिका:
*
तन माटी सा, मन सोना हो
नभ चादर, धरा बिछौना हो

साँसों की बहू नवेली का
आसों के वर सँग गौना हो

पछुआ लय, रस पुरवैया हो
मलयानिल छंद सलोना हो

खुशियाँ सरसों फूलें बरसों
मृग गीत, मुक्तिका छौना हो

मधुबन में कवि मन झूम उठे
करतल ध्वनि जादू-टोना हो
*

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

navgeet

एक रचना:
संजीव
*
सब्जी-चाँवल,
आटा-दाल
देख रसोई
हुई निहाल
*
चूहा झाँके आँखें फाड़
बना कनस्तर खाली आड़  
चूल्हा काँखा, विवश जला
ज्यों-त्यों ऊगा सूर्य, बला
धुँआ करें सीती लकड़ी
खों-खों सुन भागी मकड़ी
फूँक मार बेहाल हुई
घर-लछमी चुप लाल हुई
गौरैया झींके
बदहाल
मुनिया जाएगी
हुआ बबाल
*
माचिस-तीली आग लगा
झुलसी देता समय दगा
दाना ले झटपट भागी
चीटी सह न सकी आगी
कैथ, चटनी, नोंन, मिरच
प्याज़ याद आये, सच बच
आसमान को छूटे भाव
जैसे-तैसे करें निभाव
तिलचट्टा है
सुस्त निढाल
छिपी छिपकली
बन कर काल 
*
पुंगी रोटी खा लल्ला
हँस थामे धोती पल्ला
सदा सुहागन लाई चाय
मगन मोगरा करता हाय
खनकी चूड़ी दैया रे!
पायल बाजी मैया रे!
नैन उठे मिल झुक हैं बंद
कहे-अनकहे मादक छंद
दो दिल धड़के,
कर करताल
बजा मँजीरा
लख भूचाल
*
'दाल जल रही' कह निकरी
डुकरो कहे 'बहू बिगरी,
मत बौरा, जा टैम भया
रासन लइयो साँझ नया'
दमा खाँसता, झुकी कमर
उमर घटे पर रोग अमर
चूं-चूं खोल किवार निकल
जाते हेरे नज़र पिघल
'गबरू कभऊँ 
न होय निढाल
करियो किरपा
राम दयाल'


 

  

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

पुरस्कार समाचार

अभिव्यक्ति: 
ओमप्रकाश तिवारी तथा आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' पुरस्कृत 
सभी पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ। स्वतंत्रता दिवस का यह दिन अभिव्यक्ति के लिये भी विशेष है क्यों कि १५ अगस्त २०१५ को अभिव्यक्ति अपने जीवन के १५ साल पूरे कर के १६वें में प्रवेश कर रही है। वर्ष २००० में १५ अगस्त को इसका पहला अंक प्रकाशित हुआ था। यों तो इसका जन्म दिसंबर १९९६ में जियोसिटीज पर हो चुका था लेकिन हिंदी फांट के अभाव और इंटरनेट पर हिंदी सपोर्ट न होने के कारण इसे यह रूप लेते लेते वर्ष २००० का समय आ गया, और तब से आज तक यह नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है कभी भी कोई अंक स्थगित या संयुक्त नहीं बना। इसकी इस निरंतर गति में हमारी टीम, हमारे पाठकों और लेखकों का महत्वपूर्ण योगदान है जिसके लिये हम सभी के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं। आशा है आपका यह स्नेह और सौहार्द आगे भी बना रहेगा।
नवांकुर पुरस्कार
स्वतंत्रता दिवस का दिन अभिव्यक्ति विश्वम से जुड़े नवगीत रचनाकारों के योगदान को रेखांकित करने के लिये नवांकुर पुरस्कारों की घोषणा का भी है। यह पुरस्कार प्रतिवर्ष उस रचनाकार के पहले नवगीत-संग्रह की पांडुलिपि को दिया जाता है, जिसने अनुभूति और नवगीत की पाठशाला से जुड़कर नवगीत के अंतरराष्ट्रीय विकास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। पुरस्कार में ११,००० भारतीय रुपये, एक स्मृति चिह्न और प्रमाणपत्र प्रदान किये जाते हैं। यह पुरस्कार लखनऊ में नवगीत महोत्सव के वार्षिक आयोजन में वरिष्ठ नवगीतकारों की उपस्थिति में प्रदान किया जाता है।
इस बार दो नवगीतकारों को पुरस्कृत किये जाने का निर्णय लिया गया है-
*
२०१४ के लिये ओमप्रकाश तिवारी को उनके प्रकाशित नवगीत संग्रह ''खिड़कियाँ खोलो'' के लिये, तथा
*
२०१५ के लिये आचार्य संजीव वर्मा सलिल को उनके शीघ्र प्रकाश्य नवगीत संग्रह ''सड़क पर'' के लिये।
*
यह पुरस्कार वर्ष २०११ से प्रारंभ किया गया था। पिछले तीन वर्षों में इससे क्रमशः कल्पना रामानी, अवनीश सिंह चौहान तथा रोहित रूसिया को सम्मानित किया जा चुका है।
हम अभिव्यक्ति परिवार की ओर से इन रचनाकारों का अभिनंदन करते हैं और इनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं।
पूर्णिमा वर्मन
(टीम अभिव्यक्ति की ओर से)
१० अगस्त २०१५
purnima.varman@gmail.com

navgeet :

नवगीत:
संजीव
*
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
जंगल में
जनतंत्र आ गया
पशु खुश हैं
मन-मंत्र भा गया
गुराएँ-चीखें-रम्भाएँ
काँव-काँव का
यंत्र भा गया
कपटी गीदड़
पूजता बाबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
शतुरमुर्ग-गर्दभ
हैं प्रतिनिधि
स्वार्थ साधते
गेंडे हर विधि
शूकर संविधान
परिषद में
गिद्ध रखें
परदेश में निधि
पापी जाते
काशी-काबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
मानुष कैट-वाक्
करते हैं 
भौंक-झपट
लड़ते-भिड़ते हैं
खुद कानून
बनाकर-तोड़ें
कुचल निबल
मातम करते हैं
मिटी रसोई
बसते ढाबा
हल्ला-गुल्ला
शोर-शराबा
*
 

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

muktika

मुक्तिका:
मापनी: 212 212 212 212
छंद: महादैशिक जातीय, तगंत प्लवंगम
तुकांत (काफ़िआ): आ
पदांत (रदीफ़): चाहिये
बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
*
बात को जानते मानते हैं सदा
बात हो मानने योग्य तो ही कहें

वायदों को कभी तोडियेगा नहीं
कायदों का तकाज़ा नहीं भूलिए

बाँह में जो रही चाह में वो नहीं
चाह में जो रहे बाँह में थामिए

जा सकेंगे दिलों से कभी भी नहीं
जो दिलों में बसे हैं, नहीं जाएँगे

रौशनी की कसम हम पतंगे 'सलिल'
जां शमा पर लुटा के भी मुस्काएँगे 
 
***

muktika

मुक्तिका:
मापनी: 212 212 212 212
छंद: महादैशिक जातीय, तगंत प्लवंगम
तुकांत (काफ़िआ): आ
पदांत (रदीफ़): चाहिये
बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
*
बोलना छोड़िए मौन हो सोचिए
बागबां कौन हो मौन हो सोचिए

रौंदते जो रहे तितलियों को सदा
रोकना है उन्हें मौन हो सोचिए

बोलते-बोलते भौंकने वे लगे
सांसदी क्यों चुने हो मौन हो सोचिए

आस का, प्यास का है हमें डर नहीं
त्रास का नाश हो मौन हो सोचिए

देह को चाहते, पूजते, भोगते
खुद खुदी चुक गये मौन हो सोचिए

मंदिरों में तलाशा जिसे ना मिला
वो मिला आत्म में ही छिपा सोचिए

छोड़ संजीवनी खा रहे संखिया
मौत अंजाम हो मौन हो सोचिए
***

सोमवार, 10 अगस्त 2015

navgeet

नवगीत :
संजीव
*
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
मैं ना दैहौं तन्नक काऊ
*
बम भोले है अपनी जनता
देती छप्पर फाड़ के.
जो पाता वो खींच चीथड़े
मोल लगाता हाड़ के.
नेता, अफसर, सेठ त्रयी मिल
तीन तिलंगे कूटते.
पत्रकार चंडाल चौकड़ी
बना प्रजा को लूटते.
किससे गिला शिकायत शिकवा
करें न्याय भी बंदी है.
पुलिस नहीं रक्षक, भक्षक है
थाना दंदी-फंदी है.
काले कोट लगाये पहरा
मनमर्जी करते भाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
मैं ना दैहौं तन्नक काऊ
*
पण्डे डंडे हो मुस्टंडे
घात करें विश्वास में.
व्यापम झेल रहे बरसों से
बच्चे कठिन प्रयास में.
मार रहे मरते मरीज को
डॉक्टर भूले लाज-शरम.
संसद में गुंडागर्दी है
टूट रहे हैं सभी भरम.
सीमा से आतंक घुस रहा
कहिए किसको फ़िक्र है?
जो शहीद होते क्या उनका
इतिहासों में ज़िक्र है?
पैसे वाले पद्म पा रहे
ता लीपीट रहे दाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
मैं ना दैहौं तन्नक काऊ
*
सेवा से मेवा पाने की
रीति-नीति बिसरायी है.
मेवा पाने ढोंग बनी सेवा
खुद से शरमायी है.
दूरदर्शनी दुनिया नकली
निकट आ घुसी है घर में.
अंग्रेजी ने सेंध लगा ली
हिंदी भाषा के स्वर में.
मस्त रो मस्ती में, चाहे
आग लगी हो बस्ती में.
नंगे नाच पढ़ाते ऐसे
पाठ जान गयी सस्ते में.
आम आदमी समझ न पाये
छुरा भौंकते हैं ताऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
मैं ना दैहौं तन्नक काऊ
*

रविवार, 9 अगस्त 2015

आओ फिर से दीया जलाएं






आओ फिर से दीया जलाएं

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२

भरी दोपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोडें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं,
आओ फिर से दीया जलाएं

             जैसा हम चिन्तन करते हैं, भविष्य में वही हमारा भाग्य बन जाता है। इसलिये विचार हमारे भविष्य के निर्माता हैं। हमारे व्यक्तित्व का विकास भूतकाल के विचारों से ही हुआ है .  अतः विचारों के आते ही मन में यह चिन्तन करना नितान्त अपरिहार्य हो जाता है कि ये किस प्रकार के हैं- ये सकारात्मक हैं अथवा नकारात्मक। यदि हम चाहते हैं कि भविष्य हमें स्वीकार करे,  तो हमें सकारात्मक विचारों को ही अपने मन में स्थान देना चाहिये . प्रश्न उठता है कि सकारात्मक और नकारात्मक विचारों को कैसे  पहिचाना जाये ? विचार समसामयिक घटनाओ तथा परिवेश से ही उपजते हैं , आज हमारे समाज में कतिपय राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों, सत्ता के दलालों के जमावडे के गठजोड ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थो के लिये देश और समाज को निगल जाने के हर सम्भव यत्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ी  है। इससे हमारे मन में नैराश्य तथा ॠणात्मक विचार आना स्वाभावविक है , ऐसे लोगो की तात्कालिक भौतिक सफलतायें देककर विभ्रम होता है , और उनके अपनाये गलत तरीको का ही अनुसरण करने का मन होता है .
      राग-द्वेष से ऊपर उठकर मन्थन करने पर सरलता से शुभ और अशुभ , सही और गलत का निर्णय किया जा  सकता है। हमारे वेद पुराण तथा सभी धर्मो के विभिन्न ग्रंथ  हमें शुभ संकल्प करने के लिये प्रेरित और अशुभ संकल्प के लिये हतोत्साहित करते हैं । यजुर्वेद में कहा गया है कि जिस प्रकार कुशल सारथि रथ के अश्वों को जहाँ चाहता है, वहाँ ले जाता है, उसी प्रकार यह मन भी मनुष्य को पता नहीं कहाँ-कहाँ ले जाता है। इसका समाधान प्रस्तुत करता हुआ  मन्त्र कहता है कि जिस प्रकार रश्मि की सहायता से सारथी अश्वों पर नियन्त्रण करता है, उसी प्रकार आत्मा रूपी सारथी यदि सावधान हो तो मन पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
      विज्ञान सम्मत  तथ्य है कि एक दिन में मनुष्य के मन में लगभग 60 हजार विचार आते हैं  पुनः पुनः आवृत्ति करने वाले विचारों में उन विचारों की प्रमुखता होती है जो चिन्ता का कारण हेते हैं। हमारे मन का स्वभाव है कि यह राम तत्व की अपेक्षा रावण तत्व का अधिक विचार करता है। इसका कारण यह है कि प्राप्त की अपेक्षा अप्राप्त की चिन्ता मनुष्य को अधिक सताती है। जो हमें मिला हुआ है, उसके सुख का अनुभव करने के मुकाबले हम जो नहीं मिला हुआ है, उसके प्रति  अधिक सजग रहते हैं । इसलिये चिन्तन की दिशा फल पर न होकर कर्म पर रहे तो फल की अप्राप्ति में आने वाली दुश्चिन्ताओं से मुक्ति पाई जा सकती है।
गीता में इसी लिये कहा गया है ..
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
      इस प्रकार मन में आत्म उत्थान तथा समाज उत्थान की कामना हो, विचार तदनुकूल हों तो फिर सफलता को प्राप्त करने से कोई कैसे रोक सकता है? ऐसे विचार सफलता का निष्कण्टक मार्ग हैं। हमारे विचारो में बृहत् सत्य होना चाहिये अर्थात् ऐसा सत्य हो जो स्व और पर के भेद से ऊपर हो, केवल अपने या कुछ लोगों के स्वार्थ को ध्यान में रखकर जो लक्ष्य निर्धारित किया जाता है, वह संकुचित हो सकता है, अतः वेद के अनुसार जीवन के लिये निर्धारित किया गया लक्ष्य महान् सत्य होना चाहिये , जो सबके लिये हितकर हो . उस लक्ष्य की ओर कठोरता के साथ, तेजस्विता के साथ, प्राणों की पूरी शक्ति के साथ , प्रयास किया जाना चाहिये। वैचारिक संकल्प यदि व्रत का रूप ले लेता है, तो फिर उसके सफल होने की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है। अन्यथा कितना भी महान् उद्देश्य हो, संकल्पशक्ति के अभाव में वह चूर-चूर होकर धराशायी हो जाता है। अच्छे संकल्प करने वाले लोग बहुत होते हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही अपने लक्ष्य को प्राप्त  कर पाते हैं,सफलता का मात्र कारण यही है कि उनकी संकल्पशक्ति कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होती।  तो आइये सकारात्मक विचारो का दीप प्रज्जवलित करें . पूर्व प्रधानमंत्री  अटल बिहारी वाजपेयी की पंक्तियो को साकार करें ...
'आओ फिर से दीया जलाएं"