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शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

navgeet: संजीव

नवगीत  : 
संजीव
*
द्रोण में 
पायस लिये
पूनम बनी,
ममता सनी
आयी सुजाता,
बुद्ध बन जाओ.
.
सिसकियाँ
कब मौन होतीं?
अश्रु
कब रुकते?
पर्वतों सी पीर
पीने
मेघ रुक झुकते.
धैर्य का सागर
पियें कुम्भज
नहीं थकते.
प्यास में,
संत्रास में
नवगीत का
अनुप्रास भी
मन को न भाता.
युद्ध बन जाओ.
.
लहरियां
कब रुकीं-हारीं.
भँवर
कब थकते?
सागरों सा धीर
धरकर
मलिनता तजते.
स्वच्छ सागर सम
करो मंथन
नहीं चुकना.
रास में
खग्रास में
परिहास सा
आनंद पाओ
शुद्ध बन जाओ.
.

navgeet: sanjiv

नवगीत: 
संजीव
.
चिन्तन करें,
न चिंता करिए 
.
सघन कोहरा
छटना ही है.
आज न कल
सच दिखना ही है.
श्रम सूरज
निष्ठा की आशा
नव परिभाषा
लिखना ही है.
संत्रासों की कब्र खोदने
कोशिश गेंती
साथ चलायें
घटे विषमता,
समता वरिए
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
.
दल ने दलदल
बहुत कर दिया.
दलविहीन जो
ऐक्य हर लिया.
दीन-हीन को
नहीं स्वर दिया.
अमिया पिया
विष हमें दे दिया.
दलविहीन
निर्वाचन करिए.
नव निर्माणों
का पथ वरिए.
निज से पहले
जन हित धरिए.
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
१६.२.२०१५, भांड़ई
*

navgeet: sanjiv

नवगीत: 
संजीव
.
सबके 
अपने-अपने मानक 
.
‘मैं’ ही सही
शेष सब सुधरें.
मेरे अवगुण
गुण सम निखरें.
‘पर उपदेश
कुशल बहुतेरे’
चमचे घेरें
साँझ-सवेरे.
जो न साथ
उसका सच झूठा
सँग-साथ
झूठा भी सच है.
कहें गलत को
सही बेधड़क
सबके
अपने-अपने मानक
.
वही सत्य है
जो जब बोलूँ.
मैं फरमाता
जब मुँह खोलूँ.
‘चोर-चोर
मौसेरे भाई’
कहने से पहले
क्यों तोलूँ?
मन-मर्जी
अमृत-विष घोलूँ.
बैल मरखना
बनकर डोलूँ
शर-संधानूं
सब पर तक-तक.
सबके
अपने-अपने मानक
.
‘दे दूँ, ले लूँ
जब चाहे जी.
क्यों हो कुछ
चिंता औरों की.
‘आगे नाथ
न पीछे पगहा’
दुःख में सब संग
सुख हो तनहा.
बग्घी बैठूँ,
घपले कर लूँ
अपनी मूरत
खुद गढ़-पूजूं.
मेरी जय बोलो
सब झुक-झुक.
सबके
अपने-अपने मानक
१७.२.२०१५
*

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे 
.
झाड़ू लेकर
राजनीति की
बात करें.
संप्रदाय की
द्वेष-नीति की
मात करें.
आश्वासन की
मृग-मरीचिका
ख़त्म करो.
उन्हें हराओ
जो निर्बल से
घात करें.
मैदानों में
शपथ लोक-
सेवा की लो.
मतदाता क्या चाहे
पूछो जा द्वारे
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
मन्दिर-मस्जिद
से पहले
शौचालय हो.
गाँव-मुहल्ले
में उत्तम
विद्यालय हो.
पंडित-मुल्ला
संत, पादरी
मेहनत कर-
स्वेद बहायें,
पूज्य खेत
देवालय हों.
हरियाली संवर्धन हित
आगे आ रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
जाती जन्म से
नहीं, कर्म से
बनती है.
उत्पादक अन-
उत्पादक में
ठनती है.
यह उपजाता
वह खाता
बिन उपजाये-
भू उसकी
जिसके श्रम-
सीकर सनती है.
अन-उत्पादक खर्च घटे
वह विधि ला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
श्रम की
सबसे अधिक
प्रतिष्ठा करना है.
शोषक पूँजी को
श्रम का हित
वरना है.
चौपालों पर
संसद-ग्राम
सभाएँ हों-
अफसरशाही
को उन्मूलित
करना है.
बहुत हुआ द्लतंत्र
न इसकी जय गा रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
बिना बात की
बहसें रोको,
बात करो.
केवल अपनी
कहकर तुम मत
घात करो.
जिम्मेवारी
प्रेस-प्रशासन
की भारी-
सिर्फ सनसनी
फैला मत
आघात करो.
विज्ञापन की पोल खोल
सच बतला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
१५-१६.२.२०१५
*

navgeet: sanjiv

नवगीत: 
संजीव
*
अहंकार का 
सिर नीचा 
.
अपनेपन की
जीत है
करिए सबसे प्रीत
सहनशीलता
हमेशा
है सर्वोत्तम रीत
सद्भावों के
बाग़ में
पले सृजन की नीत
कलमकार को
भुज-भींचा
अहंकार का
सिर नीचा
.
पद-मद का
जिस पर चढ़ा
उतरा शीघ्र बुखार
जो जमीन से
जुड़ रहा
उसको मिला निखार
दोष न
औरों का कहो
खुद को रखो सँवार
रखो मनोबल
निज ऊँचा
अहंकार का
सिर नीचा
.
पर्यावरण
न मलिन कर
पवन-सलिल रख साफ
करता दरिया-
दिल सदा
दोष अन्य के माफ़
निबल-सबल को
एक सा
मिले सदा इन्साफ
गुलशन हो
मरु गर सींचा
अहंकार का
सिर नीचा
१५.२.२०१५
*

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

geet: sanjiv

श्रृंगार गीत:
संजीव
.
चाहता मन
आपका होना
.
     शशि ग्रहण से
     घिर न जाए
     मेघ दल में
     छिप न जाए
     चाह अजरा
     बने तारा
     रूपसी की
     कीर्ति गाये
मिले मन में
एक तो कोना
.
     द्वार पर
     आ गया बौरा
     चीन्ह भी लो
      तनिक गौरा
     कूक कोयल
     गाए बन्ना
     सुना बन्नी
     आम बौरा
मार दो मंतर
करो टोना
.
     माँग इतनी
     माँग भर दूँ
     आप का
     वर-दान कर दूँ
     मिले कन्या-
     दान मुझको
     जिंदगी को
     गान कर दूँ
प्रणय का प्रण
तोड़ मत देना
.   

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

lekh: navgeet ki antaratma chhand

विशेष लेख-
नवगीतों की अंतरात्मा छंद
संजीव
.

‘नवगीत ने न केवल लोकतत्व, वन और महानगरीय बोध को एक साथ अपनी अभिव्यक्तियों में समेटा है वरन कथ्य का परंपरावादी गीत की अपेक्षा और अधिक विस्तार किया है, प्रतीकों और बिम्बों का ऐसा चुनाव किया गया है जो वर्तमान जीवन को सटीक और स्पष्टतर अभिव्यक्ति देनेवाले हैं. नयी अभिव्यक्तियों और काव्य की नई भंगिमाओं के लिये छंदगत शिल्प में लचीलापन आना आवश्यक था.’ –माहेश्वर तिवारी, नवगीत एक परिसंवाद   

छंदगत शिल्प के साथ-साथ प्रतीकों, बिम्बों, रूपकों, उपमाओं तथा शब्दों के चयन में भी लचीलापन और परिवर्तन केवल नवगीत में नहीं अपितु काव्य की अन्य विधाओं में भी आया है. नवगीत के संबंध में एक भ्रामक धारणा यह देखने में आयी है कि छंद और अलंकार नवगीत के कथ्य और सम्प्रेषण को कमजोर करते हैं. मजे की बात यह है कि इस मत के प्रतिपादक और पोषक नवगीतकारों के नवगीत भी छंदों की नींव पर ही खड़े हुए हैं. हिंदी-पिंगल मात्रिक, वर्णिक, तालीय  आदि कई वर्गों में विभाजित कर छंद को पहचान देता है. नवगीत और छंदों के अंतर्संबंध को समझने के लिये कुछ नवगीतों के शिल्प विधान पर दृष्टिपात करें-

श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ नवगीत के शिखर हस्ताक्षर हैं. इंद्र जी रचित खंडकाव्य ‘कालजयी’ में जिस षटपदीय छंद का उपयोग किया गया है वह पारंपरिक छंद-पंक्तियों के संमुच्चय से ही निर्मित है:

एक-एक कर उदास / गर्मी के     - १८ मात्राएँ
सारे दिन गुजर गए              - १२ मात्राएँ  - ३० मात्रिक महातैथिक छंद
सिमट गयी हरित नम्र छाया       - १६ मात्राएँ
आकाशी देवदारु                  - १२ मात्राएँ  - २८ मात्रिक यौगिक छंद
आरण्यक खिरनी की              - १२ मात्राएँ 
खोज रही विरल जलद माया        - १६ मात्राएँ  - २८ मात्रिक यौगिक छंद
प्यासी आँखें, सखे!                - ११ मात्राएँ
मरुथल में हिरनी की              - १२ मात्राएँ  - २३ मात्रिक रौद्राक छंद
पात-पात, फूल-फूल               - १२ मात्राएँ
आंधी में अमलतास निखर गए      - १८ मात्राएँ  - ३० मात्रिक महातैथिक छंद

इंद्र जी के ही ‘स्वप्न पंखी झील’ शीर्षक नवगीत में त्रिलोक, तैथिक तथा शक्ति छंदों का सम्मिश्रण है:

उड़ते हैं स्वप्न पंख झील के कछार    - २१ मात्राएँ  - त्रैलोक छंद
नारिकेल औ’ खजूर ताल            - १५ मात्राएँ  - तैथिक छंद
घास-फूस काँटों के झाड़             - १५ मात्राएँ  - तैथिक छंद
गंधवती शाम के धुंधलके में          - १८ मात्राएँ  - शक्ति छंद
ऊँघ रहे नींद के पहाड़               - १५ मात्राएँ  - तैथिक छंद
दिशी-दिशि में बिखरा है नील अन्धकार – २१ मात्राएँ  - त्रैलोक छंद

१२-१२-९ = 33 मात्रिक प्रवीर छंद (दंडक) का उपयोग नवगीत में कर इंद्र जी चमत्कृत करते हैं_

लो अब तो सिमट गया / गहरे आवर्तों में / जल का फैलाव
शेष रहा यादों की / अनभीगी परतों में / क्षण का सैलाब
सूख गयी गीतों की / अश्रु झरे नयनों सी / रसवंती झील
उडती अब आकाशी / अनचाह सपनों सी / चील-अबाबील

डॉ. अश्वघोष का ‘कमल मुरझाये’ शीर्षक नवगीत सरसरी दृष्टि में छन्दहीन प्रतीत होने के बावजूद वस्तुतः हंसगति छंद (११+९=२० मात्रा) तथा यौगिक छंद (२८ मात्रा) मिलाकर रचा गया है. कथ्य की आवश्यकतानुसार शब्द चुने जाने पर एक मात्रा घट-बढ़ जाने से रचना को छन्दहीन नहीं कहा जा सकता.

गंदा सारा ताल / कमल मुरझाए  ११+९ =२०

ऊपर से तो / धूप बरसती / नीचे गन्दला पानी (८+८+१२ = २८)
दूर भागता / जाए भरोसा / जलती जाए जवानी (८+९ +१२ = २८) जाए का उच्चारण ‘जाय’ है यहाँ.
बादल है कंगाल / कमल मुरझाए ११+९ =२०

रात-दिवस की / मारा-मारी / मन में तप्त व्यथाएँ (८+८+१२=२८)
जाने कहाँ नींद में खायीं सारी बोध कथाएँ (७=९+१२ =२८)
जीवन हुआ मुहाल / कमल मुरझाए (११+९=२०)

प्रसिद्ध नवगीतकार मधुकर अष्ठाना रचित ‘वर्ण संकरों की फसल’ को नवगीत मानने से कोइ इंकार नहीं कर सकता. यह नवगीत २६ मात्रिक महाभागवत छंद में रचित है-

देशी गमला किन्तु / विदेशी कलम लगाई है 
वर्ण संकरों की माली ने / फसल उगाई है
बड़े-बड़े पेड़ों की / उसने कर दी है छुट्टी
बूढ़े बरगद की भी / अब तो गुम सिट्टी-पिट्टी
रंगरूटों की जलसे में / फिर फौज बुलाई है

हिंदी तथा बृज के दिग्गज विद्वान् स्व. डॉ. विष्णु विराट का ‘नए संधान’ शीर्षक नवगीत २६ मात्रिक महाभागवत छंद में मुखड़े तथा २१ मात्रिक त्रिलोक छंद में अंतरे से रचा गया है:

व्यर्थ निष्फल / तीर और कमान / राजा राम जी
क्या करे लक्ष्मण बड़ा हैरान / राजा राम जी

बस्तियों में बज रहे / रण के नगारे
निशिचरों में बँट गये / ब्रम्हास्त्र सारे
देख लो इन दानवों की शान / राजा राम जी                                
देवताओं का हुआ अपमान / राजा राम जी

रामडंडों की बड़ी जर्जर अवस्था
संहिताएँ पिट रहीं / हाँके व्यवस्था
अक्षरों के हैं गलत अभियान / राजा राम जी
अर्थ विगलित है नए संधान / राजा राम जी

दृष्टि के दौर्बल्य की है क्लीव गाथा
नीतियाँ हैं रुग्ण / रोतीं झुका माथा     
जन चला है शब्द भेदी बान / राजा राम जी
तब हुआ है श्रवण का अवसान / राजा राम जी

हिंदी गीतों पर डी. लिट्. करनेवाले डॉ. राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ के चर्चित नवगीत ‘कितने अंगुलिमाल’ का मुखड़ा २६ मात्रिक महाभागवत छंद में तथा अन्तरा २८ मात्रिक यौगिक छंद की ३ पंक्तियाँ और २६ मात्रिक महाभागवत की चौथी पंक्ति से बना है.

कितने अंगुलिमाल? / बुद्ध का / नाम-निशान नहीं

जीत रही है / लंका, पंचवटी है / हारी – हारी
हुआ अजय तम / लौ फिरती है / घर-घर मारी-मारी   
गरज रहा कुरुक्षेत्र / दु:शासन की हुंकारें गूँजे
बेबस, दुर्बल भीम / गदा में / लगते प्रान नहीं

बेनु बना राजा / ऋषियों के / हाथ हुए बौने
बेच रहा है / झूठ सत्य को/ अब औने-पौने
चक्रव्यूह में पिता-पुत्र / अर्जुन अभिमन्यु घिरे
धर्मराज के हाथ / धर्म को / जीवनदान नहीं

अब के भी धृतराष्ट्र / लिख रहा / गर्हित गाथायें
मन्दिर-मस्जिद में / बिकती हैं / भोली आस्थायें
इस कोने में खड़ी उदासी / उस कोने लाचारी
लगता है हम जहाँ खड़े / वह हिन्दुस्तान नहीं  

वरिष्ठ नवगीतकार कुमार रवीन्द्र रचित ‘दिन वसंत के’ शीर्षक नवगीत ८ मात्रिक वासव तथा १६ मात्रिक चरणान्त गुरु लक्षणवाले पादाकुलक छंदों का प्रयोग कर रचा गया है. यहाँ मुखड़े में वासव की एक पंक्ति के बाद पादाकुलक की २ पंक्तियाँ प्रयुक्त कर ४० मात्रा का मुखड़ा रखा गया है. अंतरे में पादाकुलक – वासव – पादाकुलक – पादाकुलक का प्रयोग कर ५६ मात्राएँ और फिर मुखड़े की ४० मात्राओं के समान पदभार की पंक्तियों का प्रयोग कर कुल ९४ मात्राओं के ३ अंतरे रचे गये हैं. दो छंदों का ऐसा गंगो-जमुनी मिश्रण कर प्रवाह और लय बनाये रखना रविन्द्र जी के असाधारण नैपुण्य का प्रमाण है:

दिन वसंत के / और तुम्हारी हँसी फागुनी / दोनों ने है मंतर मारा (८+१६+१६=४०)

चारों ओर हवाएँ झूमीं / हम बौराये
तोता दिखा हवा में उड़ता / हरियल पंखों को फैलाये  
वंशी गूँजी / लगता ऋतु को टेर रहा है / सड़क पार बैठा बंजारा (९४ मात्राएँ)

पीतबरन तितली / गुलाब पर रह-रह डोली
देख उसे / चंपा की डाली पर आ बैठी / पिडुकी बोली
कहो सखी / क्या भर लेगी तू अभी-अभी / खुशबु से अपना भंडारा  (९४ मात्राएँ)

धूप वसंती सांसों की है / कथा कह रही
आओ हम-तुम मिलकर बाँचें / गाथा जो है रही अनकही
कनखी-कनखी / तुमने ही तो फिर सिरजा है / सजनी, इच्छा-वृक्ष कुँआरा (९४ मात्राएँ)

बहुचर्चित नवगीतकार यश मालवीय का ‘शहर के एकांत में’ शीर्षक नवगीत महाभागवत छंद में है:

भीड़, केवल भीड़ मिलती / शहर के एकांत में
रूह के संग देह छिलती / शहर के एकांत में

साइबर कैफे हमारी बात / कह पाते नहीं
हम स्वयं से, बिना बोले / तनिक रह पाते नहीं
एक पत्ती नहीं हिलती / शहर के एकांत में

टूट जाता है भरोसा / टूट जाते आईने
गिनतियों के शोर में कोई / किसी को क्या गिने
धूप खुलकर नहीं खिलती / शहर के एकांत में

चूर हों लहरें बिखरतीं / और शक्लें जागतीं
ट्रेन के पीछे गठरियाँ लिये / अपनी भागतीं
याद, गहरे ज़ख्म सिलती / शहर के एकांत में    

‘यज्ञ को जो रक्त माँगे’ शीर्षक नवगीत आचार्य भगवत दुबे का है. इसमें मुखड़ा और अंतरे दोनों १४ मात्रिक मानव छंद का प्रयोग कर रचे गये हैं:

हो गये संबंध स्वार्थी / हैं छली संवेदनाएँ / अब व्यथा किसको बताएं?

व्याप्त रिश्तों में जटिलता / टोटके करती कुटिलता
जो कि मारण मन्त्र जपते / नब्ज़ क्या उनको दिखायें?

द्वार पर जो प्रेत टाँगे / यज्ञ को जो रक्त माँगें
हाथ में उनसे कलावा / अब भला कैसे बँधायें?

शत्रु जो सद्भावना के / शस्त्र ले दुर्भावना के
राजपथ परचल रहे हैं / शांति की थामे ध्वजायें        

‘नवगीत में छंद के बहुत अधिक प्रयोग उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जितना महत्वपूर्ण उसके कथ्य का चयन और सहज शब्दों में उसकी प्रवाहात्मक प्रस्तुति’ कहने वाले डॉ. जगदीश व्योम के नवगीत भी छंदानुशासन को भंग नहीं करते. ‘किससे करें गिला’ शीर्षक नवगीत के मुखड़े तथा अंतरे दोनों में डॉ. व्योम महाभागवत छंद का उपयोग करते हैं:

भीड़ भरी इस / नीरवता का / किससे करें गिला

पीपल बरगद नीम / छोड़कर कहाँ चले आये?
कैसे कहें / यहाँ पग-पग पर / जख्म बहुत खाये     
जो आया / हो गया यहीं का / वापस जा न सका
चुग्गे की / जुगाड़ में पंछी / खुलकर गा न सका
साँसों वाली / मिली मशीनें / इन्सां नहीं मिला

नवगीत के प्रणेता महाप्राण निराला ने ठीक ही कहा है: ‘मुक्त छंद वही लिख सकता है जिसने छंदों पर सिद्धि पा ली हो’ ऊपर इंद्र जी, विराट जी, यायावर जी और रविन्द्र जी के नवगीत सिद्ध करते हैं कि परंपरागत छंदों के रूढ़ छंद-विधान से मुक्त होकर गति-यति में परिवर्तन और विविध छंदों के सम्मिश्रण से कथ्य में ‘नव गति, नव लय, ताल-छंद नव’ का समावेश कर उसे अधिक लालित्य, चारूत्व और ग्राह्यता दी जा सकती है किन्तु इसके लिए पहले छंद को सिद्ध करना ही पड़ेगा.

निस्संदेह नवगीत के भवन का निर्माण कथ्य की ईंट तथा छंद की रेत-सीमेंट मिलाकर ही संभव हो सकता है. पारंपरिक छंद-विधान में निर्धारित गति-यति में परिवर्तन कर समान पदभार की पंक्तियों में लय-वैविध्य से नवता की प्रतीति होती है. लीक से हटकर बिम्बों, प्रतीकों तथा  रूपकों का प्रयोग नवगीत tके लालित्य में वृद्धि करता है. लोकभाषिक देशज शब्दों का टटकापन नवगीतों को अपनेपन का स्पर्श देता है. देशज शब्दों को उपयोग करने के प्रति आग्रह के बाद भी देशज लोकगीतों का उपयोग न किये जाने ने नवगीतों को शहरी-शिक्षित वर्ग तक सीमित कर दिया है. नवगीत के स्थायित्व तथा लोकप्रियता के लिये उनमें लोकगीतों की धुनों का समावेश कर नवता का संचार करना होगा. लोकगीतों का छंद-विधान निर्धारित न होना एक बाधा है किन्तु इस दिशा में कार्य आरम्भ हो चुका हैं. मैंने तथा कुछ अन्य नवगीतकारों ने दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्हा, फाग, चौपाई, हाइकु आदि पर आधारित नवगीतों की रचना की है किन्तु इस दिशा में बहुत काम किया जाना है. तथाकथित प्रगतिशील कविता की क्लिष्टता और नीरसता को तोड़कर सरसता, नवता तथा गेयता के जिस लोकपथ पर नवगीत ने अब तक की यात्रा की है उसका गला पड़ाव लोकगीतों से होकर ही है. नवगीत छंदहीनता का पर्याय नहीं हो सकता. जिस रचना में लय, गेयता, माधुर्य, नवता तथा लोक-तत्व न हो वह नवगीत नहीं हो सकता.

*