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मंगलवार, 27 जनवरी 2015

kruti charcha: galiyare gandh ke - संजीव

कृति चर्चा: 
गलियारे गंध के: प्रणयपरक नवगीत नर्मदा  
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: गलियारे गंध के, नवगीत संग्रहडॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, १९९८, पृष्ठ ८४, नवगीत ६५, ७०/-, कलरव प्रकाशन, १२४७/८६ शांति नगर, त्रि नगर दिल्ली ११००३५] 

हिंदी गीतिकाव्य को छायावाद के वायवी भाव जगत से ठोस यथार्थ की धरती पर ले जाने के लिये नयी कविता ने अंतर्विरोध, वैषम्यता और विसंगतिजनित विडम्बनाओंसे जनाक्रोश को उभाड़ने के लिये शोषण तथा दीनता का अतिरेकी चित्रण चित्रण किया किन्तु काव्यात्मक स्तरहीनता तथा नीरसता के कारण वह वर्ग विशेष तक सीमित रह गया। परम्परागत गीतिकाव्य तथा छन्दहीन कविता के एकांगी सृजन से उपजे शून्य को सरसता, गेयता, लयात्मकता, भावप्रवणता, फैंटेसीपरक बिम्ब संयोजन तथा हृदग्राही रूपकों से भरने में नवगीत सफल हुआ। नवगीत की सृजन धारा में पारंपरिक छान्दसिक लयबद्धता तथा यथार्थवादी छन्दहीन कविता के दो किनारों के मध्य आम आदमी के संकल्पों, आशाओं, अपेक्षाओं, सपनों, संघर्षों, आशा-निराशा और उपलब्धियों की सलिल-तरंगें जैसे-जैसे प्रवाहित होती गयीं, नवगीत का कलकल निनाद जन-मन को रसानंदित करने में सफल होता गया। 

नवगीत के अंकुर की जड़ें ज़मने पर उसका पल्लवित, पुष्पित और फलित होना स्वाभाविक है। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ के प्रणयपरक नवगीतों का संग्रह ‘गलियारे गंध के’ सुवासित नवगीत पुष्पों की ऐसी अंजुरी है जो काव्य रसिकों को मोगरे की भीनी-भीनी सुरभि की तरह मुग्ध और आनंदित करती है, जिसे बार-बार पाने और पीने का मन करता है। इन नवगीतों में एक ओर परिपक्व-उत्कृष्ट कव्यशास्त्रीयता अन्तर्निहित है तो दूसरी ओर नितांत वैयक्तिक प्रणयाभिव्यक्ति में सामाजिक अनुभूतियों की गंगो-जमुनी छवि और छटा काय-छाया की तरह दृष्टव्य है। श्रेष्ठ भाव सम्प्रेषण, उत्तम काव्यत्व, सरस लयात्मकता, छान्दसिक नैपुण्य तथा  भाषिक प्रांजलता के पंचतत्व इस संग्रह को पढ़ने ही नहीं इसके गीतों को गुनगुनाने के निकष पर भी खरा सिद्ध करते हैं:

तन की पोथी पर महाकाव्य
तुम भी बाँचो
मैं भी बाँचूं
शब्दों का अर्थ न करें वरण
यह लिपि का कैसा धुंधलापन
आदिम गंधों से भरी पवन
हृत चेतन करती मन कानन
यह सृजन तन्त्र
यह संविधान
तुम भी जांचो
मैं भी जाँचूं

‘संविधान’ शब्द का यह प्रयोग चौंकाने के साथ-साथ डॉ. यायावर की नव दृष्टिपरक भाषिक सामर्थ्य का भी परिचायक है।

ये नवगीत प्रमाणित करते हैं कि अभिव्यक्ति में उक्ति-वैचित्र्य, जीवंत बिम्ब-प्रेक्षण तथा प्रतीकों का अभिनव रूपायन डॉ, यायावर का वैशिष्ट्य है। ये नवगीत pathak को चाक्षुस तथ मानसिक दोनों धरातलों पर रसानन्दित करने में समर्थ हैं:

हर बार समय लिख देता है
मस्तक पर
अग्नि परीक्षा क्यों?
क्यों अधरों पर लिख दिया ‘तृषा’
इस प्राण-पटल पर ‘आकर्षण’
मोती के भाग्य लिखा ‘बिंधना’
सीपी को सौंपा ‘खालीपन’
मेघों को तड़प-तड़प गलना
चातक को
विकल प्रतीक्षा क्यों? 

दिनोंदिन अधिकाधिक निर्मम होते परिवेश, मूल्यों का लाक्षागृह बनता समाज, चतुर्दिक पीड़ा के तांडव नर्तन से उपजी असंतुष्टि, सार्वजनिक जीवन में उमडत मिथ्या का तूफ़ान, तंत्र में दम तोड़ते सत्य की निरीहता, पुरस्कृत होने के लोभ में अस्मिता नीलाम करती कलमें, स्वानुशासन को कापुरुषता मनाने की प्रवृत्ति, अनाचार को घटते देखके अनदेखा करने की कायरता आदि से उपजा आक्रोश व घृणा सर्वस्व को नष्ट करने को औचित्यपूर्ण बताये- यह दृष्टि और राह यायावर को मान्य नहीं है। वे तमाम विसंगतियों, विद्रूपताओं और विषमताओं के बाद भी तिमिर पर उजास की जयजयकार देख सकने की सामर्थ्य रखते हैं:

निर्मम पैसों से कुचले जाते हों
जब भोले दिवास्वप्न
हम-तुम मिलकर
कैसे कोई इतिहास लिखें?
जब रिश्ते ही संत्रास लिखें
हम-तुम
अपना अनुबंध लिखें
ये अधर गीत-गोविंद लिखें

मन का ययाति न अतृप्त रहे
प्रतिबंध-गंध परिसुप्त रहे
तन भोजपत्र बन जाए अमर
लिख जाए तरल गीतों के स्वर
चिर मिलन कामना
तृप्त बनें 
ये अधर गीत-गोविंद लिखें

शब्दों को मूलार्थ के साथ-साथ लाक्षणिक अर्थ में प्रयोग करने में यायावर जी सिद्धहस्त हैं। अर्जुन, शकुंतला, ययाति, तथागत, सुजाता, पुरुरवा, राधा-माधव, रति-अनंग, अहल्या, मीरा, श्याम, सुकरात, वृन्दावन, पनघट, वंशीवट, गगरी, यमुना तट, गोकुल, कण्वाश्रम, खाजिराहो, होरी, गोदान, लक्ष्मण रेखा, क्रौंच मिथुन, मृग मरीचिका, सागर मंथन आदि शब्दों लाक्षणिक प्रयोग नवगीतों को भावार्थ की दृष्टि से संपन्न बना सका है। ऐसे प्रयोग नवगीतों के चटव में चार चाँद लगाते हैं।

डॉ. यायावर ने नवगीतों को शिकायत पुस्तिका बनाने के स्थान पर लालित्यमय रस-कोष बनाया है। महारास, आलिंगन, परिरम्भण, चुम्बन, मिथुन, पीयूष कलश, मदिराघट, तृषा, तृप्ति, प्रणय पूजा, कामना, वर्जना, समर्पण, प्रणय पिपासा, प्राण यजन, देह धर्म, रस समाधि, वर्जित फल. आदिम युग जैसे शब्द इन नवगीतों में पूर्ण अस्मिता और अर्थवत्ता के साथ प्रतिष्ठित ही नहीं हैं अपितु नवगीतों में प्राण भी फूँक सके हैं। इन नवगीतों को भाषिक सांस्कारिकता अद्भुत है:

सरिता का तट वह मुक्त-पवन
संग्रथित उँगलियाँ भुज-बंधन
तुलसी-दल जैसे अधर
वक्ष पर लिखें प्रणय
जब देह-धर्म के साथ
हुआ जग पूर्ण विलय
रस की समाधि में विस्मृत क्षण
अनियंत्रित पल

डॉ. यायावर युगीन विसंगतियों की अनदेखी नहीं करते किन्तु उन्हें उद्घाटित करने के लिये नागफनी का फसल नहीं उअगते, गुलाबों की क्यारी सजाते हैं:

पतझर से जीते बार-बार 
हारे मन के मधुमासों से
संदेहों की चौखट पर
हम फिर ठगे गये विश्वासों से

‘कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और’ की तरह नवगीतकारों में डॉ. यायावर का किसी बात की कहने का अपना अलग अंदाज़ है। नवगीत की भाषा और अभिव्यक्ति का तरीका ही नवगीतकार की पहचान स्थापित करती है। नवगीत रचना में लालित्य, चारुत्व, सौष्ठव, तथा कोमलता ही उसे नयी कविता से पृथक करती है। नयी कविता से प्रभावित नवगीतकारों में शैल्पिक भिन्नता तो होती है किन्तु कथ्य नयी कविता से सादृश्य रखने के कारण उनकी अभिव्यक्ति में भाषिक सौष्ठव की श्रेष्ठता कम ही मिलाती है किन्तु डॉ. यायावर नवगीतों में भाषा में प्राण फूँकते दिखते हैं। उन्होंने गीत विधा में ही डी. लिट्. उपाधि प्राप्त की है। स्वाभाविक है की वे गीत रचना के तत्वों, विधान, प्रक्रिया तथा प्रभावों पर पूर्ण अधिकार रखें।

डॉ. यायावर के ये प्रणयपरक नवगीत प्रकृति से एकाकारित प्रतीत होते हैं। इस गीतों में पवन, लहर, ज्वार, सिन्धु, सागर, यमुना तट, प्रभंजन, शंख, सीप, घोंघे, मोती, सरिता, मीन, चाँद, चाँदनी, नील गगन, धरा, गृह, सूर्य, नक्षत्र, नभ गंगा, प्रभाकर, समीर, मरुस्थल, कूप आदि के साथ मधुवन, चन्दन वन, महुआ वन, कुञ्ज, मौलश्री, बरगद, नीम, नागफनी, बेला, कचनार, कल्प वृक्ष, वंशी वट, बबूल, बांस, कांस, पीपल, तुलसी, गुलमोहर, हरसिंगार, सोनजुही, शतदल, गुलाब, अमलतास, मेंहदी, माधवी, शेफाली, पलाश, पल्लव, आम, कदंब ही नहीं कस्तूरी मृग, कामधेनु, शृगाल, मर्कट, सर्प, नाग, हिरण, विहाग, कपोत, चकवा, चकवी, चिड़िया, पाखी, तोता, मैना, मोर, कोयल, गौरैया, सारस. खंजन, कागा, हीरामन, तितलियाँ, मधुप और पखावज, मृदंग, वीणा, ढोल, बीन, बांसुरी, वंशी, शहनाई और इकतारा भी हैं। उत्सवधर्मी भारतीय जन मानस की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए इनसे बेहतर अन्य शब्द नहीं हो सकते।
इस नवगीत संग्रह का वैशिष्ट्य हन्दी के शुद्ध-सहज रूप का व्यवहार करना है। पूरें संग्रह मेंकहीं भी अनावश्यक हिंदीतर शब्द का प्रयोग नहीं है। परिनिष्ठित हिंदी में रचित हर नवगीत मन-वीणा को झंकृत कर आन्नद मग्न करता है। छंदानुशासन में कसे-सजे-संवरे ये नवगीत नव्ये नवगीतकारों के लिये पठनीय हे इन्हीं अनुकरणीय भी हैं। इस नवगीतों को  काव्य-दोषों से मुक्त रखने के प्रति यायावर जी सजग रहे हैं। एक नवगीत के छंद विधान और मात्रा संतुलन का आनंद लें:

हो गयीं                             ५     
दिशायें मौन                          ८
कहा संकेतों ने                       ११
घेरा पूरा वट वृक्ष भयानक प्रेतों ने       २४ 
बढ़ गयी                             ५
अबोधित एक भीड़                     ११
मर्कट के                             ६
हाथों बया-नीड़                        १०
स्वप्नों को दी आवाज़ किन्हीं अनिकेतों ने  २४
यह अंतर्ज्योति                         ९
न हो मलीन                           ७
सूखे तट पर                           ८
आ गयी मीन                          ८
संकेत दिया है घातक के अभिप्रेतों ने      २४

‘गलियारे गंध के’ नवगीतो का एक विशिष्ट संग्रह है जिसके सही गीत प्रणय परकता से सराबोर होने पर भी शील तथा श्लील से युक्त स्वानुशासित हैं। इन नवगीतों की प्रांजल भाषा लालित्य तथा चारूत्व से मन मोहती है। यह कृति गीतानंद मात्र नहीं देती अपितु भाषा संस्कारित करने में भी समर्थ है।


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रविवार, 25 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

नवगीत;
तुम कहीं भी हो
संजीव

.
तुम कहीं भी हो
तुम्हारे नाम का सजदा करूँगा
.
मिले मंदिर में लगाते भोग मुझको जब कभी तुम
पा प्रसादी यूँ लगा बतियाओगे मुझसे अभी तुम
पर पुजारी ने दिया तुमको सुला पट बंद करके
सोचते तुम रह गये
अब भक्त की विपदा हरूँगा
.
गया गुरुद्वारा मिला आदेश सर को ढांक ले रे!
सर झुका कर मूँद आँखें आत्म अपना आँक ले रे!
सबद ग्रंथी ने सुनाया पूर्णता को खंड करके
मिला हलुआ सोचता मैं
रह गया अमृत चखूँगा
.
सुन अजानें मस्जिदों के माइकों में जा तलाशा
छवि कहीं पाई न तेरी भरी दिल में तब हताशा
सुना फतवा 'कुफ्र है, यूँ खोजना काफिर न आ तू'
जा रहा हूँ सोचते यह
राह अपनी क्यों तजूँगा?
.
बजा घंटा बुलाया गिरजा ने  पहुंचा मैं लपक कर
माँग माफ़ी लूँ कहाँ गलती करी? सोचा अटककर
शमा बुझती देख तम को साथ ले आया निकलकर  
चाँदनी को साथ ले,
बन चाँद, जग रौशन करूँगा
.
कोई उपवासी, प्रवासी कोई जप-तप कर रहा था
मारता था कोई खुद को बिना मारे मर रहा था
उठा गिरते को सम्हाला, पोंछ आँसू बढ़ चला जब
तब लगा है सार जग में
गीत गाकर मैं तरूँगा
*    

समीक्षा: बांसों के झुरमुट से- ब्रजेश श्रीवास्तव का नवगीत संग्रह -संजीव

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
भारत आ रै
संजीव

.
भारत आ रै ओबामा प्यारे,
माथे तिलक लगा रे!
संग मिशेल साँवरी आ रईं,
उन खों  हार पिन्हा रे!!
.
अपने मोदी जी नर इन्दर
बाँकी झलक दिखा रए
नाम देस को ऊँचो करने
कैसे हमें सिखा रए
'झंडा ऊँचा रहे हमारा'
संगे गान सुना रे!
.
देश साफ़ हो, हरा-भरा हो
पनपे भाई-चारा
'वन्दे मातरम' बोलो सब मिल
लिये तिरंगा प्यारा
प्रगति करी जो मूंड उठा खें
दुनिया को दिखला रए
.

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

netaji subhash chandra bose aur bharat sarkar


नेताजी जयंती पर: नेताजी सुभाष चन्द्र बोस? और भारत सरकार 
*                                      
देश आजाद होने के बाद संसद में कई बार माँग उठी कि कथित विमान-दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु के रहस्य पर से पर्दा उठाने के लिये सरकार कोशिश करे। प्रधानमंत्री नेहरू इस माँग को दस वर्षों तक टालने में सफल रहे।  भारत सरकार इस बारे में ताईवान  (फारमोसा) सरकार से सम्पर्क ही नहीं करती थी। अन्त में जनप्रतिनिधियों (सांसदों) ने जस्टिस राधाविनोद पाल की अध्यक्षता में गैर-सरकारी जाँच आयोग के गठन का निर्णय लिया तब जाकर नेहरू ने 1956 में भारत सरकार की ओर से जाँच-आयोग के गठन की घोषणा की। 

सांसद चाहते थे कि जस्टिस राधाविनोद पाल को ही आयोग की अध्यक्षता सौंपी जाये। विश्वयुद्ध के बाद जापान के युद्धकालीन प्रधानमंत्री सह युद्ध मंत्री जनरल हिदेकी तोजो पर जो युद्धापराध का मुकदमा चला था, उसकी ज्यूरी (वार क्राईम ट्रिब्यूनल) के एक सदस्य थे- जस्टिस पाल। मुकदमे के दौरान जस्टिस पाल को  जापानी गोपनीय दस्तावेजों के अध्ययन का अवसर मिला था,  स्वाभाविक रूप से जाँच-आयोग की अध्यक्षता के लिये वे सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति थे । ज्यूरी के बारह सदस्यों में से एक जस्टिस पाल ही थे, जिन्होंने जेनरल तोजो का बचाव किया था।


जापान ने दक्षिण-पूर्वी एशियायी देशों को अमेरीकी, ब्रिटिश, फ्राँसीसी और पुर्तगाली आधिपत्य से मुक्त कराने के लिये युद्ध छेड़ा था। नेताजी के दक्षिण एशिया में अवतरण के बाद भारत भी ब्रिटिश आधिपत्य से छुटकारा पाने के लिए  लिये उसके एजेंडे में शामिल हो गया। आजादी के लिये संघर्ष करना अपराध’ कैसे होता? जापान ने कहा था- ‘एशिया- एशियायियों के लिए’- इसमें गलत क्या था? जो भी हो, जस्टिस राधाविनोद पाल का नाम जापान में सम्मान के साथ लिया जाता था मगर नेहरू को आयोग की  अध्यक्षता के लिये  सबसे योग्य व्यक्ति केवल शाहनवाज खान नजर आये।

शाहनवाज खान उर्फ लेफ्टिनेण्ट जनरल एस.एन. खान आजाद हिन्द फौज के भूतपूर्व सैन्याधिकारी, आरम्भ में नेताजी के दाहिने हाथ थे, मगर इम्फाल-कोहिमा फ्रण्ट से उनके द्वारा विश्वासघात  किये जाने की खबर आने के बाद नेताजी ने उन्हें रंगून मुख्यालय वापस बुलाकर उनका कोर्ट-मार्शल करने का आदेश दे दिया था। लाल किले के कोर्ट-मार्शल में शाहनवाज खान ने खुद यह स्वीकार किया था कि आई.एन.ए./आजाद हिन्द फौज में रहते हुए उन्होंने गुप्त रूप से ब्रिटिश सेना को मदद पहुँचाई थी। बँटवारे के बाद वे पाकिस्तान चले गये थे, मगर नेहरू ने उन्हें भारत वापस बुलाकर अपने मंत्री मंडल में सचिव बना दिया था।

जांच आयोग के अध्यक्ष के रूप में शाहनवाज खान ने नेहरू के चाहे अनुसार निराधार निर्णय दे दिया की तथाकथित विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु हो चुकी थी। शाहनवाज खान को पुरस्कार के रूप में नेहरू मंत्री मण्डल में रेल राज्य मंत्री बना दिया गया। आयोग के दूसरे सदस्य सुरेश कुमार बोस (नेताजी के बड़े भाई) ने खुद को शाहनवाज खान के निष्कर्ष से अलग कर लिया था। उनके अनुसार जापानी राजशाही ने विमान-दुर्घटना  का झूठा ताना-बाना बुना था और नेताजी जीवित थे।

शाहनवाज खान उर्फ लेफ्टिनेण्ट जनरल एस.एन. खान आजाद हिन्द फौज के भूतपूर्व सैन्याधिकारी, आरम्भ में नेताजी के दाहिने हाथ थे, मगर इम्फाल-कोहिमा फ्रण्ट से उनके द्वारा विश्वासघात  किये जाने की खबर आने के बाद नेताजी ने उन्हें रंगून मुख्यालय वापस बुलाकर उनका कोर्ट-मार्शल करने का आदेश दे दिया था। लाल किले के कोर्ट-मार्शल में शाहनवाज खान ने खुद यह स्वीकार किया था कि आई.एन.ए./आजाद हिन्द फौज में रहते हुए उन्होंने गुप्त रूप से ब्रिटिश सेना को मदद पहुँचाई थी। बँटवारे के बाद वे पाकिस्तान चले गये थे, मगर नेहरू ने उन्हें भारत वापस बुलाकर अपने मंत्री मंडल में सचिव बना दिया था।

शाहनवाज आयोग का निष्कर्ष देशवासियों के गले के नीचे नहीं उतरा। साढ़े तीन सौ सांसदों द्वारा पारित प्रस्ताव के आधार पर इंदिरा गाँधी सरकार को 1970 में (11 जुलाई) एक अन्य आयोग का गठन करना पडा। इस आयोग का अध्यक्ष जस्टिस जी.डी. खोसला को बनाया गया। जस्टिस घनश्याम दास खोसला के बारे में तीन तथ्य उल्लेखनीय हैं:

1. वे नेहरूजी के मित्र रहे थे;
2. वे जाँच के दौरान ही श्रीमती इन्दिरा गाँधी की जीवनी लिख  रहे थे, और
3. वे नेताजी की मृत्यु की जाँच के साथ-साथ तीन अन्य आयोगों की भी अध्यक्षता कर रहे थे।

सांसदों के दवाब के कार जांच योग को आयोग को ताईवान भेजा गया मगर ताईवान जाकर भी जस्टिस खोसला ने किसी भी सरकारी संस्था से सम्पर्क नहीं किया। वे हवाई अड्डे तथा शवदाहगृह से घूम कर वापिस आ गये। कारण यह बताया कि ताईवान के साथ भारत का कूटनीतिक सम्बन्ध नहीं है। कथित विमान-दुर्घटना में जीवित बचे कुछ लोगों के बयान इस आयोग ने लिये मगर पाकिस्तान में बसे मुख्य गवाह कर्नल हबीबुर्रहमान ने खोसला आयोग से मिलने से इन्कार कर दिया और आयोग चुप होकर बैठ गया। भारत सरकार के माध्यम से पाकिस्तान सरकार से संपर्क कर कनल हबीब को बयान देने हेतु सहमत करने का प्रयास तक नहीं किया।

खोसला आयोग की रपट पिछले शाहनवाज आयोग की रपट का सारांश साबित हुई। इसमें अगर नया कुछ था तो वह था भारत सरकार को इस मामले में पाक-साफ एवं ईमानदार साबित करने का जोरदार प्रयास। 28 अगस्त 1978 को संसद में प्रोफेसर समर गुहा के सवालों का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने कहा कि कुछ ऐसे आधिकारिक दस्तावेजी अभिलेख (Official Documentary Records) उजागर हुए हैं, जिनके आधार पर; साथ ही, पहले के दोनों आयोगों के निष्कर्षों पर उठनेवाले सन्देहों तथा (उन रपटों में दर्ज) गवाहों के विरोधाभासी बयानों के मद्देनजर सरकार के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल है कि वे निर्णय अन्तिम हैं।
प्रधानमंत्री जी का यह आधिकारिक बयान अदालत में चला गया और वर्षों बाद ३०  अप्रैल 1998 को कोलकाता उच्च न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि उन अभिलेखों के प्रकाश में फिर से इस मामले की जाँच करवायी जाए।

इस समय अटल बिहारी वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे। विविध दलों के तालमेल से किसी तरह घिसट रही यह सरकार दो-दो जाँच आयोगों का हवाला देकर इस मामले से पीछा छुड़ाना चाह रही थी, मगर न्यायालय के आदेश के बाद सरकार को तीसरे आयोग के गठन को मंजूरी देनी पड़ी।

इस बार सरकार को मौका न देते हुए आयोग के अध्यक्ष के रूप में (अवकाशप्राप्त) न्यायाधीश मनोज कुमार मुखर्जी की नियुक्ति खुद सर्वोच्च न्यायालय ही कर दी। सरकार ने  तक हो सका मुखर्जी आयोग के गठन और उनकी जाँच में रोड़े अटकाने की कोशिश की मगर जस्टिस मुखर्जी 

जीवट के आदमी साबित हुए। विपरीत परिस्थितियों में भी वे जाँच को आगे बढ़ाते रहे। आयोग ने सरकार से उन दस्तावेजों (“टॉप सीक्रेट” पी.एम.ओ. फाईल 2/64/78-पी.एम.) की माँग की, जिनके आधार पर 1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संसद में बयान दिया था और जिनके आधार पर कोलकाता उच्च न्यायालय ने तीसरे जाँच-आयोग के गठन का आदेश दिया था

प्रधानमंत्री कार्यालय और गृहमंत्रालय दोनों साफ मुकर जाते हैं- ऐसे कोई दस्तावेज नहीं हैं; होंगे भी      
तो हवा में गायब हो गये आप यकीन नहीं करेंगे कि जो दस्तावेज खोसला आयोग को दिए गए थे, वे दस्तावेज भी मुखर्जी आयोग को देखने नहीं दिये गये, 'गोपनीय' और 'अतिगोपनीय' दस्तावेजों की बात तो छोड़ ही दीजिये । प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय सभी जगह नौकरशाहों का यही एक जवाब था- “भारत के संविधान की धारा 74(2) और साक्ष्य कानून के भाग 123 एवं 124 के तहत इन दस्तावेजों को आयोग को नहीं दिखाने का “प्रिविलेज” उन्हें प्राप्त है!”

भारत सरकार के रवैये के विपरीत ताईवान सरकार ने मुखर्जी आयोग द्वारा माँगा गया एक-एक दस्तावेज आयोग उपलब्ध कराया। ताईवान के साथ भारत का कूटनीतिक सम्बन्ध न होने के कारण  भारत सरकार किसी प्रकार का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दवाब ताईवान सरकार पर नहीं डाल सकती थी शायद इसलिए ही योग को ताइवान सरकार का सहयोग मिल सका।

प्रधानमंत्री कार्यालय और गृहमंत्रालय दोनों साफ मुकर जाते हैं- ऐसे कोई दस्तावेज नहीं हैं; होंगे भी तो हवा में गायब हो गये आप यकीन नहीं करेंगे कि जो दस्तावेज खोसला आयोग को दिए गए थे, वे दस्तावेज भी मुखर्जी आयोग को देखने नहीं दिये गये, 'गोपनीय' और 'अतिगोपनीय' दस्तावेजों की बात तो छोड़ ही दीजिये । प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय सभी जगह नौकरशाहों का यही एक जवाब था- “भारत के संविधान की धारा 74(2) और साक्ष्य कानून के भाग 123 एवं 124 के तहत इन दस्तावेजों को आयोग को नहीं दिखाने का “प्रिविलेज” उन्हें प्राप्त है!”   

रूस के मामले में ऐसा नहीं था। भारत का रूस के साथ गहरा सम्बन्ध था। अतः रूस सरकार का स्पष्ट मत था कि जब तक भारत सरकार आधिकारिक रूप से अनुरोध नहीं भेजती, वह आयोग को न तो नेताजी से जुड़े गोपनीय दस्तावेज देखने दे सकती थी और न ही कुजनेत्सन, क्लाश्निकोव- जैसे महत्वपूर्ण गवाहों का साक्षात्कार लेने दे सकती थी। भारत सर्मर ने अपने द्वारा गठित आयोग के साथ सहयोग करने का अनुरोध रूस सरकार से नहीं किया। फलतः, आयोग रूस से खाली हाथ लौट आया। जनता के सामने सरकार की बदनीयत का पर्दाफाश हो गया की वह सच सामने नहीं आने देना चाहती। इसके बावजूद मुखेर्जी योग ने जाँच जारी रखी। 
मुखर्जी आयोग ने जहाँ  “गुमनामी बाबा” के मामले में गम्भीर तरीके से जाँच की, वहीं स्वामी शारदानन्द के मामले में गम्भीरता नहीं दिखाई। आयोग फैजाबाद के राम भवन तक तो गया जहाँ गुमनामी बाबा रहे थे किन्तु राजपुर रोड की उस कोठी तक नहीं गया, जहाँ शारदानन्द रहे थे। आयोग ने गुमनामी बाबा की हर वस्तु की जाँच की मगर उ.प्र. पुलिस/प्रशासन से शारदानन्द के अन्तिम संस्कार के छायाचित्र माँगने का कष्ट नहीं उठाया।

मई' 64 के बाद जब स्वामी शारदानन्द सतपुरा (महाराष्ट्र) के मेलघाट के जंगलों में अज्ञातवास किया था, तब उनके साथ सम्पर्क में रहे डॉ. सुरेश पाध्ये का आयोग योग के सामने कहना था कि उन्होंने खुद स्वामी शारदानन्द और उनके परिवारजनों तथा वकील के कहने के कारण (1971 में) ‘खोसला आयोग’ के सामने सच्चाई का बयान नहीं किया था। अब चूँकि स्वामीजी का देहावसान हो चुका है, इसलिए वे (26 जून 2003 को) मुखर्जी आयोग को सच्चाई बताते हैं। मगर आयोग उनकी तीन दिनों की गवाही को (अपनी रिपोर्ट में) आधे वाक्य में समेट देता है और दस्तावेजों को (जो कि वजन में ही 70 किलो है) एकदम नजरअन्दाज कर देता है। यह सब कुछ किसके दवाब में  किया गया- यह राज शायद भविष्य में ही खुले।
2005 में दिल्ली में फिर काँग्रेस की सरकार बनी। इस सरकार ने मई में जाँच आयोग को छह महीनों की समय वृद्धि दी। 8 नवम्बर 2005 को आयोग ने अपनी रपट सरकार को सौंप दी। सरकार इस पर कुण्डली मारकर बैठ गयी। दवाब पड़ने पर 18 मई 2006 को रपट को संसद के पटल पर रखा गया।

मुखर्जी आयोग को पाँच विन्दुओं पर जाँच करना था:               
1. नेताजी जीवित हैं या मृत? 
2. अगर वे जीवित नहीं हैं, तो क्या उनकी मृत्यु विमान-दुर्घटना में हुई, जैसा कि बताया जाता है? 
3. क्या जापान के रेन्कोजी मन्दिर में रखा अस्थि भस्म नेताजी  का है? 
4. क्या उनकी मृत्यु कहीं और, किसी और तरीके से हुई, अगर ऐसा है, तो कब और कैसे? 
5. अगर वे जीवित हैं, तो अब वे कहाँ हैं?

आयोग का निष्कर्ष कहता है कि-
1. नेताजी अब जीवित नहीं हैं। 
2. किसी विमान-दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु नहीं हुई है।
3. रेन्कोजी मन्दिर (टोक्यो) में रखा अस्थिभस्म नेताजी का नहीं है।
4. उनकी मृत्यु कैसे और कहाँ हुई- इसका जवाब आयोग नहीं ढूँढ़ पाया।
5. इसका उत्तर क्रमांक 1 में दे दिया गया है। 
सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया।  बाद में सरकार द्वारा नेताजी को भारत रत्न (मरणोपरांत) से सम्मानित किये जाने के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत वाद में सरकार ने नेताजी के जीवित न होने सम्बन्धी कोई जानकारी न देकर निर्णय वापिस ले लिया।    
निस्संदेह नेताजी सुभाषचंद्र बोस आज भी भारतीय जनता के नायक हैं। उनके जीवन का उत्तरार्ध आज भी अज्ञात है। जनता सच जानना चाहती है और उसे इसका हक भी है। लम्बे समय बाद भारत में राष्ट्रीयता और जनमत का सम्मान करनेवाली स्शाक्र सरकार है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के मन में नेताजी के व्यक्तित्व और अवदान के प्रति गहरा सम्मान है। सरदार पटेल के व्यक्तित्व और अवदान के प्रति गहन सम्मान प्रदर्शित करते हुए उनकी सर्वोच्च प्रतिमा निर्माण का कार्य मोदी जी करा रहे हैं। क्या वे नेता जी सबन्धी सच जानने की जनाकांक्षा का सम्मान करते हुए एक स्वतंत्र योग का गठन कर उसे सरकार की ओर से समस्त प्रपत्र, नस्तियां, समर्थन और सहयोग दे सकेंगे? समय उनकी सामर्थ्य और योगदान की चर्चा करते समय नेताजी के सम्बन्ध में उनके द्वारा उठाये गए कदम का भी लेखा-जोखा करेगा ही। 
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