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गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

doha muktak:

***

दोहा मुक्तक: 

मोती पाले गर्भ में, सदा मौन रह सीप 
गोबर गुपचुप ही रहे, दें आँगन में लीप 
बन गणेश जाता मिले, जब लक्ष्मी का संग 
तिमिर मिटाता जगत का, जल-चुप रहकर दीप 
*

doha:

दोहा दीप 

रांगोली से अल्पना, कहे देखकर चौक 
चौंक न घर पर रौनकें, सूना लगता  चौक 

बाती मन, तन दीप से, कहे न देना ढील 
बाँस प्रयासों का रखे, ऊँचा श्रम-कंदील

नेता जी गम्भीर हैं, सुनकर हँसते लोग 
रोगी का कब डॉक्टर , किंचित करते सोग?

चाह रहे सब रमा को, बिसरा रहे रमेश 
याचक हैं सौ सुरा के, चाहें नहीं सुरेश 

रूप-दीप किस शिखा का, कहिए अधिक प्रकाश?
धरती धरती मौन जब, पूछे नीलाकाश 

दोहा दीप जलाइए, स्नेह स्नेह का डाल 
बाल न लेकिन बाल दें, करिए तनिक सम्हाल 

कलम छोड़कर बाण जब, लगे चलने बाण 
शशि-तारे जा छिप गए हो संकट से त्राण 

navgeet:

नवगीत : 

दिल न जलाओ,
दिया जलाओ 

ईश्वर सबको 
सुख समृद्धि दे 
हर प्रयास को 
कीर्ति-वृद्धि दे 

नित नव पथ पर 
कदम बढ़ाओ 

जीत-हार 
जो हो, होने दो 
किन्तु मित्रता 
मत खोने दो 

रुठो मत, 
बाँहों में आओ 

लेना-देना 
चना-चबेना 
जब सुस्ताओ 
सपने सेना 

'मावस को 
पूर्णिमा बनाओ

***

navgeet:

नवगीत:
दीपमालिके! 
दीप बाल के 
बैठे हैं हम 
आ भी जाओ

अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता

मिलकर श्रम की
करें आरती
साथ हमारे
तुम भी गाओ
राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चन्दन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर

विधि-हरि -हर हे!
नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष
तनिक दे जाओ

अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे तम हरने को
रवि-शशि जैसा हमें बना दो

चित्र गुप्त जो
रहा अभी तक
झलक दिव्य हो
सदय दिखाओ
___

navgeet:

नवगीत:

मंज़िल आकर 
पग छू लेगी 

ले प्रदीप 
नव आशाओं के 
एक साथ मिल 
कदम रखें तो 

रश्मि विजय का 
तिलक करेगी 

होनें दें विश्वास 
न डगमग
देश स्वच्छ  हो 
जगमग जगमग 

भाग्य लक्ष्मी 
तभी वरेगी 

हरी-भरी हो 
सब वसुंधरा 
हो समृद्धि तब ही 
स्वयंवरा 

तब तक़दीर न
कभी ढलेगी 

***




बुधवार, 22 अक्टूबर 2014

navgeet:

नवगीत:

डॉक्टर खुद को
खुदा समझ ले
तो मरीज़ को
राम बचाये

लेते शपथ
न उसे निभाते
रुपयों के
मुरीद बन जाते

अहंकार की
कठपुतली हैं
रोगी को
नीचा दिखलाते

करें अदेखी
दर्द-आह की
हरना पीर न
इनको भाये

अस्पताल या
बूचड़खाने?
डॉक्टर हैं
धन के दीवाने  

अड्डे हैं ये
यम-पाशों के
मँहगी औषधि
के परवाने

गैरजरूरी
होने पर भी
चीरा-फाड़ी
बेहद भाये

शंका-भ्रम
घबराहट घेरे
कहीं नहीं
राहत के फेरे

नहीं सांत्वना
नहीं दिलासा
शाम-सवेरे
सघन अँधेरे

गोली-टॉनिक
कैप्सूल दें 
आशा-दीप
न कोई जलाये

***



                 
                                                                                 

navgeet:

नव गीत:

कम लिखता हूँ
अधिक समझना

अक्षर मिलकर
अर्थ गह
शब्द बनें कह बात

शब्द भाव-रस
लय गहें
गीत बनें तब तात

गीत रीत
गह प्रीत की
हर लेते आघात

झूठ बिक रहा
ठिठक निरखना

एक बात
बहु मुखों जा
गहती रूप अनेक

एक प्रश्न के
हल कई
देते बुद्धि-विवेक

कथ्य एक
बहु छंद गह
ले नव छवियाँ छेंक

शिल्प
विविध लख
नहीं अटकना

एक हुलास
उजास एक ही
विविधकारिक दीप

मुक्तामणि बहु
समुद एक ही
अगणित लेकिन सीप

विषम-विसंगत
कर-कर इंगित
चौक डाल दे लीप 

भोग
लगाकर
आप गटकना

***







मंगलवार, 21 अक्टूबर 2014

navgeet:

नवगीत:
मंदिर में
पूजा जाता जो
उसका भी 
क्रय-विक्रय होता
*
बिका हुआ भगवान
न वापिस होगा
लिख इंसान हँस रहा
वह क्या जाने
कालपाश में
ईश्वर के वह स्वयं फँस रहा
आस्था को
नीलाम कर रहा
भवसागर में
खाकर गोता
मन-मंदिर खाली
तन-मंदिर में
नित भोग चढ़ाते रहते
सिर्फ देह हम
उस विदेह को दिखा
भोग खुद खाते रहते
थामे माला
राम नाम
जपते रहते है
जैसे तोता
रचना की
करतूतें बेढब
रचनाकार देखकर विस्मित
माली मौन
भ्रमरदल से है
उपवन सारा पल-पल गुंजित
कौन बताये
क्या पाता है
क्या कब कौन
कहाँ है खोता???
========

सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

doha salila:

दोहा:



सकल सृष्टि का मूल है, ॐ अनाहद नाद
गूंगे के गुण सा मधुर, राम-सुन जानें स्वाद

आभा आत्मानंद की, अनुपम है रसखान
जो डूबे सुन उबरता, उबरे डूब जहान



नयनों से करते नयन, मिल झुक उठ मिल बात
बात बनाता जमाना, काहे को बेबात

नयन नयन में झाँककर, लेते मन की टोह
मोह मिले वैराग में, वैरागी में मोह

भू-नभ नयनों बीच है, शशि-रवि रक्तिम गोल
क्षितिज भौंह हिल-डुल रुके, नाक तराजू तोल
*

जो जीता उसकी करें, जब भी जय-जयकार
मत भूलें दीपक तले, होता है अंधियार

जो हारा उसको नहीं, आप जाइए भूल
घूरे के भी दिन फिरें, खिलें उसी में फूल

लोकनीति से लोकहित, साधे रहे अभीत
राजनीति सच्ची व्ही, सध्या जिसे हो नीत

जनता जो निर्णय करे, करें उसे स्वीकार
लोकतंत्र में लोक ही, सेवक औ' सरकार

रविवार, 19 अक्टूबर 2014

navgeet:

नवगीत:

बिन बोले ही बोले
सब कुछ
हो गहरा सन्नाटा


नहीं लिपाई
नहीं पुताई
हुई नहीं है
कही सफाई
केवल झाड़ू
गयी उठाई
फोटो धाँसू
गयी खिंचाई

अंतर से अंतर का
अंतर
नहीं गया है पाटा

हार किसी की
जीत दिला दे 
जयी न कभी 
बनाती है
मृगतृष्णा
नव आस जगा दे
तृषा बुझा
कब पाती है?

लाभ तभी शुभ जब न
बने वह
कल अपना ही घाटा

आत्म निरीक्षण
आत्म परीक्षण
खुद अपना
कर देखो
तभी दिवाली
जब अपनी
कथनी-करनी
खुद लेखो 

कहकर बात मुकरना
लगता आप
थूककर चाटा

 ===


navgeet:

नवगीत:

कोशिश
करते रहिए, निश्चय 
मंज़िल मिल जाएगी

जिन्हें भरोसा
है अतीत पर
नहीं आज से नाता
ऐसों के
पग नीचे से
आधार सरक ही जाता
कुंवर, जमाई
या माता से
सदा राज कब चलता?
कोष विदेशी
बैंकों का
कब काम कष्ट में आता

हवस
आसुरी वृत्ति तजें
तब आशा फल पायेगी 

जिसने बाजी
जीती उसको
मिली चुनौती भारी
जनसेवा का
समर जीतने की
अब हो तैयारी
सत्ता करती
भ्रष्ट, सदा ही
पथ से भटकाती है
अपने हों
अपनों के दुश्मन
चला शीश पर आरी

सम्हलो
करो सुनिश्चित
फूट न आपस में आएगी

जीत रहे
अंतर्विरोध पर
बाहर शत्रु खड़े हैं
खुद अंधे हों
काना करने
हमें ससैन्य अड़े हैं
हैं हिस्सा
इस महादेश का
फिर से उन्हें मिलाना
महासमर ही
चाहे हमको
बरबस पड़े रचाना

वेणु कृष्ण की
तब गूंजेगी
शांति तभी आएगी

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navgeet:

नवगीत:

कमललोचना मैया!
खुश हो
मची कमल की धूम

जनगण का
जनमत आया है
शतदल
सबके मन भाया है
हाथी दूरी
पाल कमल से
मन ही मन
रो-पछताया है

ज्योतिपर्व के पूर्व
पटाखे फूटे
बम बम बूम

हँसिया गया
हाशिये पर
नहीं साथ में धान
पंजा झाड़ू थाम
सफाई करे गँवाया मान
शिव-सेना का
अमल कमल ने
तोड़ दिया अभिमान

नर-नर जब होता
नरेंद्र तब
यश लेता नभ चूम

जो तुमको
रखकर विदेश में
देते काला नाम
उनसे रूठी
भाग्य लक्ष्मी
हुआ विधाता वाम
काम सभी को
प्यारा होता
अधिक न भाये चाम

दावे कब
मिट जाएँ धूल में
किसको है मालूम
***





   

vimarsh: sundarta aur swachhhta

विमर्श: सुंदरता और स्वच्छता 

सरस्वतीचन्द्र  सीरियल नहीं हिंदी चलचित्र जिन्होंने देखा है वे ताजिंदगी नहीं भूल सकते वह मधुर गीत ' चंदन सा बदन चंचल चितवन धीरे से तेरा वो मुस्काना' और नूतन जी की शालीन मुस्कराहट। इससे गीत में 'तन भी सुन्दर, मन भी सुन्दर, तू सुंदरता की मूरत है' से विचार आया कि क्या सुंदरता बिना स्वच्छता के हो सकती है? 
नहीं न… 

तो कवि हमेशा सौंदर्य क्यों निरखता है. स्वच्छता क्यों नहीं परखता? 

क्या चारों और सफाई न होने का दोषी कवि भी नहीं है? यदि है तो ऐसा क्यों हुआ? शायद इसलिए कि कवि मानस सृष्टि की रचना कर उसी में निग्न रहता है. इसलिए स्वच्छता भूल जाता है लेकिन स्वच्छता तो मन की भी जरूरी है, नहीं क्या? 

'तन भी सुन्दर, मन भी सुन्दर' में कवि यह संतुलन याद रखता है किन्तु तन साफ़ कर परिवेश की सफाई का नाटक करनेवाले मन की सफाई की चर्चा भी नहीं करते और जब मन साफ़ न हो तो तन की सफाई केवल 'स्व' तक सीमित होती है 'सर्व' तक नहीं पहुँच पाती। 

इस सफाई अभियान को नाटक कहने पर जिन्हें आपत्ति हो वे बताएं कि सफाई कार्य के बाद स्नान-ध्यान करते हैं या स्नान-ध्यान के बाद सफाई? यदि तमाम नेता सुबह उठकर अपने निवास के बहार सड़क पर सफर कर स्नान करें और फिर ध्यान करें तो परिवेश, तन और मन स्वच्छ और सुन्दर होगा, तब इसे नाटक-नौटंकी नहीं कहा जायेगा। खुद बिना प्रसाधन किये सफाई करेंगे तो छायाकार को चित्र भी नहीं खींचने देंगे और तब यह तमाशा नहीं होगा। 

क्या आप मुझसे सहमत हैं? यदि हाँ तो क्या इस दीपावली के पहले और बाद अपने घर-गली को साफ़ करने के बाद स्नान और उसके बाद पूजन-वंदन करेंगे? क्या पटाखे फोड़कर कचरा उठाएंगे? क्या पड़ोसी के दरवाजे पर कचरा नहीं फेकेंगे? देखें कौन-कौन पड़ोसी के दरवाज़े से कचरा साफ़ करते हुए चित्र खींचकर फेसबुक पर लगाता है? 

क्या हमारे तथाकथित नेतागण अन्य दाल के किसी नेता या कार्यकर्ता के दरवाज़े से कचरा साफ़ करना पसंद करेंगे? यदि कर सकेंगे तो लोकतान्त्रिक क्रांति हो जाएगी। तब स्वच्छता की राह किसी प्रकार का कचरा नहीं रोक सकेगा। 

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pustak salila:

पुस्तक सलिला:

चित्रांशोत्सव स्मारिका, प्रकाशक चित्रगुप्त जयंती आयोजन समिति रायपुर

चित्रांशोत्सव १०४ पृष्ठीय पाठ्य सामग्री तथा ३२ पृष्ठीय बहिरंगी विज्ञापन सामग्री से सुसज्जित सुनियोजित स्मारिका है. स्मारिका का मुख्य विषय कायस्थ समाज का इतिवृत्त, संगठन और योगदान है. ऐसी स्मरिकाएँ स्थानीय सहयोगकर्ताओं के योगदान पर निर्भर करती हैं. अतः स्थानीय जनों की मान्यताओं के अनुरूप सामग्री प्रकाशित करती हैं. विविध लेखमों के विविध मतों के अनुसार अंतर्विरोधी सामग्री भी समाहित हो जाती है. चित्रांशोत्सव में एक स्थान पर चित्रगुप्त जी को ब्रम्हा से अवतरित दूसरे लेख में विष्णु का अवतार (नील वर्ण के कारण) कहा गया है. विष्णु के दशावतारों या २१ अवतारों में चित्रगुप्त जी का समावेश नहीं है, अतः यह मत अमान्य है. चित्रगुप्त जी को महामानव, देव, आदिपुरुष या आदि ब्रम्ह क्या माना जाए? इस पर भी विविध लेखों में विविध मत हैं. 
कुछ गणमान्य जनों की जीवनियाँ प्रेरणास्रोत के रूप में देना किन्तु उनके और स्थानीय जनों के साथ एक सामान विशेषण जोड़े जाना उपयुक्त नहीं प्रतीत होता. इससे स्थानीय सहयोगियों का अहम संतुष्ट भले ही हो कद नहीं बढ़ता अपितु महान व्यक्तित्वों का अवमूल्यन प्रतीत होता है. इतनी साज-सज्जा के साथ निकली स्मारिका में युावा पीढ़ी के मार्गदर्शन, उनकी समस्याओं पर एक शब्द भी न होना विचारणीय है.      


शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

lekh: bharteey falit vidyayen:

अंध श्रद्धा और अंध आलोचना के शिकंजे में भारतीय फलित विद्याएँ 

भारतीय फलित विद्याओं (ज्योतषशास्त्र, सामुद्रिकी, हस्तरेखा विज्ञान, अंक ज्योतिष आदि) तथा धार्मिक अनुष्ठानों (व्रत, कथा, हवन, जाप, यज्ञ आदि) के औचित्य, उपादेयता तथा प्रामाणिकता पर प्रायः प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं. इनपर अंधश्रद्धा रखनेवाले और इनकी अंध आलोचना रखनेवाले दोनों हीं विषयों के व्यवस्थित अध्ययन, अन्वेषणों तथा उन्नयन में बाधक हैं. शासन और प्रशासन में भी इन दो वर्गों के ही लोग हैं. फलतः इन विषयों के प्रति तटस्थ-संतुलित दृष्टि रखकर शोध को प्रोत्साहित न किये जाने के कारण इनका भविष्य खतरे में है. 

हमारे साथ दुहरी विडम्बना है 

१. हमारे ग्रंथागार और विद्वान सदियों तक नष्ट किये गए. बचे हुए कभी एक साथ मिल कर खोये को दुबारा पाने की कोशिश न कर सके. बचे ग्रंथों को जन्मना ब्राम्हण होने के कारण जिन्होंने पढ़ा वे विद्वान न होने के कारण वर्णित के वैज्ञानिक आधार नहीं समझ सके और उसे ईश्वरीय चमत्कार बताकर पेट पालते रहे. उन्होंने ग्रन्थ तो बचाये पर विद्या के प्रति अन्धविश्वास को बढ़ाया। फलतः अंधविरोध पैदा हुआ जो अब भी विषयों के व्यवस्थित अध्ययन में बाधक है. 

२. हमारे ग्रंथों को विदेशों में ले जाकर उनके अनुवाद कर उन्हें समझ गया और उस आधार पर लगातार प्रयोग कर विज्ञान का विकास कर पूरा श्रेय विदेशी ले गये. अब पश्चिमी शिक्षा प्रणाली से पढ़े और उस का अनुसरण कर रहे हमारे देशवासियों को पश्चिम का सब सही और पूर्व का सब गलत लगता है. लार्ड मैकाले ने ब्रिटेन की संसद में भारतीय शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन पर हुई बहस में जो अपन लक्ष्य बताया था, वह पूर्ण हुआ है. 
इन दोनों विडम्बनाओं के बीच भारतीय पद्धति से किसी भी विषय का अध्ययन, उसमें परिवर्तन, परिणामों की जाँच और परिवर्धन असीम धैर्य, समय, धन लगाने से ही संभव है. 

अब आवश्यक है दृष्टि सिर्फ अपने विषय पर केंद्रित रहे, न प्रशंसा से फूलकर कुप्पा हों, न अंध आलोचना से घबरा या क्रुद्ध होकर उत्तर दें. इनमें शक्ति का अपव्यय करने के स्थान पर सिर्फ और सिर्फ विषय पर केंद्रित हों.

संभव हो तो राष्ट्रीय महत्व के बिन्दुओं जैसे घुसपैठ, सुरक्षा, प्राकृतिक आपदा (भूकंप, तूफान. अकाल, महत्वपूर्ण प्रयोगों की सफलता-असफलता) आदि पर पर्याप्त समयपूर्व अनुमान दें तो उनके सत्य प्रमाणित होने पर आशंकाओं का समाधान होगा। ऐसे अनुमान और उनकी सत्यता पर शीर्ष नेताओं, अधिकारियों-वैज्ञानिकों-विद्वानों को व्यक्तिगत रूप से अवगत करायें तो इस विद्या के विधिवत अध्ययन हेतु व्यवस्था की मांग की जा सकेगी।  

navgeet:

 : नवगीत :

किसने पैदा करी
विवशता
जिसका कोई तोड़ नहीं है?

नेता जी का
सत्य खोजने
हाथ नहीं क्यों बढ़ पाते हैं?

अवरोधों से
चाह-चाहकर
कहो नहीं क्यों लड़ पाते हैं?

कैसी है
यह राह अँधेरी
जिसमें कोई मोड़ नहीं है??

जय पाकर भी
हुए पराजित
असमय शास्त्री जी को खोकर

कहाँ हुआ क्या
और किस तरह?
कौन  शोक में गया डुबोकर?

हुए हादसे
और अन्य भी 
लेकिन उनसे होड़ नहीं है

बैंक विदेशी
देशी धन के
कैसे कोषागार हुए हैं?

खून चूसते
आमजनों का
कहाँ छिपे? वे कौन मुए हैं?

दो ऋण मिल
धन बनते लेकिन
ऋण ही ऋण है जोड़ नहीं है
***


geet:

गीत:
हम मिले… 
संजीव
*
हम मिले बिछुड़ने को   
कहा-सुना माफ़ करो...
*
पल भर ही साथ रहे
हाथों में हाथ रहे.
फूल शूल धूल लिये-
पग-तल में पाथ रहे
गिरे, उठे, सँभल बढ़े 
उन्नत माथ रहे 
गैरों से चाहो क्योँ? 
खुद ही इन्साफ करो... 
*
दूर देश से आया
दूर देश में आया
अपनों सा अपनापन 
औरों में है पाया
क्षर ने अक्षर पूजा 
अक्षर ने क्षर गाया 
का खा गा, ए बी सी 
सीन अलिफ काफ़ करो… 
*
नर्मदा मचलती है 
गोमती सिहरती है 
बाँहों में बाँह लिये 
चाह जब ठिठकती है  
डाह तब फिसलती है 
वाह तब सँभलती है 
लहर-लहर घहर-घहर 
कहे नदी साफ़ करो...

muktika:

मुक्तिका:

मुक्त कह रहे मगर गुलाम
तन से मन हो बैठा वाम

कर मेहनत बन जायेंगे
तेरे सारे बिगड़े काम

बद को अच्छा कह-करता
जो वह हो जाता बदनाम

सदा न रहता कोई यहाँ
किसका रहा हमेशा नाम?

भले-बुरे की फ़िक्र नहीं
करे कबीरा अपना काम

बन संजीव, न हो निर्जीव
सुबह, दुपहरी या हो शाम

खिला पंक से भी पंकज
सलिल निरंतर रह निष्काम
*

balgeet:

बाल गीत:

अहा! दिवाली आ गयी

आओ! साफ़-सफाई करें
मेहनत से हम नहीं डरें
करना शेष लिपाई यहाँ
वहाँ पुताई आज करें

हर घर खूब सजा गयी
अहा! दिवाली आ गयी

कचरा मत फेंको बाहर
कचराघर डालो जाकर
सड़क-गली सब साफ़ रहे
खुश हों लछमी जी आकर

श्री गणेश-मन भा गयी
अहा! दिवाली आ गयी

स्नान-ध्यान कर, मिले प्रसाद
पंचामृत का भाता स्वाद
दिया जला उजियारा कर
फोड़ फटाके हो आल्हाद

शुभ आशीष दिला गयी
अहा! दिवाली आ गयी
*


mukatak

मुक्तक:

मँहगा न मँहगा सस्ता न सस्ता
सस्ता विदेशी करे हाल खस्ता
लेना स्वदेशी कुटियों से सामां-
उसका भी बच्चा मिले ले के बस्ता

उद्योगपतियों! मुनाफा घटाओ
मजदूरी थोड़ी कभी तो बढ़ाओ
सरकारों कर में रियायत करो अब
मरा जा रहा जन उसे मिल जिलाओ

कुटियों का दीपक महल आ जलेगा
तभी स्वप्न कोई कुटी में पलेगा
शहरों! की किस्मत गाँवों से चमके
गाँवों का अपना शहर में पलेगा
*