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सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

doha salila:

दोहा:



सकल सृष्टि का मूल है, ॐ अनाहद नाद
गूंगे के गुण सा मधुर, राम-सुन जानें स्वाद

आभा आत्मानंद की, अनुपम है रसखान
जो डूबे सुन उबरता, उबरे डूब जहान



नयनों से करते नयन, मिल झुक उठ मिल बात
बात बनाता जमाना, काहे को बेबात

नयन नयन में झाँककर, लेते मन की टोह
मोह मिले वैराग में, वैरागी में मोह

भू-नभ नयनों बीच है, शशि-रवि रक्तिम गोल
क्षितिज भौंह हिल-डुल रुके, नाक तराजू तोल
*

जो जीता उसकी करें, जब भी जय-जयकार
मत भूलें दीपक तले, होता है अंधियार

जो हारा उसको नहीं, आप जाइए भूल
घूरे के भी दिन फिरें, खिलें उसी में फूल

लोकनीति से लोकहित, साधे रहे अभीत
राजनीति सच्ची व्ही, सध्या जिसे हो नीत

जनता जो निर्णय करे, करें उसे स्वीकार
लोकतंत्र में लोक ही, सेवक औ' सरकार

रविवार, 19 अक्टूबर 2014

navgeet:

नवगीत:

बिन बोले ही बोले
सब कुछ
हो गहरा सन्नाटा


नहीं लिपाई
नहीं पुताई
हुई नहीं है
कही सफाई
केवल झाड़ू
गयी उठाई
फोटो धाँसू
गयी खिंचाई

अंतर से अंतर का
अंतर
नहीं गया है पाटा

हार किसी की
जीत दिला दे 
जयी न कभी 
बनाती है
मृगतृष्णा
नव आस जगा दे
तृषा बुझा
कब पाती है?

लाभ तभी शुभ जब न
बने वह
कल अपना ही घाटा

आत्म निरीक्षण
आत्म परीक्षण
खुद अपना
कर देखो
तभी दिवाली
जब अपनी
कथनी-करनी
खुद लेखो 

कहकर बात मुकरना
लगता आप
थूककर चाटा

 ===


navgeet:

नवगीत:

कोशिश
करते रहिए, निश्चय 
मंज़िल मिल जाएगी

जिन्हें भरोसा
है अतीत पर
नहीं आज से नाता
ऐसों के
पग नीचे से
आधार सरक ही जाता
कुंवर, जमाई
या माता से
सदा राज कब चलता?
कोष विदेशी
बैंकों का
कब काम कष्ट में आता

हवस
आसुरी वृत्ति तजें
तब आशा फल पायेगी 

जिसने बाजी
जीती उसको
मिली चुनौती भारी
जनसेवा का
समर जीतने की
अब हो तैयारी
सत्ता करती
भ्रष्ट, सदा ही
पथ से भटकाती है
अपने हों
अपनों के दुश्मन
चला शीश पर आरी

सम्हलो
करो सुनिश्चित
फूट न आपस में आएगी

जीत रहे
अंतर्विरोध पर
बाहर शत्रु खड़े हैं
खुद अंधे हों
काना करने
हमें ससैन्य अड़े हैं
हैं हिस्सा
इस महादेश का
फिर से उन्हें मिलाना
महासमर ही
चाहे हमको
बरबस पड़े रचाना

वेणु कृष्ण की
तब गूंजेगी
शांति तभी आएगी

-----------------
       

navgeet:

नवगीत:

कमललोचना मैया!
खुश हो
मची कमल की धूम

जनगण का
जनमत आया है
शतदल
सबके मन भाया है
हाथी दूरी
पाल कमल से
मन ही मन
रो-पछताया है

ज्योतिपर्व के पूर्व
पटाखे फूटे
बम बम बूम

हँसिया गया
हाशिये पर
नहीं साथ में धान
पंजा झाड़ू थाम
सफाई करे गँवाया मान
शिव-सेना का
अमल कमल ने
तोड़ दिया अभिमान

नर-नर जब होता
नरेंद्र तब
यश लेता नभ चूम

जो तुमको
रखकर विदेश में
देते काला नाम
उनसे रूठी
भाग्य लक्ष्मी
हुआ विधाता वाम
काम सभी को
प्यारा होता
अधिक न भाये चाम

दावे कब
मिट जाएँ धूल में
किसको है मालूम
***





   

vimarsh: sundarta aur swachhhta

विमर्श: सुंदरता और स्वच्छता 

सरस्वतीचन्द्र  सीरियल नहीं हिंदी चलचित्र जिन्होंने देखा है वे ताजिंदगी नहीं भूल सकते वह मधुर गीत ' चंदन सा बदन चंचल चितवन धीरे से तेरा वो मुस्काना' और नूतन जी की शालीन मुस्कराहट। इससे गीत में 'तन भी सुन्दर, मन भी सुन्दर, तू सुंदरता की मूरत है' से विचार आया कि क्या सुंदरता बिना स्वच्छता के हो सकती है? 
नहीं न… 

तो कवि हमेशा सौंदर्य क्यों निरखता है. स्वच्छता क्यों नहीं परखता? 

क्या चारों और सफाई न होने का दोषी कवि भी नहीं है? यदि है तो ऐसा क्यों हुआ? शायद इसलिए कि कवि मानस सृष्टि की रचना कर उसी में निग्न रहता है. इसलिए स्वच्छता भूल जाता है लेकिन स्वच्छता तो मन की भी जरूरी है, नहीं क्या? 

'तन भी सुन्दर, मन भी सुन्दर' में कवि यह संतुलन याद रखता है किन्तु तन साफ़ कर परिवेश की सफाई का नाटक करनेवाले मन की सफाई की चर्चा भी नहीं करते और जब मन साफ़ न हो तो तन की सफाई केवल 'स्व' तक सीमित होती है 'सर्व' तक नहीं पहुँच पाती। 

इस सफाई अभियान को नाटक कहने पर जिन्हें आपत्ति हो वे बताएं कि सफाई कार्य के बाद स्नान-ध्यान करते हैं या स्नान-ध्यान के बाद सफाई? यदि तमाम नेता सुबह उठकर अपने निवास के बहार सड़क पर सफर कर स्नान करें और फिर ध्यान करें तो परिवेश, तन और मन स्वच्छ और सुन्दर होगा, तब इसे नाटक-नौटंकी नहीं कहा जायेगा। खुद बिना प्रसाधन किये सफाई करेंगे तो छायाकार को चित्र भी नहीं खींचने देंगे और तब यह तमाशा नहीं होगा। 

क्या आप मुझसे सहमत हैं? यदि हाँ तो क्या इस दीपावली के पहले और बाद अपने घर-गली को साफ़ करने के बाद स्नान और उसके बाद पूजन-वंदन करेंगे? क्या पटाखे फोड़कर कचरा उठाएंगे? क्या पड़ोसी के दरवाजे पर कचरा नहीं फेकेंगे? देखें कौन-कौन पड़ोसी के दरवाज़े से कचरा साफ़ करते हुए चित्र खींचकर फेसबुक पर लगाता है? 

क्या हमारे तथाकथित नेतागण अन्य दाल के किसी नेता या कार्यकर्ता के दरवाज़े से कचरा साफ़ करना पसंद करेंगे? यदि कर सकेंगे तो लोकतान्त्रिक क्रांति हो जाएगी। तब स्वच्छता की राह किसी प्रकार का कचरा नहीं रोक सकेगा। 

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pustak salila:

पुस्तक सलिला:

चित्रांशोत्सव स्मारिका, प्रकाशक चित्रगुप्त जयंती आयोजन समिति रायपुर

चित्रांशोत्सव १०४ पृष्ठीय पाठ्य सामग्री तथा ३२ पृष्ठीय बहिरंगी विज्ञापन सामग्री से सुसज्जित सुनियोजित स्मारिका है. स्मारिका का मुख्य विषय कायस्थ समाज का इतिवृत्त, संगठन और योगदान है. ऐसी स्मरिकाएँ स्थानीय सहयोगकर्ताओं के योगदान पर निर्भर करती हैं. अतः स्थानीय जनों की मान्यताओं के अनुरूप सामग्री प्रकाशित करती हैं. विविध लेखमों के विविध मतों के अनुसार अंतर्विरोधी सामग्री भी समाहित हो जाती है. चित्रांशोत्सव में एक स्थान पर चित्रगुप्त जी को ब्रम्हा से अवतरित दूसरे लेख में विष्णु का अवतार (नील वर्ण के कारण) कहा गया है. विष्णु के दशावतारों या २१ अवतारों में चित्रगुप्त जी का समावेश नहीं है, अतः यह मत अमान्य है. चित्रगुप्त जी को महामानव, देव, आदिपुरुष या आदि ब्रम्ह क्या माना जाए? इस पर भी विविध लेखों में विविध मत हैं. 
कुछ गणमान्य जनों की जीवनियाँ प्रेरणास्रोत के रूप में देना किन्तु उनके और स्थानीय जनों के साथ एक सामान विशेषण जोड़े जाना उपयुक्त नहीं प्रतीत होता. इससे स्थानीय सहयोगियों का अहम संतुष्ट भले ही हो कद नहीं बढ़ता अपितु महान व्यक्तित्वों का अवमूल्यन प्रतीत होता है. इतनी साज-सज्जा के साथ निकली स्मारिका में युावा पीढ़ी के मार्गदर्शन, उनकी समस्याओं पर एक शब्द भी न होना विचारणीय है.      


शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

lekh: bharteey falit vidyayen:

अंध श्रद्धा और अंध आलोचना के शिकंजे में भारतीय फलित विद्याएँ 

भारतीय फलित विद्याओं (ज्योतषशास्त्र, सामुद्रिकी, हस्तरेखा विज्ञान, अंक ज्योतिष आदि) तथा धार्मिक अनुष्ठानों (व्रत, कथा, हवन, जाप, यज्ञ आदि) के औचित्य, उपादेयता तथा प्रामाणिकता पर प्रायः प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं. इनपर अंधश्रद्धा रखनेवाले और इनकी अंध आलोचना रखनेवाले दोनों हीं विषयों के व्यवस्थित अध्ययन, अन्वेषणों तथा उन्नयन में बाधक हैं. शासन और प्रशासन में भी इन दो वर्गों के ही लोग हैं. फलतः इन विषयों के प्रति तटस्थ-संतुलित दृष्टि रखकर शोध को प्रोत्साहित न किये जाने के कारण इनका भविष्य खतरे में है. 

हमारे साथ दुहरी विडम्बना है 

१. हमारे ग्रंथागार और विद्वान सदियों तक नष्ट किये गए. बचे हुए कभी एक साथ मिल कर खोये को दुबारा पाने की कोशिश न कर सके. बचे ग्रंथों को जन्मना ब्राम्हण होने के कारण जिन्होंने पढ़ा वे विद्वान न होने के कारण वर्णित के वैज्ञानिक आधार नहीं समझ सके और उसे ईश्वरीय चमत्कार बताकर पेट पालते रहे. उन्होंने ग्रन्थ तो बचाये पर विद्या के प्रति अन्धविश्वास को बढ़ाया। फलतः अंधविरोध पैदा हुआ जो अब भी विषयों के व्यवस्थित अध्ययन में बाधक है. 

२. हमारे ग्रंथों को विदेशों में ले जाकर उनके अनुवाद कर उन्हें समझ गया और उस आधार पर लगातार प्रयोग कर विज्ञान का विकास कर पूरा श्रेय विदेशी ले गये. अब पश्चिमी शिक्षा प्रणाली से पढ़े और उस का अनुसरण कर रहे हमारे देशवासियों को पश्चिम का सब सही और पूर्व का सब गलत लगता है. लार्ड मैकाले ने ब्रिटेन की संसद में भारतीय शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन पर हुई बहस में जो अपन लक्ष्य बताया था, वह पूर्ण हुआ है. 
इन दोनों विडम्बनाओं के बीच भारतीय पद्धति से किसी भी विषय का अध्ययन, उसमें परिवर्तन, परिणामों की जाँच और परिवर्धन असीम धैर्य, समय, धन लगाने से ही संभव है. 

अब आवश्यक है दृष्टि सिर्फ अपने विषय पर केंद्रित रहे, न प्रशंसा से फूलकर कुप्पा हों, न अंध आलोचना से घबरा या क्रुद्ध होकर उत्तर दें. इनमें शक्ति का अपव्यय करने के स्थान पर सिर्फ और सिर्फ विषय पर केंद्रित हों.

संभव हो तो राष्ट्रीय महत्व के बिन्दुओं जैसे घुसपैठ, सुरक्षा, प्राकृतिक आपदा (भूकंप, तूफान. अकाल, महत्वपूर्ण प्रयोगों की सफलता-असफलता) आदि पर पर्याप्त समयपूर्व अनुमान दें तो उनके सत्य प्रमाणित होने पर आशंकाओं का समाधान होगा। ऐसे अनुमान और उनकी सत्यता पर शीर्ष नेताओं, अधिकारियों-वैज्ञानिकों-विद्वानों को व्यक्तिगत रूप से अवगत करायें तो इस विद्या के विधिवत अध्ययन हेतु व्यवस्था की मांग की जा सकेगी।  

navgeet:

 : नवगीत :

किसने पैदा करी
विवशता
जिसका कोई तोड़ नहीं है?

नेता जी का
सत्य खोजने
हाथ नहीं क्यों बढ़ पाते हैं?

अवरोधों से
चाह-चाहकर
कहो नहीं क्यों लड़ पाते हैं?

कैसी है
यह राह अँधेरी
जिसमें कोई मोड़ नहीं है??

जय पाकर भी
हुए पराजित
असमय शास्त्री जी को खोकर

कहाँ हुआ क्या
और किस तरह?
कौन  शोक में गया डुबोकर?

हुए हादसे
और अन्य भी 
लेकिन उनसे होड़ नहीं है

बैंक विदेशी
देशी धन के
कैसे कोषागार हुए हैं?

खून चूसते
आमजनों का
कहाँ छिपे? वे कौन मुए हैं?

दो ऋण मिल
धन बनते लेकिन
ऋण ही ऋण है जोड़ नहीं है
***


geet:

गीत:
हम मिले… 
संजीव
*
हम मिले बिछुड़ने को   
कहा-सुना माफ़ करो...
*
पल भर ही साथ रहे
हाथों में हाथ रहे.
फूल शूल धूल लिये-
पग-तल में पाथ रहे
गिरे, उठे, सँभल बढ़े 
उन्नत माथ रहे 
गैरों से चाहो क्योँ? 
खुद ही इन्साफ करो... 
*
दूर देश से आया
दूर देश में आया
अपनों सा अपनापन 
औरों में है पाया
क्षर ने अक्षर पूजा 
अक्षर ने क्षर गाया 
का खा गा, ए बी सी 
सीन अलिफ काफ़ करो… 
*
नर्मदा मचलती है 
गोमती सिहरती है 
बाँहों में बाँह लिये 
चाह जब ठिठकती है  
डाह तब फिसलती है 
वाह तब सँभलती है 
लहर-लहर घहर-घहर 
कहे नदी साफ़ करो...

muktika:

मुक्तिका:

मुक्त कह रहे मगर गुलाम
तन से मन हो बैठा वाम

कर मेहनत बन जायेंगे
तेरे सारे बिगड़े काम

बद को अच्छा कह-करता
जो वह हो जाता बदनाम

सदा न रहता कोई यहाँ
किसका रहा हमेशा नाम?

भले-बुरे की फ़िक्र नहीं
करे कबीरा अपना काम

बन संजीव, न हो निर्जीव
सुबह, दुपहरी या हो शाम

खिला पंक से भी पंकज
सलिल निरंतर रह निष्काम
*

balgeet:

बाल गीत:

अहा! दिवाली आ गयी

आओ! साफ़-सफाई करें
मेहनत से हम नहीं डरें
करना शेष लिपाई यहाँ
वहाँ पुताई आज करें

हर घर खूब सजा गयी
अहा! दिवाली आ गयी

कचरा मत फेंको बाहर
कचराघर डालो जाकर
सड़क-गली सब साफ़ रहे
खुश हों लछमी जी आकर

श्री गणेश-मन भा गयी
अहा! दिवाली आ गयी

स्नान-ध्यान कर, मिले प्रसाद
पंचामृत का भाता स्वाद
दिया जला उजियारा कर
फोड़ फटाके हो आल्हाद

शुभ आशीष दिला गयी
अहा! दिवाली आ गयी
*


mukatak

मुक्तक:

मँहगा न मँहगा सस्ता न सस्ता
सस्ता विदेशी करे हाल खस्ता
लेना स्वदेशी कुटियों से सामां-
उसका भी बच्चा मिले ले के बस्ता

उद्योगपतियों! मुनाफा घटाओ
मजदूरी थोड़ी कभी तो बढ़ाओ
सरकारों कर में रियायत करो अब
मरा जा रहा जन उसे मिल जिलाओ

कुटियों का दीपक महल आ जलेगा
तभी स्वप्न कोई कुटी में पलेगा
शहरों! की किस्मत गाँवों से चमके
गाँवों का अपना शहर में पलेगा
*


kshanika:

आज की रचनाएँ:

क्षणिका :

तुम्हारा हर सच
गलत है
हमारा
हर सच गलत है
यही है
अब की सियासत
दोस्त ही
करते अदावत
*









शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014

kshanika

क्षणिका

कायदा मेरा यही है
या करो मत वायदा
कभी करना ही पड़े
तो -
निभाओ है कायदा
अगर संभव न हुआ तो
उसे बतला दो तुरत
किया था जिससे
भले ही हानि हो
या फायदा.

janak chhand

जनक छंद

तन मन रखिये स्वच्छ अब
स्वच्छ रखें परिवेश जब 
स्वच्छ बनेगा देश तब

नदियाँ जीवनदाता हैं
सच मानें वे माता हैं
जल संकट से त्राता हैं

निकट नदी के मत जाएँ
मत कपड़े धो नहाएँ
मछली-कछुए जी पाएँ

स्नानागार बनें तट पर
करिए स्नान वहीं जाकर
करें प्रणाम नदी को फिर

नदी किनारे हों जंगल
पशु-पक्षी का हो मंगल
मनुज न जा करिए दंगल 
*

haiku

हाइकु

हाथ धो लिया
अब पीछे न पड़ो
दूर ही रहो

एक दिवस
हाथ धोने के लिये 
शेष दिवस?

मैले हों न हों
हाथ दिवस पर
हाथ धो ही लो
*

mukatak:

मुक्तक:

मत लब से तुम याद करो, अंतर्मन से फ़रियाद करो
मतलब पूरा हो जायेगा, खुशियों को आबाद करो
गाँठ बाँध श्रम-कोशिश फेरे सात साथ यदि सकें लगा
देव सदय हों मंज़िल के संग आँख मिला संवाद करो
*

geet:

गीत:

फ़िज़ाओं को, दिशाओं को
बना अपना शामियाना
सफल होना चाहता तो
सीख पगले! मुस्कुराना

ठोकरें खाकर न रुकना, गीत पुनि-पुनि गुनगुनाना
नफरतों का फोड़ पर्वत, स्नेह-सलिला नित बहाना
हवाओं को दे चुनौती, तान भू पर आशियाना
बहाना सीखा बनाना तो न पायेगा ठिकाना
वही पथ पर पग रखे जो जानता सपने सजाना

लक्ष्य पाना चाहता तो
सीख पगले! मुस्कुराना
सदाओं को, हवाओं को
बना अपना शामियाना 

सघनतम हो तिमिर तो सन्निकट जिसने भोर माना
किरण कलमें क्षितिज पत्रों पर जिसे भाता चलाना
कालिमा को लालिमा में बदल जो रचता तराना
ऋचाएँ वंदन उसी का करें, तू मस्तक नवाना
जान वह देता उजाला ले न किंचित मेहनताना

लुटा, पाना चाहता तो
सीख पगले! मुस्कुराना
अदाओं को, प्रथाओं को
बना अपना शामियाना
*


गुरुवार, 16 अक्टूबर 2014

shri devendra shama 'indra' ke navgeet: pankaj parimal

श्री देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' के नवगीत : गीति की नवता के निमित्त नए छंदों की परिकल्पना 

पंकज परिमल 



श्री 'इन्द्र' नवगीतकार के रूप में चरम प्रतिष्ठा को प्राप्त कवि ही नहीं हैं,नवगीत की प्रतिष्ठा के लिए उनका योगदान अलग से विशेष रूप से ध्यानाकर्षण करता है . उन्होंने आरंभिक दौर के अपने नवगीतों में अनेक शैल्पिक प्रयोग भी किए, जिनमें से कुछ उनके प्रथम प्रकाशित नवगीत-संग्रह में दृष्टव्य हैं .१९७२ में प्रकाशित 'पथरीले शोर में'से कुछ नवगीत-अंश इसी दृष्टि-विशेष से प्रस्तुत हैं .षट्पद छंदों का उल्लेख यजुर्वेद में तो मिलता है ,लेकिन द्विपद या चतुष्पद छंद ही काव्य-परिदृश्य पर छाये रहे.निराला के 'तुलसीदास'के लिए आविष्कृत अभिनव छंद के पुनः प्रयोग से पश्चाद्वर्ती व समकालीन कवियों ने इस षट्पद छंद की परंपरा को समृद्ध किया ही,श्री 'इन्द्र' ने इसकी अपने खण्डकाव्य 'कालजयी' में इसकी शतावृत्ति करके न केवल इसको सिद्ध किया,अपितु कई दूसरे षट्पद छंदों को आविष्कृत करके उनको नवगीतोपयोगी भी बनाया. इस दृष्टि से ये नवगीत-अंश देखें-
1.
एक-एक कर उदास गर्मी के 
सारे दिन गुज़र गए

सिमट गयी हरित नम्र छाया 
आकाशी देवदारु 
आरण्यक खिरनी की 
खोज रही विरल-जलद-माया 
प्यासी आँखें,सखे !
मरुथल में हिरनी की

पात-पात फूल-फूल आँधी में 
अमलतास बिखर गए 
(प्रथम दो व अंतिम दो पंक्तियाँ गीत की ध्रुव-पंक्ति या 'टेक' की हैं व इनके मध्य एक षट्पद छंद संपुटित है,जिसमें पहली व चौथी पंक्ति में 'छाया' व 'माया' के और तीसरी व छठी पंक्ति में 'खिरनी' और 'हिरनी' के तुकांत हैं ,शेष गीत में इसी नियम का निर्वाह है )
2.
('स्वप्नपंखी झील' शीर्षांकित इस नवगीत में ध्रुवपंक्ति या टेक २१ मात्राओं की है.मध्यवर्ती छंद है तो चतुष्पद ही किन्तु इसका तीसरा चरण कुछ दीर्घ है .यहाँ १५ ,१५ ,१८,१५ ,का मात्रा-प्रयोग है ,छंद की प्रथम,द्वितीय व चतुर्थ पंक्ति का तुकांत है,शेष नवगीत में इसी का निर्वाह है )
उड़ते हैं स्वप्नपंख झील के कछार

नारिकेल औ'खजूर-ताड़ 
घास-फूस काँटों के झाड़ 
गंधवती सांझ के धुंधलके में 
ऊंघ रहे नींद के पहाड़

दिशि-दिशि में बिखरा है नील अन्धकार 
3.
('टूट गए सेतु'शीर्षांकित इस नवगीत में कोई ध्रुव-पंक्ति नहीं है,केवल षट्पद छंद ही हैं,इसका मात्रा-विन्यास १२ ,१२,९ /१२,१२,९ // का है ,दूसरी व चौथी कातुकांत व तीसरी व छठी पंक्ति का तुकांत-निर्वाह पूरे गीत में है )
लो,अब तो सिमट गया 
गहरे आवर्तों में 
जल का फैलाव 
शेष रहा यादों की 
अनभीगी पर्तों में 
क्षण का सैलाब

सूख गयी गीतों की 
अश्रु झरे नयनों-सी 
रसवंती झील 
उड़ती अब आकाशे 
अनचाहे सपनों-सी 
चील-अबाबील
4.
('चन्दनी समीरों की गंध' में भी कोई ध्रुवपंक्ति नहीं है,अष्टपद छंद में ''१८,९''के मात्रा-क्रम की 4 आवृत्तियों से एक छंद पूरा होता है,दूसरी व छठी पंक्ति के व चौथी व आठवीं पंक्ति के तुकांत हैं ,ऐसे ४ छंद इस गीत में हैं )
बाँहों में भर लिया दिशाओं ने 
सारा आकाश 
चुभते रोमांचों-से दूबों की 
साँसों में तीर 
बिखर गया पल-भर में संयम का 
संचित विश्वास 
नयनों की डोरी पर काँप गयी 
कोई तस्वीर 
5.
('दिवसांत' में केवल दो ही छंद हैं,पर एकसी लयवत्ता के बावजूद दोनों के मात्रा-विन्यास अलग-अलग हैं ,शायद इसीलिए कवि ने इसे प्रयोग-भर रहने दिया,आगे नहीं बढ़ाया ,पर ऐसे भी प्रयोग नवगीत में नवता की प्रतिष्ठापना के प्रयोजन से किए जा सकते हैं,इसकी संभावना का संकेत दिया ,संस्कृत के भक्ति-स्तोत्रों में भी मिश्रित छंदों का प्रयोग मिलता ही है,शायद कुछ-कुछ वैसा यहाँ भी संभव है,लेकिन इतना अवश्य है कि छंद के पूर्वार्द्ध की गणना की पुनरावृत्ति उत्तरार्द्ध में भी करना कवि ने आवश्यक माना,और नवता का अर्थ नई परंपरा की स्थापना है,परम्परा-भंजन नहीं,छान्दसिक अनुशासनहीनता नवता के नाम पर स्वीकार्य नहीं,इस सिद्धांत की स्थापना भी की )
खामोश वन की झील (१२)
मेघों ने समेटी छाँह (१४)
तट पर की हुई वर्तुल लहर हर मौन (२१)
बिखरा कुहासा नील (१२)
फैली ज्यों किसी की बांह (१४)
पथ पर की उदासी-सा बुलाता कौन (२१)

हो रहा दिवसांत (१०)
सूरज ढल गया (९)
पश्चिम दिशा में ऊंघते हैं खेत सरसों के (२५)
तम भरा सीमान्त (१०) 
दीपक जल गया (९)
छाये नयन में दूर बिछड़े मीत बरसों के (२५)
6.
('रागारुण संध्या' का षट्पद छंद अपनी संरचनागत प्रवृत्ति में निराला के 'तुलसीदास'से कुछ मिलता-जुलता है पर अलग है,इसमें मूलछंद १२ मात्रिक है,जिसमें तीसरी व छठी पंक्ति में १० मात्राओं का एक टुकड़ा जुड़ने से ये २२ मात्राओं की हो गयी हैं,पहली-दूसरी का,तीसरी-छठी का व चौथी-पाँचवी का तुकांत है .इस नवगीत में कोई ध्रुवपंक्ति या टेक नहीं है,मात्र ४ छंद हैं.)
होली के रंग भरे 
भूली सुधि-से उभरे 
फागुनी अकाश तले रतनारे बादल 
दूर-दूर खेतों में 
गंधाकुल रेतों में 
लहराता पवनकंप-सरसों का आँचल
7.
('रागारुण संध्या' से मिलते-जुलते छंद-विन्यास का ही नवगीत 'पलकों की पाँखुरियाँ' है.मूल छंद-पंक्ति १२ मात्रिक ही है,तीसरी व छठी पंक्ति २२ के स्थान पर २४ मात्रिक है .ध्रुवपद २४ मात्रिक पंक्ति की दो आवृत्ति से बना है,क्योंकि बाद में कोई 'टेक' नहीं है और तीसरी व छठी पंक्तियों के तुकांत ध्रुवपद जैसे ही हैं,अतः २ तुकांत पंक्तियों के बंद व उसके बाद 'टेक' की व्यवस्था मानी जा सकती है. गीति में सौन्दर्य-तत्त्व के प्रतिष्ठापक कवि का यह नवगीत अविकल उद्धृत है .)
खोलो री गीतों की स्वप्नमयी पाँखुरियाँ 
छलक उठीं पनघट पर गीतों की गागरियाँ 
मेघों का घूँघट-पट 
सरकाती तम की लट 
नभ-पथ से उतर रहीं किरनों की किन्नरियाँ 
आँगन में खिली धूप
बिखरा ज्यों जातरूप 
सिहर उठीं ऊष्मा से लजवंती वल्लरियाँ 
जाग उठे ज्योतिस्नात 
गंधवाह पारिजात 
अमराई में गातीं पाटलपंखी परियाँ 
पीपल की छाँह भली 
अलसाई राह चली 
छहर रही खेतों में धानों की चूनरियाँ 
जागो-जागो राधे 
सोया-सा स्वर जागे
गूँज उठीं मधुवन में कान्हा की पांसुरियाँ 
रोमांचित दूर्वादल 
वसुधा का हरितांचल 
तैर रहीं लहरों पर सौरभ की अप्सरियाँ 
8.
('भुतहा सन्नाटे में' में १५ मात्रिक ध्रुवपंक्ति,१८,१५,१८,१५ क्रम का विषममात्रिक चतुष्पद बंद के रूप में,पश्चात् ध्रुवपंक्ति के तुकांत के अनुवर्तन में १८,२१ मात्राक्रम की २ पंक्तियों की 'टेक'है,इसी नियम का निर्वाह नवगीत के चारों छंदों में हुआ है.बंद की दूसरी-चौथी पंक्तियों के तुकांत हैं.)
दूर तलक उड़ती है रेत

पथराए सपनों के नीलकमल 
सूख गयी लहराती झील 
उग आए ऊजड़ पाटल वन में 
गोखुरू,जवास औ' करील

तपता कापालिक-सा आसमान 
धरती पर विचर रहे लपटों के प्रेत 
गीति की नवता के निमित्त श्री 'इन्द्र' के इस प्रकार के अनेक छान्दसिक प्रयोगों की एक दीर्घ श्रृंखला है,जो 'पथरीले शोर में' से आरम्भ होकर बाद के संग्रहों तक 
चली आई है व कवि के अप्रकाशित गीतों में भी कवि की यही नवताविधायिनी दृष्टि अद्यतन कार्यशील है.

{आभार: श्री रघुविंदर यादव द्वारा प्रकाशित  बाबू जी का भारत मित्र}

doha:

दोहा सलिला:

शंकर पग-वंदन करे. सलिल विहँस हो धन्य
प्रवाहित हो जलधार जो, होती सदा अनन्य।

मधुकर कुछ मधु कण चुने, अगिन कली से नित्य
बूँद-बूँद से समुद हो, सुख मिल सके अनित्य

होते हैं कुछ दिलजले, जिन्हें सुहाता त्रास
पाएं या दें जलन तो, पाते राहत ख़ास

दादुर टर्राते मिले, चमचे कहते गान
नेताजी का कर रहे, दस दिश में विद्वान
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