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शुक्रवार, 17 मई 2013

doha gatha 7 doha sakshee samay ka acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा गाथा ७ 
दोहा साक्षी समय का
संजीव 

युवा ब्राम्हण कवि ने दोहे की प्रथम पंक्ति लिखी और कागज़ को अपनी पगड़ी में खोंस लिया। बार -बार प्रयास करने पर भी दोहा पूर्ण न हुआ। परिवार जनों ने पगड़ी रंगरेजिन शेख को दे दी। शेख ने न केवल पगड़ी धोकर रंगी अपितु दोहा भी पूर्ण कर दिया।  शेख की काव्य-प्रतिभा से चमत्कृत आलम ने शेख के चाहे अनुसार धर्म परिवर्तन कर उसे जीवनसंगिनी बना लिया। आलम-शेख को मिलनेवाला दोहा निम्न है:
आलम - कनक छुरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन?
शेख -      कटि को कंचन काट विधि, कुचन मध्य धर दीन।
  संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश.

दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर.
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर.

सुनिए दोहा-पुरी में, श्वास-आस की तान.
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रसखान.

समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन दिन-रात.
सत्य न लेकिन बदलता, कहता दोहा प्रात.

सीख-सिखाना जिन्दगी, इसे बंदगी मान.
जन्म  सार्थक कीजिए, कर कर दोहा-गान.

शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर.
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर.

दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद.
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद.

पढ़े-लिखे को भूलकर, होते तनहा अज्ञ.
दे उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ.

अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
जो वे आँखें मूँदकर, बने हुए हैं सूर.

जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश.
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष.

सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत.
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.

स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात.

दोहा की सामर्थ्य जानने के लिए एक ऐतिहासिक प्रसंग की चर्चा करें। इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा किए जाने को उकसाया। परीक्षण के समय बंदी सम्राट के कानों में समीप खड़े कवि मित्र द्वारा कहा गया दोहा पढ़ा, दोहे ने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बता दी। असहाय दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनी हार को जीत में बदलने का अवसर दिया, ऐसी है दोहा, दोहाकार और दोहांप्रेमी की शक्ति। वह कालजयी दोहा है-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.

इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडली महाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.

मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..

शृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भी संभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो.

किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण.
किं जनेन धनेन किं मम, जीवितेन गृहेऽण.


हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।

जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.


दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-

जो जिण सासण भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारू.


चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.
पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.

संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.

निवेदन है कि अपने अंचल एवं आंचलिक भाषा में जो रोचक प्रसंग दोहे में हों उन्हें खोजकरभेजें:

दोहा साक्षी समय का, कहता है युग सत्य।
ध्यान समय का जो रखे, उसको मिलता गत्य॥

दोहा रचना मेँ समय की महत्वपूर्ण भूमिका है। दोहा के चारों चरण निर्धारित समयावधि में बोले जा सकें, तभी उन्हें विविध रागों में संगीतबद्ध कर गाया जा सकेगा। इसलिए सम तथा विषम चरणों में क्रमशः १३ व ११ मात्रा होना अनिवार्य है।

दोहा ही नहीं हर पद्य रचना में उत्तमता हेतु छांदस मर्यादा का पालन किया जाना अनिवार्य है। हिंदी काव्य लेखन में दोहा प्लावन के वर्तमान काल में मात्राओं का ध्यान रखे बिना जो दोहे रचे जा रहे हैं, उन्हें कोई महत्व नहीं मिल सकता। मानक मापदन्डों की अनदेखी कर मनमाने तरीके को अपनी शैली माने या बताने से अशुद्ध रचना शुद्ध नहीं हो जाती। किसी रचना की परख भाव तथा शैली के निकष पर की जाती है। अपने भावों को निर्धारित छंद विधान में न ढाल पाना रचनाकार की शब्द सामर्थ्य की कमी है।

किसी भाव की अभिव्यक्ति के तरीके हो सकते हैं। कवि को ऐसे शब्द का चयन करना होता है जो भाव को अभिव्यक्त करने के साथ निर्धारित मात्रा के अनुकूल हो। यह तभी संभव है जब मात्रा गिनना आता हो। मात्रा गणना के प्रकरण पर पूर्व में चर्चा हो चुकने पर भी पुनः कुछ विस्तार से लेने का आशय यही है कि शंकाओं का समाधान हो सके.

"मात्रा" शब्द अक्षरों की उच्चरित ध्वनि में लगनेवाली समयावधि की ईकाई का द्योतक है। तद्‌नुसार हिंदी में अक्षरों के केवल दो भेद १. लघु या ह्रस्व तथा २. गुरु या दीर्घ हैं। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में छोटा तथा बडा भी कहा जाता है। इनका भार क्रमशः १ तथा २ गिना जाता है। अक्षरों को लघु या गुरु गिनने के नियम निर्धारित हैं। इनका आधार उच्चारण के समय हो रहा बलाघात तथा लगनेवाला समय है।

१. एकमात्रिक या लघु रूपाकारः
अ.सभी ह्रस्व स्वर, यथाः अ, इ, उ, ॠ।
ॠषि अगस्त्य उठ इधर ॰ उधर, लगे देखने कौन?
१+१ १+२+१ १+१ १+१+१ १+१+१
आ. ह्रस्व स्वरों की ध्वनि या मात्रा से संयुक्त सभी व्यंजन, यथाः क,कि,कु, कृ आदि।
किशन कृपा कर कुछ कहो, राधावल्लभ मौन ।
१+१+१ १+२ १+१ १+१ १+२
इ. शब्द के आरंभ में आनेवाले ह्रस्व स्वर युक्त संयुक्त अक्षर, यथाः त्रय में त्र, प्रकार में प्र, त्रिशूल में त्रि, ध्रुव में ध्रु, क्रम में क्र, ख्रिस्ती में ख्रि, ग्रह में ग्र, ट्रक में ट्र, ड्रम में ड्र, भ्रम में भ्र, मृत में मृ, घृत में घृ, श्रम में श्र आदि।
त्रसित त्रिनयनी से हुए, रति ॰ ग्रहपति मृत भाँति ।
१+१+१ १+१+१+२ २ १+२ १‌+१ १+१+१+१ १+१ २+१
ई. चंद्र बिंदु युक्त सानुनासिक ह्रस्व वर्णः हँसना में हँ, अँगना में अँ, खिँचाई में खिँ, मुँह में मुँ आदि।
अँगना में हँस मुँह छिपा, लिये अंक में हंस ।
१+१+२ २ १+१ १+१ १+२, १‌+२ २‌+१ २ २+१
उ. ऐसा ह्रस्व वर्ण जिसके बाद के संयुक्त अक्षर का स्वराघात उस पर न होता हो या जिसके बाद के संयुक्त अक्षर की दोनों ध्वनियाँ एक साथ बोली जाती हैं। जैसेः मल्हार में म, तुम्हारा में तु, उन्हें में उ आदि।
उन्हें तुम्हारा कन्हैया, भाया सुने मल्हार ।
१+२ १+२+२ १+२+२ २+२ १+२ १+२+१
ऊ. ऐसे दीर्घ अक्षर जिनके लघु उच्चारण को मान्यता मिल चुकी है। जैसेः बारात ॰ बरात, दीवाली ॰ दिवाली, दीया ॰ दिया आदि। ऐसे शब्दों का वही रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
दीवाली पर बालकर दिया, करो तम दूर ।
२+२+२ १+१ २+१+१+१ १+२ १+२ १ =१ २+१
ए. ऐसे हलंत वर्ण जो स्वतंत्र रूप से लघु बोले जाते हैं। यथाः आस्मां ॰ आसमां आदि। शब्दों का वह रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
आस्मां से आसमानों को छुएँ ।
२+२ २ २+१+२+२ २ १+२
ऐ. संयुक्त शब्द के पहले पद का अंतिम अक्षर लघु तथा दूसरे पद का पहला अक्षर संयुक्त हो तो लघु अक्षर लघु ही रहेगा। यथाः पद॰ध्वनि में द, सुख॰स्वप्न में ख, चिर॰प्रतीक्षा में र आदि।
पद॰ ध्वनि सुन सुख ॰ स्वप्न सब, टूटे देकर पीर।
१+१ १+१ १+१ १+१ २+१ १+१

द्विमात्रिक, दीर्घ या गुरु के रूपाकारों पर चर्चा अगले पाठ में होगी। आप गीत, गजल, दोहा कुछ भी पढें, उसकी मात्रा गिनकर अभ्यास करें। धीरे॰धीरे समझने लगेंगे कि किस कवि ने कहाँ और क्या चूक की ? स्वयं आपकी रचनाएँ इन दोषों से मुक्त होने लगेंगी।
 
अंत में एक किस्सा, झूठा नहीं, सच्चा... 

फागुन का मौसम और होली की मस्ती में किस्सा भी चटपटा ही होना चाहिए न... महाप्राण निराला जी को कौन नहीं जानता? वे महाकवि ही नहीं महामानव भी थे। उन्हें असत्य सहन नहीं होता था। भय या संकोच उनसे कोसों दूर थे। बिना किसी लाग-लपेट के सच बोलने में वे विश्वास करते थे। उनकी किताबों के प्रकाशक श्री दुलारेलाल भार्गव द्वारा रचित दोहा संकलन का विमोचन समारोह आयोजित था। बड़े-बड़े दौनों में शुद्ध घी का हलुआ खाते-खाते उपस्थित कविजनों में भार्गव जी की प्रशस्ति-गायन की होड़ लग गयी। एक कवि ने दुलारेलाल जी के दोहा संग्रह को महाकवि बिहारी के कालजयी दोहा संग्रह "बिहारी सतसई" से श्रेष्ठ कह दिया तो निराला जी यह चाटुकारिता सहन नहीं कर सके, किन्तु मौन रहे। तभी उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया। निराला जी ने दौने में बचा हलुआ एक साथ समेटकर खाया, कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा और शेर की तरह खड़े होकर बडी-बडी आँखों से चारों ओर देखते हुए एक दोहा कहा। उस दिन निराला जी ने अपने जीवन का पहला और अंतिम दोहा कहा, जिसे सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया, दुलारेलाल जी की प्रशस्ति कर रहे कवियों ने अपना चेहरा छिपाते हुए सरकना शुरू कर दिया। खुद दुलारेलाल जी भी नहीं रुक सके। सारा कार्यक्रम चंद पलों में समाप्त हो गया।

इस दोहे और निराला जी की कवित्व शक्ति का आनंद लीजिए और अपनी प्रतिक्रिया दीजिए।

वह दोहा जिसने बीच महफिल में दुलारेलाल जी और उनके चमचों की फजीहत कर दी थी, इस प्रकार है-

                                               कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल?
                                              कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल?
                                                                       *****
आभार: हिन्दयुग्म १५-३-२००९

english poetry quatren poem in hindi sanjiv

अंग्रेजी काव्य विधा
चतुश्पदिक कविता / क्वाट्रेन पोयम 
संजीव
*
सिर्फ समय की बलिहारी है
कोई इससे पार न पाया।
पौआ अद्धे पर भारी है
पाया थोडा बहुत गँवाया।।
नर पर दो मात्रा भारी है
जैसा चाह नाच नचाया।
जुबां तेज चलती आरी है
ईश्वर ने भी शीश नवाया।।
ममता से सुरभित क्यारी है
सारी दुनिया को महकाया।
हुई रुष्ट तो दोधारी है
समझो प्रलय सामने आया।।
***
Sanjiv verma 'Salil'
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bundeli muktika baat karo... acharya sanjiv verma 'salil'

बुन्देली मुक्तिका:
बात करो ..
संजीव
*
बात करो जय राम-राम कह।
अपनी कह औरन की सुन-सह।।

मन खों रखियों आपन बस मां।
मत लालच मां बरबस दह-बह।।

की की की सें का-का कहिए?
कडवा बिसरा, कछु मीठो गह।।

रिश्ते-नाते मन की चादर।
ढाई आखर सें धोकर-तह।।

संयम-गढ़ पै कोसिस झंडा
फहरा, माटी जैसो मत ढह।।

खैंच लगाम दोउ हातन सें
आफत घुड़वा चढ़ मंजिल गह।।

दिल दैबें खेन पैले दिलवर
दिल में दिलवर खें दिल बन रह।।
=====================
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गुरुवार, 16 मई 2013

doha muktika baanch sake to baanch -sanjiv

दोहा मुक्तिका:
बांच सके तो बांच
संजीव
*
सत्य सनातन नर्मदा, बांच सके तो बांच।
मिथ्या सब मिट जाएगा, शेष रहेगा सांच।।

कथनी करनी में तनिक, करना कभी न भेद।
जो बोता पाता वही, ले कर्मों को जांच।।

साँसें अपनी मोम हैं, आसें तपती आग।
सच फौलादी कर्म ही, सह पाता है आंच।।

उसकी लाठी में नहीं, होती है आवाज़।
देख न पाते चटकता, कैसे जीवन कांच।।

जो त्यागे पाता वही, बचता मोह-विछोह।
ऐक्य द्रोह को जय करे, कहते पांडव पांच।।
*
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doha muktika ban ja salil ukaab sanjiv

दोहा ग़ज़ल :
संजीव
*
जमा निगाहें लक्ष्य पर, बन जा सलिल उकाब।
पैर जमीं पर जमाकर, देख गगन की आब।।

हूँ तो मैं खोले हुए, पढ़ता नहीं किताब।
आनंदित मन-प्राण पा, सूखा हुआ गुलाब।।

गिनती की साँसें मिलीं, रखना तनिक हिसाब।
किसे पता कहना पड़े, कब अलविदा जनाब।।

दकियनूसी हुए गर, पिया नारियल-डाब।
प्रगतिशील पी कोल्ड्रिंक, करते गला ख़राब।।

किसने लब से छू दिया, पानी हुआ शराब।
बढ़कर थामा हाथ तो, टूट गया झट ख्वाब।।

सच्चाई छिपती नहीं, ओढ़ें लाख नकाब।
उम्र न छिपती बाल पर, मलकर 'सलिल' खिजाब।।

नेह निनादित नर्मदा, प्रमुदित मन पंजाब।
सलिल-प्रीत गोदावरी, साबरमती चनाब।।

***
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sarita sharma

सरिता शर्मा



गीत-

ज्वार उठते हैं,
नदी की हर लहर
पागल हुई...!

दूर नभ से झांकता है
चाँद, जल में -
चांदनी करवट बदलती है,
फूल की डाली
लचकती, झूमती है,
खुशबुएँ बेकल
मचलती है
रात पल भर सो न पाई
और सहर पागल हुई....!!
ज्वार उठते हैं नदी की
हर लहर पागल हुई...!

दौड़ते, गिरते
सम्भलते पाँव..
थमते ही नही
सरपट ढलानों पर ...
कब कहां से
आ लिपटते सर्प
चन्दन के खजानों पर

गंध बौरायी
बहकती सी उमर पागल हुई...!!!
ज्वार उठते हैं नदी की हर लहर पागल हुई...!

*
मुक्तक



चलाओ तीर तुम, मुझको सहन करना ज़रूरी है
ज़हर हो या कि अमृत, आचमन करना जरूरी है
विधाता ने मुझे जननी बनाकर जग में भेजा है--
सृजन की भूमिका में हूँ, सृजन करना ज़रूरी है!

*

ठेस लगी तो फिर भर आया खारा पानी आँखों में
ढुलक गया कब तक रहता बेचारा पानी आँखों में
बरसों-बरस बहा- छलका अब भी उतने का उतना है-
लगता है भर गया जगत का सारा पानी आँखों में.....!!!

*
छंद



"आज तेरी बगिया से मेहंदी चुराके मैंने,
हाथ पे रचाई तो हथेली हंसने लगी
कल्पना में आके तूने हौले से जो छू लिया तो,
कामना में प्रीत की पहेली हंसने लगी
जाने क्या हुआ मुझे अकेली कभी रोई और,
अगले ही पल मैं अकेली हंसने लगी
सुध -बुध भूल गयी, सपनों में झूल गयी,
मेरी दशा देख के सहेली हंसने लगी. "
*
गजल



कागजों के गुलाब मत देना
कोई झूठा खिताब मत देना

गर तुम्हे नागवार लगता है
मेरे खत का जवाब मत देना

आँख खुलते ही टूट जाए जो
अब हमे ऐसा ख्वाब मत देना

रोशनी से डरी निगाहों को
तुम कोई आफताब मत देना

खून उल्फत का जो करे 'सरिता'
ऐसे खंज़र को आब मत देना .
*

बस कभी बददुआ नही देते
वरना दरवेश क्या नही देते

तेरी खुद से ही खुद जिरह होगी
जा ..तुझे हम सजा नही देते

डूबते थे तो डूब जाते हम
नाखुदा को सदा नही देते

दुश्मनी खुल के हम निभाते हैं
दोस्त बन कर दगा नही देते

वो जो नफरत के डाकिये हैं उन्हें
अपने घर का पता नही देते.!
*
 कविता



मन
उदास
है!

बरसों -बरस पुरानी कुछ
यादों के
बेहद आस-पास है!!

एक कंटीली झाडी में
दामन उलझा
उलझन में ज़्यादा
कांटो में
कम उलझा
और समय की उस झाडी में
कलियों सा , फूलों सा
वह दिन बहुत
ख़ास है!!
मन
उदास
है!!!

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bundeli, muktika baat nen kariyo acharya sanjiv verma 'salil'


बुन्देली मुक्तिका:
बात नें करियो
संजीव
*
बात नें करियो तनातनी की.
चाल नें चलियो ठनाठनी की..

होस जोस मां गंवा नें दइयो
बाँह नें गहियो हनाहनी की..

जड़ जमीन मां हों बरगद सी
जी न जिंदगी बना-बनी की..

घर नें बोलियों तें मकान सें
अगर न बोली धना-धनी की..

सरहद पे दुसमन सें कहियो
रीत हमारी दना-दनी की..
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Sanjiv verma 'Salil'
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बुधवार, 15 मई 2013

geet: pran hi shabdit hue acharya sanjiv verma 'salil'


गीत (वाक्यांश पूर्ति) :
प्राण ही शब्दित हुए…
संजीव
*
गगन रीझा, गात ऊषा का, गुलाबी हो गया,
पवन चूमे बेल, चिर अनुराग गुपचुप बो गया।
थपक वसुधा को जगाता, रवि करों से हुलसकर-
सलिल सिकता से लिपटकर, पंक सारा धो गया।
हुआ मूर्तित जब अमूर्तित, भाव तब विगलित हुए
पञ्च तत्वों में पुलककर, प्राण ही शब्दित हुए...
*
राग ने रस सँग रचाई, रास रागिनि छेड़कर,
लास लख अनुप्रास भागा, लय किवड़िया भेड़कर।
अनुपमा उपमा यमक की, दिवानी जब से हुई-
अन्तरा को गीत-मुखड़ा, याद करता हेड़कर।
द्वैत तज अद्वैत वर कर, चाव रूपायित हुए
काव्य तत्वों में हुलसकर, प्राण ही शब्दित हुए...
*
संगमर्मर चन्द्र किरणों का, परस पा तर गया,
नर्मदा की लहरियों में,  नाद कलकल भर गया।
ज़िंदगी पाने की खातिर, हौसला उम्मीद पर-
प्राण हँसकर कर निछावर, बाँह में भर मर गया।
राग तत्वों में 'सलिल' वैराग अनुवादित हुए
पञ्च तत्वों में उमगकर प्राण ही शब्दित हुए...
*


Sanjiv verma 'Salil'
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lekh: pashchim kee vaigyanik unnati ke mool men hindu ank ganit dr. madhusudan





     पश्चिम की वैज्ञानिक उन्नति के मूल में है हिन्दू अंक गणित

डॉ. मधुसूदनroman                 
 -----------------------------------                                                                                डॉ. मधुसूदन

मधुसूदनजी अभियांत्रिकी में एम.एस. तथा पी.एच.डी. हैं ,  प्रसिद्ध भारतीय-अमेरिकी शोधकर्ता, प्रखर हिन्दी विचारक है। संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती  संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) के  आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था युनिवर्सिटी ऑफ मॅसाच्युसेटस (UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS) में निर्माण अभियांत्रिकी के प्रोफेसर हैं।

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*डॉ. डेवीड ग्रे -(१)”वैज्ञानिक विकास में भारत हाशिये पर की टिप्पणी नहीं है।”
*(२)”वैश्विक सभ्यता में भारत का महान योगदान नकारता इतिहास विकृत है।”
*(३)सर्वाधिक विकसित उपलब्धियों की सूची, भारतीय चमकते तारों की. आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, महावीर, भास्कर, माधव के योगदानों की।”
**(४)”पश्चिम विशेषकर भारत का ऋणी रहा है।
*प्रो. स्टर्लिंग किन्नी –(५) “हिंदू अंकों के बिना, विज्ञान विकास बिलकुल असंभव।
(६) “किसी रोमन संख्या का वर्ग-मूल निकाल कर दिखाएँ।”
*लेखक: (७) *अंको के बिना, संगणक भी, सारा व्यवहार ठप हो जाएगा।

अनुरोध: अनभिज्ञ पाठक,पूर्ण वृत्तांत सहित जानने के लिए, शेष आलेख कुछ धीरे-धीरे आत्मसात करें। कुछ कठिन लग सकता है।

(एक)सारांश:
गत दो-तीन सदियों की पश्चिम की, असाधारण उन्नति का मूल अब प्रकाश में आ रहा है, कि, उस उन्नति के मूल में, हिन्दू अंकों का योगदान ही, कारण है।
इन अंकों का प्रवेश, पश्चिम में, अरबों द्वारा कराया होने के कारण, गलती से, उन्हें अरेबिक न्युमरल्स माना जाता रहा।
पर, वेदों में उल्लेख होने के कारण, और अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से (गत २-३ दशकों में) इस भ्रांति का निराकरण होकर अब स्वीकार किया जाता है, कि तथाकथित ये अरेबिक अंक, वास्तव में हिन्दू-अंक ही थे। साथ में एक-दो विद्वान भी, मान रहें हैं, कि, हमारी गणित की अन्य शाखाएं भी इस उत्थान में मौलिक योगदान दे रही थी।

(दो) हिंदु अंको के आगमन पूर्व:
हिंदु अंको के आगमन पूर्व, रोमन अंकों का उपयोग हुआ करता था। निम्न तालिका में कुछ उदाहरण दिए हैं; जो अंकों को लिखने की पद्धति दर्शाते हैं। आप ने घडी में भी, ऐसे रोमन अंक I, II, III, IV, V, VI, VII, VIII, IX, XI, XII देखे होंगे। ये क्रमवार, १,२,३,४,५,६,७,८,९,१०, ११. १२ के लिए चिह्न होते हैं।
बडी संख्याएँ, निम्न रीति से दर्शायी जाती हैं।
3179 =MMMCLXXIX, 3180=MMMCLXXX
3181 =MMMCLXXXI, 3182=MMMCLXXXII
3183 =MMMCLXXXIII, 3184 =MMMCLXXXIV
3185 =MMMCLXXXV, 3186 =MMMCLXXXVI
3187 =MMMCLXXXVII, 3188 =MMMCLXXXVIII
3189 =MMMCLXXXIX, 3190 =MMMCXC

रोमन अंको की कठिनाई थी; उनका जोड, घटाना, गुणाकार, भागाकार इत्यादि, जैसी सामान्य प्रक्रियाएं कठिन और कुछ तो असंभव ही होती थी। फिर वर्गमूल, घनमूल और अनेक गणनाएँ तो असंभव ही थी।
जिन्हें सन्देह हो, उन्हें, निम्न रोमन संख्याओं का गुणाकार कर के, देखना चाहिए।
(MMMCLXXXVIII) x{ MMMCLXXXVI} =?

वास्तव में ये हैं (३१८८)x(३१८६)= १०१५६९६८
एक मित्र जो तर्क-कुतर्क देने में आगे रहते हैं। उन्हें जब मैंने ऐसा प्रश्न पूछा, तो कुछ समय तो रोमन न्युमरल देखने लगे। पर फिर विषय को छोडकर, नया ही तर्क देना प्रारंभ किया। कहने लगे कि, यदि हम अंक ना देते, तो कोई और दे देता ! उस में कौनसा बडा तीर मार लिया?
सच्चाई को दृढता पूर्वक, अस्वीकार करने वाले, ऐसे ह्ठाग्रहियों को देखकर हँसी भी आती है, पर दुःख अधिक होता है, कि, हमारे ही बंधुओं की ऐसी बहुमति में हम, बदलाव कैसे लाएंगे? भारत का, दैवदुर्विपाक ही मानना पडेगा।

(तीन)इसमें कौन सी बडी बात है? ऐसा सोचनेवालों को अनुरोध करता हूँ। सोच कर बताइए कि, सारे संसार से हिंदु अंक हटा देने से क्या होगा?
अंग्रेज़ी में लिखे जानेवाले, 1.2.3.4 इत्यादि भी; जो, हिंदु अंकों की परम्परा से ही, उधार लिए गए हैं। साथ-साथ इन्हीं अंकों का अनुकरण करने वाली, किसी भी लिपि में लिखे गए, अंकों को हटा दीजिए। आज सारा शिक्षित विश्व हिंदू अंकों का ही अनुकरण करता है। उनकी लिपि केवल अलग होती है।
तो सारे संसार में, सैद्धान्तिक रूप से, एकमेव (दूसरे कोई नहीं) हिन्दू अंक ही रूढ हो चुके हैं। जी, हाँ। आज पूरे संसार में गिनती के लिए केवल हिंदु अंकों का ही अनुकरण होता है। हरेक देश में, दस की संख्या, निर्देशित करने के लिए उनके एक के चिह्न के साथ शून्य का प्रयोग [१०] होता है।
अंकों के चिह्न उनके अपने होते हैं, पर प्रणाली हिंदू अंकों का अनुकरण ही होती है। उन सभी अंकों को हटा दीजिए, तो क्या होगा? सोचिए।

उत्तर: महाराज! सारे कोषागार, धनागार, वाणिज्य व्यापार, विश्व विद्यालय, शालाएँ, जनगणना, उस पर आधारित जनतंत्र, और संगणक (कंप्युटर) भी ………… सारा का सारा जीवन व्यवहार ठप हो जाएगा। नहीं? क्या आप कोई “मैं ना मानूं, नामक-हठ-योगी” संप्रदाय के सदस्य तो नहीं ना?

(चार) ऐसा योगदान है, हिन्दू अंकों का-
ऐसा योगदान है, हिन्दू अंकोंका-और हिन्दु गणित का। जिसका लाभ बिना अपवाद संसार की सारी शिष्ट भाषाएँ और सारे देश ले ही रहे हैं।आपकी खिचडी अंग्रेज़ी भी। और सारे विज्ञान का विशालकाय विकास भी जिन गणनाओं के कारण हुआ है, वे
सारी हिंदु अंकों के गणित पर ही आधार रखती है। यही पद्धति उस विकास का कारण है।
इन्हीं अंकोपर उच्च गणित आधारित है, संगणक की सबसे ऊपर वाली कुंजियाँ भी, आप का, बँक का हिसाब, लंदन के राजमहल की संख्या, वॉशिंग्टन का पीन कोड, झिपकोड, आपका मोबाईल नम्बर, जिन लोगों को भारत तुच्छ देश लगता है, उनकी जन्म तिथि भी केवल एक और एक ही प्रणाली पर निर्भर करती है।
हिमालय के शिखर पर जाकर शिवजी का शंख फूँक कर सारे विश्व को कहने का मन करता है, हाँ, उन उधारी शब्दों पर जीवित अंग्रेज़ी के गुलामों को भी कहूंगा । और चुनौति दूंगा, कि इतनी भारतीयता के प्रति घृणा है, तो कोई और प्रणाली उत्पन्न करें। हिंदू अंकों का, वैदिक अंको का, भारतीय अंकों का प्रयोग ना करें।

(पाँच) कुछ प्रामाणिक पश्चिमी विद्वान भी हैं।
उनमें से एक थे, निर्माण अभियांत्रिकी की उच्च शिक्षा की पाठ्य पुस्तक के विद्वान लेखक, प्रोफेसर स्टर्लिंग किन्नी । जो रेन्सलिएर पॉलीटेक्निक इन्स्टिट्यूट में निर्माण अभियान्त्रिकी के प्रोफेसर थे।
वे कहते हैं, अपनी पाठ्य पुस्तक के ७ वें पन्नेपर। कि,
उद्धरण ==> “एक महत्वपूर्ण शोध प्रकाश में आया, जो, अरबों ने,लाया होने से अरबी अंक के नामसे जाना जाता है। वह है, हमारे अंक(नम्बर) जो, अमजीर, भारत में, (६०० इ. स.)में प्रयोजे जाते थे। ये अंक अरबी गणितज्ञों ने अपनाकर, युरप में फैलाए।, इस लिए, पश्चिम, उन्हें (गलतीसे) एरॅबिक अंक मानता था। इन हिंदू अंको की, उपयुक्तता रोमन अंकों (जो पहले थे) की अपेक्षा अत्यधिक है। और इन अंकों के बिना, आधुनिक विज्ञान का विकास बिलकुल (?)असंभव लगता है।”
“The advantage of these Hindu numbers over both the Greek and Roman system is very great, and it is quite unlikely that modern science could exist without them” आगे कहते हैं, कि,संदेह हो, तो किसी रोमन में लिखी, संख्या का वर्ग-मूल निकाल कर दिखाएँ।”<===उद्धरण अंत

(पाँच) दूसरे विद्वान, डेविड ग्रे
वे, “भारत और वैज्ञानिक क्रांति में”– लिखते हैं :
डॉ. डेवीड ग्रे
उद्धरण===>”पश्चिम में गणित का अध्ययन लम्बे समय से कुछ सीमा तक राष्ट्र केंद्रित, पूर्वाग्रहों से प्रभावित रहा है, एक ऐसा पूर्वाग्रह जो प्रायः बड़बोले जातिवाद के रूप में नहीं पर (पश्चिम-रहित) भारत के और अन्य सभ्यताओं के वास्तविक योगदान को नकारने या मिटाने के प्रयास के रूप में परिलक्षित होता है।
पश्चिम अन्य सभ्यताओं का विशेषकर भारत का ऋणी रहा है। और यह ऋण ’’पश्चिमी’’ वैज्ञानिक परंपरा के प्राचीनतम काल – ग्रीक सम्यता के युग से प्रारंभ होकर आधुनिक काल के प्रारंभ, पुनरुत्थान काल तक अबाधित रहा है – जब यूरोप अपने अंध-युग से जाग रहा था।”
इसके बाद डा. ग्रे भारत में घटित गणित के सर्वाधिक महत्वपूर्ण विकसित उपलब्धियों की सूची बनाते हुए भारतीय गणित के चमकते तारों का, जैसे आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, महावीर, भास्कर और माधव के योगदानों का संक्षेप में वर्णन करते हैं।
यूरोप में वैज्ञानिक क्रांति के विकास में भारत का योगदान
अंत में वे बल पूर्वक कहते हैं -”यूरोप में वैज्ञानिक क्रांति के विकास में भारत का योगदान केवल हाशिये पर लिखी जाने वाली टिप्पणी नहीं है जिसे आसानी से और अतार्किक रीति से, यूरोप केंद्रित पूर्वाग्रह के आडम्बर में छिपा दिया गया है। ऐसा करना इतिहास को विकृत करना है और वैश्विक सभ्यता में भारत के महानतम योगदान को नकारना है।”

geet: baton se kya hota hai? acharya sanjiv

दिद्दा को सादर समर्पित :

गीत:
बातों से क्या होता है?
संजीव
*
रातों का अँधियारा रुचता तनिक नहीं
दिल कहता है: 'इसको दूर हटाना है'
पर दिमाग कहता: 'अँधियारा आवश्यक
यह सोचो उजयारा खूब बढ़ाना है '
यह कहता: 'अँधियारा अपने आप हुआ'
वह बोला: 'उजियारा करना पड़ता है'
इसने कहा: 'घटित जो हो, सो होने दो
मन पल में हँसता है, पल में रोता है
बात न करना, बातों से क्या होता है?'

घातों-प्रतिघातों से ही इतिहास बना
कभी नयन में अश्रु, अधर पर हास बना
कभी हर्ष था, कभी अधर का त्रास बना
तृप्ति बना, फिर अगले पल नव प्यास बना
स्वेद गिरा, श्रम भू में बोता है फसलें
नभ पानी बरसा, कहता भू से हँस लें
अंकुर पल्लव कली कुसुम फल आ झरते
मन 'बो-मत बो' व्यर्थ बात, कह सोता है?
बात न जाने, बातों से क्या होता है?'

खातों का क्या?, जब चाहो बन जाते हैं
झुकते-मिलते हाथ कभी तन जाते हैं
जोड़-जोड़ हारा प्रयास, थक-रुका नहीं
बात बिना क्या कुछ निर्णय हो पाते हैं?
तर्क-वितर्क, कुतर्कों को कर दूर सकें
हर शंका का समाधान कर तभी हँसें
जब बातें हों, बातों से बातें निकलें
जो होता है, बातों से ही होता है
*

Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

मंगलवार, 14 मई 2013

MUKTIKA (BUNDELI) ACHARYA SANJIV VERMA 'SALIL'


बुन्देली मुक्तिका
संजीव
*

मन खों रखियो हर दम बस में.
पानी बहै न रस में, नस में.

कसर न करियो स्रम करबे में.
खा खें तोड़ न दइयो कसमें.

जी से मिलबे खों जी तरसे
जी भर जी सें करियो रसमें.

गरदिस में जो संग निभाएं
संग उनई खों धरियों जस में.

कहूँ न ऐसो मजा मिलैगो
जैसो मजा मिलै बतरस में.
=================
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
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doha gatha 6 acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा गाथा  : ६ 
दोहा दिल में झांकता... 
संजीव  

दोहा दिल में झांकता, कहता दिल की बात.
बेदिल को दिलवर बना, जगा रहा ज़ज्बात.

अरुण उषा के गाल पर, मलता रहा गुलाल.
बदल अवसर चूक कर, करता रहा मलाल.

मनु तनहा पूजा करे, सरस्वती की नित्य.
रंग रूप रस शब्द का, है संसार अनित्य.

कवि कविता से खेलता, ले कविता की आड़.
जैसे माली तोड़ दे, ख़ुद बगिया की बाड.

छंद भाव रस लय रहित, दोहा हो बेजान.
अपने सपने बिन जिए, ज्यों जीवन नादान.

अमां मियां! दी टिप्पणी, दोहे में ही आज.
दोहा-संसद के बनो, जल्दी ही सरताज.

अद्भुत है शैलेश का, दोहा के प्रति नेह.
अनिल अनल भू नभ सलिल, बिन हो देह विदेह.

निरख-निरख छवि कान्ह की, उमडे स्नेह-ममत्व.
हर्ष सहित सब सुर लखें, मानव में देवत्व.

याद रखें दोहा में अनिवार्य है:

१. दो पंक्तियाँ, २. चार चरण .

३. पहले एवं तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ.

४. दूसरे एवं चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ.

५. दूसरे एवं चौथे चरण के अंत में गुरु-लघु होना अनिवार्य.

६. पहले तथा तीसरे चरण के आरम्भ में जगण = जभान = १२१ का प्रयोग एक शब्द में वर्जित है किंतु दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं है.

७. दूसरे तथा चौथे चरण के अंत में तगण = ताराज = २२१, जगण = जभान = १२१ या नगण = नसल = १११ होना चाहिए. शेष गण अंत में गुरु या दीर्घ मात्रा = २ होने के कारण दूसरे व चौथे चरण के अंत में नहीं रखे जा सकते .

उक्त तथा अपनी पसंद के अन्य दोहों में इन नियमों के पालन की जांच करिए, शंका होने पर चर्चा करें.

दोहा 'सत्' की साधना, करें शब्द-सुत नित्य.
दोहा 'शिव' आराधना, 'सुंदर' सतत अनित्य.

                                              कविता से छल कवि करे, क्षम्य नहीं अपराध.
                                                 ख़ुद को ख़ुद ही मारता, जैसे कोई व्याध.

तप न करे जो वह तपन, कैसे पाये सिद्धि?
तप न सके यदि सूर्ये तो, कैसे होगी वृद्धि?

उक्त दोहा में 'तप' शब्द के दो भिन्न अर्थ तथा उसमें निहित अलंकार उसके विषय में  लीजिए।

अजित अमित औत्सुक्य ही, -- पहला चरण, १३ मात्राएँ
१ १ १ १ १ १ २ २ १ २ = १३
भरे ज्ञान - भंडार. -- दूसरा चरण, ११ मात्राएँ
१ २ २ १ २ २ १ = ११
मधु-मति की रस सिक्तता, -- तीसरा चरण, १३ मात्राएँ
१ १ १ १ २ १ १ २ १ २ = १३
दे आनंद अपार. -- चौथा चरण, ११ मात्राएँ
२ २ २ १ १ २ १ = ११ मात्राएँ.


दो पंक्तियाँ (पद) तथा चार चरण सभी को ज्ञात हैं. पहली तथा तीसरी आधी पंक्ति (चरण) दूसरी तथा चौथी आधी पंक्ति (चरण) से अधिक लम्बी हैं क्योकि पहले एवं तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ हैं जबकि दूसरे एवं चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ हैं. मात्रा से दूर रहनेवाले विविध चरणों को बोलने में लगने वाले समय, उतार-चढाव तथा लय का ध्यान रखें.
 
दूसरे एवं चौथे चरण के अंत पर ध्यान दें. किसी भी दोहे की पंक्ति के अंत में दीर्घ, गुरु या बड़ी मात्रा नहीं है. दोहे की पंक्तियों का अंत सम (दूसरे, चौथे) चरण से होता है. इनके अंत में लघु या छोटी मात्रा तथा उसके पहले गुरु या बड़ी मात्रा होती ही है. अन्तिम शब्द क्रमशः भंडार तथा अपार हैं. ध्यान दें की ये दोनों शब्द गजल के पहले शे'र की तरह सम तुकांत हैं दोहे के दोनों पदों की सम तुकांतता अनिवार्य है. भंडार तथा अपार का अन्तिम अक्षर 'र' लघु है जबकि उससे ठीक पहले 'डा' एवं 'पा' हैं जो गुरु हैं. अन्य दोहो में इसकी जांच करिए तो अभ्यास हो जाएगा.

ऊपर बताये गए नियम (' पहले तथा तीसरे चरण के आरम्भ में जगण = जभान = १२१ का प्रयोग एक शब्द में वर्जित है किंतु दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं है.') की भी इसी प्रकार जांच कीजिये. इस नियम के अनुसार पहले तथा तीसरे चरण के प्रारम्भ में पहले शब्द में लघु गुरु लघु (१+२+१+४) मात्राएँ नहीं होना चाहिए. उक्त दोहों में इस नियम को भी परखें. किसी दोहे में दोहाकार की भूल से ऐसा हो तो दोहा पढ़ते समय लय भंग होती है. दो शब्दों के बीच का विराम इन्हें संतुलित करता है.

अन्तिम नियम दूसरे तथा चौथे चरण के अंत में तगण = ताराज = २२१, जगण = जभान = १२१ या नगण = नसल = १११ होना चाहिए. शेष गणों के अंत में गुरु या दीर्घ मात्रा = २ होने के कारण दूसरे व चौथे चरण के अंत में प्रयोग नहीं होते. एक बार फ़िर गण-सूत्र देखें- 'य मा ता रा ज भा न स ल गा'

गण का नाम               विस्तार
यगण                   यमाता १+२+२
मगण                   मातारा २+२+२
तगण                   ताराज २+२+१
रगण                    राजभा २+१+२
जगण                  जभान १+२+१
भगण                   भानस २+१+१
नगण                   नसल १+१+१
सगण                  सलगा १+१+२

उक्त गण तालिका में केवल तगण व जगण के अंत में गुरु+लघु है. नगण में तीनों लघु है. इसका प्रयोग कम ही किया जाता है. नगण = न स ल में न+स को मिलकर गुरु मात्रा मानने पर सम पदों के अंत में गुरु लघु की शर्त पूरी होती है.


सारतः यह याद रखें कि दोहा ध्वनि पर आधारित सबसे अधिक पुराना छंद है. ध्वनि के ही आधार पर हिन्दी-उर्दू के अन्य छंद कालांतर में विकसित हुए. ग़ज़ल की बहर भी लय-खंड ही है. लय या मात्रा का अभ्यास हो तो किसी भी विधा के किसी भी छंद में रचना निर्दोष होगी.

किस्सा आलम-शेख का...
सिद्धहस्त दोहाकार आलम जन्म से ब्राम्हण थे लेकिन एक बार एक दोहे का पहला पद लिखने के बाद अटक गए. बहुत कोशिश की पर दूसरा पद नहीं बन पाया, पहला पद भूल न जाएँ सोचकर उन्होंने कागज़ की एक पर्ची पर पहला पद लिखकर पगडी में खोंस लिया. घर आकर पगडी उतारी और सो गए. कुछ देर बाद शेख नामक रंगरेजिन आयी तो परिवारजनों ने आलम की पगडी मैली देख कर उसे धोने के लिए दे दी.

शेख ने कपड़े धोते समय पगडी में रखी पर्ची देखी, अधूरा दोहा पढ़ा और मुस्कुराई. उसने धुले हुए कपड़े आलम के घर वापिस पहुंचाने के पहले अधूरे दोहे को पूरा किया और पर्ची पहले की तरह पगडी में रख दी. कुछ दिन बाद आलम को अधूरे दोहे की याद आयी. पगडी धुली देखी तो सिर पीट लिया कि दोहा तो गया मगर खोजा तो न केवल पर्ची मिल गयी बल्कि दोहा भी पूरा हो गया था. आलम दोहा पूरा देख के खुश तो हुए पर यह चिंता भी हुई कि दोहा पूरा किसने किया? अपने कौल के अनुसार उन्हें दोहा पूरा करनेवाले की एक इच्छा पूरी करना थी. परिवारजनों में से कोई दोहा रचना जानता नहीं था. इससे अनुमान लगाया कि दोहा रंगरेज के घर में किसी ने पूरा किया है, किसने किया?, कैसे पता चले?. उन्हें परेशां देखकर दोस्तों ने पतासाजी का जिम्मा लिया और कुछ दिन बाद भेद दिया कि रंगरेजिन शेख शेरो-सुखन का शौक रखती है, हो न हो यह कारनामा उसी का है.

आलम ने अपनी छोटी बहिन और भौजाई का सहारा लिया ताकि सच्चाई मालूम कर अपना वचन पूरा कर सकें. आखिरकार सच सामने आ ही गया मगर परेशानी और बढ़ गयी. बार-बार पूछने पर शेख ने दोहा पूरा करने की बात तो कुबूल कर ली पर अपनी इच्छा बताने को तैयार न हो. आलम की भाभी ने देखा कि आलम का ज़िक्र होते ही शेख संकुचा जाती थी. उन्होंने अंदाज़ लगाया कि कुछ न कुछ रहस्य ज़ुरूर है, कोशिश रंग लाई. भाभी ने शेख से कबुलवा लिया कि वह आलम को चाहती है. मुश्किल यह कि आलम ब्राम्हण और शेख मुसलमान... सबने शेख से कोई दूसरी इच्छा बताने को कहा, पर वह राजी न हुई. आलम भी अपनी बात से पीछे हटाने को तैयार न था. यह पेचीदा गुत्थी सुलझती ही न थी. तब आलम ने एक बड़ा फैसला लिया और मजहब बदल कर शेख से शादी कर ली. दो दिलों को जोड़ने वाला वह अमर दोहा अन्यथा अगली गोष्ठी में वह दोहा आपको बताया जाएगा. 


दोहा-चर्चा का करें, चलिए यहीं विराम.
दोहे लिखिए-लाइए, खूब पाइए नाम.

                                                   ==========================

आभार: हिन्द युग्म February 21, 2009/ March 07, 2009



सोमवार, 13 मई 2013

kavita patra: acharya sanjiv


एक फ़रियाद :
संजीव
मातृ-दिवस पर मइके आयीं, दिद्दा! शत-शत बार प्रणाम।
अनुज खोजता रहा न पाया, आशीषों का अक्षय-धाम।।

सुख-दुःख कह-सुन बाँटो फिर से, पीठ थपक दो, खीचो कान।
आफत में थे प्राण, न चिंता आयी जान में अपनी जान।।

कमल पंक में खिलता, पंकिल कभी पत्तियाँ हो जातीं।
तन-मन धो निर्मल होकर ही, प्रभु-पग पाकर तर पातीं।।

बर्तन चार खटकते ही है, जो चटके वह आये न काम।
बाहर कर उसको रसोई से, दीप्त रखे गृहणी गृह-धाम।।

नए-नए कुछ अनुष्ठान हैं: अंगरेजी कविता-दोहा।
यथासमय सुविधा से पढ़िये, बतलायें किसने मोहा।।

बुन्देली की रचनाओं में, त्रुटि बतलायें करें सुधार।
सागर गढ़ है बुन्देली का, मुझे नहीं इस पर अधिकार।।

दिद्दा! अमरस का मौसम है, पन्हा-पुदीने की चटनी।
बिना पाए कैसे हो पाए, पूरा मातृदिवस बहनी।।

एक तुम्हारा हुआ आसरा, व्यस्त प्रणव हैं और कहीं।
दीप्ति कुसुम मधु राह हेरतीं, कहाँ महेरी- कहाँ मही।।

गोल इलाहाबादी भैया, लाये न अब तक हैं खरबूज।
तब तक दिद्दा हमें चलेगा, बुलावा कटवा दो तरबूज।।

कुल्फी-आइसक्रीम तुम्हारे बिना न देती हमको स्वाद।
गले लगो, आशीष लुटाओ, सुन लो छोटों की फ़रियाद।।
***
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
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रविवार, 12 मई 2013

Elegy maa acharya sanjiv verma 'salil'

स्मृति-गीत 
माँ के प्रति:
संजीव
*
अक्षरों ने तुम्हें ही किया है नमन
शब्द ममता का करते रहे आचमन
वाक्य वात्सल्य पाकर मुखर हो उठे-
हर अनुच्छेद स्नेहिल हुआ अंजुमन

गीत के बंद में छंद लोरी मृदुल
और मुखड़ा तुम्हारा ही आँचल धवल
हर अलंकार माथे की बिंदी हुआ-
रस भजन-भाव जैसे लिए चिर नवल

ले अधर से हँसी मुक्त मुक्तक हँसा
मौन दोहा हृदय-स्मृति ले बसा
गीत की प्रीत पावन धरोहर हुई-
मुक्तिका ने विमोहा भुजा में गसा

लय विलय हो तुम्हीं सी सभी में दिखी
भोर से रात तक गति रही अनदिखी
यति कहाँ कब रही कौन कैसे कहे-
पीर ने धीर धर लघुकथा नित लिखी

लिपि पिता, पृष्ठ तुम, है समीक्षा बहन
थिर कथानक अनुज, कथ्य तुमको नमन
रुक! सखा चिन्ह कहते- 'न संजीव थक'
स्नेह माँ की विरासत हुलस कर ग्रहण

साधना माँ की पूनम बने रात हर
वन्दना ओम नादित रहे हर प्रहर
प्रार्थना हो कृपा नित्य हनुमान की
अर्चना कृष्ण गुंजित करें वेणु-स्वर

माँ थी पुष्पा चमन, माँ थी आशा-किरण
माँ की सुषमा थी राजीव सी आमरण
माँ के माथे पे बिंदी रही सूर्य सी-
माँ ही जीवन में जीवन का है अवतरण
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
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शनिवार, 11 मई 2013

doha gatha 5 acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा गाथा ५  

दोहा भास्कर काव्य नभ

संजीव 
*
दोहा भास्कर काव्य नभ, दस दिश रश्मि उजास ‌
गागर में सागर भरे, छलके हर्ष हुलास ‌ ‌

रस, भाव, संधि, बिम्ब, प्रतीक, शैली, अलंकार आदि काव्य तत्वों की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि पाठक दोहों में इन तत्वों को पहचानने और सराहने के साथ दोहा रचते समय इन तत्वों का समावेश कर सकें। ‌

रसः 
काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं-

स्थायी भावः मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।

रस:  १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुण, ४. रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. वीभत्स,  ८. अद्भुत, ९. शांत,  १०. वात्सल्य, ११. भक्ति।

क्रमश:स्थायी भाव: १. रति, २. हास, ३. शोक, ४. क्रोध, ५. उत्साह, ६. भय, ७. घृणा, ८. विस्मय,  निर्वेद, ९.  १०. संतान प्रेम, ११. समर्पण।



विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार आलंबन व उद्दीपन हैं। ‌
आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌


आश्रयः 

जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌शृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌


विषयः 


जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌


उद्दीपन विभाव: 


आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंह गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।


अनुभावः 


आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। ‌


संचारी भावः 


आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।


रस
१. श्रृंगार 


अ. संयोग श्रृंगार:

तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर
- अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार

आ. वियोग श्रृंगार:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल
- चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी

२. हास्यः
आफिस में फाइल चले, कछुए की रफ्तार ‌
बाबू बैठा सर्प सा, बीच कुंडली मार
- राजेश अरोरा"शलभ", हास्य पर टैक्स नहीं

व्यंग्यः
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच
- जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग

३. करुणः
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट
- डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब

४. रौद्रः
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश
- संजीव 

५. वीरः
रणभेरी जब-जब बजे, जगे युद्ध संगीत ‌
कण-कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत
- डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद

६. भयानकः
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश
- आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद

७. वीभत्सः
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध ‌
हा, पीते जन-रक्त फिर, नेता अफसर सिद्ध
- सलिल

८. अद्भुतः
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ‌
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार
- डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस

९. शांतः
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान
- डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी

१० . वात्सल्यः
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल
-संजीव 

११. भक्तिः
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड
- भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", दोहा कुंज

दोहा में हर रस को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य है। पाठक अपनी रुचि के अनुकूल खड़ी बोली या टकसाली हिंदी के दोहे भेजें और लिखें। ‌

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आभार: हिन्दयुग्म ७-२-२००९

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कविता-प्रति कविता
राकेश खंडेलवाल-संजीव
*


श्री आचार्य सलिल चरण प्रथम नवाऊँ माथ
वन्दन करूँ महेश का जोड़ूँ दोनों हाथ
सुमिर करूँ घनश्याम से, क्षमा प्रार्थना तात
पाऊँ सीताराम का अपने सर पर हाथ
 
जय महिपाल ग्वालियर वाले
जय हो अद्भुत प्रतिभा वाले
शुक्ल श्री हो लें अभिनन्दित
पाठक जी करते आनन्दित
सुमन सखा हैं अपने श्याल
कुसुम वीर का लेखन उज्ज्वल
ममताजी की बात करें क्या
रहीं मंच पर ममता फ़ैला
सन्मुख रहें द्विवेदी जब द्वय
गौतम तब गाते हो निर्भय
सब के सब हो जाते कायल
जब भी आते छाते घायल
प्रणव भारतीजी का वन्दन
काव्य महकता बन कर चन्दन
किसकी गलती मानी भारी
बैठीं होकर रुष्ट तिवारी
पल में दीप्ति पुन: खामोशी
ऐसे ही दिखती मानोशी
हुईं दूज का चाँद शार्दुला
अनुरूपा कहतीं, आ सिखला
किरण कुसुम की बातें न्यारी
कविताकी महके फ़ुलवारी
अद्भुत रहा विजय का चिन्तन
नयी सोच ले आते सज्जन
गज़ल वालियाजी की प्यारी
मान गये अनुराग तिवारी
मथुरा में सन्तोष मिल रहा
दिल्ली का दिल लगा हिल रहा
नज़्म सुनाते जब भूटानी
दांतों उंगली पड़े दबानी
श्री महेन्द्रजी और आरसी
दिखा रहे हैं काव्य आरसी
अमित त्रिपाठी जब उच्चारें
कविता, नमन मेरा स्वीकारें
अनिल अनूप ओम जी तन्मय
कभी कभी बोलेंगे है तय
अबिनव और अर्चना गायब
ये सचमुच है बड़ा अजायब
पूर्ण हुआ चालीसा रचना
मान्य अचलजी किरपा करना
 
इस कविता के मंच पर मिला समय जो आज
नमन आप सबको करूँ स्वीकारें कविराज.
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अग्रज दें आशीष, नहीं अनुजों का आदर श्लाघ्य, 
स्नेह-पूर्ण कर रहे शीश पर, यही अनुज का प्राप्य।

सलिल निराभित, बिम्बित हो राकेश-रश्मि दे मान 
ओम व्योम से सुनता, अनुरूपा लहरों से यश-गान।

शीश महेश सुशोभित निशिकर, मुदित नीरजा भौन  
जय-जय सीताराम कहें घनश्याम, अनिल सुन मौन।

प्रणव जाप महिपाल करें, शार्दुला-नाद हो नित्य
किरण-कुसुम की गमक-चमक, नित अभिनव रहे अनित्य।

श्यामल प्रतिभा पा गौतम तन्मय, इंदिरा-सुजाता 
चाह खीर की किन्तु आरसी राहुल रहा दिखाता।

श्री प्रकाश अनुराग वरे, संतोष नही नि:शेष 
हो अनूप आनंद, अमित हो दीप्ति, मुदित हों शेष।

मानोशी-ममता पा घायल, हो मजबूत महेन्द्र   
करे अर्चना विजय वरे, नर खुद पर बने नरेन्द्र।
 
कमल वालिया-भूटानी से, गले मिले भुज भेंट 
महिमा कविता की न सलिल, किंचित भी सका समेट।

जगवाणी हिंदी की जय-जयकार करें सब साथ 
नमन शारदा श्री चरणों में, विनत सलिल नत माथ। 
Sanjiv verma 'Salil'

शुक्रवार, 10 मई 2013

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एक कविता:
गीध 
संजीव 
*
जब 
स्वार्थ-साधन,
लोभ-लालच,
सत्ता और सुविधा तक 
सीमित रह जाए 
नाक की सीध, 
तब 
समझ लो आदमी 
इंसान नहीं रह गया 
बन गया है गीध।
*
Sanjiv verma 'Salil'
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bundeli geet acharya sanjiv verma 'salil'

बुन्देली गीत
संसद बैठ बजावैं बंसी
संजीव
*
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.
कपरा पहिरे फिर भी नंगो, राजनीति को छोरो….
*
कुरसी निरख लार चुचुआवै, है लालच खों मारो.
खाद कोयला सक्कर चैनल, खेल बनाओ चारो.
आँख दिखायें परोसी, झूलै अम्बुआ डार हिंडोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
सिस्ताचार बिसारो, भ्रिस्ताचार करै मतवारो.
कौआ-कज्जल भी सरमावै, मन खों ऐसो कारो.
परम प्रबीन स्वार्थ-साधन में, देसभक्ति से कोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
बनो भिखारी बोट माँग खें, जनता खों बिसरा दओ.
फांस-फांस अफसर-सेठन खों, लूट-लूट गर्रा रओ.
भस्मासुर है भूख न मिटती, कूकुर सद्र्स चटोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
चोर-चोर मौसेरे भैया, मठा-महेरी सांझी.
संगामित्ती कर चुनाव में, तरवारें हैं भांजी.
नूरा कुस्ती कर भरमावै, छलिया भौत छिछोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
बोट काय दौं मैं कौनौ खों, सबके सब दल लुच्चे।
टिकस न दैबें सज्जन खों, लड़ते चुनाव बस लुच्चे.
ख़तम करो दल, रास्ट्रीय सरकार चुनो, मिल टेरो
संसद बैठ बजावैं बंसी नेता महानिगोरो.....
*
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गुरुवार, 9 मई 2013

dopade-chaupade acharya sanjiv verma 'salil'

चंद दोपदे -चौपदे
संजीव
*
जब जग हुआ समीप तब, पाई खुशी समीप।
खुद के हुए समीप जब, मन हो गया महीप।।

मिले समीप समीप मन, तन हो गया प्रसन्न।
अंतर से अंतर मिटा, खुशिया हैंआसन्न ..
*
ऊन न छोड़े गडरिया, भेड़ कर सके माफ़।
मांस नोच चूसे लहू, कैसे हो इन्साफ??
*
वक़्त के ज़ख्म पे मलहम भी लगाना है हमें।
चोट अपनी निरी अपनी, न दिखाना है हमें।।
सिसकियाँ कौन सुनेगा?, कहो सुनाएँ क्यों?
अश्क औरों के पोंछना, न बहाना  है हमें।।
*
हर भाषा-बोली मीठी है, लेकिन मन से बोलें तो,
हर रिश्ते में प्रेम मिलेगा, मन से नाता जोड़ें तो।
कौन पराया? सब अपने हैं, यदि अपनापन बाँट सकें-
हुई अपर्णा क्यों धरती माँ?, सोचें बिरवा बोयें तो।।
*

Sanjiv verma 'Salil'
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doha gatha 4 shabd bramh uchchar acharya sanjiv verma 'salil'


दोहा गाथा ४- 

शब्द ब्रह्म उच्चार

संजीव 

*
अजर अमर अक्षर अजित, निराकार साकार
अगम अनाहद नाद है, शब्द ब्रह्म उच्चार
*
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति
विनय करीन इ वीनवुँ, मुझ तउ अविरल मत्ति


सुरासुरों की स्वामिनी, सुनिए माँ सरस्वति
विनय करूँ सर नवाकर,  निर्मल दीजिए मति 

संवत् १६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से उद्धृत माँ सरस्वती की वंदना के उक्त दोहे से इस पाठ का श्रीगणेश करते हुए विसर्ग का उच्चारण करने संबंधी नियमों की चर्चा करने के पूर्व यह जान लें कि विसर्ग स्वतंत्र व्यंजन नहीं है, वह स्वराश्रित है। विसर्ग का उच्चार विशिष्ट होने के कारण वह पूर्णतः शुद्ध नहीं लिखा जा सकता। विसर्ग उच्चार संबंधी नियम निम्नानुसार हैं-

१. विसर्ग के पहले का स्वर व्यंजन ह्रस्व हो तो उच्चार त्वरित "ह" जैसा तथा दीर्घ हो तो त्वरित "हा" जैसा करें।

२. विसर्ग के पूर्व "अ", "आ", "इ", "उ", "ए" "ऐ", या "ओ" हो तो उच्चार क्रमशः "ह", "हा", "हि", "हु", "हि", "हि" या "हो" करें।

यथा केशवः =केशवह, बालाः = बालाह, मतिः = मतिहि, चक्षुः = चक्षुहु, भूमेः = भूमेहि, देवैः = देवैहि, भोः = भोहो आदि।

३. पंक्ति के मध्य में विसर्ग हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।

यथा- गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः.

४. विसर्ग के बाद कठोर या अघोष व्यंजन हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।

यथा- प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः.

५. विसर्ग पश्चात् श, ष, स हो तो विसर्ग का उच्चार क्रमशः श्, ष्, स् करें।

यथा- श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः, गंधर्वाःषट् = गंधर्वाष्षट् तथा

यज्ञशिष्टाशिनः संतो = यज्ञशिष्टाशिनस्संतो आदि।

६. "सः" के बाद "अ" आने पर दोनों मिलकर "सोऽ" हो जाते हैं।

यथा- सः अस्ति = सोऽस्ति, सः अवदत् = सोऽवदत्.

७. "सः" के बाद "अ" के अलावा अन्य वर्ण हो तो "सः" का विसर्ग लुप्त हो जाता है।

८. विसर्ग के पूर्व अकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो अकार व विसर्ग मिलकर "ओ" बनता है।

यथा- पुत्रः गतः = पुत्रोगतः.

९. विसर्ग के पूर्व आकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग लुप्त हो जाता है।

यथा- असुराःनष्टा = असुरानष्टा .

१०. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" के अलावा अन्य स्वर तथा ुसके बाद स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग के स्थान पर "र" होगा।

यथा- भानुःउदेति = भानुरुदेति, दैवैःदत्तम् = दैवैर्दतम्.

११. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" को छोड़कर अन्य स्वर और उसके बाद "र" हो तो विसर्ग के पूर्व आनेवाला स्वर दीर्घ हो जाता है।

यथा- ॠषिभिःरचितम् = ॠषिभी रचितम्, भानुःराधते = भानूराधते, शस्त्रैःरक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्।
उच्चार चर्चा  को यहाँ विराम  देते हुए यह संकेत करना उचित  होगा कि उच्चार नियमों के आधार पर ही  स्वर, व्यंजन, अक्षर  व  शब्द का मेल या संधि  होकर  नये  शब्द बनते हैं।  दोहाकार  को  उच्चार नियमों की जितनी जानकारी होगी वह उतनी निपुणता से निर्धारित पदभार में शब्दों का प्रयोग कर अभिनव अर्थ की प्रतीति करा सकेगा। उच्चार की आधारशिला पर हम दोहा का भवन खड़ा करेंगे।

दोहा का आधार है, ध्वनियों का उच्चार ‌
बढ़ा शब्द भंडार दे, भाषा शिल्प सँवार ‌ ‌

शब्दाक्षर के मेल से, प्रगटें अभिनव अर्थ ‌
जिन्हें न ज्ञात रहस्य यह, वे कर रहे अनर्थ ‌


गद्य, पद्य, पिंगल, व्याकरण और छंद

गद्य पद्य अभिव्यक्ति की, दो शैलियाँ सुरम्य ‌
बिंब भाव रस नर्मदा, सलिला सलिल अदम्य ‌ ‌


जो कवि पिंगल व्याकरण, पढ़े समझ हो दक्ष ‌
बिरले ही कवि पा सकें, यश उसके समकक्ष ‌ ‌


कविता रच रसखान सी, दे सबको आनंद ‌
रसनिधि बन रसलीन कर, हुलस सरस गा छंद
‌ ‌

भाषा द्वारा भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की दो शैलियाँ गद्य तथा पद्य हैं। गद्य में वाक्यों का प्रयोग किया जाता है जिन पर नियंत्रण व्याकरण करता है। पद्य में पद या छंद का प्रयोग किया जाता है जिस पर नियंत्रण पिंगल करता है।

कविता या पद्य को गद्य से अलग तथा व्यवस्थित करने के लिये कुछ नियम बनाये गये हैं जिनका समुच्चय "पिंगल" कहलाता है। गद्य पर व्याकरण का नियंत्रण होता है किंतु पद्य पर व्याकरण के साथ पिंगल का भी नियंत्रण होता है।


छंद वह सांचा है जिसके अनुसार कविता ढलती है। छंद वह पैमाना है जिस पर कविता नापी जाती है। छंद वह कसौटी है जिस पर कसकर कविता को खरा या खोटा कहा जाता है। पिंगल द्वारा तय किये गये नियमों के अनुसार लिखी गयी कविता "छंद" कहलाती है। वर्णों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, गति, यति आदि के आधार पर की गयी रचना को छंद कहते हैं। छंद के तीन प्रकार मात्रिक, वर्णिक तथा मुक्त हैं। मात्रिक व वर्णिक छंदों के उपविभाग सममात्रिक, अर्ध सममात्रिक तथा विषम मात्रिक हैं।


दोहा अर्ध सम मात्रिक छंद है। मुक्त छंद में रची गयी कविता भी छंदमुक्त या छंदहीन नहीं होती।

छंद के अंग

छंद की रचना में वर्ण, मात्रा, पाद, चरण, गति, यति, तुक तथा गण का विशेष योगदान होता है।

वर्ण- किसी मूलध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त चिन्हों को वर्ण या अक्षर कहते हैं, इन्हें और विभाजित नहीं किया जा सकता।

मात्रा- वर्ण के उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर उन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा‌ तथा दीर्घ या बड़ा ऽ कहा जाता है।

इनकी मात्राएँ क्रमशः एक व दो गिनी जाती हैं।
उदाहरण- गगन = ।‌+। ‌+। ‌ = ३, भाषा = ऽ + ऽ = ४.

पाद- पद, पाद तथा चरण इन शब्दों का प्रयोग कभी समान तथा कभी असमान अर्थ में होता है। दोहा के संदर्भ में पद का अर्थ पंक्ति से है। दो पंक्तियों के कारण दोहा को दो पदी, द्विपदी, दोहयं, दोहड़ा, दूहड़ा, दोग्धक आदि कहा गया। दोहा के हर पद में दो, इस तरह कुल चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहलाते हैं।

गति- छंद पठन के समय शब्द ध्वनियों के आरोह व अवरोह से उत्पन्न लय या प्रवाह को गति कहते हैं। गति का अर्थ काव्य के प्रवाह से है। जल तरंगों के उठाव-गिराव की तरह शब्द की संरचना तथा भाव के अनुरूप ध्वनि के उतार चढ़ाव को गति या लय कहते हैं। हर छंद की लय अलग अलग होती है। एक छंद की लय से अन्य छंद का पाठ नहीं किया जा सकता।

यति- छंद पाठ के समय पूर्व निर्धारित नियमित स्थलों पर ठहरने या रुकने के स्थान को यति कहा जाता है। दोहा के दोनों चरणों में १३ व ११ मात्राओं पर अनिवार्यतः यति होती है। नियमित यति के अलावा भाव या शब्दों की आवश्यकता अनुसार चजण के बीच में भी यति हो सकती है। अल्प या अर्ध विराम यति की सूचना देते है।

तुक- दो या अनेक चरणों की समानता को तुक कहा जाता है। तुक से काव्य सौंदर्य व मधुरता में वृद्धि होती है। दोहा में सम चरण अर्थात् दूसरा व चौथा चरण सम तुकांती होते हैं।

गण- तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। गण आठ प्रकार के हैं। गणों की मात्रा गणना के लिये निम्न सूत्र में से गण के पहले अक्षर तथा उसके आगे के दो अक्षरों की मात्राएँ गिनी जाती हैं। गणसूत्र- यमाताराजभानसलगा।

क्रम गण का नाम अक्षर मात्राएँ
१. यगण यमाता ‌ ऽऽ = ५
२. मगण मातारा ऽऽऽ = ६
३. तगण ताराज ऽऽ ‌ = ५
४. रगण राजभा ऽ ‌ ऽ = ५
५. जगण जभान ‌ ऽ ‌ = ४
६. भगण भानस ऽ ‌ ‌ = ४
७. नगण नसल ‌ ‌ ‌ = ३
८. सगण सलगा ‌ ‌ ऽ = ४


उदित उदय गिरि मंच पर    ,           रघुवर बाल पतंग   । ‌                   - प्रथम पद   

    प्रथम विषम चरण       यति        द्वितीय सम चरण यति

विकसे संत सरोज सब       ,             हरषे लोचन भ्रंग ‌‌‌ ‌ 
                   - द्वितीय पद
   तृतीय विषम चरण      यति      चतुर्थ सम चरण     यति
आगामी पाठ में बिम्ब, प्रतीक, भाव, शैली, संधि, अलंकार आदि काव्य तत्वों के साथ दोहा के लक्षण व वैशिष्ट्य की चर्चा होगी. 

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आभार: हिन्दयुग्म २५।१।२००९