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शनिवार, 4 मई 2013

doha gatha 2 acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा गाथा : २.ललित छंद दोहा अमर
संजीव 
*
ललित छंद दोहा अमर, भारत का सिरमौर.
हिन्दी माँ का लाड़ला, इस सा छंद न और.

देववाणी संस्कृत तथा लोकभाषा प्राकृत से हिन्दी को गीति काव्य का सारस्वत कोष विरासत में मिला। दोहा विश्ववाणी हिन्दी के काव्यकोश का सर्वाधिक मूल्यवान रत्न है। दोहा का उद्गम संस्कृत से है। नारद रचित गीत मकरंद में कवि के गुण-धर्म वर्णित करती निम्न पंक्तियाँ वर्तमान दोहे के निकट हैं-

शुचिर्दक्षः शान्तः सुजनः विनतः सूनृत्ततरः।
कलावेदी विद्वानति मृदुपदः काव्य चतुरः।।
रसज्ञौ दैवज्ञः सरस हृदयः सतकुलभवः।
शुभाकारश्ददं दो गुण विवेकी सच कविः।।


अर्थात-

नम्र निपुण सज्जन विनत, नीतिवान शुचि शांत।
काव्य-चतुर मृदु पद रचें, कहलायें कवि कान्त।।
जो रसज्ञ-दैवज्ञ हैं, सरस हृदय सुकुलीन।
गुणी विवेकी कुशल कवि, का यश हो न मलीन।।


काव्य शास्त्र है पुरातन :


काव्य शास्त्र चिर पुरातन, फिर भी नित्य नवीन।
झूमे-नाचे मुदित मन, ज्यों नागिन सुन बीन।।


लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार काव्य ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ, रसमय वाक्य, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन, ध्वनि को काव्य की आत्मा, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है।

दोहा उतम काव्य है :

दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल पर्याय।
राह दिखाता मनुज को, जब हो वह निरुपाय।।


आरम्भ में हर काव्य रचना 'दूहा' (दोहा) कही जाती थी१०। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना 'दोहड़ा' कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं की पूर्वपरता एवं युगपरकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा भी पला-बढ़ा।

दोहा छंद अनूप :

जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजन में दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिक मारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है११

नाना भाषा-बोलियाँ, नाना जनगण-भूप।
पंचतत्व सम व्याप्त है, दोहा छंद अनूप।।

दोग्ध्क दूहा दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद।
दोहक दूहा दोहरा, दुवअह दे आनंद।।

द्विपथा दोहयं दोहड़ा, द्विपदी दोहड़ नाम।
दुहे दोपदी दूह
ड़ा, दोहा ललित ललाम।।


दोहा मुक्तक छंद है :

संस्कृत वांग्मय के अनुसार 'दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है किंतु हिन्दी साहित्य का दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहन करने में समर्थ है१२।  दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है१३। संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'। अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन। तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'।

हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक का प्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानस महाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूप में सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूति की प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी के दोहे) हैं।

छंद :

अक्षर क्रम संख्या तथा, गति-यति के अनुसार। 
छंद सुनिश्चित हो 'सलिल', सही अगर पदभार।।

छंद वह साँचा या ढाँचा है जिसमें ढलने पर ही शब्द कविता कहलाते हैं। छंद कविता का व्याकरण तथा अविच्छेद्य अंग है। छंद का जन्म एक विशिष्ट क्रम में वर्ण या मात्राओं के नियोजन, गति (लय) तथा यति (विराम) से होता है। वर्णों की पूर्व निश्चित संख्या एवं क्रम, मात्र तथा गति-यति से सम्बद्ध विशिष्ट नियोजित काव्य रचना छंद कहलाती है।

दोहा :

दोहा दो पंक्तियों (पदों) का मुक्तक काव्य है। प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। हर पद दो चरणों में विभाजित रहता है। विषम (पहले, तीसरे) चरण में तेरह तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ग्यारह कलाएँ (मात्राएँ) होना अनिवार्य है। 

दोहा और शेर :

दोहा की अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति कालांतर में शे'र के रूप में उर्दू काव्य में भिन्न भावः-भूमि में विकसित हुई। दोहा और शे'र दोनों में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं, किंतु 'शे'र में चुलबुलापन होता है तो दोहा में अर्थ गौरव'१४। शेर बहर (उर्दू छंद) में कहे जाते हैं जबकि दोहा कहते समय हिन्दी के 'गण' (रुक्न) संबंधी नियमों का ध्यान रखना होता है। शे'रों का वज़्न (पदभार) भिन्न हो सकता है किंतु दोहा में पदभार हमेशा समान होता है। शे'र में पद (पंक्ति या मिसरा) का विभाजन एक सा नहीं होता जबकि दोहा के दोनों पद दो-दो चरणों में निर्धारित स्थान पर यति (विराम) द्वारा विभक्त होते हैं।

हमने अब तक भाषा, व्याकरण, वर्ण, स्वर, व्यंजन, तथा शब्द को समझने के साथ दोहा की उत्पत्ति लगभग ३००० वर्ष पूर्व संस्कृत, अपभ्रंश व् प्राकृत से होने तथा मुक्तक छंद की जानकारी ली। दोहा में दो पद, चार चरण तथा सम चरणों में १३-१३ और विषम चरणों में ११-११ मात्राएँ होना आवश्यक है। दोहा व शेर के साम्य एवं अन्तर को भी हमने समझा। अगले पाठ में हम छंद के अंगों, प्रकारों, मात्राओं तथा गण की चर्चा करेंगे। तब तक याद रखें-

भाषा-सागर मथ मिला, गीतिकाव्य रस कोष।
समय शंख दोहा करे, सदा सत्य का घोष।।

गीति काव्य रस गगन में, दोहा दिव्य दिनेश।
अन्य छंद शशि-तारिका, वे सुर द्विपदि सुरेश।।

गौ भाषा को दूह कर, कवि कर अमृत पान।
दोहों का नवनीत तू, पाकर बन रसखान।।



सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
१०. बरजोर सिंह 'सरल', हिन्दी दोहा सार, पृ. ३०,
११. आचार्य पूनम चाँद तिवारी, समीक्षा दृष्टि, पृ. ६४,
१२. डॉ. नागेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ७७,
१३. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की भूमिका - शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे,
१४. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', भूमिका- जैसे, हरेराम 'समीप'.

आपके मन में कोई सवाल हो तो कमेंट (टिप्पणी) द्वारा हमें अवश्य बतायें।
आभार: हिन्द युग्म, २३-१२-२००८


jyotish seekhen:

ज्योतिष ज्ञान



ज्योतिष को मुख्यता २ भागो में बाटा गया है सिद्धांत व फलित ज्योतिष ज्योतिष का वह भाग जिसमे ग्रह नक्षत्र आदि की गतियो का अवलोकन किया जाता है सिद्धांत या गणित के नाम से जाना जाता है फलित वह भाग है जिसके द्वारा ग्रह की विशेष स्तिथि को देख कर बताया जाता है की उस स्तिथि का मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा
जातक –
अधिकतर ज्योतिष की किताबो में ये शब्द आपने देखा व पढ़ा गया है जातक शब्द व्यक्ति विशेष के लिए आता है जिसकी ज्योतिष के अधार पर गड़ना कर फलित करने की कोशिश की जाती है अर्थात वो व्यक्ति स्वयं भी हो सकता है या जिसका ज्योतिषीय विधि से विचार किया जा रहा है
पत्री –
ग्रहों की विशेष स्थिति को एक कागज पर विशेष आकृति में बनाना जिससे समय समय पर अलग अलग स्तिथि वश विचार किया जा सके पत्री कही जाती है सूक्ष्म पत्री में ग्रह की स्तिथि ही दी जाती है जबकि पूर्ण पत्रियो में ग्रह गडना के साथ साथ दशा अंतरदशा ग्रहों के शुभ अशुभ फल व जन्मदिन का पंचाग भी दिया जाता है
सम्वंतसर –
ई० काल श्री क्राइस्ट के जन्म से माना जाता है जिसका २०१० व वर्ष चल रहा है क्राइस्ट के जन्म के ३१०१ वर्ष पूर्व ही कलियुग शुरू हो चुका था वास्तविक कलियुग का आरंभ १८ फरबरी ३१०२ बी०सी० की अर्ध रात्रि को हुआ था ज्योतिष गडना के अनुसार ७ ग्रह मेष राशि में थे इसका ज्योतिष गणित में विशेष महत्व है
क्राइस्ट के जन्म के ५७ वर्ष पहले उज्जैन में विक्रमादित्य नाम के प्रतापी राजा हुए है स्कंध पुराण में लिखा गया है कि कलियुग के लगभग ३००० वर्ष बीत जाने पर विक्रमादित्य नामक राजा हुआ जिसके नाम से ही विक्रमी संवत जाना जाता है यही कारण है कि चल रहे इस्वी साल में ५७ और जोड़ दिया जाये तो वह विक्रमी सम्वत बन जाता है
क्राइस्ट के जन्म के ७८ वर्ष के बाद शालिवाहन नामक राजा हुए है जिनके नाम पर ही शक संवत का प्राम्भ हुआ अर्थात इस्वी साल में ७८ और घटा दिया जाये तो वह शक सम्वत बन जाता है

पंचांग –
पंचांग का अर्थ ही ५ अंगों का समूह है पंचाग में तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण आते है ज्योतिष का पूर्ण पंचाग सूर्य और चन्द्रमा की गति पर निर्भर करता है

तिथि –
सूर्य और चन्द्रमा के अंशो के अंतर से तिथियो का चयन किया जाता है तिथिया दो प्रकार की होती है शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की तिथिया –



राशि –
प्रथ्वी जब सूर्य के चारो तरफ चक्कर लगाती है तो एक गोलाकार परिभ्रमण बन जाता है इस ३६० अंश के परिभ्रमण को गडना की सुगमता हेतु १२ भागो में विभक्त किया गया था लेकिन अनुभवों से ये पाया गया की इन १२ भागो की आपने एक अलग पहचान भी है जब भी कोई ग्रंह इन अलग अलग भागो में जाता है तो उसका अलग ही प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है
जिस प्रकार यदि कोई मनुष्य पहेली बार किसी मार्ग पर जाता है तो अपनी वापसी के लिए कुछ स्थान को अपने ध्यान का केंद्र बना लेता है जिससे वो याद रख सके की इससे मार्ग से आये थे उसी तरह पूर्व के ज्योतिषविदो ने राशियों को अलग अलग तारा मंडलों के स्थान के अधार पर निर्धारित कर दिया था जिससे यह ज्ञात किया जा सके कि कौन सा ग्रह कब और किस तारा मंडल की तरफ को जा रहा है इन तारा मंडल के विशेष समूह को ३० – ३० अंश में विभक्त कर अलग अलग नाम दे दिये गए जिनको आजकल लोग राशि कहते है



उत्तर भारत की ज्योतिष की समस्त पत्रीयो में राशि के स्थान पर ऊपर दिए गये राशि अंको का ही प्रयोग किया जाता है ये अंक किसी भी पत्री में भाव को प्रदर्शित नहीं करते ये संबधित राशि को ही दर्शाते है जो की ऊपर बताइ गई है बहुत से नए ज्योतिष के विद्यार्थी राशि अंक को ही जातक की कुंडली का भाव समझते है जिस कारण उनके द्वारा किया गया फलित निष्प्रभावी हो जाता है
ज्योतिष में ९ ग्रहों सूर्य चन्द्रमा मंगल राहू गुरु शनि बुध केतु और शुक्र को ही विशेष महत्व दिया गया है राशियों के स्वामी और उनका सम्बन्ध कुछ इस प्रकार है


वार –
दैनिक रूप से हम लोग प्रतिदिन एक न एक दिन के नाम को जानते है जैसेकि रविवार सोमवार आदि लेकिन ये दिन एक क्रम में ही क्यों होते है क्यों सोमवार के बाद मंगल ही आता है शुक्र ही क्यों नहीं आ जाता इसका एक विशेष गणित निर्धारित है
गणितीय आधार पर सबसे दूर शनि को बताया गया है इसकी दूरी ८८ करोड मील से कुछ ऊपर ही आकी गई है अतः शनि एक परिक्रमाँ १०७५९ दिनों में पूरा कर पता है यह अवधि ३० वर्ष के बराबर होती है शनि से कम दूरी पर गुरु (ब्रहस्पति) ४८ करोड मील दूर है इस कारण ये परिक्रमा ४३३२ दिन या १२ वर्ष में पूरी करता है गुरु से कम दूरी पर मंगल जो १४ करोड मील से कुछ अधिक है इसलिए ६८६ दिनों में परिक्रमा पूरी करता है मंगल से कम दूरी इस प्रथ्वी की है जो ९ करोड मील पर है चुकी प्रथ्वी को चलायेमान नहीं मानते इस लिए यह स्थान सूर्य को दिया गया है इससे कम दूरी पर शुक्र है जो ६ करोड मील से कुछ अधिक है इस कारण ये २२४ दिन में परिक्रमा पूरी करता है शुक्र से भी कम दूरी पर बुध जो ३.५ करोड मील पर है ये ८७ दिन में अपनी परिरकमा पूरी करता है सबसे कम दूरी पर चन्द्रमा है जो लगभग २.५ लाख मील पर है ये २७ दिन में अपना परिक्रमा का काल पूरा करता है
यदि इन ग्रहों को उनके दूरवर्ती क्रम में लिखा जाये तो शनि गुरु मंगल सूर्य शुक्र बुध व चन्द्रमा आते है अहोरात्रि एक दिन और रात के युग्म को कहा जाता है अहोरात्रि में यदि अ और त्रि का विलोप कर दिया जाये तो उसको होरा कहा जाता है १ अहोरात्रि में २४ होरा होते है जिसे अग्रेजी के HOUR शब्द की संज्ञा दी गयी है
प्रलय के अंत के बाद सूर्य का उदय होता है उसके ही प्रकाश में पुन सृष्टि का जन्म होता है इसलिए पहेला होरा सूर्य का ही माना गया है उसके बाद शुक्र के बाद बुध के बाद चंद्र के बाद शनि के बाद गुरु के बाद मंगल फिर ये ही क्रम बार बार चलता है इस क्रम में २४ होरा के बाद फिर चन्द्र का होरा आता है


इस क्रम के चलते ही ठीक २४ घंटे या होरा के बाद यदि आज सूर्योदय पर रविवार है तो २४ घंटे बाद चन्द्र वार = सोमवार पड़ेगा ! उस क्रम को ध्यान में रखते हुए वार का नामांकन किया गया है

नक्षत्र –
अनेक तारो के विशिष्ट आक्रति वाले पुंज को नक्षत्र कहा जाता है आकाश में जो असंख्या तारा मंडल जो दिखाई पड़ते है वे ही नक्षत्र कहे जाते है ज्योतिष में नक्षत्र का एक विशेष स्थान है इस सम्पूर्ण आकाश को २७ नक्षत्रो में बाटा गया है प्रत्येक भाग को एक नाम दिया गया है जिनके नाम व स्वामी निम्न प्रकार है



नक्षत्र और राशि का सम्बन्ध -
गणितीय अधार पर एक नक्षत्र १३ अंश २० मिनिट का होता है तथा प्रत्येक नक्षत्र के ४ चरण होते है इस प्रकार हर नक्षत्र का प्रत्येक चरण ३ अंश २० मिनिट का होता है इस प्रकार नक्षत्रो को राशियों के साथ निम्नवत रखा गया है



नक्षत्रो की संज्ञा –
ज्योतिष में नक्षत्रो को मूल, पंचक, ध्रुव, चर, मिश्र, अधोमुख, उधर्व्मुख, दंध व त्रियाद्य्मुख नामो से जाना जाता है

मूल नक्षत्र –
अश्वनी, मघा, मूल, अश्लेषा ज्येष्ठा व रेवती ये ६ एसे नक्षत्र को मूल नक्षत्रो में गिना जाता है इन नक्षत्रो में होने वाले बच्चो को मूल संज्ञा में ही कहा जाता है २७ दिन के बाद ये नक्षत्र पुन आता है तब मूल की शांति कराई जाती है ज्येष्ठा और मूल को गणङात मूल की व अश्लेषा को सर्प मूल की संज्ञा दी गयी है

पंचक –
घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती ये ५ नक्षत्र पंचक कहे जाते है इनमे किये गए कार्य सिद्ध नहीं होते है

ध्रुव –
उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रेवती ये ४ नक्षत्र ध्रुव संज्ञक बताये गए है

चर –
स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण और शतभिषा ये ४ नक्षत्र चर संज्ञक है

लघु व मिश्र –
हस्त, अश्वनी व पुष्य नक्षत्र लघु संज्ञक है विशाखा और कृतिका को मिश्र संज्ञक नक्षत्र माना गया है

अधोमुख –
मूल अश्लेषा विशाखा कृतिका पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाषाढ़ा पूर्वाभाद्रपद भरणी और मघा ये ९ नक्षत्र आते है इनमे कुआ बाबडी मकान की नीव आदि का कार्य का आरंभ करना शुभ माना गया है

उधर्वमुख –
आद्रा पुष्य श्रवण घनिष्ठा और शतभिषा ये नक्षत्र उधर्वमुख संज्ञक नक्षत्र है

दंद –
यदि रविवार को भरणी सोमवार को चित्रा मंगलवार को उत्तराषाढ़ा बुधवार को घनिष्ठा गुरुवार को उत्तराफाल्गुनी शुक्रवार को ज्येष्ठा और शनिवार को रेवती तो उस युग्म से बने योग को दंद संज्ञक नक्षत्र कहा जाता है

त्रियाद्य्मुख –
अनुराधा हस्त स्वाति पुनर्वसु ज्येष्ठा और अश्वनी को त्रियाद्य्मुख संज्ञक नक्षत्र कहा जाता है

ज्योतिष में माह का नाम –
मुख्यता उजाले पक्ष को शुक्ल पक्ष और अधेरे पक्ष को कृष्ण पक्ष कहा जाता है दोनों पक्षों को जोड़ कर एक माह का निर्धारण किया जाता है इसी प्रकार १२ चन्द्र मास का एक वर्ष होता है जिसके नाम इस प्रकार है



ऊपर बताये गए माह के नाम भी एक विशेष कारण से ही रखे गए है जिस मास की पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र पड़ता है उस मास का नाम चेत माना गया है उसी क्रम में जिस मास की पूर्णिमा को विशाखा नक्षत्र आता है वह वैशाख ही होता है

पंचांग का अध्यन –
जैसा की आपको पूर्व में ही बताया है की पंचांग के ५ अंग होते है तिथि वार नक्षत्र योग करण ! तिथि सूर्य से चंद्रमा के अंशो के बीच के अंतर से निकली जाती है यदि सूर्य से चन्द्रमा के बीच की दूरी का अंतर १८० अंश से कम है तो वह शुक्ल पक्ष की तिथि होती है जब सूर्य से चन्द्रमा के बीच का अंतर १८० अंश से ज्यादा होता है तो वह कृष्ण पक्ष की तिथि होती है

उ० १ - मान ले यदि सूर्य सिंह राशि में १० अंश पर है और चन्द्रमा तुला में १५ अंश पर है
सूर्य के कुल अंश = १२० + १० = १३० (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = १८० + १५ = १९५ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = १९५ – १३० = ६५ = शुक्ल पक्ष की ६ षष्ठी (तालिका ०१ से)

उ० २ – मान ले यदि सूर्य मिथुन राशि में १२ अंश पर और चन्द्रमा मीन राशि में १० अंश पर है
सूर्य के कुल अंश = ६० + १२ = ७२ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = ३३० + १० = ३४० (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = ३४० – ७२ = २६८
चुकी यह मान १८० से ज्यादा है इसलिए २६८ – १८० = ८८ कृष्ण पक्ष ८ अष्टमी (तालिका ०१ से)

उ० ३ – मान ले यदि सूर्य तुला राशि में १७ अंश पर और चन्द्रमा कर्क में १२ अंश पर है
सूर्य के कुल अंश = १८० + १७ = १९७ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = ९० + १२ = १०२ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = १०२ – १९७ = - ९५ चुकी मान – में है इसलिए
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = -९५ + ३६० = २६५
चुकी यह मान १८० से ज्यादा है इसलिए २६५ – १८० = ८५ कृष्ण पक्ष ८ अष्टमी (तालिका ०१ से)

तिथियों की संज्ञा –तिथियो को ५ अलग अलग समूह में रखा गया है –


अमावस्या –
अमावस्या को ३ संज्ञाओ के रूप में जाना जाता है –
सिनी वाली – प्रातकाल से रात्रि तक की पूर्ण अमावस्या को
दर्श – चतुर्दशी तिथि से संलग्न अमावस्या को
कुहू – प्रतिपदा से युक्त अमावस्या को

कुछ तिथिया वार के साथ मिलकर अशुभ फल देने वाली होती है तथा कुछ को सिद्ध तिथि कहा जाता है जिनमें समस्त कार्य सिद्ध हो जाते है



दग्ध विष और हुतासन को अशुभ फल देने वाली तिथि ही कहा गया है
वार के विषय में विस्तार से तालिका ०४ के अनुक्रम में पूर्व में ही बताया जा चुका है


नक्षत्र –
नक्षत्र के बारे में पूर्व में ही बताया जा चुका है नक्षत्र की गडना के लिए तालिका १० से चन्द्रमा की स्तिथि ही उस समय के नक्षत्र को प्रदर्शित करती है

उ० ४ यदि मान ले की चन्द्रमा कन्या में १७ अंश पर है तो तालिका १० से हस्त नक्षत्र कन्या में १० अंश से २३.२० अंश तक होता है चुकी चन्द्रमा १७ अंश का है इसलिए संगत अवधि में हस्त नक्षत्र होगा

योग –
सूर्य और चन्द्रमा के मान को जोड़ कर तालिका १० से प्राप्त स्तिथि के अधार योग को ज्ञात किया जा सकता है

पूर्व में दिए गए उ० १ के अनुसार –
सूर्य के कुल अंश = १२० + १० = १३० (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = १८० + १५ = १९५ (तालिका ०२ से)
सूर्य व चन्द्र का योग = १९४ + १३० = ३२४
तालिका २ के अनुसार ३२४ कुम्भ राशि में आता है अत तालिका १० व ०३ से ब्रह्म योग बनता है

पूर्व के दिए गए उ० २ के अनुसार –
सूर्य के कुल अंश = ६० + १२ = ७२ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = ३३० + १० = ३४० (तालिका ०२ से)
सूर्य व चन्द्र का योग = ७२ + ३४० = ४१२ चुकी यह ३६० से ज्यादा है
अतः ४१२ - ३६० =५२
तालिका २ के अनुसार ५२ वृषभ राशि में आता है अत तालिका १० व ०३ से सौभाग्य योग बनता है

करण –
तिथि के आधे भाग को कारण कहा जाता है प्रत्येक तिथि का मान १२ अंश अर्थात २४ होरा या घंटे होता है इसमें पूर्वार्ध के १२ घंटे या होरा का एक करण तथा उतरार्ध के १२ घंटे या होरा का एक करण होता है शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में ३० तिथिया होती है तिथि व पक्ष के आधार पर करण का निर्धरण निम्न प्रकार है



पंचांग में भद्रा का भी उल्लेख मिलता है विष्टि करण को भद्रा कहा जाता है भद्रा में कोई भी शुभ काम नहीं किया जाता है

शुक्रवार, 3 मई 2013

doha gatha :1 acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा गाथा  :१ 

दोहा गाथा सनातन

संजीव  


दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.

हिन्दी ही नहीं सकल विश्व के इतिहास में केवल दोहा सबसे पुराना छंद है जिसने एक नहीं अनेक बार युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, हिम्मत हार चुके राजा को लड़ने और जीतने का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन कराने में भी सहायक हुआ है. आप इसे दोहे की अतिरेकी प्रशंसा मत मानिये. हम इस दोहा गोष्ठी में न केवल कालजयी दोहाकारों और उनके दोहों से मिलेंगे अपितु दोहे की युग परिवर्तनकारी भूमिका के साक्षी बनकर दोहा लिखना भी सीखेंगे.

अमरकंटकी नर्मदा, दोहा अविरल धार.
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार.

आप यह जानकर चकित होंगे कि जाने-अनजाने आप दैनिक जीवन में कई बार दोहे कहते-सुनते हैं. आप में से हर एक को कई दोहे याद हैं. हम दोहे के रचना-विधान पर बात करने के पहले दोहा-लेखन की कच्ची सामग्री अर्थात हिन्दी के स्वर-व्यंजन, मात्रा के प्रकार तथा मात्रा गिनने का तरीका, गण आदि की जानकारी को ताजा करेंगे. बीच-बीच में प्रसंगानुसार कुछ नए-पुराने दोहे पढ़कर आप ख़ुद दोहों से तादात्म्य अनुभव करेंगे.

कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.


(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र)

भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ.

चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
दोहा सलिला निरंतर, करे अनाहद जाप.


भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है.

निर्विकार अक्षर रहे, मौन-शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.


व्याकरण ( ग्रामर ) -

व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भांति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है.

वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.


वर्ण / अक्षर :

वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.

अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.


स्वर ( वोवेल्स ) :

स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.

अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.



व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.

भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे, मेटें सकल अभाव.


शब्द :

अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.


अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. यह भाषा का मूल तत्व है. शब्द के 

१. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि), 

२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि), 

३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि), 

४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं. इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं. यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं. 

इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए व्याकरण की किताब देखें. हमारा उद्देश्य केवल उतनी जानकारी को ताजा करना है जो दोहा लेखन के लिए जरूरी है.

नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल.
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल.


इस पाठ को समाप्त करने के पूर्व श्रीमद्भागवत की एक द्विपदी पढिये जिसे वर्तमान दोहा का पूर्वज कहा जा सकता है -

नाहं वसामि बैकुंठे, योगिनां हृदये न च .
मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद.


अर्थात-
बसूँ न मैं बैकुंठ में, योगी उर न निवास.
नारद गायें भक्त जंह, वहीं करुँ मैं वास.


इस पाठ के समापन के पूर्व कुछ पारंपरिक दोहे पढिये जो लोकोक्ति की तरह जन मन में इस तरह बस गए कि  उनके रचनाकार ही विस्मृत हो गए. पाठकों को जानकारी हो तो बतायें. आप अपने अंचल में प्रचलित दोहे उनके रचनाकारों की जानकारी सहित भेजें.

सरसुती के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात.

जो तो को काँटा बुवै, ताहि बॉय तू फूल.
बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरसूल.

होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयां, मर सके नहिं कोय.

समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरि का नाम.

जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय.
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहां ले जाय.

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब. 
पल में परलय होयगी, बहुरि करैगो कब्ब?

पाठक इन दोहों में समय के साथ हिन्दी के बदलते रूप से भी परिचित हो सकेंगे. अगले पाठ में हम दोहों के उद्भव, विशष्ट तथा तत्वों की चर्चा करेंगे.
*
(साभार: हिन्दयुग्म, दिसंबर १७ , २००८)

hindi poem: pratibha saxena

मन पसंद रचना:
  
शब्द मेरे हैं 

प्रतिभा सक्सेना 
*  

शब्द मेरे हैं 
अर्थ मैंने ही दिये ये शब्द मेरे हैं !
व्यक्ति औ अभिव्यक्ति को एकात्म करते जो ,
यों कि मेरे आत्म का प्रतिरूप धरते हों !
स्वरित मेरे स्वत्व के 
मुखरित बसेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
स्वयं वाणी का कलामय तंत्र अभिमंत्रित,
लग रहा ये प्राण ही शब्दित हुये मुखरित,
सृष्टि के संवेदनों की चित्र-लिपि धारे
सहज ही सौंदर्य के वरदान से मंडित !
शाम है विश्राममय 
मुखरित सबेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
बाँसुरी ,उर-तंत्र में झंकार भरती जो ,
अतीन्द्रिय अनुभूति बन गुंजार करती जो 
निराकार प्रकार को साकार करते जो 
मनोमय हर कोश के 
सकुशल चितेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
व्याप्ति है 'मैं' की जहाँ तक विश्व- दर्पण में ,
प्राप्ति है जितनी कि निजता के समर्पण में 
भूमिका धारे वहन की अर्थ-तत्वों के,
अंजली भर -भर दिशाओं ने बिखेरे हैं !
*
पूर्णता पाकर अहेतुक प्रेम से लहरिल
मनःवीणा ने अमल स्वर ये बिखेरे हैं !
ध्वनि समुच्चय ही न
इनके अर्थ गहरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
-

hindi poem: acharya sanjiv verma 'salil'

कविता:


जीवन अँगना को महकाया

संजीव 'सलिल'
*
*
जीवन अँगना को महकाया
श्वास-बेल पर खिली कली की
स्नेह-सुरभि ने.
कली हँसी तो फ़ैली खुशबू
स्वर्ग हुआ घर.
कली बनी नन्हीं सी गुडिया.
ममता, वात्सल्य की पुडिया.
शुभ्र-नर्म गोला कपास का,
किरण पुंज सोनल उजास का.
उगे कली के हाथ-पैर फिर
उठी, बैठ, गिर, खड़ी हुई वह.
ठुमक-ठुमक छन-छननन-छनछन
अँगना बजी पैंजनिया प्यारी
दादी-नानी थीं बलिहारी.
*
कली उड़ी फुर्र... बनकर बुलबुल
पा मयूर-पर हँसकर-झूमी.
कोमल पद, संकल्प ध्रुव सदृश
नील-गगन को देख मचलती
आभा नभ को नाप रही थी.
नवल पंखुडियाँ ऊगीं खाकी
मुद्रा-छवि थी अब की बाँकी.
थाम हाथ में बड़ी रायफल
कली निशाना साध रही थी.
छननन घुँघरू, धाँय निशाना
ता-ता-थैया, दायें-बायें
लास-हास, संकल्प-शौर्य भी
कली लिख रही नयी कहानी
बहे नर्मदा में ज्यों पानी.
बाधाओं की श्याम शिलाएँ
संगमरमरी शिला सफलता
कोशिश धुंआधार की धारा
संकल्पों का सुदृढ़ किनारा.
*
कली न रुकती,
कली न झुकती,
कली न थकती,
कली न चुकती.
गुप-चुप, गुप-चुप बहती जाती.
नित नव मंजिल गहती जाती.
कली हँसी पुष्पायी आशा.
सफल साधना, फलित प्रार्थना.
विनत वन्दना, अथक अर्चना.
नव निहारिका, तरुण तारिका.
कली नापती नील गगन को.
व्यस्त अनवरत लक्ष्य-चयन में.
माली-मालिन मौन मनायें
कोमल पग में चुभें न काँटें.
दैव सफलता उसको बाँटें.
पुष्पित हो, सुषमा जग देखे
अपनी किस्मत वह खुद लेखे.
******************************
टीप : बेटी तुहिना (हनी) का राष्ट्रीय एन.सी.सी. थल सैनिक कैम्प में चयन होने पर पहुँचाने जाते समय रेल-यात्रा के मध्य १४.९.२००६ मध्य रात्रि को हुई कविता.
------- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

गुरुवार, 2 मई 2013

hindi triplets (tripadi/janak chhand) -acharya sanjiv verma 'salil'



त्रिपदिक (जनक छंदी ) नवगीत : 
                                  नेह नर्मदा तीर पर
                                                - संजीव 'सलिल'

                     * 
[ इस रचना में जनक छंद का प्रयोग हुआ है. संस्कृत के प्राचीन त्रिपदिक छंदों (गायत्री, ककुप आदि) की तरह जनक छंद में भी ३ पद (पंक्तियाँ) होती हैं. दोहा के विषम (प्रथम, तृतीय) पद की तीन आवृत्तियों से जनक छंद बनता है. प्रत्येक पद में १३ मात्राएँ तथा पदांत में लघु गुरु लघु या लघु लघु लघु लघु होना आवश्यक है. पदांत में सम तुकांतता से इसकी सरसता तथा गेयता में वृद्धि होती है. प्रत्येक पद दोहा या शे'र की तरह आपने आप में स्वतंत्र होता है किन्तु मैंने जनक छंद में गीत और अनुगीत (ग़ज़ल की तरह तुकांत, पदांत सहित) कहने के प्रयोग किये हैं. ]

नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन कर धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
                   *
कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?

          निष्क्रिय, मौन, हताश है. 
          या दिलजला निराश है?
          जलती आग पलाश है.

जब पीड़ा बनती भँवर,
       खींचे तुझको केंद्र पर,
           रुक मत घेरा पार कर...
                   *
नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन का धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
                   *
सुन पंछी का मशविरा,
मेघदूत जाता फिरा-
'सलिल'-धार बनकर गिरा.

          शांति दग्ध उर को मिली. 
          मुरझाई कलिका खिली.
          शिला दूरियों की हिली.

मन्दिर में गूँजा गजर,
       निष्ठां के सम्मिलित स्वर,
           'हे माँ! सब पर दया कर...
                   *
नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन का धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
                   *
पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.

          सिकता कण लख नाचते. 
          कलकल ध्वनि सुन झूमते.
          पर्ण कथा नव बाँचते.

बम्बुलिया के स्वर मधुर,
       पग मादल की थाप पर,
           लिखें कथा नव थिरक कर...
                   *
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

बुधवार, 1 मई 2013

कविता: मीत मेरे संजीव

कविता:

मीत मेरे!

संजीव
*
मीत मेरे!

राह में छाये हों

कितने भी अँधेरे।

चढ़ाव या उतार,

सुख या दुःख

तुमको रहे घेरे।

पूर्णिमा स्वागत करे या

अमावस आँखें तरेरे।

सूर्य प्रखर प्रकाश दे या

घेर लें बादल घनेरे।

रात कितनी भी बड़ी हो,

आयेंगे फिर-फिर सवेरे।

मुस्कुराकर करो स्वागत,

द्वार पर जब जो हो आगत

आस्था का दीप मन में

स्नेह-बाती ले जलाना।

बहुत पहले था सुना

अब फिर सुनाना

दिए से

तूफ़ान का लड़ हार जाना।

=================   

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

अतीत का आइना:


RARE PHOTOGRAPHS: 

भारत स्वतंत्र हुआ: १५-८-१९४७

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*
स्टालिन, लेनिन, ट्राटस्की 


*
अपूर्ण हावडा पुल १९३५ 

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*
निर्माणाधीन हावड़ा पुल १९४२


*
*
नेताजी सुभाष चंद्र  बोस : गिरफ्तारी 


*
बा - बापू 

*
गाँधी जी, नेता जी, पटेल १९३२

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*
सुभाष चन्द्र बोस अपनी पत्नी के साथ 

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*
नेहरू जी, डॉ राजेंद्र प्रसाद जी, भूला भाई देसाई 


*
कविन्द्र रविन्द्रनाथ ठाकुर 

Description:  cid:image020.png@01CD1FC7.248325A0
*
शरतचंद्र - सुरेन्द्र नाथ 

*
रामकृष्ण परम हंस देव - विवेकानंद 
*
माँ शारदा 

*



 

critic: aamacho bastar novel -sanjiv verma 'salil'

कृति चर्चा:
अबूझे को बूझता स्वर : ''आमचो बस्तर''
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(कृति विवरण: आमचो बस्तर, उपन्यास, राजीव रंजन प्रसाद, डिमाई आकार, बहुरंगा पेपरबैक  आवरण, पृष्ठ ४१४, २९५ रु., यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली)
*
Rajeev Ranjan Prasad's profile photo                  

                  आमचो बस्तर देश के उस भाग के गतागत पर केन्द्रित औपन्यासिक कृति है जिसे  बस्तर कहा जाता है, जिसका एक भाग अबूझमाड़ आज भी सहजगम्य नहीं है और जो नक्सलवाद की विभीषिका से सतत जूझ रहा है। रूढ़ अर्थों में इसे उपन्यास कहने से परहेज किया जा सकता है क्योंकि यह उपन्यास के कलेवर में अतीत का आकलन, वर्त्तमान का निर्माण तथा भावी के नियोजन की त्रिमुखी यात्रा एक साथ कराता है। इस कृति में उपन्यास, कहानियां, लघुकथाएं, वार्ता प्रसंग, रिपोर्ताज, यात्रा वृत्त, लोकजीवन, जन संस्कृति  तथा चिंतन के ९ पक्ष इस तरह सम्मिलित हैं कि पाठक पूरी तरह कथा का पात्र हो जाता है। हमारे पुराण साहित्य की तरह यह ग्रन्थ भी वास्तविकताओं का व्यक्तिपरक या घटनापरक वर्णन करते समय मानव मूल्यों, आदर्शों, भूलों आदि का तटस्थ भाव से आकलन ही नहीं करता है अपितु अँधेरे की सघनता से भयभीत हुए बिना प्रकाश की प्राप्ति के प्रति आश्वस्ति का भाव भी जगाता है।

छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण के पश्चात् बस्तर तथा छत्तीसगढ़ के अन्य अंचलों के बारे में लिखने की होड़ सी लग गयी है। अधिकांश कृतियों में अपुष्ट अतिरेकी भावनात्मक लिजलिजाहट से बोझिल अपचनीय कथ्य, अप्रामाणिक तथ्य, विधा की न्यून समझ तथा भाषा की त्रुटियों से उन्हें पढ़ना किसी सजा की तरह लगता रहा है। आमचो बस्तर का वाचन पूर्वानुभवों के सर्वथा विपरीत प्रामाणिकता, रोचकता, मौलिकता, उद्देश्यपरकता तथा नव दृष्टि से परिपूर्ण होने के कारण सुखद ही नहीं अपनत्व से भरा भी लगा।

लगभग ४० वर्ष पूर्व इस अंचल को देखने-घूमने की सुखद स्मृतियों के श्यामल-उज्जवल पक्ष कुछ पूर्व विदित होने पर भी यथेष्ठ नयी जानकारियाँ मिलीं। देखे जा चुके स्थलों को उपन्यासकार की नवोन्मेषी दृष्टि से देखने पर पुनः देखने की इच्छा जागृत होना कृति की सफलता है। अतीत के गौरव-गान के साथ-साथ त्रासदियों के कारकों का विश्लेषण, आम आदमी के नज़रिए से घटनाओं को समझने और चक्रव्यूहों को बूझने का लेखकीय कौशल राजीव रंजन का वैशिष्ट्य है।




राजतन्त्र से प्रजातंत्र तक की यात्रा में लोकमानस के साथ सत्ताधीशों के खिलवाड़, पद-मोह के कारण देश के हितों की अदेखी, मूल निवासियों का सतत शोषण, कुंठित और आक्रोशित जन-मन के विद्रोह को बगावत कह कर कुचलने के कुप्रयास, भूलों से कुछ न सीखने की जिद, अपनों की तुलना में परायों पर भरोसा, अपनों द्वारा विश्वासघात और सबसे ऊपर आमजनों की लोक हितैषी कालजयी जिजीविषा - राजीव जी की नवोन्मेषी दृष्टि इन तानों-बानों से ऐसा कथा सूत्र बुनते हैं जो पाठक को सिर्फ बाँधे नहीं रखता अपितु प्रत्यक्षदर्शी की तरह घटनाओं का सहभागी होने की प्रतीति कराते हैं।

बस्तर में नक्सलवाद का नासूर पैदा करनेवाले राजनेताओं और प्रशासकों को यह कृति परोक्षतः ही सही कटघरे में खड़ा करती है। पद-मद में लोकनायक प्रवीरचंद्र भंजदेव को गोलियों से भून्जकर जन-आस्था का क़त्ल करनेवाले काल की अदालत में दोषी हैं- इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि देश की आजादी के समय हैदराबाद और कुछ अन्य रियासतें अपना भारत में सम्मिलन के विरोध में थीं। प्रवीरचंद्र जी को बस्तर को स्वतंत्र राष्ट्र का दर्ज मांगने के लिए मनाने का प्रयास किया गया। उनहोंने न केवल प्रस्ताव ठुकराया अपितु अपने मित्र प्रसिद्ध  साहित्यकार  स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलाहरीवी' के माध्यम से द्वारिका प्रसाद मिश्र को सन्देश भिजवाया ताकि नेहरु-पटेल आदि को अवगत कराया जा सके। फलतः राजाओं का कुचक्र विफल हुआ। यही मिश्र मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हुए तो भंजदेव को अकारण राजनैतिक स्वार्थ वश गोलियों का शिकार बनवा दिया। केर-बेर का संग यह की कलेक्टर के रूप में भंजदेव की लोकमान्यता को अपने अहंकार पर चोट माननेवाले नरोन्हा ने कमिश्नर के रूप में सरकार को भ्रामक और गलत जानकारियां देकर गुमराह किया। जनश्रुति यह भी है कि इस षड्यंत्र में सहभागी निम्नताम से उच्चतम पदों पर आसीन हर एक को कुछ समय के भीतर नियति ने दण्डित किया, कोई भी सुखी नहीं रह सका।

प्रशंसनीय है कि लेखक व्यक्तिगत सोच को परे रखकर निष्पक्ष-तटस्थ भाव से कथा कहा सका है। बस्तर निवासी होने पर भी वे पूर्वाग्रह या दुराग्रह से मुक्त होकर पूरी सहजता से कथ्य को सामने ला सके हैं। वस्तुतः युवा उपन्यासकार अपनी प्रौढ़ दृष्टि और संतुलित विवेचन के लिए साधुवाद का पात्र है।

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२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१ ८३२४४  

Forms of Poetry In English 4 : deepti gupta - sanjiv verma

अँग्रेज़ी काव्य विधाएँ-4

Blank Verse

deepti gupta - sanjiv verma 
*
       मीटर के बिना लिखी जाने वाली कविता Blank verse  कविता  कहलाती है. विलियम शेक्सपियर ने  अपने  अधिकतर नाटकों में इसका प्रयोग किया है.
Example:

From Macbeth by William Shakespeare

Tomorrow, and tomorrow, and tomorrow,

Creeps in this petty pace from day to day, 

To the last syllable of recorded time; 
And all our yesterdays have lighted fools 
The way to dusty death. Out, out, brief candle! 
Life's but a walking shadow, a poor player 
That struts and frets his hour upon the stage 
And then is heard no more: it is a tale 
Told by an idiot, full of sound and fury, 
Signifying nothing.
*
हिंदी साहित्य में छान्दस काव्य में सामान्यतः पंक्तियों का पदभार समान होता है। ब्लेंक वर्स अर्थात 

अतुकांत कविता में पद संख्या, पद भार (मात्राओं / वर्णों की सामान संख्या) अथवा समान तुक का 

बंधन नहीं होता। 


उदाहरण :



सुख - दुःख
*

सुख 

आदमी को बाँटता  है। 

मगरूर बनाता है, 

परिवेश से काटता है।

दुःख 

आदमी को 

आदमी से जोड़ता है।

दिल से मिलने को 

दिल दौड़ता है।

फिर क्यों? 

क्यों हम दुःख से दूर भागते हैं? 

क्यों हमेशा ही 

सुख की भीख मंगाते हैं?

काश! हम सुख को भी 

दुःख की तरह बाँट पाते।

दुःख को भी 

सुख की तरह चाह पाते। 

सच मानो तब 

अपने ही नहीं, 

औरों के भी आंसू पी पाते। 

आदमी से 

इंसान बनकर जी पाते।