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शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

हिंदी शब्द सलिला : ८ अ से प्रारंभ होनेवाले शब्द : ८ --संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : ८ 
संजीव 'सलिल'
*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

अ से प्रारंभ होनेवाले शब्द :

संजीव 'सलिल'
अक्टूबर - पु. ईस्वी साल का दसवां महीना.
अक्त - वि. सं. अंजन लगा हुआ, लिप्त, छिपा हुआ, व्याप्त, व्यक्त, भरा हुआ, युक्त (समासांत में- तैलाक्त), हाँका हुआ, चलाया हुआ.
अक्ता - स्त्री. सं. रात्रि.
अक्त्र
- पु.. सं. वर्म, कवच.
अकद - पु. अ.  प्रतिज्ञा, इकरार, विवाह, निकाह. -नामा- पु. विवाह का प्रतिज्ञा पत्र. -बंदी- स्त्री. विवाह सूत्र में बँधना.
अक्र - वि. सं. निष्क्रिय.
अक्रम - वि. सं. क्रमरहित, अव्यवस्थित, बेसिलसिला, गतिहीन, आगे बढ़ने में असमर्थ. पु.क्रम का अभाव, बेतरतीबी, अव्यवस्था, गतिहीनता, -सन्यास- पु. सन्यास जो आश्रम व्यवस्था के अनुसार धारण न किया गया हो. 
अक्रमातिशयोक्ति  - स्त्री. सं. अतिशयोक्ति अलंकर का एक भेद जहाँ कार्य और कारण का एक साथ ही होना वर्णित हो.
अक्रव्याद - वि. सं. निरामिषभोजी, शाकाहारी, जो मांसादि न खाता हो.
अक्रांत - वि. सं. अपराजित, जिससे कोइ आगे न निकल सका हो.
अक्रांता - स्त्री. सं. बृहती, कंटकारि.
अक्रिय - वि. सं. निष्क्रिय, काहिल, निकम्मा, जो कुछ न करे, कर्मशून्य, परमात्मा.
अक्रिया - स्त्री. सं. निष्क्रियता, कर्त्तव्य न करना, दुष्कर्म.
अक्रूर - वि. सं. दयालु, कोमल चित्त. पु. एक यादव जो श्री कृष्ण के चाचा और भक्त थे.
अक्रोध - पु. सं. क्रोध का नियंत्रण या अभाव, सहिष्णुता. वि. क्रोधरहित.
अक्रोधन - वि. सं. देखें अक्रोध. पु. एक रजा, अयुतायु का पुत्र.
अक्रोधमय - वि. सं.क्रोधरहित, बिना नाराजी का.

विजयादशमी पर विशेष : आओ हम सब राम बनें --- डॉ. अ. कीर्तिवर्धन

विजयादशमी पर विशेष :
 
आओ हम सब राम बनें
 
डॉ. अ. कीर्तिवर्धन, मुजफ्फरपुर
*
त्रेता युग मे राम हुए थे
रावण का संहार किया
द्वापर मे श्री कृष्ण आ गए
कंस का बंटाधार किया ।
कलियुग भी है राह देखता
किसी राम कृष्ण के आने की
भारत की पावन धरती से
दुष्टों को मार भगाने की।
आओ हम सब राम बनें
कुछ लक्ष्मण सा भाव भरें
नैतिकता और बाहुबल से
आतंकवाद को खत्म करें।
एक नहीं लाखों रावण हैं
जो संग हमारे रहते
दहेज -गरीबी- अ शिक्षा का
कवच चढाये बैठे हैं।
कुम्भकरण से नेता बैठे
स्वार्थों की रुई कान मे डाल
मारीच से छली अनेकों
राष्ट्र प्रेम का नही है ख्याल ।
शीघ्र एक विभिक्षण ढूँढो
नाभि का पता बताएगा
देश भक्ति के एक बाण से
रावण का नाश कराएगा।
******
09911323732

दशहरे पर विशेष प्रस्तुति : दोहा सलिला ---- - आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

दशहरे पर विशेष प्रस्तुति : दोहा सलिला

रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार 

- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"




रचनाकार परिचय:-

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि।

वर्तमान में आप अनुविभागीय अधिकारी मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के रूप में कार्यरत हैं

भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य.
स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य..

आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ.
फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ..

मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत.
हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत..

शर निष्ठां का लीजिये, कोशिश बने कमान.
जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान..

राम वही आराम हो. जिसको सदा हराम.
जो निज-चिंता भूलकर सबके सधे काम..

दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान.
दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान..

सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प.
पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प..

हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ.
विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ..

कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान.
परम सत्य उससे नहीं, रह पता अनजान..

हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ विश्वास.
इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास..

रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार.
स्वार्थ- बैर, मद-क्रोध को, बन लछमन संहार..

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मशीन पठनीय शब्दकोश [तकनीकी आलेख] - डॉ. काजल बाजपेयी

मशीन पठनीय शब्दकोश [तकनीकी आलेख] - डॉ. काजल बाजपेयी


सभ्यता और संस्कृति के उदय से ही मानव जान गया था कि भाव के सही संप्रेषण के लिए सही अभिव्यक्ति आवश्यक है। सही अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है। सही शब्द के चयन के लिए शब्दों के संकलन आवश्यक हैं। शब्दों और भाषा के मानकीकरण की आवश्यकता समझ कर आरंभिक लिपियों के उदय से बहुत पहले ही आदमी ने शब्दों का लेखाजोखा रखना शुरू कर दिया था। इस के लिए उस ने कोश बनाना शुरू किया। कोश में शब्दों को इकट्ठा किया जाता है।


शब्दकोश एक बड़ी सूची होती है जिसमें शब्दों के साथ उनके अर्थ व व्याख्या लिखी होती है। शब्दकोश एक भाषीय हो सकते हैं द्विभाषिक हो सकते हैं या बहुभाषिक हो सकते हैं। अधिकतर शब्दकोशों में शब्दों के उच्चारण के लिये भी व्यवस्था होती है जैसे अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि में देवनागरी में या आडियो संचिका के रूप में। कुछ शब्दकोशों में चित्रों का सहारा भी लिया जाता है। अलग अलग कार्य क्षेत्रों के लिये अलग अलग शब्दकोश हो सकते हैं जैसे विज्ञान शब्दकोश चिकित्सा शब्दकोश विधिक ;कानूनी शब्दकोश गणित का शब्दकोश आदि।


शब्दकोशों के अनेक रूप आज विकसित हो चुके हैं और हो रहे हैं। वैज्ञानिक और शास्त्रीय विषयों के सामूहिक और उस विषय के अनुसार शब्दकोश भी आज सभी समृद्ध भाषाओं में बनते जा रहे हैं । शास्त्रों और विज्ञानशाखाओं के परिभाषिक शब्दकोश भी निर्मित हो चुके हैं और हो रहे हैं । इन शब्दकोशों की रचना एक भाषा में भी होती है और दो या अनेक भाषाओं में भी । कुछ में केवल पर्याय शब्द रहते हैं और कुछ में व्याख्याएँ अथवा परिभाषाएँ भी दी जाती है। विज्ञान और तकनीकी या प्रविधिक विषयों से संबद्ध नाना पारिभाषिक शब्दकोशों में व्याख्यात्मक परिभाषाओं तथा कभी कभी अन्य साधनों की सहायता से भी बिलकुल सही अर्थ का बोध कराया जाता है । दर्शन भाषाविज्ञान मनोविज्ञान समाजविज्ञान और समाजशास्त्र राजनीतिशास्त्र अर्थशास्त्र आदि समस्त आधुनिक विद्याओं के कोश विश्व की विविध संपन्न भाषाओं में विशेषज्ञों की सहायता से बनाए जा रहे हैं और इस प्रकृति के सैकडों हजारों कोश भी बन चुके हैं । शब्दार्थकोश संबंधी प्रकृति के अतिरिक्त इनमें ज्ञानकोशात्मक तत्वों की विस्तृत या लघु व्याख्याएँ भी संमिश्रित रहती है । प्राचीन शास्त्रों और दर्शनों आदि के विशिष्ट एवं पारिभाषिक शब्दों के कोश भी बने हैं और बनाए जा रहे हैं ।


मशीन पठनीय शब्दकोश ;एमआरडी कागज पर मुद्रित करने के बजाय एक मशीन; कंप्यूटर डेटा के रूप में संग्रहित शब्दकोश है । यह एक इलेक्ट्रॉनिक शब्दकोश और शाब्दिक डेटाबेस है।


मशीन पठनीय शब्दकोश इलेक्ट्रॉनिक रूप में शब्दकोश है जोकि डेटाबेस में लोड किया जा सकता और अनुप्रयोग सॉफ्टवेयर के माध्यम से पूछा जा सकता है। यह दो या अधिक भाषाओं को या दोनों के संयोजन के बीच अनुवाद का समर्थन देने के लिए एक भाषा व्याख्यात्मक शब्दकोश या बहु भाषा शब्दकोश हो सकते हैं। एकाधिक भाषाओं के बीच अनुवाद सॉफ्टवेयर आमतौर पर द्विदिशात्मक शब्दकोशों पर लागू होते हैं। एमआरडी शब्दकोश एक ट्रेडमार्क युक्त संरचना हो सकती है जोकि एक ही कार्य करने में सक्षम सॉफ्टवेयर; उदाहरण के लिए इंटरनेट के माध्यम से ऑनलाइन द्ध के द्वारा पूछे जा सकते हैं या यह एक शब्दकोश भी हो सकता है जिसकी खुली संरचना है और कंप्यूटर डेटाबेस में लोड करने के लिए उपलब्ध है और इस प्रकार विभिन्न सॉफ्टवेयर अनुप्रयोगों के जरिए प्रयोग किया जा सकता है । पारम्परिक शब्दकोशों में विभिन्न विवरण के साथ लैमा होते हैं। मशीन पठनीय शब्दकोश में अतिरिक्त क्षमताएँ हो सकती हैं और इसलिए कभी कभी इसे अच्छा शब्दकोश भी कहा जाता है।


इलेक्ट्रॉनिक शब्दकोश या शब्दावली के प्रयोग के रूप में उदाहरण के लिए वर्तनी जाँचकर्ता में उद्घृत करने के लिए शब्दकोश का भी प्रयोग किया जाता है। यदि शब्दकोश अवधारणाओं के उपप्रकार महाप्रकार पदानुक्रम में व्यवस्थित होते हैं तो इसे वर्गीकरण विज्ञान कहा जाता है। यदि इसमें अवधारणाओं के बीच अन्य संबंध भी होए तो इसे वस्तुरूप विज्ञान कहा जाता है। खोज इंजन या तो शब्दावलीए वर्गीकरण विज्ञान या वस्तुरूप विज्ञान का उपयोग करने के लिए खोज परिणामों को अनुकूलित कर सकते हैं। विशेष इलेक्ट्रॉनिक शब्दकोश आकृति संबंधी शब्दकोश या वाक्यात्मक शब्दकोश हैं।


मशीन पठनीय शब्दकोशों में निम्ननिर्दिष्ट बातों का अनुयोग आवश्यक है


देवनागरी लिपि के लिए यूनीकोड फॉन्ट
खोजे गये शब्द का उच्चारण
स्पष्ट लेआउट / जी यू आई प्रयोग में आसान
तीन अक्षरों पर शब्द सूची
पूर्ण शब्द खोज
द्विआयामी खोज
शब्दों की सूची में से खोजने की सुविधा
सही मौखिक उच्चारण और संबंधित जानकारी
अर्थ एवं संबंधित जानकारी
शब्द पदबंध का प्रयोग
शब्द पदबंध का सचित्र चित्रण ;जहॉं उचित हो
 ******                                                           
डॉ. काजल बाजपेयी, संगणकीय भाषावैज्ञानिक, सी.डैक पुणे, साभार : साहित्य शिल्पी.

मुक्तिका: कुछ पड़े हैं ----संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

कुछ पड़े हैं

संजीव 'सलिल'
*
कुछ पड़े हैं, कुछ खड़े हैं.
ऐंठकर कुछ चुप अड़े हैं..

बोल दो, कुछ भी कहीं भी.
ज्यों की त्यों चिकने घड़े हैं..

चमक ऊपर से बहुत है.
किन्तु भीतर से सड़े हैं.. 

हाथ थामे, गले मिलते.
किन्तु मन से मन लड़े हैं..

ठूंठ को नीरस न बोलो.
फूल-फल लगकर झड़े हैं..

धरा के मालिक बने जो.
वह जमीनों में गड़े हैं..

मैल गर दिल में नहीं तो
प्रभु स्वयम बन नग जड़े हैं..

दिख रहे जो 'सलिल' लड़ते.
एक ही दल के धड़े हैं.

**************

मुक्तिका: लगा दिल... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

लगा दिल...

संजीव 'सलिल'
*

लगा दिल बजा शहनाई सकेंगे.
भले ही यार रुसवाई करेंगे..

अवध में वध सचाई का कराकर-

पठा वन सिया-रघुराई सकेंगे..

क़र्ज़ की मय मिले या घी हो ऋण का-

मियां ग़ालिब की पहुनाई करेंगे..

जले पर नमक छिड़को दोस्त-यारों.

तभी तो कह तुम्हें भाई सकेंगे..

बहुत हैं बोलनेवाले यहाँ पर.

रखो कुछ चुप तो सुनवाई करेंगे..

सही हो, गलत हो कुछ फैसला हो.

'सलिल' कर तनिक भरपाई सकेंगे..

मिलाएं 'सलिल' पहले हाथ हम-तुम.

नाप तब दिल की गहराई सकेंगे..

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हिंदी शब्द सलिला : ७ अ से प्रारंभ होनेवाले शब्द : ७ ---संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : ७  

संजीव 'सलिल'
*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

अ से प्रारंभ होनेवाले शब्द : 

संजीव 'सलिल'

अकेतन - वि. सं. बेघर-बार, गृहहीन.
अकेतु - वि. सं. आकृतिहीन, जो पहचाना न जा सके, निराकार, चित्रगुप्त (प्रत्यधि देव केतु).
अकेल - वि. दे. अकेला, एकाकी.
अकेला - वि. एकाकी, बिना साथी का, तनहा उ., बेजोड़, फर्द, खाली (मकान) पु. निर्जन स्थान, स्त्री अकेली, एकाकिनी, -दम- पु. एक ही प्राणी, -दुकेला- वि. अकेला या जिसके साथ एक और हो, इक्का-दुक्का, -ली- स्त्री. एक तरफ़ा बात, -जान- स्त्री. जिसका कोइ साथी न हो, तन-तनहा.
अकेले - अ. बिना किसी  साथी के, तनहा, केवल, बिना किसी को साथ लिये, बगैर किसी और को शरीक किये, -दुकेले- किसी और के साथ.
अकेश - वि. सं. केशरहित, अल्प केशयुक्त, बुरे बालोंवाला.
अकैतव - पु. सं. निष्कपटता, वि. निष्कपट, निश्छल.
अकैया - पु. सामान रखने का थैला, गोन.
अकोट - पु. सं. सुपारी या उसका पेड़. वि. अनगिन, अगणित, असंख्य, करोड़ों.
अकोतर सौ - वि. सौ से एक अधिक, एक सौ एक. पु. १०१ संख्या.
अकोप - पु. सं. कोप का अभाव, रजा दशरथ का एक मंत्री.
अकोप्या पणयात्रा - स्त्री. सं. सिक्के का निर्बाध प्रचलन.
अकोर - पु. देखें अँकोर.
अकोरी - स्त्री. अंकवार, गोद.
अकोला - पु. अंकोल वृक्ष.
अकोविद - वि. सं. अपन्दित, मूर्ख, अनाड़ी.
अकोसना - सक्रि, बुरा-भला कहना, गालियाँ देना.
अकौआ - पु. मदार, आक, ललरी, गले की घंटी.
अकौटा - पु. गड़री का डंडा, धुरा, एक्सेल इं..
अकौटिल्य - पु. सं. कौटिल्य / कुटिलता का अभाव, सरलता, भोलापन.
अकौता - पु. देखें उकवत.
अकौशल - पु. सं. कुशलता का अभाव, अकुशलता, अदक्षता, अनिपुणता.
अक्का - स्त्री. सं. माता, जननी, माँ.
अक्कास - पु. अ. अक्स उतारनेवाला, छायाकार, फोटोग्राफर इं.
अक्कासी - स्त्री. छायांकन का काम, फोटोग्राफी इं.
अक्खड़ - वि. उजड्ड, गँवार, अशिष्ट, उद्धत, लड़ाका, दो टूक कहने वाला, निडर, झगड़ालू, जड़, मूर्ख.-पन- पु. उजड्डपन, उग्रता, अशिष्टता, लड़ाकापन, निर्भयता, स्पष्टवादिता.
अक्खर - पु. आखर, देखें अक्षर.
अक्खा - पु. गोन.
अक्खो-मक्खो - पु. बच्चे को बहलाने / बुरी नजर से बचाने के लिये कहा जानेवाला वाक्यांश, (स्त्रियाँ दीपक की लौ के समीप हाथ लेजाकर बच्चे के मुँह पर फेरते हुए कहती हैं- 'अक्खो-मक्खो दिया बरक्खो, जो मेरे बच्चे को तक्के, उसकी फूटें दोनों अक्खों).
* क्रमशः

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

खबरदार कविता: सत्ता का संकट --संजीव 'सलिल'

खबरदार कविता:

सत्ता का संकट
(एक अकल्पित राजनीतिक ड्रामा)
संजीव 'सलिल'
*
एक यथार्थ की बात
बंधुओं! तुम्हें सुनाता हूँ.
भूल-चूक के लिए न दोषी,
प्रथम बताता  हूँ..

नेताओं  की समझ में
आ गई है यह बात
करना है कैसे
सत्ता सुंदरी से साक्षात्?

बड़ी आसान है यह बात-
सेवा का भ्रम  को छोड़ दो
स्वार्थ से नाता जोड़ लो
रिश्वत लेने में होड़ लो.

एक बार हो सत्ता-से भेंट
येन-केन-प्रकारेण बाँहों में लो समेट.
चीन्ह-चीन्हकर भीख में बाँटो विज्ञापन.
अख़बारों में छपाओ: 'आ गया सुशासन..

लक्ष्मी को छोड़ कर
व्यर्थ हैं सारे पुरुषार्थ.
सत्ताहीनों को ही
शोभा देता है परमार्थ.

धर्म और मोक्ष का
विरोधी करते रहें जाप.
अर्थ और काम से
मतलब रखें आप.

विरोधियों की हालत खस्ता हो जाए.
आपकी खरीद-फरोख्त उनमें फूट बो जाए.
मुख्यमंत्री और मंत्री हों न अब बोर.
सचिवों / विभागाध्यक्षों की किस्मत मारे जोर.

बैंक-खाते, शानदार बंगले, करोड़ों के शेयर.
जमीनें, गड्डियाँ और जेवर.
सेक्स और वहशत की कोई कमी नहीं.
लोकायुक्त की दहशत  जमी नहीं.

मुख्यमंत्री ने सोचा
अगले चुनाव में क्या होगा?
छीन तो न जाएगा
सत्ता-सुख जो अब तक भोगा.

विभागाध्यक्ष का सेवा-विस्तार,
कलेक्टरों बिन कौन चलाये सत्ता -संसार?
सत्ता यों ही समाप्त कैसे हो जाएगी?
खरीदो-बेचो की नीति व्यर्थ नहीं जाएगी.

विपक्ष में बैठे दानव और असुर.
पहुँचे केंद्र में शक्तिमान और शक्ति के घर.  
कुटिल दूतों को बनाया गया राज्यपाल.
मचाकर बवाल, देते रहें हाल-चाल.

प्रभु मनमोहन हैं अन्तर्यामी
चमकदार समारोह से छिपाई खामी.
कौड़ी का सामान करोड़ों के दाम.
खिलाड़ी की मेहनत, नेता का नाम.

'मन' से 'लाल' के मिलन की 'सुषमा'.
नकली मुस्कान... सूझे न उपमा.
दोनों एक-दूजे पर सदय-
यहाँ हमारी, वहाँ तुम्हारी जय-जय.

विधायकों की मनमानी बोली.
खाली न रहे किसी की झोली.
विधानसभा में दोबारा मतदान.
काटो सत्ता का खेत, भरो खलिहान.

मनाते मनौती मौन येदुरप्पा.
अचल रहे सत्ता, गाऊँ ला-रा-लप्पा.
भारत की सारी ज़मीन...
नेता रहे जनता से छीन.

जल रहा रोम, नीरो बजाता बीन.
कौन पूछे?, कौन बताये? हालत संगीन.
सनातन संस्कृति को, बनाकर बाज़ार.
कर रहे हैं रातें रंगीन.


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बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

दोहा सलिला: गाँधी के इस देश में... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

गाँधी के इस देश में...

संजीव 'सलिल'

गाँधी के इस देश में, गाँधी की जयकार.
सत्ता पकड़े गोडसे, रोज कर रहा यार..

गाँधी के इस देश में, गाँधी की सरकार.
हाय गोडसे बन गया, है उसका सरदार..

गाँधी के इस देश में, गाँधी की है मौत.
सत्य अहिंसा सिसकती, हुआ स्वदेशी फौत..

गाँधी के इस देश में, हिंसा की जय बोल.
बाहुबली नेता बने, जन को धन से तोल..

गाँधी के इस देश में, गाँधी की दरकार.
सिर्फ डाकुओं को रही, शेष कहें बेकार..

गाँधी के इस देश में, हुआ तमाशा खूब.
गाँधीवादी पी सुरा, राग अलापें खूब..

गाँधी के इस देश में, डंडे का है जोर.
खेल रहे हैं डांडिया, विहँस पुलिसिए-चोर..

गाँधी के इस देश में, अंग्रेजी का दौर.
किसको है फुर्सत करे, हिन्दी पर कुछ गौर..

गाँधी के इस देश में, बोझ हुआ कानून.
न्यायालय में हो रहा, नित्य सत्य का खून..

गाँधी के इस देश में, धनी-दरिद्र समान.
उनकी फैशन ये विवश, देह हुई दूकान..

गाँधी के इस देश में, 'सलिल 'न कुछ भी ठीक.
दुनिया का बाज़ार है, देश तोड़कर लीक..

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माँ भवानी की प्रसन्नार्थ नित्य प्रात: पठनीय स्तोत्र् -- वैभवनाथ शर्मा.

माँ भवानी की प्रसन्नार्थ नित्य प्रात: पठनीय स्तोत्र्

                                                                          -- वैभवनाथ शर्मा.



१ -   || चन्द्रार्कचूडामणिं स्तोत्र् ||

श्रीदेव्याप्रात:स्मरणम् चाञ्चल्यारुणलोचनाञ्चितकृपां चन्द्रार्कचूडामणिं

चारुस्मेरमुखां चराचरजगत्संरक्षणीं सत्पदाम्।

चञ्चच्चम्पकनासिकाग्रविलसन्मुक्तामणीरञ्जितां

श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातरं भावये॥1॥

कस्तूरीतिलकाञ्चितेन्दुविलसत्प्रोद्भासिभालस्थलीं

कर्पूरद्रवमिश्रचूर्णखदिरामोदोल्लसद्वीटिकाम्।

लोलापाङ्गतरङ्गितैरधिकृपासारैर्नतानन्दिनीं

श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातरं भावये॥2॥

भावार्थ 
 जो सांसारिक भय को हरने वाले और देवताओं के स्वामी हैं, जो गङ्गाजी को धारण करते हैं, जिनका वृषभ वाहन है, जो अम्बिका के ईश हैं तथा जिनके हाथ में खट्वाङ्ग, त्रिशूल और वरद तथा अभयमुद्रा है, उन संसार-रोग को हरने के निमित्त अद्वितीय औषधरूप ईश (महादेव जी) को मैं प्रात:समय में स्मरण करता हूँ॥1॥ भगवती पार्वती जिनका आधा अङ्ग हैं, जो संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कारण हैं, आदिदेव हैं, विश्वनाथ हैं, विश्व-विजयी और मनोहर हैं, सांसारिक रोग को नष्ट करने के लिए अद्वितीय औषधरूप उन गिरीश (शिव) को मैं प्रात:काल नमस्कार करता हूँ॥2॥ जो अन्त से रहित आदिदेव हैं, वेदान्त से जानने योग्य, पापरहित एवं महान् पुरुष हैं तथा जो नाम आदि भेदों से रहित, छ: भाव-विकारों (जन्म, वृद्धि, स्थिरता, परिणमन, अपक्षय और विनाश) से शून्य, संसाररोग को हरने के निमित्त अद्वितीय औषध हैं, उन एक शिवजी को मैं प्रात:काल भजता हूँ॥3॥

महिमा
 जो मनुष्य प्रात:काल उठकर शिव का ध्यान कर प्रतिदिन इन तीनों श्लोकों का पाठ करते हैं, वे लोग अनेक जन्मों के सञ्चित दु:खसमूह से मुक्त होकर शिवजी के उसी कल्याणमय पद को पाते हैं॥4॥

रचनाकार 
 इसकी रचना श्रीशङ्कराचार्य जी ने की थी। यह महान दैवि शक्ति को देने वाला स्तोत्र है ! हमे शरण दो !

२ - भगवती स्तोत्र

श्रीभगवतीस्तोत्रम शक्ति रूपेण देवी भगवती दुर्गा की स्तुति में कहा गया स्तोत्र है। इसके अनेक उवाच हैं, जो कि निम्नलिखित हैं।

स्तोत्र -
जय भगवति देवि नमो वरदे जय पापविनाशिनि बहुफलदे।जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे॥1॥जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे जय पावकभूषितवक्त्रवरे।जय भैरवदेहनिलीनपरे जय अन्धकदैत्यविशोषकरे॥2॥जय महिषविमर्दिनि शूलकरे जय लोकसमस्तकपापहरे।जय देवि पितामहविष्णुनते जय भास्करशक्रशिरोवनते॥3॥जय षण्मुखसायुधईशनुते जय सागरगामिनि शम्भुनुते।जय दु:खदरिद्रविनाशकरे जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे॥4॥जय देवि समस्तशरीरधरे जय नाकविदर्शिनि दु:खहरे।जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे जय वाञ्िछतदायिनि सिद्धिवरे॥5॥एतद्व्यासकृतं स्तोत्रं य: पठेन्नियत: शुचि:।गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा॥6॥

भावार्थ-
हे वरदायिनी देवि! हे भगवति! तुम्हारी जय हो। हे पापों को नष्ट करने वाली और अनन्त फल देने वाली देवि। तुम्हारी जय हो! हे शुम्भनिशुम्भ के मुण्डों को धारण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। हे मुष्यों की पीडा हरने वाली देवि! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ॥1॥ हे सूर्य-चन्द्रमारूपी नेत्रों को धारण करने वाली! तुम्हारी जय हो। हे अग्नि के समान देदीप्यामान मुख से शोभित होने वाली! तुम्हारी जय हो। हे भैरव-शरीर में लीन रहने वाली और अन्धकासुरका शोषण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥2॥ हे महिषसुर का मर्दन करने वाली, शूलधारिणी और लोक के समस्त पापों को दूर करने वाली भगवति! तुम्हारी जय हो। ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और इन्द्र से नमस्कृत होने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥3॥ सशस्त्र शङ्कर और कार्तिकेयजी के द्वारा वन्दित होने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। शिव के द्वारा प्रशंसित एवं सागर में मिलने वाली गङ्गारूपिणि देवि! तुम्हारी जय हो। दु:ख और दरिद्रता का नाश तथा पुत्र-कलत्र की वृद्धि करने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥4॥ हे देवि! तुम्हारी जय हो। तुम समस्त शरीरों को धारण करने वाली, स्वर्गलोक का दर्शन करानेवाली और दु:खहारिणी हो। हे व्यधिनाशिनी देवि! तुम्हारी जय हो। मोक्ष तुम्हारे करतलगत है, हे मनोवाच्छित फल देने वाली अष्ट सिद्धियों से सम्पन्न परा देवि! तुम्हारी जय हो॥5॥

महिमा -
 जो कहीं भी रहकर पवित्र भाव से नियमपूर्वक इस व्यासकृत स्तोत्र का पाठ करता है अथवा शुद्ध भाव से घर पर ही पाठ करता है, उसके ऊपर भगवती सदा ही प्रसन्न रहती हैं॥6॥

रचनाकार-
भगवती के इस स्तोत्र की रचना व्यास जी ने की थी।


३ - श्रीकृष्णकृतं दुर्गास्तोत्रम्

श्रीकृष्ण उवाच
त्वमेवसर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी। त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका॥
कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयम्। परब्रह्मस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी॥
तेज:स्वरूपा परमा भक्त ानुग्रहविग्रहा। सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा॥
सर्वबीजस्वरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया। सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमङ्गलमङ्गला॥
सर्वबुद्धिस्वरूपा च सर्वशक्ति स्वरूपिणी। सर्वज्ञानप्रदा देवी सर्वज्ञा सर्वभाविनी।
त्वं स्वाहा देवदाने च पितृदाने स्वधा स्वयम्। दक्षिणा सर्वदाने च सर्वशक्ति स्वरूपिणी।
निद्रा त्वं च दया त्वं च तृष्णा त्वं चात्मन: प्रिया। क्षुत्क्षान्ति: शान्तिरीशा च कान्ति: सृष्टिश्च शाश्वती॥
श्रद्धा पुष्टिश्च तन्द्रा च लज्जा शोभा दया तथा। सतां सम्पत्स्वरूपा श्रीर्विपत्तिरसतामिह॥
प्रीतिरूपा पुण्यवतां पापिनां कलहाङ्कुरा। शश्वत्कर्ममयी शक्ति : सर्वदा सर्वजीविनाम्॥
देवेभ्य: स्वपदो दात्री धातुर्धात्री कृपामयी। हिताय सर्वदेवानां सर्वासुरविनाशिनी॥
योगनिद्रा योगरूपा योगदात्री च योगिनाम्। सिद्धिस्वरूपा सिद्धानां सिद्धिदाता सिद्धियोगिनी॥
माहेश्वरी च ब्रह्माणी विष्णुमाया च वैष्णवी। भद्रदा भद्रकाली च सर्वलोकभयंकरी॥
ग्रामे ग्रामे ग्रामदेवी गृहदेवी गृहे गृहे। सतां कीर्ति: प्रतिष्ठा च निन्दा त्वमसतां सदा॥
महायुद्धे महामारी दुष्टसंहाररूपिणी। रक्षास्वरूपा शिष्टानां मातेव हितकारिणी॥
वन्द्या पूज्या स्तुता त्वं च ब्रह्मादीनां च सर्वदा। ब्राह्मण्यरूपा विप्राणां तपस्या च तपस्विनाम्॥
विद्या विद्यावतां त्वं च बुद्धिर्बुद्धिमतां सताम्। मेधास्मृतिस्वरूपा च प्रतिभा प्रतिभावताम्॥
राज्ञां प्रतापरूपा च विशां वाणिज्यरूपिणी। सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा त्वं रक्षारूपा च पालने॥
तथान्ते त्वं महामारी विश्वस्य विश्वपूजिते। कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च मोहिनी॥
दुरत्यया मे माया त्वं यया सम्मोहितं जगत्। यया मुग्धो हि विद्वांश्च मोक्षमार्ग न पश्यति॥
इत्यात्मना कृतं स्तोत्रं दुर्गाया दुर्गनाशनम्। पूजाकाले पठेद् यो हि सिद्धिर्भवति वाञ्िछता॥
वन्ध्या च काकवन्ध्या च मृतवत्सा च दुर्भगा। श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सुपुत्रं लभते ध्रुवम्॥
कारागारे महाघोरे यो बद्धो दृढबन्धने। श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं बन्धनान्मुच्यते ध्रुवम्॥
यक्ष्मग्रस्तो गलत्कुष्ठी महाशूली महाज्वरी। श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सद्यो रोगात् प्रमुच्यते॥
पुत्रभेदे प्रजाभेदे पत्‍‌नीभेदे च दुर्गत:। श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं लभते नात्र संशय:॥
राजद्वारे श्मशाने च महारण्ये रणस्थले। हिंस्त्रजन्तुसमीपे च श्रुत्वा स्तोत्रं प्रमुच्यते॥
गृहदाहे च दावागनै दस्युसैन्यसमन्विते। स्तोत्रश्रवणमात्रेण लभते नात्र संशय:॥
महादरिद्रो मूर्खश्च वर्ष स्तोत्रं पठेत्तु य:। विद्यावान धनवांश्चैव स भवेन्नात्र संशय:॥

भावार्थ-
श्रीकृष्ण बोले - देवि! तुम्हीं सबकी जननी, मूलप्रकृति ईश्वरी हो। तुम्हीं सृष्टिकार्य में आद्याशक्ति हो। तुम अपनी इच्छा से त्रिगुणमयी बनी हुई हो। कार्यवश सगुण रूप धारण करती हो। वास्तव में स्वयं निर्गुणा हो। सत्या, नित्या, सनातनी एवं परब्रह्मस्वरूपा हो, परमा तेज:स्वरूपा हो। भक्त ों पर कृपा करने के लिये दिव्य शरीर धारण करती हो। तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी, सर्वाधारा, परात्परा, सर्वबीजस्वरूपा, सर्वपूज्या, निराश्रया, सर्वज्ञा, सर्वतोभद्रा (सब ओर से मङ्गलमयी), सर्वमङ्गलमङ्गला, सर्वबुद्धिस्वरूपा, सर्वशक्ति रूपिणी, सर्वज्ञानप्रदा देवी, सब कुछ जानने वाली और सबको उत्पन्न करने वाली हो। देवताओं के लिये हविष्य दान करने के निमित्त तुम्हीं स्वाहा हो, पितरों के लिये श्राद्ध अर्पण करने के निमित्त तुम स्वयं ही स्वधा हो, सब प्रकार के दानयज्ञ में दक्षिणा हो तथा सम्पूर्ण शक्ति यां तुम्हारा ही स्वरूप हैं। तुम निद्रा, दया और मन को प्रिय लगने वाली तृष्णा हो। क्षुधा, क्षमा, शान्ति, ईश्वरी, कान्ति तथा शाश्वती सृष्टि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्रद्धा, पुष्टि, तन्द्रा, लज्जा, शोभा और दया हो। सत्पुरुषों के यहाँ सम्पत्ति और दुष्टों के घर में विपत्ति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं पुण्यवानों के लिये प्रीतिरूप हो, पापियों के लिये कलह का अङ्कुर हो तथा समस्त जीवों की कर्ममयी शक्ति भी सदा तुम्हीं हो। देवताओं को उनका पद प्रदान करने वाली तुम्हीं हो। धाता (ब्रह्मा)-का भी धारण-पोषण करने वाली दयामयी धात्री तुम्हीं हो। सम्पूर्ण देवताओं के हित के लिये तुम्हीं समस्त असुरों का विनाश करती हो। तुम योगनिद्रा हो। योग तुम्हारा स्वरूप है। तुम योगियों को योग प्रदान करने वाली हो। सिद्धों की सिद्धि भी तुम्हीं हो। तुम सिद्धिदायिनी और सिद्धयोगिनी हो। ब्रह्माणी, माहेश्वरी, विष्णुमाया, वैष्णवी तथा भद्रदायिनी भद्रकाली भी तुम्हीं हो। तुम्हीं समस्त लोकों के लिये भय उत्पन्न करती हो। गाँव-गाँव में ग्रामदेवी और घर-घर में गृहदेवी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं सत्पुरुषों की कीर्ति और प्रतिष्ठा हो। दुष्टों की होने वाली सदा निन्दा भी तुम्हारा ही स्वरूप है। तुम महायुद्ध में दुष्टसंहाररूपिणी महामारी हो और शिष्ट पुरुषों के लिये माता की भाँति हितकारिणी एवं रक्षारूपिणी हो। ब्रह्मा आदि देवताओं ने सदा तुम्हारी वन्दना, पूजा एवं स्तुति की है। ब्राह्मणों की ब्राह्मणता और तपस्वीजनों की तपस्या भी तुम्हीं हो, विद्वानों की विद्या बुद्धिमानों की बुद्धि, सत्पुरुषों की मेधा और स्मृति तथा प्रतिभाशाली पुरुषों की प्रतिभा भी तुम्हारा ही स्वरूप है। राजाओं का प्रताप और वैश्यों का वाणिज्य भी तुम्हीं हो। विश्वपूजिते! सृष्टिकाल में सृष्टिरूपिणी, पालनकाल में रक्षारूपिणी तथा संहारकाल में विश्व का विनाश करने वाली महामारीरूपिणी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं कालरात्रि, महारात्रि तथा मोहिनी, मोहरात्रि हो; तुम मेरी दुर्लङ्घय माया हो, जिसने सम्पूर्ण जगत् को मोहित कर रखा है तथा जिससे मुग्ध हुआ विद्वान पुरुष भी मोक्षमार्ग को नहीं देख पाता।

महिमा
इस प्रकार परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा किये गये दुर्गा के दुर्गम संकटनाशनस्तोत्र का जो पूजाकाल में पाठ करता है, उसे मनोवाञ्िछत सिद्धि प्राप्त होती है। जो नारी वन्ध्या, काकवन्ध्या, मृतवत्सा तथा दुर्भगा है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण करके निश्चय ही उत्तम पुत्र प्राप्त कर लेती है। जो पुरुष अत्यन्त घोर कारागार के भीतर दृढ बन्धन में बँधा हुआ है, वह एक ही मास तक इस स्तोत्र को सुन ले तो अवश्य ही बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य राजयक्ष्मा, गलित कोढ, महाभयंकर शूल और महान् ज्वर से ग्रस्त है, वह एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण कर ले तो शीघ्र ही रोग से छुटकारा पा जाता है। पुत्र, प्रजा और पत्‍‌नी के साथ भेद (कलह आदि) होने पर यदि एक मास तक इस स्तोत्र को सुने तो इस संकट से मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। राजद्वार, श्मशान, विशाल वन तथा रणक्षेत्र में और हिंसक जन्तु के समीप भी इस स्तोत्र के पाठ और श्रवण से मनुष्य संकट से मुक्त हो जाता है। यदि घर में आग लगी हो, मनुष्य दावानल से घिर गया हो अथवा डाकुओं की सेना में फँस गया हो तो इस स्तोत्र के श्रवण मात्र से वह उस संकट से पार हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जो महादरिद्र और मूर्ख है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र को पढे तो निस्संदेह विद्वान और धनवान् हो जाता है।

रचनाकार
ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड से उद्धृत इस स्तोत्र का स्तवन भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए किया था।


४ -परशुरामकृतं दुर्गास्तात्रम्

परशुराम उवाच
श्रीकृष्णस्य च गोलोके परिपूर्णतमस्य च:आविर्भूता विग्रहत: पुरा सृष्ट्युन्मुखस्य च॥
सूर्यकोटिप्रभायुक्त ा वस्त्रालंकारभूषिता। वह्निशुद्धांशुकाधाना सुस्मिता सुमनोहरा॥
नवयौवनसम्पन्ना सिन्दूरविन्दुशोभिता। ललितं कबरीभारं मालतीमाल्यमण्डितम्॥
अहोऽनिर्वचनीया त्वं चारुमूर्ति च बिभ्रती। मोक्षप्रदा मुमुक्षूणां महाविष्णोर्विधि: स्वयम्॥
मुमोह क्षणमात्रेण दृ त्वां सर्वमोहिनीम्। बालै: सम्भूय सहसा सस्मिता धाविता पुरा॥
सद्भि: ख्याता तेन राधा मूलप्रकृतिरीश्वरी। कृष्णस्त्वां सहसाहूय वीर्याधानं चकार ह॥
ततो डिम्भं महज्जज्ञे ततो जातो महाविराट्। यस्यैव लोमकूपेषु ब्रह्माण्डान्यखिलानि च॥
तच्छृङ्गारक्रमेणैव त्वन्नि:श्वासो बभूव ह। स नि:श्वासो महावायु: स विराड् विश्वधारक:॥
तव घर्मजलेनैव पुप्लुवे विश्वगोलकम्। स विराड् विश्वनिलयो जलराशिर्बभूव ह॥
ततस्त्वं पञ्चधाभूय पञ्चमूर्तीश्च बिभ्रती। प्राणाधिष्ठातृमूर्तिर्या कृष्णस्य परमात्मन:॥
कृष्णप्राणाधिकां राधां तां वदन्ति पुराविद:॥
वेदाधिष्ठातृमूर्तियां वेदाशास्त्रप्रसूरपि। तौ सावित्रीं शुद्धरूपां प्रवदन्ति मनीषिण:॥
ऐश्वर्याधिष्ठातृमूर्ति: शान्तिश्च शान्तरूपिणी। लक्ष्मीं वदन्ति संतस्तां शुद्धां सत्त्‍‌वस्रूपिणीम्॥
रागाधिष्ठातृदेवी या शुक्लमूर्ति: सतां प्रसू:। सरस्वतीं तां शास्त्रज्ञां शास्त्रज्ञा: प्रवदन्त्यहो॥
बुद्धिर्विद्या सर्वशक्ते र्या मूर्तिरधिदेवता। सर्वमङ्गलमङ्गल्या सर्वमङ्गलरूपिणी॥
सर्वमङ्गलबीजस्य शिवस्य निलयेऽधुना॥
शिवे शिवास्वरूपा त्वं लक्ष्मीर्नारायणान्तिके। सरस्वती च सावित्री वेदसू‌र्ब्रह्मण: प्रिया॥
राधा रासेश्वरस्यैव परिपूर्णतमस्य च। परमानन्दरूपस्य परमानन्दरूपिणी॥
त्वत्कलांशांशकलया देवानामपि योषित:॥
त्वं विद्या योषित: सर्वास्त्वं सर्वबीजरूपिणी। छाया सूर्यस्य चन्द्रस्य रोहिणी सर्वमोहिनी॥
शची शक्रस्य कामस्य कामिनी रतिरीश्वरी। वरुणानी जलेशस्य वायो: स्त्री प्राणवल्लभा॥
वह्ने: प्रिया हि स्वाहा च कुबेरस्य च सुन्दरी। यमस्य तु सुशीला च नैर्ऋतस्य च कैटभी॥
ईशानस्य शशिकला शतरूपा मनो: प्रिया। देवहूति: कर्दमस्य वसिष्ठस्याप्यरुन्धती॥
लोपामुद्राप्यगस्त्यस्य देवमातादितिस्तथा। अहल्या गौतमस्यापि सर्वाधारा वसुन्धरा॥
गङ्गा च तुलसी चापि पृथिव्यां या: सरिद्वरा:। एता: सर्वाश्च या ह्यन्या: सर्वास्त्वत्कलयाम्बिके॥
गृहलक्ष्मीगर्ृहे नृणांराजलक्ष्मीश्च राजसु। तपस्विनां तपस्या त्वं गायत्री ब्राह्मणस्य च॥
सतां सत्त्‍‌वस्वरूपा त्वमसतां कलहाङ्कुरा। ज्योतीरूपा निर्गुणस्य शक्ति स्त्वं सगुणस्य च॥
सूर्ये प्रभास्वरूपा त्वं दाहिका च हुताशने। जले शैत्यस्वरूपा च शोभारूपा निशाकरे॥
त्वं भूमौ गन्धरूपा च आकाशे शब्दरूपिणी। क्षुत्पिपासादयस्त्वं च जीविनां सर्वशक्त य:॥
सर्वबीजस्वरूपा त्वं संसारे साररूपिणी। स्मूतिर्मेधा च बुद्धिर्वा ज्ञानशक्ति र्विपश्चिताम्॥
कृष्णेन विद्या या दत्ता सर्वज्ञानप्रसू: शुभा। शूलिने कृपया सा त्वं यतो मृत्युञ्जय: शिव:॥
सृष्टिपालनसंहारशक्त यस्त्रिविधाश्च या:। ब्रह्मविष्णुमहेशानां सा त्वमेव नमोऽस्तु ते॥
मधुकैटभभीत्या च त्रस्तो धाता प्रकम्पित:। स्तुत्वा मुमोच यां देवीं तां मूधनर् प्रणमाम्यहम्॥
मधुकैटभयोर्युद्धे त्रातासौ विष्णुरीश्वरीम्। बभूव शक्ति मान् स्तुत्वा तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
त्रिपुरस्य महायुद्धे सरथे पतिते शिवे। यां तुष्टुवु: सुरा: सर्वे तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
विष्णुना वृषरूपेण स्वयं शम्भु: समुत्थित: जघान त्रिपुरं स्तुत्वा तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
यदाज्ञया वाति वात: सूर्यस्तपति संततम्। वर्षतीन्द्रो दहत्यगिन्स्तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
यदाज्ञया हि कालश्च शश्वद् भ्रमति वेगत:। मृत्युश्चरति जन्त्वोघे तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
स्त्रष्टा सृजति सृष्टिं च पाता पाति यदाज्ञया। संहर्ता संहरेत् काले तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
ज्योति:स्वरूपो भगवाञ्छ्रीकृष्णो निर्गुण: स्वयम्। यया विना न शक्त श्च सृष्टिं कर्तु नमामि ताम्॥
रक्ष रक्ष जगन्मातरपराधं क्षमस्व ते। शिशूनामपराधेन कुतो माता हि कुप्यति॥
इत्युक्त्वा पर्शुरामश्च प्रणम्य तां रुरोद ह। तुष्टा दुर्गा सम्भ्रमेण चाभयं च वरं ददौ॥
अमरो भव हे पुत्र वत्स सुस्थिरतां व्रज। शर्वप्रसादात् सर्वत्र ज्योऽस्तु तव संततम्॥
सर्वान्तरात्मा भगवांस्तुष्टोऽस्तु संततं हरि:। भक्ति र्भवतु ते कृष्णे शिवदे च शिवे गुरौ॥
इष्टदेवे गुरौ यस्य भक्ति र्भवति शाश्वती। तं हन्तु न हि शक्त ाश्च रुष्टाश्च सर्वदेवता:॥
श्रीकृष्णस्य च भक्त स्त्वं शिष्यो हि शंकरस्य च। गुरुपत्‍‌नीं स्तौषि यस्मात् कस्त्वां हन्तुमिहेश्वर:॥
अहो न कृष्णभक्त ानामशुभं विद्यते क्वचित्। अन्यदेवेषु ये भक्त ा न भक्त ा वा निरेङ्कुशा:॥
चन्द्रमा बलवांस्तुष्टो येषां भाग्यवतां भृगो। तेषां तारागणा रुष्टा: किं कुर्वन्ति च दुर्बला:॥
यस्य तुष्ट: सभायां चेन्नरदेवो महान् सुखी। तस्य किं वा करिष्यन्ति रुष्टा भृत्याश्च दुर्बला:॥
इत्युक्त्वा पार्वती तुष्टा दत्त्‍‌वा रामं शुभाशिषम्। जगामान्त:पुरं तूर्ण हरिशब्दो बभूव ह॥
स्तोत्रं वै काण्वशाखोक्तं पूजाकाले च य: पठेत्। यात्राकाले च प्रातर्वा वाञ्िछतार्थ लभेद्ध्रुवम॥
पुत्रार्थी लभते पुत्रं कन्यार्थी कन्यकां लभेत्। विद्यार्थी लभते विद्यां प्रजार्थी चाप्रुयात् प्रजाम्॥
भ्रष्टराज्यो लभेद् राज्यं नष्टवित्तो धनं लभेत्॥
यस्य रुष्टो गुरुर्देवो राजा वा बान्धवोऽथवा। तस्य तुष्टश्च वरद: स्तोत्रराजप्रसादत:॥
दस्युग्रस्तोऽहिग्रस्तश्च शत्रुग्रस्तो भयानक:। व्याधिग्रस्तो भवेन्मुक्त : स्तोत्रस्मरणमात्रत:॥
राजद्वारे श्मशाने च कारागारे च बन्धने। जलराशौ निमगन्श्च मुक्त स्तत्स्मृतिमात्रत:॥
स्वामिभेदे पुत्रभेदे मित्रभेदे च दारुणे। स्तोत्रस्मरणमात्रेण वाञ्िछतार्थ लभेद् ध्रुवम॥
कृत्वा हविष्यं वर्ष च स्तोत्रराजं श्रृणोति या। भक्त्या दुर्गा च सम्पूज्य महावन्ध्या प्रसूयते॥
लभते सा दिव्यपुत्रं ज्ञानिनं चिरजीविनम्। असौभाग्या च सौभाग्यं षण्मासश्रवणाल्लभेत्॥
नवमासं काकवन्ध्या मृतवत्सा च भक्ति त:। स्तोत्रराजं या श्रृणोति सा पुत्रं लभते धु्रवम्॥
कन्यामाता पुत्रहीना पञ्जमासं श्रृणोति या। घटे सम्पूज्य दुर्गा च सा पुत्रं लभते धु्रवम्॥

भावार्थ
परशुराम ने कहा - प्राचीन काल की बात है; गोलोक में जब परिपूर्णतम श्रीकृष्ण सृष्टिरचना के लिए उद्यत हुए, उस समय उनके शरीर से तुम्हारा प्राकटय हुआ था। तुम्हारी कान्ति करोडों सूर्यो के समान थी। तुम वस्त्र और अलंकारों से विभूषित थीं। शरीर पर अगिन् में तपाकर शुद्ध की हुई साडी का परिधान था। नव तरुण अवस्था थी। ललाटपर सिंदूर की बेंदी शोभित हो रही थी। मालती की मालाओं से मण्डित गुँथी हुई सुन्दर चोटी थी। बडा ही मनोहर रूप था। मुख पर मन्द मुस्कान थी। अहो! तुम्हारी मूर्ति बडी सुन्दर थी, उसका वर्णन करना कठिन है। तुम मुमुक्षुओं को मोक्ष प्रदान करने वाली तथा स्वयं महाविष्णु की विधि हो। बाले! तुम सबको मोहित कर लेने वाली हो। तुम्हें देखकर श्रीकृष्ण उसी क्षण मोहित हो गये। तब तुम उनसे सम्भावित होकर सहसा मुस्कराती हुई भाग चलीं। इसी कारण सत्पुरुष तुम्हें मूलप्रकृति ईश्वरी राधा कहते हैं। उस समय सहसा श्रीकृष्ण ने तुम्हें बुलाकर वीर्य का आधान किया। उससे एक महान् डिम्ब उत्पन्न हुआ। उस डिम्ब से महाविराट् की उत्पत्ति हुई, जिसके रोमकूपों में समस्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं। फिर राधा के श्रृङ्गारक्रम से तुम्हारा नि:श्वास प्रकट हुआ। वह नि:श्वास महावायु हुआ और वही विश्व को धारण करने वाला विराट् कहलाया। तुम्हारे पसीने से विश्वगोलक पिघल गया। तब विश्व का निवासस्थान वह विराट् जल की राशि हो गया। तब तुमने अपने को पाँच भागों में विभक्त करके पाँच मूर्ति धारण कर ली। उनमें परमात्मा श्रीकृष्ण की जो प्राणाधिष्ठात्री मूर्ति है, उसे भविष्यवेत्ता लोग कृष्णप्राणाधिका राधा कहते हैं। जो मूर्ति वेद-शास्त्रों की जननी तथा वेदाधिष्ठात्री है, उस शुद्धरूपा मूर्ति को मनीषीगण सावित्री नाम से पुकारते हैं। जो शान्ति तथा शान्तरूपिणी ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री मूर्ति है, उस सत्त्‍‌वस्वरूपिणी शुद्ध मुर्ति को संतलोग लक्ष्मी नाम से अभिहित करते हैं। अहो! जो राग की अधिष्ठात्री देवी तथा सत्पुरुषों को पैदा करने वाली है, जिसकी मूर्ति शुक्ल वर्ण की है, उस शास्त्र की ज्ञाता मूर्ति को शास्त्रज्ञ सरस्वती कहते हैं। जो मूर्ति बुद्धि, विद्या, समस्त शक्ति की अधिदेवता, सम्पूर्ण मङ्गलों की मङ्गलस्थान, सर्वमङ्गलरूपिणी और सम्पूर्ण मङ्गलों की कारण है, वही तुम इस समय शिव के भवन में विराजमान हो।
तुम्हीं शिव के समीप शिवा (पार्वती), नारायण के निकट लक्ष्मी और ब्रह्मा की प्रिया वेदजननी सावित्री और सरस्वती हो। जो पूरिपूर्णतम एवं परमानन्दस्वरूप हैं, उन रासेश्वर श्रीकृष्ण की तुम परमानन्दरूपिणी राधा हो। देवाङ्गनाएँ भी तुम्हारे कलांश की अंशकला से प्रादुर्भूत हुई हैं। सारी नारियाँ तुम्हारी विद्यास्वरूपा हैं और तुम सबकी कारणरूपा हो। अम्बिके! सूर्य की पत्‍‌नी छाया, चन्द्रमा की भार्या सर्वमोहिनी रोहिणी, इन्द्र की पत्‍‌नी शची, कामदेव की पत्‍‌नी ऐश्वर्यशालिनी रति, वरुण की पत्‍‌नी वरुणानी, वायु की प्राणप्रिया स्त्री, अगिन् की प्रिया स्वाहा, कुबेर की सुन्दरी भार्या, यम की पत्‍‌नी सुशीला, नैर्ऋत की जाया कैटभी, ईशान की पत्‍‌नी शशिकला, मनु की प्रिया शतरूपा, कर्दम की भार्या देवहूति, वसिष्ठ की पत्‍‌नी अरुन्धती, देवमाता अदिति, अगस्त्य मुनि की प्रिया लोपामुद्रा, गौतम की पत्‍‌नी अहल्या, सबकी आधाररूपा वसुन्धरा, गङ्गा, तुलसी तथा भूतल की सारी श्रेष्ठ सरिताएँ-ये सभी तथा इनके अतिरिक्ति जो अन्य स्त्रियाँ हैं, वे सभी तुम्हारी कला से उत्पन्न हुई हैं।
तुम मनुष्यों के घर में गृहलक्ष्मी, राजाओं के भवनों में राजलक्ष्मी, तपस्वियों की तपस्या और ब्राह्मणों की गायत्री हो। तुम सत्पुरुषों के लिए सत्त्‍‌वस्वरूप और दुष्टों के लिये कलह की अङ्कुर हो। निर्गुण की ज्योति और सगुण की शक्ति तुम्हीं हो। तुम सूर्य में प्रभा, अगिन् में दाहिका-शक्ति , जल में शीतलता और चन्द्रमा में शोभा हो। भूमि में गन्ध और आकाश में शब्द तुम्हारा ही रूप है। तुम भूख-प्यास आदि तथा प्राणियों की समस्त शक्ति हो। संसार में सबकी उत्पत्ति की कारण, साररूपा, स्मृति, मेधा, बुद्धि अथवा विद्वानों की ज्ञानशक्ति तुम्हीं हो। श्रीकृष्ण ने शिवजी को कृपापूर्वक सम्पूर्ण ज्ञान की प्रसविनी जो शुभ विद्या प्रदान की थी, वह तुम्हीं हो; उसी से शिवजी मृत्युञ्जय हुए हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली जो त्रिविध शक्ति याँ हैं, उनके रूप में तुम्हीं विद्यमान हो; अत: तुम्हें नमस्कार है। जब मधु-कैटभ के भय से डरकर ब्रह्मा काँप उठे थे, उस समय जिनकी स्तुति करके वे भयमुक्त हुए थे; उन देवी को मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मधु-कैटभ के युद्ध में जगत् के रक्षक ये भगवान् विष्णु जिन परमेश्वरी का स्तवन करके शक्ति मान् हुए थे, उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ। त्रिपुर के महायुद्ध में रथसहित शिवजी के गिर जाने पर सभी देवताओं ने जिनकी स्तुति की थी; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनका स्तवन करके वृषरूपधारी विष्णु द्वारा उठाये गये स्वयं शम्भु ने त्रिपुर का संहार किया था; उन दुर्गा को मैं अभिवादन करता हूँ। जिनकी आज्ञा से निरन्तर वायु बहती है, सूर्य तपते हैं, इन्द्र वर्षा करते हैं और अगिन् जलाती है; उन दुर्गा को मैं सिर झुकाता हूँ। जिनकी आज्ञा से काल सदा वेगपूर्वक चक्क र काटता रहता है और मृत्यु जीव-समुदाय में विचरती रहती है; उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ। जिनके आदेश से सृष्टिकर्ता सृष्टि की रचना करते हैं, पालनकर्ता रक्षा करते हैं और संहर्ता समय आने पर संहार करते हैं; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनके बिना स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण, जो ज्योति:स्वरूप एवं निर्गुण हैं, सृष्टि-रचना करने में समर्थ नहीं होते; उन देवी को मेरा नमस्कार है। जगज्जननी! रक्षा करो, रक्षा करो; मेरे अपराध को क्षमा कर दो। भला, कहीं बच्चे के अपराध करने से माता कुपित होती है।
इतना कहकर परशुराम उन्हें प्रणाम करके रोने लगे। तब दुर्गा प्रसन्न हो गयीं और शीघ्र ही उन्हें अभय का वरदान देती हुई बोलीं- हे वत्स! तुम अमर हो जाओ। बेटा! अब शान्ति धारण करो। शिवजी की कृपा से सदा सर्वत्र तुम्हारी विजय हो। सर्वान्तरात्मा भगवान् श्रीहरि सदा तुमपर प्रसन्न रहें। श्रीकृष्ण में तथा कल्याणदाता गुरुदेव शिव में तुम्हारी सुदृढ भक्ति बनी रहे; क्योंकि जिसकी इष्टदेव तथा गुरु में शाश्वती भक्ति होती है, उस पर यदि सभी देवता कुपित हो जायँ तो भी उसे मार नहीं सकते। तुम तो श्रीकृष्ण के भक्त और शंकर के शिष्य हो तथा मुझ गुरुपत्‍‌नी की स्तुति कर रहे हो; इसलिए किसकी शक्ति है जो तुम्हें मार सके। अहो! जो अन्यान्य देवताओं के भक्त हैं अथवा उनकी भक्ति न करके निरंकुश ही हैं, परंतु श्रीकृष्ण के भक्त हैं तो उनका कहीं भी अमङ्गल नहीं होता। भार्गव! भला, जिन भाग्यवानों पर बलवान् चन्द्रमा प्रसन्न हैं तो दुर्बल तारागण रुष्ट होकर उनका क्या बिगाड सकते हैं। सभा में महान आत्मबल से सम्पन्न सुखी नरेश जिसपर संतुष्ट है, उसका दुर्बल भृत्यवर्ग कुपित होकर क्या कर लेगा? यों कहकर पार्वती हर्षित हो परशुराम को शुभाशीर्वाद देकर अन्त:पुर में चली गयीं। तब तुरंत हरि-नाम का घोष गूँज उठा।

महिमा
जो मनुष्य इस काण्वशाखोक्त स्तोत्र का पूजा के समय, यात्रा के अवसर पर अथवा प्रात:काल पाठ करता है, वह अवश्य ही अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेता है। इसके पाठ से पुत्रार्थी को पुत्र, कन्यार्थी को कन्या, विद्यार्थी को विद्या, प्रजार्थी को प्रजा, राज्यभ्रष्ट को राज्य और धनहीन को धन की प्राप्ति होती है। जिसपर गुरु, देवता, राजा अथवा बन्धु-बान्धव क्रुद्ध हो गये हों, उसके लिये ये सभी इस स्तोत्रराज की कृपा से प्रसन्न होकर वरदाता हो जाते हैं। जिसे चोर-डाकुओं ने घेर लिया हो, साँप ने डस लिया हो, जो भयानक शत्रु के चंगुल में फँस गया हो अथवा व्याधिग्रस्त हो; वह इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से मुक्त हो जाता है। राजद्वार पर, श्मशान में, कारागार में और बन्धन में पडा हुआ तथा अगाध जलराशि में डूबता हुआ मनुष्य इस स्तोत्र के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। स्वामिभेद, पुत्रभेद तथा भयंकर मित्रभेद के अवसर पर इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से निश्चय ही अभीष्टार्थ की प्राप्ति होती है। जो स्त्री वर्षपर्यन्त भक्ति पूर्वक दुर्गा का भलीभाँति पूजन करके हविष्यान्न खाकर इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह महावन्ध्या हो तो भी प्रसववाली हो जाती है। उसे ज्ञानी एवं चिरजीवी दिव्य पुत्र प्राप्त होता है। छ: महीने तक इसका श्रवण करने से दुर्भगा सौभाग्यवती हो जाती है। जो काकवन्ध्या और मृतवत्सा नारी भक्ति पूर्वक नौ मास तक इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह निश्चय ही पुत्र पाती है। जो कन्या की माता तो है परंतु पुत्र से हीन है, वह यदि पाँच महीने तक कलश पर दुर्गा की सम्यक् पूजा करके इस स्तोत्र को श्रवण करती है तो उसे अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होती है।

रचनाकार
ब्रह्मवैवर्त पुराण में गणपति खण्ड से उद्धृत इस स्तोत्र का स्तवन परशुराम ने श्रीहरि के निर्देश पर माता दुर्गा (शिवा) को प्रसन्न करने के लिए किया था। परशुराम अपने गुरु शिव का आशीर्वाद लेने के लिए अन्त:पुर जाना चाहते थे। गणेश द्वारा रोके जाने पर दोनों में युद्ध हुआ जिसमें परशुराम ने शिव प्रदत्त फरसा चला दिया जिससे गणेश जी का एक दाँत टूट गया था (एक दंत पडा)। इससे कुपित होकर पार्वती परशुराम को मारने के लिए उद्यत हो गई। उसी समय भगवान् विष्णु बौने ब्राह्मण-बालक के रूप में उपस्थित हुए। उन्होंने पार्वती को समझाया तथा परशुराम को उनकी स्तुति करने का निर्देश दिया।


५ -शिवकृतं दुर्गास्तोत्रम्

श्रीमहादेव उवाच
रक्ष रक्ष महादेवि दुर्गे दुर्गतिनाशिनि। मां भक्त मनुरक्तं च शत्रुग्रस्तं कृपामयि॥
विष्णुमाये महाभागे नारायणि सनातनि। ब्रह्मस्वरूपे परमे नित्यानन्दस्वरूपिणी॥
त्वं च ब्रह्मादिदेवानामम्बिके जगदम्बिके। त्वं साकारे च गुणतो निराकारे च निर्गुणात्॥
मायया पुरुषस्त्वं च मायया प्रकृति: स्वयम्। तयो: परं ब्रह्म परं त्वं बिभर्षि सनातनि॥
वेदानां जननी त्वं च सावित्री च परात्परा। वैकुण्ठे च महालक्ष्मी: सर्वसम्पत्स्वरूपिणी॥
म‌र्त्यलक्ष्मीश्च क्षीरोदे कामिनी शेषशायिन:। स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं राजलक्ष्मीश्च भूतले॥
नागादिलक्ष्मी: पाताले गृहेषु गृहदेवता। सर्वशस्यस्वरूपा त्वं सर्वैश्वर्यविधायिनी॥
रागाधिष्ठातृदेवी त्वं ब्रह्मणश्च सरस्वती। प्राणानामधिदेवी त्वं कृष्णस्य परमात्मन:॥
गोलोके च स्वयं राधा श्रीकृष्णस्यैव वक्षसि। गोलोकाधिष्ठिता देवी वृन्दावनवने वने॥
श्रीरासमण्डले रम्या वृन्दावनविनोदिनी। शतश्रृङ्गाधिदेवी त्वं नामन चित्रावलीति च॥
दक्षकन्या कुत्र कल्पे कुत्र कल्पे च शैलजा। देवमातादितिस्त्वं च सर्वाधारा वसुन्धरा॥
त्वमेव गङ्गा तुलसी त्वं च स्वाहा स्वधा सती। त्वदंशांशांशकलया सर्वदेवादियोषित:॥
स्त्रीरूपं चापिपुरुषं देवि त्वं च नपुंसकम्। वृक<>

हिंदी शब्द सलिला : ६ अ से प्रारंभ होनेवाले शब्द : ६ -------संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : ६
संजीव 'सलिल'
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संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

अ से प्रारंभ होनेवाले शब्द : ६

संजीव 'सलिल'

अकुंठित - वि. सं. देखें अकुंठ.
अकुच - वि. आकुंचित, बिखरा हुआ.
अकुटिल - वि. सं. भोला-भला, सरल, निष्कपट.
अकुताना -  अक्रि. देखें उकताना.
अकुतोभय  - वि. सं.जिसे कहीं-किसी से भय न हो, नितांत भय शून्य, निर्भय, निडर, निर्भीक.
अकुत्सित  - वि. सं. अनिन्दनीय, जो बुरा न हो.
अकुप्य/अकुप्यक  - वि. सं.पु. सं. वह धातु जो बुरी न हो, सोना, चाँदी.
अकुमार - वि. सं. जो कुमार/कुवांरा न हो, वयस्क.
अकुल - वि. सं. अकुलीन, कुलरहित, अज्ञात कुल, निम्न कुल का,बुरा कुल, पु. शिव.
अकुला - वि. सं. अकुलीन, कुलरहित, अज्ञात कुल, निम्न कुल का,बुरा कुल, स्त्री. शिवा.
अकुलाना - अक्रि. आकुल होना, घबड़ाना, विव्हल होना, मगन होना,
अकुलिनी - स्त्री. व्यभिचारिणी, निषिद्ध आचरण करनेवाली. वि. स्त्री. व्यभिचारिणी.
अकुलीन - वि. सं. हीन / निम्न कुल का, नीच कुल में जन्मा, कमीना, भूमि से संबंध न रखनेवाला, जिसके पिता अज्ञात हों, अपार्थिव. 
अकुशल - वि. सं. अनाड़ी, काम में कच्चा, कार्य न जाननेवाला, भाग्यहीन, अशुभ. पु. बुराई, अमंगल, बुरा शब्द. -श्रमिक- पु. साधारण मजदूर, अनस्किल्ड लेबर इं.
अकुसीद - वि. सं. सूद / ब्याज / लाभ न लेनेवाला.
अकुह / अकुहक - पु. सं. ईमानदार आदमी.
अकूट - वि. सं. जो धोखा न दे, विश्वस्त, अचूक अस्त्र, जो खोटा न हो सिक्का / मनुष्य.
अकूत - वि. सं. जिसे कूतना / आँकना / अनुमानना / अंदाज़ना संभव न हो, विपुल, अपरिमित, असीम, अनंत, अशेष. अ. अचानक, अकस्मात्.
अकूपार / अकूवार - पु. सं. समुद्र, सूर्य, कच्छप, वह महाकच्छप जिसने धरती का भार उठा रखा है. वि. अच्छे परिमाणवाला, अपरिमित, असीम.
अकूर्च - वि. सं. कपटरहित, छलहीन, खल्वाट, जिसकी दाढ़ी न हो, पु. बुद्ध.
अकूल - वि. सं. बिना कूल / किनारे का. सीमा / मर्यादारहित.
अकूहल - वि. अत्यधिक, अगणित.
अकृच्छ - वि. सं. बिना क्लेश, कठिनाई का, आसान. पु. क्लेश / कठिनाई का अभाव.
कृच्छी/अकृच्छिन - वि. सं. क्लेशरहित.
अकृत - वि. सं. जो पूरा न किया गया हो, बिगड़ गया हो, अन्यथा किया हुआ, जो किसी के द्वारा बनाया न गया हो, अकृत्रिम, जिसने कुछ किया न हो, अविकसित, अपक्व. पु. अधूरा काम, किसी काम का पूरा न किया जाना, प्रकृति, कारण, मोक्ष. -कार्य- व. असफल मनोरथ. -काल- वि. कालबाह्य, गैरमियादी उ., बिना मुद्दत का (बंधक). -चिकीर्षा- स्त्री. सामादि उपायों से नयी संधि करना और उनमें  छोटे, बड़े और समकक्ष राजाओं का यथायोग्य ध्यान रखना. -ज्ञ- वि. कृतघ्न, उपकार न माननेवाला. -धी / बुद्धि- वि. जिसे पूरा ज्ञान न हो, -शुल्क- वि. चुंगी / स्थानीय कर न देनेवाला, जिस पर चुंगी न लगी हो.
अकृता - स्त्री. सं. पुत्र के समान अधिकारिणी न मानी गई कन्या.  
अकृतात्मा / अकृतात्मन - वि. सं. अज्ञानी, असंस्कृत मतवाला, साधक जिसे ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ हो.
अकृताभ्यम - पु. सं. अकृत कर्म के फल की प्राप्ति.
अकृतार्थ - वि. सं. विफल, असंतुष्ट.
अकृतास्न - वि. सं. जिसने अस्त्र-संचालन न सीखा हो.
अकृती / अकृतिन  - वि. सं. अकुशल, अनाड़ी, निकम्मा.
अकृतोद्वाह - वि., अविवाहित.
अकृत्त - वि. सं. न कटा हुआ, जिसकी कतर-ब्योंत न की गई हो.
अकृत्य - वि. सं. जो करने योग्य न हो, पु. दुष्कर्म, अपराध, पाप. -कारी / कारिन - वि. कुकर्मी, दुकर्मी, अपराधी. पापी..
अकृत्रिम - वि. सं. जो बनावटी न हो, स्वाभाविक, प्राकृतिक, सच्चा. अमली उ..
अकृत्स्न - वि. सं. अधूरा, जो पूरा न हुआ हो.
अकृप - वि. सं. निर्दय, दयाहीन.
अकृपण  - वि. सं. जो कंजूस न हो, उदार.
अकृपा - वि. सं. कृपा का अभाव, नाराजगी.
अकृश - वि. सं. जो दुबला-पतला न हो, सबल, मोटा-ताज़ा, हृष्ट-पुष्ट. -लक्ष्मी- वि. वैभवशाली. स्त्री. प्रभूत ऐश्वर्य.
अकृषिक - वि. सं. जिसका संबंध कृषि से न हो.
अकृषित - वि. सं. अहल्या, भूमि जो जोती-बोयी न गई हो, बंजर, अनकल्टीवेटेड इं. बैरन इं.
अकृष्ट - वि. सं. जो जोता / खींचा न गया हो, पु. परती जमीन, -पच्य- वि. बिना जुटे खेत में उगने-पकनेवाला, शस्य सं. -पूर्वा भूमि- स्त्री. अहल्या सं., भूमि जो जोती-बोयी न गई हो, वर्जिन सॉइल इं. -रोही/रोहिन- वि. बिना जुटी जमीन में अपने आप उगनेवाला.
अकृष्ण - वि. सं. जो काला / श्याम न हो, श्वेत, सफेद, निर्मल, शुद्ध, राधा, गौरांगी. पु. निष्कलंक, चन्द्रमा. -कर्मा / कर्मन- वि. पुण्यात्मा, निर्दोष, निष्पाप.
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हिंदी शब्द सलिला : ५ अ से प्रारंभ होनेवाले शब्द : ५ -- संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : ५


संजीव 'सलिल'
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संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

अ से प्रारंभ होनेवाले शब्द : ५

संजीव 'सलिल'

अकिंचन - वि. सं. जिसके पास कुछ न हो, अति निर्धन, विपन्न, गरीब उ., दरिद्र, कर्म शून्य, अपरिग्रही. पु. वह वस्तु जिसका कोई मूल्य न हो, निर्मूल्य, अमूल्य, दरिद्र, परिग्रह का त्याग जै., अपरिग्रही जै.. -वाद- पु. (पॉपर सूट का.) वह वाद जिसमें वादी की ओर दे कहा जाए कि उसे पास वाद-व्यय हेतु कुछ नहीं है अतः, सरकार की ओर से वाद व वकील का व्यय आदि दिया जाए. 
अकिंचनता - स्त्री. दरिद्रता, निर्धनता, गरीबी, विपन्नता.
अकिंचनत्व - पु. सं. दरिद्रता, निर्धनता, गरीबी, विपन्नता, परिग्रह (संचय) का त्याग जै..
अकिंचिज्ज - वि. सं. जो कुछ भी न जानता हो, अज्ञानी, ज्ञानहीन.
अकिंचित्कर - वि. सं. जिसके किये कुछ न हो सके, निरर्थक, तुच्छ.
अकि - अ.अथवा, या, फिर. -'आगि जरौं अकि पानी परौं. - घनानन्द ग्रंथावली.
अकितब - वि. सं. जो जारी न हो, निष्कपट.
अकिल - स्त्री. देखें अक्ल.
अकिलैनि -  स्त्री. एकाकिनी, -'कान्ह! परे बहुतायत में अकिलैनिकी वेदन जनि कहा तुम'-- घनानन्द ग्रंथावली.  
अकिल्विष - वि. सं. पापरहित, निर्मल, विमल, अमल.
 अकीक - पु. अ. लाल रंग का बहुमूल्य पत्थर.
अकीदत - स्त्री. अ. श्रृद्धा. -मंद-वि. श्रृद्धालु, श्रद्धावान.
अकीदा - पु. अ. श्रद्धा, विश्वास, आस्था.
अकीरति - स्त्री. देखें अकीर्ति.
अकीर्ति - स्त्री. सं. अपयश, बदनामी उ., अपमान.
अकुंठ - जो कुंठित या भोथरा न हो, कार्यक्षम, शक्तिशाली, खुला हुआ, तीक्ष्ण, पैना, स्थिर, अप्रतिहत,  

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ब्लॉगिंग की आचार संहिता : कुछ सवाल

ब्लॉगिंग की आचार संहिता : कुछ सवाल 


मुझे ब्लॉगरों का एक साथ बैठना ...चाहे फ़िर आप कोई मीट का नाम दे या साग भात का ..चाहे बैठकी हो ..या मिलन ..मगर जब आभासी दुनिया के लोग आपस में एक दूसरे के आमने सामने बैठ कर रूबरू होते हैं ...तो हरेक के न सिर्फ़ मन में बल्कि ....आत्मा के भीतर एक अनोखी ही चमक देखने को मिलती है ..मुझे यकीन है कि ..ऐसी हर उस ब्लॉगर ने महसूस किया होगा ..जो कभी न कभी इनका हिस्सा बना है ..। और वही क्यों ..जब उन बैठकों की रिपोर्टें ..उनकी तस्वीरें ..पोस्ट के माध्यम से अंतर्जाल पर आती हैं ..तो चाहे कोई लाख इस बात को झुठलाए ..और लाख तर्क कुतर्कों से इसकी मीनमेख निकाले ..मगर लोकप्रियता ही बता देती है कि ..ये खूब पसंद की जाती हैं । हाल ही में वर्धा में एक वृहत सम्मेलन का आयोजन किया था ..जहां तक मुझे याद है कि ..ये ऐसा दूसरा सम्मेलन था जिसमें ..आयोजन कर्ता की भूमिका में सरकार भी कहीं न कहीं जुडी थी .....जाहिर है कि इसकी रूपरेखा तैयार करने वाले और संचालन करने वाले मित्र तो इसके लिए बधाई के पात्र हैं ही ..क्योंकि यदि सरकारी राशि का कुछ प्रतिशत यदि ब्लॉगर हित में लगवाया जा सका है तो ये कोई कम बडी उपलब्धि नहीं कही जा सकती .....हां इसका प्रभाव और परिणाम कितना सकारात्मक निकला या निकलेगा ..अभी इस पर कुछ भी कहना तो जल्दबजी ही होगी....ऐसा ही एक सम्मेलन पिछले वर्ष ...इलाहाबाद में भी हुआ था । इस बार इसका विषय रखा गया था "ब्लॉगिंग में आचार संहिता की आवशयकता।
         हालांकि इसमें बहुत बडी संख्या में कई वरिष्ठ साथी ब्लॉगर शरीक हुए थे, मगर अभी तक आई रिपोर्टों में विस्तार से जानने को नहीं मिल पाया है कि, सम्मेलन में इस विषय पर क्या क्या बहस हुई और किसने क्या क्या विचार व्यक्त किए ....और यदि कोई निष्कर्ष निकला तो वो क्या रहा । मगर इन सबके बीच ही ..अंतर्जाल पर लिख पढ रहे अन्य हिंदी ब्लॉगर साथी ऊपर लिखित विषय को बहस का आधार बना कर अपने विचार रखने लगे थे और शायद अभी तो आगे भी बहुत कुछ पढने लिखने को मिलेगा । वैसे ये विषय ऐसा है कि जिस पर मेरे विचार से हरेक ब्लॉगर को खुल कर राय जरूर व्यक्त करना चाहिए । आखिर यही छोटे छोटे प्रयास कल के लिए ब्लॉगिंग की दिशा तय करने वाले कदम साबित होंगे ।
         इस मुद्दे पर सोचने बैठा तो सबसे पहले जो बात मेरे जेहन में आई ..वो ये कि आखिर ..आज ऐसी आवश्यकता ही क्यों पडी कि सिर्फ़ पांच सालों की यात्रा के बाद ही ब्लॉगिंग को , वो भी सिर्फ़ हिंदी ब्लॉगिंग को , क्योंकि मुझे ये ज्ञात नहीं है कि अन्य भाषाओं में किसी आचार संहिता की कोई जरूरत पडी है , या कोई है भी , जबकि संख्या में वे इतने आगे हैं कि अभी तुलना करना ही बेमानी होगा ..हां तर्क देने वाले ये तर्क जरूर देंगे कि ...हिंदी ब्लॉगिंग का भी निरंतर विस्तार हो रहा है और कल को ये संख्या निश्चित रूप से बहुत बडी संख्या होगी ..मगर क्या तब तक अन्य भाषी ब्लॉग्स रुके रहेंगे वे भी तो निरंतर बढ रहे हैं न । यहां एक कौतुहल मन में जाग उठा है कि ....तो फ़िर यदि उन्हें इन विषयों पर बात करने की जरूरत नहीं महसूस नहीं होती तो आखिर वे कौन सी बात करते हैं अपने ब्लॉगर बैठकों में ..ये तो वही बता सकते हैं जो कभी इनमें शामिल हुए हों । तो प्रश्न ये कि , आखिर इतनी जल्दी हिंदी ब्लॉगिंग को आचार संहिता की जरूरत क्यों महसूस होने लगी ...जवाब सीधे सीधे आए तो आएगा ..कोई जरूरत नहीं है..। मगर ठहरिए ..मामला उतना भी आसान नहीं है जितना दिखता है । मुझे स्मरण है कि जब २००७ में मैंने ब्लॉगजगत में पदार्पण किया था ..तो कम से चार या पांच एग्रीगेटर्स अपनी सेवाएं दे रहे थे ..। और बाद में ये जान पाया कि , उन सबके बंद होने के पीछे ..कहीं न कहीं , या कहूं कि लगभग पूरा का पूरा हाथ....जी हां आप ठीक समझे ..खुद हिंदी ब्लॉगर्स का ही था ।हाल ही में बंद हुई ब्लॉगवाणी के बंद होने से पहले की स्थितियों से कौन वाकिफ़ नहीं है ?? हालांकि इसका एक और कारण शायद ये भी रहा कि इन सभी संकलकों से जुडे लोग या तो खुद भी ब्लॉगर थे या फ़िर उनसे जुडे हुए अवश्य थे ...दूसरी और अहम बात ये कि ..मुफ़्त ही सेवाएं दे रहे थे ...। इसका परिणाम ये हुआ कि ..अपनी आदत के मुताबिक ..हिंदी ब्लॉगर ने इन संकलकों को भी ..देश की सडक समझ कर ....सुलभ शौचालय की भुगतान कर ..विसर्जन करने वाली सेवा करने से ..आसान पाया और खूब किया भी ..पसंद नापसंद ...हॉट ..आदि जैसे सेवाओं के उपयोग और दुरूपयोग से ..और ये नहीं कह रहा कि ..मैं भी और आप भी ..यानि हम सब ही इसमें परोक्ष प्रत्यक्ष रूप से शामिल थे ।
         इन सबके बावजूद ..ब्लॉगिंग में किसी तरह की कोई आचार संहिता का बनना ....और उससे भी बढकर पालन किया जाना ..फ़िलहाल तो बचकाना सा ही लगता है । इसके बहुत से वाजिब तर्क दिए जा सकते हैं ।उदाहरण के लिए , अभी हुए वर्धा सम्मेलन को ही लें .....सबसे पहले तो यही प्रश्न सामने आएगा कि ...क्या आज मौजूद हिंदी के हर चिट्ठाकार ने ऐसी कोई सहमति दी है ......कि इस सम्मेलन में उपस्थित विद्वान साथियों द्वारा जिस भी आचार संहिता का निर्माण किया जाएगा उसका वे भी पालन करेंगे ...हर चिट्ठाकार न सही ..एक बहुत बडी संख्या ही सही .....अरे सबको छोडिए ..चिट्ठाजगत में अधिकृत पंद्रह बीस हज़ार में से नियमित लिखने पढने वाले पांच सौ या एक हज़ार चिट्ठाकारों ने भी ....और दूसरी बात ये कि ....यदि वहां ऐसी किसी आचार संहिता का निर्माण हो भी जाता ..या कि ऐसे किसी सम्मेलन में कर भी दिया जाए ..तो उस सम्मेलन में ..उपस्थित हर ब्लॉगर क्या उस आचार संहिता को माने जाने का शपथ पत्र दाखिल कर लेगा अपने आप से .....नहीं कदापि नहीं ..मेरा अनुभव तो इस मामले में कुछ अलग ही रहा है ...मैंने तो साथी मित्रों को ..बिना किसी मुद्दे मकसद और एजेंडे के बुलाया था ....और कुछ दोस्तों को उसमें से भी कोई बू दिखाई दे गई .....खैर । हां यदि ऐसी कोई आचार संहिता .....भारतीय सरकार बनाती है ..कल को गूगल या वर्डप्रैस बनाते हैं ..तो उसे मानना हर ब्लॉगर की मजबूरी होगी और तभी इसका अनुपालन हो सकेगा ।
         अब बची बात ये कि यदि आचार संहिता न बन पाती है , नहीं लागू हो पाती है तो फ़िर क्या आज की जो स्थिति है वो कल को और भी बदतर नहीं होगी न ..तो होने दीजीए न ....। मैं पहले से ही कहता रहा हूं कि ,ब्लॉगिंग का एक ही चरित्र है ..वो है उसका निरंकुश चरित्र .....बेबाक , बेखौफ़ ,...बेरोकटोक के ...और खालिस बिंदास ....। एक व्यक्ति अपने ब्लॉग पर रोज एक खूबसूरत चित्र लगाता है प्रकृति का ..उसे क्या लेना देना आपकी हमारी इस आचार संहिता से ...एक ब्लॉगर ....रोज अपनी डायरी का एक पन्ना चिपका देता है ब्लॉग पोस्ट बना कर .....तो उसकी निजि डायरी में आपकी आचार संहिता को वो क्यों घुसेड दे ....। इसको भी जाने दीजीए ..वो जो सिर्फ़ पाठक हैं....जो सिर्फ़ पठन रस लेने के ही ब्लॉग दर ब्लॉग घूमते हैं ..उनपर आप कौन सी आचार संहिता लागू करेंगे ?? और सबसे अहम बात कि ..आखिर वे हैं कौन ..जो ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं ..क्या कभी स्कॉटलैंड के किसी ब्लॉगर ने की ऐसी कोई टिप्पणी जिससे विवाद उठा ...तो ऑस्ट्रेलिया वाले किसी ब्लॉगर ने अपने चिट्ठे को चर्चा में जगह न मिल पाने की शिकायत की हो ...नहीं न ...और तो और ये बात भी सब भलीभांति जानते हैं कि ....अनाम , बेनाम , गुमनाम और नकली प्रोफ़ाईल धारी ब्लॉगर्स भी हमारे आपके बीच से ही है .....तो आप उन दिखने लिखने वाले ब्लॉगर्स पर तो आचार संहिता लागू कर सकते हैं ....मगर उनके भीतर बैठे ....उन अनाम सुनाम ब्लॉगर पर नहीं । फ़िर एक सबसे जरूरी बात ,,,,,आखिर कुछ सोच कर ही मोडरेशन वाला विकल्प , सार्वजनिक और निजि का विकल्प , अनाम को बाधित किए जाने का विकल्प ही सही मायने में ..आचार संहिता की नौबत तक न पहुंचने देने के हथियार तो हैं ही न ???
 
         मुझे इस बात से कोई परहेज़ नहीं है कि इस मुद्दे को उठाया गया है ,लेकिन मेरी समझ से इससे बेहतर भी हैं कई उपाय जो किए जाएं तो ज्यादा सार्थक हो सकते हैं । चाहे एक मिनट के लिए आचार संहिता न भी बना पाएं , न लागू कर पाएं , मगर उन पर विचार तो किया ही जा सकता है , क्योंकि कल को जब ..मीडिया के दबाव में ( मुझे अब ये पूरी उम्मीद है कि यदि कल को हिंदी ब्लॉगर्स के प्रति भारत सरकार का नज़रिया और नीति , जो कि अभी है ही नहीं , बदलती है तो वो हिंदी मीडिया की पहल पर ही होगा । आज हिंदी ब्लॉगिंग उनके लिए ही सबसे बडी चुनौती के रूप में निकली है , तो उस समय सरकार के सामने उस संहिता के उपबंधों को रखा जाए । एक काम और हो सकता है , जिसके लिए किसी आचार संहिता दंड संहिता की जरूरत नहीं है । उन बातों को जो कि सकारात्मक हैं ..जो कि सही हैं ...उन्हें पर्याप्त समर्थन दिया जाए ..कम से कम उतना तो जरूर ही कि ..उसे किसी कदम पर लडखडाहट न ..और ऐसा ही तब हो जब कुछ गलत हो रहा हो ...मगर यहां कुछ लोगों को ये शिकायत रहती है कि..जब मेरे साथ फ़लाना हुआ तब तो कोई नहीं बोला ..जब ऐसा हुआ तब तो नहीं कहा किसी ने कुछ ..तो उन मित्रों से कहना चाहूंगा कि ऐसी स्थिति में ..सिर्फ़ दो बातें हो सकती हैं ...पहली ये कि या तो उनको सही पाकर लोग खुद बखुद उनके साथ जुडते चले जाएं ..या नहीं तो वे खुद ये प्रयास करें कि उनकी लडाई को उनके नज़रिए को ...उनके साथी ब्लॉगर्स भी उसी नज़रिए से देखें जिससे वे देख रहे हैं । अब यहां कुछ सवाल ऐसे उठ सकते हैं कि फ़िर तो इसके लिए आपका एक ग्रुप होना चाहिए ..या गुट बनाना चाहिए ....तो इसमें अस्वाभाविक कौन सी बात है ?? चलिए एक उदाहरण लेते हैं ..आज जितने भी पंजीकृत ब्लॉगर्स हैं ......उनमें से जो नियमित हैं सिर्फ़ वही एक दूसरे की पोस्ट को पढ लिख रहे हैं ..ये पांच सौ हों य छ: सौ ..तो बांकी बचे हुए हजारों अनियमित ब्लॉगर्स के लिए ..तो ये पांच छ: सौ वाला नियमित समूह ...एक ग्रुप ही बन गया न । और ये नहीं भूलना चाहिए कि परिवार में रहने वाले भाईयों में भी उन्हीं में पटती है जो एक जैसी विचारधारा वाले हों ...,,,,,और विपरीत विचारधारा वालों के सामने रहती पाई जाती है । नहीं नहीं होगा क्या ..क्या होगा आखिर ?? क्या ब्लॉग पर होने वाली बहस का परिणाम ...गुजरात के गोधरा से , १९८४ के सिक्ख दंगों से , जम्मू में रोज मारे जा रहे लोगों से अधिक भयंकर होगा ....नहीं न । तो फ़िर चलने दीजीए इसे निर्बाध और अनवरत ।

             जनाब तभी तो कहता हूं कि ब्लॉग जगत को पहले ठीक से जवां तो होने दीजीए ..अभी तो इतना लडकपन है कि किसी ब्लॉगर के साथ हुई दुरघटना को भी लोग सहनुभूति से नहीं शक की नज़र से देखते हैं ...क्यों है न ..पता नहीं कितना और क्या क्या लिख गया .....मगर माफ़ करिएगा हुजूर ...मैंने पहले ही कह रखा है ..कुछ भी कभी भी कहूंगा ,,,,सो कह दिया ...
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मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010

मुक्तिका शक न उल्फत पर संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

शक न उल्फत पर

संजीव 'सलिल'
*
शक न उल्फत पर मुझे, विश्वास पर शक आपको.
किया आँसू पर भरोसा, हास पर शक आपको..

जंगलों से दूरियाँ हैं, घास पर शक आपको.
पर्वतों को खोदकर है, त्रास पर शक आपको..

मंजिलों से क्या शिकायत?, कदम चूमेंगी सदा.
गिला कोशिश को है इतना, आस पर शक आपको..

आम तो है आम, रहकर मौन करता काम है.
खासियत उस पर भरोसा, खास पर शक आपको..

दर्द, पीड़ा, खलिश ही तो, मुक्तिका का मूल है.
तृप्ति कैसे मिल सके?, जब प्यास पर शक आपको..

कंस ने कान्हा से पाला बैर- था संदेह भी.
आप कान्हा-भक्त? गोपी-रास पर शक आपको..

मौज करता रहा जो, उस पर नजर उतनी न थी.
हाय! तप-बलिदान पर, उपवास पर शक आपको..

बहू तो संदेह के घेरे में हर युग में रही.
गज़ब यह कैसा? हुआ है सास पर शक आपको..

भेष-भूषा, क्षेत्र-भाषा, धर्म की है भिन्नता.
हमेशा से, अब हुआ सह-वास पर शक आपको..

गले मिलने का दिखावा है न, चाहत है दिली.
हाथ में है हाथ, पर अहसास पर शक आपको..

राजगद्दी पर तिलक हो, या न हो चिंता नहीं.
फ़िक्र का कारण हुआ, वन-वास पर शक आपको..    

बादशाहों-लीडरों पर यकीं कर धोखा मिला.
छाछ पीते फूँक, है रैदास पर शक आपको..


पतझड़ों पर कर भरोसा, 'सलिल' बहता ही रहा.
बादलों कुछ कहो, क्यों मधुमास पर शक आपको??

सूर्य शशि तारागणों की चाल से वाकिफ 'सलिल'.
आप भी पर हो रहा खग्रास पर शक आपको..

दुश्मनों पर किया, जायज है, करें, करते रहें.
'सलिल' यह तो हद हुई, रनिवास पर शक आपको..
***

गीत: जीवन तो... संजीव 'सलिल'

गीत:

जीवन तो...

संजीव 'सलिल'
*
जीवन तो कोरा कागज़ है...
*
हाथ न अपने रख खाली तू,
कर मधुवन की रखवाली तू.
कभी कलम ले, कभी तूलिका-
रच दे रचना नव आली तू.

आशीषित कर कहें गुणी जन
वाह... वाह... यह तो दिग्गज है.
जीवन तो कोरा कागज़ है...
*
मत औरों के दोष दिखा रे.
नाहक ही मत सबक सिखा रे.
वही कर रहा और करेगा-
जो विधना ने जहाँ लिखा रे.

वही प्रेरणा-शक्ति सनातन
बाधा-गिरि को करती रज है.
जीवन तो कोरा कागज़ है...
*
तुझे श्रेय दे कार्य कराता.
फिर भी तुझे न क्यों वह भाता?
मुँह में राम, बगल में छूरी-
कैसा पाला उससे नाता?

श्रम -सीकर से जो अभिषेकित
उसके हाथ सफलता-ध्वज है.
जीवन तो कोरा कागज़ है...
*

गीत: अरे मन ! संजीव 'सलिल'

गीत:
 

अरे मन !
 
संजीव 'सलिल'


*
सहज हो ले रे अरे मन !
*
मत विगत को सच समझ रे.
फिर न आगत से उलझ रे.
झूमकर ले आज को जी-
स्वप्न सच करले सुलझ रे.
 
प्रश्न मत कर, कौन बूझे?
उत्तरों से कौन जूझे?
भुलाकर संदेह, कर-
विश्वास का नित आचमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
उत्तरों का क्या करेगा?
अनुत्तर पथ तू वरेगा?
फूल-फलकर जब झुकेगा-
धरा से मिलने झरेगा.

बने मिटकर, मिटे बनकर.
तने झुककर, झुके तनकर.
तितलियाँ-कलियाँ हँसे,
ऋतुराज का हो आगमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
स्वेद-सीकर से नहा ले.
सरलता सलिला बहा ले.
दिखावे के वसन मैले-
धो-सुखा, फैला-तहा ले.

जो पराया वही अपना.
सच दिखे जो वही सपना.
फेंक नपना जड़ जगत का-
चित करे सत आकलन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*

सारिका-शुक श्वास-आसें.
देह पिंजरा घेर-फांसे.
गेह है यह नहीं तेरा-
नेह-नाते मधुर झाँसे.

भग्न मंदिर का पुजारी
आरती-पूजा बिसारी.
भारती के चरण धो,
कर -
निज नियति का आसवन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*

कैक्टस सी मान्यताएँ.
शूल कलियों को चुभाएँ.
फूल भरते मौन आहें-
तितलियाँ नाचें-लुभाएँ.

चेतना तेरी न हुलसी.
क्यों न कर ले माल-तुलसी?
व्याल मस्तक पर तिलक है-
काल का है आ-गमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

हिंदी शब्द सलिला : ४ अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: ४ -------संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : ४

संजीव 'सलिल'
*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदस-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

अ से आरम्भ होनेवाले शब्द: ४  

अकलउता - वि. छ. एकमात्र, इकलौता.
अकलउती - वि. छ. एकमात्र, इकलौती.
अकलकरहा - सं. पु, छ. अकरकरा, एक दवा / औषधि का पौधा.
अकलमुड़ा - वि. छ. उल्टी अकल का, बेअकल. सं., पु. इकलौता, इकलौती.
अकसरिया - वि. छ. एक बार, पहली बार.
अकसी - सं. छ. पेड़ से फल तोड़ने के लिये डंडे / बाँस में जाली बाँध कर बनाई गई डंगनी जिससे तोड़ते समय फल नीचे न गिरे. 
अकाउंट - पु. इ. हिसाब, लेखा. -असिस्टेंट- पु., लेखा सहायक, -ऑफीसर- पु., लेखाधिकारी, -बुक- बही-खाता, -लैस- लेखा बिना, लेखा हीन .
अकाउन्टेंट - पु. इ. हिसाब-किताब लिखने / जाँचने वाला, मुनीम.
अकाउन्टेंसी - स्त्री. इ. लेखा-विद्या, लेखाशास्त्र, लेखा-कर्म, लेखा-विधि. 
अकाज - पु. कार्य-हानि, काम का नुक्सान, हर्ज, विघ्न, बाधा, दुष्कर्म, बुरा काम. अ., व्यर्थ ही, निष्प्रयोजन.
अकाजना - सक्रि. हानि करना. अक्रि., नष्ट होना, न रहना.
अकाजी - वि. अकाज करनेवाला, हानि करनेवाला, न करने योग्य काम / दुष्कर्म करनेवाला, निरुद्देश्य काम करनेवाला.
अकाट - वि. ऐसी दलील / तर्क जो कट न सके / जिसे काटा न जा सके, अखण्डणीय, अकाट्य.
अकाट्य - वि. ऐसी दलील / तर्क जो कट न सके / जिसे काटा न जा सके, अखण्डणीय, अकाट.
अकातर - वि. सं., जो भीरु / हतोत्साहित / डरा / भीत न हो.
अकाथ - वि. अकथनीय, न कहने योग्य, अ., अकारथ, व्यर्थ.
अकादमी - पु. उच्च शिक्षा संस्था, किसी विषय / विधा की उन्नति हेतु स्थापित विद्वानों की परिषद्.
अकाम - वि. सं. कामनारहित, निष्काम, इच्छारहित, उदासीन, अनिच्छुक, वासनाहीन. पु., दुष्कर्म, अ., निष्प्रयोजन, अकारण, निरुद्देश्य, बिना काम के. -हत- वि. जो इच्छा से प्रभावित न हो, धीर, शांत.
अकामता - स्त्री. सं. इच्छा का अभाव.   
अकामी /मिन - वि. सं. देखें अकाम.
अकाय - वि. सं. कायरहित, अशरीर. पु. राहू, परमात्मा, निराकार, चित्रगुप्त.
अकार - पु. सं. 'अ' अक्षर या उसकी उच्चारण ध्वनि.
अकारण - अ. सं. बिना कारण, बेमतलब. वि. हेतुरहित, निरुद्देश्य., पु. कारण का अभाव.
अकारत/थ - अ. व्यर्थ, बेकार (आना, जाना, होना), वि. निष्फल, लाभहीन.
अकारन   - पु. सं. देखें अकारण.
अकारांत - वि. सं. जिसके अंत में 'अ' हो.
अकारादि - वि. सं. 'अ' से आरंभ होनेवाला क्रम.
अकारपण्य - वि. सं. जो बिना नीचता या दीनता दिखाए प्राप्त किया गया हो. पु दीनता, कृपणता या हीनता का अभाव.
अकार्य - वि. सं. न करने योग्य, अकर्तव्य, अनुचित. पु. बुरा काम, अनुचित कार्य. -कारी/रिन- वि., बुरा काम करनेवाला, कर्त्तव्य का पालन न करनेवाला.
अकाल - पु. सं. अयोग्य या अनियत काल, कुसमय, अनवसर, अशुभकाल, काल के परे, परमात्मा, चित्रगुप्त. हि. दुर्भिक्ष, सूखा, कमी. वि. जो काला न हो, सफ़ेद, बेमौसिम का, असामयिक. -कुसुम-बेमौसिम का फूल, बेमौसिम की चीज. -कुष्मांड / कूष्माण्ड- पु. बेमौसिम का कुम्हड़ा, बलिदान आदि के काम न आनेवाला कुम्हड़ा, बेकार चीज, बेकाम वस्तु, निरर्थक जन्म. (गांधारी को कूष्मान्डाकार मांसपिंड का अकाल प्रसव हुआ था जिससे कुरुकुलनाशक दुर्योधन आदि सौ पुत्रों का जन्म हुआ जो कौरव कहलाये.) -ग्रस्त- दुर्भिक्ष का मारा, समय का मारा, विपदा-संकट में फँसा हुआ. --वि.असमय उत्पन्न होनेवाला. -जलद- पु. असमय का बादल, -जलोदय/मेघोदय- पु. बेवक्त, बेमौसिम बादलों का घिरना. -जात- समय से पहले, बेमौसिम उपजा हुआ. -तख़्त- सिखों की सर्वोच्च धार्मिक पीठ, अमृतसर में. -पक्व- वि. समय से पहले पक जाने वाला (फल आदि), -पुरुष/पुरुख- पु. परमेश्वर चित्रगुप्त/कायस्थ, परमात्मा सिख. -पंथ- सिखों की एक शाखा. -प्रसव- समय-पूर्व प्रसव, वक़्त से पहले जचकी. -भूत- एक प्रकार का दास जो अकाल में मिला हो. -मूर्ति- पु. अविनाशी पुरुष. -मृत्यु- स्त्री.असामयिक/दुर्घटना या अल्प वय में होने वाली मौत. -विचारणा- स्त्री. (इन्क्वेस्ट) अकाल मृत्यु आदि के संबंध में की जानेवाली कानूनी जाँच-पड़ताल, अन्वीक्षण, अपमृत्यु-समीक्षा. -वृद्ध- वि. समय से पहले बूढा, कमजोर हो जानेवाला. -बेला- स्त्री. असमय. -सह- जो देर न सह सके, अधीर, जो देर तक चल या टिक न सके.          
अकालिक - वि. सं. असामयिक.
अकाली - पु. सिखों का एक संप्रदाय, अकाल तख़्त का अनुयायी.
अकालोत्पन्न - वि. सं. समय से पहले उत्पन्न.
अकाव - पु. आक, मंदार.
अकास - पु. देखें आकाश. -दिया/दीया- पु. आकाशदीप. -नीम- पु. एक पेड़. -बानी- स्त्री. आकाशवाणी, देव-वाणी. -बेल- स्त्री. अमरबेल. मु. -बाँधना- असंभव काम करने का यत्न करना, -'सूधे बात कहौ सुख पावै, बंधन कहत अकास- सूरदास.
अकासी - स्त्री. एक पक्षी, चील, द्रव जिसे पीकर दिमाग आसमान में उड़ने की अनुभूति कराये, ताड़ी.   
*