हिन्दी में आमतौर पर प्रचलित सब्जी और तरकारी लफ्ज फारसी के हैं और बरास्ता उर्दू ये हिन्दी में प्रचलित हो गए। मोटे तौर पर देखा जाए तो तरकारी और सब्जी के मायने एक ही समझे जाते हैं यानी सागभाजी। मगर अर्थ एक होने के बावजूद भाव दोनों का अलग-अलग है। हालांकि तरकारी शब्द संस्कृत मूल से निकला है। मगर पहले बात सब्जी की।फारसी का एक शब्द है सब्ज: यानी सब्जा जिसका मतलब है हरी घास, हरियाली, हरे रंग का या सांवला। इसी से बना सब्जी लफ्ज जिसका मतलब है साग भाजी, तरकारी, हरे पत्ते, हरियालापन या भांग आदि। जाहिर है कि सब्ज यानी हरे रंग से संबंधित होने की वजह से सब्जी का मूल अर्थ हरे पत्तों से ही था यानी पालक, बथुआ, मेथी, चौलाई जैसी तरकारी जिनका सब्जी के अर्थ में प्रयोग एकदम सटीक है । मगर अब तो सब्जी का मतलब सिर्फ तरकारी भर रह गया है। हालत सब्ज: यानी सब्जा जिसका मतलब है हरी घास, हरियाली, हरे रंग का या सांवलाये है कि अब आलू गोभी समेत पीले रंग का कद्दू, लाल रंग का टमाटर बैंगनी बैंगन, या सफेद मूली सब कुछ सामान्य सब्जी है और पालक मेथी ,बथुआ और पत्तों वाली सब्ज़ियां हरी सब्जी कहलाती हैं। गौरतलब है कि हरा रंग सुख समृद्धि का प्रतीक है जिसमें खुशहाली, सौभाग्य के साफ संकेत हैं। साधारण जीवनस्तर का संकेत अक्सर खान पान के जरिये भी दिया जाता है मसलन दाल रोटी खाकर गुजारा करना। इसका साफ मतलब है कि सब्जी खाना समृद्धि की निशानी है और यह आम आदमी को आसानी से मयस्सर नहीं है। प्रकृति विभिन्न रंगों में अपने भाव प्रकट करती है। जीव जगत के लिए जो रंग सर्वाधिक अनुकूल है वह है हरा रंग क्योंकि सभी प्रकार के जीवों का मुख्य आहार है वनस्पतियां जो हरे रंग की ही होती हैं। इसीलिए मनुष्य ने हरे रंग को सौभाग्य और मंगलकारी माना है। सब्जः से बने कुछ और भी शब्द हैं जो उर्दू में ज्यादा प्रचलित हैं जैसे सब्जरू यानी जिसकी दाढ़ी-मूछें उग रही हों, सब्जकार यानी जो कुशलता से काम करे। सब्जबख्त यानी सौभाग्य शाली। खुशहाली और अच्छे दिनों के लिए कहा जाता है हराभरा होना। मोटे तौर पर सब्जीखोर शब्द के मायने होंगे वह शख्स जो तरकारी यानी सब्जी ज्यादा खाता हो। मगर फारसी में इसका सही मतलब होता है शाकाहारी। हरितिमा, हराभरा या हरियाली से भरपूर माहौल को सब्जख़ेज कहा जाता है। अब बात तरकारी की। यह शब्द बना है फ़ारसी के तर: से जिसका मतलब है सागभाजी। इसी तरह फ़ारसी का ही एक शब्द है तर जिसका मतलब है नया, आर्द्र यानी गीला, एकदम ताजा, लथपथ , संतुष्ट वगैरह। जाहिर है पानी से भीगा होना और एकदम ताजा होना ही साग सब्जी की खासियत है। यह तर बना है संस्कृत की तृप् धातु से जिससे बने तृप्त-परितृप्त शब्द का अर्थ भी यही है यानी प्रसन्न, संतुष्ट। इससे बने तर से हिन्दी उर्दू में कई शब्द आम हैं जैसे तरबतर, खूबतर और तरमाल आदि। अब बात साग-भाजी की। साग शब्द संस्कृत के शाक: या शाकम् से बना है जिसका अर्थ है भोजन के लिए उपयोग में आने वाले हरे पत्ते या कंद, मूल, फल आदि। इस साग-भाजी को कहीं-कहीं साक या शाक भी कहते हैं। रूखे-सूखे भोजन के किये साग-पात शब्द भी चलता है।
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
गुरुवार, 30 अप्रैल 2009
शब्द-यात्रा: सब्ज़ -अजित वडनेरकर
बुधवार, 29 अप्रैल 2009
गीत: मानसरोवर तज... संजीव 'सलिल'
कागा आया है
जयकार करो,
जीवन के हर दिन
सौ बार मरो...
राजहंस को
बगुले सिखा रहे
मानसरोवर तज
पोखर उतरो...
सेवा पर
मेवा को वरीयता
नित उपदेशो
मत आचरण करो...
तुलसी त्यागो
कैक्टस अपनाओ
बोनसाई बन
अपनी जड़ कुतरो...
स्वार्थ पूर्ति हित
कहो गधे को बाप
निज थूका चाटो
नेता चतुरों...
कंकर में शंकर
हमने देखा
शंकर को कंकर
कर दो ससुरों...
मात-पिता मांगे
प्रभु से लडके
भूल फ़र्ज़, हक
लड़के लो पुतरों...
*****
राम भजन : स्व. शान्ति देवी
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ, राज कुंवर दो आए।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
कौन के कुंवर?, कहाँ से आए?, कौन काज से आए? 
कहो री गुइयाँ, कहो री गुइयाँ...
दशरथ-कुंवर, अवध से आए, स्वयम्वर देखे आए।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
का पहने हैं?, का धारे हैं?, कैसे कहो सुहाए?
कहो री गुइयाँ, कहो री गुइयाँ...
पट पीताम्बर, कांध जनेऊ, श्याम-गौर मन भये।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
शौर्य-पराक्रम भी है कछु या कोरी बात बनायें?
कहो री गुइयाँ, कहो री गुइयाँ...
राघव-लाघव, लखन शौर्य से मार ताड़का आए।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
चार कुंअरि हैं जनकपुरी में, कौन को जे मन भाए?
कहो री गुइयाँ, कहो री गुइयाँ...
अवधपुरी में चार कुंअर, जे सिया-उर्मिला भाए।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
विधि सहाय हों, कठिन परिच्छा रजा जनक लगाये।
कहो री गुइयाँ, कहो री गुइयाँ...
तोड़ सके रघुवर पिनाक को, सिया गिरिजा से मनाएं।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
***********
अंगरेजी ग़ज़ल- हिन्दी काव्यानुवाद: प्रो. अनिल जैन -डॉ. बाबु जोसेफ
When Sun goes down and Moon is bright. ----------------सूरज जब अलविदा कहता चाँद चमकता है॥
Do not make noise, the session going on. ------------------------आवाज न करो वह काम चल रहा है।
They gathered here to get scriptures cite. ---------------------इकट्ठे हुए यहाँ वे कलाम दोहराते हैं॥
The term is coming to an end. ----------------------------------वह सत्र तो अब ख़त्म हुआ जाता है।
Again the walls are there to write. ----------------------------दीवारें खडीं फ़िर से लिखने के लिए हैं॥
A lamb is killed in the forest. ------------------------------जंगल में एक मासूम मेमना मारा जाता है।
Each one stood to take a bite. ----------------------------------सभी खड़े वहाँ हिस्सा लेने के लिए हैं॥
The darker gets the deepar you go. ---------------------------गहराई में जाओगे तो अँधेरा बढेगा ही।
The darkness always claad in white. -------------------------वह अँधेरा सफेदी का जामा ओढे हुए है॥
My place is said to be peaceful one. ---------------------------मेरा रुतबा तो अमन के परवाने का है।
I got my share, why should I fight? ------------------जब मिल गया हिस्सा ज़रूरत क्यों लड़ने की है?
Wrong is wrong till they out. ----------------------------गलत तो गलत है जब तक वे नहीं शामिल।
Take them in the wrong is wright. --------------------------शामिल करो उन्हें तो ग़लत भी सही है॥
Find some means to keep them busy. ---------------------उन्हें मसरूफ रखने का जरिया खोजना है।
Dangef lies in moments of respite। --------------------------आराम के लम्हों में ही खतरा मंडराता है॥
Never mind when it barks. ----------------------------------नजर अंदाज़ कर दो जो भी भौंकता है।
Throw him peace and dog is quiet. ----------------------------टुकडा डालो कुत्ता चुप होने के लिए है॥
Your love only abode of peace. ---------------------------------तुम्हारा प्यार ही अमन का चमन है।
Where day dawns after night. ----------------------------------जहाँ रात गुजरने पर सवेरा होता है॥
**************************** ***************************
लघु कथा सलिला: प्रार्थना -कुँवर प्रेमिल
स्वरूप संपत रोज़गार के लिए बहुत घूमा। कई जोड़े जूते-चप्पलें घिस गयीं। मायूस होकर उसने आत्महत्या की बात सोचना प्रारम्भ कर दी।मरने से पहले उसने अपने इष्ट की याद कर लेना उचित समझा। प्रार्थना करते हुए वह मन ही मन में बुदबुदाया: 'हे इष्ट देव! अगली बार यदि जन्म देना तो किसी आरक्षित वर्ग में ही देना, नहीं तो इस मनुष्य तन का फायदा ही क्या है?' ऐसे ही चप्पलें तब भी घिसनी पड़ेंगी और ऐसी ही कायरता तब भी करना पड़ेगी। मैं बार-बार ऐसा नहीं करना चाहता हूँ। भगवान जी! मेरी लाज रखना।
****************
सूक्ति कोष प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' / सलिल
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।
प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
कंटेंट santosh:
'Poor and content is rich and rich enough.'
दीनता में भी जिसे संतोष है। / सत्य ही निस्सीम उसका कोष है।
जो दरिद्रता को रहे, कृपा देव की मान।
धनी न उनसे अधिक है, अन्य 'सलिल' ले मान।
************************************************
शब्द यात्रा: कछुआ - अजित वडनेरकर
सु सुस्त रफ्तार के लिए कछुआ-चाल kachhua मुहावरा प्रसिद्ध है। कछुआ एक प्रसिद्ध उभयचर है जो जल और धरती दोनो पर रह सकता है। इसका शरीर कवच से ढका होता है। अत्यंत छोटे पैरों और स्थूल आकार के चलते इसकी रफ्तार बेहद धीमी होती है। धीमी गति से काम करनेवाले व्यक्ति के लिए जहां कछुआ चाल मुहावरा उलाहने के तौर पर इस्तेमाल होता है वहीं कछुआ-खरगोश की प्रसिद्ध कथा कछुए के बारे में अलग ही संदेश देती है। यह नीतिकथा कछुए को ध्येयनिष्ठ और लगनशील साबित करती है जो अपनी धीमी गति के बावजूद खरगोश से दौड़ में जीत जाता है जबकि इस कथा में चंचल, चपल और तेज रफ्तार खरगोश को अति चातुरी और दंभ की वजह से हार का मुंह देखना पड़ा था। कछुआ जलतत्व का प्रतीक भी है। कुछ विशिष्ट बसाहटों का संबंध भी कछुए से है। कछुआ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के कच्छप से मानी जाती है। कच्छप kachhap शब्द बना है कक्ष+कः+प के मेल से जिसका मतलब होता है कक्ष में रहनेवाला। गौरतलब है कि कछुए की बाहरी सतह एक मोटी-कठोर खोल से ढकी होती है। संस्कृत कक्षः का अर्थ होता है प्रकोष्ठ, कंदरा , कुटीर का भाव है। हिन्दी में कमरे के लिए कक्ष प्रचलित शब्द है। खास बात यह कि आश्रय के संदर्भ में कक्ष में आंतरिक या भीतरी होने का भाव भी विद्यमान है। मोटे तौर पर कक्ष किसी भवन के भीतरी कमरे को ही कहा जाता है। कक्षा का जन्म हुआ है कष् धातु से जिसमें कुरेदने, घिसने, खुरचने, मसलने आदि का भाव है। किसी भी आश्रय के निर्माण की आदिम क्रिया खुरचने, कुरेदने से ही जुड़ी हुई है। कछुआ बेहद शर्मीला और सुस्त प्राणी है। प्रकृति ने इसे अपनी रक्षा के लिए एक विशाल खोल प्रदान किया है। दरअसल यह एक कक्ष की तरह ही है। आपात्काल को भांप कर कछुआ अपने शरीर को इस खोल में सिकोड़ लेता है जिससे यह हिंस्त्र जीवों से अपनी ऱक्षा कर पाता है। कछुए के अनेक रूप हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे कच्छवो, कच्छू, कछऊं, काछिम, कश्यप आदि। मराठी में इसे कासव कहते हैं। कछुआ शब्द की व्युत्पत्ति कश्यप kashyap से भी जोड़ी जाती है। पुराणों में कश्यप नाम के ऋषि भी थे जो ब्रह्मा के पुत्र मरीचि की संतान थे। एक पौराणिक प्रसंग में वे स्वयं अपने कश्यप नाम का अर्थ बताते हुए कहते हैं कि कश्य का अर्थ है शरीर। जो उसको पाले अर्थात रक्षा करे वह हुआ कश्यप। गौर करें कि अपनी मोटी खाल के भीतर कछुआ अपने शरीर की बड़ी कुशलता से रक्षा करता है अतः यहां कश्यप से व्युत्पत्ति भी तार्किक है। उत्तर भारत में सोनकच्छ sonkachh नाम के एकाधिक कस्बे मिलेंगें। यह ठीक वैसा ही है जेसे राजगढ़ या उज्जयिनी नाम की एक से अधिक आबादियां होना। कछुआ जल संस्कृति से जुड़ा हुआ है। गौर करें भारतीय संस्कृति में जल को ही जीवन कहा गया है। जल से जुड़े समस्त प्रतीक भी मांगलिक और कछुआ अपने शरीर की रक्षा मोटी खाल में कुशलता से करता है… समृद्धि के द्योतक हैं। चाहे जिनमें मत्स्य, मीन, शंकु, अमृतमंथन में निकल चौदह रत्नों समेत कछुआ भी शामिल है। प्राचीनकाल मे कई तरह के प्रयासों और संस्कारों की सहभागिता से जलसंकट से मुक्ति पायी जाती थी। जल का प्रतीक होने के चलते कश्छप को अत्यंत पवित्र माना जाता रहा है। जिस स्थान को कुआं या तालाब का निर्माण होना होता था, सर्वप्रथम उस स्थान की भूमि पूजा कर खुदाई आरंभ की जाती थी। जब जलाशय या कुएं का निर्माण परा हो जाता तब इस कामना के साथ उसकी तलहटी में स्वर्ण-कच्छप अर्थात कछुए की सोने से बनी आकृति स्थापित कर दी जाती थी। अगर उ जल की भरपूर उपलब्धता बनी रहती तो उस स्थान के साथ स्वर्ण कच्छप का नाम जुड़ जाता। इस उल्लेख की आवृत्ति इतनी ज्यादा होती कि कई बार उस स्थान का नाम ही सोनकच्छ हो जाता। भोपाल से इंदौर और भोपाल से जयपुर जाने के रास्ते में क्रमशः सौ किमी और सोलह किमी की दूरी पर इसी नाम के दो कस्बे हैं। कछुए के लिए संस्कृत में एक और शब्द है कूर्मः । समुद्रमंथन के प्रसिद्ध प्रसंग में जब मंदार पर्वत को देव-दानवों ने मथानी बनाया तब भगवान विष्णु ने कछुए का रूप धारण कर उसे आधार प्रदान किया था जिसे कूर्मावतार भी कहा जाता है। उत्तर भारत का एक स्थान प्राचीनकाल में कूर्मांचल कहलाता था जो आज उत्तराखंड प्रांत में है और कुमाऊं नाम से प्रसिद्ध है। बताया जाता है कि यहां कूर्म पर्वत है। पौराणिक कथा के अनुसार इस पर्वत पर प्रभु विष्णु ने कूर्मावतार में तपस्या की थी इसीलिए इसका नाम कूर्मपर्वत पड़ा और यह क्षेत्र कूर्मांचल कहलाया। यहां के निवासियों की आजीविका के लिए अथक श्रमजीवी-वृत्ति अर्थात कमाऊं से ध्वनिसाम्य करते हुए भी कई लोग कुमाऊं की व्युत्पत्ति मानते हैं। मगर इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।
मंगलवार, 28 अप्रैल 2009
वेब पत्रकारिता पर शोध :
आत्मीय!
'परहित सरिस धरम नहीं भाई ! किसी का हित करने का ऐसा अवसर मिले की आपकी गाँठ से कौडी भी न जाए तो धर्म करने का यह अवसर कौन चूकना चाहेगा?
आपके सामने एक ऐसा ही अवसर है। आप जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में पत्रकारिता एंव जनसंचार विभाग की द्वितीय वर्ष की छात्रा निहारिका श्रीवास्तव के कुछ प्रश्नों के उत्तर देकर उसके लघु शोध कार्य में सहायक हो सकते हैं।
स्नातकोत्तर चतुर्थ सत्र में उसके लघु शोध पत्र का विषय है - 'बेव पत्रकारिता का बिकास एंव संभावनाये' ।
प्रश्न निम्न है--
प्रश्न १ : ई न्यूज पेपर क्या है?
प्रश्न 2 : पोर्टल क्या है?
प्रश्न 3 : डाॅट इन, डाॅट काम, डाॅट ओ। आर। जी। तथा अन्य सबंधित शब्दों के अर्थ एवं बेव पत्रकारिता में उनकी भूमिका?
प्रश्न 4 : भारत में बेव पत्रकारिता का प्रचलन कैसा है एंव मुख पोर्टल कौन कौन से है?
प्रश्न 5: वेब पत्रकारिता के विभिन्न स्वरूप एंव उनके समक्ष आने वाली चुनौतिया क्या ?
दिव्य नर्मदा के पाठक / दर्शक इन प्रश्नों के उत्तर देकर इस लधु शोध पत्र के लिए संजीवनी बूटी के समान सहायक सिद्ध हों। इन प्रश्नों के अतिरिक्त उक्त शोध पत्र से संबधित अन्य कोई जानकारी रखते है तो आप निहारिका को अपने ज्ञान से अनुगृहित करें।
निहारिका का ee मेल पता mailto:---naina7786@%3Cspan%20title= डाक का पता : निहारिका श्रीवास्तव, जनसंचार एंव पत्रकारिता अध्ययन केन्द्र, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
**************************
आंग्ल काव्य सलिला: भारत माता : सलिल
POETRY :
BHARAT MATA
Salil
She is lovely,
She is brave .
She is gentle,
As river wave.
She is the ocean,
She is the sky.
She is the faith,
Never asks why?
Always do right
Never feels fear,
Call him by heart
And find very near।
She is power
the SHAKTI.
She is devotion
the BHAKTI.
She is donor
the DATA.
Not merely the land
But BHARAT MATA.
*********************
ग़ज़ल सलिला: मनु बतखल्लुस
जुनूने-गिरिया का ऐसा असर भी, मुझ पे होता है
कि जब तकिया नहीं मिलता, तो दिल कागज़ पे रोता है
अबस आवारगी का लुत्फ़ भी, क्या खूब है यारों,
मगर जो ढूँढते हैं, वो सुकूं बस घर पे होता है
तू बुत है, या खुदा है, क्या बला है, कुछ इशारा दे,
हमेशा क्यूँ मेरा सिजदा, तेरी चौखट पे होता है
अजब अंदाज़ हैं कुदरत, तेरी नेमत-नवाजी के
कोई पानी में बह जाता, कोई बंजर पे रोता है
दखल इतना भी, तेरा न मेरा उसकी खुदाई में
कि दिल कुछ चाहता है, और कुछ इस दिल पे होता है
----------------------------------------------------
भजन सलिला: बाजे अवध बधैया -स्व शान्ति देवी
बाजे अवध बधैया
बाजे अवध बधैया, हाँ हाँ बाजे अवध बधैया...
मोद मगन नर-नारी नाचें, नाचें तीनों मैया।
हाँ-हाँ नाचें तीनों मैया, बाजे अवध बधैया..
मातु कौशल्या जनें रामजी, दानव मार भगैया
हाँ हाँ दानव मार भगैया बाजे अवध बधैया...
मातु कैकेई जाए भरत जी, भारत भार हरैया
हाँ हाँ भारत भार हरैया, बाजे अवध बधैया...
जाए सुमित्रा लखन-शत्रुघन, राम-भारत की छैयां
हाँ हाँ राम-भारत की छैयां, बाजे अवध बधैया...
नृप दशरथ ने गाय दान दी, सोना सींग मढ़ईया
हाँ हाँ सोना सींग मढ़ईया, बाजे अवध बधैया...
रानी कौशल्या मोहर लुटाती, कैकेई हार-मुंदरिया
हाँ हाँ कैकेई हार-मुंदरिया, बाजे अवध बधैया...
रानी सुमित्रा वस्त्र लुटाएं, साडी कोट रजैया
हाँ हाँ साडी कोट रजैया, बाजे अवध बधैया...
विधि-हर हरि-दर्शन को आए, दान मिले कुछ मैयाहाँ
हाँ हाँ दान मिले कुछ मैया, बाजे अवध बधैया...
'शान्ति'-सखी मिल सोहर गावें, प्रभु की लेनी बलैंयाँ
हाँ हाँ प्रभु की लेनी बलैंयाँ, बाजे अवध बधैया...
***********
सूक्ति कोष : प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' / सलिल
सूक्ति कोष
प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं।
संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।
प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
Consistancy स्थिरता :
'Constant s the northern star,Of whose true fixed and resting quality.There is no fellow in the firmament.'
अखंड ब्रम्हांड में ध्रुव के सामान दृढ और अचल और कुछ नहीं है.
नहीं अखिल ब्रम्हांड में,अचल-अटल कुछ और.
'सलिल' मात्र ध्रुव है अचल, दृढ़ता का सिरमौर.
************************************************
लघुकथा सलिला: भिखारी - गुरुनाम सिंह 'रीहल'
'जा, जा बड़ा आया दुआ देनेवाला...पहले खुद खा-पी ले. भला-चंगा है, मुस्टंडा महीन का..क्या तुमसे काम-धाम नहीं होता? इस प्रकार भीख माँगने में शर्म नहीं आती तुमको? -बडबडाते हुए वह मंदिर की ओर बढ़ गया.
भगवान की मूर्ति के सामने उसने सर झुकाया और क़तर स्वर में गिडगिडाया- 'प्रभु! तुम ही मेरे सहारे हो। मैं तुमसे कृपा की भीख मांगता हूँ। मेरा भाग्योदय तुम्हारे ही हाथ में है। इस बार मुझे टिकिट मिल ही जानी चाहिए। पिछले दो चुनाव यूं ही हाथ से निकल गए और मैं अपनी बदकिस्मती पर आँसू बहता रह गया. तुम दाता हो, मैं भिखारी. जब तुम्हारी कृपा से कंगले की लाटरी खुल सकती है तो मैंने तुम्हारा क्या बिगाडा है? तुम्हें पार्टी अध्यक्ष का ह्रदय परिवर्तन करना होगा और विधायक बनाकर मेरी नैया पार लगनी होगी' - यह कहते-कहते वह भगवान की मूर्ति के पैरों से लिपट गया.
भिखारी कौन यह या वह? सोच रही थीं मंदिर की दीवारें.
**************************
शब्द-यात्रा: घास - अजित वडनेरकर
कु छ काम न करने अथवा निरर्थक कामों में जुटे रहने के संदर्भ में अक्सर घास खोदना मुहावरा बोला जाता है। रुखो-सूखे भोजन को भी अक्सर घास-पात की संज्ञा दी जाती है। ये हीन भावार्थ जाहिर करते हैं कि घास चाहे पशु आहार के रूप में अत्यावश्यक हो मगर मनुष्य के स्वार्थी नज़रिये से यह उपेक्षणीय ही है। यूं प्रकृति के लैंडस्केप से अगर घास गायब कर दी जाए तो शायद यह धरती उतनी खूबसूरत नज़र न आए। कभी हरी और कभी पीली चूनर ओढ़े जो धरा हमें नजर आती है वे रंग घास के ही हैं। घास के लिए अंग्रेजी में ग्रास शब्द है जो मूलतः प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की धातु ghre से उत्पन्न शब्द है। इस धातु में बढ़ने का भाव है। घास की जितनी भी प्रजातियां हैं वे सब तेजी से वृद्धि करती हैं। किसी भी किस्म की भूमि पर बहुत तेज बढ़वार ही घास का प्रकृति प्रदत्त विशिष्ट गुण है। अंग्रेजी में इस धातु से ग्रो grow नामक क्रिया बनी है जिसमें वृद्धि का भाव है। इससे कई शब्द बने हैं जो रोजमर्रा में बोले-सुने जाते हैं जैसे ग्रोथ यानी विकास या तरक्की। बढ़वार के अर्थ में घास के लिए ग्रास के मायने स्पष्ट है। ग्रासकोर्ट, ग्रासरूट जैसे शब्द समाचार माध्यमों के जरिये रोज पढ़ने-सुनने को मिलते हैं जो इसी श्रंखला के हैं। खुशहाली का कोई रंग होता है? प्रकृति हमें खुशहाल तभी नज़र आती है जब चारों तरफ हरियाली हो। साफ है कि हरा रंग समृद्धि और विकास का प्रतीक है। हरितिमा के साथ पीले रंग का मेल भी मांगलिक होता है। जब मन प्रसन्नचित्त होता है तो कहा जाता है कि तबीयत हरीभरी हो गई। हरे रंग को अंग्रेजी में ग्रीन green कहते हैं जो इसी श्रंखला का शब्द है। प्राकृतिक उत्पाद के तौर पर मनुष्य सबसे पहले वनस्पति से ही परिचित हुआ। पेड़-पौधों में उसने स्वतः वद्धि का भाव देखा। वनस्पतियों ने खुद ब खुद वृद्धि कर प्रकृति के खजाने को समृद्ध किया। समृ्द्धि में ही वृद्धि छुपी है यानी सम+वृद्धि=समृद्धि। इंडो-ईरानी परिवार में घास शब्द के कई मिलते जुलते रूप प्रचलित हैं। हिन्दी का घास बना है संस्कृत की घस् धातु से जिसका मतलब है निगलना, खाना। खास बात यह कि भारोपीय धातु ghre का वृद्धि वाला भाव इंडो-ईरानी परिवार में आहार के अर्थ में बदल रहा है। ghre से मिलती जुलती धातु संस्कृत में है ग्रस् जिसका मतलब होता है निगलना। घस् इसका ही अगला रूप है जिसका अर्थ खाना, निगलना है जिससे बने घासः शब्द का अर्थ आहार, चारा, घास आदि है। घस् या ग्रस् धातु में आहार की अर्थवत्ता बाद में स्थापित हुई होगी पशुपालक आर्यों ने निरंतर बढ़नेवाली घास को देखा-परखा तो उसका प्रयोग पशु आहार के लिये भी हुआ। कौर के लिए ग्रास शब्द हिन्दी में भी प्रचलित है। मराठी में तो कौर को घास ही कहते हैं। प्राकृत, खरोष्ठी, अवेस्ता में इसके यही रूप हैं। आर्मीनियाई में इसका खस् रूप प्रचलित है जिसका मतलब घास ही होता है। इसक अलावा इससे गास, गस् जैसे रूप भी हैं। कौर के लिए गस्सा शब्द भी प्रचलित है।घास उगाने में चूंकि मानवश्रम का निवेश नहीं होता है लिहाजा़ उसे काटने का काम भी निम्न श्रेणी का माना जाता है। इसे करने में किसी कौशल की भी ज़रूरत नहीं होती है, क्योंकि यह उत्पादन से जुड़ा श्रम नहीं है। घास काटनेवाले को घसियारा कहा जाता है। यह बना है घास+कारकः से। घसियारा बनने का क्रम यूं रहा-घासकारकः > घस्सआरक > घसियारा। किसी व्यक्ति के द्वारा फूहड़ तरीके से काम करने पर उसे घसियारा कह कर उलाहना दिया जाता है जिसके पीछे आशय यही रहता है कि उसने कुशलता से काम नहीं किया। जल्दी जल्द, टालू अंदाज में, बेमन से काम निपटाने को घास काटना कहा जाता है। भाव यही है कि जिस तरह ...घास काटना बेकार का काम माना जाता है...इसीलिए अकुशल कार्मिक को अक्सर घसियारा कहा जाता है… घास काटी जाती है, उसी तरह से किया गया काम। दुनियाभर में घास के हजारों प्रकार होते हैं। घास की कई किस्में सजावटी होती हैं जो लॉन, मैदान, आंगन, बाग-बागीचों की शोभा बढ़ाती हैं जैसे कारपेट ग्रास। घास की कई किस्में पशुआहार के काम आती हैं और कई किस्मों का प्रयोग औषधि के तौर पर भी होता है जैसे लैमन ग्रास। हिन्दुओं में धार्मिक कर्मकांड में घास की कुछ किस्मों का बड़ा महत्व है जैस कुशा, दूब जिसे दुर्वा या दर्भ भी कहते हैं। घास की कई हानिकारक किस्में हैं हिन्दी में इनके लिए खरपतवार शब्द है जिसमें सभी अपने आप उगनेवाली सभी हानिकारक वनस्पतियां शामिल हैं। गाजर घास ऐसी ही एक खरपतवार है जिसे कांग्रेस ग्रास भी कहा जाता है। आजादी के बाद अमेरिका से आए मैक्सिकन गेहूं के साथ खरपतवार की यह किस्म भारत आई और इसने देश की कृषि को बुरी तरह प्रभावित किया। यह बीमारी कांग्रेस शासन की देन होने की वजह से इसे कांग्रेसग्रास कहा जाने लगा, ऐसा भी कहा जाता है। वैसे समूह में उगने की वजह से भी इसे कांग्रेस ग्रास कहा जाता है। इसकी पत्तियों का रूपाकार गाजर की पत्तियों जैसा होता है इसलिए इसका प्रचलित नाम गाजर घास है।
सोमवार, 27 अप्रैल 2009
लघुकथा : असली तीर्थ -मो. मोइनुद्दीन 'अतहर'
पुराने जूतों की मरम्मत करते हुए वह शांत भाव से बोला: 'नईं तो, बऊ!मोरी तकदीर मन कहाँ धरो तीरथ-बरत. बो तो पैसेवालों को काम आय.'
फिर जूते की एडी में कील ठोंकते हुए बोला- 'मोरो तो जेई तीरथ है. '
उसकी आँखों में आँसू छलछला आये थे.
*********************
भाषा सेतु: प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' / सलिल
सूक्ति कोष
प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं।
संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के.
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है की वन प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
जी कहते हैं- 'साहित्य उतना hee सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।
..प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
begger आकृति:
'Well, whiles I am a begger, I will rail
And say there is no sin but to rich;
And being rich, my virtue then shall be
To say there is no vice but beggary. .'
जब तक मैं भिक्षुक हूँ, मेरी दृष्टि में संपत्ति अर्जन से बढ़कर कोइ पाप नहीं, और धनी हो जाने पर दरिद्रता और भिक्षा मेरे जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है.
दोहानुवाद :
पाप, भिक्षु की द्रष्टि में, है- होना धनवान.
उसे गरीबी शाप हो, जब हो सम्पतिवान..
************************************************
Origin of Bhagvan Chitragupt and Kayasthas
Later on numberless tiny electronically charged particles developed the particles having opposite charge and some without charge. inside the tiny speedily revolving particles an vaccum took place with exterme darkness. any thing coming near to the black whole was sollowed by it. Gradually with the arrival of new particles and expansion of the orbits crores of milky way came into existance. Science confirms the above concept. Nirakar Paratpar param bramh bhgvan after world, as we know it, was created by LORD BRAMHA, the Creator. Lord Bramha first created 16 Sons from various parts of his own body. Shri Chitragupt Ji, his 17th creation, is believed to be the creation from Lord Bramha's Mind & Soul.
The Kayastha Community is religiously inclined & very close-knit. They strive to fight social injustice in society. They instill values of religion & culture. Academics has a very important place in the life of a Kayastha. Sincerity & Hard Work are always respected and awarded. Social reform through adoption of economically backward families from within the community, and hence their emancipation, is a known way of KAYASTHA service to their community.भजन सलिला : दरश को आये शंकर जी -स्व. शांति देवी वर्मा
अवध में जन्में हैं श्री राम, दरश को आए शंकरजी...
कौन गा रहे?, कौन नाचते?, कौन बजाएं करताल?

दरश को आए शंकरजी...
ऋषि-मुनि गाते, देव नाचते, भक्त बजाएं करताल.
दरश को आए शंकरजी...
अंगना मोतियन चौक है, द्वारे हीरक बन्दनवार.
दरश को आए शंकरजी...
मलिन-ग्वालिन सोहर गायें, नाचें डे-डे ताल.
दरश को आए शंकरजी...
मैया लाईं थाल भर मोहरें, लो दे दो आशीष.

दरश को आए शंकरजी...
नाग त्रिशूल भभूत जाता लाख, डरे न मेरो लाल
दरश को आए शंकरजी...
बिन दर्शन हम कहूं न जैहें, बैठे धुनी रमाय.
दरश को आए शंकरजी...
अलख जगाये द्वार पर भोला, डमरू रहे बजाय.
दरश को आए शंकरजी...
रघुवर गोदी लिए कौशल्या, माथ डिठौना लगाय.
दरश को आए शंकरजी...
जग-जग जिए लाल माँ तेरो, शम्भू करें जयकार.
दरश को आए शंकरजी...
***********
गीत :अम्ब विमल मति दे -सलिल
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
नन्दन कानन हो यह धरती।

पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....
बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....
कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
वह बल-विक्रम दे.....
हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....
नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें।
'सलिल' विमल प्रवहे.....
************************
एक ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस

ज़ीस्त आहों का बवंडर, नहीं तो फ़िर क्या है
तू भी खोया है सनम, माज़ी की रानाईयों में,
आँख में तेरी, वो मंज़र, नहीं तो फ़िर क्या है
मौत की हर अदा, तकलीफ़-ज़दा हो शायद
ज़िन्दगी भी गमे-महशर, नहीं तो फ़िर क्या है
आज आमादा है तू क्यूँ, इसे ढहाने पे
अब मेरा दिल तेरा मन्दिर, नहीं तो फ़िर क्या है
न उजाडो, के हजारों निगाहें रो देंगी,
शज़र, परिंदों का इक घर, नहीं तो फ़िर क्या है
हर शै अरजां है, उस आतिश-निगाह के आगे
हर अदा गोया इक शरर, नहीं तो फ़िर क्या है