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शनिवार, 12 नवंबर 2022

बुंदेली, सरस्वती, पीयूषवर्ष छंद, गणेश, मुक्तिका, पीयूषवर्ष छंद, दोहा, यमक अलंकार

बुंदेली सरस्वती वंदना
मुक्त छंद
सारद री!
कितै बिलम गईं सारद री!
रस्ता हेरत पथरा रईं अँखियाँ।
हंसा! कितै बिलानो रे!
उरत-उरत थक गईं का पँखियाँ?

मन मंदिर में आन बिराजो,
बुरो बखत मत भटक सारदा!
बनो कलेवा आकर खाओ,
पनघट पर मत अटक सारदा!

झटपट सपर घरे आ जाओ
माँ मो से सिंगार कराओ
माथे बेंदा, कानों बाली
चरन महावर, अधरन लाली

हाथन कंगन, बालन बैनी
मनमोहक छबि हे सुख दैनी!
बनो कलेवा भोग लगाओ
सारद! घर सें कहूँ नें जाओ।
१२-११-२२
●●●
छंदशाला ४८
पीयूषवर्ष छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली व पुरारि छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति १०-९, पदांत ल ग।
लक्षण छंद
रच पीयूषवर्ष, मन में हो हर्ष।
दिश-ग्रह तक पाओ, अप्रतिम उत्कर्ष।।
लघु-गुरु पदांत रहे, लक्ष्य नहीं भूल-
होना निराश मत, पल भर अपकर्ष।
उदाहरण
मीत था जो गीत, सारे ले गया
ख्वाब देखे जो ह,मारे ले गया
.
दर्द से कोई न,हीं नाता रखा
वस्ल के पैगाम, प्यारे ले गया
.
हारने की दे दु,हाई हाय रे!
जीत के औज़ान, न्यारे ले गया
.
ताड़ मौका वार, पीछे से किया
फोड़ आँखें अश्क, खारे ले गया
.
रात में अच्छे दि,नों का वासता
वायदों को ही स,कारे ले गया
.
बोल तो जादूग,री कैसे करी
पूर्णिमा से ही सि,तारे ले गया
.
साफ़ की गंगा न, थोड़ी भी कहीं
गंदगी जो थी कि,नारे ले गया
११-११-२०२२
•••
छंद: महापौराणिक जातीय पीयूषवर्ष
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
बह्र: फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फायलुन्
***
卐 ॐ 卐
हे गणपति विघ्नेश्वर जय जय
मंगल काज करें हम निर्भय
अक्षय-सुरभि सुयश दस दिश में
गुंजित हो प्रभु! यही है विनय
हों अशोक हम करें वंदना
सफल साधना करें दें विजय
संगीता हो श्वास श्वास हर
सविता तम हर, दे सुख जय जय
श्याम रामरति कभी न बिसरे
संजीवित आशा सुषमामय
रांगोली-अल्पना द्वार पर
मंगल गीत बजे शिव शुभमय
१२-११-२०२१
***
अलंकार सलिला: ३०
अपन्हुति अलंकार
*
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
कर निषेध उपमेय का, हो उपमान सप्रीत।।
'अपन्हुति' का अर्थ है वारण या निषेध करना, छिपाना, प्रगट न होने देना आदि. इसलिए इस अलंकार में प्रायः निषेध देखा जाता है। प्रकृत, प्रस्तुत या उपमेय का प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत या उपमान का आरोप या स्थापना किया जाए तो 'अपन्हुति अलंकार' होता है। जहाँ उपमेय का निषेध कर उसमें उपमान का आरोप किया जाये वहाँ 'अपन्हुति अलंकार' होता है।
प्रस्तुत या उपमेय का, लें निषेध यदि देख।
अलंकार तब अपन्हुति, पल में करिए लेख।।
प्रस्तुत का वारण जहाँ, वहीं अपन्हुति मीत।
आरोपित हो अप्रस्तुत, 'सलिल' मानिये रीत।।
१. हेम सुधा यह किन्तु है सुधा रूप सत्संग।
यहाँ सुधा पर सुधा का आरोप करना के लिए उसमें अमृत के गुण का निषेध किया गया है। अतः, अपन्हुति अलंकार है।
२.सत्य कहहूँ हौं दीनदयाला, बन्धु न होय मोर यह काला।
यहाँ प्रस्तुत उपमेय 'बन्धु' का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान 'काल' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति अलंकार है।
३. फूलों पत्तों सकल पर हैं वारि बूँदें लखातीं।
रोते हैं या निपट सब यों आँसुओं को दिखाके।।
प्रकृत उपमेय 'वारि बूँदे' का निषेधकर 'आँसुओं' की स्थापना किये जाने के कारण यहाँ ही अपन्हुति है।
४.अंग-अंग जारति अरि, तीछन ज्वाला-जाल।
सिन्धु उठी बडवाग्नि यह, नहीं इंदु भव-भाल।।
अत्यंत तीक्ष्ण ज्वालाओं के जाल में अंग-प्रत्यंग जलने का कारण सिन्धु की बडवाग्नि नहीं, शिव के शीश पर चन्द्र का स्थापित होना है. प्रस्तुत उपमेय 'बडवाग्नि' का प्रतिषेध कर अन्य उपमान 'शिव'-शीश' की स्थापना के कारण अपन्हुति है.
५.छग जल युक्त भजन मंडल को, अलकें श्यामन थीं घेरे।
ओस भरे पंकज ऊपर थे, मधुकर माला के डेरे।।
यहाँ भक्ति-भाव में लीन भक्तजनों के सजल नयनों को घेरे काली अलकों के स्थापित उपमेय का निषेध कर प्रातःकाल तुहिन कणों से सज्जित कमल पुष्पों को घेरे भँवरों के अप्रस्तुत उपमान को स्थापित किया गया है. अतः अपन्हुति अलंकार है.
६.हैं नहीं कुल-श्रेष्ठ, अंधे ही यहाँ हैं।
भक्तवत्सल साँवरे, बोलो कहाँ हैं? -सलिल
यहाँ द्रौपदी द्वारा प्रस्तुत उपमेय कुल-श्रेष्ठ का निषेध कर अप्रस्तुत उपमान अंधे की स्थापना की गयी है. अतः, अपन्हुति है.
७.संसद से जन-प्रतिनिधि गायब
बैठे कुछ मक्कार हैं। -सलिल
यहाँ उपमेय 'जनप्रतिनिधि' का निषेध कर उपमान 'मक्कार' की स्थापना किये जाने से अपन्हुति है.
८. अरी सखी! यह मुख नहीं, यह है अमल मयंक।
९. किरण नहीं, पावक के कण ये जगतीतल पर गिरते हैं।
१०. सुधा सुधा प्यारे! नहीं, सुधा अहै सतसंग।
११. यह न चाँदनी, चाँदनी शिला 'मरमरी श्वेत।
१२. चंद चंद आली! नहीं, राधा मुख है चंद।
१३. अरध रात वह आवै मौन
सुंदरता बरनै कहि कौन?
देखत ही मन होय अनंद
क्यों सखि! पियमुख? ना सखि चंद।
अपन्हुति अलंकार के प्रकार:
'यहाँ' नहीं 'वह' अपन्हुति', अलंकार लें जान।
छः प्रकार रोचक 'सलिल', रसानंद की खान।।
प्रस्तुत या उपमेय का निषेध कर अप्रस्तुत की स्थापना करने पर अपन्हुति अलंकार जन्मता है. इसके छः भेद हैं.
१. शुद्धापन्हुति:
जहाँ पर प्रकृत उपमेय को छिपाकर या उसका प्रतिषेध कर अन्य अप्रस्तुत का निषेधात्मक शब्दों में आरोप किया जाता है.
१. ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो भलो,
हरि सों हमारे ह्यां न फूले वन कुञ्ज हैं।
किंसुक गुलाब कचनार औ' अनारन की
डारन पै डोलत अन्गारन के पुंज हैं।।
२. ये न मग हैं तव चरण की रेखियाँ हैं।
बलि दिशा की ओर देखा-देखियाँ हैं।।
विश्व पर पद से लिखे कृति-लेख हैं ये।
धरा-तीर्थों की दिशा की मेख हैं ये।।
३. ये न न्यायाधीश हैं,
धृतराष्ट्र हैं ये।
न्याय ये देते नहीं हैं,
तोलते हैं।।
४. नहीं जनसेवक
महज सत्ता-पिपासु,
आज नेता बन
लूटते देश को हैं।
५. अब कहाँ कविता?
महज तुकबन्दियाँ हैं,
भावना बिन रचित
शाब्दिक-मंडियाँ हैं।
२. हेत्वापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रतिषेध कर अप्रस्तुत का आरोप करते समय हेतु या कारण स्पष्ट किया जाए वहाँ हेत्वापन्हुति अलंकार होता है.
१. रात माँझ रवि होत नहिं, ससि नहिं तीव्र सुलाग।
उठी लखन अवलोकिये, वारिधि सों बड़बाग।।
२. ये नहिं फूल गुलाब के, दाहत हियो अपार।
बिनु घनश्याम अराम में, लगी दुसह दवार।।
३. अंक नहीं है पयोधि के पंक को औ' वसि बंक कलंक न जागै।
छाहौं नहीं छिति की परसै अरु धूमौ नहीं बड़वागि को पागै।।
मैं मन वीचि कियो निह्चै रघुनाथ सुनो सुनतै भ्रम भागै।
ईठिन या के डिठौना दिया जेहि काहू वियोगी की डीठि न लागै।।
४. पहले आँखों में थे, मानस में कूद-मग्न प्रिय अब थे।
छींटे वहीं उड़े थे, बड़े-बड़े ये अश्रु कब थे.
५. गुरु नहीं, शिक्षक महज सेवक
साध्य विद्या नहीं निज देयक।
३. पर्यस्तापन्हुति:
जहाँ उपमेय या वास्तविक धर्मी में धर्म का निषेध कर अन्य में उसका आरोप जाता है वहाँ पर्यस्तापन्हुति अलंकार होता है।
१. आपने कर्म करि हौं हि निबहौंगो तौ तो हौं ही करतार करतार तुम काहे के?
२. मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है।
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती वह मेरी मधुशाला है।।
३ . जहाँ दुःख-दर्द
जनता के सुने जाएँ
न वह संसद।
जहाँ स्वार्थों का
सौदा हो रहा
है देश की संसद।।
४. चमक न बाकी चन्द्र में
चमके चेहरा खूब।
५. डिग्रियाँ पाई,
न लेकिन ज्ञान पाया।
लगी जब ठोकर
तभी कुछ जान पाया।।
४. भ्रान्त्य अपन्हुति:
जहाँ किसी कारणवश भ्रम हो जाने पर सच्ची बात कहकर भ्रम का निवारण किया जाता है और उसमें कोई चमत्कार रहता है, वहाँ भ्रान्त्यापन्हुति अलंकार होता है।
१. खायो कै अमल कै हिये में छायो निरवेद जड़ता को मंत्र पढि नायो शीश काहू अरि।
कै लग्यो है प्रेत कै लग्यो है कहूँ नेह हेत सूखि रह्यो बदन नयन रहे आँसू भरि।।
बावरी की ऐसी दशा रावरी दिखाई देति रघुनाथ इ भयो जब मन में रो गयो डरि।
सखिन के टरै गरो भरे हाथ बाँसुरी देहरे कही-सुनी आजु बाँसुरी बजाई हरि।।
२. आली लाली लखि डरपि, जनु टेरहु नंदलाल।
फूले सघन पलास ये, नहिं दावानल ज्वाल।।
३. डहकु न है उजियरिया, निसि नहिं घाम।
जगत जरत अस लाग, मोहिं बिनु राम।।
४. सर्प जान सब डर भगे, डरें न व्यर्थ सुजान।
रस्सी है यह सर्प सी, किन्तु नहीं है जान।।
५. बिन बदरा बरसात?
न, सिर धो आयी गोरी।
टप-टप बूँदें टपकाती
फिरती है भोरी।।
५. छेकापन्हुति:
जहाँ गुप्त बात प्रगट होने की आशंका से चतुराईपूर्वक मिथ्या समाधान से निषेध कर उसे छिपाया जाता है वहाँ छेकापन्हुति अलंकार होता है।
१. अंग रंग साँवरो सुगंधन सो ल्प्तानो पीट पट पोषित पराग रूचि वरकी।
करे मधुपान मंद मंजुल करत गान रघुनाथ मिल्यो आन गली कुञ्ज घर की।।
देखत बिकानी छबि मो पै न बखानी जाति कहति ही सखी सों त्यों बोली और उरकी।
भली भईं तोही मिले कमलनयन परत नहीं सखी मैं तो कही बात मधुकर की।।
२. अर्धनिशा वह आयो भौन।
सुन्दरता वरनै कहि कौन?
निरखत ही मन भयो अनंद।
क्यों सखी साजन?
नहिं सखि चंद।।
३. श्यामल तन पीरो वसन मिलो सघन बन भोर।
देखो नंदकिशोर अलि? ना सखि अलि चितचोर।।
४. चाहें सत्ता?,
नहीं-नहीं,
जनसेवा है लक्ष्य।
५. करें चिकित्सा डॉक्टर
बिना रोग पहचान।
धोखा करें मरीज से?
नहीं, करें अनुमान।
६. कैतवापन्हुति:
जहाँ प्रस्तुत का प्रत्यक्ष निषेध न कर चतुराई से किसी व्याज (बहाने) से उसका निषेध किया जाता है वहाँ कैतवापन्हुति अलंकार होता है। कैटव में बहाने से, मिस, व्याज, कारण आदि शब्दों द्वारा उपमेय का निषेध कर उपमान का होना कहा जाता है।।
१. लालिमा श्री तरवारि के तेज में सारदा लौं सुखमा की निसेनी।
नूपुर नील मनीन जड़े जमुना जगै जौहर में सुखदेनी।।
यौं लछिराम छटा नखनौल तरंगिनी गंग प्रभा फल पैनी।
मैथिली के चरणाम्बुज व्याज लसै मिथिला मग मंजु त्रिवेनी।
२. मुख के मिस देखो उग्यो यह निकलंक मयंक।
३. नूतन पवन के मिस प्रकृति ने सांस ली जी खोल के।
यह नूतन पवन नहीं है,प्रकृति की सांस है।
४. निपट नीरव ही मिस ओस के
रजनि थी अश्रु गिरा रही
ओस नहीं, आँसू हैं।
५. जनसेवा के वास्ते
जनप्रतिनिधि वे बन गये,
हैं न प्रतिनिधि नेता हैं।
१२-११-२०१५
***
दोहा सलिला
*
शांति सौख्य सुख चैन दो, हे मेरे करतार!
देश-देशवासी सकें, पा उत्तम सरकार।।
*
मैं औ' मेरी डायरी, काया-छाया संग
कहने को हैं दो मगर, 'सलिल'एक है रंग
*
अनपढ़ पढ़ता अनलिखा, समझ-बूझ चुपचाप.
जीवन पुस्तक है बडी, अक्षर-अक्षर आप.
***
दोहा सलिला
गले मिले दोहा यमक
*
जिस का रण वह ही लड़े, किस कारण रह मौन.
साथ न देते शेष क्यों?, बतलायेगा कौन??
*
ताज महल में सो रही, बिना ताज मुमताज.
शिव मंदिर को मकबरा, बना दिया बेकाज..
*
भोग लगा प्रभु को प्रथम, फिर करना सुख-भोग.
हरि को अर्पण किये बिन, बनता भोग कुरोग..
*
योग लगते सेठ जी, निन्यान्नबे का फेर.
योग न कर दुर्योग से, रहे चिकित्सक-टेर..
*
दस सर तो देखे मगर, नौ कर दिखे न दैव.
नौकर की ही चाह क्यों, मालिक करे सदैव?
*
करे कलेजा चाक री, अधम चाकरी सौत.
सजन न आये चौथ पर, अरमानों की मौत..
*
चढ़े हुए सर कार पर, हैं सरकार समान.
सफर करे सर कार क्यों?, बिन सरदार महान..
*
चाक घिस रहे जन्म से. कौन समझता पीर.
गुरु को टीचर कह रहे, मंत्री जी दे पीर..
*
रखा आँख पर चीर फिर, दिया कलेजा चीर.
पीर सिया की सलिल थी, राम रहे प्राचीर..
*
पी मत खा ले जाम तू, है यह नेक सलाह.
जाम मार्ग हो तो करे, वाहन इंजिन दाह..
*
कर वट की आराधना, ब्रम्हदेव का वास.
करवट ले सो चैन से, ले अधरों पर हास..
१२-११-२०११
***

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