चित्र-चित्र कविता
संजीव
*
बंद आँख में स्वप्न अनेकों, पलक उठें तो जग देखे.
कहो किसी को क्यों रखने दूँ, अपने ख्वाबों के लेखे?
नयन मूँदकर क्यों बैठूँ मैं, स्वप्न न क्यों साकार करूँ?
निराकार सरकार मिले तो, गले लगा साकार करूँ
मिलन युग पल में कटे हैं, विरह-पल युग-सम न कटते
भू तपे या मेघ बरसे, दर्द मन के नहीं घटते
हेरती हूँ राह पल-छिन, आ गये पर तुम न आये
अगर बरसे नहीं बदरा,व्यर्थ ही नभ क्यों बुलाये?
धरा गुमसुम धरे धीरज, मौन व्रत धारे हुए है-
हुई है मायूस गौरा, हाय बौरा क्यों न आये??
अठ्खेली करता अल्हड़पन, चन्चल अँखियाँ हिरनी सी
वाक प्रवाहित कलकल निर्झर, नयन पुतलियाँ घिरनी सी
मुक्तामणि सी दंतपंक्ति है, रक्तकमल से अधर पटल
भाल-क्षितिज पर दिप-दिप दिनकर, केश लटा है नागिन सी
निरख नशीला होता मौसम, होश नहीं है बादल को
पवन झूमता, क्षितिज थामता लपक चन्द्र से पागल को
हूँ अवाक चुप देख दिवानापन अपने बेबस मनका
चला गया मुँह फेर पथिक जो उसका ही फेरे मनका
कैसे समझाऊँ इसको मैं राम न मिलते सीता को?
कह्ता फर्ज निभा चुप अपना, मत बिसराना गीता को
4 टिप्पणियां:
wgcdrsps@gmail.com [ekavita]
अति सुन्दर आचार्य जी । चित्र और रचना दोनों मनोहारी हैं ।
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
आदरणीय आचार्य जी,
कमाल के सुन्दर और सजीव चित्र बटोरे हैं आपने और अति मनोहारी लिखा है l
ढेरों बधाई और सराहना स्वीकार करें l
सादर,
कुसुम
Kusum Vir kusumvir@gmail.com [ekavita]
अति सुन्दर, सजीव चित्रमय मनोहारी कविता, आचार्य जी l
बधाई एवं सराहना l
सादर,
कुसुम
Mahesh Dewedy mcdewedy@gmail.com [ekavita]
सलिल जी,
मंनोहारी है यह चित्र कविता. इस प्रयोग हेतु बधाई स्वीकारे.
महेश चंद्र द्विवेदी
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