दोहा सलिला सनातन: २
संजीव 'सलिल'
*
(इस लेख माला की पहली श्रंखला में भाषा, वर्ण, स्वर, व्यंजन, शब्द आदि पर चर्चा के उपरांत इस कड़ी में वर्णों के उच्चार पर चर्चा उपयोगी होगी. अगली कड़ी में मात्रा गणना के नियम चर्चा का केंद्र होंगे. पाठक अपने प्रश्न तुरंत भेजें ताकि यथा समय समाधान हो सके. )
नाना भाषा-बोलियाँ, नाना भूषा-रूप.
पंचतत्वमय व्याप्त है, दोहा छंद अनूप.
"भाषा" मानव का अप्रतिम आविष्कार है। वैदिक काल से उद्गम होने वाली भाषा शिरोमणि संस्कृत, उत्तरीय कालों से गुज़रती हुई, सदियों पश्चात् आज तक पल्लवित-पुष्पित हो रही है। भाषा विचारों और भावनाओं को शब्दों के मध्यं से अभिव्यक्त करती है। संस्कृति वह शक्ति है जो हमें एकसूत्रता में पिरोती है। भारतीय संस्कृति की नींव "संस्कृत" और उसकी उत्तराधिकारी हिन्दी ही है। "एकता" कृति में चरितार्थ होती है। कृति की नींव विचारों में होती है। विचारों का आकलन भाषा के बिना संभव नहीं. भाषा इतनी समृद्ध होनी चाहिए कि गूढ, अमूर्त विचारों और संकल्पनाओं को सहजता से व्यक्त कर सकें. जितने स्पष्ट विचार, उतनी सम्यक् कृति और समाज में आचार-विचार की एकरुपता याने "एकता"।
भाषा भाव विचार को, करे शब्द से व्यक्त.
उर तक उर की चेतना, पहुँचे हो अभिव्यक्त.
उच्चार :
ध्वनि-तरंग आघात पर, आधारित उच्चार.
मन से मन तक पहुँचता, बनकर रस आगार.
ध्वनि विज्ञान सम्मत् शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र पर आधारित व्याकरण नियमों ने संस्कृत और हिन्दी को शब्द-उच्चार से उपजी ध्वनि-तरंगों के आघात से मानस पर व्यापक प्रभाव करने में सक्षम बनाया है। मानव चेतना को जागृत करने के लिए रचे गए काव्य में शब्दाक्षरों का सम्यक् विधान तथा शुद्ध उच्चारण अपरिहार्य है। सामूहिक संवाद का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सर्व सुलभ माध्यम भाषा में स्वर-व्यंजन के संयोग से अक्षर तथा अक्षरों के संयोजन से शब्द की रचना होती है। मुख में ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दंत तथा अधर) में से प्रत्येक से ५-५ व्यंजन उच्चारित किए जाते हैं।
सुप्त चेतना को करे, जागृत अक्षर नाद.
सही शब्द उच्चार से, वक्ता पाता दाद.
संजीव 'सलिल'
*
(इस लेख माला की पहली श्रंखला में भाषा, वर्ण, स्वर, व्यंजन, शब्द आदि पर चर्चा के उपरांत इस कड़ी में वर्णों के उच्चार पर चर्चा उपयोगी होगी. अगली कड़ी में मात्रा गणना के नियम चर्चा का केंद्र होंगे. पाठक अपने प्रश्न तुरंत भेजें ताकि यथा समय समाधान हो सके. )
नाना भाषा-बोलियाँ, नाना भूषा-रूप.
पंचतत्वमय व्याप्त है, दोहा छंद अनूप.
"भाषा" मानव का अप्रतिम आविष्कार है। वैदिक काल से उद्गम होने वाली भाषा शिरोमणि संस्कृत, उत्तरीय कालों से गुज़रती हुई, सदियों पश्चात् आज तक पल्लवित-पुष्पित हो रही है। भाषा विचारों और भावनाओं को शब्दों के मध्यं से अभिव्यक्त करती है। संस्कृति वह शक्ति है जो हमें एकसूत्रता में पिरोती है। भारतीय संस्कृति की नींव "संस्कृत" और उसकी उत्तराधिकारी हिन्दी ही है। "एकता" कृति में चरितार्थ होती है। कृति की नींव विचारों में होती है। विचारों का आकलन भाषा के बिना संभव नहीं. भाषा इतनी समृद्ध होनी चाहिए कि गूढ, अमूर्त विचारों और संकल्पनाओं को सहजता से व्यक्त कर सकें. जितने स्पष्ट विचार, उतनी सम्यक् कृति और समाज में आचार-विचार की एकरुपता याने "एकता"।
भाषा भाव विचार को, करे शब्द से व्यक्त.
उर तक उर की चेतना, पहुँचे हो अभिव्यक्त.
उच्चार :
ध्वनि-तरंग आघात पर, आधारित उच्चार.
मन से मन तक पहुँचता, बनकर रस आगार.
ध्वनि विज्ञान सम्मत् शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र पर आधारित व्याकरण नियमों ने संस्कृत और हिन्दी को शब्द-उच्चार से उपजी ध्वनि-तरंगों के आघात से मानस पर व्यापक प्रभाव करने में सक्षम बनाया है। मानव चेतना को जागृत करने के लिए रचे गए काव्य में शब्दाक्षरों का सम्यक् विधान तथा शुद्ध उच्चारण अपरिहार्य है। सामूहिक संवाद का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सर्व सुलभ माध्यम भाषा में स्वर-व्यंजन के संयोग से अक्षर तथा अक्षरों के संयोजन से शब्द की रचना होती है। मुख में ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दंत तथा अधर) में से प्रत्येक से ५-५ व्यंजन उच्चारित किए जाते हैं।
सुप्त चेतना को करे, जागृत अक्षर नाद.
सही शब्द उच्चार से, वक्ता पाता दाद.
उच्चारण स्थान
|
वर्ग
|
कठोर(अघोष) व्यंजन
|
मृदु(घोष) व्यंजन
| |||
अनुनासिक
| ||||||
कंठ
|
क वर्ग
|
क्
|
ख्
|
ग्
|
घ्
|
ङ्
|
तालू
|
च वर्ग
|
च्
|
छ्
|
ज्
|
झ्
|
ञ्
|
मूर्धा
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ट वर्ग
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ट्
|
ठ्
|
ड्
|
ढ्
|
ण्
|
दंत
|
त वर्ग
|
त्
|
थ्
|
द्
|
ध्
|
न्
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अधर
|
प वर्ग
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प्
|
फ्
|
ब्
|
भ्
|
म्
|
विशिष्ट व्यंजन
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ष्, श्, स्,
|
ह्, य्, र्, ल्, व्
|
कुल १४ स्वरों में से ५ शुद्ध स्वर अ, इ, उ, ऋ तथा ऌ हैं. शेष ९ स्वर हैं आ, ई, ऊ, ऋ, ॡ, ए, ऐ, ओ तथा औ। स्वर उसे कहते हैं जो एक ही आवाज में देर तक बोला जा सके। मुख के अन्दर ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दांत, होंठ) से जिन २५ वर्णों का उच्चारण किया जाता है उन्हें व्यंजन कहते हैं। किसी एक वर्ग में सीमित न रहने वाले ८ व्यंजन स्वरजन्य विशिष्ट व्यंजन हैं।
विशिष्ट (अन्तस्थ) स्वर व्यंजन :
य् तालव्य, र् मूर्धन्य, ल् दंतव्य तथा व् ओष्ठव्य हैं। ऊष्म व्यंजन- श् तालव्य, ष् मूर्धन्य, स् दंत्वय तथा ह् कंठव्य हैं।
स्वराश्रित व्यंजन: अनुस्वार ( ं ), अनुनासिक (चन्द्र बिंदी ँ) तथा विसर्ग (:) हैं।
संयुक्त वर्ण : विविध व्यंजनों के संयोग से बने संयुक्त वर्ण क्त, क्ल, क्य, क्र, कृ, घृ, ष्ट्र, द्म, द्य, श्च, ष्ट, ष्ठ, श्र, क्ष, त्र, ज्ञ, आदि का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं है।
मात्रा :
उच्चारण की न्यूनाधिकता अर्थात किस अक्षर पर कितना कम या अधिक भार ( जोर, वज्न) देना है अथवा किसका उच्चारण कितने कम या अधिक समय तक करना है ज्ञात हो तो लिखते समय सही शब्द का चयन कर दोहा या अन्य काव्य रचना के शिल्प को सँवारा और भाव को निखारा जा सकता है। गीति रचना के वाचन या पठन के समय शब्द सही वजन का न हो तो वाचक या गायक को शब्द या तो जल्दी-जल्दी लपेटकर पढ़ना होता है या खींचकर लंबा करना होता है, किंतु जानकार के सामने रचनाकार की विपन्नता, उसके शब्द भंडार की कमी, शब्द ज्ञान की दीनता स्पष्ट हो जाती है. अतः, दोहा ही नहीं किसी भी गीति रचना के सृजन के पूर्व मात्राओं के प्रकार व गणना-विधि पर अधिकार कर लेना जरूरी है।
सारतः कविता या गीत को उच्चारण करने में लगनेवाले समय के माप की इकाई को मात्रा कहते हैं।
उच्चारण नियम :
उच्चारण हो शुद्ध तो, बढ़ता काव्य-प्रभाव.
अर्थ-अनर्थ न हो सके, सुनिए लेकर चाव.
शब्दाक्षर के बोलने, में लगता जो वक्त.
वह मात्रा जाने नहीं, रचनाकार अशक्त.
हृस्व, दीर्घ, प्लुत तीन हैं, मात्राएँ लो जान.
भार एक, दो, तीन लो, इनका क्रमशः मान.
१. हृस्व (लघु) स्वर : कम भार, मात्रा १ - अ, इ, उ, ऋ तथा चन्द्र बिन्दु वाले स्वर।
२. दीर्घ (गुरु) स्वर : अधिक भार, मात्रा २ - आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अं।
३. बिन्दुयुक्त स्वर तथा अनुस्वारयुक्त या विसर्ग युक्त वर्ण भी गुरु होता है। यथा - नंदन, दु:ख आदि.
व्यंजन यदि स्वर से जुड़ा है तो उसकी अलग कोई मात्रा नहीं गिनी जाती परन्तु दो स्वरों के बीच में यदि दो व्यंजन आते हैं तो व्यंजन की भी एक मात्रा गिनी जाती है । जैसे सब = २ मात्रा और शब्द = ३ मात्रा । इसी प्रकार शिल्प, कल्प अन्य, धन्य, मन्त्र, आदि सभी ३ मात्रा वाले शब्द हैं।
यदि दो व्यंजन स्वर से मिलते हैं तो स्वर की ही मात्रा गिनी जायेगी जैसे ॰ त्रिशूल= ४, त्रि = १, शू =२, ल = १, क्षमा =३, क्षम्य = ३, क्षत्राणी = ५, शत्रु =३, चञ्चल =४, न्यून = ३, सज्जा = ४, सत्य = ३, सदा = ३, सादा = ४, जैसे = ४, कौआ = ४ आदि।
४. संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण दीर्घ तथा संयुक्त वर्ण लघु होता है।
५. प्लुत वर्ण : अति दीर्घ उच्चार, मात्रा ३ - ॐ, ग्वं आदि। वर्तमान हिन्दी में अप्रचलित।
६. पद्य रचनाओं में छंदों के पाद का अन्तिम हृस्व स्वर आवश्यकतानुसार गुरु माना जा सकता है।
७. शब्द के अंत में हलंतयुक्त अक्षर की एक मात्रा होगी।
पूर्ववत् = पूर् २ + व् १ + व १ + त १ = ५
ग्रीष्मः = ग्रीष् २ + म: २ = ४
कृष्ण: = कृष् २ + ण: २ = ४
हृदय = १ + १ + १ = ३
अनुनासिक एवं अनुस्वार उच्चार :
उक्त प्रत्येक वर्ग के अन्तिम वर्ण (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) का उच्चारण नासिका से होने का कारण ये 'अनुनासिक' कहलाते हैं।
१. अनुस्वार का उच्चारण उसके पश्चातवर्ती वर्ण (बाद वाले वर्ण) पर आधारित होता है। अनुस्वार के बाद का वर्ण जिस वर्ग का हो, अनुस्वार का उच्चारण उस वर्ग का अनुनासिक होगा। यथा-
१. अनुस्वार के बाद क वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार ङ् होगा।
क + ङ् + कड़ = कंकड़,
श + ङ् + ख = शंख,
ग + ङ् + गा = गंगा,
ल + ङ् + घ् + य = लंघ्य
२. अनुस्वार के बाद च वर्ग का व्यंजन हो तो, अनुस्वार का उच्चार ञ् होगा.
प + ञ् + च = पञ्च = पंच
वा + ञ् + छ + नी + य = वांछनीय
म + ञ् + जु = मंजु
सा + ञ् + झ = सांझ
३. अनुस्वार के बाद ट वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण ण् होता है.
घ + ण् + टा = घंटा
क + ण् + ठ = कंठ
ड + ण् + डा = डंडा
४. अनुस्वार के बाद 'त' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण 'न्' होता है.
शा + न् + त = शांत
प + न् + थ = पंथ
न + न् + द = नंद
स्क + न् + द = स्कंद
५ अनुस्वार के बाद 'प' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार 'म्' होगा.
च + म्+ पा = चंपा
गु + म् + फि + त = गुंफित
ल + म् + बा = लंबा
कु + म् + भ = कुंभ
अगली कड़ी में विशिष्ट व्यंजन के उच्चार नियम, पाद, चरण, गति, यति की चर्चा करेंगे।
आज की चर्चा केवल दोहा ही नहीं अपितु गीत, गजल, मुक्तक यहाँ तक की गद्य लेखन के लिये भी उपयोगी है। पाठक अपनी पसंद के दोहों की मात्राओं की गिनती करें तथा कोई कठिनाई होने पर चर्चा करें.
गौ भाषा को दुह रहा, दोहा कर पय-पान.
सही-ग़लत की 'सलिल' कर, सही-सही पहचान.
संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश.
दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर.
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर.
देखें दोहा छंद में, मात्रा गण लय तान.
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रस-खान.
समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन अविराम.
सत्य न लेकिन बदलता, रखता दोहा थाम.
सीख-सिखाना जिन्दगी, यही बंदगी मान.
हो सारस्वत साधना, करिए दोहा-गान.
शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर.
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर.
दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद.
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद.
पढ़े-लिखे को स्वयं तक, सीमित रखते अज्ञ.
दें उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ.
अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
जो वे आँखें मूँदकर, बने हुए हैं सूर.
जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश.
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष.
सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत.
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.
स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात.
दोहा रचना के शिल्प के साथ ही साथ दोहा के ऐतिहासिक योगदान की चर्चा सोने में सुहागा होगी।
इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा हेतु उकसाया। परीक्षण के समय बंदी सम्राट पृथ्वीरज चौहान के कानों में समीप खड़े कवि मित्र चन्दबरदाई ने एक दोहा पढ़ा। दोहे ने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बतादी। असहाय दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनी हार को जीत में बदलने का अवसर दिया, वह कालजयी दोहा है-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.
इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडली महाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.
मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..
शृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भी संभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो.
किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण.
किं जनेन धनेन किं मम, जीवितेन गृहेऽण.
हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।
जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.
दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-
जो जिण सासण भा भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारू.
चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.
पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.
संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.
आज की दोहा चर्चा को यहीं विश्राम दें इस निवेदन के साथ कि आपके अंचल एवं आंचलिक भाषा में जो रोचक प्रसंग दोहे में हों उन्हें खोज लाइए। अभ्यास के लिए दोहों को बार-बार गुनगुनाइए। रामचरितमानस अधिकतर घरों में होगा, शालेय छात्रों की पाठ्य पुस्तकों में भी दोहे हैं। दोहों की पैरोडी बनाकर भी अभ्यास कर सकते हैं। कुछ चलचित्रों (फिल्मों) में भी दोहे गाये गए हैं। बार-बार गुनगुनाने से दोहा की लय, गति एवं यति को साध सकेंगे ।
***
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in
http://hindihindi.in
9 टिप्पणियां:
deepti gupta ✆ yahoogroups.com
vicharvimarsh
आदरणीय संजीव जी,
यह आप बहुत ही अच्छा काम कर रहे हैं! ये आलेख संजोने लायक हैं!
अति सुन्दर और ज्ञानवर्द्धक !
ढेर शुभकामनाओं के साथ ,
दीप्ति
vijay2 ✆ yahoogroups.com vicharvimarsh
आ० ‘सलिल’ जी,
इस अद्वितीय उत्कृष्ट सुचिन्तित लेख के लिए आपको शत-शत धन्यवाद ।
विजय
sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com
vicharvimarsh
आ० आचार्य जी,
आपका सारगर्भित आलेख पढ़ कर अभी मंथन के स्तर पर हूँ |
विस्तार से बाद में लिखूंगा |
सादर
कमल
अभिन्न दीप्ति जी, कमल जी, विजय जी
वन्दे मातरम.
मुझे हिंदी व्याकरण-पिंगल का ज्ञान विद्यार्थी के स्तर का ही है. इन प्रसंगों पर लिखने का अधिकारी न होते हुए भी दुस्साहस कर रहा हूँ. गलतियाँ होना स्वाभाविक है. कृपया, निस्संकोच इंगित तथा सुधार करने की कृपा करें. उत्साह वर्धन हेतु आभार.
vijay2@comcast.net द्वारा yahoogroups.com vicharvimarsh
आ० संजीव ‘सलिल’ जी,
२२ अप्रेल को कमल जी ने आपको लिखा था....
आ० आचार्य जी ,
दोहों की शब्दावली और मात्राओं की गिनती के संबंध में विस्तार से बताएँ तो पाठकों में इस विधा की ओर रूचि बढ़ेगी | अनेक प्रकार के असंख्य दोहे आपने लिखे हैं और इस विधा पर आपको भारी महारत हासिल है और विशेष कर शब्दावली ( ह्रस्व /दीर्घ )आदि का प्रयोग एवं मात्राओं की गणना पर हमें विस्तार से सोदाहरण बताएं |
आभारी रहूँगा|
यह सिलसिला जारी रहना चाहिए |
सादर ,
कमल
यह कह कर कमल जी ने हमारे मन की बात भी कह दी ।
मात्राओं की गणना पर हमें विस्तार से सोदाहरण बताएं ।
इस विषय पर शीघ्र लिख सकें तो आभारी होंगे ।
विजय
drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com vicharvimarsh
आदरणीय संजीव जी,
आप हम सबके 'आचार्य ' है और हम आपके शिष्य हैं ! आपसे हमें बहुत सीखना है ! कहीं 'यदि' भूल-चूक हो आपसे - तो हम सब 'छात्र ' छत्र (छाता) बन कर , अपने गुरु जी की त्रुटि /भूल को अपने साये में ले लेगें ! इसलिए ही शिष्य 'छात्र ' कहलाता है कि वह अपने गुरु को संकट काल में छाते की तरह ढक लेता है ! छात्र शब्द का यह अर्थ हमें बहुत प्रिय है ! 'गुरु' अर्थात जो छात्र के अज्ञान के 'अंधकार '
( रु = अंधकार) को दूर करे - उस गुरु के लिए समय पर ' छत्र ' बनकर , उसकी गरिमा की रक्षा करना , सच्चे छात्र का धर्म होता है ! वही धर्म हम सब छात्र आपके लिए निबाहेगें !
इसलिए आप बिंदास हम सबका ज्ञानवर्द्धन कीजिए !
सादर,
दीप्ति
sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com vicharvimarsh
आ० आचार्य जी,
शब्द रचना और मात्राओं की गणना पर प्रकाश डालने हेतु आभारी हूँ |
आपने लिखा कि संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण दीर्घ तथा संयुक्त वर्ण लघु होता है |
इस कथन के शब्द-उदाहरण और उनकी मात्रा गणना पर कुछ प्रकाश सोदाहरण डालने की कृपा कीजिये | आपके दिये दोहों की मात्रा गणना मैंने जो की है आप कृपया इसे जांच लें कि अशुद्धियाँ कहाँ हैं| दो स्थानों पर जो मैंने शंकाएँ लिखी हैं
उनका निवारण करें| इसके अतिरिक्त निम्नलिखित शब्दों का मात्रा-विभाजन किस प्रकार होगा कपया बताएं -
अभिव्यक्त , - सुप्त, - जाग्रित ,अक्षर , उच्चार , वक्ता,
दोहे की प्रत्येक पंक्ति क्या २४ मात्रा की ही होना आवश्यक है ?
अगले अंक में छंदों और उनकी मात्रा गणना पर भी कुछ बताइये |
सादर,
कमल
गौ भाषा को दुह रहा, दोहा कर पय-पान.
२,२+२, २,१+१, १+२, २+२, १+१, १+१-२+१=२४
सही-ग़लत की 'सलिल' कर, सही-सही पहचान.
१+२-१+१+१,२ ,१+१+१, १+१, १+२-१+२, १+१+२+१ = २४
संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
२+१+१+१, २+२, २+१+१, २+१+१, २, १+१+२=१ = २४
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश. =२+२,१+१+२, २+१+२, १+१+२, २+२ , २+1 = २४
दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर. = २+२, २, २+२+१, २, १+२, १+१+१+२, २+१ = २४
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर. = २+१, १+२, १+१+२+१, २, १+२, १, १+१+२ , २+१ = २४
देखें दोहा छंद में, मात्रा गण लय तान. = २+२, २+२, २+१,२, २+2, १+१, १+१, २+१ =२४
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रस-खान. = १+१- १+१, २, १+१-२+१, २, २+१+१ , २, १+१+-२+१ = २४ \
समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन अविराम. = १+१+१, २+१, २+२, १+२, १+१+१+२+१,१+१+२+१ = २४
सत्य न लेकिन बदलता, रखता दोहा थाम. = १+२, १, २+१+१, १+१+१+२, १+१+२, २+२, २+१ = २४
सीख-सिखाना जिन्दगी, यही बंदगी मान. = 2+1-1+2+2, 2+1+2, 1+2,2+1+2, 2+1, = 24
हो सारस्वत साधना, करिए दोहा-गान. = २, २+१+२+१ , २+१+२, १+१+२, २+२- २+१ = २४
शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर. = २+१+१, १+१+२, १+१, १+१+१, २+२, १+१+१+१, २+१ = २४
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर. = २+२-१+१+२, २+१, १+१, १+२,१+१+१, २, २+१ =२४
दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद. = १+२, १+२+१+१, २, १+१+१, २+२, १+१+१+१, २+१, = २४
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद. = १+१ - १+१, -१+१, २, २+१+१+१, २+२, २, २+२+१ = २४
पढ़े-लिखे को स्वयं तक, सीमित रखते अज्ञ. = १+२ - १+२, २, १+२, १+१, २+१+१, १+१+२, १+२ = २४
दें उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ. = २, १+१+२+२, १+2, २, १+१, २+१+१, १+१, १+२ = २४
अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर. = २+२+२, २, २+१, २, २, २+२, २, २+१, =२४
जो वे आँखें मूँदकर, बने हुए हैं सूर. = २, २, २+२,२+१+१+१, १+२, १+२, २, २+१ = २४
जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश. = १+१+२+२, २+२, १+२, २+२, १+२+१, २=१, = २४
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष. = २+२, १+१+१+१, २+१, २, २, २+१+१, १+२+१ = २३ (क्या ' ष ' दो मात्रा लेगा ? )
सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत. = १+१+१, १+१+१, २, १+१+१, २, २+२, १+१+२, २+१ =२४
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत. = १+१, २+२, १+१, २+१+१+१, २+२, २+१,१+२+१ = २४
स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात. =२+१,१+२+१+१, २, १+२, २+२, २+२, २+१ = २४
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात = २+२, २, १+२+१, १+१+१, २+२, २, १+२+१ = २३ ( ज्ञ +अ क्या ३ मात्रा लेगा )
आत्मीय!
वन्दे मातरम.
अपने ९०% मात्रा गणना सही की है. बधाई. त्रुटियों में संशोधन कर दिया है. कृपया, देखें.
संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण दीर्घ तथा संयुक्त वर्ण लघु होता है: रक्त = २+१ = ३, विप्र = २+१ = ३, अज्ञ = २+१ = ३, शक्य = २=१ = ३ आदि.
निम्न शब्दों का मात्रा-विभाजन बताएं -
अभिव्यक्त, सुप्त, जागृत, अक्षर , उच्चार , वक्ता,
१+१+२+१, २+१, २+२+१, २+१+१, २+२+१, २+२
दोहे की प्रत्येक पंक्ति क्या २४ मात्रा की ही होना आवश्यक है ?
जी हाँ. दोहा के दोनों पदों (पंक्तियों) में दो चरण होना अनोवारी है, प्रथम तथा तृतीय चरण (विषम चरण) १३-१३ मात्राओं के तथा द्वितीय एवं चतुर्थ (सम) चरण ११-११ मात्राओं के होते हैं. हर पद (पंक्ति में) एक विषम + एक सम चरण की कलाएँ (मात्राएँ) १३+११=२४ होना अनिवार्य है.
गौ भाषा को दुह रहा, दोहा कर पय - पान. २ २+२ २ १+१ १+२, २+२,१+१, १+१ २+१ = २४
सही-ग़लत की 'सलिल' कर, सही-सही पहचान. १+२ १+१+१ २ १+१+१ १+१, १+२-१+२, १+१+२+१ = २४
संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश. २+१+१+१ २+२ २+१+१,२+१+१, २, १+१+२+१ = २४
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश. २+२ १+१+२ २+१+२, १+१+२ २+२ २+१ = २४
दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर. २+२ २ २+२+१ २, १+२ १+१+१+२ २+१ = २४
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर. २+१ १+२ १+१+२+१ २, १+२ १ १+१+२ २+१ = २४
देखें दोहा छंद में, मात्रा गण लय तान. २+२ २+२ २+१ २, २+२ १+१ १+१ २+१ =२४
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रस-खान. = १+१ १+१ २ १+१-२+१ २, २+१+१ २ १+१ २+१ = २४
समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन अविराम. १+१+१ २+१ २+२ १+२, १+१+२+१+१ १+१+२+१ = २४
सत्य न लेकिन बदलता, रखता दोहा थाम. २+१ १ २+१+१ १+१+१+२, १+१+२, २+२, २+१ = २४
सीख-सिखाना जिन्दगी, यही बंदगी मान. २+१ १+२+२ २+१+२, १+२ २+१+२, २+१ = २४
हो सारस्वत साधना, करिए दोहा-गान.
२ २+१+२+१ २+१+२, १+१+२ २+२- २+१ = २४
शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर. २+१+१ १+१+२ १+१ १+१+१, २+२ १+१+१+१ २+१ = २४
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर. २+२-१+१+२ २+१ १+१, १+२ १+१+१ २ २+१ = २४
दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद.
२+१ १+२+१+१ २ १+१+१, २+२ १+१+१+१ २+१ = २४
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद. १+१-१+१-१+१ २ २+१+१+१, २+२ २ २+२+१ = २४
पढ़े-लिखे को स्वयं तक, सीमित रखते अज्ञ. १+२-१+२ २ २+१ १+१, २+१+१ १+१+२ १+२ = २४
दें उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ.
२ १+१+२+२ २+१ २, १+१ २+१+१ १+१ १+२ = २४
अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
२+२+२ २ २+१ २, २ २+२ २ २+१ = २४
जो वे आँखें मूँदकर, बने हुए हैं सूर.
२ २ २+२ २+१+१+१, १+२ १+२ २ २+१ = २४
जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश. १+१+२+२ २+२ १+२, २+२ १+२+१ २+१ = २४ हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष. २+२ १+१+१+१ २+१ २, २ २+२+१ १+२+१ = २४
सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत. १+१+१ १+१+१ २ १+१+१ २, २+२ १+१+२ २+१ = २४
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.
१+१ २+२ १+१ २+१+१+१, २+२ २+१ १+२+१ = २४
स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
२+१ १+२+१+१ २ १+२, २+२ २+२ २+१ = २४
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात
२+२ २ १+२+१ १+१+१, २+२ २ २+२+१ = २४
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Bahut hi upyogi janakari....uchchhran me sudhar ka pryas karne ke liye...
aabhar aapka....
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