स्मरण : डॉ. हरिवंश राय बच्चन
आज का युवा ट्विटर और फेसबुक के मायाजाल
में फंसता चला जा रहा है। किताबों से दूरी बढ़ गई है। आधुनिक समाज में इसके
यंत्रो और तंत्रो से मुक्ति का प्रयास भी हास्यास्पद लगता है। हरिवंश राय
बच्चन जी का भी यही मानना था कि काल और स्थान के दिखाए अनगिनत रास्तों में
से एक चुनकर बेधड़क बढ़ते चले जाओं, ‘मधुशाला’ यानी मंजिल मिल जाएगी पर
जब सब एक हीं रास्ते पर बढ़ते चले जाए तो एकरसता और सामाजिक रंगों में कमी
का डर सदैव बना रहता है। अगर ऐसा हुआ तो फिर कोई हरिवंशराय बच्चन इस भारत
भूमि पर जन्म नहीं लेगा। बच्चन जी की १०४ वीं जयन्ती के अवसर पर ''प्रवासी दुनिया'' द्वारा प्रस्तुत सामग्री आभार सहित दिव्य नर्मदा के पाठकों के लिये पुनर्प्रस्तुत की जा रही है ।
हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार श्री हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में २७ नवम्बर १९०७ को जन्मे श्री
हरिवंश राय बच्चन ने १९२९ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधी
प्राप्त की और फिर जल्द ही उनका ध्यान स्वतंत्रता के लिये चल रहे संघर्ष ने
भी खींचा। कुछ समय पत्रकारिता में बिताने के बाद उन्होनें एक स्थानीय
अग्रवाल विद्यालय में अध्यापक की नौकरी कर ली। अध्यापन के काम के साथ-साथ
वे पढाई भी करते रहे और एम.ए. तथा बी.टी की उपाधियां प्राप्त की।
उन्होनें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में
शोधकर्ता के रूप में कार्य आरम्भ किया और १९४१ में अंग्रेज़ी साहित्य में
लैक्चरर का पद संभाल लिया। कुछ समय के बाद उन्होने विश्वविद्यालय से छुट्टी
ली और ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गये। वहां उन्होने
“डब्ल्यू. बी. यीट्स और आकल्टिज़म” नामक विषय पर शोध किया और १९५२ में
अंग्रेज़ी साहित्य में पी. एच. डी. की उपाधी प्राप्त की। कैम्ब्रिज
विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में पी. एच. डी. की उपाधी प्राप्त करने
वाले वह प्रथम भारतीय थे। भारत वापस लौट कर कुछ समय के लिये उन्होने आल
इंडिया रेडियो के साथ निर्माता के तौर पर काम किया। फिर प्रधानमंत्री जवाहर
लाल नेहरु के आग्रह पर १९५५ में श्री बच्चन विदेश मंत्रालय के हिन्दी
विभाग से जुड गये। यहां उन्होनें अंग्रेज़ी में लिखे आधिकारिक दस्तावेजो का
हिन्दी में अनुवाद करने का काम प्रारम्भ किया और इस काम को वे अपनी
सेवानिवृत्ती तक करते रहे।
आलोचनाओ की परवाह किये बिना, बच्चन जी ने
लेखन का काम जारी रखा। उनके समक्ष बहुत सी कठिनाईयां आयीं। उनके सामने
वित्तीय समस्याएं थी और वे बहुत अकेलापन अनुभव करते थे -जो कि उनकी पहली
पत्नी श्यामा के असमय देहांत के कारण और भी बढ गया था। लेकिन जब उन्होने
तेजी सूरी के साथ विवाह किया तो उनका जीवन ही बदल गया। बच्चन जी ने यह भी
स्वीकार किया की इस विवाह के बाद उनका काव्य भी बदला। उनका रचनात्मक
कार्यकाल, जो १९३२ में आरम्भ हुआ और १९९५ तक चला, एक ६३ वर्ष लम्बी
साहित्यिक यात्रा था।
“तेरा हार” उनकी कविताओं का पहला संकलन
था। १९३५ में “मधुशाला” के प्रकाशन के बाद एक प्रमुख हिन्दी कवि के रूप में
उनकी प्रतिष्ठा मज़बूती के साथ स्थापित हो गयी थी। १९३५ की एक शाम जब
उन्होने मधुशाला की रूबाइयों का श्रोताओ के एक विशाल समूह के सामने पाठ
किया तो वह हिन्दी काव्य के क्षितिज पर एक चमकते हुए सितारे के रूप में
उभरे। मधुशाला की रूबाइयां, असंख्य दुख सहे चुके एक नौजवान के हृदय से
निकली करुण पुकार थी।
बच्चन जी की काव्य शैली
उमर खैय्याम की रूबाइयत का असर मधुशाला के
अलावा उनकी दो और लम्बी कविताओं पर दिखा। १९३६ में “मधुबाला” और १९३७ में
“मधुकलश” के प्रकाशन के साथ ही तीन पुस्तको की यह श्रृंखला पूरी हुई। इन
तीनो ही कविताओं में यह संदेश छुपा था कि सांसारिक इच्छाएं, लालच, धार्मिक
असहिषुण्ता और नैतिकता जैसी चीज़ों का कोई अर्थ नहीं है। बच्चन जी ने इन
कविताओ के ज़रिये नैतिकतावादियों को चुनौती दे कर हिन्दी काव्य में एक नई
राह की शुरुआत की।
श्यामा की अकाल मृत्यु ने उनकी मानसिकता
पर एक गहरा असर छोडा और उनकी सभी आशाओं और स्वपनों को चूर-चूर कर दिया।
उनका यह गहरा दुख और निराशा “निशा निमन्त्रण” के माध्यम से व्यक्त हुई जो
उनकी सौ कविताओं का १९३८ में प्रकाशित एक संग्रह था। इस संग्रह में बच्चन
जी ने अपनी एक अलग शैली विकसित करने का प्रयत्न किया। परम्परागत छ: और आठ
पन्क्तियों के पद्य के स्थान पर उन्होनें १३ पन्क्तियों के पद्य का प्रयोग
किया। अकेलेपन के क्रंदन से आरम्भ हो कर इन कविताओ का समापन एक आश्वासन के
साथ होता है। यह कविताएं मुख्यत: निराशा रूपी अंधकार से जुडी हैं जिनमें
प्रकाश को आशा के प्रतिमान के रूप में प्रयोग किया गया है। इन रचनाओं में
कवि ने अपने अंतर्मन के भावों को बाहरी संसार के प्रतिमानो के रूप में
प्रकट किया है। इसीलिये बहुत से प्रतीकों का भी प्रयोग हुआ है। माथुर जी के
शब्दों में “निशा निमन्त्रण हमेशा ही एक मन को छू लेने वाली दुख और व्यथा
की रचना बनी रहेगी।”
“निशा निमन्त्रण” के बाद बच्चन जी ने
“एकांत संगीत” को १९३८-३९ के उस समय में लिखा जब वह घोर मानसिक यातना के
दौर से गुज़र रहे थे। “एकांत संगीत” की पन्क्तियां उनके संवेदनशील मन और
दुखो से भरे उस समय को चित्रित करती हैं। यह संग्रह उनकी काव्य प्रतिभा के
शिखर को दर्शाता है। कवि ने लिखा कि “निशा निमन्त्रण” के अंधकार ने उन्हें
“एकांत संगीत” सुनने के लिये प्रेरित किया और इस संगीत ने उन्हे “आकुल
अंतर” (सन १९४३) लिखने की प्रेरणा दी। “आकुल अंतर” के प्रकाशन के साथ ही
उनकी काव्य यात्रा का एक चरण पूरा हो गया।
बंगाल में भुखमरी से आहत मन
“सतरंगिनी” का प्रकाशन १९४५ में हुआ। १९४३
में बंगाल में भुखमरी के हालात पैदा हो गये थे और इससे द्रवित हो बच्चन जी
अपनी पहले की सोच से हट कर लिखने लगे। मानवीय समस्याओं से उनके काव्य के
इस जुडाव के फ़लस्वरूप १९४६ में “बंगाल का कल” नामक संग्रह प्रकाशित हुआ।
भूपेन्द्रनाथ दास ने इस संकलन का सन १९४८ में बंगाली भाषा में अनुवाद किया।
जनता की समस्याओं और अपने निजी दु:ख की छांह तले उन्होनें १९४६ में ही
“हलाहल” का प्रकाशन किया।
प्रसन्नता के भाव
१९५० के दशक में बच्चन जी ने अपने काव्य
में लम्बे समय के बाद प्रसन्नता के भावो को व्यक्त किया। उन्होनें १९५० में
“मिलन यमिनी” और १९५५ में तुलसीदास की विनय पत्रिका के नाम पर आधारित
“प्रणय पत्रिका” की रचना की। १९५७ में “घर के इधर उधर” नामक संकलन में
उन्होने अपने वंश के गौरव को दर्शाने का प्रयत्न किया और १९५७ में छपे
संकलन “आरती और अंगारे” में उन्होनें व्यक्ति के उसकी विरासत की ओर लौटने
की चर्चा की।
अपने बाद के प्रकाशनों में उन्होने
अकेलेपन और अस्तित्व की उद्देश्यहीनता से होते हुए जीवन की छोटी छोटी
प्रसन्नताओं तक पहुचनें का संदेश दिया। सन १९५८ में “बुद्ध और नाचघर” के
प्रकाशन के बाद उनकी लेखन शैली में एक बार फिर से बदलाव आया। स्वंय बच्चन
जी के अनुसार “बुद्ध और नाचघर” उनके लेखन में एक मील का पत्थर था। इसमें वह
अपने चारो ओर के समाज में पनप रहे क्रोध को व्यक्त करने में सक्षम हुए थे।
“त्रिभंगिमा”, “चार खेमे चौसठ खूंटे”, “रूप और आवाज़” और “बहुत दिन बीते”
नामक संकलनो में उन्होने लोक-कथाओं की भाषा के साथ प्रयोग कई किये।
दो चट्टानें
१९६५ में छपी “दो चट्टानें” नामक पुस्तक
में ५३ कविताएं थी जिन्हें बच्चन जी ने १९६२ से १९६४ के बीच लिखा था। इस
संकलन को १९६८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बहुत सी
अन्य कविताओं के अलावा इस संकलन की शीर्षक कविता बहुत महत्वपूर्ण थीं।
इसमें बच्चन जी ने जीवन के दो दृष्टिकोणो को सिसिफ़स (यूनानी धर्मकथाओं के
एक पात्र) और हनुमान के उदाहरण ले कर व्यक्त किया था। सिसिफ़स और हनुमान,
दोनो ही अमरता पाना चाहते थे (या उन्होने अमरता पाई थी) परन्तु इसे पाने के
लिये दोनो के रास्ते अलग अलग थे। जहां सिसिफ़स ने २०वीं सदी के विश्वासहीन
पश्चिमी मानसिकता वाले मानव को चरितार्थ किया वही हनुमान ने अमरता को
भक्ति, अटूट विश्वास और मानवता के ज़रिये हासिल किया था।
सदी के सातवें दशक में बच्चन जी ने
कविताओं के माध्यम से और भी बहुत से मुद्दो पर अपने विचार व्यक्त किये। इन
मुद्दो में चीन का भारत पर आक्रमण, पंडित नेहरु का देहांत, युवाओं में बढते
क्रोध, उनकी स्वंय की बढती आयु और तात्कालिक सहित्य इत्यादी शामिल थे।
हिन्दी लेखको के लेखन पर सत्याग्रह के और
उसके बाद के दशको में महात्मा गांधी का बहुत प्रभाव पडा। बच्चन जी भी इससे
अछूते नहीं रहे। सुमित्रानंदन पंत के साथ मिल कर बच्चन जी ने महात्मा गांधी
के बारे में कविताओं का एक संकलन प्रकाशित किया। १९४८ में छपे “खादी के
फूल” नामक इस संकलन में बच्चन जी की ९३ कविताएं और पंत जी की १५ कविताएं
थी। दोनो ही कवियों ने इन कविताओं के माध्यम से महात्मा गांधी को अपने
श्रद्धा-सुमन अर्पित किये थे। इसके अलावा, बच्चन जी ने “सूत की माला”
शीर्षक से एक और संकलन प्रकाशित किया जिसमें उन्होने गांधी जी की मृत्यु पर
अपना शोक व्यक्त किया। ये दोनो ही पुस्तकें बहुत अधिक महत्व की हैं।
एक ऐसे परिवार से होने के कारण जो की अपनी
फ़ारसी भाषा की विद्वत्ता और वैष्णव धर्म को मानने के लिये जाना जाता था
-बच्चन जी की कविताओं में संस्कृत, फ़ारसी और अरबी भाषाओं का सुंदर संगम
देखने को मिलता है। कबीर, कीट्स, टैगोर, शेक्सपीयर और उमर खैय्याम का
प्रभाव उनके पूरे काव्य पर देखा जा सकता है। उन्होनें शेक्सपीयर के
“मैकबेथ” और “आथेलो” का हिन्दी में अनुवाद भी किया। इसके अलावा उन्होने ६४
रूसी कविताओं और डब्ल्यू. बी. यीट्स की १०१ कविताओं का भी हिन्दी में
अनुवाद किया। रूसी कविताओं के हिन्दी अनुवाद के लिये उन्हें १९६६ में
सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
बच्चन जी ने श्रीमद भगवदगीता का अवधी भाषा
में “जनगीता” (१९५८) और आधुनिक हिन्दी में “नागरगीता” (१९६६) नाम से
अनुवाद किया। उनकी कुछ चुनी हुई कविताओं का अनुवाद भी कई भारतीय और विदेशी
भाषाओं में हो चुका है। इसके अलावा उन्होनें निबंध, यात्रा-वर्णन इत्यादी
का लेखन किया और अपने तथा अन्य कई कवियों के काव्य संकलनों का संपादन भी
किया। हिन्दी सिनेमा में भी उन्होने यश चोपडा की फ़िल्म सिलसिला (१९८१) के
लिये “रंग बरसे” और फ़िल्म आलाप (१९७७) के लिये “कोई गाता मैं सो जाता” जैसे
लोकप्रिय गीत लिख कर अपना योगदान दिया।
गद्य लेखन में बच्चन जी की महान उपलब्धि उनकी चार खंडो में प्रकाशित आत्मकथा है।
पुरस्कार
बच्चन जी को अपने जीवन में बहुत से पुरस्कार और सम्मान मिले। उनमें से कुछ प्रमुख हैं:
साहित्य अकादमी पुरस्कार
सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार
पद्म भूषण (१९७६)
सरस्वती सम्मान (के.के. बिरला फ़ाउंडेशन द्वारा दिया जाने वाला यह सम्मान प्रथम बार बच्चन जी को ही दिया गया था)
एफ़्रो-एशियन राइटर्स कांफ़्रेंस लोटस पुरस्कार
सदस्यता
भारत के राष्ट्रपति द्वारा १९६६ में राज्यसभा के लिये मनोनीत
हिन्दी सलाहकार मंडल, साहित्य अकादमी, की सदस्यता (१९६३-६७)
भारतवर्ष ने हिन्दी भाषा का यह महान कवि
१८ जनवरी २००३ को खो दिया। बच्चन जी का देहांत ९६ वर्ष की आयु में सांस की
तकलीफ़ के कारण हुआ। मुंबई में उनकी अंतिम यात्रा में हज़ारो लोगो ने हिस्सा
लिया।
रचना संसार :
| कविताएँ : |
तेरा हार (1932)
मधुशाला (1935)
मधुबाला (1936)
मधुकलश (1937)
निशा निमंत्रण (1938)
एकांत संगीत (1939)
आकुल अंतर (1943)
सतरंगिनी (1945)
हलाहल (1946)
बंगाल का काव्य (1946)
खादी के फूल (1948)
सूत की माला (1948)
मिलन यामिनी (1950)
प्रणय पत्रिका (1955)
धार के इधर उधर (1957)
आरती और अंगारे (1958)
बुद्ध और नाचघर (1958)
त्रिभंगिमा (1961)
चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962)
दो चट्टानें (1965)
बहुत दिन बीते (1967)
कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968)
उभरते प्रतिमानों के रूप (1969)
जाल समेटा (1973)
विविध
बचपन के साथ क्षण भर (1934)
खय्याम की मधुशाला (1938)
सोपान (1953)
मैकबेथ (1957)
जनगीता (1958)
ओथेलो(1959)
उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959)
कवियों के सौम्य संत: पंत (1960)
आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960)
आधुनिक कवि (1961)
नेहरू: राजनैतिक जीवनचित्र (1961)
नये पुराने झरोखे (1962)
अभिनव सोपान (1964)
चौसठ रूसी कविताएँ (1964)
डब्लू बी यीट्स एंड औकल्टिज़्म (1968)
मरकट द्वीप का स्वर (1968)
नागर गीत) (1966)
बचपन के लोकप्रिय गीत (1967)
हैमलेट (1969)
भाषा अपनी भाव पराये (1970)
पंत के सौ पत्र (1970)
प्रवास की डायरी (1971)
1972)
टूटी छूटी कड़ियाँ(1973)
मेरी कविताई की आधी सदी (1981)
सोहं हँस (1981)
आठवें दशक की प्रतिनिधी श्रेष्ठ कवितायें (1982)
मेरी श्रेष्ठ कविताएँ (1984)
आत्मकथा / रचनावली
क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969)
नीड़ का निर्माण फिर(1970)
बसेरे से दूर (1977)
दशद्वार से सोपान तक (1965)
बच्चन रचनावली के नौ खण्ड (1983)
मधुशाला (1935)
मधुबाला (1936)
मधुकलश (1937)
निशा निमंत्रण (1938)
एकांत संगीत (1939)
आकुल अंतर (1943)
सतरंगिनी (1945)
हलाहल (1946)
बंगाल का काव्य (1946)
खादी के फूल (1948)
सूत की माला (1948)
मिलन यामिनी (1950)
प्रणय पत्रिका (1955)
धार के इधर उधर (1957)
आरती और अंगारे (1958)
बुद्ध और नाचघर (1958)
त्रिभंगिमा (1961)
चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962)
दो चट्टानें (1965)
बहुत दिन बीते (1967)
कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968)
उभरते प्रतिमानों के रूप (1969)
जाल समेटा (1973)
विविध
बचपन के साथ क्षण भर (1934)
खय्याम की मधुशाला (1938)
सोपान (1953)
मैकबेथ (1957)
जनगीता (1958)
ओथेलो(1959)
उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959)
कवियों के सौम्य संत: पंत (1960)
आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960)
आधुनिक कवि (1961)
नेहरू: राजनैतिक जीवनचित्र (1961)
नये पुराने झरोखे (1962)
अभिनव सोपान (1964)
चौसठ रूसी कविताएँ (1964)
डब्लू बी यीट्स एंड औकल्टिज़्म (1968)
मरकट द्वीप का स्वर (1968)
नागर गीत) (1966)
बचपन के लोकप्रिय गीत (1967)
हैमलेट (1969)
भाषा अपनी भाव पराये (1970)
पंत के सौ पत्र (1970)
प्रवास की डायरी (1971)
1972)
टूटी छूटी कड़ियाँ(1973)
मेरी कविताई की आधी सदी (1981)
सोहं हँस (1981)
आठवें दशक की प्रतिनिधी श्रेष्ठ कवितायें (1982)
मेरी श्रेष्ठ कविताएँ (1984)
आत्मकथा / रचनावली
क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969)
नीड़ का निर्माण फिर(1970)
बसेरे से दूर (1977)
दशद्वार से सोपान तक (1965)
बच्चन रचनावली के नौ खण्ड (1983)
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