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शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

सोरठे,शिव,दोहा,ममता,अशोक खुराना, फागुन,फाग,नवगीत

सोरठे 
रचता माया जाल, सोम व्योम से आ धरा।
प्रगटे करे निहाल, प्रकृति स्मृति में बसी।।

नितिन निरंतर साथ, सीमा कहाँ असीम की।
स्वाति उठाए माथ, बन अरुणा करुणा करे।।

पाते रहे अबोध, साची सारा स्नेह ही।
जीवन बने सुबोध, अक्षत पा संजीव हो।।

मनवन्तर तक नित्य, करें साधना निरंतर।
खुशियाँ अमित अनित्य, तुहिना सम साफल्य दे।।
२५-२-२०२३ 

***
शिव भजन
*
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
मन की शंका हरते शंकर,
दूषण मारें झट प्रलयंकर।
भक्तों की भव बाधा हरते
पल में महाकाल अभ्यंकर।।
द्वेष-क्रोध विष रखो कंठ में
प्रेम बाँट सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
नेह नरमदा तीर विराजे,
भोले बाबा मन भाए।
उज्जैन क्षिप्रा तट बैठे,
धूनि रमाए मुस्काए।।
डमडम डिमडिम बजता डमरू
जनहित कर सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
काहे को रोना कोरोना,
दानव को मिल मारो अब।
बाँध मुखौटा, दूरी रखकर
रहो सुरक्षित प्यारो!अब।।
दो टीके लगवा लो हँसकर,
संकट पर जय पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
२५-२-२०२१
***
दोहा
ममता
*
माँ गुरुवर ममता नहीं, भिन्न मानिए एक।
गौ भाषा माटी नदी, पूजें सहित विवेक।।
*
ममता की समता नहीं, जिसे मिले वह धन्य।
जो दे वह जगपूज्य है, गुरु की कृपा अनन्य।।
*
ममता में आश्वस्ति है, निहित सुरक्षा भाव।
पीर घटा; संतोष दे, मेटे सकल अभाव।।
*
ममता में कर्तव्य का, सदा समाहित बोध।
अंधा लाड़ न मानिए, बिगड़े नहीं अबोध।।
*
प्यार गंग के साथ में, दंड जमुन की धार।
रीति-नीति सुरसति अदृश, ममता अपरंपार।।
*
दीन हीन असहाय क्यों, सहें उपेक्षा मात्र।
मूक अपंग निबल सदा, चाहें ममता मात्र।।
२५-२-२०२०
***
पुस्तक सलिला:
सारस्वत सम्पदा का दीवाना ''शामियाना ३''
*
[पुस्तक विवरण: शामियाना ३,सामूहिक काव्य संग्रह, संपादक अशोक खुराना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ २४०, मूल्य २००/-, मूल्य २००/-, संपर्क- विजय नगर कॉलोनी, गेटवाली गली क्रमांक २, बदायूँ २४३६०१, चलभाष ९८३७० ३०३६९, दूरभाष ०५८३२ २२४४४९, shamiyanaashokkhurana@gmail.com]
*
साहित्य और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है. समाज साहित्य के सृजन का आधार होता है. साहित्य से समाज प्रभावित और परिवर्तित होता है. जिन्हें साहित्य के प्रभाव अथवा साहित्य से लाभ के विषय में शंका हो वे उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के शामियाना व्यवसायी श्री अशोक खुराना से मिलें। अशोक जी मेरठ विश्व विद्यालय से वोग्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर शामियाना व्यवसाय से जुड़े और यही उनकी आजीविक का साधन है. व्यवसाय को आजीविका तो सभी बनाते हैं किंतु कुछ विरले संस्कारी जन व्यवसाय के माध्यम से समाज सेवा और संस्कार संवर्धन का कार्य भी करते हैं. अशोक जी ऐसे ही विरले व्यक्तित्वों में से एक हैं. वर्ष २०११ से प्रति वर्ष वे एक स्तरीय सामूहिक काव्य संकलन अपने व्यय से प्रकाशित और वितरित करते हैं. विवेच्य 'शामियाना ३' इस कड़ी का तीसरा संकलन है. इस संग्रह में लगभग ८० कवियों की पद्य रचनाएँ संकलित हैं.
निरंकारी बाबा हरदेव सिंह, बाबा फुलसन्दे वाले, बालकवि बैरागी, कुंवर बेचैन, डॉ. किशोर काबरा, आचार्य भगवत दुबे, डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. रसूल अहमद 'सागर', भगवान दास जैन, डॉ. दरवेश भारती, डॉ. फरीद अहमद 'फरीद', जावेद गोंडवी, कैलाश निगम, कुंवर कुसुमेश, खुमार देहलवी, मधुकर शैदाई, मनोज अबोध, डॉ. 'माया सिंह माया', डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली', ओमप्रकाश यति, शिव ओम अम्बर, डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर' आदि प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों की रचनाएँ संग्रह की गरिमा वृद्धि कर रही हैं. संग्रह का वैशिष्ट्य 'शामियाना विषय पर केंद्रित होना है. सभी रचनाएँ शामियाना को लक्ष्य कर रची गयी हैं. ग्रन्थारंभ में गणेश-सरस्वती तथा मातृ वंदना कर पारंपरिक विधान का पालन किया गया है. अशोक खुराना, दीपक दानिश, बाबा हरदेव सिंह, बालकवि बैरागी, डॉ. कुँवर बेचैन के आलेख ग्रन्थ ओ महत्वपूर्ण बनाते हैं. ग्रन्थ के टंकण में पाठ्य शुद्धि पर पूरा ध्यान दिया गया है. कागज़, मुद्रण तथा बंधाई स्तरीय है.
कुछ रचनाओं की बानगी देखें-
जब मेरे सर पर आ गया मट्टी का शामियाना
उस वक़्त य रब मैंने तेरे हुस्न को पहचाना -बाबा फुलसंदेवाले
खुद की जो नहीं होती इनायत शामियाने को
तो हरगिज़ ही नहीं मिलती ये इज्जत शामियाने को -अशोक खुराना
धरा की शैया सुखद है
अमित नभ का शामियाना
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
मित्रगण क्या मिले राह में
स्वस्तिप्रद शामियाने मिले -शिव ओम अम्बर
काटकर जंगल बसे जब से ठिकाने धूप के
हो गए तब से हरे ये शामियाने धूप के - सुरेश 'सपन'
शामियाने के तले सबको बिठा
समस्या का हल निकला आपने - आचार्य भगवत दुबे
करे प्रतीक्षा / शामियाने में / बैठी दुल्हन - नमिता रस्तोगी
चिरंतन स्वयं भव्य है शामियाना
कृपा से मिलेगा वरद आशियाना -डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी
उसकी रहमत का शामियाना है
जो मेरा कीमती खज़ाना है - डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली'
अशोक कुरान ने इस सारस्वत अनुष्ठान के माध्यम से अपनी मातृश्री के साथ, सरस्वती मैया और हिंदी मैया को भी खिराजे अक़ीदत पेश की है. उनका यह प्रयास आजीविकादाता शामियाने के पारी उनकी भावना को व्यक्त करने के साथ देश के ९ राज्यों के रचनाकारों को जोड़ने का सेतु भी बन सका है. वे साधुवाद के पात्र हैं. इस अंक में अधिकांश ग़ज़लें तथा कुछ गीत व् हाइकू का समावेश है. अगले अंक को विषय परिवर्तन के साथ विधा विशेष जैसे नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि पर केंद्रित रखा जा सके तो इनका साहित्यिक महत्व भी बढ़ेगा।
२५-२-२०१६
***
लेख:
भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें
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भारत विविधवर्णी लोक संस्कृति से संपन्न- समृद्ध परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों की है। ऋतु परिवर्तन पर उत्सवधर्मी भारतीय जन गायन-वादन और नर्तन की त्रिवेणी प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों के पकने के समय के सूचक भी हैं। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायणी होते हैं इस महाद्वीप में दिन की लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता है। सूर्य पूजन, गुड़-तिल से निर्मित पक्वान्नों का सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकांनंद की अभिव्यक्ति सर्वत्र देख जा सकती है।मकर संक्रांति, खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व सकल देश में मनाया जाता है।
पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकाकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास नर्मदांचली बुन्देल भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा, शिवात्मजा, शिवसुता, शिवप्रिया, शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों के साथ-साथ शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गयी जाना स्वाभाविक है।
बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केशराशि पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं:
ईसुरी राधा जी के कानों में झूल रहे तरकुला को उन दो तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के सौंदर्य के आगे फीके फड़ गए हैं:
कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके
ईसुरी की आराध्या राधिका जी सुंदरी होने के साथ-साथ दीनों-दुखियों के दुखहर्ता भी हैं:
मुय बल रात राधिका जी को, करें आसरा की कौ
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ
पटियाँ कौन सुगर ने पारी, लगी देहतन प्यारी
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसे कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी
कवि पूछता है कि नायिका की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने बनायी हैं? चोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हैं और आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका के शीश के ऊपर श्यामल मेघों की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुनदरता को देखा है उनकी जान निकली जा रही है।
ईसुर की नायिका नैनों से तलवार चलाती है:
दोई नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूंघट की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे
तलवार का वार तो निकट से ही किया जा सकता है नायक दूर हो तो क्या किया जाए? क्या नायिका उसे यूँ ही जाने देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका निगाहों को बरछी से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है:
छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी भौंह मरोरन
नोंकदार बरछी से पैंने, चलत करेजे फोरन
नायक बेचारा बचता फिर रहा है पर नायिका उसे जाने देने के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी कातिल निगाहों को पिस्तौल बना लेती है:
अँखियाँ पिस्तौलें सी करके, मारन चात समर के
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के
इतने पर भी ईसुरी जान हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का गुबखान करते नहीं अघाते:
जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला कैसी कलियाँ
ना हम देखें जमत जमीं में, ना माली की बगियाँ
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ
लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई नहीं रह सकता।
जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो
ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और कौन कर सकता है?
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी
ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ की सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं:
जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने
ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है।
रचना विधान:
ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, ३, ५, ७ ) में १६ तथा सम चरण (२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी मिलती हैं। ये फागें छंद प्रभाकर के अनुसार महाभागवत जातीय नरेंद्र छंद में निबद्ध हैं। इस छंद में खड़ी हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए:
किस चतुरा ने छोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं सांस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी
नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए:
बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे
२५-२-२०१५
***
नवगीत:
.
उम्र भर
अक्सर रुलातीं
हसरतें.
.
इल्म की
लाठी सहारा
हो अगर
राह से
भटका न पातीं
गफलतें.
.
कम नहीं
होतीं कभी
दुश्वारियाँ.
हौसलों
की कम न होतीं
हरकतें.
नेकनियती
हो सुबह से
सुबह तक.
अता करता
है तभी वह
बरकतें
२५.२.२०१५
***
दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल):
दोहा का रंग होली के संग :
*
होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार.
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार.
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
गुझिया खाते-खिलाते, गले मिलें नर-नार.
होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
*
तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मनता रहे, होली का त्यौहार..
२५-२-२०११
***
रंगों का नव पर्व बसंती

रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
२४-२-२०१०
***

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

संजीव २४ फरवरी

मुक्तिका

कविता सुनी है हमने कहो तुमने क्या किया?
ताली बजाई हमने सदा तुमने क्या किया?

हमने दिए हैं दर्द कहो उनका शुक्रिया
हमने दिए जो अश्क़ कहो तुमने क्या किया?

लिक्खे हैं गीत-ग़ज़ल-कता जिस जमीन पर
हमने दिया है क़र्ज़ कहो तुमने क्या किया?

पानी है आँख में जो बचा, हमने ही दिया
तुमसे लिया; लिया ही लिया, तुमने क्या किया?

जो दे रही हो उर्मि ला माधव से आज तुम
संजीव; हर निर्जीव किया, तुमने क्या किया?
***
सोरठा
बादल गरजा खूब, संध्या सिंह बनकर दिखा।
गया शर्म से डूब, डर रवि ने मुँह छिपाया।।
***
मुक्तक
उर्मिला माधव मिटा तम, जगत को उजियार दें।
उर्मि पा हों ऊर्जस्वी, बाँट सबको प्यार दें।।
द्वेष को कर दूर मन से, जीव हर संजीव हो-
निशि-तिमिर ला रवि-उषा को, सकल सृष्टि निखार दें।।
*

हम सबकी माँ वसुंधरा।
हमें गोद में सदा धरा।।
हम वसुधा की संतानें।
सब सहचर समान जानें।
उत्तम होना हम ठानें।।
हम हैं सद्गुण की खानें।।
हममें बुद्धि परा-अपरा।
हम सबकी माँ वसुंधरा।।
अनिल अनल नभ सलिल हमीं।
शशि-रवि तारक वृंद हमीं।
हम दर्शन, विज्ञान हमीं।।
आत्म हमीं, परमात्म हमीं।।
वैदिक ज्ञान यहीं उतरा।
हम सबकी माँ वसुंधरा।।
कल से कल की कथा कहें।
कलकल कर सब सदा बहें।
कलरव कर-सुन सभी सकें।।
कल की कल हम सतत बनें।।
हर जड़ चेतन हो सँवरा।
हम सब की माँ वसुंधरा।।
(विधा- अंग्रेजी छंद, शेक्सपीरियन सॉनेट)
२४-२-२०२२
•••
सॉनेट गीत
वंदे मातरम्
वंदे मातरम् कहना है।
माँ सम सुख-दुख तहना है।।
माँ ने हमको जन्म दिया।
दुग्ध पिलाया, बड़ा किया।
हर विपदा से बचा लिया।।
अपने पैरों खड़ा किया।।
माँ संग पल-पल रहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।
नेह नर्मदा है मैया।
स्वर्गोपम इसकी छैंया।
हम सब डालें गलबैंयां।
मिल खेलें इसकी कैंया।।
धूप-छाँव सम सहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।
सब धर्मों का मर्म यही।
काम करें निष्काम सही।
एक नीड़ जग, धरा मही।।
पछुआ-पुरवा लड़ी नहीं।।
धूप-छाँव संग सहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।
२४-२-२०२२
•••

पुरोवाक
केरल : एक झाँकी - मनोरम और बाँकी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत भूमि का सौंदर्य और समृद्धि चिरकाल से सकल विश्व को आकर्षित करता रहा है। इसी कारण यह पुण्यभूमि आक्रांताओं द्वारा बार-बार पददलित और शोषित की गयी। बकौल इक़बाल 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे-जमां हमारा', भारत हर बार संघर्ष कर स्वाभिमान के साथ पूर्वापेक्षा अधिक गौरव के साथ सर उठाकर न केवल खड़ा हुआ अपितु 'विश्वगुरु' भी बना। संघर्ष और अभ्युत्थान के वर्तमान संघर्षकाल में देश के सौंदर्य, शक्ति और श्रेष्ठता को पहचान कर संवर्धित करने के साथ-साथ-कमजोरियों को पहचान कर दूर किया जाना भी आवश्यक है। विवेच्य कृति 'केरल : एक झाँकी' इस दिशा में एक सार्थक प्रयास है।
पुस्तक की लेखिका अश्वती तिरुनाळ गौरी लक्ष्मीभायी प्रतिष्ठित राजघराने की सदस्य (केणल गोदवर्म राजा की पुत्री, थिरुवल्ला के राजराजा की पत्नी) होते हुए भी जन सामान्य की समस्याओं में गहन रूचि लेकर, उनके कारणों का विश्लेषण और समाधान की राह सुझाने का महत्वपूर्ण दायित्व स्वेच्छा से निभा सकी हैं। हिंदी में संस्मरण निबंध विधाओं में अन्य विधाओं की तुलना में लेखन कम हुआ है जबकि संस्मरण लेखन लेखन बहुत महत्वपूर्ण विधाएँ हैं । इस महत्वपूर्ण कृति का सरस हिंदी अनुवाद कर प्रो. डी. तंकप्पन नायर तथा अधिवक्ता मधु बी. ने हिंदी-मलयालम सेतु सुदृढ़ करने के साथ-साथ केरल की सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक सौंदर्य से अन्य प्रदेश वासियों को परिचित कराने का सफल प्रयास किया है। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से इस स्तुत्य सारस्वत अनुष्ठान के लिए लेखिका अश्वती तिरुनाळ गौरी लक्ष्मीभायी तथा अनुवादक द्व्य प्रो. डी. तंकप्पन नायर तथा अधिवक्ता मधु बी. साधुवाद के पात्र हैं।
प्रथम संस्मरण 'जरूरत है एक मलयाली गुड़िया की' में सांस्कृतिक पहचानों के प्रति सजग होने का आह्वान करती विदुषी लेखिका का पूरे देश में खिचड़ी अपसंस्कृति के प्रसार को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। 'स्मृतियाँ विस्मृति में' ऐतिहासिक स्मारकों की सुरक्षा की ओर ध्यानाकर्षित किया गया है। 'आयुर्वेद एक अमूल्य निधि' में भारत के पुरातन औषधि विज्ञान एवं वैद्यक परंपरा की महत्ता को रेखांकित किया गया है। भारतीय संस्कारों की महत्ता 'आचार प्रभवो धर्म:' में प्रतिपादित की गयी है। 'तिरुवितांकुर का दुर्भाग्य' विलोपित होती विरासत की करुण कथा कहती है। 'हे मलयालम माफ़ी! माफ़ी!' में मातृभाषा की उपेक्षाजनित पीड़ा मुखरित हुई है। आंचलिक परिधानों की प्रासंगिकता और महत्व 'मुंट (धोती) और तोर्त (अँगोछा) का महत्व' संस्मरण में है।
वर्तमान में केरल की ख्याति नयनाभिराम पर्यटल स्थल के रूप में सारी दुनिया में है। वर्षों पूर्व केरल का भविष्य पर्यटन में देख सकने की दिव्य दृष्टि युक्त केणल गोदवर्म राजा पर भारत सरकार को डाक टिकिट निकलना चाहिए। केरल सरकार प्रतिवर्ष उनकी जन्मतिथि को केरल पर्यटन दिवस के रूप में मनाये। लेखिका का परिवार भी इस दिशा में पहल कर केरल के पर्यटन पर देश के अन्य प्रांतों के लेखकों से पुस्तक लिखवा-छपाकर राजाजी की स्मृति को चिरस्थायी कर सकता है। 'पिताजी के सपने और यथार्थ' शीर्षक संस्मरण में उनके अवदान को उचित ही स्मरण किया गया है। समयानुशासन का ध्यान न रखने पर अपनी लाड़ली बेटी को दंडित कर, समय की महत्ता समझाने का प्रेरक संस्मरण 'समय की कैसी गति' हमारे जन सामान्य, अफसरों और नेताओं को सीख देता है। 'किस्सा एक हठी का' रोचक संस्मरण है जो अतीत और वर्तमान के स्थापित करता है।
आधुनिक वैज्ञानिक उन्नति और शहरीकरण ने भारत की परिवार व्यवस्था को गंभीर क्षति पहुँचाने के साथ-साथ बच्चों के कुपोषण तथा संस्कारों की उपेक्षा की समस्या को जन्म दिया है। 'टेलीविजन और नन्हें बच्चे', 'नारी की आवाज', 'मलयाली का ह्रास', 'कन्या कनक संपन्ना' में समकालिक सामाजिक समस्याओं को उठाते हुए, निराकरण के संकेत अन्तर्निहित हैं। 'क्या मलयाली व्यंजन भी फ्रीज़र में रखे जायेंगे?' में आहार संबंधी अपसंस्कृति को उचित ही लांछित किया गया है। 'टिकिट के साथ गंदगी और गर्द' तथा 'धन्यवाद और निंदा' में सामाजिक दायित्वों की ओर सजगता वृद्धि का उद्देश्य निहित है। समाजिक जीवन में नियमों और उद्घोषणाओं के विपरीत आचरण कर स्वयं को गर्वित करने के कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुए लेखिका ने 'उद्घोषणा करने लायक कुछ मौन सत्य' शीर्षक संस्मरण में सार्वजानिक अनुशासन और सामाजिक शालीनता की महत्ता प्रतिपादित की है।
'धार्मिक मैत्री का तीर्थाटन मौसम', 'आयात की गई जीवन शैलियाँ', 'अतिथि देवो भव' आदि में लेखिका के संतुलित चिंतन की झलक है। लेखिका के बहुआयामी व्यक्तित्व की झलक देते इनसंस्मरणों में पर्यावरण के प्रति चिंता 'काई से भरे मन और जलाशय' में दृष्टव्य है। दुर्भाग्य से प्राचीन विरासत के विपरीत स्वतंत्र भारत में जल परिवहन को महत्व न देकर खर्चीले हुए परवरण के लिए हानिप्रद वायु परिवहन तथा थल परिवहन को महत्व देकर देख का राजकोषीय घाटा बढ़ाया जाता रहा है।
चिर काल से भारत कृषि प्रधान देश था, है और रहेगा। विलुप्त होती फसलों के संबंध में लेखिका की चिंता 'उन्मूलन होती फसलें' संस्मरण में सामने आई है। देश के हर भाग में साधनहीन बच्चों द्वारा भिक्षार्जन की समस्या पर 'नियति की धूप मुरझाती कलियाँ', रोग फैलाते मच्छरों पर 'मच्छर उन्मूलन : न सुलझती समस्या', महत्वपूर्ण व्यक्तियों के लिए विशेष व्यवस्थाओं पर 'प्रदर्शकों को एक मार्ग, जनता को राजमार्ग' पठनीय मात्र नहीं, चिंतनीय भी हैं। कृति के अंत में 'स्वगत' के अंतर्गत अपने व्यक्तित्व पर प्रकाश डालकर उनके ऊर्जस्वित व्यक्तित्व से अपरिचित पाठकों को अपना परिचय देते हुए अपनी समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि, बहुरंगी बचपन और असाधारण व्यक्तित्व का उल्लेख इतने संतुलित रूप में किया है की कहीं भी अहम्मन्यता नहीं झलती तथा सामान्य पाठक को भी वे अपने परिवार की सदस्य प्रतीत होती हैं।
सारत: 'केरल : एक झाँकी - मनोरम और बाँकी' एक रोचक, ज्ञानवर्धक, लोकोपयोगी कृति है जो देश के सामान्य और विशिष्ट वर्ग की खूबियों और खामियों को भारतीय विरासत के संदर्भ से जोड़ते हुए इस तरह उठाती है कि किसी को आघात भी न पहुँचे और सबको निराकरण हेतु संदेश और सुझाव मिल सकें। इस तरह के लेखन की कमी को देखते हुए इस कृति के अल्प मोली संस्करण निकाले जाकर इसे हर बच्चे और बड़े पाठक तक पहुँचाया जाना चाहिए।
२४-२-२०२१

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मुक्तिका
शशि पुरवार
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न माने हार।
रोग को जीत
सुनो जयकार।
पराजित पीर
मानकर हार।
खुशी लो थाम
खड़ी तव द्वार।
अधर पर हास
बने सिंगार।
लिखो नवगीत
बने उपचार।
करे अभिषेक
सलिल की धार।
२४-२-२०२१
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आध्यात्म, धर्म और विज्ञान तीनों सृष्टि की उत्पत्ति नाद अथवा ध्वनि से मानते हैं। सदियों पूर्व वैदिक ऋषियों ने ॐ से सृष्टि की उत्पत्ति बताई, अब विज्ञान नवीनतम खोज के अनुसार सूर्य से नि:सृत ध्वनि तरंगों का रेखांकन कर उसे ॐ के आकार का पा रहे हैं। ऋषि परंपरा ने इस सत्य की प्रतीति कर सर्व सामान्य को बताया कि धार्मिक अनुष्ठानों में ध्वनि पर आधारित मंत्रपाठ या जप ॐ से आरम्भ हुए समाप्त करने पर ही फलता है। यह ॐ परब्रम्ह है, जिसका अंश हर जीव में जीवात्मा के रूप में है। नव जन्मे जातक की रुदन-ध्वनि बताती है कि नया प्राणी आ गया है जो आजीवन अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति ध्वनि के माध्यम से करेगा।
आदि मानव वर्तमान में प्रचलित भाषाओँ तथा लिपियों से अपरिचित था। प्राकृतिक घटनाओं तथा पशु-पक्षियों के माध्यम से सुनी ध्वनियों ने उसमें हर्ष, भय, शोक आदि भावों का संचार किया। शांत सलिल-प्रवाह की कलकल, कोयल की कूक, पंछियों की चहचहाहट, शांत समीरण, धीमी जलवृष्टि आदि ने सुख तथा मेघ व तङित्पात की गड़गड़ाहट, शेर आदि की गर्जना, तूफानी हवाओं व मूसलाधार वर्ष के स्वर ने उसमें भय का संचार किया। इन ध्वनियों को स्मृति में संचित कर, उनका दोहराव कर उसने अपने साथियों तक अपनी अनुभूतियाँ सम्प्रेषित कीं। यही आदिम भाषा का जन्म था। वर्षों पूर्व पकड़ा गया भेड़िया बालक भी ऐसी ही ध्वनियों से शांत, भयभीत, क्रोधित होता देखा गया था।कालांतर में सभ्यता के बढ़ते चरणों के साथ करोड़ों वर्षों में ध्वनियों को सुनने-समझने, व्यक्त करने का कोष संपन्न होता गया। विविध भौगोलिक कारणों से मनुष्य समूह पृथ्वी के विभिन्न भागों में गये और उनमें अलग-अलग ध्वनि संकेत विकसित और प्रचलित हुए जिनसे विविध भाषाओँ तथा बोलिओं का विकास हुआ। सुनने-कहने की यह परंपरा ही श्रुति-स्मृति के रूप में सहस्त्रों वर्षों तक भारत में फली-फूली।
भारत में मानव कंठ में ध्वनि के उच्चारण स्थानों की पहचान कर उनसे उच्चरित हो सकनेवाली ध्वनियों को वर्गीकृत कर शुद्ध ध्वनि पर विशेष ध्यान दिया गया। इन्हें हम स्वर के तीन वर्ग हृस्व, दीर्घ व् संयुक्त तथा व्यंजन के ६ वर्गों क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग आदि के रूप में जानते हैं। अब समस्या इस मौखिक ज्ञान को सुरक्षित रखने की थी ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी उसे सही तरीके से पढ़ा-सुना तथा सही अर्थों में समझा-समझाया जा सके। निराकार ध्वनियों का आकार या चित्र नहीं था, जिस शक्ति के माध्यम से इन ध्वनियों के लिये अलग-अलग संकेत मिले उसे आकार या चित्र से परे मानते हुए चित्र गुप्त संज्ञा दी जाकर ॐ से अभिव्यक्त कर ध्वन्यांकन के अपरिहार्य उपादानों असि-मसि तथा लिपि का अधिष्ठाता कहा गया। इसीलिए वैदिक काल से मुग़ल काल तक धर्म ग्रंथों में चित्रगुप्त का उल्लेख होने पर भी उनका कोई मंदिर, पुराण, उपनिषद, व्रत, कथा, चालीसा, त्यौहार आदि नहीं बनाये गये।निराकार का साकार होना, अव्यक्त का व्यक्त होना, ध्वनि का लिपि, लेखनी, शिलापट के माध्यम से स्थायित्व पाना और सर्व साधारण तक पहुँचना मानव सभ्यता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है।
किसी भी नयी पद्धति का परंपरावादियों द्वारा विरोध किया ही जाता है। लिपि द्वारा ज्ञान को संचित करने का विरोध हुआ ही होगा और तब ऐसी-मसि-लिपि के अधिष्ठाता को कर्म देवता कहकर विरोध का शमन किया गया। लिपि का विरोध अर्थात अंत समय में पाप-पुण्य का लेखा रखनेवाले का विरोध कौन करता? आरम्भ में वनस्पतियों की टहनियों को पैना कर वनस्पतियों के रस में डुबाकर शिलाओं पर संकेत अंकित-चित्रित किये गये। ये शैल-चित्र तत्कालीन मनुष्य की शिकारादि क्रियाओं, पशु-पक्षी, सहचरों आदि से संबंधित हैं। इनमें प्रयुक्त संकेत क्रमश: रुढ़, सर्वमान्य और सर्वज्ञात हुए। इस प्रकार भाषा के लिखित रूप लिपि (स्क्रिप्ट) का उद्भव हुआ। लिप्यांकन में प्रवीणता प्राप्त कायस्थ वर्ग को समाज, शासन तथा प्रशासन में सर्वोच्च स्थान सहस्त्रों वर्षों तक प्राप्त होता रहा जबकि ब्राम्हण वर्ग शिक्षा प्रदाय हेतु जिम्मेदार था। ध्वनि के उच्चारण तथा अंकन का शास्त्र विकसित होने से शब्द-भंडार का समृद्ध होना, शब्दों से भावों की अभिव्यक्ति कर सकना तथा इसके समानांतर लिपि का विकास होने से ज्ञान का आदान-प्रदान, नव शोध और सकल मानव जीवन व संस्कृति का विकास संभव हो सका।
रोचक तथ्य यह भी है कि मौसम, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, तथा वनस्पति ने भी भाषा और लिपि के विकास में योगदान किया। जिस अंचल में पत्तों से भोजपत्र और टहनियों या पक्षियों के पंखों कलम बनायीं जा सकी वहाँ मुड्ढे (अक्षर पर आड़ी रेखा) युक्त लिपि विकसित हुई जबकि जहाँ ताड़पत्र पर लिखा जाता था वहाँ मुड्ढा खींचने पर उसके चिर जाने के कारण बिना मुड्ढे वाली लिपियाँ विकसित हुईं। क्रमश: उत्तर व दक्षिण भारत में इस तरह की लिपियों का अस्तित्व आज भी है। मुड्ढे हीन लिपियों के अनेक प्रकार कागज़ और कलम की किस्म तथा लिखनेवालों की अँगुलियों क्षमता के आधार पर बने। जिन क्षेत्रों के निवासी वृत्ताकार बनाने में निपुण थे वहाँ की लिपियाँ तेलुगु, कन्नड़ , बांग्ला, उड़िया आदि की तरह हैं जिनके अक्षर किसी बच्चे को जलेबी-इमरती की तरह लग सकते हैं। यहाँ बनायी जानेवाली अल्पना, रंगोली, चौक आदि में भी गोलाकृतियाँ अधिक हैं। यहाँ के बर्तन थाली, परात, कटोरी, तवा, बटलोई आदि और खाद्य रोटी, पूड़ी, डोसा, इडली, रसगुल्ला आदि भी वृत्त या गोल आकार के हैं।
बर्फ, ठंड और नमी वाले अंचलों में विपरीत पर्यावरणीय परिस्थितियों के कारण हाथों की अंगुलिया कड़ी हो गईं, वहाँ के निवासी वृत्ताकार बनाने में असुविधा अनुभव करते थे। वहाँ सीधी-छोटी रेखाओं और बिंदुओं का समायोजन कर रोमन लिपि का विकास हुआ। रेगिस्तानों में पत्तों का उपचार कर उन पर लिखने की मजबूरी थी इसलिए छोटी-छोटी रेखाओं से निर्मित अरबी, फ़ारसी जैसी लिपियाँ विकसित हुईं। चित्र अंकन करने की रुचि ने चित्रात्मक लिपियों के विकास का पथ प्रशस्त किया। इसी तरह वातावरण तथा खान-पान के कारण विविध अंचल के निवासियों में विविध ध्वनियों के उच्चारण की क्षमता भी अलग-अलग होने से वहाँ विकसित भाषाओँ में वैसी ध्वनियुक्त शब्द बने। जिन अंचलों में जीवन संघर्ष कड़ा था वहाँ की भाषाओँ में कठोर ध्वनियाँ अधिक हैं, जबकि अपेक्षाकृत शांत और सरल जीवन वाले क्षेत्रों की भाषाओँ में कोमल ध्वनियाँ अधिक हैं। यह अंतर हरयाणवी, राजस्थानी, काठियावाड़ी और बांग्ला, बृज, अवधी भाषाओँ में अनुभव किया जा सकता है।
सार यह कि भाषा और लिपि के विकास में ध्वनि का योगदान सर्वाधिक है। भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करने में सक्षम मानव ने गद्य और पद्य दो शैलियों का विकास किया। इसका उत्स पशु-पक्षियों और प्रकृति से प्राप्त ध्वनियाँ ही बनीं। अलग-अलग रुक-रुक कर हुई ध्वनियों ने गद्य विधा को जन्म दिया जबकि नदी के कलकल प्रवाह या निरंतर कूकती कोयल की सी ध्वनियों से पद्य का जन्म हुआ। पद्य के सतत विकास ने गीति काव्य का रूप लिया जिसे गाया जा सके। गीतिकाव्य के मूल तत्व ध्वनियों का नियमित अंतराल पर दुहराव, बीच-बीच में ठहराव और किसी अन्य ध्वनि खंड के प्रवेश से हुआ। किसी नदी तट के किनारे कलकल प्रवाह के साथ निरंतर कूकती कोयल को सुनें तो एक ध्वनि आदि से अंत तक, दूसरी के बीच-बीच में प्रवेश से गीत के मुखड़े और अँतरे की प्रतीति होगी। मैथुनरत क्रौंच युगल में से व्याध द्वारा नर का वध, मादा का आर्तनाद और आदिकवि वाल्मिकी के मुख से प्रथम कविता का प्रागट्य इसी सत्य की पुष्टि करता है। हो इस प्रसंग से प्रेरित होकर हिरण शावक के वध के पश्चात अश्रुपात करती हिरणी के रोदन से ग़ज़ल की उत्पत्ति जैसी मान्यताएँ गीति काव्य की उत्पत्ति में प्रकृति-पर्यावरण का योगदान इंगित करते हैं।
व्याकरण और पिंगल का विकास-भारत में गुरुकुल परम्परा में साहित्य की सारस्वत आराधना का जैसा वातावरण रहा वैसा अन्यत्र कहीं नहीं रह सका। इसलिये भारत में हर मनुष्य हेतु आवश्यक सोलह संस्कारों में अक्षरारम्भ को विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ। भारत में विश्व की पहली कविता का जन्म ही नहीं हुआ पाणिनि व पिंगल ने विश्व के सर्वाधिक व्यवस्थित, विस्तृत और समृद्ध व्याकरण और पिंगल शास्त्रों का सृजन किया जिनका कमोबेश अनुकरण और प्रयोग विश्व की अधिकांश भाषाओँ में हुआ। जिस तरह व्याकरण के अंतर्गत स्वर-व्यंजन का अध्ययन ध्वनि विज्ञान के आधारभूत तत्वों के आधार पर हुआ वैसे ही छंद शास्त्र के अंतर्गत छंदों का निर्माण ध्वनि खण्डों की आवृत्तिकाल के आधार पर हुआ। पिंगल ने लय या गीतात्मकता के दो मूल तत्वों गति-यति को पहचान कर उनके मध्य प्रयुक्त की जा रही लघु-दीर्घ ध्वनियों को वर्ण या अक्षर मात्रा के माध्यम से पहचाना तथा उन्हें क्रमश: १-२ मात्रा भार देकर उनके उच्चारण काल की गणना बिना किसी यंत्र या विधि न विशेष का प्रयोग किये संभव बना दी। ध्वनि खंड विशेष के प्रयोग और आवृत्ति के आधार पर छंद पहचाने गये।
छंद में प्रयुक्त वर्ण तथा मात्रा के आधार पर छंद के दो वर्ग वर्णिक तथा मात्रिक बनाये गये। मात्रिक छंदों के अध्ययन को सरल करने के लिये ८ लयखंड (गण) प्रयोग में लाये गये सहज बनाने के लिए एक सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' बनाया गया।गीति काव्य में छंद-गणित के समुच्चय सिद्धांत (सेट थ्योरी) तथा क्रमचय और समुच्चय (परमुटेशन-कॉम्बिनेशन) का प्रयोग कर दोनों वर्गों में छंदों की संख्या का निर्धारण किया गया। वर्ण तथा मात्रा संख्या के आधार पर छंदों का नामकरण गणितीय आधार पर किया गया। मात्रिक छंद के लगभग एक करोड़ तथा वर्णिक छंदों के लगभग डेढ़ करोड़ प्रकार गणितीय आधार पर ही बताये गये हैं। इसका परोक्षार्थ यह है कि वर्णों या मात्राओं का उपयोग कर जब भी कुछ कहा जाता है वह किसी न किसी ज्ञात या अज्ञात छंद का छोटा-बड़ा अंश होता है। इसे इस तरह समझें कि जब भी कुछ कहा जाता है वह अक्षर होता है।
संस्कृत के अतिरिक्त विश्व की किसी अन्य भाषा में गीति काव्य का इतना विशद और व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो सका। संस्कृत से यह विरासत हिंदी को प्राप्त हुई तथा संस्कृत से कुछ अंश अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी , चीनी, जापानी आदि तक भी गया। यह अलग बात है कि व्यावहारिक दृष्टि से हिंदी में भी वर्णिक और मात्रिक दोनों वर्गों के लगभग पच्चीस-तीस छंद ही मुख्यतः: प्रयोग हो रहे हैं। रचनाओं के गेय और अगेय वर्गों का अंतर लय होने और न होने पर ही है। गद्य गीत और अगीत ऐसे वर्ग हैं जो दोनों वर्गों की सीमा रेखा पर हैं अर्थात जिनमें भाषिक प्रवाह यत्किंचित गेयता की प्रतीति कराता है। यह निर्विवाद है कि समस्त गीति काव्य ऋचा, मन्त्र, श्लोक, लोक गीत, भजन, आरती आदि किसी भी देश रची गयी हों छंदाधारित है। यह हो सकता है कि उस छंद से अपरिचय, छंद के आंशिक प्रयोग अथवा एकाधिक छंदों के मिश्रण के कारण छंद की पहचान न की जा सके।वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ गीत का आदि रूप हैं। गीत की दो अनिवार्य शर्तें विशिष्ट सांगीतिक लय तथा आरोह-अवरोह अथवा गायन शैली हैं। कालांतर में 'लय' के निर्वहन हेतु छंद विधान और अंत्यानुप्रास (तुकांत-पदांत) का अनुपालन संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक किया जाता रहा।
संस्कृत काव्य के समान्तर प्राकृत, अपभ्रंश आदि में भी 'लय' का महत्व यथावत रहा। सधुक्कड़ी में शब्दों के सामान्य रूप का विरूपण सहज स्वीकार्य हुआ किन्तु 'लय' का नहीं। शब्दों के रूप विरूपण और प्रचलित से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने पर कबीर को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भाषा का डिक्टेटर' कहा।अंग्रेजों और अंगरेजी के आगमन और प्रभुत्व-स्थापन की प्रतिक्रिया स्वरूप सामान्य जन अंग्रेजी साहित्य से जुड़ नहीं सका और स्थानीय देशज साहित्य की सृजन धारा क्रमशः खड़ी हिंदी का बाना धारण करती गयी जिसकी शैलियाँ उससे अधिक पुरानी होते हुए भी उससे जुड़ती गयीं। छंद, तुकांत और लय आधृत काव्य रचनाएँ और महाकाव्य लोक में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए। आल्हा, रासो, राई, कजरी, होरी, कबीर आदि गीत रूपों में लय तथा तुकांत-पदांत सहज साध्य रहे। यह अवश्य हुआ कि सीमित शिक्षा तथा शब्द-भण्डार के कारण शब्दों के संकुचन या दीर्घता से लय बनाये रखा गया या शब्दों के देशज भदेसी रूप का व्यवहार किया गया। विविध छंद प्रकारों यथा छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि में यह समन्वय सहज दृष्टव्य है।खड़ी हिंदी जैसे-जैसे वर्तमान रूप में आती गयी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ कवियों में छंद-शुद्धता के समर्थन या विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी जो पारम्परिक और प्रगतिवादी दो खेमों में बँट गयी।
छंदमुक्तता और छंद हीनता-लम्बे काल खंड के पश्चात हिंदी पिंगल को महाप्राण निराला ने कालजयी अवदान छंदमुक्त गीति रचनाओं के रूप में दिया। उत्तर भारत के लोककाव्य व संगीत तथा रवींद्र संगीत में असाधारण पैठ के कारण निराला की छंद पर पकड़ समय से आगे की थी। उनकी प्रयोगधर्मिता ने पारम्परिक छंदों के स्थान पर सांगीतिक राग-ताल को वरीयता देते हुए जो रचनाएँ उन्हें प्रस्तुत कीं उन्हें भ्रम-वश छंद विहीन समझ लिया गया, जबकि उनकी गेयता ही इस बात का प्रमाण है कि उनमें लय अर्थात छंद अन्तर्निहित है। निराला ने पारम्परिक छंदों के साथ अप्रचलित छंदों का मिश्रण कर अपनी काव्य रचनाओं को अन्यों के लिए गूढ़ बना दिया। निराला की रचनाओं और तथाकथित प्रगतिशील कवियों की रचनाओं के सस्वर पाठ से छंदमुक्तता और छंदहीनता के अंतर को सहज ही समझा जा सकता है।दूसरी ओर पारम्परिक काव्यधारा के पक्षधर रचनाकार छंदविधान की पूर्ण जानकारी और उस पर अधिकार न होने के कारण उर्दू काव्यरूपों के प्रति आकृष्ट हुए अथवा मात्रिक-वार्णिक छंद के रूढ़ रूपों को साधने के प्रयास में लालित्य, चारुत्व आदि काव्य गुणों को नहीं साध सके। इस खींच-तान और ऊहापोह के वातावरण में हिंदी काव्य विशेषकर गीत 'रस' तथा 'लय' से दूर होकर जिन्दा तो रहा किन्तु जीवनशक्ति गँवा बैठा।
निराला के बाद प्रगतिवादी धारा के कवि छंद को कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति में बाधक मानते हुए छंदहीनता के पक्षधर हो गये। इनमें से कुछ समर्थ कवि छंद के पारम्परिक ढाँचे को परिवर्तित कर या छोड़कर 'लय' तथा 'रस' आधारित रचनाओं से सार्थक रचना कर्मकार सके किन्तु अधिकांश कविगण नीरस-क्लिष्ट प्रयोगवादी कवितायेँ रचकर जनमानस में काव्य के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का कारण बने। विश्वविद्यालयों में हिंदी की किताबी शोधोपाधियाँ प्राप्त किन्तु छंद रचना हेतु आवश्यक प्रतिभा व् समझ से हीन प्राध्यापकों का एक नया वर्ग पैदा हो गया जिसने अमरता की चाह में अगीत, प्रगीत, गद्यगीत, अनुगीत, प्रलंब गीत जैसे न जाने कितने प्रयोग किये पर बात नहीं बनी। प्रारंभिक आकर्षण, सत्तासीन राजनेताओं और शिक्षा संस्थानों, पत्रिकाओं और समीक्षकों के समर्थन के बाद भी नयी कविता अपनी नीरसता और जटिलता के कारण जन-मन से दूर होती गयी। गीत के मरने की घोषणा करनेवाले प्रगतिवादी कवि और समीक्षक स्वयं काल के गाल में समा गये पर गीत लोक मानस में न केवल जीवित रहा अपितु सामयिक देश-काल-परिस्थितियों से ताल-मेल बैठाते हुए जनानुभूतियों का प्रवक्ता बन गया। हिंदी छंदों को कालातीत अथवा अप्रासंगिक मानने की मिथ्या अवधारणा पाल रहे रचनाकार जाने-अनजाने में उन्हीं छंदों का प्रयोग बहर का नाम देकर करते हैं।
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लेख: २
भाषा, काव्य और छंद
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
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[लेखमाला की पहली श्रृंखला में भाषा, व्याकरण, वर्ण, व्यंजन, शब्द, रस, भाव, अनुभूति, लय, छंद, शब्द योजना, तुक, अलंकार, मात्रा गणना नियमादि की प्राथमिक जानकारी के पश्चात् ख्यात छन्दशास्त्री साहित्यकार अभियंता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' से प्राप्त करते हैं कुछ और जानकारियां - संपादक]
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दग्ध अक्षर
डॉ. सतीश चंद्र सक्सेना 'शून्य' ग्वालियर - दग्ध अक्षर पर चर्चा छूट गई है।
पिंगल शास्त्र के पुराने नियमों के अनुसार १९ अक्षरों (ट, ठ, ढ, ण, प, फ, ब, भ, म, ङ्, ञ, त, थ, झ, र, ल व्, ष, ह) को दग्धाक्षर मानते हुए इनसे काव्य पंक्तियों का प्रयोग निषिद्ध किया गया था। कालांतर में इन्हें घटाकर ५ अक्षरों (झ, ह, र, भ, ष) को दग्धाक्षर कहकर काव्य पंक्ति के आरम्भ रखा जाना वर्जित किया गया है।
दीजो भूल न छंद के, आदि झ ह र भ ष कोइ।
दग्धाक्षर के दोष तें, छंद दोष युत होइ।।
मंगल सूचक अथवा देवतावाचक शब्द में इनका प्रयोग हो तो दोष परिहार हो जाता है।
देश, काल, परिस्थिति के अनुसार भाषा बदलती है। पानी और बानी बदलने की लोकोक्ति सब जानते हैं। व्याकरण और पिंगल के नियम भी निरंतर बदल रहे हैं। आधुनिक समय में दग्धाक्षर की मान्यता के मूल में कोई तार्किक कारण नहीं है। १९ से घटकर ५ रह जाना ही संकेत करता है की भविष्य में इन्हें समाप्त होना है।
वर्ण
गिरेन्द्र सिंह भदौरिया 'प्राण' - आपके अनुसार हम वर्ण को अजर, अमर और अक्षर मानते हैं तो कहना चाहता हूँ कि वर्ण का आशय तो आकार, जाति, नस्ल, रू,प रंग, संकेत आदि से है। ये सब परिवर्तनशील व मरणधर्मा हैं। फिर ये अजर अक्षर अमर कैसे हो सकते हैं ? हाँ ध्वनि निश्चित ही अक्षर है। उसका संकेत कदापि अक्षर नहीं हो सकता । वह तो अरक्ष या वर्ण ही होगा।
वर्ण / अक्षर :वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
आदरणीय कृपया ध्यान दें -
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि - कहलाती वर्ण।
चारों विशेषण ध्वनि को दिए गए हैं जिसे चिन्ह विशेष द्वारा अंकित किये जाने पर उसे वर्ण कहा जाता है। ध्वनि के मूल रूप को लिपिबद्ध करने पर उसे संस्कृत और हिंदी में अक्षर या वर्ण कहा गया है। लिपि का आरम्भ होते समय ज्ञान की अन्य शाखाएँ नहीं थीं। युगों बाद समाजशास्त्र में समाज की ईकाई व्यक्ति के मूल उसके गुण या योग्यता जिससे आजीविका मिलती है, को वर्ण कहा गया। सामान्यतः वर्ण अर्थात् व्यक्ति का गुण, ज्ञान, या योग्यता उससे छीनी नहीं जा सकती इसलिए व्यक्ति के जीवनकाल तक स्थाई या अमर है।
लिंग
अरुण शर्मा - गुरु जी नमन। इस क्रम को आगे बढाते हुए लिंग पर भी विस्तृत जानकारी प्रदान करें सादर।
संस्कृत शब्द 'लिंग' का अर्थ निशान या पहचान है। लिंग से जातक की जाति पहचानी जाती है की वह स्त्री है या पुरुष। हिन्दी भाषा में संज्ञा शब्दों के लिंग के अनुसार उनके विशेषणों तथा क्रियाओं का रूप निर्धारित होता है। इस दृष्टि से भाषा के शुद्ध प्रयोग के लिए संज्ञा शब्दों के लिंग-ज्ञान होना आवश्यक। हिंदी में दो लिंग पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग हैं।
संस्कृत में ३ लिंग पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग हैं।
अंग्रेजी में ४ लिंग पुल्लिंग (मैस्क्युलाइन जेंडर), स्त्रीलिंग (फेमिनाइन जेंडर), नपुंसक लिंग (न्यूट्रल जेंडर) तथा उभय लिंग (कॉमन जेंडर) हैं।
पुल्लिंग वे संज्ञा या सर्वनाम शब्द जिनसे पुरुष होने का बोध होता है पुल्लिंग शब्द हैं। पुल्लिंग शब्दों का अंत बहुधा अ अथवा आ से होता है। सामान्यत: पेड़ (अनार, केला, चीकू, देवदार, पपीता, शीशम, सागौन आदि अपवाद नीम, बिही, इमली आदि), धातु (सोना, तांबा, सोना, लोहा अपवाद पीतल अपवाद चाँदी, पीतल, राँगा, गिलट आदि), द्रव (पानी, शर्बत, पनहा, तेल, दूध, दही, घी, शहद, पेट्रोल आदि अपवाद लस्सी, चाय, कॉफी आदि), गृह (सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि ), अनाज (गेहूं, चाँवल, चना, बाजरा, जौ, मक्का, अपवाद धान, कोदो, कुटकी), सागर (प्रशांत, हिन्द महासागर आदि अपवाद बंगाल की खाड़ी, खंभात की खाड़ी आदि), पर्वत (विंध्याचल, सतपुड़ा, हिमालय, कैलाश आदि), प्राणीवाचक शब्द (इंसान, मनुष्य, व्यक्ति, पशु, गो धन, सुर, असुर, वानर, साधु, शैतान अपवाद पक्षी, चिड़िया, कोयल, गौरैया आदि), देश (भारत, अमरीका, जापान, श्रीलंका आदि अपवाद इटली,जर्मनी आदि), माह (चैत्र, श्रावण, माघ, फागुन, मार्च, अप्रैल, जून, अगस्त आदि), दिन (सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार, रविवार), समय (युग, वर्ष, साल, दिन, घंटा, मिनिट, सेकेण्ड, निमिष, पल आदि अपवाद घड़ी, ), अक्षर (अ, आ, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: अपवाद इ, ई )।
स्त्रीलिंग वे संज्ञा या सर्वनाम शब्द जो स्त्री होने का बोध कराएँ, उन्हें स्त्रीलिंग शब्द कहते हैं। स्त्रीलिंग शब्दों का अंत बहुधा इ या ई से होता है। सामान्यत: आहार (रोटी, दाल, कढ़ी, सब्जी, साग, पूड़ी, खीर, पकौड़ी, कचौड़ी, बड़ी, गजक आदि अपवाद पान, पापड़ आदि), पुस्तक ( रामायण, भगवद्गीता, रामचरित मानस, बाइबिल, कुरान, गीतांजलि आदि अपवाद वेद, पुराण, उपनिषद, सत्यर्थप्रकाश, गुरुग्रंथ साहिब), तिथि (प्रथमा, द्वितीया, प्रदोष, त्रयोदशी, अमावस्या, पूर्णिमा आदि), राशि (कर्क, मीन, तुला, सिंह, कुम्भ, मेष आदि), समूहवाचक शब्द (भीड़,सेना, सभा, कक्षा, समिति अपवाद हुजूम,दल, जमघट आदि), बोलियाँ (संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभृंश, हिंदी, बांगला, तमिल, असमिया, अंग्रेजी, रुसी, बुंदेली आदि), नदी (नर्मदा, गंगा, कावेरी, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, वोल्गा, टेम्स आदि), मसाले (हल्दी, मिर्ची, लौंग, सौंफ, आजवाइन, अपवाद धनिया, जीरा आदि), वस्त्र (धोती, साड़ी, सलवार, टाई, शमीज, जाँघिया, बनियाइन, चोली आदि अपवाद कोट, कुरता, पेंट, पायजामा, ब्लाउज आदि ), आभूषण (चूड़ी, पायल, बिछिया, बिंदिया, अंगूठी, नथ, करधनी अपवाद कंगन, बेंदा आदि)। अपवादों को छोड़ दें तो आकार में छोटी, स्त्रियों द्वारा प्रयोग की जानेवाली, कोमल, अथवा परावलंबी वस्तुएँ स्त्रीलिंग हैं जबकि अपेक्षाकृत बड़ी, पुरुषों द्वारा प्रयोग की जानेवाली, कठोर अथवा स्वावलंबी वस्तुतं पुल्लिंग हैं। सबसे बड़ा अपवाद 'मूँछ' है जो पौरुष का प्रतीक होते हुए भी स्त्रीलिंग है और घूँघट अथवा पर्दा स्त्रियों से सम्बद्ध होने के बाद भी पुल्लिंग है।
लिंग परिवर्तन
१. 'ई' प्रत्यय जोड़कर - देव - देवी, नर - नारी, जीजा - जीजी, दास - दासी, वानर - वानरी आदि। नाना - नानी, दादा - दादी, चाचा - चाची, मामा - मामी, मौसा - मौसी, लड़का - लड़की, मोड़ा - मोड़ी, लल्ला - लल्ली, पल्ला - पल्ली, निठल्ला - निठल्ली, काका - काकी, साला - साली, नाला - नाली, घोड़ा - घोड़ी, बकरा - बकरी, लकड़ा - लकड़ी, लट्ठा - लट्ठी आदि।
२. 'इया' प्रत्यय जोड़कर - बूढ़ा - बुढ़िया, खाट - खटिया, बंदर - बंदरिया, लोटा - लुटिया, बट्टा - बटिया आदि।
३. 'इका' प्रत्यय जोड़कर - बालक - बालिका, पालक - पालिका, चालक - चालिका, पाठक - पाठिका, संपादक - संपादिका, पत्र - पत्रिका।
४. 'आनी' प्रत्यय जोड़कर - ठाकुर - ठकुरानी, सेठ - सेठानी, देवर - देवरानी, इंद्र - इंद्राणी, नौकर - नौकरानी, मेहतर - मेहतरानी।
५. 'आइन' प्रत्यय जोड़कर - गुरु - गुरुआइन, पंडित - पंडिताइन, चौधरी - चौधराइन, बाबू - बबुआइन, बनिया - बनियाइन, साहू - सहुआइन, साहब - सहबाइन आदि।
६. 'इन' प्रत्यय जोड़कर - माली - मालिन, लुहार - लुहारिन, कुम्हार - कुम्हारिन, दर्जी - दर्जिन, सुनार सुनारिन, मजदूर - मजदूरिन, हलवाई - हलवाइन, चौकीदार - चौकीदारिन, चमार - चमारिन, धोबी - धोबिन, बाघ - बाघिन, सांप - साँपिन, नाग - नागिन।
७. 'नी' प्रत्यय जोड़ कर - डॉक्टर - डॉक्टरनी, मास्टर - मास्टरनी, अफसर - अफसरनी, कलेक्टर - कलेक्टरनी, आदि।
८. 'ता' के स्थान पर 'त्री' का प्रयोग कर - धाता - धात्री, वक्ता - वक्त्री, रचयिता - रचयित्री, नेता - नेत्री, अभिनेता - अभिनेत्री, विधाता - विधात्री, कवि - कवयित्री।
९. 'नई' प्रत्यय का प्रयोग कर - हाथी - हथिनी, शेर - शेरनी, चाँद - चाँदनी, सिंह - सिंहनी, मोर - मोरनी, चोर - चोरनी, हंस - हंसनी, भील - भीलनी, ऊँट - ऊँटनी।
१०. 'इनी' प्रत्यय का प्रयोग कर - मनस्वी - मनस्विनी, तपस्वी - तपस्विनी, सुहास - सुहासिनी, सुभाष - सुभाषिणी / सुभाषिनी, अभिमान अभिमानिनी, मान - मानिनी, नट - नटिनी, आदि।
११. 'ति' / 'ती' प्रत्यय का प्रयोग कर - भगवान - भगवती, श्रीमान - श्रीमती, पुत्रवान - पुत्रवती, आयुष्मान - आयुष्मति, बुद्धिमान - बुद्धिमति, चरित्रवान - चरित्रवती आदि।
१२. 'आ' प्रत्यय जोड़कर - प्रिय - प्रिय, सुत - सुता, तनुज - तनुजा, तनय - तनया, पुष्प - पुष्पा, श्याम - श्यामा, आत्मज - आत्मजा, भेड़ - भेड़ा, चंचल - चंचला, पूज्य - पूज्या, भैंस - भैंसा आदि।
१३. कोई नियम नहीं - भाई - बहिन, सम्राट - साम्राज्ञी, बेटा - बहू, पति - पत्नी, पिता - माता, पुरुष - स्त्री, बिल्ली - बिलौटा, वर - वधु, मर्द - औरत, राजा - रानी, बुआ - फूफा, बैल - गाय आदि।
१४. कोई परिवर्तन नहीं - किन्नर, हिजड़ा, श्रमिक, किसान, इंसान, व्यक्ति, विद्यार्थी, शिक्षार्थी, लाभार्थी, रसोइया आदि।
२४-२-२०२०
***
मात्रा गणना नियम-
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएं गिनी जाती हैंं।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, क्षमा = १२ =३आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, प्रिया १+२, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
८. हिंदी दोहाकार हिंदी व्याकरण नियमों का पालन करें।
९. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
१०. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
११. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि।
हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है।
दोहा लिखना सीखिए;१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं।
२. हर पद में दो चरण होते हैं।
३. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम हो जाती है।
६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं।
७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि जैसे देशज क्रिया रूपों का उपयोग न करें।
८. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए।
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग न करें।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके।
१२. दोहे में कारक का प्रयोग कम से कम हो।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१४. दोहा सम तुकान्ती छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है।
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
***
कृति चर्चा-
"अंजुरी भर धूप" नवगीत अरूप
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति परिचय- अँजुरी भर धूप, गीत-नवगीत संग्रह, सुरेश कुमार पंडा, वर्ष २०१६, ISBN ८१-८९२४४-१८-०४, आकार २०.५ से.मी.x१३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, १०४, मूल्य १५०/-, वैभव प्रकाशन अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर गीतकार संपर्क ९४२५५१००२७]
*
नवगीत को साम्यवादियों की विसंगति और विडम्बना केन्द्रित विचारधारा जनीर मानकों की कैद से छुड़ा कर खुली हवा में श्वास लेने का अवसर देनेवाले गीतकारों में एक नाम भाई सुरेश कुमार पंडा का भी है. सुरेश जी का यह गीत-नवगीत संग्रह शिष्ट श्रृंगार रस से आप्लावित मोहक भाव मुद्राओं से पाठक को रिझाता है.
'उग आई क्षितिज पर
सेंदुरी उजास
ताल तले पियराय
उर्मिल आकाश
वृन्तों पर शतरंगी सुमनों की
भीग गई
रसवन्ती कोर
बाँध गई अँखियों को शर्मीली भोर
*
फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम
* अधरों के किस्लाई किनारों तक
तैर गया
रंग टेसुआ
सपनीली घटी के
शैशवी उतारों पर
गुम हो गया
उमंग अनछुआ
आ आकर अन्तर से
लौट गया
शब्द इक अनाम
लिखा है एक ख़त और
अनब्याही ललक के नाम
सनातन शाश्वत अनुभुतियों की सात्विकतापूर्ण अभिव्यक्ति सुरेश जी का वैशिष्ट्य है. वे नवगीतों को आंचलिकता और प्रांजलता के समन्वय से पठनीय बनाते हैं. देशजता और जमीन से जुड़ाव के नाम पर अप्रचलित शब्दों को ठूँसकर भाषा और पाठकों के साथ अत्याचार नहीं करते.
अछूती भावाभिव्यक्तियाँ, टटके बिम्ब और मौलिक कहन सुरेश जी के गीतों को पाठक की अपनी अनुभूति से जोड़ पाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टंगी रहीं आँखें
जाने कब
अंधियारा पसर गया
एकाकी बगर गया
रीते रहे पल-छिन
अनछुई उसांसें.
नवगीत की सरसता सहजता और ताजगी ही उसे गीतों से पृथक करती है. 'अँजुरी भर धूप' में यह तीनों तत्व सर्वत्र व्याप्त हैं. एक सामान्य दृश्य को अभिनव दृष्टि से शब्दित करने की क्ला में नवगीतकार माहिर है -
आँगन के कोने में
अलसाया
पसरा था
करवट पर सिमटी थी
अँजुरी भर धूप
*
तुम्हारे एक आने से
गुनगुनी
धूप सा मन चटख पीला
फूल सरसों का
तुम्हारे एक आने से
सहज ही खुल गई आँखें
उनींदी
रतजगा
करती उमंगों का.
सुरेश जी विसंगतियों, पीडाओं और विडंबनाओं ओ नवगीत में पिरोते समय कलात्मकता को नहीं भूलते. सांकेतिकता उनकी अभिव्यक्ति का अभिन्न अंग है -
चाँदनी थी द्वार पर
भीतर समायी
अंध कारा
पास बैठे थे अजाने
दुर्मुखों का था सहारा.
आज तेरी याद फिर गहरा गयी है, लिखा है एक खत, कौन है, स्वप्न से जागा नहीं हूँ, मन मेर चंचल हुआ है, अनछुई उसांसें, तुम आये थे, अपने मन का हो लें, तुम्हारे एक आने से, मन का कोना, कब आओगे?, चाँदनी है द्वार पर, भूल चुके हैं, शहर में एकांत, स्वांग, सूरज अकेला है, फागुन आया आदि रचनाएँ मन को छूती हैं. सुरेश जी के इन नवगीतों की भाषा अपनी अभिव्यंजनात्मकता के सहारे पाठक के मन पैठने में सक्षम है. सटीक शब्द-चयन उनका वैशिष्ट्य है. यह संग्रह पाठकों को मन भाने के साथ अगले संग्रह के प्रति उत्सुकता भी जगाता है.
***
नवगीत:
.
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
***

हाइकु:
*
हर-सिंगार
शशि भभूत नाग
रूप अपार
*
रूप को देख
धूप ठिठक गयी
छवि है नयी
*
झूम नाचता
कंठ लिपटा सर्प
फुंफकारता
*
अर्धोन्मीलित
बाँके तीन नयन
करें मोहित
*
भंग-भवानी
जटा-जूट श्रृंगार
शोभा अपार
***
चिंतन
शिव, शक्ति और सृष्टि
सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में वर्णित एक दृष्टान्त के अनुसार शिव निद्रालीन थे. शिव के साथ क्रीड़ा (नृत्य) करने की इच्छा लिये शक्ति ने उन्हें जाग्रत किया. आरंभ में शिव नहीं जागे किन्तु शक्ति के सतत प्रयास करने पर उग्र रूप में गरजते हुए क्रोध में जाग्रत हुए. इस कारण उन्हें रूद्र (अनंत, क्रोधी, महाकाल, उग्ररेता, भयंकर, क्रंदन करने वाला) नाम मिला। शिव ने शक्ति को देखा, वह शक्ति पर मोहित हो उठ खड़े हुए. शक्ति के प्रेम के कारण वे शांत होते गये. उन्होंने दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) का रूप लिया जिसे लिंग (स्वगुण, स्वभाव, विशेषता, रूप) कहा गया.
शिव कोई सशरीर मानव या प्राणी नहीं हैं. शिव का अर्थ है निर्गुण, गुणातीत, अक्षर, अजर, अमर, अजन्मा, अचल, अज्ञेय, अथाह, अव्यक्त, महाकाल, अकर्ता आदि. शिव सृष्टि-कर्ता भी हैं. शक्ति सामान्य ताकत या बल नहीं हैं. शक्ति का अर्थ आवेग, ऊर्जा, ओज, प्राण, प्रणोदन, फ़ोर्स, एनर्जी, थ्रस्ट, त्रिगुणा, माया, प्रकृति, कारण आदि है. शिव अर्थात “वह जो है ही नहीं”। जो सुप्त है वह होकर भी नहीं होता। शिव को हमेशा श्याम बताया गया है. निद्रावस्था को श्याम तथा जागरण को श्वेत या उजला कहकर व्यक्त किया जाता है.
शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. इस मत में ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में कर उसे शक्ति कहा गया है. शक्ति के आनंदभैरवी, महाभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि नाम भी हैं.
विज्ञान सृष्टि निर्माण के कारक को बिग-बैंग कहता है और भारतीय दर्शन शिव-शक्ति का मिलन. विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे डार्क मैटर और डार्क इनर्जी की भूमिका है. योग और दर्शन के अनुसार डार्क मैटर (शिव) और डार्क एनर्जी (महाकाली) का मिलन ही सृष्टि-उत्पत्ति का कारण है. स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच संबंध (लिंक) है. पहले वे इन्हें भिन्न मानते थे अब अभिन्न कहते हैं. विज्ञान के अनुसार डार्क मैटर और डार्क इनर्जी के मिलन से एक विस्फोट नहीं विस्फोटों की श्रृंखला उत्पन्न होती है. क्या यह विस्फोट श्रंखला जागकर क्रुद्ध हुए शिव के हुंकारों की ध्वनि है?
वैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में समूची सृष्टि दीर्घवृत्ताभ आकार के विशाल गैस पिंड के रूप में गर्जना कर रही थी. धीरे-धीरे वह गैसीय पिंड ठंडा होता गया. शीतल होने की प्रक्रिया के कारण इस जगत की रचना हुई. योग कहता है कि जब शक्ति ने शिव को जगा दिया तो वह गुस्से में दहाड़ते हुए उठे। वह कुछ समय के लिये रूद्र बन गये थे. शक्ति को देखकर उनका गुस्सा ठंडा हुआ. शक्ति पर मोहित होकर वह दीर्घवृत्ताभ बन गये, जिसे लिंग कहा गया.
वैज्ञानिक बड़ा धमाकों के बाद की स्थिति एक खंभे की तरह बताते हैं, जिसमें ऊपर के सिरे पर छोटे-छोटे मशरूम लगे हैं. यह ठीक वैसा है जैसा योग-विद्या में बताया गया है. सृष्टि दीर्घवृत्त के आकार में है, जो ऊष्मा, गैसों के फैलाव और संकुचन तथा उनके द्रव्यमान की सघनता पर निर्भर है. इसका ज्यादातर हिस्सा खाली है जिसमें द्रव्य कण, तारे, ग्रह और आकाशीय पिंड बिखरे हुए हैं। सम्भवत:ज्यादातर चीजें अब तक आकार नहीं ले सकी हैं।
विज्ञान जो बात अब समझा है, उसे दर्शन बहुत पहले समझा चुका था। यह शरीर भी वैसे ही है, जैसे कि यह संपूर्ण सृष्टि। पेड़ के तने में बने छल्लों से पेड़ के जीवन-काल में धरती पर घटित हर घटना का ज्ञान हो सकता है. मानव शरीर में अन्तर्निहित ऊर्जा से साक्षात हो सके तो ब्रह्मांड के जन्म और विकास की झाँकी अपने भीतर ही मिल सकती है।
संदर्भ:
१.
२. बृहत् हिंदी कोष सं. कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव
३. समान्तर कोष, अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार
२४-२-२०१७
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***
नवगीत:
ओ उपासनी
*
ओ उपासनी!
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
हो सुहासिनी!
*
भोर, दुपहरी, साँझ, रात तक
अथक, अनवरत
बहती रहतीं।
कौन बताये? किससे पूछें?
शांत-मौन क्यों
कभी न दहतीं?
हो सुहासिनी!
सबकी सब खुशियों का करती
अंतर्मन में द्वारचार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
इधर लालिमा, उधर कालिमा
दीपशिखा सी
जलती रहतीं।
कोना-कोना किया प्रकाशित
अनगिन खुशियाँ
बिन गिन तहतीं।
चित प्रकाशनी!
श्वास-छंद की लय-गति-यति सँग
मोह रहीं मन अलंकार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
चौका, कमरा, आँगन, परछी
पूजा, बैठक
हँसती रहतीं।
माँ-पापा, बेटी-बेटा, मैं
तकें सहारा
डिगीं, न ढहतीं
मन निवासिनी!
आपद-विपद, कष्ट-पीड़ा का
गुप-चुप करतीं फलाहार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
***
भजन
*
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
तू सर्वज्ञ व्याप्त कण-कण में
कोई न तुझको जाने।
अनजाने ही सारी दुनिया
इष्ट तुझी को माने।
तेरी आय दृष्टि का पाया
कहीं न पारावार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
हर दीपक में ज्योति तिहारी
हरती है अँधियारा।
कलुष-पतंगा जल-जल जाता
पा मन में उजियारा।
आये कहाँ से? जाएँ कहाँ हम?
जानें, हो उद्धार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
कण-कण में है बिम्ब तिहारा
चित्र गुप्त अनदेखा।
मूरत गढ़ते सच जाने बिन
खींच भेद की रेखा।
निराकार तुम,पूज रहा जग
कह तुझको साकार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
२४-२-२०१६
***
नवगीत:
बहुत समझ लो
सच, बतलाया
थोड़ा है
.
मार-मार
मनचाहा बुलावा लेते हो.
अजब-गजब
मनचाहा सच कह देते हो.
काम करो,
मत करो, तुम्हारी मर्जी है-
नजराना
हक, छीन-झपट ले लेते हो.
पीर बहुत है
दर्द दिखाया
थोड़ा है
.
सार-सार
गह लेते, थोथा देते हो.
स्वार्थ-सियासत में
हँस नैया खेते हो.
चोर-चोर
मौसेरे भाई संसद में-
खाई पटकनी
लेकिन तनिक न चेते हो.
धैर्य बहुत है
वैर्य दिखाया
थोड़ा है
.
भूमि छीन
तुम इसे सुधार बताते हो.
काला धन
लाने से अब कतराते हो.
आपस में
संतानों के तुम ब्याह करो-
जन-हित को
मिलकर ठेंगा दिखलाते हो.
धक्का तुमको
अभी लगाया
थोड़ा है
२४-२-२०१५
***
नवगीत:
.
कब टूटे
साँसों की डोरी
कौन बताये?
.
वो रोये
परदेस में,
टूटी चूड़ी एक.
पास रखूँ
हो अपशकुन,
कैसे दूँ
कह फेंक?
चुप रूठे
गोरी से साजन
कौन मनाये?
.
चट्टानों को
काट दे,
बहता आँसू गर्म.
टूटे छेनी
पर नहीं,
भेद सके
मन-मर्म.
मत तजना रे!
जोरा-जोरी,
फागुन भाये.
२३-२-२०१५
*
***
नवगीत:
.
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
.
संयम-नियम
तुला पर साधा
परमपिता
को भी आराधा
पार कर गया
सब भव-बाधा
खोया-पाया
आधा-आधा
चाहा मन्दिर
पाया मन्दर
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
.
कब क्या बीता
भूलो मीता!
थोड़ा मीठा
थोड़ा तीता
राम न खुद
पर चाहें सीता
पढ़ते नहीं
पढ़ाते गीता
आया गोरख
भाग मछन्दर
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
.
खुद के मानक
खुद गढ़ दह ना
तीसमारखाँ
खुद को कह ना
यह नवगीत
उसे मत कहना
झगड़े-झंझट
नाहक तह ना
मिले सुधा जब
हो मन चंदर
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
२३-२४ फरवरी २०१५
*

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2023

मुक्तक, लौकिक छंद , गीत, हम, मुक्तिका, विश्वंभर शुक्ल,शिव, सोरठा,तुम,हिग्स-बोसॉन कण,माटी,

मुक्तक
मिलें रस-लीन जब रचना समझ लेना सिंगारी हैं।
करे संचित न खो रस-निधि, सकल श्वासें पुजारी हैं।।
उठा ब्रज-रज बना चंदन लगा मस्तक से मन हुलसे-
सलिल रस-खान; नत हो झाँकते राधा बिहारी हैं।।
२३-२-२०२३
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छंद विमर्श
सात लोक और लौकिक छन्द
अध्यात्म शास्त्र में वर्णित सात लोक भू-लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, तपः लोक, महः लोक, जनः लोक और सत्य लोक हैं। ये किसी ग्रह, नक्षत्र में स्थित अथवा अधर में लटके हुए स्थान नहीं, स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की स्थिति मात्र हैं। पिंगल शास्त्र में सप्त लोकों के आधार पर सात मात्राओं के छंदों को 'लौकिक छंद' कहा गया है।
सामान्य दृष्टि से भूलोक में रेत, पत्थर, वृक्ष, वनस्पति, खनिज, प्राणी, जल आदि पदार्थ हैं। इसके भीतर की स्थिति है आँखों से नहीं, सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखी-समझी जा सकती है। हवा में मिली गैसें, जीवाणु आदि इस श्रेणी में हैं। इससे गहरी अणु सत्ता के विश्लेषण में उतरने पर विभिन्न अणुओं-परमाणुओं के उड़ते हुए अन्धड़ और अदलते-बदलते गुच्छक हैं। अणु सत्ता का विश्लेषण करने पर उसके सूक्ष्म घटक पदार्थ नहीं,विद्युत स्फुल्लिंग मात्र दृष्टिगोचर होते हैं। तदनुसार ऊर्जा प्रवाह ही संसार में एकमात्र विद्यमान सत्ता प्रतीत होती है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हुए हम कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं किंतु स्थान परिवर्तन नहीं होता। अपने इसी स्थान में यह स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से अति सूक्ष्म, अति सूक्ष्म से महा सूक्ष्म की स्थिति बनती जाती है।
सात लोकों का स्थान कहीं बाहर या अलग-अलग नहीं है। वे एक शरीर के भीतर अवयव, अवयवों के भीतर माँस-पेशियाँ, माँस-पेशियों के भीतर ज्ञान-तंतु, ज्ञान-तन्तुओं के भीतर मस्तिष्कीय विद्युत आदि की तरह हैं। वे एक के भीतर एक के क्रम से क्रमशः भीतर के भीतर-समाये, अनुभव किये जा सकते हैं। सात लोकों की सत्ता स्थूल लोक के भीतर ही सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम और अति सूक्ष्म होती गई है। सबका स्थान वही है जिसमें हम स्थित हैं। ब्रह्मांड के भीतर ब्रह्मांड की सत्ता परमाणु की मध्यवर्ती नाभिक के अन्तर्गत प्राप्त अति सूक्ष्म किन्तु विशाल ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करनेवाले ब्रह्म-बीज में प्राप्य है।
जीव की देह भी ब्रह्म शरीर का प्रतीक प्रतिनिधि (बीज) है। उसके भीतर भी सात लोक हैं। इन्हें सात शरीर (सप्त धातु-रस, रक्त, माँस, अस्थि, मज्जा, शुक्र, ओजस) कहा जाता है। भौतिक तन में छह धातुएँ हैं, सातवीं ओजस् तो आत्मा की ऊर्जा मात्र है। इनके स्थान अलग-अलग नहीं हैं। वे एक के भीतर एक समाये हैं। इसी तरह चेतना शरीर भी सात शरीरों का समुच्चय है। वे भी एक के भीतर एक के क्रम से अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं।
योग शास्त्र में इन्हें चक्रों का नाम दिया गया है। छह चक्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सातवाँ सहस्रार कमल। कहीं छह, कहीं सात की गणना से भ्रमित न हों। सातवाँ लोक सत्यलोक है। सत्य अर्थात् पूर्ण परमात्मा । इससे नीचे के लोक भी तथा साधना में प्रयुक्त होने वाले चक्र छ:-छ: ही हैं। सातवाँ सहस्रार कमल ब्रह्मलोक है। उस में शेष ६ लोक लय होते है। सात या छह के भेद-भाव को इस तरह समझा जा सकता है। देवालय सात मील दूर है। बीच में छह मील के पत्थर और सातवाँ मील पत्थर प्रत्यक्ष देवालय। छह गिने या सात इससे वस्तुस्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।
मनुष्य के सात शरीरों का वर्णन तत्ववेत्ताओं ने इस प्रकार किया हैं- (१) स्थूल शरीर-फिजिकल बाड़ी (२) सूक्ष्म शरीर इथरिक बॉडी (३) कारण शरीर-एस्ट्रल बॉडी (४)मानस शरीर-मेन्टल बॉडी (५) आत्मिक शरीर-स्प्रिचुअल बॉडी (६) देव शरीर -कॉस्मिक बॉडी (७) ब्रह्म शरीर-वाडीलेस बॉडी।
सप्त धातुओं का बना भौतिक शरीर प्रत्यक्ष है। इसे देखा, छुआ और इन्द्रिय सहित अनुभव किया जा सकता है। जन्मतः प्राणी इसी कलेवर को धारण किये होता है। उनमें प्रायः इन्द्रिय चेतना जागृत होती है। भूख, सर्दी-गर्मी जैसी शरीरगत अनुभूतियाँ सक्षम रहती हैं। पशु शरीर आजीवन इसी स्थिति में रहते हैं। मनुष्य के सातों शरीर क्रमशः विकसित होते हैं। भ्रूण पड़ते ही सूक्ष्म मानव शरीर जागृत होने लगता है। इच्छाओं और सम्वेदनाओं के रूप में इसका विकास होता है। मानापमान, अपना-पराया, राग-द्वेष, सन्तोष-असन्तोष, मिलन-वियोग जैसे अनुभव भाव (सूक्ष्म) शरीर को होते हैं। बीज में से पहले अंकुर निकलता है, तब उसका विकास पत्तों के रूप में होता है। स्थूल शरीर को अंकुर और सूक्ष्म शरीर पत्ता कह सकते हैं। फिजिकल बॉडी यथास्थान बनी रहती है, पर उसमें नई शाखा भाव शरीर एस्ट्रल बॉडी के रूप में विकसित होती है।सातों शरीरों का अस्तित्व आत्मा के साथ-साथ ही है, पर उनका विकास आयु और परिस्थितियों के आधार पर धीमे अथवा तीव्र गति से स्वल्प-अधिक मात्रा में होता है।
तीसरा कारण शरीर विचार, तर्क, बुद्धि से सम्बन्धित है। इसका विकास, व्यावहारिक, सभ्यता और मान्यतापरक संस्कृति के आधार पर होता है। यह किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते आरम्भ होता है और वयस्क होने तक अपने अस्तित्व का परिचय देने लगता है। बालक को मताधिकार १८ वर्ष की आयु में मिलता है। अल्प वयस्कता इसी अवधि में पहुँचने पर पूरी होती है। बारह से लेकर अठारह वर्ष की आयु में शरीर का काम चलाऊ विकास हो जाता है। यौन सम्वेदनाएँ इसी अवधि में जागृत होती हैं। सामान्य मनुष्य इतनी ही ऊँचाई तक बढ़ते हैं। फिजिकल-इथरिक और एस्ट्रल बॉडी के तीन वस्त्र पहनकर ही सामान्य लोग दरिद्रता में जीवन बिताते हैं। इसलिए सामान्यत: तीन शरीरों की ही चर्चा होती है। स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीरों की व्याख्या कर बात पूरी कर ली जाती है। प्रथम शरीर में शरीरगत अनुभूतियों का सुख-दुःख, दूसरे में भाव सम्वेदनाएँ और तीसरे में लोकाचार एवं यौनाचार की प्रौढ़ता विकसित होकर एक कामचलाऊ मनुष्य का ढाँचा खड़ा हो जाता है।
तीन शरीरों के बाद मनुष्य की विशिष्टताएँ आरम्भ होती हैं। मनस् शरीर में कलात्मक रसानुभूति होती है। कवित्व जगता है। कोमल सम्वेदनाएँ उभरती हैं। कलाकार, कवि, सम्वेदनाओं के भाव लोक में विचरण करने वाले भक्त-जन, दार्शनिक, करुणार्द्र, उदार, देश-भक्त इसी स्तर के विकसित होने से बनते हैं। यह स्तर उभरे तो पर विकृत बन चले तो व्यसन और व्याभिचार जन्य क्रीड़ा-कौतुकों में रस लेने लगता है। विकसित मनस् क्षेत्र के व्यक्ति असामान्य होते हैं। इस स्तर के लोग कामुक-रसिक हो सकते हैं। सूरदास, तुलसीदास जैसे सन्त अपने आरम्भिक दिनों में कामुक थे। वही ऊर्जा जब भिन्न दिशा में प्रवाहित हो तो सम्वेदनाएँ कुछ से कुछ करके दिखाने लगीं। महत्वाकाँक्षाएँ (अहंकार) इसी क्षेत्र में जागृत होती हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति भौतिक जीवन में तरह-तरह के महत्वपूर्ण प्रयास कर असाधारण प्रतिभाशाली कहलाते हैं। प्रतिभागी लोगों का मनस् तत्व प्रबल होता है। उन्हें मनस्वी भी कहा जा सकता है। बाल्मीक, अँगुलिमाल, अशोक जैसे महत्वाकांक्षी विकृत मनःस्थिति में घोर आतंकवादी रहे, पर जब सही दिशा में मुड़ गये तो उन्हें चोटी की सफलता प्राप्त करने में देर नहीं लगी। इसे मेन्टल बॉडी की प्रखरता एवं चमत्कारिता कहा जा सकता है।
पाँचवाँ शरीर-आत्मिक शरीर स्प्रिचुअल बॉडी अतीन्द्रिय शक्तियों का आवास होता है। अचेतन मन की गहरी परतें जिनमें दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। इसी पाँचवें शरीर से सम्बन्धित हैं। मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, टेलीपैथी, क्लैरेहवाइंस जैसे प्रयोग इसी स्तर के विकसित होने पर होते हैं । कठोर तन्त्र साधनाएँ एवं उग्र तपश्चर्याएँ इसी शरीर को परिपुष्ट बनाने के लिए की जाती हैं। संक्षेप में इसे ‘दैत्य’ सत्ता कहा जा सकता है। सिद्धि और चमत्कारों की घटनाएँ- संकल्प शक्ति के बढ़े-चढ़े प्रयोग इसी स्तर के समर्थ होने पर सम्भव होते हैं। सामान्य सपने सभी देखते हैं पर जब चेतना इस पाँचवे शरीर में जमी होती है तो किसी घटना का सन्देश देने वाले सपने भी दीख सकते हैं। उनमें भूत, भविष्य की जानकारियों तथा किन्हीं रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन भी होता है। भविष्यवक्ताओं, तान्त्रिकों एवं चमत्कारी सिद्धि पुरुषों की गणना पाँचवे शरीर की जागृति से ही सम्भव होती है। ऊँची मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य जमीन पर खड़े मनुष्य की तुलना में अधिक दूर की स्थिति देख सकता है। जमीन पर खड़ा आदमी आँधी का अनुभव तब करेगा जब वह बिलकुल सामने आ जायगी। पर मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य कई मील दूर जब आँधी होंगी तभी उसकी भविष्यवाणी कर सकता है। इतने मील दूर वर्षा हो रही है। अथवा अमुक स्थान पर इतने लोग इकट्ठे हैं। इसका वर्णन वह कर सकता जो ऊँचे पर खड़ा है और आँखों पर दूरबीन चढ़ाये है, नीचे खड़े व्यक्ति के लिए यह सिद्धि चमत्कार है, पर मीनार पर बैठे व्यक्ति के लिए यह दूरदर्शन नितान्त सरल और स्वाभाविक है।
छठे शरीर को देव शरीर कहते हैं-यही कॉस्मिक बाड़ी है। ऋषि , तपस्वी, योगी इसी स्तर पर पहुँचने पर बना जा सकता है। ब्राह्मणों और सन्तों का भू-देव, भू-सुर नामकरण उनकी दैवी अन्तःस्थिति के आधार पर है। स्वर्ग और मुक्ति इस स्थिति में पहुँचने पर मिलनेवाला मधुर फल है। सामान्य मनुष्य चर्म-चक्षुओं से देखता है, पर देव शरीर में दिव्य चक्षु खुलते हैं और “सियाराम मय सब जग जानी” के विराट ब्रह्मदर्शन की मनःस्थिति बन जाती है। कण-कण में ईश्वरीय सत्ता के दर्शन होते हैं और इस दिव्य उद्यान में सर्वत्र सुगंध महकती प्रतीत होती हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण ही स्वर्ग है। स्वर्ग में देवता रहते हैं। देव शरीर में जागृत मनुष्यों के अन्दर उत्कृष्ट चिन्तन और बाहर आदर्श कर्तृत्व सक्रिय रहता है। तदनुसार भीतर शान्ति की मनःस्थिति और बाहर सुख भरी परिस्थिति भरी-पूरी दृष्टिगोचर होती है। स्वर्ग इसी स्थिति का नाम है। जो ऐसी भूमिका में निर्वाह करते हैं। उन्हें देव कहते हैं। असुर मनुष्य और देव यह आकृति से तो एक किन्तु प्रकृति से भिन्न होते हैं।
भौतिकवादी लोक-मान्यताओं का ऐसे देव मानवों पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ता । वे निन्दा-स्तुति की, संयोग-वियोग की, हानि-लाभ की, मानापमान की लौकिक सम्वेदनाओं से बहुत ऊँचे उठ जाते हैं। लोक मान्यताओं को वे बाल-बुद्धि की दृष्टि से देखते हैं। लोभ-मोह, वासना-तृष्णा के भव-बन्धन सामान्य मनुष्यों को बेतरह जकड़कर कठपुतली की तरह नचाते हैं। छठवीं देव भूमिका में पहुँची देव आत्माएँ आदर्श और कर्त्तव्य मात्र को पर्याप्त मानती हैं। आत्मा और परमात्मा को सन्तोष देना ही उन्हें पर्याप्त लगता है। वे अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करते समय लोक मान्यताओं पर तनिक भी ध्यान नहीं देते वरन् उच्चस्तरीय चेतना से प्रकाश ग्रहण करते हैं। इन्हें भव-बन्धनों से मुक्त-जीवन मुक्त कहा जाता है। मुक्ति या मोक्ष प्राप्त कर लेना इसी स्थिति का नाम है। यह छोटे शरीर में देव स्थिति में कॉस्मिक बॉडी में विकसित आत्माओं को उपलब्ध होता है।
सातवाँ ब्रह्म शरीर है। इसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होता है। वे शरीर झड़ जाते हैं जो किसी न किसी प्रकार भौतिक जगत से सम्बन्धित थे। उनका आदान-प्रदान प्रत्यक्ष संसार से चलता है। वे उससे प्रभावित होते और प्रभावित करते हैं। ब्रह्म शरीर का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से होता है। उसकी स्थिति लगभग ब्रह्म स्तर की हो जाती है। अवतार इसी स्तर पर पहुँची हुई आत्माएँ हैं। लीला अवतरण में उनकी अपनी कोई इच्छा आकाँक्षा नहीं होती, वे ब्रह्मलोक में निवास करते हैं। ब्राह्मी चेतना किसी सृष्टि सन्तुलन के लिए भेजती है तो उस प्रयोजन को पूरा करके पुनः अपने लोक वापस लौट जाते हैं। ऐसे अवतार भारत में १० या २४ मान्य है। वस्तुतः उनकी गणना करना कठिन है। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रयोजनों के लिए वे समय-समय पर विलक्षण व्यक्तित्व सहित उतरते हैं और अपना कार्य पूरा करके वापिस चले जाते हैं। यह स्थिति ‘अहम् ब्रह्मोसि’ सच्चिदानन्दोऽहम्, शिवोऽहम् सोऽहम्, कहने की होती है। उस चरम लक्ष्य स्थल पर पहुँचने की स्थिति को चेतना क्षेत्र में बिजली की तरह कोंधाने के लिए इन वेदान्त मन्त्रों का जप, उच्चारण एवं चिन्तन, मनन किया जाता है।
पाँचवें शरीर तक स्त्री-पुरुष का भेद, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा अगले जन्म में उसी लिंग का शरीर बनने की प्रक्रिया चलती है। उससे आगे के छठे और सातवें शरीर में विकसित होने पर यह भेदभाव मिट जाता है। तब मात्र एक आत्मा की अनुभूति होती है। स्त्री-पुरुष का आकर्षण-विकर्षण समाप्त हो जाता है। सर्वत्र एक ही आत्मा की अनुभूति होती है। अपने आपकी अन्तः स्थिति लिंग भेद से ऊपर उठी होती है यद्यपि जननेंद्रिय चिन्ह शरीर में यथावत् बने रहते हैं। यही बात साँसारिक स्थिति बदलने के कारण मन पर पड़ने वाली भली-बुरी प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में भी होती है। समुद्र में लहरें उठती-गिरती रहती हैं। नाविक उनके लिए हर्ष-शोक नहीं करता, समुद्री हलचलों का आनन्द लेता है। छठे शरीर में विकसित देवात्माएँ इस स्थिति से ऊपर उठ जाती हैं। उनका चेतना स्तर गीता में कहे गये 'स्थित प्रज्ञ ज्ञानी' की और उपनिषदों में वर्णित 'तत्वदर्शी' की बन जाती है। उसके आत्म सुख से संसार के किसी परिवर्तन में विक्षेप नहीं पड़ता। लोकाचार हेतु उपयुक्त लीला प्रदर्शन हेतु उसका व्यवहार चलता रहता है। यह छठे शरीर तक की बात है। सातवें शरीर वाले अवतारी (भगवान) संज्ञा से विभूषित होते हैं। इन्हें ब्रह्मात्मा, ब्रह्म पुरुष का सकते हैं। उन्हें ब्रह्म साक्षात्कार, ब्रह्म निर्वाण प्राप्त भी कहा जा सकता है।
छठे शरीर में स्थित देव मानव स्थितिवश शाप और वरदान देते हैं, पर सातवें शरीर वाले के पास शुभेच्छा के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। उनके लिए पराया एवं बैरी कोई रहता ही नहीं। दोष, अपराधों को वे बाल बुद्धि मानते हैं और द्वेष दण्ड के स्थान पर करुणा और सुधार की बात भर सोचते हैं।
सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार पृथ्वी के नीचे सात पाताल लोक वर्णित हैं जिनमें पाताल अंतिम है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में पाताल लोक से सम्बन्धित असंख्य कहानियाँ, घटनायें तथा पौराणिक विवरण मिलते हैं। पाताल लोक को नागलोक का मध्य भाग बताया गया है, क्योंकि जल-स्वरूप जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब वहाँ पर्याप्त रूप से गिरती हैं। पाताल लोक में दैत्य तथा दानव निवास करते हैं। जल का आहार करने वाली आसुर अग्नि सदा वहाँ उद्दीप्त रहती है। वह अपने को देवताओं से नियंत्रित मानती है, क्योंकि देवताओं ने दैत्यों का नाश कर अमृतपान कर शेष भाग वहीं रख दिया था। अत: वह अग्नि अपने स्थान के आस-पास नहीं फैलती। अमृतमय सोम की हानि और वृद्धि निरंतर दिखाई पड़ती है। सूर्य की किरणों से मृतप्राय पाताल निवासी चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से पुन: जी उठते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार पूरे भू-मण्डल का क्षेत्रफल पचास करोड़ योजन है। इसकी ऊँचाई सत्तर सहस्र योजन है। इसके नीचे सात लोक इस प्रकार हैं-१. अतल, २. वितल, ३. सुतल, ४. रसातल, ५. तलातल, ६. महातल, ७. पाताल।
पौराणिक उल्लेख
पुराणों में पाताल लोक के बारे में सबसे लोकप्रिय प्रसंग भगवान विष्णु के अवतार वामन और पाताल सम्राट बलि का है। रामायण में अहिरावण द्वारा राम-लक्ष्मण का हरण कर पाताल लोक ले जाने पर श्री हनुमान के वहाँ जाकर अहिरावण वध करने का प्रसंग आता है। इसके अलावा भी ब्रह्माण्ड के तीन लोकों में पाताल लोक का भी धार्मिक महत्व बताया गया है।
२३-२-२०१९
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(प्रकाशनाधीन छंद कोष से)
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गीत -
हम
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।


***
मुक्तिका:
.
गीतों से अनुराग न होता
जीवन कजरी-फाग न होता
रास आस से कौन रचाता?
मौसम पहने पाग न होता
निशा उषा संध्या से मिलता
कैसे सूरज आग न होता?
बाट जोहता प्रिय प्रवास की
मन-मुँडेर पर काग न होता
सूनी रहती सदा रसोई
गर पालक का साग न होता
चंदा कहलातीं कैसे तुम
गर निष्ठुरता-दाग न होता?
गुणा कोशिशों का कर पाते
अगर भाग में भाग न होता
नागिन क्वारीं मर जाती गर
बीन सपेरा नाग न होता
'सलिल' न होता तो सच मानो
बाट घाट घर बाग़ न होता
***
कृति चर्चा:
'उम्र जैसे नदी हो गई' हिंदी गजल का सरस प्रवाह
[कृति विवरण: उम्र जैसे नदी हो गई, हिंदी ग़ज़ल / गीतिका संग्रह, प्रो. विश्वंभर शुक्ल, प्रथम संस्करण, २०१७, आई एस बी एन ९७८.९३.८६४९८.३७.३, पृष्ठ ११८, मूल्य २२५/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, अनुराधा प्रकाशन, जनकपुरी, नई दिल्ली, रचनाकार संपर्क ८४ ट्रांस गोमतीए त्रिवेणी नगर, प्रथम, डालीगंज रेलवे क्रोसिंग, लखनऊ २२६०२०, चलभाष ९४१५३२५२४६]
*
. विश्ववाणी हिंदी का गीति काव्य विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में अधिक व्यापक, गहन, उर्वर, तथा श्रेष्ठ है। इस कथन की सत्यता हेतु मात्र यह इंगित करना पर्याप्त है कि हिंदी में ३२ मात्रा तक के मात्रिक छंदों की संख्या ९२, २७, ७६३ तथा २६ वर्णों तक के वर्णिक छंदों की संख्या ६,७१,०८,८६४ है। दंडक छंद, मिश्रित छंद, संकर छंद, लोक भाषाओँ के छंद असंख्य हैं जिनकी गणना ही नहीं की जा सकी है। यह छंद संख्या गणित तथा ध्वनि-विज्ञान सम्मत है। संस्कृत से छान्दस विरासत ग्रहण कर हिंदी ने उसे सतत समृद्ध किया है। माँ शारदा के छंद कोष को संस्कृत अनुष्टुप छंद के विशिष्ट शिल्प के अंतर्गत समतुकांती द्विपदी में लिखने की परंपरा के श्लोक सहज उपलब्ध हैं। संस्कृत से अरबी-फारसी ने यह परंपरा ग्रहण की और मुग़ल आक्रान्ताओं के साथ इसने भारत में प्रवेश किया। सैन्य छावनियों व बाज़ार में लश्करी, रेख्ता और उर्दू के जन्म और विकास के साथ ग़ज़ल नाम की यह विधा भारत में विकसित हुई किंतु सामान्य जन अरबी-फारसी के व्याकरण-नियम और ध्वनि व्यवस्था से अपरिचित होने के कारण यह उच्च शिक्षितों या जानकारों तक सीमित रह गई। उर्दू के तीन गढ़ों में से एक लखनऊ से ग़ज़ल के भारतीयकरण का सूत्रपात हुआ।
. . हरदोई निवासी डॉ. रोहिताश्व अस्थाना ने हिंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोध ग्रन्थ 'हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास' प्रस्तुत किया। सागर मीराजपुरी ने गज़लपुर, नवग़ज़लपुर तथा गीतिकायनम के नाम से तीन शोधपरक कृतियों में हिंदी ग़ज़ल के सम्यक विश्लेषण का कार्य किया। हिंदी ग़ज़ल को स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान देने की भावना से प्रेरित रचनाकारों ने इसे मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, अनुगीत, लघुगीत जैसे नाम दिए किंतु नाम मात्र बदलने से किसी विधा का इतिहास नहीं बदला करता।
. हिंदी ग़ज़ल को महाप्राण निराला द्वारा प्रदत्त 'गीतिका' नाम से स्थापित करने के लिए प्रो . विश्वंभर शुक्ल ने अपने अभिन्न मित्र ओम नीरव के साथ मिलकर अंतरजाल पर निरंतर प्रयत्न कर नव पीढ़ी को जोड़ा। फलत: 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' तथा 'गीतिकालोक' शीर्षक से दो महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित हुईं जिनसे नई कलमों को प्रोत्साहन मिला।
. . विवेच्य कृति 'उम्र जैसे नदी हो गयी' इस पृष्ठभूमि में हिंदी छंदाधारित हिंदी ग़ज़ल की परिपक्वता की झलक प्रस्तुत करती पठनीय-मननीय कृति है। गीतिका, रोला, वाचिक भुजंगप्रयात, विजात, वीर/आल्ह, सिंधु, मंगलवत्थु, दोहा, आनंदवर्धक, वाचिक महालक्ष्मी, वाचिक स्रग्विणी, जयकरी चौपाई, वर्णिक घनाक्षरी, राधाश्यामी चौपाई, हरिगीतिका, सरसी, वाचिक चामर, समानिका, लौकिक अनाम, वर्णिक दुर्मिल सवैया, सारए लावणी, गंगोदक, सोरठा, मधुकरी चौपाई, रारायगा, विजात, विधाता, द्वियशोदा, सुखदा, ताटंक, बाला, शक्ति, द्विमनोरम, तोटक, वर्णिक विमोहाए आदि छंदाधारित सरस रचनाओं से समृद्ध यह काव्य-कृति रचनाकार की छंद पर पकड़, भाषिक सामर्थ्य तथा नवप्रयोगोंमुखता की बानगी है। शुभाशंसान्तर्गत प्रो . सूर्यप्रकाश दीक्षित ने ठीक ही कहा है: 'इस कृति में वस्तु-शिल्पगत यथेष्ट वैविध्यपूर्ण काव्य भाषा का प्रयोग किया गया है, जो प्रौढ़ एवं प्रांजल है.... कृति में विषयगत वैविध्य दिखाई देता है। कवि ने प्रेम, सौन्दर्य, विरह-मिलन एवं उदात्त चेतना को स्वर दिया है। डॉ. उमाशंकर शुक्ल 'शितिकंठ' के अनुसार इन रचनाओं में विषय वैविध्य, प्राकृतिक एवं मानवीय प्रेम-सौन्दर्य के रूप-प्रसंग, भक्ति-आस्था की दीप्ति, उदात्त मानवीय मूल्यों का बोध, राष्ट्रीय गौरव की दृढ़ भावनाएँ विडंबनाओं पर अन्वेषी दृष्टि, व्यंग्यात्मक कशाघात से तिलमिला देनेवाले सांकेतिक चित्र तथा सुधारात्मक दृष्टिकोण समाहित हैं।'
. 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' में ९० रचनाकारों की १८० रचनाओं के अतिरिक्त, दृगों में इक समंदर है तथा मृग कस्तूरी हो जाना दो गीतिका शतकों के माध्यम से इस विधा के विकास हेतु निरंतर सचेष्ट प्रो. विश्वंभर शुक्ल आयु के सात दशकीय पड़ाव पार करने के बाद भी युवकोचित उत्साह और ऊर्जा से छलकते हुए उम्र के नद-प्रवाह को इस घाट से घाट तक तैरकर पराजित करते रहते हैं। भाव-संतरण की महायात्रा में गीतिका की नाव और मुक्तकों के चप्पू उनका साथ निभाते हैं। प्रो. शुक्ल के सृजन का वैशिष्ट्य देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप भाषा- शैली और शब्दों का चयन करना है। वे भाषिक शुद्धता के प्रति सजग तो हैं किंतु रूढ़-संकीर्ण दृष्टि से मुक्त हैं। वे भारत की उदात्त परंपरानुसार परिवर्तन को जीवन की पहचान मानते हुए कथ्य को शिल्प पर वरीयता देते हैं। 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा' और 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' की सनातन परंपरा के क्रम में वे कहते हैं-
. 'कर्म के खग पंख खोलें व्योम तक विचरण करें
. शिथिल हैं यदि चरण तब यह जीवनी कारा हुई
. काटकर पत्थर मनुज अब खोजता है नीर को
. दग्ध धरती कुपित यह अभिशप्तए अंगारा हुई
. पर्वतों को सींचता है देवता जब स्वेद से
. भूमि पर तब एक सलिला पुण्य की धारा हुई '
. जीवन में सर्वाधिक महत्व स्नेह का हैण् तुलसीदास कहते है-
. 'आवत ही हरसे नहींए नैनन नहीं सनेह
. तुलसी तहाँ न जाइए कंचन बरसे नेह'
शुक्ल जी इस सत्य को अपने ही अंदाज़ में कहते हैं.
. 'आदमी यद्यपि कभी होता नहीं भगवान है
. किंतु प्रिय सबको वही जिसके अधर मुस्कान है
. सूख जाते हैं समंदर जिस ह्रदय में स्नेह के
. जानिए वह देवता भी सिर्फ रेगिस्तान है
. पाहनों को पूज लेताए मोड़ता मुँह दीन से
. प्यार.ममता के बिना मानव सदा निष्प्राण हैण्
. प्रेम करुणा की सलिल सरिता जहाँ बहती नहीं
. जीव ऐसा जगत में बस स्वार्थ की दूकान है'
प्रकृति के मानवीकरण ओर रूपक के माध्यम से जीवन-व्यापार को शब्दांकित करने में शुक्ल जी का सानी नहीं है. भोर में उदित होते भास्कर पर आल्हाध्वीर छंद में रचित यह मुक्तिका देखिए-
. 'सोई हुई नींद में बेसुध, रजनी बाला कर श्रृंगार
. रवि ने चुपके से आकर के, रखे अधर पर ऊष्ण अंगार
. अवगुंठन जब हटा अचानक, अरुणिम उसके हुए कपोल
. प्रकृति वधूटी ले अँगड़ाई, उठी लाज से वस्त्र सँवार
. सकुचाई श्यामा ने हँसकर, इक उपहार दिया अनमोल
. प्रखर रश्मियों ने दिखलाए, जी भर उसके रंग हजार
. हुआ तिरोहित घने तिमिर का, फैला हुआ प्रबल संजाल
. उषा लालिमा के संग निखरी, गई बिखेर स्वर्ण उपहार
. प्रणय समर्पण मोह अनूठे, इनसे खिलती भोर अनूप
. हमें जीवनी दे देता है, रिश्तों का यह कारोबार'
. पंचवटी में मैथिलीशरण जी गुप्त भोर के दृश्य का शब्दांकन देखें-
. 'है बिखेर देती वसुंधरा मोती सबके सोने पर
. रवि बटोर लेता है उनको सदा सवेरा होनेपर
. और विरामदायिनी अपनी संध्या को दे जाता है
. शून्य श्याम तनु जिससे उसका नया रूप झलकाता है'
दो कवियों में एक ही दृश्य को देखकर उपजे विचार में भिन्नता स्वाभाविक है किंतु शुक्ल जी द्वारा किए गए वर्णन में अपेक्षाकृत अधिक सटीकता और बारीकी उल्लेखनीय है।
उर्दू ग़ज़ल के चुलबुलेपन से प्रभावित रचना का रंग अन्य से बिलकुल भिन्न है-
'हमारे प्यार का किस्सा पुराना है
कहो क्या और इसको आजमाना है
गज़ब इस ज़िंदगी के ढंग हैं प्यारे
पता चलता नहीं किस पर निशाना है।'
एक और नमूना देखें -
'फिर से चर्चा में आज है साहिब
दफन जिसमें मुमताज है साहिब
याद में उनके लगे हैं मेले
जिनके घर में रिवाज़ है साहिब'
भारतीय आंचलिक भाषाओँ को हिंदी की सहोदरी मानते हुए शुक्ल जी ने बृज भाषा की एक रचना को स्थान दिया है। वर्णिक दुर्मिल सवैया छंद का माधुर्य आनंदित करता है-
करि गोरि चिरौरि छकी दुखियाए छलिया पिय टेर सुनाय नहीं
अँखियाँ दुइ पंथ निहारि थकींए हिय व्याकुल हैए पिय आय नहीं
तब बोलि सयानि कहैं सखियाँ ए तनि कान लगाय के बात सुनो
जब लौं अँसुआ टपकें ण कहूँए सजना तोहि अंग लगाय नहीं
ग्रामीण लोक मानस ऐसी छेड़-छाड़ भरी रचनाओं में ही जीवन की कठिनाइयों को भुलाकर जी पाता है।
राष्ट्रीयता के स्वर बापू और अटल जी को समर्पित रचनाओं के अलावा यत्र-तत्र भी मुखर हुए हैं-
'तोड़ सभी देते दीवारें बंधन सीमाओं के
जन्मभूमि जिनको प्यारी वे करते नहीं बहाना
कब-कब मृत्यु डरा पाई है पथ के दीवानों को
करते प्राणोत्सर्ग राष्ट्र-हित गाते हुए तराना
धवल कीर्ति हो अखिल विश्व में, नवोन्मेष का सूरज
शस्य श्यामला नमन देश को वन्दे मातरम गाना'
यदा-कदा मात्रा गिराने, आयें और आएँ दोनों क्रिया रूपों का प्रयोग, छुपे, मुसकाय जैसे देशज क्रियारूप खड़ी हिंदी में प्रयोग करना आदि से बचा जा सकता तो आधुनिक हिंदी के मानक नियमानुरूप रचनाएँ नव रचनाकारों को भ्रमित न करतीं।
शुक्ल जी का शब्द भण्डार समृद्ध है। वे हिंदीए संस्कृत, अंगरेजी, देशज और उर्दू के शब्दों को अपना मानते हुए यथावश्यक निस्संकोच प्रयोग करते हैं , कथ्य के अनुसार छंद चयन करते हुए वे अपनी बात कहने में समर्थ हैं-
'अब हथेली पर चलो सूरज उगाएँ
बंद आँखों में अमित संभावनाएँ
मनुज के भीतर अनोखी रश्मियाँ है
खो गयी हैंए आज मिलकर ढूँढ लाएँ
एक सूखी झील जैसे हो गए मन
है जरूरी नेह की सरिता बहाएँ
आज का चिंतन मनन अब तो यही है
पेट भर के ग्रास भूखों को खिलाएँ
तोड़ करके व्योम से लायें न तारे
जो दबे कुचले उन्हें ऊपर उठाएँ'
सारत: 'उम्र जैसे नदी हो गयी' काव्य-पुस्तकों की भीड़ में अपनी अलग पहचान स्थापित करने में समर्थ कृति है। नव रचनाकारों को छांदस वैविध्य के अतिरिक्त भाषिक संस्कार देने में भी यह कृति समर्थ है। शुक्ल जी का जिजीविषाजयी व्यक्तित्व इन रचनाओं में जहाँ-तहाँ झलक दिखाकर पाठक को मोहने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
===
***
शिव-सोरठावली
*
रख शंकर से आस, हर शंका को दूर कर।
यदि मन में विश्वास, श्रृद्धा-शिवा सदय रहें।।
*
सविता रक्त सरोज, शिव नीला आकाश हैं।।
देतीं जीवन-ओज, रश्मि-उमा नित नमन कर।।
*
विष्णु जीव की देह, शिव जीवों में प्राण है।
जीवन जिएँ विदेह, ब्रम्हा मति को जानिए।।
*
रमा देह का रूप, उमा प्राण की चेतना।
जो पाए हो भूप, शारद मति की तीक्ष्णता।।
*
पठन विष्णु को जान, चिंतन-लेखन ब्रम्ह है।
नमन करें मतिमान, मनन-कहाँ शिव तत्व है।।
*
शब्द विष्णु अवतार, अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है।
लिख-पढ़ता संसार, शिव समर्थ दें अर्थ जब।।
*
रमा शब्द का भाव, अक्षर की लिपि शारदा।
मेटें सकल अभाव, उमा कथ्य निहितार्थ हैं।।
*
शिव कागज विस्तार, कलम ब्रम्ह, स्याही हरी।
लिपि कथ्यार्थ अपार, शारद-रमा-उमा बनें।।
*
तीन-देव-अभिषेक, नव लेखन से नित्य कर।
जागे बुद्धि-विवेक, तीन देवियाँ हों सदय।।
*
वह जीवित निर्जीव, जो न करे रचना नई।
संचेतन-संजीव, नया सृजन कर जड़ बने।।
*
ऊषा करे प्रकाश, सविता से ऊर्जा मिले।
कर थामे आकाश, वसुधा हो आधार तो।।
*
२३-२-२०१८
***
कविता
काव्य और जन-वेदना
*
काव्य क्या?
कुछ कल्पना
कुछ सत्य है.
यह नहीं जड़,
चिरंतन चैतन्य है।
देख पाते वह अदेखा जो रहा,
कवि मनीषी को न कुछ अव्यक्त है।
रश्मि है
अनुभूतिमय संवेदना।
चतुर की जाग्रत सतत हो चेतना
शब्द-वेदी पर हवन मन-प्राण का।
कथ्य भाषा भाव रस संप्राणता
पंच तत्त्वों से मिले संजीवनी
साधना से सिद्धि पाते हैं गुनी।
कहा पढ़ सुन-गुन मनन करते रहे
जो नहीं वे देखकर बाधा ढहे
चतुर्दिक क्या घट रहा,
क्या जुड़ रहा?
कलम ने जो किया अनुभव
वह कहा।
पाठकों!
अब मौन व्रत को तोड़ दो।
‘तंत्र जन’ का है
सदा सच-शुभ ही कहो।
अशुभ से जब जूझ जाता ‘लोक’ तो
‘तन्त्र’ में तब व्याप जाता शोक क्यों?
‘प्रतिनिधि’ जिसका
न क्यों उस सा रहे?
करे सेवक मौज, मालिक चुप दहे?
शब्द-शर-संधान कर कवि-चेतना
चाहती जन की हरे कुछ वेदना।
२३-२-२०१७
***
श्रृंगार गीत:
सद्यस्नाता
*
सद्यस्नाता!
रूप तुम्हारा
सावन सा भावन।
केश-घटा से
बूँद-बूँद जल
टप-टप चू बरसा।
हेर-हेर मन
नील गगन सम
हुलस-पुलक तरसा।
*
उगते सूरज जैसी बिंदी
सजा भाल मोहे।
मृदु मुस्कान
सजे अधरों पर
कंगन कर सोहे।
लेख-लेख तन म
हुआ वन सम
निखर-बिखर गमका।
*
दरस-परस पा
नैन नशीले
दो से चार हुए।
कूल-किनारे
भीग-रीझकर
खुद जलधार हुए।
लगा कर अगन
बुझा कर सजन
बिन बसंत कुहका।
२३-२-२०१६
***
लेख:
हिग्स-बोसॉन कण – धर्म और विज्ञान की सांझी विरासत ’
.
भारतीय दर्शन सृष्टि निर्माता को सृष्टि के प्रत्येक सूक्ष्मतम कण में उपस्थित तथा सकल सृष्टि का कर्म विधायक मानता है. अहम् ब्रम्हास्मि, शिवोsssहं, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर में शंकर, आत्मा सो परमात्मा आदि उक्तियाँ यही दर्शाती हैं कि सृष्टिकर्ता परमात्मा ही कण-कण की मूल चेतना है. परमात्मा हो कण-कण के कर्म विधान का लेखाजोखा रखता है तथा कर्मानुसार फल देता है. कर्म योग का यह सिद्धांत परमात्मा को मूलतः निर्गुण, निराकार, अजर, अमर, अनादि, अनंत, अनश्वर बताता है. आकार का जन्म कणों के समुच्चय से होता है, इसलिए कण-कण में भगवान् कहा जाता है. आकार से चित्र बनता है. जो निराकार या आकारहीन हो उसका चित्र नहीं हो सकता. उसका चित्र गुप्त है इसलिए उस परमसत्ता को चित्र गुप्त कहा गया, वह परम सत्य है इसलिए उसे सत्य नारायण (सच्चा स्वामी) भी कहा गया.
भारतीय आर्ष ग्रंथों में सृष्टि उत्पत्ति का जो सिद्धांत वर्णित है वही विज्ञान भी मानता है. वैज्ञानिक मानते हैं कि सृष्टि भार युक्त भौतिक परमाणुओं के सम्मिलन से बनी है. भार युक्त परमाणुओं को संयुक्त करनेवाली शक्ति अस्तित्व में हुए बिना परमाणुओं के पदार्थ कैसे बन सकता है? भार रहित परमाणुओं को भार देनेवाले कणों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व अथवा भार नहीं होता. भारतीय दर्शन इस शक्ति को विश्वकर्मा (विश्व का निर्माता) कहती है. वैज्ञानिकों के अनुसार शून्यता के रहते हुए पदार्थों के परमाणु गतिवान होते हुए भी आपस में जुड़ नहीं सकते. हिग्स-बोसॉन सिद्धांत के अनुसार रिक्त स्थान में परमाणु को भार देनेवाले कण उपस्थित होते हैं. इनका कोई भार या द्रव्यमान नहीं होता. वैज्ञानिकों ने इन्हीं कणों की अनुभूति की है और इन्हें हिग्स-बोसॉन कण या देव कण (गॉड पार्टिकल) कहा है.
भारतीय चिन्तन काया और चेतना का अलग-अलग अस्तित्व मानता है. ऋग्वेद से लेकर उपनिषदों, ब्राम्हण ग्रंथों, आरण्यकों, पुराणों आदि में इस विषय पर वैज्ञानिक दृष्टि और जिज्ञासा से परिपूर्ण व्यापक चर्चा है. ऋग्वेद में विश्वकर्मा की स्तुति करते हुए जिज्ञासा है कि श्रृष्टि के सृजन से पूर्व सृष्ट-रचना की सामग्री कहाँ से लायी गयी? नारदीय सूक्त (ऋ. १० / १२९) में असत और सत के भी पूर्व काल के संबंध में प्रश्न है. अणु जैसे सूक्ष्म घटक की जानकारी उपनिषद काल में भी थी. कठोपनिषद में कहा गया है कि ‘वह’ अणु से भी छोटा और विराट से भी बड़ा है, वह शरीर में रहकर भी अशरीरी अर्थात भारविहीन है. वैज्ञानिक प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार भाररहित उपपरमाणुओं तथा भाररहित परमाणुओं की टकराहट से पृथ्वी, चन्द्र, तारामंडल, ग्रहों आदि का निर्माण हुआ. यह निष्कर्ष अंतिम न होने पर भी ध्यान देने योग्य है. भारत में ज्योतिष शास्त्र परंपरागत रूप से मंगल को पृथ्वी से उत्पन्न (पुत्र) मानता है तथा उज्जैन में मंगल के पृथक होने का स्थान मान्य है.
ऋग्वेद (१०.७२.६) में परमाणुओं को देव कहा गया है: ‘हे देव! आपके नृत्य से उत्पन्न धूलि से पृथ्वी का निर्माण हुआ. यह प्रतीक सरल-सहज बोधगम्य है. देव यही भारहीन कण है. इन्हीं की हलचल और टकराव से भार्राहित परमाणुओं में जुड़ने की प्रवृत्ति और शक्ति उत्पन्न हुई. ऋग्वेद में इस मन्त्र के पहले (१०.७२.२) कहा गया है की परम सत्ता ने अव्यक्त को लोहार की धौंकनी की तरह पकाया. आचार्य श्री राम शर्मा ने इसे वर्त्तमान विज्ञान सम्मत ‘बिग बैंग’ (महाविस्फोट) ठीक ही कहा है. ऋग्वेद (१०.७२.३) कहता है असत से सत आया. असत भारहीनता आर्थर अदृश्यता की स्थिति है, सत भारयुक्तता अर्थात दृश्यमान अस्तित्व की.
मुन्डकोपनिषद (२.९) के अनुसार ‘वह’ परम आकाश में सब जगह उपस्थित है, कलाओं से रहित है, अवयवशून्य और निर्मल है. कलारहित अवयवशून्य से तात्पर्य भारहीनता ही है. श्वेताश्वतर उपनिषद (६.१९) उसे निष्कलं (कलाराहित), शांतं, निरवद्यं तथा निरंजनं कहता है. भारहीन के लिए वैदिक रिश्यों के ये शब्द प्रयोग विज्ञानसम्मत होने के साथ-साथ मधुर भी हैं. परमात्मा की अनुभूति इसी शरीर सी होने पर भी उसे ‘अशरीरी’ (शरीर से परे) कहा गया है. ईशावास्योपनिषद के अष्टम खंड में उसे अकायं (कायारहित) तथा अस्रविरं (स्रावरहित) अर्थात शुद्ध बताया गया है.
हिग्स-बोसॉन कण ही देव कण है क्योंकि इसके अभाव में सृष्टि में सृजन असंभव है. सृष्टि के हर पदार्थ के सृजन में इं कानों की भूमिका है. ईशावास्योपनिषदकार घोषणा करता है ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्’ अर्थात सकल सृष्टि में सर्वत्र ईश्वर की ही उपस्थिति है. ईशावास्योपनिषद का ईश्वर ही कण रूप में भाररहित होकर भी अनंत को आच्छादित करता है. ऐसा देव कण केवल एक ही है या ऐसे अनेक देव कण हैं? इस संबंध में विज्ञान निरुत्तर है. विज्ञानं की सीमा है किन्तु परमसत्ता असीम है. ईशावास्योपनिषद (मन्त्र ५) कहता है ‘तद्दूरे तद्वन्तिके तदन्तस्य सर्वस्य तदु सर्वस्याय बाह्यतः’ अर्थात बह अति दूर होते हुए भी अति निकट है, वह हमारे अंदर होते हुए भी सबको बाहर से भी घेरता है.
विज्ञान भौतिक जगत की शोध करता है जबकि परमसत्ता जद भौतिक पदार्थ मात्र नहीं हो सकती, वह ‘सत’ और ‘असत’ दोनों है और दोनों से परे भी है. अतः, वह कण मात्र कैसे हो सकता है? सृष्टि का हर एक और सभी कण, अणु, परमाणु, छंद, वाणी, स्पन्दन, स्थिरता, गति स्पर्श, गंध आदि में वही है और होते हुए भी नहीं है. विज्ञान पदार्थ, गति, ऊर्जा, समय और अंतरिक्ष में अंतर्संबंध और बाह्यसंबंध की खोज करता है. वह अज्ञात को ज्ञात की परिधि में समाविष्ट करता है किन्तु सृष्टि के कण-कण में अंतर्भूत सृष्टा का रहस्य अज्ञात की परिधि मात्र नहीं, अज्ञेय का विस्तार भी है. विश्व विख्यात चीनी दार्शनिक लाओत्से रचित ‘ताओ तेह चिंग’ के अनुसार अन्धकार से प्रकाश, अरूप से रूप अस्तित्व में आया. यह ऋग्वेद में बहुत पहले वर्णित ‘असत से सत’ आगमन के सत्य की पुनरावृत्ति है. लाओत्से ब्रम्ह या ईश्वर के स्थान पर ‘ताओ’ शब्द का प्रयोग कर लिखता है की ज्ञान या तर्क से उसका बोध नहीं होता, उसमें कितना भी जोड़ो या घटाओ उसमें फर्क नहीं पड़ता.
ताओ से सहस्त्रों वर्ष पूर्व वृहदारण्यकोपनिषद कहता है ‘ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते’ अर्थात परमसत्ता पूर्ण था, पूर्ण है, पूर्ण में से पूर्ण को घटा देने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है. मुंडकोपनिषद (२.२१०) के अनुसार न सूर्य है, न चाँद, न तारे, न अग्नि, न विद्युत् केवल उसकी आभा से ही यह सब प्रकाशवान है. वृहदारण्यकोपनिषद (१.५.२) कहता है ‘संचरण च असन्चरण च- अर्थात वह गतिशील भी है, गतिहीन स्थिर भी है. तैत्तरीयोपनिषद (२.६) के अनुसार वह वह निरुक्त है, अनिरुक्त है, निलयन है, अनिलयन है, विज्ञान है, अविज्ञान है. श्रीमद्भगवद्गीता का आत्म तत्व भी भारहीन कण जैसा ही है जिसे मार महीन सकते, अग्नि जला नही सकती, पानी गीला नहीं कर सकता, हवा सुखा नहीं सकती. यह ‘आत्म’ परमात्म का ही अंश है इसलिए यह समय सर्वथा न्यायसंगत है.
केनोपनिषदकार उदात्त घोषणा करता है: ‘नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च’ अर्थात मैं नहीं मानता कि मैं उसे ठीक से जानता हूँ, न यह मानता हूँ कि मैं उसे नहीं जानता.’ विज्ञान ने अभी उस परमसत्ता की ओर यात्रा का आरम्भ मात्र किया है. योगियों ने अनाहद नाद के रूप में उस गुंजार की प्रतीति की है जो सतत गुंजरित और अधिकाधिक सघन होकर बिग-बैंग को जन देता है, जिसे ॐ से अभिव्यक्त किया जाता है और जिसके सृष्टि की हर काया में स्थित होने के सत्य को जानने और माननेवाले खुद को ‘कायस्थ’ (कायास्थिते सः कायस्थ: अर्थात जो सत्ता काया कसृजन कर उसमें स्थित होती है कायस्थ कही जाती है) याने ईश्वर का अंश मानकर अन्यों को समभाव से देखते हैं. वे हर रूप में परमसत्ता को पूजनीय मानते हैं, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, देश, भाषा, भूषा, लिंग, नस्ल, वंश आदि के आधार पर अपना-पराया मानने को स्वीकार नहीं करते. वे ‘विश्वैक नीडं’ (विश्व एक नीड है), ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ (सकल वसुधा एक कुटुंब है) ‘श्रद्धावान लभते ज्ञानं’ (परमसत्ता के प्रति श्रद्धा रखनेवाला ही उसका ज्ञान पा सकता है) तथा ‘विश्वासं फलदायकं’ (परमसत्ता के प्रति विश्वास ही फल देनेवाला होता है) जैसे आर्ष जीवनदर्शक सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं. उनका इष्ट ‘श्रृद्ध-विश्वास रूपिणौ’ (श्रृद्धा-विश्वास के रूप में) ही होता है. विज्ञान श्रृद्धा-विश्वास पर नहीं तर्क पर विश्वास करता है. इसलिए विज्ञान और धर्म एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक हैं. हिग्स-बोसॉन कण (देव कण) ने धर्म और विज्ञान को उनकी सांझी विरासत के निकट लाकर एक-दूसरे को अधिक समझने का अवसर उपलब्ध कराया है.
२३-२-२०१५
***
दोहा सलिला :
*
माटी सब संसार.....
संजीव 'सलिल'
माटी ने शत-शत दिये, माटी को आकार.
माटी में माटी मिली, माटी सब संसार..
*
माटी ने माटी गढ़ी, माटी से कर खेल.
माटी में माटी मिली, माटी-नाक नकेल..
*
माटी में मीनार है, वही सकेगा जान.
जो माटी में मिल कहे, माटी रस की खान..
*
माटी बनती कुम्भ तब, जब पैदा हो लोच.
कूटें-पीटें रात-दिन, बिना किये संकोच..
*
माटी से मिल स्वेद भी, पा जाता आकार.
पवन-ग्रीष्म से मिल उड़े, पल में खो आकार..
*
माटी बीजा एक ले, देती फसल अपार.
वह जड़- हम चेतन करें, क्यों न यही आचार??
*
माटी को मत कुचलिये, शीश चढ़े बन धूल.
माटी माँ मस्तक लगे, झरे न जैसे फूल..
*
माटी परिपाटी बने, खाँटी देशज बोल.
किन्तु न इसकी आड़ में, कर कोशिश में झोल..
*
माटी-खेलें श्याम जू, पा-दे सुख आनंद.
माखन-माटी-श्याम तन, मधुर त्रिभंगी छंद..
*
माटी मोह न पालती, कंकर देती त्याग.
बने निरुपयोगी करे, अगर वृथा अनुराग..
*
माटी जकड़े दूब-जड़, जो विनम्र चैतन्य.
जल-प्रवाह से बच सके, पा-दे प्रीत अनन्य..
*
माटी मोल न आँकना, तू माटी का मोल.
जाँच-परख पहले 'सलिल', बात बाद में बोल..
*
माटी की छाती फटी, खुली ढोल की पोल.
किंचित से भूडोल से, बिगड़ गया भूगोल..
*
माटी श्रम-कौशल 'सलिल', ढालें नव आकार.
कुम्भकार ने चाक पर, स्वप्न किया साकार.
*
माटी की महिमा अमित, सकता कौन बखान.
'सलिल' संग बन पंक दे, पंकज सम वरदान..

***

कविता

धरती

*

धरती काम करने

कहीं नहीं जाती

पर वह कभी भी

बेकाम नहीं होती.

बादल बरसता है

चुक जाता है.

सूरज सुलगता है

ढल जाता है.

समंदर गरजता है

बँध जाता है.

पवन चलता है

थम जाता है.

न बरसती है,

न सुलगती है,

न गरजती है,

न चलती है

लेकिन धरती

चुकती, ढलती,

बंधती या थमती नहीं.

धरती जन्म देती है

सभ्यता को,

धरती जन्म देती है

संस्कृति को.

तभी ज़िंदगी

बंदगी बन पाती है.

धरती कामगार नहीं

कामगारों की माँ होती है.

इसीलिये इंसानियत ही नहीं

भगवानियत भी

उसके पैर धोती है..

२३-२-२०११

***