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सोमवार, 25 जुलाई 2022

भोजपुरी, हास्य, समीक्षा, सुनीता सिंह,मुक्तिका,बिटिया,नवगीत, मुक्तक, दोहा,

पुस्तक चर्चा :
''कालचक्र को चलने दो'' भाव प्रधान कवितायें
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[पुस्तक विवरण: काल चक्र को चलने दो, कविता संग्रह, सुनीता सिंह, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १२५, आकार २० से.मी. x १४.५ से. मी., आवरण बहुरंगी पेपर बाइक लेमिनेटेड, २००/- प्रतिष्ठा पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ]
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साहित्य समय सापेक्षी होता है। कविता 'स्व' की अनुभूतियों को 'सर्व' तक पहुँचाती है। समय सनातन है। भारतीय मनीषा को 'काल' को 'महाकाल' का उपकरण मानती है इसलिए भयाक्रांत नहीं होती, 'काल' का स्वागत करती है। 'काल को चलने दो' जीवन में व्याप्त श्वेत-श्याम की कशमकश को शब्दांकन है।कवयित्री सुनीता सिंह के शब्दों में "अकस्मात मन को झकझोर देनेवाली परिस्थितियों से मन को अत्यंत नकारात्मक रूप से प्रभावित होने से बचने के लिए उन परिस्थितियों को स्वीकार करना आवश्यक होता है जो अपने बस में नहीं होतीं। जीवन कभी आसान रास्ता नहीं देता। हतोत्साहित करनेवाले कारकों और नकारात्मकता के जाल से जीवन को अँधेरे से उजाले की ओर शांत मन से ले जाने की यात्रा का दर्शन काव्य रूप से प्रस्तुत करती है यह पुस्तक।'
५४ कविताओं का यह संकलन अजाने ही पूर्णता को लक्षित करता है। ५४ = ५+४=९, नौ पूर्णता का अंक है। नौ शक्ति (नौ दुर्गा) का प्रतीक है। नौ को कितनी ही बार जोड़े या गुणा करें ९ ही मिलता है।संकलन में राष्ट्रीयता के रंग में रंगी ५ रचनाएँ हैं। ५ पंचतत्व का प्रतीक है। 'अनिल, अनल, भू, नभ सलिल' यही देश भी है। भारत भूमि, भारत वर्ष, स्वदेश नमन, प्रहरी, भारत अखंड शीर्षक इन रचनाओं में भारत का महिमा गान होना स्वाभाविक है।
इसकी गौरव गाथा को हिमगिरि झूम कर गाता है
जिस पर गर्वित होकर के सागर भी लहराता है
तिलक देश के माथे का हिम चंदन है
शत बार तुझे ऐ देश मेरे अभिनन्दन है
कवयित्री देश भक्त है किन्तु अंधभक्त नहीं है। देश महिमा गुँजाते हुए भी देश में व्याप्त अंतर्विरोध उसे दुखी करते हैं -
एक देश में दो भारत / क्यों अब तक है बसा हुआ?
एक माथ पर उन्नत भाल / दूजा क्यों है धँसा हुआ?
'माथ' और 'भाल' पर्यायवाची हैं। एक पर दूसरा कैसे? 'माथ' के स्थान पर 'कांध' होता तो अर्थवत्ता में वृद्धि होती।
इस भावभूमि से जुडी रचनाएँ रणभेरी, बढ़ते चलो, वीरों की पहचान आदि भी हैं जिनमें परिस्थितियों से जूझकर उन्हें बदलने का आव्हान है।
कवि को प्राय: काव्य-प्रेरणा प्रकृति से मिलती है। इस संग्रह में प्रकृति से जुडी रचनाओं में प्रकृति दोहन, आंधी, हरीतिमा, जल ही जीवन, मकरंद, फाग, बसंत, चूनर आदि प्रमुख हैं।
प्रकृति का अनुपम उपहार / यह अभिलाषा का संसार
इच्छाओं की अनंत श्रृंखला / दिव्य लोक तक जाती है
स्वच्छंद कल्पना के उपवन में / सतरंगी पुष्प खिलाती है
स्वप्नों में स्वर्णिम पथ पर / आरूढ़ होकर आती है
कितना मोहक, कितना सुंदर / है यह विशाल अंबर निस्सार
एक बाल कथा सुनी थी जिसमें गुरु जी शिष्यों को सिखाने के बाद अंतिम परीक्षा यह लेते हैं कि वह खोज के लाओ जो किसी काम का नहीं। प्रथम वह विद्यार्थी आया जो कुछ नहीं ला सका। गुरु जी ने कहा हर वास्तु का उपयोग कर सकनेवाला ही श्रेष्ठ है। ईश्वर ने निरुपयोगी कुछ नहीं बनाया। कवयित्री ने वाकई अंबर को निस्सार पाया या तुक मिलाने के लिए शब्द का प्रयोग किया? अंबर पाँच तत्वों में से एक है, वह निस्सार कैसे हो सकता है?
दर्शन को लेकर कवयित्री ने कई रचनाएँ की हैं। गुरु गोरखनाथ की साधनास्थली में पली-बढ़ी कलम दर्शन से दूर कैसे रह सकती है?
मन की आँखों से है दिखता / खोल हृदय के द्वार
निहित कर्म पर गढ्ता / सद्गति या दुर्गति आकार
''कर्म प्रधान बिस्व करि राखा'' का निष्कर्ष तुलसी ने भी निकाला था, वही सुनीता जी का भी प्राप्य है।
संग्रह की रचनाओं में 'एकला चलो रे' हे प्रिये, हे मन सखा आदि पठनीय हैं। कवयित्री में प्रतिभा है, उसे निरंतर तराशा जाए तो उनमें छंद, शुद्ध छंद रचने की सामर्थ्य है किन्तु समयाभाव उन्हें रचना को बार-बार छंद-विधान के निकष पर कसने का अवकाश नहीं देता। पुरोवाक में नीलम चंद्रा के अनुसार 'इनके हर अलफ़ाज़ चुनिंदा होते हैं' के संदर्भ में निवेदन है कि 'हर' एक वचन है, अल्फ़ाज़ बहुवचन, 'हर लफ्ज़' सही होता।
''कालचक्र चलने दो'' कवयित्री के संवेदनशील मन की भाव यात्रा है। रचनाओं में पाठक को अपने साथ रख पाने की सामर्थ्य है। कथ्य मौलिक है। शब्द चयन सटीक है। सारत: यह कृति मानव जीवन की तरह गन-दोष युक्त है और यही इसे ग्रहणीय बनाता है। सुनीता का भविष्य एक कवयित्री के नाते उज्जवल है। वे 'अधिक' और 'श्रेष्ठ' का अंतर समझ कर 'श्रेष्ठ' की दिशा में निरंतर अग्रसर हैं।
२५-७-२०१९
[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति विश्ववाणी हिन्दी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com ]
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भोजपुरी धमकियाँ
१. बेटा जेतना तोहर उमर हौ, ओकर दुगना हमार कमर हौ!
२. चवन्नी भर क हउवे आउर डॉलर भर भौकाल!
३. एतना गोली मारब की छर्रा बिनत- बिनत करोडपति हो जइबे!
४. धाम चंडी काशी में, जीवन बीतल बदमाशी में!
५. हमके जान ले, हम मारीला कम और घसिटीला जादा!
६. बेटा... सज के आयल हउवे, बज के जइबे!
७. गुरु... सम्हर जा, नाही त हफ्तन गोली चली आउर महिन्नन धुंआ उडी!"
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मुक्तिका:
बिटिया
*
चाह रहा था जग बेटा पर अनचाहे ही पाई बिटिया.
अपनों को अपनापन देकर, बनती रही पराई बिटिया..
कदम-कदम पर प्रतिबंधों के अनुबंधों से संबंधों में
भैया जैसा लाड़-प्यार, पाने मन में अकुलाई बिटिया..
झिड़की ब्यारी, डांट कलेवा, घुड़की भोजन था नसीब में.
चौराहों पर आँख घूरती, तानों से घबराई बिटिया..
नत नैना, मीठे बैना का, अमिय पिला घर स्वर्ग बनाया.
हाय! बऊ, दद्दा, बीरन को, बोझा पड़ी दिखाई बिटिया..
खान गुणों की रही अदेखी, रंग-रकम की माँग बड़ी थी.
बीसों बार गयी देखी, हर बार गयी ठुकराई बिटिया..
करी नौकरी घर को पाला, फिर भी शंका-बाण बेधते.
तनिक बोल ली पल भर हँसकर, तो हरजाई कहाई बिटिया..
राखी बाँधी लेकिन रक्षा करने भाई न कोई पाया.
मीत मिले जो वे भी निकले, सपनों के सौदाई बिटिया..
जैसे-तैसे ब्याह हुआ तो अपने तज अपनों को पाया.
पहरेदार ननदिया कर्कश, कैद भई भौजाई बिटिया..
पी से जी भर मिलन न पाई, सास साँस की बैरन हो गयी.
चूल्हा, स्टोव, दियासलाई, आग गयी झुलसाई बिटिया..
फेरे डाले सात जनम को, चंद बरस में धरम बदलकर
लाया सौत सनम, पाये अब राह कहाँ?, बौराई बिटिया..
दंभ जिन्हें हो गए आधुनिक, वे भी तो सौदागर निकले.
अधनंगी पोशाक, सुरा, गैरों के साथ नचाई बिटिया..
मन का मैल 'सलिल' धो पाये, सतत साधना स्नेह लुटाये.
अपनी माँ, बहिना, बिटिया सम, देखे सदा परायी बिटिया..
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षट्पदिक छंद
*
नाक के बाल ने, नाक रगड़कर, नाक कटाने का काम किया है
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ नाक बजा लें
नाक नकेल भी डाल सखे हो, न कटे जंजाल तो नाक चढ़ा लें
छंद का नाम और लक्षण बताइए.
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नवगीत
*
हम आज़ाद देश के वासी,
मुँह में नहीं लगाम।
*
जब भी अपना मुँह खोलेंगे,
बेमतलब बातें बोलेंगे।
नहीं बोलने के पहले हम
बात कभी अपनी तोलेंगे।
ना सुधरें हैं, ना सुधरेंगे
गलती करें तमाम।
*
जितना भी ऊँचा पद पाया,
उतना नीचा गिर गर्राया।
लज्जा-हया-शर्म तज, मुस्का
निष्-दिन अपना नाम थुकाया।
दल सुधार की हर कोशिश
कर ही देंगे नाकाम।
*
अपना थूका, खुद चाटेंगे,
नफरत, द्वेष, घृणा बाँटेंगे।
तीन-पाँच दो दूनी बोलें,
पर न गलत खुद को मानेंगे।
कद्र न इंसां की करते,
हम पद को करें सलाम।
२५-७-२०१७
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मुक्तक:
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मापनी: २११ २११ २११ २२
*
आँख मिलाकर आँख झुकाते
आँख झुकाकर आँख उठाते
आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
*
मापनी: १ २ २ १ २ २ १ २ २ १२२
*
न जाओ, न जाओ जरा पास आओ
न बातें बनाओ, न आँखें चुराओ
बहुत हो गया है, न तरसा, न तरसो
कहानी सुनो या कहानी सुनाओ
*
२५-६-२०१५

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दोहा सलिला
रवि-वसुधा के ब्याह में..
*
रवि-वसुधा के ब्याह में, लाया नभ सौगात.
'सदा सुहागन' तुम रहो, ]मगरमस्त' अहिवात..

सूर्य-धरा को समय से, मिला चन्द्र सा पूत.
सुतवधु शुभ्रा 'चाँदनी', पुष्पित पुष्प अकूत..

इठला देवर बेल से बोली:, 'रोटी बेल'.
देवर बोला खीझकर:, 'दे वर, और न खेल'..

'दूधमोगरा' पड़ोसी, हँसे देख तकरार.
'सीताफल' लाकर कहे:, 'मिल खा बाँटो प्यार'..

भोले भोले हैं नहीं, लीला करे अनूप.
बौरा गौरा को रहे, बौरा 'आम' अरूप..

मधु न मेह मधुमेह से, बच कह 'नीबू-नीम'.
जा मुनमुन को दे रहे, 'जामुन' बने हकीम..

हँसे पपीता देखकर, जग-जीवन के रंग.
सफल साधना दे सुफल, सुख दे सदा अनंग..

हुलसी 'तुलसी' मंजरित, मुकुलित गाये गीत.
'चंपा' से गुपचुप करे, मौन 'चमेली' प्रीत..

'पीपल' पी पल-पल रहा, उन्मन आँखों जाम.
'जाम' 'जुही' का कर पकड़, कहे: 'आइये वाम'..

बरगद बब्बा देखते, सूना पनघट मौन.
अमराई-चौपाल ले, आये राई-नौन..

कहा लगाकर कहकहा, गाओ मेघ मल्हार.
जल गगरी पलटा रहा, नभ में मेघ कहार..
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मुक्तिका:
क्यों है?
*
जो जवां है तो पिलपिला क्यों है?
बोल तो लब तेरा सिला क्यों है?

दिल से दिल जब कभी न मिल पाया.
हाथ से हाथ फिर मिला क्यों है?

नींव ही जिसकी रिश्वतों ने रखी.
ऐसा जम्हूरियत किला क्यों है?

चोर करता है सीनाजोरी तो
हमको खुद खुद से ही गिला क्यों है?

शूल से तो कभी घायल न हुआ.
फूल से दिल कहो छिला क्यों है?

और हर चीज है जगह पर, पर
ये मगज जगह से हिला क्यों है?

ठीक कब कौन क्या करे कैसे?
सिर्फ गलती का सिलसिला क्यों है?
२५-७-२०११
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रविवार, 24 जुलाई 2022

पुरोवाक छोटी सी ये दुनिया और सम्पत देवी जी के यायावरी कदम

पुरोवाक
छोटी सी ये दुनिया और सम्पत देवी जी के यायावरी कदम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बचपन में एक चित्रपटीय गीत सुना था, मन भय तो गुनगुनाता रहता था, गीत के बोल थे-

''छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं
तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे,
हम पूछेंगे हाल।''

तब चलचित्रदेख तो नहीं सका क्योंकि बच्चों को अनुमति नहीं मिलती थी पर बाल मन की कल्पना में अपने बाल सखाओं के साथ दुनिया घूमता रहता। क्रमश: बड़ा होने के साथ पहले मोहल्ला फिर, शहर, जिला और प्रदेश, शादी विवाहों में अन्यत्र जाने का अवसर मिलता तो पिताजी के साथ अधिक से अधिक घूमने का प्रयास करता। प्राथमिक शाला में अग्रजा आशा जिज्जी और माध्यमिक शाला में गुरुवर सुरेश उपाध्याय से पुस्तक पठन की प्रेरणा मिली। शालेय स्पर्धाओं में 'शिवालिक की पहाड़ियों में' लेखक विद्यालंकार तथा 'एट मिडनाइट कम्स द किलर' लेखक ऑगस्टस समरविले प्राप्त हुईं, उन्हें पढ़कर पर्यटन और शिकार संबंधी साहित्य पढ़ने की उत्सुकता हुई किन्तु पुस्तकालयों में ऐसी पुस्तकें मिलती ही नहीं थीं। तब से अब तक लगभग ५ दशक बीत जाने के बाद भी स्थिति में बहुत परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी विश्ववाणी हिंदी के साहित्य में पर्यटन और संस्मरण संबंधी साहित्य का अभाव है।

हर्ष का विषय है कि संपत देवी मुरारका जी हिंदी वांग्मय से पर्यटन वृत्तांत संबंधी आभाव को यथाशक्ति दूर करने के लिए कृत संकल्पित हैं। उन्हें ह्रदय से साधुवाद। संपत देवी जी की 'यात्रा क्रम' (४ भाग) पढ़कर मुझे यह कहने में कोइ संकोच नहीं है कि उनके यायावरी कदमों के लिए वास्तव में दे दुनिया छोटी ही है। देश-विदेश की यात्राओं को जितनी रोचक भाषा-शैली में, जितने सूक्ष्म विवरणों, जितने बहु आयामी जानकारियों और जितने अधिक चित्रों के साथ संपत जी ने इन कृतियों में प्रस्तुत किया है उतना किसी अन्य लेखक ने नहीं किया है। संपत जी पर्यटन स्थलों की पौराणिक, ऐतिहासिक, पुरातत्विक, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक पृष्ठ भूमि का यथास्थान यथेष्ट वर्णन करती चलती हैं, वह भी इतनी सरसता और सटीकता के साथ कि पाठक को यह प्रतीत हो कि वह स्वयं भ्रमण कर रहा है। 'सोने में सुहागा' यह कि लेखिका संपत अब कवयित्री संपर्क के रूप में अपने यात्रा संस्मरणों को काव्य के माध्यम से प्रस्तुत कर रहै है। ऐसा एक प्रयास कोलकाता निवासी श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार प्रो. श्याम लाल उपाध्याय (अब स्वर्गीय) ने अपनी कृति भू दर्शन २०१६ में किया है किन्तु ऐसा लेखन अपवाद ही है। संपत जी ने व्यापकता के साथ पर्यटकीय काव्य लेखन कर हिंदी साहित्य को नया आयाम देकर उसे सम्पन्न बनाया है।

ऋषिकेश की यात्रा में लिखित काव्य पंक्तियों में कवयित्री पौराणिक संदर्भों का यथास्थान संकेत करती चलती है। तकनीकी जानकारियों को काव्य पंक्तियों में सहेजने का दुरूह कार्य करते समय वे शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती हैं।

5 फिट ऊँची चतुर्भुज हृषिकेश की प्रतिमा, यहाँ अवस्थित है |
पूरी प्रतिमा एक ही, शालिग्राम शिला से निर्मितं है ||

तिरुपति औ बदरीनाथ की मूर्ति भी, एक शिला से बनी है |
भारतीय शिल्पकार स्वयं ही मूर्ति-कला का धनी है ||

125 टन का गुम्बद भी है, एक शिला से बना |
वास्तुकला की दृष्टि से, सोलह कोण का है बना ||

'उत्तर पूर्वी यात्रा गीत' में प्राकृतिक सुषमा से अभिभूत पर्यटक संपद जी पाठक को काव्य पंक्तियों द्वारा से नैसर्गिक दृश्य दिखा देती हैं-

दार्जिलिंग जा पहुँचे हम तो, करने सैर सपाटा |
छुक-छुक गाड़ी से उतरे हम, प्लेट फार्म को टाटा ||

प्रकृति-नटी की शान अनोखी, विस्तृत चाय-बागानों में |
दृश्य अलौकिक सूर्योदय का, ओस चमकती धानों में ||

अब जा पहुँचे टाइगर हिल हम, सूर्योदय का दृश्य देखने |
उषा की मुस्कान सुनहरी, अरुणोदय के पल लखने ||

दक्षिणेश्वर मंदिर कोलकाता की ख्याति परमहंस रामकृष्ण जी, सारदा माँ तथा स्वामी विवेकानंद के कारन सकल विश्व में है। लेखिका माँ काली की मूर्ति को निहारते हुए भावमग्न हो जाती है -

मंदिर क्या है वास्तुशिल्प का, सुन्दर एक नमूना है |

भागीरथी की अँगूठी में, जैसे जड़ा नगीना है ||

माँ की प्रतिमा दुष्ट जनों को, विकट रूप दर्शाती है |

लेकिन अपने भक्तों पर, शान्ति सुधा बरसाती है || 

*

देव प्रयाग का मुख्य मंदिर,  मंदिर है  रघुनाथ |

स्वर्ण  मंडित  शिखरवाला, भव्य और विशाल  ||

 

गर्भगृह में  सौम्य  राम की भव्य प्रतिमा साजे  |

श्रृंगार स्वर्णाभूषणयुत, भव्य मुकुट शीश विराजे  ||

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25 जुलाई 2021, रविवार को भारत में एक प्राचीन मंदिर, तेलंगाना में स्थित काकतिय रुद्रेश्वर रामप्पा मंदिर को संयुक्त राष्ट्र की प्रतिष्ठित ‘विश्व धरोहर स्थल’ की सूची में सम्मिलित किए जाने के अवसर पर 'यूनेस्को, “विश्व धरोहर स्थल” की सूची में सम्मिलित तैरते पत्थरों से निर्मित, वरंगल, तेलंगाना का ‘रामप्पा मंदिर दक्कन के दुर्गम पठारों की यात्रा' का नेतृत्व करते हुए विश्व वात्सल्य मंच  की संस्थापक अध्यक्ष श्रीमती संपत देवी मुरारका ने अपनी सखियों एम.दीपिका,स्निग्धा योतिकरपद्मलता जड्डूसीता अग्रवालगीता अग्रवाल आदि के साथ स्थाक का भ्रमण मात्र नहीं किया अपितु स्थल की विशेषताओं को निरखा-परखा। यह संस्मरणात्मक आलेख अनेक बहुरंगी चित्रों से सुसज्जित है। पाठक वहाँ बिना गए ही स्थल की ऐतिहासिकता, भव्यता और रमणीयता का आनंद ले सकता है। 


साहित्यिक निबंधकार सम्पत जी 


'सुभद्रा कुमारी चौहान का व्यक्तित्व एवं कृतित्व' शीर्षक लेख में लेखिका संपाद जी का एक भिन्न पहलू उद्घाटित होता है।वे सुभद्रा जी के व्यक्तित्व-कृतित्व का सम्यक विश्लेषण करते समय प्रामाणिकता का ध्यान रखते हुए सुभद्रा जी द्वारा लिखित काव्य पंक्तियों को उद्धृत कर पाठकों को काव्यानंद-प्रसाद देकर ध्याता की अनुभूति कराती हैं। उक्त से सर्वथा भिन्न रूप में प्रेम चाँद पर लिखित आलेख में लेखिका विपुल प्रेमचंद-साहित्य की सूचि देकर पाठकों को बताती हैं कि वे प्रेमचंद का मूल्याङ्कन सतही न कर, उनके साहित्य का पठन गहराई से करें।  


अखिल भारतीय मारवाड़ी सम्मेलन के मुखपत्र के फरवरी 2014 अंक के आलेख में संपत जी के समीक्षक मन की जानकारी मिलती है। 'साहित्य समाज का दर्पण है' और 'लेखक तथा सामाजिक चुनौतियाँ' जैसे लेख सम्पत जी के समृद्ध चिंतन के झलक प्रस्तुत करते हैं।   


नया मीडिया’ और हिंदी के बढ़ते चरण' लेख में सम्पत जी द्वारा दी गयी तकनीकी जानकारी विस्मित करती है। वे लिखती हैं- इसमें शक नहीं कि अभी न्यू मीडिया” पारंपरिक मीडिया की तरह संगठित नहीं है | लेकिन इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका हर उपयोगकर्ता स्वयं एक पत्रकार हैस्वयं संपादक हैस्वयं प्रकाशक है |  इसमें दी गई सूचना एक क्लिक में ही पुरे विश्व में पहुँच जाती है | न्यू मीडिया या सोशल मीडिया में यह बात आश्चर्यचकित करती है कि उससे जुड़े तरह तरह के लोग अपने मुद्दों को समाज के समक्ष असरदार रूप से रखते हैं | ये लोग अपने आप में एक असंगठित फौज की तरह हैं | वे स्वयं ही फौज के सैनिक हैं और स्वयं ही जनरल भी | जैसा कि नरेंद्र मोदी ने कहा हैअपने निजी स्वार्थ को दरकिनार कर किसी सामाजिक या राष्ट्रीय समस्या के निराकरण के लिए वेब पर इतना ज्यादा समय और ऊर्जा निरंतर देते रहना कोई मामूली बात नहीं | 

कवयित्री संपत देवी का काव्य लेखन 


कवयित्री संपत देवी का काव्य लेखन बहुरंगी और बहु आयामी है। वे दर्शनीय स्थानों पर त्वरित रचनाएँ करने के साथ-साथ बच्चों के लिए सरस बाल गीत रच कर पाठक को विस्मित करती हैं। उनके बाल गीत सहज बोधगम्य तथा बछ्कों द्वारा याद किए जा सकने वाले हैं एक झलक देखें- 


आओ हिल-मिल कर हम गायें,

अपने सपनों को दुलरायें |

चिड़ियाँ चीं-चीं बोल रही है,

बंद पंख अब खोल रही है ||

 

मन-उपवन में हुआ जागरण,

शांत-सुमीरण डोल रही है |

सोये हैं जो लोग अभी तक,

आओ पहले उन्हें जगायें ||


उत्सव प्रधान भारतीय संस्कृति में रच-बसी संपत जी आलोक पर्व दीपावली  पर रचित गीत में त्यौहार की पृष्भूमि, महत्व, पूजन विधि, तथा मौज-मस्ती का संकेत करना नहीं भूलतीं।  

लक्ष्मी गणपति पूजा आज |

विष्णु चक्र का जग पर राज ||

 

दीपावली का है बड़ा त्योंहार |

है घर सजे फूलों का हार ||


कवयित्री संपत जी के लव्य संसार में सात्विक श्रृंगार की मनोरम छवि है -

 

जगमग कर दो मेरा जीवन,

आनंदित हो जाए तन-मन|

जब-जब मैं अपने को देखूं,

तुम बन जाओ मेरे दर्पण||

 

तेरे कदमों की आहट पर,

मैं व्याकुल हूँ प्राण बिछाकर|

यह अपने सपनों का घर है,

तेरा-मेरा प्यार अमर है||  - दूर कहीं वंशी बजती है - गीत 


अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए विविध प्राकृतिक उपादानों का प्रयोग करने में निपुण संपत जी फूलों के माध्यम से काँटों के बीच भी मुस्कुराते रहने का संदेश देती है -


चंपाचमेली मिलके हँसेकाँटों खिला गुलाब |
काँटों में भी मुस्काना सीखो, हँसते रहो जनाब ||

चरणों में तेरे चढ़ गएप्रभू चूमे तेरे कदम |
चंपा के फूल झूम उठेसफल हो गया जनम ||
*

नये वर्ष की नई कल्पना,

करनी है साकार हमें |

नये वर्ष में नव भारत को 

देना है आकार हमें ||

*

'कन्या भ्रूण हत्या' जैसे सामाजिक अभिशाप पर लिखी गई पंक्तियाँ मर्मस्पर्शी बन पड़ी हैं -

धरती माँ तुम क्यूँ न डोली, जब सबने मुँह मोड़ लिया |

इस जग में आने से पहले, निरपराध को काटा, खून किया ||

 

जब डोलेगी धरती माता, पर्वत भी गुम हो जाएगा |

जुल्म अगर ढाओगे तो, तुम्हारा अस्तित्व ही खो जाएगा | 

सार्ट: कवयित्री के रूप में सम्पद जी अपनी प्रांजल भावनाओं, समृद्ध शब्द भंडार, संतुलित -शैली, सटीक शब्द चयन तथा स्पष्ट कथ्य चयन के द्वारा अपने मनोभावों को स्पष्टता के साथ व्यक्त कर सकी हैं। 


स्व मूल्यांकन 


अपने लेखन पर विचार करते हुए संपत्ति जी  लिखती हैं- ''अपनी इन यात्राओं में मैंने राष्ट्रीय एकता और अखंडता का भी दिग्दर्शन किया है और अपनी महान संस्कृति के भी विविध रूपों का दर्शन किया है | अपने पूर्वजों के श्रद्धाभाव ने मुझे बहुत प्रभावित किया है, जिसके चलते धार्मिक संरचना के रूप में वास्तु-कला तथा अन्य बहुत सारी कलाओं का विकास हुआ है | इसके अलावा विभिन्न समाजों के बीच लोकाचार की विविधता ने मेरे मन को बहुत आकर्षित किया है | अपनी यात्राओं में मैंने बहुत सूक्ष्मता के साथ लोक मन में स्थापित परंपराओं का अध्ययन करने की कोशिश की है | इन सारी बातों से अलग मुझे प्रकृति के अनेकानेक रूपों में बिखरे सौन्दर्य के अवलोकन की लालसा हमेशा से उद्वेलित कराती रही है | प्रकृति के पल-पल बदलते दृश्य उसके पहाड़, नदियाँ और झरने और यहाँ तक कि घने जंगल और रेगिस्तान भी मुझे अपने सुषमा-सौन्दर्य से विमोहित करते रहे हैं |"


संपत जी अपनी सुरुचिमय, सांस्कृतिक, पारिवारिक पृष्ठभूमि के बावजूद सुख-सुविधा के स्थान पर सामान्यता का वरण कर विविध पर्यटक स्थलों पर जाकर खुद तो प्रकृति मन की गॉड में आनंदित होती ही हैं, लौटकर पर्यटन वृत्तांत लिखकर पाठकों को भी आनंदित करती हैं। उनकी शख्सियत को गुलज़ार की दो पंक्तियों द्वारा इस तरह बताया जा सकता है -


मुसाफिर हूँ यारों!, न घर है न ठिकाना 

मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना

   

मुसाफिर समता देवी जी के कदमों को प्रभु निरंतर इतनी शक्ति दे वे धरती है नहीं अंतरिक्ष तक भी जा सकें और वहां के आकाशीय अनुभव हमारे साथ बाँट सकें। संपत जी के ये यात्रा वृत्तांत निश्चय ही लोकप्रिय होंगे। 

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लेखक परिचय : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' विगत ५ दशकों से अधिक समय से हिंदी गद्य-पद्य तथा तकनीकी साहित्य को समृद्ध करने हेतु समर्पित हैं। आपकी १२ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  १२ राज्यों की विविध साहित्यिक यांत्रिकी संस्थाओं द्वारा ३०० से अधिक पुरस्कारों से सम्मानित किए जा चुके सलिल जी ने ३०० से अधिक नए छंदों का आविष्कार कर हिंदी छंद शास्त्र को समृद्ध किया है। आपके द्वारा लिखित सरस्वती वंदना 'हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी अब विमल मति दे' का दैनिक प्रार्थना के रूप में प्रति दिन लाखों बच्चे सरस्वती शिशु मंदिरों में गायन करते हैं। आप शताधिक पुस्तकों की भूमिका तथा ३०० से अधिक पुस्तकों की समीक्षा कर चुके हैं। 

 

संपर्क : सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com     






सॉनेट प्रभुजी,देवता,दोहा-यमक,हास्य षट्पदी

सॉनेट 
चुनौती
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हर ऊँचा पद बड़ी चुनौती
सभी अपेक्षाएँ करते हैं
सत्य बताने से डरते हैं
कहते कभी न कड़ी चुनौती

नहीं किसी का कोई सगा है
स्वार्थ साधते रिश्ते-नाते
बुरे समय पर पीठ दिखाते
अवमूल्यन से मूल्य पगा है

पल में तोला, पल में माशा
चाहें मुँह में सदा बताशा
किंतु न खुद को कभी तराशा

पद पाकर मद मत आने दो
जटिल-कुटिलता मत छाने दो
आदमियत को मुस्काने दो
२४-७-२०२२
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सॉनेट
प्रभुजी
प्रभु जी! तुम मयूर, हम कागा
बाल कृष्ण के शीश मुकुट तुम
पुरखों के मुख, क्यों निकृष्ट हम?
तुम हो सुई, हम बेबस धागा
प्रभु जी! तुम सत्ता, हम वोटर
प्रभु जी तुम श्लोक, हम बानी
तुम हो ज्ञानी, हम अज्ञानी
मत पाते तुम, हम दे ठोकर
प्रभु जी! तुम सलिला, हम पानी
तुम धरती, हम पत्ते धानी
निरभिमान तुम, हम अभिमानी
प्रभु जी! पवन, मगर हम तिनका
तुम माला हम केवल मनका
तुम मन-मालिक दास मैं तन का
२४-७-२०२२
विमर्श : देवता
उत्तर-
देवता, 'दिव्' धातु से बना शब्द है, अर्थ 'प्रकाशमान होना' है। भावार्थ परालौकिक शक्ति जो अमर, पराप्राकृतिक है और पूजनीय है। देवता या देव इस तरह के पुरुष और देवी इस तरह की स्त्रियों को कहा गया है। देवता परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक या सगुण रूप माने गए हैं।
बृहदारण्य उपनिषद के एक आख्यान में प्रश्न है कि कितने देव हैं? उत्तर - वास्तव में देव केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ कोटि (प्रकार); और पूछने और पूछने पर ३ (विधि-हरि-हर या ब्रम्हा-विषय-महेश) फिर डेढ और फिर केवल एक (निराकार जिसका चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है)। वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है। प्रत्येक मन्त्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है।
देवताओं का वर्गीकरण- चार मुख्य प्रकार
१. स्थान क्रम से वर्णित देवता -- द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अन्तरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।
२. परिवार क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि को गिना जाता है।
३. वर्ग क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।
४. समूह क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में सर्व देवा (स्थान, वस्तु, राष्ट्र, विश्व
आदि) की गिनती की जाती है।
ऋग्वेद में स्तुतियों से देवताओं की पहचान की जाती है। ये देवता अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। बहु देवता न माननेवाले सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मा वाचक करते है। बहुदेवतावादी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है। पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा लौकिकीकरण हुआ, फ़िर इनकी मूर्तियाँ, सम्प्रदाय, अलग अलग पूजा-पाठ बनाये गए।
धर्मशास्त्र में सबसे "तिस्त्रो देवता".(तीन देवता) ब्रह्मा, विष्णु और शिव का उदय हुआ। इनका कार्य सृष्टि का निर्माण, इसका पालन और संहार माना जाता है। काल-क्रम से देवों की संख्या बढ़ती गयी। निरुक्तकार यास्क के अनुसार," देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से है"। महाभारत के (शांति पर्व) में आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं। शतपथ ब्राह्मण में भी इसी प्रकार से देवताओं को माना गया है।
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम
शुद्ध बहु ईश्वरवादी धर्मों में देवताओं को पूरी तरह स्वतन्त्र माना जाता है।प्रमुख वैदिक देवता गणेश (प्रथम पूज्य), सरस्वती, श्री देवी (लक्ष्मी), विष्णु, शक्ति (दुर्गा, पार्वती), शंकर, कृष्ण, इन्द्र, सूर्य, हनुमान, ब्रह्मा, राम, वायु, वरुण, अग्नि, शनि , कार्तिकेय, शेषनाग, कुबेर, धन्वंतरि, विश्वकर्मा आदि हैं।
२४-७-२०२०
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दोहा सलिला
गले मिले दोहा-यमक ३
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गरज रहे बरसे नहीं, आवारा घन श्याम
नहीं अधर में अधर धर, वेणु बजाते श्याम
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कृष्ण वेणु के स्वर सुने, गोप सराहें भाग
सुन न सके वे जो रहे, श्री के पीछे भाग
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हल धर कर हलधर चले, हलधर कर थे रिक्त
चषक थाम कर अधर पर, हुए अधर द्वय सिक्त
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बरस-बरस घन बरस कर, करें धरा को तृप्त
गगन मगन बादल नचे, पर नर रहा अतृप्त
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असुर न सुर को समझते, अ-सुर न सुर के मीत
ससुर-सुता को स-सुर लख, बढ़ा रहे सुर प्रीत
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पग तल पर रख दो बढें, उनके पग तल लक्ष्य
हिम्मत यदि हारे नहीं, सुलभ लगे दुर्लक्ष्य
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ताल तरंगें पवन संग, लेतीं पुलक हिलोर
पत्ते देते ताल सुन, ऊषा भाव-विभोर
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दिल कर रहा न संग दिल, जो वह है संगदिल
दिल का बिल देता नहीं, नाकाबिल बेदिल
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हसीं लबों का तिल लगे, कितना कातिल यार
बरबस परबस दिल हुआ, लगा लुटाने प्यार
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दिलवर दिल वर झूमता, लिए दिलरुबा हाथ
हर दिल हर दिल में बसा, वह अनाथ का नाथ
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रीझा हर-सिंगार पर, पुष्पित हरसिंगार
आया हरसिंगार हँस, बनने हर-सिंगार
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२४-७-२०१६
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दोहा
नेह नर्मदा कलम बन, लिखे नया इतिहास
प्राची तम का अन्त कर, देती रहे उजास
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प्राची पर आभा दिखी, हुआ तिमिर का अन्त
अन्तर्मन जागृत करें, कंत बन सकें संत
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हास्य षट्पदी
संजीव
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फिक्र न ज्यादा कीजिए, आसमान पर भाव
भेज उसे बाजार दें, जिसको आता ताव
जिसको आता ताव, शान्त वह हो जायेगा
थैले में पैसे ले खुश होकर जाएगा
सब्जी जेबों में लेकर रोता आएगा
'सलिल' अजायबघर में सब्जी देखें बच्चे
जियें फास्ट फुड खाकर, बनें नंबरी लुच्चे
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२४-७-२०१४
अंगिका दोहा मुक्तिका
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काल बुलैले केकर, होतै कौन हलाल?
मौन अराधें दैव कै, एतै प्रातःकाल..
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मौज मनैतै रात-दिन, हो लै की कंगाल.
संग न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?
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एक-एक कै खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नींन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
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के हमरो रच्छा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सब्भै हवै दलाल..
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धूल झौंक दैं आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित कै नाटक रचैं, नेता निगलैं माल..
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मत शंका कै नजर सें, देख न मचा बवाल.
गुप-चुप हींसा बाँट लै, 'सलिल' बजा नैं गाल..
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ओकर कोय जवाब नै, जेकर सही सवाल.
लै-दै कै मूँ बंद कर, ठंडा होय उबाल..
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२५-५-२०१३