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बुधवार, 27 अप्रैल 2022

सॉनेट, छंद गोपी,कोविद,तेवरी,मुक्तिका,

अभिनव प्रयोग
गोपी छंदीय सॉनेट
*
घोर कलिकाल कठिन जीना।
हाय! भू पर संकट भारी।
घूँट खूं के पड़ते पीना।।
समर छेड़े अत्याचारी।।

सबल नित करता मनमानी।
पटकता बम नाहक दिन-रात।
निबल के आँसू भी पानी।।
दिख रही सच की होती मात।।

स्वार्थ सब अपना साध रहे।
सियासत केर-बेर का संग।
सत्य का कर परित्याग रहे।।
रंग जीवन के हैं बदरंग।।

धरा का छलनी है सीना।
घोर कलिकाल कठिन जीना।
२७-४-२०२२
***
कोविद विमर्श : ३
कोविद का समाजवाद और स्वर्णावसर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'कोविद' जोड़ें नाम संग, बढ़ता था सम्मान
अब कोविद के नाम से, निकल रही है जान
नयी पीढ़ी शायद ही जानती हो कि कोविद एक परीक्षा है जिसे उत्तीर्ण करना ही योग्यता का परिचायक है। इसलिए कई व्यक्ति अपने नाम के साथ कोविद उसी तरह लिखते थे जैसे स्व. लालबहादुर शास्त्री जी शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद 'शास्त्री' लिखने लगे थे। इस काल में जब प्रश्न पत्र खरीदने, नकल करने, अपने स्थान पर अन्य से उत्तर लिखने, मूल्यांकन में हेर-फेर और अंत में व्यापम मध्य प्रदेश की तरह लाखों रुपयों में मेडिकल सीटों का सौदा खुले-आम हो ही नहीं रहा, किसी अपराधी का बाल भी बाँका नहीं हो रहा हो तब परीक्षा किसी महामारी से कम नहीं। इस काल में कौन हिम्मत करेगा किसी उपाधि को नाम के साथ जोड़ने की? अन्य उपाधियों की तरह कोविद भ्रष्टाचार महामारी की शिकार न हुई तो उसके नाम की महामारी ही आ गई। बात आने तक ही सीमित होती तो भी गनीमत होती, वह तो आने के साथ ही पूरी दुनिया पर छा भी गयी और छाई भी इस तरह कि अच्छे-अच्छों की नींद उड़ा गई। जिन तीसमार खानों ने कोविद को हल्के में लेने की भूल की उनके देशवासियों को तो भारी कीमत चुकानी ही पड़ी, सरकारों को भी पसीना आ गया, खुद सत्ताधारियों, धनपतियों और बाहुबलियों को अस्पतालों की शरण लेकर अपनी जान बचानी पड़ी। नाज़ो-अदा की नुमाइश कर काम और दाम कमानेवालियाँ भी बच नहीं सकीं, और तो और अपने मंत्र-तंत्र, कर्म-काण्ड और आडंबरों से पतितों को तारने और पापियों को मारने का दवा करनेवाले धर्माचार्य भी कोरोना के आगे नतमस्तक हुए बिना बच नहीं सके। सकल सृष्टि के नियामक, पाक परवरदिगार और आलमाइटी सबके उपासनास्थलों में ताले पड़ गए। ऐसा तो किसी काल में कोई राक्षसराज भी नहीं कर सका।
कोविद का समाजवाद
कोविद के प्रकोप से हो रही जनहानि और धनहानि ने प्रशासन तंत्र और धन कुबेरों की नींद उड़ा दी है। आप आदमी को रोजी के बिना रोटी के लाले पड़े हैं। सरकार असरकार सिद्ध नहीं हो पा रही। मुखौटों के पीछे छिपी सच्चाइयाँ सामने आ रही हैं। सर्वाधिक उन्नत देशों का घमंड चूर-चूर हो गया है। सबसे अच्छी चिकित्सा व्यवस्थाएँ ताश के महलों की तरह ध्वस्त हो गयी हैं। कहावत है "घूरे के दिन बदलते हैं"। कोरोना ने इस कहावत को सौ टका खरा सिद्ध कर दिया है।
अपनी तानाशाही से तिब्बत को मिटा चुके और अधिनायकवादी रवैये से सारी दुनिया को परेशान कर रहे चीन को कोरोना ने आरंभ में ही 'चारों खाने चित्त' कर दिया। तथाकथित सर्वशक्तिमान अमेरिका के दंभी राष्ट्र अध्यक्ष के उन्नत 'शीश को झुकाने' में कोरोना ने देर नहीं की। पेट्रोलियम के पैसों पर गगनचुम्बी मीनारें खड़ी कर इतराते देशों को कोरोना ने 'घुटनों के बल' ला दिया। इटली, जर्मनी, ईरान, इराक, रूस, जापान, ऑस्ट्रलिया कोई भी कोरोना के घातक वार से बच नहीं सका। यह सिद्ध हो गया कि 'चमकनेवाली हर वस्तु सोना नहीं होती', यह भी कि 'सब दिन जात न एक समान'। कोरोना को हल्के से लेने की कीमत इंग्लैण्ड के प्रधान मंत्री को चुकानी पड़ी, गनीमत यह कि 'समय पर चेतने' के कारण रेल पूरी तरह 'पटरी से उतरी' नहीं। हमारे नादान पडोसी पकिस्तान ने कोरोनाग्रस्त चीन से अपने नागरिकों को न बुलाकर अपना 'दम-खम दिखाना' चाहा पर यह दाँव काम नहीं आया। कोरोना ने सच्चे समाजवादी की तरह तमाम काम का काम तमाम कर दिया।
समरथ को ही दोष गुसाईं
कोविद ने सबके साथ समानता का व्यवहार भी नहीं किया अपितु एक कदम आगे बढ़कर कौन कितनी चोट सहन कर सकता है, उस पर उतनी ही चोट करने की नीति अपनाई। तुलसी बब्बा भले ही लिख गए हों 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' कोविद ने इसे उचित नहीं माना और 'समरथ को ही दोष गुसाईं' का नया सिद्धांत न केवल खोजा अपितु क्रियान्वित कर दिया। कोविद ने चुन-चुन कर पहलवानों को अखाड़े में नहीं बुलाया अपितु चुन-चुन कर पहलवानों के अखाड़े जाकर उन्हें चित्त कर दिया। हमने बचपन में एक कविता 'नागपंचमी'पढ़ी थी जिसमें पहलवानों के मल्ल युद्ध का सजीव चित्रण था। कुछ पंक्तियाँ देखें -
यह पहलवान अम्बाले का
वह पहलवान पटियाले का
ये दोनों दूर विदेशों से
लड़ आये हैं परदेशों में
उतरेंगे आज अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में....
कोरोना के काल में यह कविता कुछ इस तरह लिखी जायेगी-
यह पहलवान जो बीजिंग का
जोकर निकला गिरकर रिंग का
वह पहलवान डॉलरवाला
उसका निकला है दीवाला
यह इटलीवाला चित्त हुआ
जर्मनवाले को पित्त हुआ
जापानी खस्ताहाल गिरा
अरबी ईरानी आप गिरा
सुध-बुध भूला पाकिस्तानी
मैदां मारे हिंदुस्तानी
यहाँ नहीं है कोई किसी का
अब तक दुनिया के समर्थदेश सामान्य परिस्थिति और मुश्किल हालत दोनों में अपनी चौधराहट दिखाते हुए अपेक्षाकृत कमजोर देशों को इस या उस खेमे में जाने को मजबूर करते थे, और संकट के समय उनके साथ खड़े होने का दावा करते थे। कोविद ने ऐसे सब संगठनों को 'मिट्टी का माधो' सिद्ध कर दिया। सीटों, नाटो आदि का कोई अस्तित्व शेष नहीं बचा। संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान का सच्चा दोस्त करनेवाला चीन कोविद-काल में पाकिस्तानी नागरिकों की रक्षा नहीं कर सका, नहीं उन्हें सुरक्षित पाकिस्तान भेजने का प्रयास किया।
पश्चिमी देशों की सरकारें और उनकी तथाकथित श्रेष्ठ चिकित्सा व्यवस्था नाकाफी और नाकाबिल साबित हुई। नेता सामने आने की हिम्मत नहीं जुटा सके। यहाँ तक कि वे अपने नागरिकों को समय पूर्व चेतावनी देने, सुरक्षात्मक उपाय अपनाने और उपलब्ध संसाधनों का योजनापूर्वक सीमित प्रयोग करने के लिए सहमत तक नहीं करा सके। जनवरी में जब कोविद प्रारंभिक चरण में था अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों के नागरिक अपनी सरकारों के प्रतिबंधात्मक आदेशों की खुलेआम धज्जिया उड़ाते और मजाक बनाते देखे गए। जल्दी ही उन्हें इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पडी किन्तु यह जग जाहिर हो गया कि सुशिक्षित नागरिक समझदार नहीं हैं और समृद्ध सरकारें असरदार नहीं है। व्यक्तिवादी भोग प्रधान पाश्चात्य संस्कृति में पले-बढ़े लोग सीमित संसाधनों को जुटाने के जुगाड़ में लग गए। फलत: जिन्हें अधिक जरूरत उन तक संसाधन पहुँच ही नहीं सके।
सबसे अधिक बुरी हालत इटली की हुई। सामान्यत: आपातकाल में कमजोरों की रक्षा पहले की जाती है। बच्चों, वृद्धों और महिलाओं को संसाधन उपलब्ध कराकर उन्हें पहले बचाया जाता है; उसके बाद युवाओं को किन्तु इसके सर्वथा विपरीत इटली में कमजोरों को लावारिस बिना समुचित चिकित्सा या देख-रेख के मरने दिया गया। हद तो यह हुई कि मृत्यु पश्चात् सम्मानजनक अंत्येष्टि संस्कार भी नहीं हो सका। एक-एक कब्र में एक साथ कई-कई लाशें दबाई गईं। पश्चिमी जीवन मूल्यों और सभ्यता का खोखलापन पूरी तरह उजागर हुई कि वासतव में 'यहाँ नहीं कोई किसी का। '
सभी सुखी हों, सभी निरापद
भारत दुनिया के तमाम देशों से अपने नागरिकों को सुरक्षित लाने तक सीमित नहीं रहा, उसने अन्य देशों के नागरिकों को भी बचाया, उनकी चिकित्सा की और उन्हें उनके देशों को भेजा। भारत को अविकसित कहकर उसका मजाक उड़ानेवाले राष्ट्रपति ट्रंप को जल्दी ही भारतीय नेतृत्व की प्रशंसा करने को बाध्य होना पड़ा किंतु विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र के राष्ट्र अध्यक्ष होने के बाद भी वे यह नहीं समझ सके कि लोकतंत्र में 'लोक' से बड़ा कोई नहीं होता। लोक से नाता मजबूत न हो तो, नेता की कोई अहमियत नहीं रह जाती। यदि अमेरिका की जनता आरंभ में ही सरकार के प्रतिबंधात्मक आदेशों की पालन करती तो स्थिति इतनी अधिक जटिल नहीं होती। संभवत: अमेरिका में वर्तमान पीढ़ी ने पहली बार यह देखा कि उसे अपने हित में न केवल प्रतिबंध मानने चाहिए, विश्व हित के साथ भी खड़ा होना चाहिए।
भारत में सर्वार्थ के लिए स्वार्थ का त्याग विरासत और परंपरा दोनों है। प्राचीन भारत में वनवासी राम की पत्नी का हरण होने पर पूरा भारत राम के साथ खड़ा था और रावण को मरकर सीता के वापिस आने तक ही उनके साथ नहीं रहा अपितु राम को इष्ट देव बनाकर अमर कर दिया। असहाय पांडवों के साथ अन्याय होने पर कुरुक्षेत्र में उनकी विजय और बाद तक लोक पांडवों के साथ था। कंस और जरासंध जैसे सबल सत्तधीशों के साथ न अर्हकार लोक समय ग्वाले कृष्ण के साथ था। आधुनिक भारत की बात करें तो धोतीधारी गाँधी और धोतीधारी सुभाष दोनों को लोक ने न केवल सहयोग दिया उनके हर आदेश को शिरोधार्य किया। भारत चीन युद्ध १९६२ के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री नेहरू के आह्वान पर हर नागरिक यहाँ तक की शालेय छात्रों ने भी सुरक्षा कोष में धन दिया। मैं तब प्राथमिक शाला का विद्यार्थी था, हर माह २ पैसे (तब इसका मूल्य आज को ५ रु. से अधिक था) दिया करता था। भारत पाकिस्तान युद्ध के समय शास्त्री जी के आह्वान पर पूरा भारत सोमवार को एक समय उपवास करता था, इतने ही नहीं होटल आदि तक स्वेच्छा से बंद रहते थे। बांगला देश के उदय के समय सुरक्षा कोष के अलावा भारत की जनता ने शरणार्थी डाक टिकिट के माध्यम से अरबों रुपये सरकार को दिए। यह नैतिक बल भारतीय नेताओं की पूंजी रहा है। दुर्भाग्य से इस काल में विविध दलों के नेताओं में कटुता चरम पर होने के नाते जनता जो अधिकांश किसी न किसी दल से जुडी होती है, में सरकार की नीतियों और आदेशों का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है तथापि श्री मोदी के आह्वान पर सभी लोगों और दलों ने नोटबंदी और कोविद बंदी के समय शासनादेशों का पालन कर उनके मस्तक ऊंचा रखा है। राजनीति शास्त्र में उपयोगितावाद (यूटेलिटेरियनिस्म) में जेरेमी बेंथम प्रणीत एक सिद्धांत है 'अधिकतम का अधिकतम सुख' (मक्सिमम गुड़ ऑफ़ मैक्सिमम नंबर)। भारत में इससे आगे 'सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय:' (सभी सुखी हों, सभी निरापद) की नीति मान्य है। इसी का पालन करते हुए भारत को विदेश नागरिकों को बचाने में खतरा उठाने या सीमित संसाधन खर्च करने में संकोच नहीं होता।
स्वर्णावसर
यह स्पष्ट है कि कोविद ने भारतीय दर्शन, भारतीय परंपराओं और भारतीय लोक की श्रेष्ठता पूरे विश्व में स्थापित की है। यह एक स्वर्णावसर है, विश्व नेतृत्व पाने का। यह अवसर है भारतीय कर्मठता, कार्यकुशलता और उत्पादन सामर्थ्य को प्रमाणित करने का किन्तु यह न तो अपने आप होगा, न सरलता से होगा। क्या हम एक देश के नाते, एक समाज के नाते इस स्वर्णावसर का लाभ उठा सकेंगे? यह यक्ष प्रश्न है जो हमें बूझना है।
क्रमश:
२७-४-२०२०
***
तेवरी :
प्यास
*
हुए प्यास से सब बेहाल.
सूखे कुएँ नदी सर ताल..
गौ माता को दिया निकाल.
श्वान रहे गोदी में पाल..
चमक-दमक की चाह जगी.
भुला सादगी की दी चाल..
शंकाएँ लीलें विश्वास.
डँसते नित नातों के व्याल..
कमियाँ दूर करेगा कौन?
बने बहाने ही जब ढाल..
मौन न सुन पाते जो लोग.
वही बजाते देखे गाल..
उत्तर मिलते नहीं 'सलिल'.
अनसुलझे नित नए सवाल..
***
मुक्तिका
*
ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..
जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..
वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..
रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..
दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..
२७-४-२०१०
***

मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

गीत, सॉनेट,मुक्तक,मुक्तिका,छंद प्लवंगम्,हाइकु ,भूकंप नेपाल, नवगीत



सॉनेट 
ओ तू
ओ तू कितना सदय-निठुर है?
बिन माँगे सब कुछ दे देता।
बिना बताए ले भी लेता
अपना-गैर न, कृपा-कहर है।।

मिलकर मिले न, जुदा न होता
सब करते हैं तेरी बातें।
मंदिर-मस्जिद में शह-मातें
फसल काटता, फिर फिर बोता।।

ओ तू क्या है? कभी बता दे?
ओ तू मुझसे मुझे मिला दे।
ओ तू मुझको राह दिखा दे।।

मुझे नचा खुश है क्या ओ तू?
भेज-बुला खुश है क्या ओ तू?
तुझमें मैं, मुझमें क्या ओ तू??
२६-४-२०२२
•••
मुक्तक और मुक्तिका
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
*
हिंदी काव्य में वे समान पदभार के वे छंद जो अपने आप में पूर्ण हों अर्थात जिनका अर्थ उनके पहले या बाद की पंक्तियों से संबद्ध न हो उन्हें मुक्तक छंद कहा गया है। इस अर्थ में दोहा, रोला, सोरठा, उल्लाला, कुण्डलिया, घनाक्षरी, सवैये आदि मुक्तक छंद हैं।
कालांतर में चौपदी या चतुष्पदी (चार पंक्ति की काव्य रचना) को मुक्तक कहने का चलन हो गया। इनके पदान्तता के आधार पर विविध प्रकार हैं। १. चारों पंक्तियों का समान पदांत -
हर संकट को जीत
विहँस गाइए गीत
कभी न कम हो प्रीत
बनिए सच्चे मीत (ग्यारह मात्रिक पद)
२. पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति का समान तुकांत -
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें (तेरह मात्रिक पद)
३. पहली-दूसरी पंक्ति का एक तुकांत, तीसरी-चौथी पंक्ति का भिन्न तुकांत -
चूं-चूं करती है गौरैया
सबको भाती है गौरैया
चुन-चुनकर दाना खाती है
निकट गए तो उड़ जाती है (सोलह मात्रिक)
४. पहली-तीसरी-चौथी पंक्ति का समान तुकांत -
भारत की जयकार करें
दुश्मन की छाती दहले
देश एक स्वीकार करें
ऐक्य भाव साकार करें (चौदह मात्रिक)
५. पहली-दूसरी-तीसरी पंक्ति का समान तुकांत -
भारत माँ के बच्चे
झूठ न बोलें सच्चे
नहीं अकल के कच्चे
बैरी को मारेंगे (बारह मात्रिक)
६. दूसरी, तीसरी, चौथी पंक्ति की समान तुक -
नेता जी आश्वासन फेंक
हर चुनाव में जाते जीत
धोखा देना इनकी रीत
नहीं किसी के हैं ये मीत (पंद्रह मात्रिक)
७. पहली-चौथी पंक्ति की एक तुक दूसरी-तीसरी पंक्ति की दूसरी तुक -
रात रानी खिली
मोगरा हँस दिया
बाग़ में ले दिया
आ चमेली मिली (दस मात्रिक)
८. पहली-तीसरी पंक्ति की एक तुक, दुसरी-चौथी पंक्ति की अन्य तुक -
होली के रंग
कान्हा पे डाल
राधा के संग
गोपियाँ निहाल (नौ मात्रिक)
*
इनमें से दूसरे प्रकार के मुक्तक अधिक लोकप्रिय हुए हैं ।
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें
यह तेरह मात्रिक मुक्तक है।
इसमें तीसरी-चौथी पंक्ति की तरह पंक्तियाँ जोड़ें -
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें
प्रगति देखकर अन्य की
द्वेष अग्नि में मत दहें
पीर पराई बाँट लें
अपनी चुप होकर सहें
याद प्रीत की ह्रदय में
अपने हरदम ही तहें
यह मुक्तिका हो गयी। इस शिल्प की कुछ रचनाओं को ग़ज़ल, गीतिका, सजल, तेवरी आदि भी कहा जाता है।
*
संपर्क ९४२५१८३२४४
***
हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल
'सलिल' संस्कृत सान दे, पूरी बने कमाल
छंद सलिला:
प्लवंगम् छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणारंभ गुरु, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), यति ८-१३।
लक्षण छंद:
प्लवंगम् में / रगण हो सदा अन्त में
आठ - तेरह न / भूलें यति हो अन्त में
आरम्भ करे / गुरु- लय न कभी छोड़िये
जीत लें सभी / मुश्किलें मुँह न मोड़िए
उदाहरण:
१. मुग्ध उषा का / सूरज करे सिंगार है
भाल सिंदूरी / हुआ लाल अंगार है
माँ वसुधा नभ / पिता-ह्रदय बलिहार है
बंधु नाचता / पवन लुटाता प्यार है
२. राधा-राधा / जपते प्रति पल श्याम ज़ू
सीता को उर / धरते प्रति पल राम ज़ू
शंकरजी के / उर में उमा विराजतीं
ब्रम्ह - शारदा / भव सागर से तारतीं
३. दादी -नानी / कथा-कहानी गुमे कहाँ?
नाती-पोतों / बिन बूढ़ा मन रमें कहाँ?
चंदा मामा / गुमा- शेष अब मून है
चैट-ऐप में फँसा बाल-मन सून है
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
२६-४-२०१४
***
नेपाल में भूकंपजनित महाविनाश के पश्चात रचित
हाइकु सलिला:
संजीव
.
सागर माथा
नत हुआ आज फिर
देख विनाश.
.
झुक गया है
गर्वित एवरेस्ट
खोखली नीव
.
मनमानी से
मानव पराजित
मिटे निर्माण
.
अब भी चेतो
न करो छेड़छाड़
प्रकृति संग
.
न काटो वृक्ष
मत खोदो पहाड़
कम हो नाश
.
न हो हताश
करें नव निर्माण
हाथ मिलाएं.
.
पोंछने अश्रु
पीड़ितों के चलिए
न छोड़ें कमी
***
नेपाल में भूकंपीय महाविनाश के पश्चात् रचित
नवगीत:
संजीव
.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
वसुधा मैया भईं कुपित
डोल गईं चट्टानें.
किसमें बूता
धरती कब
काँपेगी अनुमाने?
देख-देख भूडोल
चकित क्यों?
सीखें रहना साथ.
अनसमझा भूकम्प न हो अब
मानवता का काल.
पृथ्वी पर भूचाल
हुए, हो रहे, सदा होएंगे.
हम जीना सीखेंगे या
हो नष्ट बिलख रोएँगे?
जीवन शैली गलत हमारी
करे प्रकृति से बैर.
रहें सुरक्षित पशु-पक्षी, तरु
नहीं हमारी खैर.
जैसी करनी
वैसी भरनी
फूट रहा है माथ.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
टैक्टानिक हलचल को समझें
हटें-मिलें भू-प्लेटें.
ऊर्जा विपुल
मुक्त हो फैले
भवन तोड़, भू मेटें.
रहे लचीला
तरु ना टूटे
अड़ियल भवन चटकता.
नींव न जो
मजबूत रखे
वह जीवन-शैली खोती.
उठी अकेली जो
ऊँची मीनार
भग्न हो रोती.
वन हरिया दें, रुके भूस्खलन
कम हो तभी विनाश।
बंधन हो मजबूत, न ढीले
रहें हमारे पाश.
छूट न पायें
कसकर थामें
'सलिल' हाथ में हाथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
नवगीत:
संजीव
.
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
पर्वत, घाटी या मैदान
सभी जगह मानव हैरान
क्रंदन-रुदन न रुकता है
जागा क्या कोई शैतान?
विधना हमसे क्यों रूठा?
क्या करुणासागर झूठा?
किया भरोसा क्या नाहक
पल भर में ऐसे टूटा?
डँसते सर्पों से सवाल
बार-बार फुँफकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
कभी नहीं मारे भूकंप
कबि नहीं हांरे भूकंप
एक प्राकृतिक घटना है
दोष न स्वीकारे भूकंप
दोषपूर्ण निर्माण किये
मानव ने खुद प्राण दिए
वन काटे, पर्वत खोदे
खुद ही खुद के प्राण लिये
प्रकृति अनुकूल जिओ
मात्र एक उपचार
.
नींव कूटकर खूब भरो
हर कोना मजबूत करो
अलग न कोई भाग रहे
एकरूपता सदा धरो
जड़ मत हो घबराहट से
बिन सोचे ही मत दौड़ो
द्वार-पलंग नीचे छिपकर
राह काल की भी मोड़ो
फैलता अफवाह जो
उसको दो फटकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
बिजली-अग्नि बुझाओ तुरत
मिले चिकित्सा करो जुगत
दीवारों से लग मत सो
रहो खुले में, वरो सुगत
तोड़ो हर कमजोर भवन
मलबा तनिक न रहे अगन
बैठो जा मैदानों में
हिम्मत देने करो जतन
दूर करो सब दूरियाँ
गले लगा दो प्यार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
*
२६-४-२०२१५
हरदोई में मिल गये, हरि हर दोई संग।
रमा उमा ने कर दिया जब दोनों को तंग।।
जब दोनों को तंग, याद तब विधि की आई।
जान बचायें दैव, हमें दें रक्षा का वर।
विधि बोले शारदा पड़ी हैं पीछे हरिहर।।
***

गीत
हे समय के देवता!
*
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
श्वास जब तक चल रही है, आस जब तक पल रही है
अमावस का चीरकर तम,प्राण-बाती जल रही है.
तब तलक रवि-शशि सदृश हम, रौशनी दें तनिक जग को.
ठोकरों से पग न हारें-करें ज्योतित नित्य मग को.
दे सको हारे मनुज को, विजय का अरमान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
नयन में आँसू न आये, हुलसकर हर कंठ गाये.
कंटकों से भरे पथ पर-चरण पग धर भेंट आये.
समर्पण विश्वास निष्ठांसिर उठाकर जी सके अब.
मनुज हँसकर गरल लेकर-शम्भु-शिववत पी सकें अब.
दे सको हर अधर को मुस्कान दो, मधुगान दो तुम..
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
सत्य-शिव को पा सकें हम, गीत सुन्दर गा सकें हम.
सत्-चित्-आनंद घन बन, दर्द-दुःख पर छा सकें हम.
काल का कुछ भय न व्यापे, अभय दो प्रभु!, सब वयों को.
प्रलय में भी जयी हों-संकल्प दो हम मृण्मयों को.
दे सको पुरुषार्थ को परमार्थ की पहचान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
२६-४-२०१०
***

रविवार, 24 अप्रैल 2022

माँ, दोहे,षटपदी,मुक्तिका,मुक्तक,चिंतन, सॉनेट,सावित्री

सॉनेट
सावित्री
सकल सृष्टि सर्जक सावित्री।
शक्तिवान तनया अवतारी।
संजीवित शाश्वत सावित्री।।
परम चेतना नित अविकारी।

सत्यवान रक्षक सावित्री।
असत कालिमा यम-भयहारी।
मुक्त मुक्ति से हो सावित्री।।
लौटे भू पर हो साकारी।।

सत्य राज्य लाती सावित्री।
दैवी ज्योति उजासविहारी।।
समय सनातन सत् सावित्री।
आप निहारक; आप निहारी।।

भोग-भोक्ता शिव सावित्री।
योग-योक्ता चित सावित्री।।
२४-४-२०२२
•••
ॐ 
चिंतन सलिला ५ 
कहाँ? 
• 
कहाँ? 
'कहाँ' का ज्ञान न हो तो 'कहीं भी, कुछ भी' करते रहकर कुछ हासिल नहीं होता और तब करनेवाला शिकायत पुस्तक (कंप्लेंट बुक) बनकर अपने अलावा सब को दोषी मान लेता है।
 
कहाँ का भान और मान तो उस कबीर को भी था जो कहता था 'जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ'। घर फूँकने के पहले 'कहाँ' जाना है, यह जान लेना जरूरी है। 

'कहाँ' जाने बिना घर फूँकने पर 'घर का न घाट का' की हालत और 'माया मिली न राम' का परिणाम ही हाथ लगेगा। 

'कहाँ' का ज्ञान लिया भी जा सकता है, किया भी जा सकता है। 'कहाँ' का ज्ञान किसी दूकान, किसी बाजार में नहीं मिलता। गुरु और जीवनानुभव ही 'कहाँ' का उत्तर दे सकते हैं। 

'कहाँ' से आए, कहाँ हैं और कहाँ जाना है? यह जाने बिना 'पग की किस्मत सिर्फ भटकना' ही हो सकती है। '
कहाँ' तय होने पर ही सामान बाँधकर यात्रा के लिए संसाधन जुटाए और पैर बढ़ाए जाते हैं। 

'कहाँ' का ज्ञान कुदरतन (अपने आप) हर पक्षी को हो जाता है, तभी वह बिना पूछे-बताए सुबह-शाम दो विपरीत दिशाओं में उड़ान भरता है। 

'कहाँ' का ज्ञान मनुष्य को कुदरतन नहीं होता क्योंकि वह कुदरत से दूर हो चुका है, स्वार्थ में फँसकर सर्वार्थ और परमार्थ की रह पर चलना छोड़ चुका है। 

'कहाँ' पाना है?, कहाँ देना है?, कहाँ मिलना है?, कहाँ बिछुड़ना है?, कहाँ बोना है?, कहाँ काटना है? कहाँ पीठ ठोंकना है?, कहाँ डाँटना है? यह तय करते समय याद रखें- 

'आदमी मुसाफ़िर है आता है जाता है। आते-जाते रस्ते में यादें छोड़ जाता है' 

'कहाँ-कैसी' यादें छोड़ रहे हैं हम? 

'कहाँ' की चूक संस्थाओं, कार्यक्रमों और व्यक्तियों की राह में बाधक है, सफल साधक बनने के लिए 'कहाँ' की समझ विकसित करना ही एकमात्र उपाय है। 
२४-४-२०२२ 
संजीव, ९४२५१८३२४४
 •••
मुक्तक
जो मुश्किलों में हँसी-खुशी गीत गाते हैं
वो हारते नहीं; हमेशा जीत जाते हैं
मैं 'सलिल' हूँ; ठहरा नहीं बहता रहा सदा
जो अंजुरी में रहे, लोग रीत जाते हैं.
२४-४-२०२०
***
मुक्तिका
हँस इबादत करो .
मत अदावत करो

मौन बैठो न तुम
कुछ शरारत करो

सो लिये हो बहुत
जग बगावत करो

अब न फेरो नजर
मिल इनायत करो

आज शिकवे सुनो
कल शिकायत करो

छोड़ चलभाष दो
खत किताबत करो

बेहतरी का कदम
हर रवायत करो
२४-४-२०१६
***
एक षटपदी :
*
भारत के गुण गाइए, ध्वजा तिरंगी थाम.
सब जग पर छा जाइये, सब जन एक समान..
सब जन एक समान प्रगति का चक्र चलायें.
दंड थाम उद्दंड शत्रु को पथ पढ़ायें..
बलिदानी केसरिया की जयकार करें शत.
हरियाली सुख, शांति श्वेत, मुस्काए भारत..
२४-४-२०११
***
माँ पर दोहे

माँ गौ भाषा मातृभू, प्रकृति का आभार.
श्वास-श्वास मेरी ऋणी, नमन करूँ शत बार..

भूल मार तज जननि को, मनुज कर रहा पाप.
शाप बना जेवन 'सलिल', दोषी है सुत आप..

दो माओं के पूत से, पाया गीता-ज्ञान.
पाँच जननियाँ कह रहीं, सुत पा-दे वरदान..

रग-रग में जो रक्त है, मैया का उपहार.
है कृतघ्न जो भूलता, अपनी माँ का प्यार..

माँ से, का, के लिए है, 'सलिल' समूचा लोक.
मातृ-चरण बिन पायेगा, कैसे तू आलोक?
२४-४-२०१०
***

शनिवार, 23 अप्रैल 2022

सॉनेट, चिंतन,पुस्तक दिवस,मुक्तिका,लघुकथा,गीत,भोजपुरी, कहावतें

सॉनेट
पृथ्वी दिवस
पृथ्वी दनुजों से थर्रायी
ऐसा हमें अतीत बताता
पृथ्वी अब भी है घबरायी
ऐसा वर्तमान बतलाता

क्या भविष्य बस यही कहेगा
धरती पर रहते थे इन्सां
या भविष्य ही नहीं रहेगा?
होगा एक न करे जो बयां

मात्र 'मैं' सही, शेष गलत हैं
मेरा कहा सभी जन मानें
अहंकार भय क्रोध द्वेष हैं
मूल नाश के कारण जानें

विश्व एक परिवार, एक घर
माने हँसे साध सब मिलकर
२३-४-२०२२
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चिंतन सलिला  ५
कब?
'कब' का महत्व क्या, क्यों, कैसे के क्रम में अन्य किसी से कम नहीं है।

'कब' क्या करना है यह ज्ञात हो तो किये गये का परिणाम मनोनुकूल होता है।

'कब' का महत्व कैकेयनंदिनी कैकशी भली-भाँति जानती थीं। यदि उन्होंने कोप कर वरदान राम राज्याभिषेक के

ठीक पहले न माँगकर किसी अन्य मय माँगे होते तो राम का चरित्र निखर ही न पाता, न ही दनुज राज का अंत नहीं होता।

'कब' न जानने के कारण ही हमारी संस्थाओं के कार्य, कार्यक्रम और निर्णय फलदायी नहीं हैं।

'कब' करना या न करना कैसे जानें?

याद रखें 'अग्रसोची सदा सुखी'। समय से पहले सोच-विचारकर यथासमय किया गया काम ही सुलझाया होता है।

'कब' का सही अनुमान कर वर्षा के पूर्व छत और छाते की मरम्मत, शीत के पहले गर्म कपड़ों की धुलाई और गर्मी के पहले कूलर-पंखों की देखभाल न हो तो परेशानी होगी ही।

'कब' क्या करना या न करना, यह जानना संस्था पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं के लिए बहुत जरूरी है।

यह न जानने के कारण ही संस्थाएँ अप्रासंगिक हो गई हैं और समाज उनसे दूर हो गया है।

संस्थाओं का गठन समाज के मगल और कमजोरों की सहायता के लिए किया जाता है। संस्था से इस उद्देश्य की पूर्ति न हो, वह केवल संपन्न वर्ग के मिलने, मौज करने का माध्यम बन जाए तो समाज उससे दूर हो जाता है।

कब किसके लिए क्या किस प्रकार करना है? यह न सोचा जाए तो संस्था वैयक्तिक यश, लाभ और स्वार्थ का जरिया बनकर मर जाती है।

'कब' की कसौटी पर खुद को और संस्था को कसकर देखिए।
२३-४-२०२२
संजीव, ९४२५१८३२४४

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पुस्तक दिवस (२३ अप्रैल) पर
मुक्तिका
*
मीत मेरी पुस्तकें हैं
प्रीत मेरी पुस्तकें हैं
हार ले ले आ जमाना
जीत मेरी पुस्तकें हैं
साँस लय है; आस रस है
गीत मेरी पुस्तकें हैं
जमातें लाईं मशालें
भीत मेरी पुस्तकें हैं
जग अनीत-कुरीत ले ले
रीत मेरी पुस्तकें हैं
२३-४-२०२०
***
विमर्श : चाहिए या चाहिये?
हिन्दी लेखन में हमेशा स्वरात्मक शब्दों को प्रधानता दी जाती है मतलब हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं।
चाहिए या चाहिये दोनों शब्दों के अर्थ एक ही हैं। लेखन की दृष्टि से कब क्या लिखना चाहिए उसका वर्णन निम्नलिखित है।
चाहिए - स्वरात्मक शब्द है अर्थात बोलने में 'ए' स्वर का प्रयोग हो रहा है। इसलिए लेखन की दृष्टि से चाहिए सही है।
चाहिये - यह श्रुतिमूलक है अर्थात सुनने में ए जैसा ही प्रतीत होता है इसलिए चाहिये लिखना सही नहीं है। क्योंकि हिन्दी भाषा में स्वर आधारित शब्द जिसमें आते हैं, लिखने में वही सही माने जाते हैं।
आए, गए, करिए, सुनिए, ऐसे कई शब्द हैं जिसमें ए का प्रयोग ही सही है।
***
लघुकथा
जाति
*
_ बाबा! जाति क्या होती है?
= क्यों पूछ रही हो?
_ अखबारों और दूरदर्शन पर दलों द्वारा जाति के आधार चुनाव में प्रत्याशी खड़े किए जाने और नेताओं द्वारा जातिवाद को बुरा बताए जाने से भ्रमित पोती ने पूछा।
= बिटिया! तुम्हारे मित्र तुम्हारी तरह पढ़-लिख रहे बच्चे हैं या अनपढ़ और बूढ़े?
_ मैं क्यों अनपढ़ को मित्र बनाऊँगी? पोती तुनककर बोली।
= इसमें क्या बुराई है? किसी अनपढ़ की मित्र बनकर उसे पढ़ने-बढ़ने में मदद करो तो अच्छा ही है लेकिन अभी यह समझ लो कि तुम्हारे मित्रों में एक ही शाला में पढ़ रहे मित्र एक जाति के हुए, तुम्हारे बालमित्र जो अन्यत्र पढ़ रहे हैं अन्य जाति के हुए, तुम्हारे साथ नृत्य सीख रहे मित्र भिन्न जाति के हुए।
_ अरे! यह तो किसी समानता के आधार पर चयनित संवर्ग हुआ। जाति तो जन्म से होती है न?
= एक ही बात है। संस्कृत की 'जा' धातु का अर्थ होता है एक स्थान से अन्य स्थान पर जाना। जो नवजात गर्भ से संसार में जाता है वह जातक, जन्म देनेवाली जच्चा, जन्म देने की क्रिया जातकर्म, जन्म दिया अर्थात जाया....
_ तभी जगजननी दुर्गा का एक नाम जाया है।
= शाबाश! तुम सही समझीं। बुद्ध द्वारा विविध योनियों में जन्म या अवतार लेने की कहानियाँ जातक कथाएँ हैं।
_ यह तो ठीक है लेकिन मैं...
= तुम समान आचार-विचार का पालन कर रहे परिवारों के समूह और उनमें जन्म लेनेवाले बच्चों को जाति कह रही हो। यह भी एक अर्थ है।
_ लेकिन चुनाव के समय ही जाति की बात अधिक क्यों होती है?
= इसलिए कि समान सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों में जुड़ाव होता है तथा वे किसी परिस्थिति में समान व्यवहार करते हैं। चुनाव जीतने के लिए मत संख्या अधिक होना जरूरी है। इसलिए दल अधिक मतदाताओं वाली जाति का उम्मीदवार खड़ा करते हैं।
_ तब तो गुण और योग्यता के कोई अर्थ ही नहीं रहा?
= गुण और योग्यता को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुने जाएँ तो?
_ समझ गई, दल धनबल, बाहुबल और संख्याबल को स्थान पर शिक्षा, योग्यता, सच्चरित्रता और सेवा भावना को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुनें तो ही अच्छे जनप्रतिनिधि, अच्छी सरकार और अच्छी नीतियाँ बनेंगी।
= तुम तो सयानी हो गईं हो बिटिया! अब यह भी देखना कि तुम्हारे मित्रों की भी हो यही जाति।
***
लघुकथा
नोटा
*
वे नोटा के कटु आलोचक हैं। कोई नोटा का चर्चा करे तो वे लड़ने लगते। एकांगी सोच के कारण उन्हें और अन्य राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं के केवल अपनी बात कहने से मतलब था, आते भाषण देते और आगे बढ़ जाते।
मतदाताओं की परेशानी और राय से किसी को कोई मतलब नहीं था। चुनाव के पूर्व ग्रामवासी एकत्र हुए और मतदान के बहिष्कार का निर्णय लिया और एक भी मतदाता घर से नहीं निकला।
दूरदर्शन पर यह समाचार सुन काश, ग्रामवासी नोटा का संवैधानिक अधिकार जानकर प्रयोग करते तो व्यवस्था के प्रति विरोध व्यक्त करने के साथ ही संवैधानिक दायित्व का पालन कर सकते थे।
दलों के वैचारिक बँधुआ मजदूर संवैधानिक प्रतिबद्धता के बाद भी अपने अयोग्य ठहराए जाने के भय से मतदाताओं को नहीं बताना चाहते कि उनका अधिकार है नोटा।
२३-४-२०१९
***
गीत
*
देहरी बैठे दीप लिए दो
तन-मन अकुलाए.
संदेहों की बिजली चमकी,
नैना भर आए.
*
मस्तक तिलक लगाकर भेजा, सीमा पर तुमको.
गए न जाकर भी, साँसों में बसे हुए तुम तो.
प्यासों का क्या, सिसक-सिसककर चुप रह, रो लेंगी.
आसों ने हठ ठाना देहरी-द्वार न छोड़ेंगी.
दीपशिखा स्थिर आलापों सी,
मुखड़ा चमकाए.
मुखड़ा बिना अन्तरा कैसे
कौन गुनगुनाए?
*
मौन व्रती हैं पायल-चूड़ी, ऋषि श्रृंगारी सी.
चित्त वृत्तियाँ आहुति देती, हो अग्यारी सी.
रमा हुआ मन उसी एक में जिस बिन सार नहीं.
दुर्वासा ले आ, शकुंतला का झट प्यार यहीं.
माथे की बिंदी रवि सी
नथ शशि पर बलि जाए.
*
नीरव में आहट की चाहत, मौन अधर पाले.
गजरा ले आ जा निर्मोही, कजरा यश गा ले.
अधर अधर पर धर, न अधर में आशाएँ झूलें.
प्रणय पखेरू भर उड़ान, झट नील गगन छू लें.
ओ मनबसिया! वीर सिपहिया!!
याद बहुत आए.
घर-सरहद पर वामा
यामा कुलदीपक लाए.
२३-४-२०१८
***
कहावत सलिला:
भोजपुरी कहावतें:
*
भोजपुरी कहावतें दी जा रही हैं. पाठकों से अनुरोध है कि अपने-अपने अंचल में प्रचलित लोक भाषाओँ, बोलियों की कहावतें भावार्थ सहित यहाँ दें ताकि अन्य जन उनसे परिचित हो सकें. .
१. पोखरा खनाचे जिन मगर के डेरा.
२. कोढ़िया डरावे थूक से.
३. ढेर जोगी मठ के इजार होले.
४. गरीब के मेहरारू सभ के भौजाई.
५. अँखिया पथरा गइल.
***
मुक्तिका :
*
राजनीति धैर्य निज खोती नहीं.
भावनाओं की फसल बोती नहीं..
*
स्वार्थ के सौदे नगद होते यहाँ.
दोस्ती या दुश्मनी होती नहीं..
*
रुलाती है विरोधी को सियासत
हारकर भी खुद कभी रोती नहीं..
*
सुन्दरी सत्ता की है सबकी प्रिया.
त्याग-सेवा-श्रम का सगोती नहीं..
*
दाग-धब्बों की नहीं है फ़िक्र कुछ.
यह मलिन चादर 'सलिल' धोती नहीं..
२३-४-२०१०
*

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

कृष्ण कला, कृष्ण प्रज्ञा

कृष्ण प्रज्ञा की भाषा नीति

०१.  स्वर-व्यंजन निम्न अनुसार होंगें-
       (अ) स्वर - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अनुस्वार- अं विसर्ग: अ:। 

      (आ ) व्यंजन - क, ख, ग, घ, ङ (क़, ख़, ग़), च, छ, ज, झ, ञ (ज़, झ़), ट, ठ, ड, ढ, ण (ड़, ढ़), त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, (फ़),          य, र, ल, व, श, ष, स, ह। 

      (इ) संयुक्त वर्ण- क्ष, त्र, ज्ञ, श्र, क्र, प्र, ब्र, स्र, ह्र, ख्र आदि। संयुक्त वर्ण (अ) खड़ी पाईवाले व्यंजन - ख्यात, लग्न, विघ्न, कच्चा, छज्जा, नगण्य, कुत्ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास, प्यास, अब्बा, सभ्य, रम्य, अय्याश, उल्लेख, व्यास, श्लोक, राष्ट्रीय, स्वीकृति, यक्ष्मा, त्र्यंबक। (आ) अन्य व्यंजन - संयुक्त, पक्का, दफ्तर, वाङ्मय, लट्टू, बुड्ढा, विद्या, ब्रह्मा,प्रकार, धर्म, श्री, श्रृंगार, विद्वान, चिट्ठी, बुद्धि, विद्या, चंचल, अंक, वृद्ध; द्वैत आदि।

      संस्कृत भाषा के मूल श्लोकों को उद्धृत करते समय मूल अंश में प्रयुक्त वर्ण, संयुक्ताक्षर तथा हिंदी वर्णमाला में जो वर्ण शामिल नहीं हैं, वे यथावत लिखे जाएँ। पाली, ब्राह्मी, प्रकृत, कैथी, शारदा आदि लिपियों के उद्धरण मूल उच्चारण के अनुसार देवनागरी में लिखे जाएँ।     

०२. कृष्ण प्रज्ञा की मुख्य भाषा आधुनिक (खड़ी) हिंदी तथा लिपि देवनागरी है। संस्कृत, भारतीय भाषाओँ-बोलिओं, आंचलिक बोलिओं           तथा विदेशी भाषा-बोलिओं के उद्धरण यथास्थान दिए जा सकते हैं। अहिन्दी भाषाओँ के उद्धरण देते समय मूल उच्चारण देवनागरी            लिपि में तथा हिंदी अर्थ दिया जाना चाहिए। 

०३. लेखक उद्धरणों की शुद्धता तथा प्रामाणिकता हेतु जिम्मेदार होंगे। प्रयुक्त उद्धरणों के संदर्भ आरोही (बढ़ते हुए) क्रम में लेख के अंत में देंगे। पृष्ठ डिजाइनर हर पृष्ठ पर मुद्रित सामग्री संबंधी उद्धरणों के संदर्भ उसी पृष्ठ पर पाद टिप्पणी के रूप में देंगे। 

०४. रचनाओं में तत्सम-तद्भव शब्दों का प्रयोग स्वीकार्य है। 

०५. रचनाओं में केवल यूनिकोड या यूनिकोड समर्थित फॉण्ट का उपयोग करें जिसे कोकिला फॉण्ट में परिवर्तित कर मुद्रित किया जायेगा। 

०६. कृष्णप्रज्ञा में हिंदी संस्करण में देवनागरी अंकों तथा अंग्रेजी संस्करण में अंग्रेजी अंकों का प्रयोग किया जाए। 

०७. हिंदी में पारंपरिक रूप से नुक्ता का प्रयोग नहीं किया जाता है। लेखक अपनी भाषा-शैली में चाहे तो नुक्ता का प्रयोग यथास्थान कर सकता है।   

०८. कारक चिह्न (परसर्ग) - 

(अ) हिंदी के कारक : कर्ता - ने, कर्म - को, करण - से; द्वारा, संप्रदान - को; के लिए, अपादान - से (पृथक होना), संबंध - का; के; की; ना, नी ने, रा, री, रे, अधिकरण - में; पर, संबोधन - हे; अहो, अरे, अजी आदि हैं। 

(आ) संज्ञा शब्दों में कारक प्रतिपादक से अलग लिखें। 

(इ) सर्वनाम शब्दों में करक को प्रतिपादक के साथ मिलाकर लिखें।

(ई) सर्वनाम के साथ दो कारक एक साथ हों तो पहला कारक मिलाकर तथा दूसरा अलग लिखा जाए। सर्वनाम और कारक के बीच निपात हों तो कारक को पृथक लिखें।

०९. संयुक्त क्रिया पद - 

सभी अंगीभूत क्रियाएँ अलग-अलग लिखें। 

१०. योजक चिह्न (हाइफ़न -) - इसका प्रयोग स्पष्टता के लिए किया जाता है। 

(अ) द्वंद्व समास में पदों के बीच में योजक चिह्न हो। उदाहरण :-  शिव-पार्वती, लिखना-पढ़ना आदि। 

(आ) सा, से, सी के पूर्व योजक चिह्न हो। जैसे :- तुम-सा, उस-सी, कलम से आदि। 

(इ) तत्पुरुष समास में योजक चिह्न का प्रयोग केवल वहीं हो जहाँ उसके बिना भ्रम की संभावना हो, अन्यथा नहीं। जैसे भू-तत्व = पृथ्वी तत्व, भूतत्व = भूत होने का भाव या लक्षण आदि। 

(ई) कठिन संधियों से बचने के लिए भी योजक  प्रयोग किया जा सकता है। द्वयक्षर के स्थान पर  द्वि-अक्षर, त्र्यंबक के स्थान पर त्रि-अंबक। इससे अहिन्दीभाषियों के लिए समझना आसान होगा।  

११. अव्यय -

(अ) 'तक', 'साथ' आदि अव्यय हमेशा अलग लिखें। जैसे :-वहाँ तक, उसके साथ। 

(आ) जब अव्यय के आगे परसर्ग (कारक) आए तब भी अव्यय अलग ही लिखा जाए। अब से, सदा के लिए, मुझे जाने तो दो, बीघा भर जमीन, बात भी नहीं बनी आदि। 

(इ) सब पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि समास होने पर सकल पद एक माना जाता है। यथा :- 'दस रूपए मात्र , मात्र कुछ रुपए आदि। 

१२. सम्मानसूचक अव्यय 

(अ) सम्मानात्मक अव्यय पृथक लिखें। यथा :- श्री चित्रगुप्त जी, पूज्य स्वामी विवेकानंद आदि। 

(आ) श्री संज्ञा का भाग हो तो अलग नहीं लिखें।  जैसे :- श्रीगोपाल श्रीवास्तव। 

(इ) सभी पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय जोड़कर लिखें। उदाहरण :- प्रतिदिन, प्रतिशत, नित्यप्रति, मानवमात्र, निमित्तमात्र, यथासमय, यथोचित, यथाशक्ति आदि।        

१३. अनुस्वार (शिरोबिंदु/बिंदी)

(अ)  अनुस्वार व्यंजन है। 

(आ) संस्कृत शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग अन्य वर्णीय वर्णों (य से ह तक) से पहले रहेगा। यथा :- यंत्र, रंचमात्र, लंब, वंश, शंका, संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, संक्षेप, संतोष, हंपी, अंश, कंस, सिंह आदि। 

(इ) संयुक्त वर्ण में पाँचवे अक्षर ('ङ्', ञ्, ण, न, म) के बाद सवर्णीय वर्ण हो तो अनुस्वार का प्रयोग करें। यथा :- कंगाल, खंगार, गंगा, घंटा, चंचु, छंद, जंजाल, झंझट, टंकर, ठंडा, डंडी, तंदूर, थंब, दंश, धंधा, नंद, पंच, फंदा, बंधु, भंते, मंदिर आदि। 

(ई) पाँचवे अक्षर के बाद अन्य वर्ग का वर्ण आए तो पांचवा अक्षर अनुस्वार के रूप में नहीं बदलेगा। जैसे :- वाङ्मय, अन्य, उन्मुख, चिन्मय, जन्मेजय, तन्मय आदि। 

(उ) पाँचवा वर्ण साथ-साथ आए तो अनुस्वार में नहीं बदलेगा। जैसे :- अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि। 

(ऊ) अन्य भाषाओँ (उर्दू, अंग्रेजी आदि) से लिए गए शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को दूर करने के लिए नासिक्य (न, म) व्यंजन पूरा लिखें। जैसे :- लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि। 

१४. अनुनासिक (चंद्रबिंदु) 

(अ) अनुनासिक स्वर का नासिक्य विकार है। यह, व्यंजन नहीं,स्वरों का ध्वनि गुण है। अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में मुँह और नाक से वायु प्रवाह होता है। जैसे :- अँ, आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ आदि।

(आ) अनुस्वार और अनुनासिक के गलत प्रयोग से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। जैसे :- हंस = पक्षी, हँस - क्रिया, आंगन 

(इ) जहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का प्रयोग भ्रम न उत्पन्न करे वहाँ निषेध नहीं है। जैसे :- में, मैं, नहीं, आदि में अनुनासिक के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग। 

१५. विसर्ग 

(अ) तत्सम रूप में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों में विसर्ग का प्रयोग यथास्थान किया जाए। जैसे :- दु:खानुभूति।

(आ) तत्सम शब्दों के अंत में विसर्ग का प्रयोग अवश्य हो। यथा :- अत:. पुन:, स्वत:, प्राय:, मूलत:, अंतत:, क्रमश: आदि। 

(इ) विसर्ग के स्थान पर उसके उच्चरित रूप 'ह' का प्रयोग कतई न किया जाए।  

(ई) दुस्साहस, निस्स्वार्थ तथा निश्शब्द का नहीं, दु:साहस, नि:स्वार्थ तथा नि:शब्द का प्रयोग करें। 

(उ) निस्तेज, निर्वाचन, निश्छल लिखें। नि:तेज, नि:वचन,नि:चल न लिखें। 

(ऊ) अंत:करण, अंत:पुर, दु:स्वप्न, नि:संतान, प्रात:काल विसर्ग सहित ही लिखें। 

(ए) तद्भव / देशी शब्दों में विसर्ग का प्रयोग न करें। छः नहीं छह लिखें। 

(ऐ) प्रायद्वीप, समाप्तप्राय आदि में विसर्ग नहीं है। 

(ओ) विसर्ग को वर्ण के साथ चिपकाकर लिखा जाए जबकि उपविराम (कोलन) चिन्ह शब्द से कुछ दूरी पर हो। अत:, जैसे :- आदि। 

१६. हल् चिह्न ( ् )

(अ) व्यंजन के नीचे लगा हल् चिह्न बताता है कि वह व्यंजन स्वर रहित है। हल् चिह्न लगा शब्द 'हलंत' शब्द है। जैसे :- जगत्। 

(आ) संयुक्ताक्षर बनाने में हल् चिह्न का प्रयोग आवश्यक है। यथा :- बुड्ढा, विद्वान आदि। 

(इ) तत्सम शब्दों का प्रयोग हलन्त रूपों के साथ हो। प्राक्, वाक्, सत्, भगवन्, साक्षात्, जगत्, तेजस्, विद्युत्, राजन् आदि। महान, विद्वान आदि में हल् चिह्न न लगाएँ। 

१७. स्वन परिवर्तन 

संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी ज्यों की त्यों रखें। 'ब्रह्मा' को ब्रम्हा, चिह्न को चिन्ह न लिखें। अर्ध, तत्त्व आदि स्वीकार्य हैं। 

१८. 'ऐ' तथा 'औ' का प्रयोग 

(अ) 'ै' तथा ' ौ' का प्रयोग दो तरह से (अ) मूल स्वरों की तरह - 'है', 'और' आदि में तथा सन्ध्यक्षरों के रूप में 'गवैया', कौवा' आदि में किया जा सकता है। इन्हें 'गवय्या', 'कव्वा' आदि न लिखें। 

(आ) अहिन्दी शब्दों 'अय्यर', 'नय्यर', 'रामय्या' को 'ऐयर', 'नैयर', 'रामैया' न लिखें। 'अव्वल', 'कव्वाली' आदि प्रचलित शब्द यथावत प्रयोग किए जा सकते हैं। 

(अ) संस्कृत शब्द 'शय्या' को 'शैया' या 'शइया' न लिखें। 

१९. पूर्वकालिक कृदंत 

(अ) पूर्वकालिक कृदंत क्रिया से मिलाकर लिखें। जैसे :- आकर, सुलाकर, दिखलाकर आदि। 

(आ) कर + कर = 'करके', करा + कर = 'कराके' होगा।

२०. 'वाला' प्रत्यय 

(अ) क्रिया रूप में अलग लिखें।  जैसे :- करने वाला, बोलने वाला आदि। 

(आ) योजक प्रत्यय के रूप में एक साथ लिखें। यथा :- दिलवाला, टोपीवाला, दूधवाला आदि। 

(इ) निर्देशक शब्द के रूप में 'वाला' अलग से लिखें। जैसे :- अच्छी वाली बात, कल वाली कहानी, यह वाला गीत आदि। 

२१. श्रुतिमूलक 'य', 'व्' 

(अ) विकल्प रूप में प्रयोग न किया जाए। जैसे :- 'किए', 'नई', 'हुआ' आदि के स्थान पर 'किये', 'नयी', 'हुवा' आदि का प्रयोग न करें। 

(आ) जहाँ 'य' शब्द का मूल तत्व हो वहाँ उसे न बदलें। जैसे :- 'स्थायी', 'अव्ययीभाव', 'दायित्व' आदि को 'स्थाई', 'अव्यईभाव', 'दाइत्व' आदि न लिखें। 

अहिन्दी-विदेशी ध्वनियाँ 

(अ) अरबी-फ़ारसी (उर्दू) शब्द - 

(क) हिंदी का अभिन्न अंग बन चुके अरबी-फ़ारसी शब्द बिना नुक्ते के लिखें। जैसे :- 'कलम', 'किला', 'दाग' लिखें, 'क़लम', 'क़िला', 'दाग़' न लिखें। 

(ख) जहाँ शब्द को मूल भाषा के अनुसार लिखना आवश्यक हो वहाँ हिंदी रूप में यथास्थान नुक्ता (बिंदु) लगाएँ। जैसे- 'खाना', 'राज', 'फन' के स्थान पर 'ख़ाना', 'राज़', 'फ़न' आदि लिखें। 

(आ) अंग्रेजी शब्द 

(क) जिन अंग्रेजी शब्दों में अर्ध विवृत 'ओ' ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध हिंदी रूप के लिए 'ा ' (आ की मात्रा) के ऊपर अर्धचंद्र लगाएँ। जैसे :- हॉल, मॉल, चॉल, डॉल, टॉकीज, मॉम आदि। 

(ख) अंग्रेजी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण मूल उच्चारण के अधिक से अधिक निकट हो। 

(इ) अन्य विदेशी भाषाओँ के शब्द 

चीनी, जापानी, जर्मन आदि भाषाओँ के शब्दों को देवनागरी में लिखते समय उनके उच्चारण साम्य पर ध्यान दें। 'बीजिंग' को 'पीकिंग' न लिखें।        

   


         


   


      



             



  

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कृष्ण विद्याएँ - कलाएँ 
भगवान् श्रीकृष्ण की ६४ विद्याएँ एवं कलाएँ निम्न हैं-
१ - गीतं 
२ - वाद्यं 
३ - नृत्यं 
४ - आलेख्यं
५ - विशेषकच्छेद्यं 
६ - तण्डुलकुसुमवलि विकाराः 
७ - पुष्पास्तरणं 
८ दशनवसनागरागः 
९ - मणिभूमिकाकर्म 
१० - शयनरचनं 
११ - उदकवाद्यं 
१२ - उदकाघातः 
१३ - चित्राश्च योगाः 
१४ - माल्यग्रथन विकल्पाः 
१५ - शेखरकापीडयोजनं 
१६ - नेपथ्यप्रयोगाः 
१७ - कर्णपत्त्र भङ्गाः 
१८ - गन्धयुक्तिः 
१९ - भूषणयोजनं 
२० - ऐन्द्रजालाः 
२१ - कौचुमाराश्च 
२२ -  हस्तलाघवं 
२३ - विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया 
२४ - पानकरसरागासवयोजनं 
२५ - सूचीवानकर्माणि 
२६ - सूत्रक्रीडा 
२७ - वीणाडमरुकवाद्यानि 
२८ - प्रहेलिका 
२९ - प्रतिमाला 
३० - दुर्वाचकयोगाः
३१ - पुस्तकवाचनं 
३२ - नाटकाख्यायिकादर्शनं 
३३ - काव्यसमस्यापूरणं 
३४ - पट्टिकावानवेत्रविकल्पाः 
३५ - तक्षकर्माणि 
३६ - तक्षणं 
३७ -  वास्तुविद्या 
३८ - रूप्यपरीक्षा 
३९ - धातुवादः 
४० - मणिरागाकरज्ञानं 
४१ - वृक्षायुर्वेदयोगाः 
४२ - मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः 
४३ - शुकसारिकाप्रलापनं 
४४ - उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलं 
४५ - अक्षरमुष्तिकाकथनम् 
४६ - म्लेच्छितविकल्पा: 
४७ - देशभाषाविज्ञानं 
४८ - पुष्पशकटिका 
४९ - निमित्तज्ञानं 
५० - यन्त्रमातृका
५१ - धारणमातृका 
५२ - सम्पाठ्यं 
५३ - मानसी काव्यक्रिया 
५४ - अभिधानकोशः 
५५ - छन्दोज्ञानं
५६ - क्रियाकल्पः 
५७ - छलितकयोगाः 
५८ - वस्त्रगोपनानि 
५९ - द्यूतविशेषः 
६० - आकर्षक्रीडा 
६१ - बालक्रीडनकानि 
६२ - वैनयिकीनां 
६३ - वैजयिकीनां 
६४ - व्यायामिकीनां 
६५ - विद्यानां ज्ञानं इति चतुःषष्टिरङ्गविद्या. कामसूत्रावयविन्यः. ॥कामसूत्र १.३.१५ ॥
६४ कलाएँ 
१ - नृत्य – नाचना
२ - वाद्य- तरह-तरह के बाजे बजाना
३ - गायन विद्या – गायकी।
४ - नाट्य – तरह-तरह के हाव-भाव व अभिनय
५ - इंद्रजाल- जादूगरी
६ - नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना
७ - सुगंधित चीजें- इत्र, तेल आदि बनाना
८ - फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना
९ - बेताल आदि को वश में रखने की विद्या
१० - बच्चों के खेल
११ - विजय प्राप्त कराने वाली विद्या
१२ - मन्त्रविद्या
१३ - शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना
१४ - रत्नों को अलग-अलग प्रकार के आकारों में काटना
१५ - कई प्रकार के मातृका यन्त्र बनाना
१६ - सांकेतिक भाषा बनाना
१७ - जल को बांधना।
१८ - बेल-बूटे बनाना
१९ - चावल और फूलों से पूजा के उपहार की रचना करना। (देव पूजन या अन्य शुभ मौकों पर कई रंगों से रंगे चावल, जौ आदि चीजों और फूलों को तरह-तरह से सजाना)
२० - फूलों की सेज बनाना।
२१ - तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना – इस कला के जरिए तोता-मैना की तरह बोलना या उनको बोल सिखाए जाते हैं।
२२ - वृक्षों की चिकित्सा
२३ - भेड़, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति
२४ - उच्चाटन की विधि
२५ - घर आदि बनाने की कारीगरी
२६ - गलीचे, दरी आदि बनाना
२७ - बढ़ई की कारीगरी
२८ - पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना यानी आसन, कुर्सी, पलंग आदि को बेंत आदि चीजों से बनाना।
२९ - तरह-तरह खाने की चीजें बनाना यानी कई तरह सब्जी, रस, मीठे पकवान, कड़ी आदि बनाने की कला।
३० - हाथ की फूर्ती के काम
३१ - चाहे जैसा वेष धारण कर लेना
३२ - तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना
३३ - द्यू्त क्रीड़ा
३४ - समस्त छन्दों का ज्ञान
३५ - वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या
३६ - दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण
३७ - कपड़े और गहने बनाना
३८ - हार-माला आदि बनाना
३९ - विचित्र सिद्धियां दिखलाना यानी ऐसे मंत्रों का प्रयोग या फिर जड़ी-बुटियों को मिलाकर ऐसी चीजें या औषधि बनाना जिससे शत्रु कमजोर हो या नुकसान उठाए।
४० - कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना – स्त्रियों की चोटी पर सजाने के लिए गहनों का रूप देकर फूलों को गूंथना।
४१ - कठपुतली बनाना, नाचना
४२ - प्रतिमा आदि बनाना
४३ - पहेलियां बूझना
४४ - सूई का काम यानी कपड़ों की सिलाई, रफू, कसीदाकारी व मोजे, बनियान या कच्छे बुनना।
४५  – बालों की सफाई का कौशल
४६ - मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना
४७ - कई देशों की भाषा का ज्ञान
४८  - मलेच्छ-काव्यों का समझ लेना – ऐसे संकेतों को लिखने व समझने की कला जो उसे जानने वाला ही समझ सके।
४९  - सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा
५०  - सोना-चांदी आदि बना लेना
५१  - मणियों के रंग को पहचानना
५२ - खानों की पहचान
५३ - चित्रकारी
५४ - दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना
५५ - शय्या-रचना
५६ - मणियों की फर्श बनाना यानी घर के फर्श के कुछ हिस्से में मोती, रत्नों से जड़ना।
५७ - कूटनीति
५८ - ग्रंथों को पढ़ाने की चातुराई
५९ - नई-नई बातें निकालना
६० - समस्यापूर्ति करना
६१ - समस्त कोशों का ज्ञान
६२ - मन में कटक रचना करना यानी किसी श्लोक आदि में छूटे पद या चरण को मन से पूरा करना।
६३ -छल से काम निकालना
६४ - कानों के पत्तों की रचना करना यानी शंख, हाथीदांत सहित कई तरह के कान के गहने तैयार करना।
सच तो यह है भगवान श्री कृष्ण परमात्मा है यह ६४ कलाएँ क्या वह तो ईश्वर हैं सम्पूर्ण हैं, सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापी हैं, पालनहारी और बहुत दयालु हैं।

कृष्ण-प्रज्ञा

प्रतिष्ठा में-
माननीय श्री / सुश्री/श्रीमती ....................................................
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कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका के प्रवेशांक को अपने आशीर्वचन से सिंचित कर इसके अंकुरण, पल्लवन में सहायक हों। कृष्ण-राधा भावधारा की वैश्विक पत्रिका कृष्ण प्रज्ञा का प्रवेशांक आपके अमृतमय सचित्र संदेश से समृद्ध होकर सुहृद पाठकों के ह्रदयों में रसानंद का संचार करेगा।  

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 संपादक मंडल