दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
बुधवार, 27 फ़रवरी 2019
एक रचना यमराज मिराज ने
मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019
सुमुखि सवैया
सूत्र: सतजलग = सात जगण + लघु गुरु
वर्णिक मापनी - १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२
*
नहीं घुसपैठ सहे अब देश, करे प्रतिकार न रोक सको
सुनो अब बात नहीं कर घात, झुको इमरान न टोक सको
उड़े कुछ यान नहीं कुछ भान, गिरा बम लौट सके चुपके
नहीं जिद ठान करो मत मान, छुरा अब पीठ न भोक सको
*
नहीं करता हमला यदि भारत, तो न कहो नहिं ताकत है
करे हमला यदि तो न बचो तुम, सत्य सुनो अब शामत है
मिटे अब पाक नहीं कुछ धाक, न साथ दिया चुप चीन रहा-
नहीं सुधरे यदि तो समझो, न भविष्य रहा बस आफत है
*
मिराज उड़े जब भारत के, नभ ने झुक वंदन आप किया
धरा चुप देख रही उड़ते, अभिनंदन चंदन माथ किया
किया जब लेसर वार अचूक, कँपा तब पाक न धैर्य रहा-
मिटे सब बंकर धूल मिले, अभिशाप बना सब पाप किया
*
२६-२-२०१९
संवस, ९४२५१८३२४४
नवगीत थोड़ा है
थोड़ा है
.
बहुत समझ लो
सच, बतलाया
थोड़ा है
.
मार-मार
मनचाहा बुलावा लेते हो.
अजब-गजब
मनचाहा सच कह देते हो.
काम करो,
मत करो, तुम्हारी मर्जी है-
नजराना
हक, छीन-झपट ले लेते हो.
पीर बहुत है
दर्द दिखाया
थोड़ा है
.
सार-सार
गह लेते, थोथा देते हो.
स्वार्थ-सियासत में
हँस नैया खेते हो.
चोर-चोर
मौसेरे भाई संसद में-
खाई पटकनी
लेकिन तनिक न चेते हो.
धैर्य बहुत है
वैर्य दिखाया
थोड़ा है
.
भूमि छीन
तुम इसे सुधार बताते हो.
काला धन
लाने से अब कतराते हो.
आपस में
संतानों के तुम ब्याह करो-
जन-हित को
मिलकर ठेंगा दिखलाते हो.
धक्का तुमको
अभी लगाया
थोड़ा है
*
लेख शिव-शक्ति
हाइकु शिव
संजीव
*
हर-सिंगार
शशि भभूत नाग
रूप अपार
*
रूप को देख
धूप ठिठक गयी
छवि है नयी
*
झूम नाचता
कंठ लिपटा सर्प
फुंफकारता
*
अर्धोन्मीलित
बाँके तीन नयन
करें मोहित
*
भंग-भवानी
जटा-जूट श्रृंगार
शोभा अपार
*
शिव भजन
संजीव
.
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
नवगीत
संजीव
.
उम्र भर
अक्सर रुलातीं
हसरतें.
.
इल्म की
लाठी सहारा
हो अगर
राह से
भटका न पातीं
गफलतें.
.
कम नहीं
होतीं कभी
दुश्वारियाँ.
हौसलों
की कम न होतीं
हरकतें.
नेकनियती
हो सुबह से
सुबह तक.
अता करता
है तभी वह
बरकतें
२५.२.२०१५
*
फागुन की फागें
भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
.
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसे कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूंघट की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे
नोंकदार बरछी से पैंने, चलत करेजे फोरन
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं सांस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे
*
नवगीत
संजीव
.
हमने
बोये थे गुलाब
क्यों
नागफनी उग आयी?
.
दूध पिलाकर
जिनको पाला
बन विषधर
डँसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था
वे पत्त्थर
धँसते हैं.
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं.
जिनको
जनसेवा
करना था,
वे मेवा
फँकते हैं.
सपने
बोने थे जनाब
पर
नींद कहो कब आयी?
.
सूत कातकर
हमने पायी
आज़ादी
दावा है.
जनगण
का हित मिल
साधेंगे
झूठा हर
वादा है.
वीर शहीदों
को भूले
धन-सत्ता नित
भजते हैं.
जिनको
देश नया
गढ़ना था,
वे निज घर
भरते हैं.
जनता
ने पूछा हिसाब
क्यों
तुमने आँख चुरायी?
.
हैं बलिदानों
के वारिस ये
जमी जमीं
पर नजरें.
गिरवी
रखें छीन
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें.
कमल कर रहा
चीर हरण
खेती कुररी
सी बिलखे.
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं.
गढ़ ही
दे इतिहास नया
अब
‘आप’ न हो रुसवाई.
२६.२.२०१५
*
लेख ईसुरी की फागें
.
बुंदेलखंड के महानतम लोककवि ईसुरी के काव्य में लोकजीवन के सांस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक पक्ष पूरी जीवन्तता और रचनात्मकता के साथ उद्घाटित हुए हैं। ईसुरी का वैशिष्ट्य यह है कि वे तथाकथित संभ्रांतता या पांडित्य से कथ्य, भाषा, शैली आदि उधार नहीं लेते। वे देशज ग्रामीण लोक मूल्यों और परम्पराओं को इतनी स्वाभाविकता, प्रगाढ़ता और अपनत्व से अंकित करते हैं कि उसके सम्मुख शिष्टता-शालीनता ओढ़ती सृजनधारा विपन्न प्रतीत होने लगती है। उनका साहित्य पुस्तकाकार रूप में नहीं श्रुति परंपरा में सुन-गाकर सदियों तक जीवित रखा गया। बुंदेलखंड के जन-मन सम्राट महान लोककवि ईसुरी की फागें वाचिक (गेय) परंपरा के कारण लोक-स्मृति और लोक-मुख में जीवित रहीं। संकलनकर्ता कुँवर श्री दुर्ग सिंह ने १९३१ से १९४१ के मध्य इनका संकलन किया। श्री इलाशंकर गुहा ने धौर्रा ग्राम (जहाँ ईसुरी लंबे समय रहे थे) निवासियों से सुनकर फागों का संकलन किया। अपेक्षाकृत कम प्रचलित निम्न फागों में ईसुरी के नैसर्गिक कारयित्री प्रतिभा के साथ-साथ बुंदेली लोक परंपरा हास्य एवं श्रृंगारप्रियता के भी दर्शन होते हैं:
अपनी कृस्न जीभ सें चाटी, वृंदावन की माटी
दुरलभ भई मिली ना उनखों, देई देवतन डाटी
मिल ना सकी अनेकन हारे, पावे की परिपाटी
पायो स्वाग काहू ने नइयाँ, मीठी है की खाटी
बाही रज बृजबासिन ‘ईसुर’, हिसदारी में बाटी
आली! मनमोहन के मारें, जमुना गेल बिसारें
जब देखो जब खड़ो कुञ्ज में, गहें कदम की डारें
जो कोउ भूल जात है रस्ता, बरबस आन बिगारें
जादा हँसी नहीं काऊ सें, जा ना रीत हमारें
‘ईसुर’ कौन चाल अब चलिए, जे तौ पूरी पारें
ओइ घर जाब मुरलियाबारे!, जहाँ रात रये प्यारे
हेरें बाट मुनइयां बैठीं, करें नैन रतनारे
अब तौ कौनऊँ काम तुमारो, नइयाँ भवन हमारे
‘ईसुर’ कृष्ण नंद के छौना, तुम छलिया बृजबारे
खेलें फाग राधिका प्यारी, बृज खोरन गिरधारी
इन भर बाहू बाँस को टारो, उन मारो पिचकारी
इननें छीनीं लकुटि मुरलिया, उन छीनी सिर सारी
बे तो आंय नंद के लाला, जे बृषभान दुलारी
अपुन बनी नटनागर ‘ईसुर’, उनें बनाओ नारी
चोरी गइ बीन बिहारी की, जसुदा के लाल अनारी की
जामिन अमल जुगल के भीतर, आवन भइ राधा प्यारी की
नूपुर सबद सनाके खिंच रये, छिड़िया चड़त अटारी की
बड़ी गुलाम सेज फूलन की लग गइ नींद मुरारी की
कात ‘ईसुरी’ घोरा पै सें, उठा लई बनवारी की
पकरे गोपिन के मनभावन, लागी नार बनावन
छीन लई बनमाल मुरलिया, सारी सीस उड़ावन
सकल अभूषन सजे राधिका, कटि लँहगा पहरावन
नारी भेस बना के ‘ईसुर’, फगुआ लगी मगावन
नैना ना मारो लग जैहें, मरम पार हो जैहें
बखतर झिलम कहा का लैहें, ढाल पार कर जैहें
औषद मूर एक ना लगहै, बैद गुनी का कैहें
कात ‘ईसुरी’ सुन लो प्यारी, दरस दबाई दैहें
नैना परदेसी सें लग कें, भये बरबाद बिगरकें
नैना मोरे सूर सिपाही, कबऊँ ना हारे लरकें
जे नैना बारे सें पाले, काजर रेखें भरकें
‘ईसुर’ भींज गई नई सारी, खोवन अँसुआ ढरकें
बिछुरी सारस कैसी जोरी, रजो हमारी तोरी
संगे-संग रहे निसि-बासर, गरें लिपटती सोरी
सो हो गई सपने की बातें, अन हँस बोले कोरी
कछू दिनन को तिया अबादो, हमें बता दो गोरी
जबलो लागी रहै ‘ईसुरी’, आसा जी की मोरी
कुंडली पूर्णिमा बर्मन संजीव सलिल
वासंती कुंडली
दोहा: पूर्णिमा बर्मन
रोला: संजीव वर्मा
*
वसंत-१
ऐसी दौड़ी फगुनहट, ढाँणी-चौक फलाँग।
फागुन झूमे खेत में, मानो पी ली भाँग।।
मानो पी ली भाँग, न सरसों कहना माने।
गए पड़ोसी जान, बचपना है जिद ठाने।।
केश लताएँ झूम लगें नागिन के जैसी।
ढाँणी-चौक फलाँग, फगुनहट दौड़ी ऐसी।।
*
वसंत -२
बौर सज गये आँगना, कोयल चढ़ी अटार।
चंग द्वार दे दादरा, मौसम हुआ बहार।।
मौसम हुआ बहार, थाप सुन नाचे पायल।
वाह-वाह कर उठा, हृदय डफली का घायल।।
सपने देखे मूँद नयन, सर मौर बंध गये।
कोयल चढ़ी अटार, आँगना बौर सज गये।
*
वसंत-३
दूब फूल की गुदगुदी, बतरस चढ़ी मिठास।
मुलके दादी भामरी, मौसम को है आस।।
मौसम को है आस, प्यास का त्रास अकथ है।
मधुमाखी हैरान, लली सी कली थकित है।।
कहे 'सलिल' पूर्णिमा, रात हर घड़ी मिलन की।
कथा कही कब जाए, गुदगुदी डूब-फूल की।।
*
दोहा सलिला
सबसे आगे सकेगा, देश हमारा दीख
*
लोकतंत्र में जब न हो, आपस में संवाद
तब बरबस आते हमें, गाँधी जी ही याद
*
क्या गाँधी के पूर्व था, क्या गाँधी के बाद?
आओ! हम आकलन करें, समय न कर बर्बाद
*
आम आदमी सम जिए, पर छू पाए व्योम
हम भी गाँधी को समझ, अब हो पाएँ ओम
*
कहें अतिथि की शान में, जब मन से कुछ बात
दोहा बनता तुरत ही, बिना बात हो बात
*
समय नहीं रुकता कभी, चले समय के साथ
दोहा साक्षी समय का, रखे उठाकर माथ
*
दोहा दुनिया का सतत, होता है विस्तार
जितना गहरे उतरते, पाते थाह अपार
*
मुक्तिका
*
छप्पन इंची छाती की जय
वादा कर, जुमला कह निर्भय
*
आम आदमी पर कर लादो
सेठों को कर्जे दो अक्षय
*
उन्हें सिर्फ सत्ता से मतलब
मौन रहो मत पूछो आशय
*
शाकाहारी बीफ, एग खा
तिलक लगा कह बाकी निर्दय
*
नूराकुश्ती हो संसद में
स्वार्थ करें पहले मिलकर तय
*
न्यायालय बैठे भुजंग भी
गरल पिलाते कहते हैं पय
*
कविता सँग मत रेप करो रे!
सीखो छंद, जान गति-यति, लय
***
२६-२-२०१८
समीक्षा: यादें बनीं लिबास
[कृति विवरण: यादें बनीं लिबास, दोहा संग्रह, डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', प्रथम संकरण, २०१७, आई.एस.बी.एन. ९७८-८१-७६६७-३४६-४, पृष्ठ १०४ मूल्य २००/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, आकर २१ सेमी x १४ सेमी,भावना प्रकाशन, १०९-ए पटपड़गंज दिल्ली ११००९२, दूरभाष ९३१२८६९९४७, दोहाकार संपर्क ११२ सराफा, मोतीलाल नेहरू वार्ड, निकट कोतवाली जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २६५२०२७, ९३००१२१७०२] सामान्यत: प्रकृति के समर्पण की गाथा कवी लिखते आये हैं किन्तु सत्य यह भी है समर्पण तो पुरुष भी करता है। इस सत्य की प्रतीति और अभिव्यक्ति सुमित्र ही कर सकता है, स्वामी नहीं-
कृति में श्रृंगार का इंद्रधनुष विविध रंगों और छटाओं का सौंदर्य बिखरता है। संयोग (रूप ज्योति की दिव्यता) तथा वियोग (तुम बिन दिन पतझर लगें, यादें बनीं लिबास) बिना देखे दिख जाने की तरह सुलभ है।
निर्गुण श्रृंगार को कबीरी फकीरी के बिना जीना दुष्कर है किंतु सुमित्र जी सांसारिकता का निर्वाह करते हुए भी निर्गुण को सगुण में पा सके हैं-
शिक्षक (टीचर नहीं) रहकर बरसों सिखाने के पूर्व सीखने की नर्मदा में बार-बार डुबकी लगा चुके कवि का शब्द-भंडार समृद्ध होना स्वाभाविक है। वह संस्कृत निष्ठ शब्दों( उच्चार, विन्यास, मकरंद, कुंतल, सुफलित, ऊर्ध्वमुख, तन्मयता, अध्यादेश, जलजात, मनसिज, अवदान, उत्पात, मुक्माताल, शैयाशायी, कल्याणिका, द्युतिमान, विन्यास, तिष्यरक्षिता, निर्झरी, उत्कटता आदि) के साथ देशज शब्दों (गैल, अरगनी, कथरी, मजूर, उजास, दहलान, कुलाँच, कातिक, दरस-परस, तिरती, सँझवाती, अँकवार आदि) का प्रयोग पूरी सहजता के साथ करता है। यही नहीं आंग्ल शब्दों (वैलेंटाइन, स्वेटर, सीट, कूलर, कोर्स, मोबाइल, टाइमपास, इंटरनेटी आदि) यथा स्थान सही अर्थों में प्रयोग करते हुए भी उससे चूक नहीं होती। कवि का पत्रकार समाज में प्रचलित अन्य भाषाओँ के शब्द संपदा से सुपरचित होने के नाते उन्हें पूरी उदारता के साथ यथावसर प्रयोग करता है।अरबी (मतलब, इबादत, तासीर, तकदीर, सवाल, गायब, किताब, कंदील, मियाद, ख़याल, इत्र, फरोश, गलतफहमी, उम्र, करीब, सलीब, नज़ीर, सफर, शरीर, जिला आदि), फ़ारसी (आवाज़, ज़िंदगी, ख्वाब, जागीर, बदर) शब्दों को प्रयोग करने में भी कवि को कोई हिचक नहीं है। अरबी 'जिला' और फ़ारसी 'बदर' को मिलाकर 'जिलाबदर', उम्र (अरबी) और दराज (फारसी) का प्रयोग करने में भी कवि कोताही नहीं करता। स्पष्ट है कि कवि खैरात की उस भाषा का उपयोग कर रहा है जिसे आधुनिक हिंदी कहा जाता है, वह भाषिक शुद्धता के नाम पर भाषिक साम्प्रदायिकता का पक्षधर नहीं है। यहाँ उल्लेखनीय है कि आंग्ल शब्द 'लेन्टर्न' का हिंदीकृत रूप 'लालटेन' भी कवि को स्वीकार है।
सभंग मुख यमक (कहनी अनकहनी सुनी, भरते रहे हुंकार ) तथा अभंग गर्भ यमक (बालों में हैं अंगुलियाँ, अधर अधर के पास) दृष्टव्य हैं।
उपमा के १६ प्रकारों में से कुछ की झलक देखें- धर्म लुप्तोपमा (नयन तुम्हारे वेद सम), उपमेय लुप्तोपमा (हिरन सरीखी याद है, चौपाई सी चारुता), धर्मोपमेय लुप्तोपमा (अनुप्रास सी नासिका, उत्प्रेक्षा सी छवि-छटा, अक्षर से लगते अधर, मन महुआ सा हो गया)।
सपने बोये खेत में, दी आँसू की खाद।
जब लहराती है फसल, तुम आते हो याद।।
रूपक की छवि मत्तगयंदी चाल लख, काया रस-आगार आदि में है।
कुंतल मानो काव्य घन में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
संदेह अलंकार जाग रही है आँख या जाग रही है पीर, मुख सरोज या चन्द्रमा में है।
कवि ने शब्द युग्मों (रंग-बिरंग, भाषा-भूषा, नदी-नाव, ऊंचे-नीचे, दरस-परस, तन-मन, हर्ष-विषाद, रात-दिन, किसने-कब-कैसे आदि) का प्रयोग कुशलता से लिया है।
इन दोहों में शब्दावृत्ति (धीरे-धीरे कह गई, प्यार प्यार बस प्यार, देख-देखकर विकलता, आँखों-आँखों दे दिया, अभी-अभी जो था यहाँ, अभी-अभी है दूर, सच्ची-सच्ची बताओ, महक-महक मेंहदी कहे, मह-मह करता प्यार, खन-खन करती चूड़ियाँ, उखड़ी-उखड़ी साँस, सुंदर-सुंदर दृश्य हैं, सुंदर-सुंदर लोग, सर-सर चलती पवनिया, फर-फर उड़ते केश, घाटी-घाटी गूँजती, उजली-उजली धूप, रात-रात भर जागता, कभी-कभी ऐसा लगे, सूना-सूना घर मगर, मन-ही-मन, युगों-युगों की प्यास, अश्रु-अश्रु में फर्क है आदि) माधुर्य और लालित्य वृद्धि करती है।
अपवाद स्वरुप पदांत दोष भी है। ऐसा लगता नवोदितों के लिए काव्य दोषों के उदाहरण रखे गए हैं। इन्हें काव्य दोष शीर्षक के अंतर्गत रखा जाता तो उपयोगी होता।
ओर-छोर मन का नहीं, छोटा है आकाश।
लघुतम निर्मल रूप है, जैसे किरन उजास।।
संशय प्रिय करना नहीं, अर्पित जीवन पुण्य।
जनम-जनम तक प्रीती यह, बनी रहे अक्षुण्य।।
मन का विद्यापीठ में लिंग दोष, अक्षुण्य (अक्षुण्ण), रूचता (रुचता) अदि में टंकण दोष है।
सुमित्रजी ने कई दोहों में कवियों का स्मरण स्थान-स्थान पर इस तरह किया है कि वह मूल कथ्य के साथ संगुफित होकर समरस हो गया है, आरोपित नहीं प्रतीत होता-
पारिजात विद्योत्तमा, कालिदास वनगन्ध।
हो दोनों का मिलन जब मिटे द्वैत की धुंध।।
मान सरोवर जिंदगी मन हो गया मराल।
पलक पुलिन अश्रुज तुहिन, पुतली पंकज भान।
नयन सरोवर में बसें, साधें सलिल समान।।
खुसरो ने दोहे कहे, कहे कबीर कमाल।
फिर तुलसी ने खोल दी, दोहों की टकसाल।।
गंग वृन्द दादू वली, या रहीम मतिमान।
दोहों के रसलीन से कितने हुए इमाम।।
किन्तु बिहारी की छटा, घटा न पाया एक।।
तुलसी सूर कबीर के, अश्रु बने इतिहास।
कौन कहे मीरा कथा, आँसू का उपवास।।
घनानंद का अश्रुधान, अर्पित कृष्ण सुजान।
उसी अहज़रु की धार में, डूबे थे रसखान।।
आँसू डूबी साँस से, रचित ईसुरी फाग।
रजऊ ब्रम्ह थी जीव थी, ऐसा था अनुराग।।
विद्यापति का अश्रुदल, खिला गीत अरविन्द।।
सारत: 'यादें बनी लिबास' सुमित्र जी के मानस पटल पर विचरते विचार-परिंदों के कलरव का गुंजन है जो दोहा की लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, नव्यता, माधुर्य तथा संप्रेषणीयता के पंचतत्वों का सम्यक सम्मिश्रण कर काव्यानंद की प्रतीति कराती है। पठनीय, मननीय तथा संग्रहणीय कृति से हिंदी के सारस्वत कोष की अभिवृद्धि हुई है।
नवगीत: गुरु जी हैं लघुकथा
नवगीत
*
गुरु जी हैं लघुकथा
चेले जी उपन्यास
*
काया लघु
छाया का शतगुण विस्तार
कौन कहे
कल्पना का क्या आकार
सच से बच
गढ़ रहे कैसा संसार?
रास रचा
बोल रहे यह है सन्यास
गुरु जी हैं लघुकथा
चेले जी उपन्यास
*
पाने की
आशा में; खोते हैं प्राप्त
झूठे दुख
ओढ़ लिखें; रचनाएँ शाप्त
आलोचक
आपन मुँह; कहे हमीं आप्त
कांता से कांत भीत
भोगें संत्रास
गुरूजी हैं लघुकथा
चेले जी उपन्यास
*
स्यापा कर
झूठमूठ; कहते युग-सत्य
कथ्य गौड़
कहन मुख्य; करते दुष्कृत्य
पैसे द्
माँग-माँग मानित हों नित्य
शूर्पणखा
गर्वित कर; मोहक विन्यास
गुरु जी हैं लघुकथा
चेले जी उपन्यास
***
संवस
२६-२-२०१९
सोमवार, 25 फ़रवरी 2019
रचना आमंत्रण
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रचना भेजते वक़्त इसका ख्याल अवश्य रखे -
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प्रथम अंक का लोकार्पण अप्रैल, 2019 में किया जाएगा। यह पत्रिका प्रिंट और ईबुक दोनों रूपों में प्रकाशित होगी।
यह पत्रिका अमेज़न और गूगल के अतिरिक्त विभिन्न महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय डिजिटल लाईब्रेरियों में भी उपलब्ध रहेगी।
त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका सरस्वती मञ्जूषा के प्रथम अंक हेतु निम्नलिखित विधाओं में रचनाएँ आमंत्रित हैं:
1 साक्षात्कार 2 समसामयिक एवं साहित्यिक विषयों पर आलेख 3 संस्मरण 4 पुस्तक समीक्षा 5 काव्य 6 कहानी
7 लघुकथा 8 बाल कविताएँ एवं कहानियाँ 9 अनुवादित साहित्य 10 हाशिये से (हाशिये पर खड़े मुख्यधारा के लेखक अथवा रचनाएँ) 11 देवनागरी में लिखी जाने वाली अन्य भाषाओं की रचनाएं (जैसे मैथिली, भोजपुरी इत्यादि)
12 साहित्यिक गतिविधियाँ
यदि इस सूची से इतर भी आपके पास कुछ है, तो उसका भी स्वागत है। यदि आप भी वर्जिन साहित्यपीठ के अभियान में कदम से कदम मिलाकर चलना चाहते हैं तो आज ही सम्पर्क कीजिए।
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वर्जिन साहित्यपीठ
9971275250
