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सोमवार, 22 सितंबर 2025

सितंबर २२, दोहा, गाँधी, स्वर्ण चम्पा, सीता-राम, गीत, मुक्तक, श्रम-बुद्धि, बेटियाँ, हास्य, चना जोर गरम

सलिल सृजन सितंबर २२
स्वर्ण चम्पा
स्वर्ण चम्पा से सुवासित बाग 
सोनपरियाँ झुलसतीं ले आग 
० 
ज्योत्सना आकर रही है छेड़
जगाती है संत में अनुराग 
० 
फागुनी हैं हवाएँ मदमस्त
रंग ले आईं लगाएँ दाग 
० 
उषा किरणें लिपटतीं ले मोह
जलन से काला हुआ है काग 
० 
शीत छेदे बदन, मारे तीर  
सिहरता ज्यों डँस रहा हो नाग
० 
दामिनी हो कामिनी गिरती
बिन दिए कंधा रही है दाग 
० 
कर 'सलिल' में  स्नान हो शीतल      
नर्मदा को नमन कर झट जाग 
२२.९.२०२५
***
आव्हान गीत 
जागो माँ
*
जागो माँ! जागो माँ!!
*
सीमा पर अरिदल ने भारत को घेरा है
सत्ता पर स्वार्थों ने जमा लिया डेरा है
जनमत की अनदेखी, चिंतन पर पहरा है
भक्तों ने गाली का पढ़ लिया ककहरा है
सैनिक का खून अब न बहे मौन त्यागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
जनगण है दीन-हीन, रोटी के लाले हैं
चिड़ियों की रखवाली, बाज मिल सम्हाले हैं
नेता के वसन श्वेत, अंतर्मन काले हैं
सेठों के स्वार्थ भ्रष्ट तंत्र के हवाले हैं
रिश्वत-मँहगाई पर ब्रम्ह अस्त्र दागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
जन जैसे प्रतिनिधि को औसत ही वेतन हो
मेहनत का मोल मिले, खुश मजूर का मन हो
नेता-अफसर सुत के हाथों में भी गन हो
मेहनत कर सेठ पले, जन नायक सज्जन हो
राजनीति नैतिकता एक साथ पागो माँ
*
सीमा पर अरिदल ने भारत को घेरा है
सत्ता पर स्वार्थों ने जमा लिया डेरा है
जनमत की अनदेखी, चिंतन पर पहरा है
भक्तों ने गाली का पढ़ लिया ककहरा है
सैनिक का खून अब न बहे मौन त्यागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
दोहा सलिला:
गाँधी के इस देश में...
संजीव 'सलिल'
गाँधी के इस देश में, गाँधी की जयकार.
सत्ता पकड़े गोडसे, रोज कर रहा यार..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की सरकार.
हाय गोडसे बन गया, है उसका सरदार..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की है मौत.
सत्य अहिंसा सिसकती, हुआ स्वदेशी फौत..
गाँधी के इस देश में, हिंसा की जय बोल.
बाहुबली नेता बने, जन को धन से तोल..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की दरकार.
सिर्फ डाकुओं को रही, शेष कहें बेकार..
गाँधी के इस देश में, हुआ तमाशा खूब.
गाँधीवादी पी सुरा, राग अलापें खूब..
गाँधी के इस देश में, डंडे का है जोर.
खेल रहे हैं डांडिया, विहँस पुलिसिए-चोर..
गाँधी के इस देश में, अंग्रेजी का दौर.
किसको है फुर्सत करे, हिन्दी पर कुछ गौर..
गाँधी के इस देश में, बोझ हुआ कानून.
न्यायालय में हो रहा, नित्य सत्य का खून..
गाँधी के इस देश में, धनी-दरिद्र समान.
उनकी फैशन ये विवश, देह हुई दूकान..
गाँधी के इस देश में, 'सलिल 'न कुछ भी ठीक.
दुनिया का बाज़ार है, देश तोड़कर लीक..
*
नवगीत:
*
गाँधी को मारा
आरोप
गाँधी को भूले
आक्रोश
भूल सुधारी
गर वंदन कर
गाँधी को छीना
प्रतिरोध
गाँधी नहीं बपौती
मानो
गाँधी सद्विचार
सच जानो
बाँधो मत सीमा में
गाँधी
गाँधी परिवर्तन की
आँधी
स्वार्थ साधते रहे
अबोध
गाँधी की मत
नकल उतारो
गाँधी को मत
पूज बिसारो
गाँधी बैठे मन
मंदिर में
तन से गाँधी को
मनुहारो
कर्म करो सत
है अनुरोध
***
हास्य रचना:
सीता-राम
*
लालू से
कालू मिला,
खुश हो किया सलाम।
बोला-
"जोड़ी जँच रही
जैसे सीता-राम।
लालू बोला-
सच?
न क्यों, रावण हरता बोल?
समा न लेती भू कहो,
क्यों लाकर भूडोल??
२२.९.२०१८
***
एक गीत,
*
अनसुनी रही अब तक पुकार
मन-प्राण रहे जिसको गुहार
वह आकर भी क्यों आ न सका?
जो नहीं सका पल भर बिसार
*
वह बाहर हो तब तो आए
मनबसिया भरमा पछताए
जो खुद परवश ही रहता है
वह कैसे निज सुर में गाए?
*
जब झुका दृष्टि मन में देखा
तब उसको नयनों ने लेखा
जग समझ रहा हम रोये हैं
सुधियाँ फैलीं कज्जल-रेखा
*
बिन बोले वह क्या बोल गया
प्राणों में मिसरी घोल गया
मैं रही रोकती लेकिन मन
पल भर न रुका झट डोल गया
*
जिसको जो कहना है कह ले
खुश हो यो गुपचुप छिप दह ले
बासंती पवन झकोरा आ
मेरी सुधियाँ गह ले, तह ले
*
कर वाह न भरना अरे! आह
मन की ले पाया कौन थाह?
जो गले मिले, भुज पाश बाँध
उनके उर में ही पली डाह
*
जो बने भक्त गह चरण कभी
कर रहे भस्म दे शाप अभी
वाणी में नहीं प्रभाव बचा
सर पीट रहे निज हाथ तभी
*
मन मीरा सा, तन राधा सा,
किसने किसको कब साधा सा?
कह कौन सकेगा करुण कथा
किसने किसको आराधा सा
*
मिट गया द्वैत, अंतर न रहा
अंतर में जो मंतर न रहा
नयनों ने पुनि मन को रोका
मत बोल की प्रत्यंतर न रहा
***
मुक्तक
खुद जलकर भी सदा उजाला ज्योति जगत को देती है
जीत निराशा तरणि नित्य नव आशा की वह खेती है
रश्मि बिम्ब से सलिल-लहर भी ज्योतिमयी हो जाती है
निबिड़ तिमिर में हँस ऊषा का बीज वपन कर आती है
*
हम चाहें तो सरकारों के किरदारों को झुकना होगा
हम चाहें तो आतंकों को पीठ दिखाकर मुडना होगा
कहे कारगिल हार न हिम्मत, टकरा जाना तूफानों से-
गोरखनाथ पुकार रहे हैं,अब दुश्मन को डरना होगा
*
मजा आता न गर तो कल्पना करता नहीं कोई
मजा आता न गर तो जगत में जीता नहीं कोई
मजे में कट गयी जो शुक्रिया उसका करों यारों-
मजा आता नहीं तो मौन हो मरता नहीं कोई
*
करो मत द्वंद, काटो फंद, रचकर छंद पल-पल में
न जो मति मंद, ले आनंद, सुनकर छंद पल-पल में
रसिक मन डूबकर रस में, बजाता बाँसुरी जब-जब
बने तन राधिका, सँग श्वास गोपी नाचें पल-पल में
*
पता है लापता जिसका उसे सब खोजते हैं क्यों?
खिली कलियाँ सवेरे बाग़ में जा नोचते हैं क्यों?
चढ़ें मन्दिर में जाती सूख, खुश हो देवता कैसे?
कहो तो हाथ को अपने नहीं तुम रोकते हो क्यों?
***
एक गीत
बातें हों अब खरी-खरी
*
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
जो न बात से बात मानता
लातें तबियत करें हरी
*
पाक करे नापाक हरकतें
बार-बार मत चेताओ
दहशतगर्दों को घर में घुस
मार-मार अब दफनाओ
लंका से आतंक मिटाया
राघव ने यह याद रहे
काश्मीर को बचा-मिलाया
भारत में, इतिहास कहे
बांगला देश बनाया हमने
मत भूले रावलपिडी
कीलर-सेखों की बहादुरी
देख सरहदें थीं सिहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
करगिल से पिटकर भागे थे
भूल गए क्या लतखोरों?
सेंध लगा छिपकर घुसते हो
क्यों न लजाते हो चोरों?
पाले साँप, डँस रहे तुझको
आजा शरण बचा लेंगे
ज़हर उतार अजदहे से भी
तेरी कसम बचा लेंगे
है भारत का अंग एक तू
दुहराएगा फिर इतिहास
फिर बलूच-पख्तून बिरादर
के होंठों पर होगा हास
'जिए सिंध' के नारे खोदें
कब्र दुश्मनी की गहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
२१-९-२०१६
***
विमर्श: श्रम और बुद्धि
ब्राम्हणों ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये ग्रंथों में अनेक निराधार, अवैज्ञानिक, समाज के लिए हानिप्रद और सनातन धर्म के प्रतिकूल बातें लिखकर सबका कितना अहित किया? तो पढ़िए व्यास स्मृति विविध जातियों के बारे में क्या कहती है?
जानिए और बताइये क्या हमें व्यास का सम्मान कारण चाहिए???
व्यास स्मृति, अध्याय १
वर्द्धकी नापितो गोपः आशापः कुम्भकारकः
वीवक किरात कायस्थ मालाकर कुटिम्बिनः
एते चान्ये च वहवः शूद्रा भिन्नः स्वकर्मभिः -१०
चर्मकारः भटो भिल्लो रजकः पुष्ठकारो नट:
वरटो भेद चाण्डाल दासं स्वपच कोलकाः -११
एते अन्त्यज समाख्याता ये चान्ये च गवारान:
आशाम सम्भाषणाद स्नानं दशनादरक वीक्षणम् -१२
अर्थ: बढ़ई, नाई, अहीर, आशाप, कुम्हार, वीवक, किरात, कायस्थ, मालाकार कुटुम्बी हैं। ये भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण शूद्र हैं. चमार, भाट, भील, धोबी, पुस्तक बांधनेवाले, नट, वरट, चाण्डालों, दास, कोल आदि माँसभक्षियों अन्त्यज (अछूत) हैं. इनसे बात करने के बाद स्नान तथा देख लेने पर सूर्य दर्शन करना चाहिए।
उल्लेख्य है कि मूलतः ब्राम्हण और कायस्थ दोनों की उत्पत्ति एक ही मूल ब्रम्ह या परब्रम्ह से है। दोनों बुद्धिजीवी रहे हैं. बुद्धि का प्रयोग कर समाज को व्यवस्थित और शासित करनेवाले अर्थात राज-काज को मानव की उन्नति का माध्यम माननेवाले कायस्थ (कार्यः स्थितः सह कायस्थः) तथा बुद्धि के विकास और ज्ञान-दान को मानवोन्नति का मूल माननेवाले ब्राम्हण (ब्रम्हं जानाति सः ब्राम्हणाः) हुए।
ये दोनों पथ एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्राम्हणों ने वैसे ही निराधार प्रावधान किये जैसे आजकल खाप के फैसले और फतवे कर रहे हैं. उक्त उद्धरण में व्यास ने ब्राम्हणों के समकक्ष कायस्थों को श्रमजीवी वर्ग के समतुल्य बताया और श्रमजीवी कर्ज को हीन कह दिया। फलतः, समाज विघटित हुआ। बल और बुद्धि दोनों में श्रेष्ठ कायस्थों का पराभव केवल भुज बल को प्रमुख माननेवाले क्षत्रियों के प्रभुत्व का कारण बना। श्रमजीवी वर्ग ने अपमानित होकर साथ न दिया तो विदेशी हमलावर जीते, देश गुलाम हुआ।
इस विमर्श का आशय यह कि अतीत से सबक लें। समाज के उन्नयन में हर वर्ग का महत्त्व समझें, श्रम को सम्मान देना सीखें। धर्म-कर्म पर केवल जन्मना ब्राम्हणों का वर्चस्व न हो। होटल में ५० रु. टिप देनेवाला रिक्शेवाले से ५-१० रु. का मोल-भाव न करे, श्रमजीवी को इतना पारिश्रमिक मिले कि वह सम्मान से परिवार पाल सके। पूंजी पे लाभ की दर से श्रम का मोल अधिक हो। आपके अभिमत की प्रतीक्षा है।
२२.९.२०१४
***
मुक्तक सलिला :
बेटियाँ
*
आस हैं, अरमान हैं, वरदान हैं ये बेटियाँ
सच कहूँ माता-पिता की शान हैं ये बेटियाँ
पैर पूजो या कलेजे से लगाकर धन्य हो-
एक क्या दो-दो कुलों की आन हैं ये बेटियाँ
*
शोरगुल में कोकिला का गान हैं ये बेटियाँ
नदी की कलकल सुरीली तान हैं ये बेटियाँ
माँ, सुता, भगिनी, सखी, अर्धांगिनी बन साथ दें-
फूँक देतीं जान देकर जान भी ये बेटियाँ
*
मत कहो घर में महज मेहमान हैं ये बेटियाँ
यह न सोचो सत्य से अनजान हैं ये बेटियाँ
लेते हक लड़ के हैं लड़के, फूँक भी देते 'सलिल'-
नर्मदा जल सी, गुणों की खान हैं ये बेटियाँ
*
ज़िन्दगी की बन्दगी, पहचान हैं ये बेटियाँ
लाज की चादर, हया का थान हैं ये बेटियाँ
चाहते तुमको मिले वरदान तो वर-दान दो
अब न कहना 'सलिल कन्या-दान हैं ये बेटियाँ
*
सभ्यता की फसल उर्वर, धान हैं ये बेटियाँ
महत्ता का, श्रेष्ठता का भान हैं ये बेटियाँ
धरा हैं पगतल की बेटे, बेटियाँ छत शीश की-
भेद मत करना, नहीं असमान हैं ये बेटियाँ
***
हास्य रचना:
चना जोर गरम
*
चना जोर गरम
बाबू ! मैं लाया मजेदार
चना जोर गरम…
*
ममो मुट्ठी भर चना चबाये
संसद को नित धता बताये
रूपया गिरा देख मुस्काये-
अमरीका को शीश नवाये
चना जोर गरम…
*
नमो ने खाकर चना डकारा
शनी मिमयाता रहा बिचारा
लाम का उतर गया है पारा
लाल सियापा कर कर हांरा
चना जोर गरम…
*
मुरा की नूरा-कुश्ती नकली
शामत रामदेव की असली
चना बापू ने नहीं चबाये-
चदरिया मैली ले पछताये
चना जोर गरम…
*
मेरा चना मसालेवाला
अन्ना को करता मतवाला
जनगण-मन जपता है माला-
मेहनतकश का यही निवाला
चना जोर गरम…
२२-९-२०१३
*
ममो = मनमोहन सिंह
नमो = नरेन्द्र मोदी,
शनी = शरद यादव-नीतीश कुमार
लाम = लालू यादव-ममता
लाल = लालकृष्ण अडवानी
मुरा = मुलायम सिंह-राहुल गाँधी बापू = आसाराम

पुरोवाक्, हिंदी गजल, अर्जुन चव्हाण

पुरोवाक्
''सामयिक वैचारिकी का फेस्ट है''- आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है
आचार्य इं. संजीव वर्मा 'सलिल'
*


            गजल विश्व के साहित्य जगत को भारत भूमि का अनुपम उपहार है। लोक साहित्य में सम तुकांती अथवा समान पदभार की दोपदियों में कथ्य कहने की परिपाटी आदिकाल से रही है। घाघ, भड्डरी जैसे लोक कवियों की कहावतों में समान अथवा भिन्न पदभार तथा समतुकांती एवं विषम तुकांती रचनाएँ सहज प्राप्त हैं।
सम तुकांत, समान पदभार-
शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाय।। 
विषम तुकांत, समान पदभार-
सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात।
बरसै तो झूरा परै, नाहीं समौ सुकाल।।   
सम पदांत, असमान पदभार-
गेहूं गाहा, धान विदाहा।
ऊख गोड़ाई से है आहा।।
ग़ज़ल का जन्म 
            काल क्रम में संस्कृत साहित्य में इस शैली में श्लोक रचे गए। संस्कृत से छंद शास्त्र फारसी भाषा ने ग्रहण किया। द्विपदियों को फारसी में शे'र (बहुवचन अश'आर) कहा गया। फारसी में एक द्विपदी के बाद समान पदांत और समान पदभार की पंक्तियों को संयोजन कर रचना को 'ग़ज़ल' नाम दिया गया। भारत में कविता का उद्गम एक क्रौंच युगल के नर का व्याध के शर से मरण होने पर क्रौंची के करुण विलाप को सुनकर महर्षि वाल्मीक के मुख से नि:सृत पंक्तियों से माना जाता है। फारस में इसकी नकल कर शिकारी के तीर से हिरनी के शावक का वध होने पर हिरनी द्वारा किए विलाप को सुनकर निकली काव्य पंक्तियों से ग़ज़ल की उत्पत्ति मानी गई। संस्कृत काव्य में द्विपदिक श्लोकों की रचना आदि काल से की जाती रही है। ​संस्कृत की श्लोक रचना में समान तथा असमान पदांत-तुकांत दोनों का प्रयोग किया गया। भारत से ईरान होते हुए पाश्चात्य देशों तक शब्दों, भाषा और काव्य की यात्रा असंदिग्ध है। १० वीं सदी में ईरान के फारस प्रान्त में सम पदांती श्लोकों की लय को आधार बनाकर कुछ छंदों के लय खण्डों का फ़ारसीकरण नेत्रांध कवि रौदकी ने किया। इन लय खण्डों के समतुकांती दुहराव से काव्य रचना सरल हो गयी। इन लयखण्डों को रुक्न (बहुवचन अरकान) तथा उनके संयोजन से बने छंदों को 'बह्र' कहा गया। फारस में सामंती काल में '​तश्बीब' (​बादशाहों के मनोरंजन हेतु ​संक्षिप्त प्रेम गीत), 'कसीदे' (रूप/रूपसी ​या बादशाहों की ​की प्रशंसा) तथा ​'गजाला चश्म​'​ (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप ​के रूप में ​ग़ज़ल लोकप्रिय हुई​। भारत में द्विपदियों में पदभार के अंतर पर आधारित अनेक छंद (दोहा, चौपाई, सोरठा, रोला, आल्हा आदि) रचे गए। फारसी में छंदों की लय का अनुकरण और फारसीकरण कर बह्रें बनाई गईं। कहते हैं इतिहास स्वयं को दुहराता है, साहित्य में भी यही हुआ। भारत से द्विपदियाँ ग्रहण कर फारस ने ग़ज़ल के रूप में भारत को लौटाई। फारसी और पश्चिमी सीमांत प्रदेशों की भाषाओं के सम्मिश्रण से क्रमश: लश्करी, रेख्ता, दहलवी, हिंदवी और उर्दू का विकास हुआ। खुसरो, कबीर जैसे रचनाकारों ने हिंदी ग़ज़ल को जन्म दिया। फारसी में 'गजाला चश्म' (मृगनयनी) के रूप की प्रशंसा और आशिको-माशूक की गुफ्तगू तक सीमित रही ग़ज़ल को हिंदी ने वतन परस्ती, इंसानियत और युगीन विसंगतियों की अभिव्यक्ति के जेवरों से नवाजा। फलत: महलों में कैद रही ग़ज़ल आजाद हवा में साँस ले सकी। उर्दू ग़ज़ल का दम बह्रों की बंदिशों में घुटते देखकर उसे 'कोल्हू का बैल' (आफताब हुसैन अली) और  'तंग गली' (ग़ालिब) के विशेषण दिए गए थे। हिंदी ने ग़ज़ल को आकाश में उड़ान भरने के लिए पंख दिए। 
हिंदी ग़ज़ल
            हिंदी ग़ज़ल को आरंभ में 'बेबह्री' होने का आरोप झेलना पड़ा। खुद को 'दां' समझ रहे उस्तादों ने दुष्यंत कुमार आदि की ग़ज़ल के तेवर को न पहचानते हुए खारिज करने की गुस्ताखी की किंतु वे नादां साबित हुए। वक्त ने गवाही दी कि हिंदी ग़ज़ल फारसी और उर्दू की जमीन से अलग अपनी पहचान आप बन और बना रही थी। हिंदी ग़ज़ल ने मांसल इश्क की जगह आध्यात्मिक प्रेम को दी, नाजनीनों से गुफ्तगू करने की जगह आम आदमी की बात की, 'बह्र' की बाँह में बंद होने की जगह छन्दाकाश् में उड़ान भरी, काफ़ियों में कैद होने की जगह तुकांत और पदांत योजना में नई छूट ली, नए मानक गढ़े हैं। हिंदी ग़ज़ल की मेरी परिभाषा देखिए- 

ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
मुक्तिका है, तेवरी है, गीतिका है, सजल भी
पूर्णिका अनुभूति से संवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।

            हिंदी ग़ज़ल में अनेक प्रयोग किए गए हैं। यह दीवान ''आप सब दोस्तों से यह रिक्वेस्ट है' हिंदी के प्रामाणिक विद्वान शायर प्रो. अर्जुन चव्हाण लिखित १०५ प्रयोगधर्मी ग़ज़लों का महकता हुआ गुलदस्ता है। 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-बयां और' की तरह अर्जुन जी का भी अपना बात कहने के तरीका और सलीका है। वे शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हैं। 'या हंसा मोती कहने या भूख मार जाय' अर्जुन जी चुनने की स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं करते। वे हिंदी, संस्कृत, मराठी, फारसी, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं के शब्द ग्रहण करने में संकोच नहीं करते। अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें जो शब्द उपयुक्त लगता है, चुन लेते हैं। उनके लिए तत्सम और तद्भव शब्द संपदा सारस्वत निधि है। हिंदी के प्राध्यापक होते हुए भी वे 'भाषिक शुद्धता' के संकीर्ण आग्रह से मुक्त हैं। इसलिए अर्जुन जी की ग़ज़लें आम आदमी की भाषा में आम आदमी से संवाद कर पाती हैं। 

            कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की सामर्थ्य अर्जुन जी के शायर में है। ''ऐसे ही नहीं, अच्छे लोगों की भीड़ चाहिए;  बेरुके खिलाफ खड़े होने को रीढ़ चाहिए'' कहकर वे निष्क्रिय बातूनी आदर्शवादियों को आईना दिखाते हैं। समाज में महापुरुषों का गुणगान करने या उन्हें प्रणाम करने की प्रथा है किंतु उनका अनुकरण करने की प्रवृत्ति बहुत कम है। महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा को समर्पित रचना में अर्जुन जी लिखते हैं- ''वंदन स्मरण नहीं,अनुगमन भी हो 'अर्जुन जी' समाज और देश सेवा की जान बिरसा मुंडा।'' न्याय व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार करने में अर्जुन जी तनिक भी संकोच नहीं करते- 

भेड़ियों और बकरियों का खेल है; 
टॉस में मगर दोनों ओर टेल है।। 
लोमड़ी की अदालत भेड़िया बरी 
      मेमनों को फांसी, ताउम्र जेल है।।    

            सामाजिक विसंगतियों को इंगित करते हुए अर्जुन जी हँस पर कौए को वरीयता देने की प्रवृत्ति को संकेतित कर प्रश्न करते हैं कि पितृ पक्ष में दशमी के दिन हँस पर कौए को वरीयता क्यों दी जाति है? सवाल है कि अगर कौए को वरीयता देने का कोई कारण है तो उसे हर दिन वरीयता दें, सिर्फ एक दिन क्यों? - 

पिंड छूने के वक्त, दसवें के दिन  में उनको 
हंस से बढ़कर अहम वो काग ही क्यों लगे? 

            समाज में तन को सँवारने और मन की अनदेखी करने की कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुए अर्जुन जी व्यंग्य करते हैं- 

लोग अक्सर तन का करवा लेते हैं 
भूल जाते हैं मन के भी मसाज हैं  

            भारतीय संस्कृति अपने मानवतावादी मूल्यों 'वसुधैव कुटुंबकम्' और 'विश्वैक नीड़म्' के लिए सनातन काल से जानी जाती है। शायर अर्जुन नफरत को बेमानी बताते हुए मानवता की कजबूती की कामना करते हैं- 

दोस्ती के पुल मजबतू सारे चाहिए
दुश्मनी की ध्वस्त सब दीवारें चाहिए

क्या रखा है नफ़रत की ज़िंदगानी में
मानवता की मजबूती के नारे चाहिए 

            समाज में बढ़ती जा रही मानसिक बीमारियों का कारण तनाव को बताते हुए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि  अपने मन में बच्चे को जिंदा  रखा जाए। अर्जुन जी समस्या और समाधान दोनों को यूं बयान करते हैं- 

जिंदगी में जिंदा अपने अंदर का बच्चा रख  
सब पकाना न समझदारी, कुछ कच्चा रख 
औरों पे उंगली उठाने से कोई सुधरेगा नहीं 
अपने मन का मिजाज  सदा से सच्चा रख 

            लोकतंत्र में हर नागरिक को पहरुआ बनकर गुहार लगाना चाहिए 'जागते रहो', तबही शासन-प्रशासन और न्याय व्यवस्था जागेगी अन्यथा लोकतंत्र का दामन दागदार हो जाएगा। 
 
दान करने, बेच देने का सवाल नहीं 
मताधिकार को गर सयाना वोटर है! 

            अर्जुन जी ज़िंदगी के हर पहलू को जाँचते-परखते हैं और तब विसंगतियों को सुसंगतियों में बदलने के लिए गजल लिखते हैं। गत ७ दशक के हिंदी साहित्य में व्याप्त नकारात्मक ऊर्जा ने समाज में नफरत, अविश्वास, द्वेष, टकराव, बिखराव का अतिरेकी शब्दांकन कर मनुष्य, परिवार, देश और समाज को हानि पहुँचाई है। यही कारण है कि समाज आज भी साहित्य के नाम पर संदेशवाही सकारात्मक रचनाओं को पढ़ता है। सं सामयिक साहित्य के पाठक नगण्य हैं। उपन्यास, कहानी, व्यंग्य लेख, नवगीत, लघुकथा आदि विधाओं में यथार्थवाद के नाम पर विद्रूपताओं को स्थान दिया जा रहा है। अर्जुन जी उद्देश्यपूर्ण, संदेशवाही सकारात्मक साहित्य का सृजनकर कबीर की तरह आईना दिखने के साथ-साथ राह भी दिखा रहे हैं। उनकी लिखी गज़लें इसकी साक्षी हैं। 

  छोड़ देती है आत्मा हमेशा साथ तब 
जिंदगी में जब कभी तनादेश होता है!
० 
किसी से माफी माँग, किसी को माफ़ कर; 
खुशनुमा जिंदगी की कुंजी रखें ढाँक कर! 
घर-आँगन रोज-ब-रोज करते रहते हो 
कभी मन का आँगन भी सारा साफ़ कर!
०  
है ढील या पाबंदी का नतीजा,पर सच है 
बच्चा जहाँ नहीं जाना, वहीं पर जाता है!
० 
साजिश क्यों, कोशिश चाहिए अर्जुन जी 
कामयाबी से वो,जो बेशक मिलाती है!
० 
किसी वृद्धाश्रम की जरूरत नहीं होगी, 
यदि अपने माँ-बाप खुशहाल भाई-भैन चाहते हैं!
० 
सितारा होटल के खाने से बढ़िया 
ठेलेवाले के छोले-भटूरे होते हैं! 
० 
फिर भी नदियाँ साथ में रहती ही हैं 
भले सारे के सारे जो खारे सागर हैं!
० 
दिल में जीत की जबरदस्त चाह चाहिए; 
जद्दोजहद में भी जीने की राह चाहिए!
एक सच याद रखना, सूरज हो या चाँद 
जिस दिन चढ़ता, उसी दिन ढलता है! 
० 
उंगली पकड़ के रखने से काम नहीं होगा 
बच्चे को खुद-ब-खुद चलने दिया जाए!
० 
आप ताउम्र घूमते रहते हैं दुनिया भर में 
नौकर को तनिक तो टहलने दिया जाए!
० 
सिर्फ राजधानी या ख़ास राजमहल की नहीं 
गुलशन की हर डाली फलनी-फूलनी चाहिए!
० 
बड़ों की दुनिया  कुछ और है 'अर्जुन जी' मगर
कौन है,जो फिदा न बच्चों की किलकारी पर!

            'आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है' हिंदी गजल संग्रह की हर गजल गजलकार की ईमानदार सोच, बेलाग साफ़गोई, सबकी भलाई की चाह और निडर अभिव्यक्ति की राह पर कलम को हल की तरह इस्तेमाल कर 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' के सद्भावपरक विचारों और आचारों की फसल उगाने की मनोकामना का प्रमाण है। अपने बात वहीं खत्म करूँ जहाँ से शुरू की थी-

सामयिक वैचारिकी का फेस्ट है
'आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है'
.
 दोस्तों की दोस्ती ही बेस्ट है
डिश अनोखी है अनोखा टेस्ट है
.
फ्लैट-बंगलों की इसे जरुरत नहीं
रहे दिल में हार्ट इसका नेस्ट है
.
एनिमी से लड़े अर्जुन की तरह
वज्र सा स्ट्रांग सचमुच चेस्ट है
.
टूट मन पाए नहीं संकट में भी
दोस्ती दिल जोड़ने का पेस्ट है
.
प्रोग्रेस इन्वेंशन हिलमिल करे
दोस्ती ही टैक्निक लेटेस्ट है
.
जिंदगी की बंदगी है दोस्ती
गॉड गिफ्टेड 'सलिल' यह ही फेस्ट है
.
जीव को 'संजीव' करती दोस्ती
कोशिशों का, परिश्रम का क्रेस्ट है
००० 
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष- ९४२५१८३२४४

फूलों पर गीत

स्वर्ण चम्पा
स्वर्ण चम्पा से सुवासित बाग 
सोनपरियाँ झुलसतीं ले आग 
० 
ज्योत्सना आकर रही है छेड़
जगाती है संत में अनुराग 
० 
फागुनी हैं हवाएँ मदमस्त
रंग ले आईं लगाएँ दाग 
० 
उषा किरणें लिपटतीं ले मोह
जलन से काला हुआ है काग 
० 
शीत छेदे बदन, मारे तीर  
सिहरता ज्यों डँस रहा हो नाग
० 
दामिनी हो कामिनी गिरती
बिन दिए कंधा रही है दाग 
० 
कर 'सलिल' में  स्नान हो शीतल      
नर्मदा को नमन कर झट जाग 
*
            स्वर्ण चम्पा एक शानदार फूल है। इसकी तेज सुगंध पेड़ से २० मीटर दूर तक अनुभव की जा सकती है।इसकी स्वर्गिक सुगन्ध एक बार अनुभव हो तो आप अपने आसपास चौक कर देखने लगते हैं कि यह किधर से आ रही है। इसी मनमोहक सुगंध के कारण इसे अगरबत्ती और इत्र बनाने में उपयोग किया जाता है। यह सुगंध इसके फूल को सुखा देने के बाद भी बनी रहती है। इसका पेड़ बड़ा होता है। आकर्षित करने वाला सुगंध होने के कारण लोग निचली डालियों से फूल तोड़ने से स्वयं को नहीं रोक पाते। इसकी डालियाँ बहुत ही ठनकी होती हैं, प्रायः टूट जाती हैं। इसीलिए निचली डालियाँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं, ऊँची डालियों में लगे फूल ही अपनी सुगंध बिखेरते रहते हैं।

            यह फूल पीला होता है जैसे कि सोना। सोना को संस्कृत में स्वर्ण कहते हैं। चम्पा मैगनोलिया वर्ग के कई प्रकार के फूलों को कहते हैं जिन्हें चम्पा के आगे अलग-अलग उपसर्ग लगा कर पुकारते हैं। इसीलिए इस फूल को स्वर्ण-चम्पा नाम दिया गया है। कुछ अन्य प्रकार के फूलों को कठ-चंपा, कटेली चंपा आदि नाम से भी पुकारा जाता है। 

            स्वर्ण चम्पा को हिमालयन चम्पा के नाम से भी जाना जाता है। यह मूल रूप में दक्षिण पूर्वी एशिया का पेड़ है जो नमी वाली मिट्टी और धूप को पसन्द करता है। देसी पेड़ होने के कारण इसका उल्लेख कुछ हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। मंदिर परिसर में भी यह पेड़ लगाया जाता है। स्वर्ण चम्पा और बकुल के पेड़ों को मंदिर मुख्य द्वार के दोनों ओर लगाने का प्रचलन है। आवासीय परिसरों के मुख्य द्वार के पास स्वर्ण चम्पा वृक्ष लगाया जाता है। 

स्वर्ण चम्पा का वृक्ष

            स्वर्ण चम्पा श्री गणेश, शिव जी, श्री विष्णु और देवी लक्ष्मी को अर्पित किया जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि चम्पा और केवड़े के फूल शिव को अर्पित नहीं किये जाते जिसके लिए कुछ लोकगाथाओं का उदहारण दिया जाता है। केवड़े के फूल के बारे में यह सही हो सकता है परन्तु चम्पा के लिए यह सत्य नहीं है। आदिशंकराचार्य द्वारा रचित "शिवमानस पूजा" में लिखा है,

"जाती चम्पक बिल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितम गृह्यताम |"

            अर्थात - हे दयालु पशुपति महादेव ! हृदय में कल्पना कर जूही, चम्पा, बेलपत्र, फूल और धूप -दीप आपको समर्पित करता हूँ। कृपया, ग्रहण कीजिए।

            इससे स्पष्ट है कि चम्पा के फूल शिव को अर्पित किये जाते हैं | एक अन्य लोकगाथा जो महाभारत के समकालीन है के अनुसार ओड़िसा के बरुण पर्वत के समीप कुंती ने महादेव को एक लाख स्वर्ण चम्पा फूल अर्पित किये थे इस अभिलाषा से कि महाभारत युद्ध में उनके पुत्रों की विजय हो। अर्थात शिव को यह पुष्प प्रिय है। यह फूल माता लक्ष्मी को भी अर्पित किया जाता है। वस्तुतः स्वर्ण चम्पा देवी लक्ष्मी का प्रतिनिधित्व करता है। पीले पुष्प गणेश और विष्णु को पसन्द हैं। अतः, यह फूल इन दोनो देवताओं को भी चढ़ाया जाता है। फूलों का मौसम समाप्त होने के बाद इनमे फल लगते हैं जो न्यूनाधिक रूप में अंगूर के गुच्छे जैसे होते हैं।

सोन चंपा (स्वर्ण चंपा) का पौधा गमले में लगाने की विधि:

सामग्री: सोन चंपा का पौधा (छोटा या बड़ा), मिट्टी का मिश्रण (६०% रेतीली मिट्टी, ३०% वर्मी कम्पोस्ट, १०% गोबर की खाद), गमला (पौधे के आकार से थोड़ा बड़ा), पानी, कंकड़ या बजरी (जल निकासी के लिए)। 

विधि: गमले में जल निकासी छेदों की जाँच करें। यदि छेद छोटे हैं या पर्याप्त नहीं हैं तो उन्हें बड़ा करें। गमले के तल में कंकड़ या बजरी की एक परत बिछाएँ। यह जल निकासी में सुधार करने में मदद करेगा और जड़ सड़न को रोकेगा। मिट्टी के मिश्रण को गमले में आधा भरें। पौधे को गमले के केंद्र में रखें। बजरी  मिट्टी के मिश्रण से पौधे को भरें। मिट्टी को हल्के से दबाएँ ताकि पौधा मजबूती से टिक जाए। पौधे को अच्छी तरह से पानी दें। गमले को ऐसी जगह पर रखें जहाँ उसे प्रत्यक्ष सूर्य की रोशनी मिले। मिट्टी को सूखने पर नियमित रूप से पानी दें। हर २-३  महीने में पौधे को खाद दें।

        सोन चंपा को थोड़ी अम्लीय मिट्टी पसंद है। आप मिट्टी की अम्लता को कम करने के लिए थोड़ा नींबू का रस या सिरका पानी में मिला सकते हैं। गर्मियों में पौधे को अधिक पानी दें, और सर्दियों में कम। सुनिश्चित करें कि गमले में जल निकासी छेद हैं। मुरझाए हुए या पीले पत्तों को नियमित रूप से हटा दें। यदि आप पौधे को घर के अंदर रखते हैं, तो उसे एक नम ट्रे पर रखें। सोन चंपा एक सुंदर और सुगंधित फूल वाला पौधा है।
***

रविवार, 21 सितंबर 2025

सितंबर १९, हम वही हैं, निशा तिवारी, मेघ

सलिल सृजन सितंबर १९
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : समन्वय प्रकाशन जबलपुर
बचपन के दिन : साझा संस्मरण संकलन
संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान द्वारा विश्व कीर्तिमान स्थापित कर रहे साझा संकलनों दोहा दोहा नर्मदा २५०/-, दोहा सलिला निर्मला २५०/-, दोहा दिव्य दिनेश ३००/-, हिंदी सॉनेट सलिला ५००/-, चंद्र विजय अभियान ११००/- तथा फुलबगिया ११००/- की श्रंखला में बाल संस्मरण संकलन 'बचपन के दिन' का प्रकाशन किया जाना है। रचनाकारों से १३-१४ वर्ष तक की आयु के रोचक-प्रामाणिक संस्मरण संबंधित चित्रों तथा संक्षिप्त परिचय सहित आमंत्रित हैं। हर सहभागी को २ प्रतियाँ दी जाएँगी। सहभागिता निधि ३५०/- प्रति पृष्ठ (एक पृष्ठ पर लगभग २५० शब्द) + २००/- अग्रिम वाट्स ऐप क्रमांक ४९२५१८३२४४ पर संस्मरण के साथ भेजें। परिचय बिंदु- नाम, जन्म तारीख माह वर्ष स्थान, माता-पिता-जीवनसाथी के नाम, शिक्षा, संप्रति, उपलब्धि, प्रकाशित स्वतंत्र कृति, डाक का पता, ईमेल, चलभाष/वाट्स ऐप क्रमांक।    

सहभागी - 
नीलिमा रंजन जी भोपाल, खंजन सिन्हा जी भोपाल, शिप्रा सेन जी जबलपुर, जहांआरा 'गुल' जी लखनऊ, अवधेश सक्सेना जी शिवपुरी, सरला वर्मा जी भोपाल, अंजली बजाज जी नैरोबी, प्रदीप सिंह जी मुंबई, अर्जुन चव्हाण जी, कोल्हापुर, पवन सेठी जी मुंबई, बसंत शर्मा जी प्रयागराज, मनीषा सहाय राँची, अरविंद श्रीवास्तव झाँसी, शीरीन कुरेशी सरदारपुर, संतोष शुक्ला जी नवसारी, अस्मिता शैली जी जबलपुर, संगीता भारद्वाज भोपाल, भागवत प्रसाद तिवारी जी जबलपुर, मुकुल तिवारी जी जबलपुर, छाया सक्सेना जी जबलपुर, शोभा सिंह जी जबलपुर, मृगेंद्र नारायण सिंह जी जबलपुर, अश्विनी पाठक जी जबलपुर, सुरेन्द्र पवार जी जबलपुर, दुर्गेश ब्योहार जी जबलपुर, अविनाश ब्योहार जी जबलपुर, उमेश साहू जी, नवनीता चौरसिया जी जावरा। 

विशेष आकर्षण- महापुरुषों का बचपन, बचपन पर डाक टिकिट, बाल साहित्य पत्रिकाएँ, बचपन संबंधी चित्रपटीय गीत सूची, बाल कल्याण हेतु सक्रिय संस्थाएँ आदि। सहभागी शीघ्रता करें। ३० सितंबर तक संस्मरण तथा संबंधित चित्र आदि सामग्री व सहभागिता निधि वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पर भेजिए।
०००
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
*क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
भू की बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
***
एक गीत -
हम वही हैं
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
*
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
*
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
*
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
*
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
*
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
*
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
*
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
जय हिंद
जय भारत
वन्दे मातरम्
भारत माता की जय
*
पुस्तक चर्चा -
वर्तमान युग का नया चेहरा: 'काल है संक्रांति का'
समीक्षक: डॉ. निशा तिवारी
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१२४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
*
'काल है संक्रांति का' संजीव वर्मा 'सलिल' का २०१६ में प्रकाशित नवीन काव्य संग्रह है। वे पेशे से अभियंता रहे हैं। किन्तु उनकी सर्जक प्रतिभा उर्वर रही है। सर्जना कभी किसी अनुशासन में आबद्ध नहीं रह सकती। सर्जक की अंत:प्रज्ञा (भारतीय काव्य शास्त्र में 'प्रतिभा' काव्य शास्त्र हेतु), संवेदनशीलता, भावाकुलता और कल्पना किसी विशिष्ट अनुशासन में बद्ध न होकर उन्मुक्त उड़ान भरती हुई कविता में निःसृत होती है। यही 'सलिल जी' की सर्जन-धर्मिता है। यद्यपि उनके मूल अनुशासन का प्रतिबिम्ब भी कहीं-कहीं झलककर कविता को एक नया ही रूप प्रदान करता है। भौतिकी की 'नैनो-पीको' सिद्धांतिकी जिस सूक्ष्मता से समूह-क्रिया को संपादित करती है, वह सलिल जी के गीतों में दिखाई देती है। उत्तर आधुनिक वैचारिकी के अन्तर्गत जिस झंडी-खण्ड चेतना का रूपायन सम-सामयिक साहित्य में हो रहा है वही चिन्तना सलिल जी के गीतों में सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, साहित्यिक विसंगतियों के रूप में ढलकर आई है- रचनाकार की दृष्टि में यही संक्रांति का काल है। संप्रति नवलेखन में 'काल' नहीं वरन 'स्पेस' को प्रमुखता मिली है।
शब्दों की परंपरा अथवा उसके इतिहास के बदले व्यंजकों के स्थगन की परिपाटी चल पड़ी है। सलिल जी भी कतिपय गीतों में पुराने व्यंजकों को विखण्डित कर नए व्यंजकों की तलाश करते हैं। उनका सबसे प्रिय 'व्यंजक' सूर्य है। उनहोंने सूर्य के 'आलोक' के परंपरागत अर्थ 'जागरण' को ग्रहण करते हुए भी उसे नए व्यंजक का रूप प्रदान किया है। 'उठो सूरज' गीत में उसे साँझ के लौटने के संदर्भ में 'झुको सूरज! विदा देकर / हम करें स्वागत तुम्हारा' तथा 'हँसों सूर्य भाता है / खेकर अच्छे दिन', 'आओ भी सूरज! / छँट गए हैं फुट के बदल / पतंगें एकता की मिल उड़ाओ। / गाओ भी सूरज!', 'सूरज बबुआ! / चल स्कूल। ', 'हनु हुआ घायल मगर / वरदान तुमने दिए सूरज!', 'खों-खों करते / बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी' इत्यादि व्यंजक सूरज को नव्यता प्रदान करते हैं, यद्यपि कवि का परंपरागत मन सूरज को 'तिमिर-विनाशक' के रूप में ही ग्रहण करता है।
कवि का परंपरागत मन अपने गीतों में शास्त्रीय लक्षण ग्रन्थों के मंगलाचरण के अभियोजन को भी विस्मृत नहीं कर पाता। मंगलाचरण के रूप में वह सर्वप्रथम हिंदी जाति की उपजाति 'कायसिहों' के आराध्य 'चित्रगुप्त जी' की वंदना करता है। यों भी चित्रगुप्त जी मनुष्य जाति के कर्मों का लेखा-जोखा रखनेवाले देवता हैं। ऐसा माना जाता है कि उत्तर आधुनिक युग में धर्मनिरपेक्षता का तत्व प्रबल है- कवि की इस वन्दना में चित्रगुप्त जी को शिव, ब्रम्हा, कृष्ण, पैग़ंबर, ईसा, गुरु नानक इत्यादि विभिन्न धर्मों के ईश्वर का रूप देकर सर्वधर्म समभाव का परिचय दिया गया है। चित्रगुप्त जी की वन्दना में भी कवि का प्रिय व्यंजक सूर्य उभरकर आया है - 'तिमिर मिटाने / अरुणागत हम / द्वार तिहरे आए।'
कला-साहित्य की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की अभ्यर्थना में कवि ने एक नवीन व्यंजना करते हुए ज्ञान-विज्ञान-संगीत के अतिरिक्त काव्यशास्त्र के समस्त उपादानों की याचना की है और सरस्वती माँ की कृपा प्राप्त प्राप्त करने हेतु एक नए और प्रासंगिक व्यंजक की कल्पना की है- 'हिंदी हो भावी जगवाणी / जय-जय वीणापाणी।' विश्वभाषा के रूप में हिंदी भाषा की यह कल्पना हिंदी भाषा के प्रति अपूर्व सम्मान की द्योतक है।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक मांगलिक कार्य के पूर्व अपने पुरखों का आशिर्वाद लिया जाता है। पितृ पक्ष में तो पितरों के तर्पण द्वारा उनके प्रति श्रद्धा प्रगट की जाती है। गीत-सृजन को अत्यंत शुभ एवं मांगलिक कर्म मानते हुए कवि ने पुरखों के प्रति यही श्रद्धा व्यक्त की है। इस श्रद्धा भाव में भी एक नवीन संयोजन है- 'गीत, अगीत, प्रगीत न जानें / अशुभ भुला, शुभ को पहचानें / मिटा दूरियाँ, गले लगाना / नव रचनाकारों को ठानें कलश नहीं, आधार बन सकें / भू हो हिंदी-धाम। / सुमिर लें पुरखों को हम / आओ! करें प्रणाम।' कवि अपनी सीमाओं को पहचानता है, सर्जना का दंभ उसमें नहीं है और न ही कोई दैन्य है। वह तो पुरखों का आशीर्वाद प्राप्त कर केवल हिंदी को विश्व भाषा बनाने का स्वप्न पूरा करना चाहता है। यदि चित्रगुप्त भगवान की, देवी सरस्वती की और पुरखों की कृपा रही तो हिंदी राष्ट्रभाषा तो क्या, विश्व भाषा बनकर रहेगी। सलिल जी के निज भाषा-प्रेम उनके मंगलाचरण अथवा अभ्यर्थना का चरम परिपाक है।
उनकी समर्पण कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि उनहोंने उसमें रक्षाबन्धन पर्व की एक सामान्यीकृत अभिव्यंजना की है। बहिनों के प्रत्येक नाम संज्ञा से विशेषण में परिवर्तित हो गए हैं और रक्षासूत्र बाँधने की प्रत्येक प्रक्रिया, आशाओं का मधुवन बन गयी है। मनुष्य और प्रकृति का यह एकीकरण पर्यावरणीय सौंदर्य को इंगित करता है। 'उठो पाखी' कविता में भी राखी बाँधने की प्रक्रिया प्रकृति से तदाकार हो गयी है।
कविता मात्र वैयक्तिक भावोद्गार नहीं है, उसका सामाजिक सरोकार भी होता है। कभी-कभी कवि की चेतना सामाजिक विसंगति से पीड़ित और क्षुब्ध होकर सामाजिक हस्तक्षेपभी करती है। श्री कान्त वर्मा ने आलोचना को 'सामाजिक हस्तक्षेप' कहा है। मेरी दृष्टि में कविता भी यदा-कदा सामाजिक हस्तक्षेप हुआ करती है। प्रतिबद्ध कवि में तो यह हस्तक्षेप निरन्तर बना रहता है। कवि सलिल ने राजनैतिक गुटबाजी, नेताओं अफसरों की अर्थ-लोलुपता, पेशावर के न्र पिशाचों की दहशतगर्दी, आतंकवाद का घिनौना कृत्य, पाक की नापाकी, लोकतंत्र का स्वार्थतंत्र में परिवर्तन, अत्याचार और अनाचार के प्रति जनता का मौन,नेताओं की गैर जिम्मेदारी, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी राजनीतिक कुतंत्र में वास्तविक आज़ादी प्राप्त न कर पाना इत्यादि कुचक्रों पर गीत लिखकर अपनी कृति को 'काल है संक्रांति का' नाम दिया है। वास्तव में देश की ये विसंगतियाँ संक्रमण को सार्थक बनाती हैं किन्तु उनके गीत 'संक्रांति काल है' -में संक्रांति का संकेत भर है तथा उससे निबटने के लिए कवी ने प्रेरित भी किया है। यों भी छोटे से गीत के लघु कलेवर में विसंगति के विस्तार को वाणी नहीं दी जा सकती। कवि तो विशालता में से एक चरम और मार्मिक क्षण को ही चुनता है। सलिल ने भी इस कविता में एक प्रभावी क्षण को चुना है। वह क्षण प्रभावोत्पादक है या नहीं, उसकी चिंता वे नहीं करते। वे प्रतिबद्ध कवु न होकर भी एक सजग औए सचेत कवि हैं।
सलिल जी ने काव्य की अपनी इस विधा को गीत-नवगीत कहा है। एक समय निराला ने छंदात्मक रचना के प्रति विद्रोह करते हुए मुक्त छंद की वकालत की थी लेकिन उनका मुक्त छंद लय और प्रवाह से एक मनोरम गीत-सृष्टि करता था। संप्रति कविताएँ मुक्त छंद में लिखी जा रही हैं किन्तु उनमें वह लयात्मकता नहीं है जो जो उसे संगीतात्मक बना सके। ऐसी कवितायेँ बमुश्किल कण्ठस्थ होती हैं। सलिल जी ने वर्तमान लीक से हटकर छंदात्मक गीत लिखे हैं तथा सुविधा के लिए टीप में उन छंदों के नाम भी बताए हैं। यह टीप रचनाकार की दृष्टि से भले ही औचित्यपूर्ण न हो किन्तु पाठक-समीक्षक के लिए सुगम अवश्य है। 'हरिगीतिका' उनका प्रिय छंद है।
सलिल जी ने कतिपय अभिनव प्रयोग भी किये हैं। कुछ गीत उनहोंने बुन्देली भाषा में लिखे हैं। जैसे- 'जब लौं आग' (ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज पर), मिलती कांय नें (ईसुरी की चौकड़िया फाग पर आधारित) इत्यादि तथा पंजाबी एवं सोहर लोकगीत की तर्ज पर गीत लिखकर नवीन प्रयोग किये हैं।
कवि संक्रांति-काल से भयभीत नहीं है। वह नया इतिहास लिखना चाहता है- 'कठिनाई में / संकल्पों का / नव है लिखें हम / आज नया इतिहास लिखें हम।'' साथ ही संघर्षों से घबराकर वह पलायन नहीं करता वरन संघर्ष के लिए प्रेरित करता है- 'पेशावर में जब एक विद्यालय के विद्यार्थियों को आतंकवादियों ने गोलियों से भून दिया था तो उसकी मर्मान्तक पीड़ा कवि को अंतस तक मठ गई थी किंतु इस पीड़ा से कवि जड़ीभूत नहीं हुआ। उसमें एक अद्भुत शक्ति जाग्रत हुई और कवि हुंकार उठा-
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उदा दूँगा।
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा।
मैं लिखूँगा।
मैं लड़ूँगा।।
*
१९.९.२०१६
संपर्क समीक्षा: डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टँकी के सामने, जबलपुर ४८२००१
चलभाष; ९४२५३८६२३४, दूरलेख: pawanknisha@gmail.com
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नवगीत:
*
मेघ बजे
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे, बिजुरिया बिना लजे...
*
दादुर देते ताल, पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
*
पल्लव की करताल, बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये, मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए.
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
टप-टप टपके टीन, चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!, पढ़ाए को आखर?
डूबी गैल, बके गाली अभियंता को.
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
१९.९.२०१० 
***

सितंबर २१, कायस्थ, कुलनाम, सॉनेट, हाइकु गीत, दोहे, अनुप्रास,


सलिल सृजन सितंबर २१
*
चित्रगुप्त और कायस्थ कौन हैं?? 
*
            परात्पर परब्रह्म निराकार हैं। जो निराकार हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात उसका चित्र प्रगट न होकर गुप्त रहता है। कायस्थों के इष्ट यही चित्रगुप्त (परब्रह्म) हैं जो सृष्टि के निर्माता और समस्त जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों का फल देते हैं। पुराणों में सृष्टि का वर्णन करते समय कोटि-कोटि ब्रह्मांड बताए गए हैं उनमें से हर एक का ब्रह्मा-विष्णु-महेश उसका निर्माण-पालन और नाश करता है अर्थात कर्म करता है। पुराणों में इन तीनों देवों को समय-समय पर शाप मिलने, भोगने और मुक्त होने की कथाएँ भी हैं। इन तीनों के कार्यों का विवेचन कर फल देनेवाला इनसे उच्चतर ही हो सकता है। इन तीनों के आकार वर्णित हैं, उच्चतर शक्ति ही निराकार हो सकती है। इसका अर्थ यह है कि देवाधिदेव चित्रगुप्त निराकार है त्रिदेवों सहित सृष्टि के सभी जीवों-जातकों के कर्म फल दाता हैं। 

             कायस्थ की परिभाषा 'काया स्थित: स: कायस्थ' अर्थात 'जो काया में रहता है, वह कायस्थ है। इसके अनुसार सृष्टि के सभी अमूर्त-मूर्त, सूक्ष्म-विराट जीव/जातक कायस्थ हैं। 

            काया (शरीर) में कौन रहता है जिसके न रहने पर काया को मिट्टी कहा जाता है? उत्तर है आत्मा, शरीर में आत्मा न रहे तो उसे 'मिट्टी' कहा जाता है। आध्यात्म में सारी सृष्टि को भी मिट्टी कहा गया है। 

            आत्मा क्या है? आत्मा सो परमात्मा अर्थात आत्मा ही परमात्मा है। सार यह कि जब परमात्मा का अंश किसी काया का निर्माण कर आत्मा रूप में उसमें रहता है तब उसे 'कायस्थ' कहा जाता है। जैसे ही आत्मा शरीर छोड़ता है शरीर मिट्टी (नाशवान) हो जाता है, आत्मा अमर है। इस अर्थ में सकल सृष्टि और उसके सब जीव/जातक कण-कण, तरुण-तरुण, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, चर-अचर, स्थूल-सूक्ष्म, पशु-पक्षी, सुर-नर-असुर आदि कायस्थ हैं। 

कायस्थ और वर्ण 

            मानव कायस्थों का उनकी योग्यता और कर्म के आधार चार वर्णों में विभाजन किया गया है। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं- ''चातुर्वण्य मया सृष्टं गुण-कर्म विभागश: अर्थात चारों वर्ण गुण-और कर्म के अनुसार मेरे द्वारा बनाए गए हैं। इसका अर्थ यह है कि कायस्थ ही अपनी बुद्धि, पराक्रम, व्यवहार बुद्धि और समर्पण के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण में  विभाजित किए गए हैं। इसलिए वे चारों वर्णों में विवाह संबंध स्थापित कर सकते हैं। पुराणों के अनुसार चित्रगुप्त जी के दो विवाह देव कन्या नंदिनी और नाग कन्या इरावती से होना भी यही दर्शाता है कि वे और उनके वंशज वर्ण व्यवस्था से परे, वर्ण व्यवस्था के नियामक हैं। एक बुंदेली कहावत है 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' इसका अर्थ यही है कि कायस्थ के घर भोजन करने का सौभाग्य मिलने का अर्थ है समस्त जातियों के घर भोजन करने का सम्मान मिल गया। जैसे देव नदी गंगा में नहाने से सं नदियों में नहाने का पुण्य मिलने की जनश्रुति गंगा को सब नदियों से श्रेष्ठ बताती है, वैसे ही यह कहावत 'कायस्थ' को सब वर्णों और जातियों से श्रेष्ठ बताती है। 

जाति 

            बुंदेली कहावत 'जात का बता गया' का अर्थ है कि संबंधित व्यक्ति स्वांग अच्छाई का कर था था किंतु उसके किसी कार्य से उसकी असलियत सामने आ गई। यहाँ जात का अर्थ व्यक्ति का असली गुण या चरित्र है। एक जैसे गुण या कर्म करने वाले व्यक्तियों का समूह 'जाति' कहलाता है। कायस्थ चारों वर्णों के नियत कार्य निपुणता से करने की सामर्थ्य रखने के कारण सभी जातियों में होते हैं। इसीलिए कायस्थों के गोत्र, अल्ल, कुलनाम, वंश नाम चारों वर्णों में मिलते हैं। 

कुलनाम और अल्ल 

            प्रभु चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र बताए गए हैं। उनके वंशजों ने अपनी अलग पहचान के लिए अपने-अपने मूल पुरुष के नाम को कुलनाम की तरह अपने नाम के साथ संयुक्त किया। तदनुसार कायस्थों के १२ कुल चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान हुए। ये कुलनाम संबंधित जातक की विशेषताएँ बताते हैं। नाम चारु = सुंदर, सुचारु = सुदर्शन, चित्र = मनोहर, मतिमान = बुद्धिमान, हिमवान = समृद्ध, चित्रचारु = दर्शनीय, अरुण = प्रतापी, अतीन्द्रिय = ध्यानी, भानु = तेजस्वी, विभानु = यश का प्रकाश फैलानेवाले, विश्वभानु = विश्व में सूर्य की तरह जगमगानेवाले तथा वीर्यवान = सबल, पराक्रमी, बहु संततिवान।

गोत्र 

            चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र १२ महाविद्याओं का अध्ययन करने के लिए १२ गुरुओं के शिष्य हुई। गुरु का नाम शिष्यों का गोत्र तथा गुरु की इष्ट शक्ति (देव-देवी) शिष्यों की आराध्या शक्ति हुई। आरंभ में एक गोत्र के जातकों में विवाह संबंध वर्जित था किंतु कालांतर में कायस्थों के स्थान परिवर्तन करने पर स्थानीय समाज की वर-कन्या न मिलने पर विवशता वश एक गोत्र में अथवा अहिन्दुओं से विवाह करने तथा फारसी/उर्दू सीखकर शासन सूत्र संहलने के कारण कायस्थों को 'आधा मुसलमान' कहा गया। अंग्रेज शासन होने पर कायस्थों ने अंग्रेजी सीखकर शासन-प्रशासन में स्थान बनाया तो उन्हें 'आधा अंग्रेज' कहा गया।  

अल्ल 

            किसी कुल में हुए पराक्रमी व्यक्ति, मूल निवास स्थान, गुरु अथवा आराध्य देव के नाम अथवा उनसे संबंधित किसी गुप्त शब्द को अपनाने वाले समूह के सदस्य उसे अपनी 'अल्ल' (पहचान चिन्ह) कहते हैं। यह एक महापरिवार के सदस्यों का कूट शब्द (कोड वर्ड) है जिससे वे एक दूसरे को पहचान सकें। गहोई वैश्यों में इसे 'आँकने' कहा जाता है। एक अल्ल के दो जातक आपस में विवाह वर्जित है। वर्तमान में नई पीढ़ी अपने इतिहास, गोत्र, अल्ल आदि से अनभिज्ञ होने के कारण वर्जनाओं का पालन नहीं कार पा रही। एक अल्ल या गोत्र में विवाह वैज्ञानिक दृष्टि से भावी पीढ़ी में आनुवंशिक रोगों की संभावना बढ़ाता है। इससे बचने का उपाय अन्य जाति, धर्म या देश में विवाह करना है।     
    
कायस्थों के कुलनाम (सरनेम), अल्ल (वंश नाम)  और उनके अर्थ 

            कायस्थों को बुद्धिजीवी, मसिजीवी, कलम का सिपाही आदि विशेषण दिए जाते रहे हैं। भारत के धर्म-अध्यात्म, शासन-प्रशासन, शिक्षा-समाज हर क्षेत्र में कायस्थों का योगदान सर्वोच्च और अविस्मरणीय है। कायस्थों के कुलनाम व उपनाम उनके कार्य से जुड़े रहे हैं। पुराण कथाओं में भगवान चित्रगुप्त के १२ पुत्र चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान कहे गए हैं। ये सब  

            गुणाधारित उपनाम विविध विविध जातियों के गुणवानों द्वारा प्रयोग किए जाने के कारण अग्निहोत्री व फड़नवीस ब्राह्मणों, वर्मा जाटों, माथुर वैश्यों, सिंह बहादुर आदि राजपूतों में भी प्रयोग किए जाते हैं। कायस्थ यह सत्य जानने के कारण अन्तर्जातीय विवाह से परहेज नहीं करते। समय के साथ चलते हुए ज्ञान-विज्ञान, शासन-प्रशासन के यंग होते हैं। इसीलिए वे आधे मुसलमान और आधे अंग्रेज भी कहे गए। लोकोक्ति 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' का भावार्थ यही है कि कायस्थ के संबंधी हर जाति में होते हैं, कायस्थ के घर खाया तो उसके सब संबंधियों के घर भी खा लिया। 

            कायस्थों के अवदान को देखते हुए उन्हें समय-समय पर उपनाम या उपाधियाँ दी गईं। कुछ कुलनाम और उनके अर्थ निम्न हैं-

अंबष्ट/हिमवान- अंबा (दुर्गा) को इष्ट (आराध्य) माननेवाले, हिम/बर्फ वाले हिमालय (पार्वती का जन्मस्थल) में जन्मे पार्वती भक्त । 
अग्निहोत्री- नित्य अग्निहोत्र करनेवाले। 
अष्ठाना/अस्थाना- बाहुबल से स्थान (क्षेत्र) जीतकर राज्य स्थापित करनेवाले। 
आडवाणी- सिन्धी कायस्थ। 
करंजीकर- करंज क्षेत्र निवासी, जिनके हाथ में उच्च अधिकार होता था।  कायस्थ/ब्राह्मण  उच्च शिक्षित थे, वे कर (हाथ) की कलम से फैसले करते थे। वे उपनाम के अंत में 'कर' लगाते थे।  
कर्ण/चारुण- महाभारत काल में राजा कर्ण के विश्वासपात्र तथा उनके प्रतिनिधि के नाते शासन करनेवाले।
कानूनगो- कानूनों का ज्ञान रखनेवाले, कानून बनानेवाले।
कुलश्रेष्ठ/अतीन्द्रिय- इंद्रियों पर विजय पाकर उच्च/कुलीन वंशवाले।
कुलीन- बंगाल-उड़ीसा निवासी उच्च कुल के कायस्थ।  
खरे- खरा (शुद्ध) आचार-व्यवहार रखनेवाले।
गौर- हर काम पर गौर (ध्यान) पूर्वक करनेवाले। 
घोष- श्रेष्ठ कार्यों हेतु जिनका  जयघोष किया जाता रहा।
चंद्रसेनी- महाराष्ट्र-गुजरात निवासी चंद्रवंशी कायस्थ।  
चिटनवीस- उच्च अधिकार प्राप्त जन जिनकी लिखी चिट (कागज की पर्ची) का पालन राजाज्ञा के तरह होता था। ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे। 
ठाकरे/ठक्कर/ठाकुर/ठकराल- ठाकुर जी (साकार ईश्वर) को इष्ट माननेवाले, उदड़हों के करण देश के अलग-अलग हिस्सों में बस गए और नाम भेद हो गया। 
दत्त- ईश्वर द्वारा दिया गया, प्रभु कृपया से प्राप्त।    
दयाल- दूसरों के प्रति दया भाव से युक्त।
दास- ईश्वर भक्त, सेवा वृत्ति (नौकरी) करनेवाले।
नारायण- विष्णु भक्त। 
निगम/चित्रचारु- आगम-निगम ग्रंथों के जानकार, उच्च आध्यात्मिक वृत्ति के करण गम (दुख) न करनेवाले। सुंदर काया वाले।  
प्रसाद- ईश्वरीय कृपया से प्राप्त, पवित्र, श्रेष्ठ।। 
फड़नवीस- फड़ = सपाट सतह, नवीस = बनानेवाला, राज्य की समस्याएँ हल कार राजा का काम आसान बनाते थे । ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे। 
बख्शी- जिन्हें बहुमूल्य योगदान के फलस्वरूप शासकों द्वारा जागीरें बख्शीश (ईनाम) के रूप में दी गईं।
ब्योहार- सद व्यवहार वृत्ति से युक्त।
बसु/बोस- बसु की उत्पत्ति वसु अर्थात समृद्ध व तेजस्वी होने से है। 
बहादुर- पराक्रमी।
बिसारिया- यह सक्सेना (शक/संदेहों की सेना/समूह का नाश करनेवाले) मूल नाम (मतिमान = बुद्धिमान) कायस्थों की एक अल्ल (वंशनाम) है। एक बुंदेली कहावत है 'बीती ताहि बिसार दे' अर्थात अतीत के सुख-दुख पर गर्वीय शोक न कर पर्यटन कार आगे बढ़ना चाहिए। जिन्होंने इस नीति वाक्य पर अमल किया उन्हें 'बिसारिया' कहा गया।  
भटनागर/चित्र- सभ्य सुंदर जुझारु योद्धा, देश-समाज के लिए युद्ध करनेवाले। 
महालनोबीस- महाल = महल, नौविस/नौबिस = लेखा-जोखा खने वाला, राजमहल के नियंत्रक लेखाधिकारी। 
माथुर/चारु- मथुरा निवासी, गौरवर्णी सुंदर।
मित्र- विश्वामित्र गोत्रीय कायस्थ जो निष्ठावान मित्र होते हैं। 
मौलिक- बंगाल/उड़ीसावासी कायस्थ जो अपनी मिसाल आप (श्रेष्ठ) थे। 
रंजन - कला निष्णात।
राय- शासकों को राय-मशविरा देनेवाले।
राढ़ी- राढ़ी नदी पार कर बंगाल-उड़ीसा आदि में शासन व्यवस्था स्थापित करनेवाले।
रायजादा- शासकों को बुद्धिमत्तापूर्णराय देनेवाले।
वर्मा- अपने देश-समाज की रक्षा करनेवाले।
वाल्मीकि- महर्षि वाल्मीकि के शिष्य। वाल्मीकि (वल्मीकि, वाल्मीकि) = चींटी/दीमक की बाँबी भावार्थ दीमक की तरह शत्रु का नाश तथा चीटी की तरह एक साथ मिलकर सफल होनेवाले। 
श्रीवास्तव/भानु- वास्तव में श्री (लक्ष्मी) सम्पन्न, सूर्य की तरह ऐश्वर्यवान।
सक्सेना (मतिमान = बुद्धिमान)- शक आक्रमणकारियों की सेनाओं को परास्त करनेवाले पराक्रमी, शक (संदेहों) क सेना/समूह का समाधान कर नाश करने वाले बुद्धिमान।
सहाय- सबकी सहायता हेतु तत्पर रहने वाले।
सारंग- समर्पित प्रेमी, सारंग पक्षी अपने साथी का निधन होने पर खुद भी जान दे देता है।
सूर्यध्वज/विभानु- सूर्यभक्त राजा जिनके ध्वज पर सूर्य अंकित होता था। सूर्य की तरह अँधेरा दूर करनेवाले।  
सेन/सैन- संत अर्थात आध्यात्मिक तथा सैन्य अर्थात शौर्य की पृष्ठभूमिवाले। आन-बयान-शान की तरह नैन-बैन-सैन का प्रयोग होता है।  
शाह/साहा- राजसत्ता युक्त।
***
दोस्त दोस्त की आँख हो, दोस्त दोस्त का कान।
दोस्त नहीं कहता मगर, बसे दोस्त में जान।
२१.९.२०२५ 
***
सॉनेट
राजू भाई!
*
बहुत हँसाया राजू भाई!
संग हमेशा रहे ठहाके
झुका न पाए तुमको फाके
उन्हें झुकाया राजू भाई!
खुद को पाया राजू भाई!
आम आदमी के किस्से कह
जन गण-मन में तुम पाए रह
युग-सच पाया राजू भाई!
हो कठोर क्यों गया ईश्वर?
रहे अनसुने क्रंदन के स्वर
दूर धरा से गया गजोधर
चाहा-पाया राजू भाई!
किया पराया राजू भाई!
बहुत रुलाया राजू भाई!
२१-९-२०२२
***
दोहा सलिला:
कुछ दोहे अनुप्रास के
*
अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
*
अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
*
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
२१-९-२०१३
***
हाइकु गीत :
प्रात की बात
*
सूर्य रश्मियाँ
अलस सवेरे आ
नर्तित हुईं.
*
शयन कक्ष
आलोकित कर वे
कहतीं- 'जागो'.
*
कुसुम कली
लाई है परिमल
तुम क्यों सोए?
*
हूँ अवाक मैं
सृष्टि नई लगती
अब मुझको.
*
ताक-झाँक से
कुछ आह्ट हुई,
चाय आ गई.
*
चुस्की लेकर
ख़बर चटपटी
पढ़ूँ, कहाँ-क्या?
*
अघट घटा
या अनहोनी हुई?
बासी खबरें.
*
दुर्घटनाएँ,
रिश्वत, हत्या, चोरी,
पढ़ ऊबा हूँ.
*
चहक रही
गौरैया, समझूँ क्या
कहती वह?
*
चें-चें करती
नन्हीं चोचें दिखीं
ज़िन्दगी हँसी.
*
घुसा हवा का
ताज़ा झोंका, मुस्काया
मैं बाकी आशा.
*
मिटा न सब
कुछ अब भी बाकी
उठूँ-सहेजूँ.
२१.९.२०१०
***

शनिवार, 20 सितंबर 2025

सितंबर २०, हिंदी ग़ज़ल, सॉनेट, मुक्तिका, भक्ति गीत, तुम, प्रार्थना

सलिल सृजन सितंबर २०
*
हिंदी ग़ज़ल
.
राम राम करते गिरीश जी
सत्य मानिए हैं मनीश जी
.
जिन्हें हकीकत यह मालुम हैं
कहें न लेकिन हैं हरीश जी
.
भिन्न न हरि-हर कृपा कर रहे
जब रमेश जी तब सतीश जी
.
पृथा पुत्र मनु, धरती माता
खुद को मत मानें पृथीश जी
.
राम काम निष्काम कीजिए
'सलिल' सदय होंगे कपीश जी
***
एक दोहा 
छाया शुक्ला हो गई, छवि श्यामल है खूब।
दर्श राधिका-कान्ह कर, गए हर्ष में डूब।।
१९.९.२०२५
***
कार्यशाला
सॉनेट गणपति
शिप्रा सेन
*
वरद विनायक मयूरेश्वरा, 
गणधीश्वर विघ्न हरो। 
गिरिजात्मजा बल्लारेश्वरा,  
ओमकार पार्वति तनया नमो।  
चिंतामणि ही सिद्धिविनायक,  
गुणप्रदायका नमो नमो।  
महा गणपतये विघ्नेश्वरा,  
प्रथम पूज्य की जय बोलो।  
प्रणव स्वरूपा गण नाथा,  
अंबा भवानी कुमार शंभो।  
कारूण्य लावण्य लंबोदरा,  
शरणम् शरणम् प्रभो। 
महादेवादिदेव विनायका,  
अष्ट विनायक श्री गणराया।।  
सॉनेट की सभी १४ पंक्तियों का पदभार समान होना जरूरी है। उक्त में ११ से १७ उच्चारों का प्रयोग है। 
*
सॉनेट संशोधित
गणपति
(पदभार १६)
*
वरद विनायक मयूरेश्वरा,
हे गणधीश्वर! विघ्न हरो प्रभु,
गिरिजात्मजा बल्लारेश्वरा,
हे ओंकार! पार्वती-तनय विभु।
चिंतामणि श्री सिद्धिविनायक,
गुणप्रदायका नमो नमो हे!
श्री गणपतये विघ्न ईश्वरा,
प्रथम पूज्य की जय बोलो रे!
प्रणव स्वरूपा हे गणनाथा!,
अंबा भवानी-शंभु कुमार,
शरणम् शरणम् हे जगनाथ!
क्षमा करें प्रभो! परम उदार।
श्री गणराया हे विनायका!
नमन नमन प्रभु वर प्रदायका।।
२०-९-२०२३
*
सॉनेट
अरण्य वाणी
*
मनुज पुलक; सुन अरण्य वाणी
जीवन मधुवन बन जाएगा
कंकर शंकर बन गाएगा
श्वास-आस होगी कल्याणी
भुज भेंटे आलोक तिमिर से
बारी-बारी आए-जाए
शयन-जागरण चक्र चलाए
सीख समन्वय गिरि-निर्झर से
टिट्-टिट् करती विहँस टिटहरी
कुट-कुट कुतरे सुफल गिलहरी
गरज करे वनराज अफसरी
खेलें-खाएँ हिल-मिल प्राणी
मधुरस पूरित टपरी-ढाणी
दस दिश गुंजित अरण्य वाणी
२०-९-२०२२
***
मुक्तिका
निराला हो
*
जैसे हुए, न वैसा ही हो, अब यह साल निराला हो
मेंहनतकश ही हाथों में, अब लिये सफलता प्याला हो
*
उजले वसन और तन जिनके, उनकी अग्निपरीक्षा है
सावधान हों सत्ता-धन-बल, मन न तनिक भी काला हो
*
चित्र गुप्त जिस परम शक्ति का, उसके पुतले खड़े न कर
मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में, देव न अल्लाताला हो
*
कल को देख कलम कल का निर्माण आज ही करती है
किलकिल तज कलकल वरता मन-मंदिर शांत शिवाला हो
*
माटी तन माटी का दीपक बनकर तिमिर पिये हर पल
आए-रहे-जाए जब भी तब चारों ओर उजाला हो
*
क्षर हो अक्षर को आराधें, शब्द-ब्रम्ह की जय बोलें
काव्य-कामिनी रसगगरी, कवि-आत्म छंद का प्याला हो
*
हाथ हथौड़ा कन्नी करछुल कलम थाम, आराम तजे
जब जैसा हो जहाँ 'सलिल' कुछ नया रचे, मतवाला हो
२०-९-२०१७
***
मुक्तक सलिला:
*
प्रभु ने हम पर किया भरोसा, दिया दर्द अनुपम उपहार
धैर्य सहित कर कद्र, न विचलित हों हम, सादर कर स्वीकार
जितनी पीड़ा में खिलता है, जीवन कमल सुरभि पाता-
'सलिल' गौरवान्वित होता है, अन्यों का सुख विहँस निहार
***
भक्ति गीत:
*
हे प्रभु दीनानाथ दयानिधि
कृपा करो, हर विघ्न हमारे.
जब-जब पथ में छायें अँधेरे
तब-तब आशा दीप जला रे….
*
हममें तुम हो, तुममें हम हों
अधर हँसें, नैन ना नम हों.
पीर अधीर करे जब देवा!
धीरज-संबल कहबी न कम हों.
आपद-विपदा, संकट में प्रभु!
दे विवेक जो हमें उबारे….
*
अहंकार तज सकें ज्ञान का
हो निशांत, उद्गम विहान का.
हम बेपर पर दिए तुम्हीं ने
साहस दो हरि! नव उड़ान का.
सत-शिव-सुंदर राह दिखाकर
सत-चित-आनंद दर्श दिखा रे ….
*
शब्द ब्रम्ह आराध्य हमारा
अक्षर, क्षर का बना सहारा.
चित्र गुप्त है जो अविनाशी
उसने हो साकार निहारा.
गुप्त चित्र तव अगम, गम्य हो
हो प्रतीत जो जन्म सँवारे ….
२०-९-२०१३
***
नव गीत :
उत्सव का मौसम.....
*
तुम मुस्काईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
लगे दिहाड़ी पर हम
जैसे कितने ही मजदूर.
गीत रच रहे मिलन-विरह के
आँखें रहते सूर..
नयन नयन से मिले झुके
उठ मिले मिट गया गम.
तुम शर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
देखे फिर दिखलाये
एक दूजे को सपन सलोने.
बिना तुम्हारे छुए लग रहे
हर पकवान अलोने..
स्वेद-सिंधु में नहा लगी
हर नेह-नर्मदा नम.
तुम अकुलाईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
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कंडे थाप हाथ गुबरीले
सुना रहे थे फगुआ.
नयन नशीले दीपित
मना रहे दीवाली अगुआ..
गाल गुलाबी 'वैलेंटाइन
डे' की गाते सरगम.
तुम भर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
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प्रार्थना
भक्ति-भाव की विमल नर्मदा में अवगाहन कर तर जाएँ.
प्रभु ऐसे रीझें, भू पर आ, भक्तों के संग नाचें-गाएँ..
हम आरती उतारें प्रभु की, उनके चरणों पर गिर जाएँ.
जय महेश! जय बम-बम भोले, सुन प्रभु हमको कंठ लगाएँ..
स्वप्न देख ले 'सलिल' सुनहरे, पूर्व जन्म के पुण्य भुनाएँ..
प्रभु को मन-मंदिर में पाकर, तन को हँसकर भेंट चढ़ाएँ..
२०-९-२०१०
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