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गुरुवार, 12 जून 2025

१२ जून, सॉनेट, अहंकार, भारत, शिरीष, हास्य, ठेंगा, विधाता, शुद्धगा, दोहा,

सलिल सृजन १२ जून

*
दोहा सलिला
झलक न रचनाकार की, है रचना से भिन्न। रचना रख सिर-आँख पर, हो मत किंचित् खिन्न।। .
रुचि पूर्वक रचना करे, पढ़ हो रचना-लीन।
द्वैत तजे अद्वैत वर, रचनाकार प्रवीण।।
.
रच ना, रचने दे सदा, रचना मन में आप। सत्-शिव-सुंदर सृजन में, जाता खुद ही व्याप।। .
निराकार आकार ले, रचना में बन शब्द। चित्र गुप्त साकार हो, रचनाकार निशब्द।। .
रचना-रचनाकार से, पाठक हो जब एक। कथ्य भाव रस बिंब लय, ग्रहण करें सविवेक।।
१२.६.२०२५ ०००
सॉनेट
अहंकार
*
अहंकार सिर पर चढ़ा,
खुद को कहते श्रेष्ठ खुद,
दिन-दिन अधिकाधिक बढ़ा,
सबसे ज्यादा नेष्ठ खुद।
औरों को उपदेश दें,
चाल-चलन विपरीत कर,
श्रेय न पर को लेश दें,
चाटुकार से प्रीत कर।
देख मलिन मुख तोड़ दें,
दर्पण मुख धोते नहीं,
ऐसों को झट छोड़ दें,
जो पछता-रोते नहीं।
अहंकार ही हार है,
शीघ्र पतन का द्वार है।
बेंगलुरू, १२.६.२०२४
***
दोहा दुनिया
मैं भारत हूँ कह करें, मनमानी दिन-रात।
भारत का दुख दिख रहा, किंचित तुम्हें न तात।।
*
मैं भारत हूँ मानकर, सत्ता मूँदे नैन।
जन-मन को पीड़ित करे, आप गँवाए चैन।।
*
मैं भारत हूँ कह सहे, जनगण चुप हो पीर।
मन ही मन में घुट रही, जनता हुई अधीर।।
*
मैं भारत हूँ कह रहीं, घुटती साँसें रोज।
अस्पताल धन लूटते, गिद्ध पा रहे भोज।।
*
मैं भारत हूँ बोलतीं, दबीं रेत में लाश।
सिसक रही है हर नदी, हर घर मौन-हताश।।
१२-६-२०२१
***
एक गीत
शिरीष के फूल
*
फूल-फूल कर बजा रहे हैं
बीहड़ में रमतूल,
धूप-रूप पर मुग्ध, पेंग भर
छेड़ें झूला झूल
न सुधरेंगे
शिरीष के फूल।
*
तापमान का पान कर रहे
किन्तु न बहता स्वेद,
असरहीन करते सूरज को
तनिक नहीं है खेद।
थर्मामीटर नाप न पाये
ताप, गर्व निर्मूल
कर रहे हँस
शिरीष के फूल।।
*
भारत की जनसँख्या जैसे
खिल-झरते हैं खूब,
अनगिन दुःख, हँस सहे न लेकिन
है किंचित भी ऊब।
माथे लग चन्दन सी सोहे
तप्त जेठ की धूल
तार देंगे
शिरीष के फूल।।
*
हो हताश एकाकी रहकर
वन में कभी पलाश,
मार पालथी, तुरत फेंट-गिन
बाँटे-खेले ताश।
भंग-ठंडाई छान फली संग
पीकर रहते कूल,
हमेशा ही
शिरीष के फूल।।
*
जंगल में मंगल करते हैं
दंगल नहीं पसंद,
फाग, बटोही, राई भाते
छन्नपकैया छंद।
ताल-थाप, गति-यति-लय साधें
करें न किंचित भूल,
नाचते सँग
शिरीष के फूल।।
*
संसद में भेजो हल कर दें
पल में सभी सवाल,
भ्रमर-तितलियाँ गीत रचें नव
मेटें सभी बबाल।
चीन-पाक को रोज चुभायें
पैने शूल-बबूल
बदल रँग-ढँग
शिरीष के फूल।।
***
हास्य रचना
ठेंगा
👍
ठेंगे में 'ठ', ठाकुर में 'ठ', ठठा हँसा जो वह ही जीता
कौन ठठेरा?, कौन जुलाहा?, कौन कहाँ कब जूते सीता?
बिन ठेंगे कब काम चला है?, लगा, दिखा, चूसो या पकड़ो
चार अँगुलियों पर भारी है ठेंगा एक, न उससे अकड़ो
ठेंगे की महिमा भारी है, पूछो ठकुरानी से जाकर
ठेंगे के संग जीभ चिढ़ा दें, हो जाते बेबस करुणाकर
ठेंगा हाथों-लट्ठ थामता, पैरों में हो तो बेनामी
ठेंगा लगता, इसकी दौलत उसको दे देता है दामी
लोक देखता आया ठेंगा, नेता दिखा-दिखा है जीता
सीता-गीता हैं संसद में, लोकतंत्र को लगा पलीता
राम बाग़ में लंका जैसा दृश्य हुआ अभिनीत, ध्वंस भी
कान्हा गायब, यादव करनी देख अचंभित हुआ कंस भी
ठेंगा नितीश मुलायम लालू, ममता माया जया सोनिया
मौनी बाबा गुमसुम-अण्णा, आप बने तो मिले ना ठिया
चाय बेचकर छप्पन इंची, सीना बन जाता है ठेंगा
वादों को जुमला कहता है, अंधे को कहता है भेंगा
लोकतंत्र को लोभतंत्र कर, ठगता ठेंगा खुद अपने को
ढपली-राग हो गया ठेंगा, बेच रहा जन के सपने को
ठेंगे के आगे नतमस्तक, चतुर अँगुलियाँ चले न कुछ बस
ठेंगे ठाकुर को अर्पित कर भोग लगाओ, 'सलिल' मिले जस
१२-६-२०१६
***
मुक्तक
नेह नर्मदा में अवगाहो, तन-मन निर्मल हो जाएगा।
रोम-रोम पुलकित होगा प्रिय!, अपनेपन की जय गाएगा।।
हर अभिलाषा क्षिप्रा होगी, कुंभ लगेगा संकल्पों का,
कोशिश का जनगण तट आकर, फल पा-देकर तर जाएगा।।
७-६-२०१६
***
छंद सलिला:
विधाता/शुद्धगा छंद
*
छंद लक्षण: जाति यौगिक, प्रति पद २८ मात्रा,
यति ७-७-७-७ / १४-१४ , ८ वीं - १५ वीं मात्रा लघु
विशेष: उर्दू बहर हज़ज सालिम 'मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन' इसी छंद पर आधारित है.
लक्षण छंद:
विधाता को / नमन कर ले , प्रयासों को / गगन कर ले
रंग नभ पर / सिंधु में जल , साज पर सुर / अचल कर ले
सिद्धि-तिथि लघु / नहीं कोई , दिखा कंकर / मिला शंकर
न रुक, चल गिर / न डर, उठ बढ़ , सीकरों को / सलिल कर ले
संकेत: रंग =७, सिंधु = ७, सुर/स्वर = ७, अचल/पर्वत = ७
सिद्धि = ८, तिथि = १५
उदाहरण:
१. न बोलें हम न बोलो तुम , सुनें कैसे बात मन की?
न तोलें हम न तोलो तुम , गुनें कैसे जात तन की ?
न डोलें हम न डोलो तुम , मिलें कैसे श्वास-वन में?
न घोलें हम न घोलो तुम, जियें कैसे प्रेम धुन में?
जात = असलियत, पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात
२. ज़माने की निगाहों से , न कोई बच सका अब तक
निगाहों ने कहा अपना , दिखा सपना लिया ठग तक
गिले - शिकवे करें किससे? , कहें किसको पराया हम?
न कोई है यहाँ अपना , रहें जिससे नुमायाँ हम
३. है हक़ीक़त कुछ न अपना , खुदा की है ज़िंदगानी
बुन रहा तू हसीं सपना , बुजुर्गों की निगहबानी
सीखता जब तक न तपना , सफलता क्यों हाथ आनी?
कोशिशों में खपा खुदको , तब बने तेरी कहानी
४. जिएंगे हम, मरेंगे हम, नहीं है गम, न सोचो तुम
जलेंगे हम, बुझेंगे हम, नहीं है तम, न सोचो तुम
कहीं हैं हम, कहीं हो तुम, कहीं हैं गम, न सोचो तुम
यहीं हैं हम, यहीं हो तुम, नहीं हमदम, न सोचो तुम
*********
१२-६-२०१४

बुधवार, 11 जून 2025

जून ११, सरस्वती, स्वर दोहे, जाह्नवी, मुक्तिका, नवगीत, रोहिताश्व अस्थाना, कुण्डलिया, समीक्षा

सलिल सृजन जून ११
अंतर्राष्ट्रीय जंगली बिल्ली (लिंक्स) दिवस 
*
प्रार्थना
मोरे बिसरइयो अपराध धार बारी सारद!
तैं दाता, मैं भिक्खू माता
मैं याचक, तैं नामी दाता
मोरी पूरी करियो साध धार बारी सारद!
मोरे बिसरइयो अपराध धार बारी सारद!
तैं ज्ञानी, मैं हौं अज्ञानी
तैं दयालु, मैं हौं अभिमानी
मोरी हर लइयो हर ब्याध धार बारी सारद!
मोरे बिसरइयो अपराध धार बारी सारद!
तैं गुनवंती, गुनविहीन मैं
तैं रसवंती, रसविहीन मैं
कर सब जग को निर्बाध धार बारी सारद!
मोरे बिसरइयो अपराध धार बारी सारद!
११.५.२०२५
०0०

*
दोहा सलिला
श्री हरिशंकर दुबे जी के प्रति
*
ॐ अनाहद नाद ही, सकल सृष्टि का मूल।
नित्य निनादित 'नर्मदा', मेटे भव के शूल।।
*
वन्दन 'भारत'-'भारती', गणपति शारद मात।
'हरि शंकर' अभिषेक कर, जबलपुरी सुख पात।।
*
सँग गौतम-गोविंद के, मुदित कृष्ण अजिताभ।
आशीषें चंद्रा-उषा, सृजन कल्प तरु पात।।
*
नीना पूनम प्रीति की, आशा सफलीभूत।
रूह हुई संजीव लख, रूही हर्ष प्रभूत।।
*
मोहन करें विनोद हँस, शशि देखें धीरेंद्र।
कृष्ण कांत की कांति सम, जनगण मन रसिकेंद्र।।
*
'सुनिए पंडित जी' 'धरा अकुलानी' क्यों आज?
'दुखवा कासे कहूँ' री!, सजनी चुप किस व्याज?
*
'गुलबकावली' सूखती, 'अर्धसत्य' की जीत।
करे 'पाठशाला' विहँस, 'गोशाला' से प्रीत।।
*
'मौत माsस्टर की' हुई, 'परदेसी' के हाथ।
'भाव भूमियाँ' भिन्न ये, ऊँचे-नीचे माथ।।
*
नयन पटल पर दिख रहे, भावनाओं के चित्र।
'शब्द-चित्र' अनुभूति के, धरातली हैं मित्र।।
*
भावभूमियाँ हैं 'प्रगति-पीड़ा' के आयाम।
भारत में नारी हुई, 'रत्ना' चिर निष्काम।।
*
है साहित्य-समाज का, नाता नित जीवंत।
सत्-शिव-सुंदर मूल्य हैं, शाश्वत अमिट अनंत।।
*
कथ्य-शिल्प-शैली सहज, शब्द सुबोध सटीक।
नवता-लघुता मिल गले, नई बनातीं लीक।।
*
गद्य-पद्य भू-गगन सम, गाएँ जीवन-गान।
शब्द-शब्द फूँके सतत, विहँस जान में जान।।
*
हरिशंकर साहित्य की, प्रबल अनवरत धार।
हिंदी मैया का करे, मनभवन श्रृंगार।।
*
स्वर संगम - अ से अ:
अभिमन्यु सम संघर्ष कर, भेदा बाधा-व्यूह।
आकारित रचनाओं में, मानव मूल्य समूह।।
*
इसने-उसने जो कहा, उस पर दिया न ध्यान।
ईशाराधन कर किया, शब्द-बाण संधान।।
*
उत्तम मूल्यों का सृजन, ले सहेज साहित्य।
ऊर्जा बनकर सभ्यता, सके उगा आदित्य।।
*
एक-एक को जोड़ना, अनुपम बने प्रसंग।
ऐक्य भाव साहित्य का, बने मिलन का रंग।।
*
ओम व्योम तक छा सके, गूँज सके अभियान।
और-और हिंदी बढ़े, हो पूरा अरमान।।
*
अंश पूर्ण हो भारती, सके जगत में व्याप।
अ: अखंडानंद हो, आप आप में आप।।
११.६.२०२२
***
एक रचना
जाह्नवी
*
बाल अरुण की सखी जाह्नवी
भू पर उतरी परी जाह्नवी
नेह नर्मदा निर्मल-चंचल
लोक कहे सुरसरी जाह्नवी
स्वप्न सलौने अनगिन देखे
बिन सोए, जग रही जाह्नवी
रूठे-मचले धरे शीश पर
नभ ही बात न सुने जाह्नवी
शारद-रमा-उमा की छवि ले
भव तारे खुद तरे जाह्नवी
है सब दुनिया खोटी लेकिन
सौ प्रतिशत है खरी जाह्नवी
मान सको तो बिटिया है यह
लाड़ करे ज्यों जननी जाह्नवी
जान बसी है इसमें सबकी
जान सभी को रही जाह्नवी
११-६-२०१९
***
कार्यशाला:
रचना-प्रतिरचना राकेश खंडेलवाल-संजीव
*
गीत
संस्कार तो बंदी लोक कथाओं में
रिश्ते-नातों का निभना लाचारी है
*
जन्मदिनों से वर्षगांठ तक सब उत्सव
वाट्सएप की एक पंक्ति में निपट गये
तीज और त्योहार, अमावस पूनम भी
एक शब्द "हैप्पी" में जाकर सिमट गये
सुनता कोई नही, लगी है सीडी पर
कथा सत्यनारायण कब से जारी है
*
तुलसी का चौरा, अंगनाई नहीँ रहे
अब पहले से ब​हना-भाई नहीं रहे
रिश्ते जिनकी छुअन छेड़ती थी मन में
मधुर भावना की शहनाई, नहीं रहे
दुआ सलाम रही है केवल शब्दो में
और औपचारिकता सी व्यवहारी हैं
*
जितने भी थे फेसबुकी संबंध हुए
कीकर से मन में छाए मकरंद हुये
भाषा के सब शब्द अधर की गलियों से
फिसले, जाकर कुंजीपट में बंद हुए
बातचीत की डोर उलझ कर टूट गई
एक भयावह मौन हर तरफ तारी है
***
प्रतिगीत:
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
भाव भूलकर क्यों शब्दों में सिमट गए?
शिव बिसराकर, शव से ही क्यों लिपट गए?
फ़िक्र पर्व की, कर पर्वों को ठुकराया-
खुशी-खुशी खुशियों से दबकर चिपट गए।
व्यथा-कथा के बने पुरोहित हम खुद ही-
तिनका हो, कहते: "पर्वत पर भारी" क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
किसकी इच्छा है वह सच को सही कहे?
कौन यहाँ पर जो न स्वार्थ की बाँह गहे?
देख रहे सब अपनेपन के किले ढहे-
किंतु न बदले, द्वेष-घृणा के वसन तहे।
यक्ष-प्रश्न का उत्तर, कहो! कौन देगा-
हुई निराशा हावी, आशा हारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
क्षणभंगुर है सृष्टि सत्य यह जान लिया।
अचल-अटल निज सत्ता-संतति मान लिया।
पानी नहीं आँख में किंचित शेष रहा-
धानी रहे न धरती, हठ यह ठान लिया।
पूज्या रही न प्रकृति, भोग्या मान उसे
शोषण कर बनते हैं हमीं पुजारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
कक्का-मम्मा, मौसा-फूफा हार गए,
'अंकल' बिना लड़े रण सबको मार गए।
काकी-मामी, मौसी-फूफी भी न रहीं-
'आंटी' के पाँसे नातों को तार गए।
हलो-हाय से हाय-हाय के पथ पर चल-
वाह-वाह की सोचें चाह बिसारी क्यों?.
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
मुखपोथी से जुड़े, न आँखों में देखा
नेह निमंत्रण का करते कैसे लेखा?
देह देह को वर हँस पुलक विदेह हुई-
अंतर्मन की भूल गयी लछमन रेखा।
घर ही जिसमें जलकर ख़ाक हुआ पल में-
उन शोलों को कहा कहो अग्यारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
११.६.२०१८
***
कुण्डलिया
नारी पर नर मर मिटे, है जीवन का सत्य
मरता हो तो जी उठा, यह भी नहीं असत्य
यह भी नहीं असत्य, जान पर जान लुटाता
जान जान को सात जन्म तक जान न पाता
कहे सलिल कविराय, मानिये माया आरी
छाया दे या धूप, उसी की मर्जी सारी
११-६-२०१७
***
एक दोहा 
स्लोगन, प्रॉमिस, लेक्चर, लोकतंत्र के नाम
मनी, करप्शन, धाँधली, बिक जाओ बेदाम
पुस्तक सलिला-
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय- ढलती हुई धूप, कविता संग्रह, ISBN ९७८-९३-८४९७९-८०-५, सुरेश चन्द्र सर्वहारा, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २०.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, ९८२९० १८९८७। कवि संपर्क ३ ऍफ़ २२ विज्ञान नगर, कोटा ३२४००५, ९९२८५३९४४६]
***
अनुभूति की अभिव्यक्ति गद्य और पद्य दो शैलियों में की जाती है। पद्य को विविध विधाओं में वर्गीकृत किया गया है। कविता सामान्यतः छंदहीन अतुकांत रचनाओं को कहा जाता है जबकि गीत लय, गति-यति को साधते हुए छंदबद्ध होता है। इन्हें झरने और नदी के प्रवाह की तरह समझा जा सकता है। अनुभूति और अभिव्यक्ति किसी बंधन की मुहताज नहीं होती। रचनाकार कथ्य के भाव के अनुरूप शैली और शिल्प चुनता है, कभी-कभी तो कथ्य इतना प्रबल होता है कि रचनाकार भी उपकरण ही हो जाता है, रचना खुद को व्यक्त करा लेती है। कुछ पद्य रचनाऐँ दो विधाओं की सीमारेखा पर होती हैं अर्थात उनमें एकाधिक विधाओं के लक्षण होते है। इन्हें दोनों विधाओं में वर्गीकृत किया जा सकता है। कवि - गीतकार सुरेशचंद्र सर्वहारा की कृति 'ढलती हुई धूप' कविता के निकट नवगीतों और नवगीत के निकट कविताओं का संग्रह है। विवेच्य कृति की रचनाओं को दो भागों 'नवगीत' और 'कविता' में वर्गीकृत भी किया जा सकता था किन्तु सम्भवतः पाठक को दोनों विधाओं की गंगो-जमुनी प्रतीति करने के उद्देश्य से उन्हें घुला-मिला कर रख आगया है।
कविता की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, न हो सकती है। गीत की समसामयिक विसंगति और विषमता से जुडी भावमुद्रा नव छन्दों को समाहित कर नवगीत बन जाती है जबकि छंद आंशिक हो या न हो तो वह कविता हो जाती है। 'ढलती हुई धूप' के मुखपृष्ठ पर अंकित चन्द्र का भ्रम उत्पन्न करता अस्ताचलगामी सूर्य इन रचनाओं के मिजाज की प्रतीति बिना पढ़े ही करा देता है। कवि के शब्दों में- ''आज जबकि संवेदना और रसात्मकता चुकती जा रही है फिर भी इस धुँधले परिदृश्य में कविता मानव ह्रदय के निकट है।''
प्रथम रचना 'शाम के साये' में ६ पंक्तियों के मुखड़े के बाद ५ पंक्तियों का अंतरा तथा मुखड़े के सम भार और तुकांत की ३-३ पंक्तियाँ फिर ६ पंक्तियों का अन्तरा है। दोनों अंतरों के बीच की ६ में से ३ पंक्तियाँ अंत में रख दी जाएँ तो यह नवगीत है। सम्भवत: नवगीत होने या न होने को लेकर जो तू-तू मैं-मैं समीक्षकों ने मचा रखी है उससे बचने के लिए नवगीतों को कविता रूप में प्रस्तुत किया गया है।
दिन डूबा / उत्तरी धरती पर / धीरे-धीरे शाम
चिट्ठी यादों की / ज्यों कोेेई / लाई मेरे नाम।
लगे उभरने पीड़ाओं के / कितने-कितने दंश
दीख रहे कुछ धुँधलाए से / अपनेपन के अंश।
सिमट गए / सायों जैसे ही / जीवन के आयाम
लगा दृश्य पर / अंधियारों का / अब तो पूर्ण विराम।
पुती कालिमा / दूर क्षितिज पर / सब कुछ हुआ उदास
पंछी बन / उड़ गए सभी तो / कोेेई न मेरे पास
खुशियों की तलाश, जाड़े की शाम, धुँधली शाम, पत्ते, चिड़िया, दुःख के आँसू, ज़िंदगी, उतरती शाम, सूखा पेड़, गुलमोहर, टेसू के फूल, फूल हरसिंगार के, बासंती हवा, यादों के बादल, याद तुम्हारी, दर्द की नदी, कविता और लड़की, झुलसते पाँव, फूल बैंगनी, जाड़े की धूप, माँ का आँचल, रिश्ते, समय शकुनि, लल्लू, उषा सुंदरी आदि रचनाएँ शिल्प की दृष्टि से नवगीत के समीप है जबकि पहली बारिश, धुंध में, कागज़ की नाव, ढलती हुई धूप, सीमित ज़िंदगी, सृजन, मेघदर्शन, बंजर मन, पेड़ और मैं, याद की परछाइयाँ, सूखी नदी, फूल खिलते हैं, लड़कियाँ, अकेली लड़की, निशब्द संबंध, वह स्त्री, युद्ध के बाद, नंगापन, एक बुजुर्ग का जाना, नव वर्ष, विधवा की बेटी, वयोवृद्ध एवं बूढ़ा, वृद्धाश्रम आदि कविता के निकट हैं।
सर्वहारा जी के मत में ''साहित्य का सामाजिक सरोकार भी होना चाहिए जो सामाजिक बुराइयों का बहिष्कार कर सामाजिक परिवर्तन का शंखनाद करे।'' इसीलिए विधवा की बेटी, वयोवृद्ध एवं बूढ़ा, वृद्धाश्रम,वह स्त्री, युद्ध के बाद, नंगापन, लड़कियाँ, अकेली लड़की, निशब्द संबंध जैसी कवितायें लिखकर वे पीड़ितों के प्रति संवेदनाएं व्यक्त करते हैं। ''युद्ध का ही / दूसरा नाम है बर्बरता / जो कर लेती है हरण / आँखों की नमी के साथ / धरती की उर्वरता'', और ''खुश नहीं / रह पाते / जीतनेवाले भी / अपराध बोध से / रहते हैं छीजते / हिमालय में गल जाते हैं'' लिखकर कवि संतुष्ट नहीं होता, शायद उसे पाठकीय समझ पर संदेह है, इसलिए इतना पर्याप्त हों पर भी वह स्पष्ट करता है ''पांडवों के शरीर / जो जैसे-तैसे कर / महाभारत हैं जीतते''।
पर्यावरण की चिंता सूखी नदी, फूल खिलते हैं, पेड़ और मैं, सूखा पेड़, गुलमोहर, टेसू के फूल, फूल हरसिंगार के, दर्द की नदी आदि रचनाओं में व्यक्त होती है। फूलों और खुशियों का रिश्ता अटूट है-
''रह-रह कर / झर रहे / फूल हरसिंगार के।
भीनी-भीनी / खुशबू से / भीग गया मन
साँसों को / बाँध रहा / नेह का बंधन
लौट रहे / दिन फिर से / प्यार और दुलार के।
थिरक उठा / मस्ती से / आँगन का पोर - पोर
नच उठा / खुशियों से / घर-भर का / ओर - छोर
गए रहा ही / गीत कौन / मान और मनुहार के।
रातों को / खिलते थे / जीवन में झूमते
प्रातः को / हँस - हँस अब / मौत को हैं चूमते
अर्थ सारे / खो गए हैं / जीत और हार के''
इस नवगीत में फूल और मानव जीवन के साम्य को भी इंगित किया गया है।
सर्वहारा जी हिंदी - उर्दू की साँझा शब्द सम्पदा के हिमायती हैं। गीतों के कथ्य आम जन को सहजता से ग्राह्य हो सकने योग्य हैं। उनका 'गुलमोहर' नटखट बच्चों की क्रीड़ा का साथी है '' दूर - दूर तक / फैले सन्नाटों / औे लू के थपेड़ों को / अनदेखा कर / घरवालों की / आँख चुराकर / छाँव तले आए / नटखट बच्चों संग / खेलता गुलमोहर'' तो टेसू आश - विश्वास के रंग बिखेरता है - '' बिखर गए / रंग कई / आशा - विश्वास के / निखर गए / ढंग नए / जीवन उल्लास के / फागुन के फाग से / भा गए टेसू के फूल।''
गाँव से शहरों की पलायन की समस्या 'लल्लू' में मुखरित है-
लल्लू! / कितने साल हो गए / तुमको शहर गए
खेतों में / पसरा सन्नाटा / सूखे हैं खलिहान / साँय - साँय / करते घर - आँगन / सिसक रहे दालान।
भला कौन/ ऐसे में सुख से / खाये और पिए।
शब्द - सम्पदा और अभिव्यक्ति - सामर्थ्य के धनी सुरेश जी के स्त्री विमर्श विषयक गीत मार्मिकता से सराबोर हैं। इनमें पीड़ा और दर्द का होना स्वाभाविक है किन्तु आशा की किरण भी है-
देखते ही देखते / बह चली / रोशनी की नदी / उसके पथ में आज
कई काली रातों के बाद / फैला है उजाला / सुनहरी भोर का
एक नए / है यह आगाज।
सुरेश जी विराम चिन्हों को अनावश्यक समझने के काल में उनके महत्त्व से न केवल परिचित हैं अपितु विराम चिन्हों का निस्संकोच प्रयोग भी करते हैं। अल्प विराम, पूर्ण विराम, संयोजक चिन्ह आदि का उपयोग पाठक को रुचता है। इन गीतों की कहन सहज प्रवाहमयी, भाषा सरस और अर्थपूर्ण तथा कथ्य सम - सामयिक है। बिम्ब और प्रतीक प्रायः पारम्परिक हैं। पंक्तयांत के अनुप्रास में वे कुछ छूट लेते हुए चिड़िया, बुढ़िया, गडरिया, गगरिया जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग बेहिचक करते हैं।
सारतः, इन नवगीतों में नवगीत जैसी ताजगी, ग़ज़लों जैसी नफासत, गीतों की सी सरसता, मुकतक की सी चपलता, छांदस संतुलन और मौलिकता है जी पाठकों को केवल आकृष्ट करती है अपितु बाँधकर भी रखती है। यह पठनीय कृति लोकप्रिय भी होगी।
***
मुक्तिका-
धत्तेरे की
*
आँख खुले भी ठोकर खाई धत्तेरे की
नेता से उम्मीद लगाई धत्तेरे की
.
पूज रहा गोबर गणेश नित पोंगा पंडित
अंधे ने आँखें दिखलाई धत्तेरे की
.
चौबे चाहे छब्बे होना, दुबे रह गए
अपनी टेंट आप कटवाई धत्तेरे की
.
अपन लुगाई आप देख के आँख फेर लें
छिप-छिप ताकें नार पराई धत्तेरे की
.
एक कमा दो खरचें, ले-लेकर उधर हम
अपनी शामत आप बुलाई धत्तेरे की
११-६-२०१६
***
समीक्षा
काल है संक्रांति का - पठनीय, चिंतनीय और मननीय कृति
डॉ. रोहिताश्व अस्थाना
*
ह्रदय की कोमलतम, मार्मिक एवं सूक्ष्मतम अनुभूतियों की गेयात्मक, रागात्मक एवं संप्रेषणीय अभिव्यक्ति का नाम है। गीत में प्रायः व्यष्टिवादी एवं नवगीत में समष्टिवादी स्वर प्रमुख होता है। गीत के ही शिल्प में नवगीत के अंतर्गत नई उपमाओं एवं टटके बिम्बों के सहारे दुनिया - जहान की बातों को अप्रतिम प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। छन्दानुशासन में बँधे रहने के कारण गीत शाश्वत एवं सनातन विधा के रूप में प्रचलित रहा है किंतु प्रयोगवादी काव्यधारा के अति नीरस स्वरूप से विद्रोह कर नवगीत, ग़ज़ल, दोहा जैसी काव्य विधाओं का पुनः प्रचलन आरंभ हुआ।
अभी हाल में भाई हरिशंकर सक्सेना कृत 'प्रखर संवाद', सत्येंद्र तिवारी कृत 'मनचाहा आकाश' तथा यश मालवीय कृत 'समय लकड़हारा' नवगीत के श्रेष्ठ संकलनों के रूप में प्रकाशित एवं चर्चित हुए हैं। इसी क्रम में समीक्ष्य कृति 'काल है संक्रांति का' भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है। सलिल जी समय की नब्ज़ टटोलने की क्षमता रखते हैं। वस्तुतः यह संक्रांति का ही काल है। आज सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में टूटने एवं बिखरने तथा उनके स्थान पर नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना का क्रम जारी है। कवि ने कृति के शीर्षक गीत में इन परिस्थितियों का सटीक रेखांकन करते हुए कहा है- '' काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज / प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग / शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग / मनुज करनी देखकर है / खुद नियति भी दंग।'' इसी क्रम में सूरज को सम्बोधित कई अन्य गीत भी उल्लेखनीय हैं।
कवि सत्य की महिमा के प्रति आस्था जाग्रत करते हुए कहता है- ''तकदीर से मत हों गिले / तदबीर से जय हों किले / मरुभूभि से जल भी मिले / तन ही नहीं, मन भी खिले / करना सदा वह जो सही। ''
इतना ही नहीं कवि ने सामाजिक एवं आर्थिक विसंगति में जी रहे आम आदमी का जीवंत चित्र खींचते हुए कहा है - ''मिली दिहाड़ी / चल बाजार / चावल - दाल किलो भर ले ले / दस रुपये की भाजी / घासलेट का तेल लिटर भर / धनिया - मिर्ची ताज़ी। ''सचमुच रोज कुआं खोदकर पानी पीनेवाले इस लघु मानव की दशा अति दयनीय है।
इसी विषय पर 'राम बचाए' शीर्षक नवगीत की ये पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं - ''राम - रहीम बीनते कूड़ा / रज़िया - रधिया झाड़ू थामे / सड़क किनारे बैठे लोटे / बतलाते कितने विपन्न हम। ''
हमारी नई पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता में अपने लोक जीवन को भी भूलती जा रही है। कवि के शब्दों में - ''हाथों में मोबाइल थामे गीध-दृष्टि पगडंडी भूली / भटक न जाए / राजमार्ग पर जाम लगा है / कूचे - गली हुए हैं सूने / ओवन - पिज्जा का युग निर्दय / भटा कौन चूल्हे में भूने ?'' सचमुच आज की व्यवस्था ही चरमरा गई है। ''
सलिल जी ने अपने कुछ नवगीतों में राजनितिक प्रदुषण के चित्र खींचने का कमाल भी किया है। देखें - 'लोकतंत्र का पंछी बेबस / नेता पहले दाना डालें / फिर लेते पर नोंच / अफसर रिश्वत गोली मारें / करें न किंचित सोच। '' अथवा बातें बड़ी - बड़ी करते हैं / मनमानी का पथ वरते हैं / बना - तोड़ते संविधान खुद / दोष दूसरों पर मढ़ते हैं। '' इसी प्रकार कवि के कुछ नवगीतों में छोटी - छोटी पंक्तियाँ उद्धरणीय बन पड़ी हैं। जरा देखिये- ''वह खासों में ख़ास है / रुपया जिसके पास है।'', ''तुम बंदूक चलाओ तो / हम मिलकर कलम चलाएँगे।'', ''लेटा हूँ मखमल गादी पर / लेकिन नींद नहीं आती है।'', वेश संत का / मन शैतान।'', ''अंध-श्रृद्धा शाप है / बुद्धि तजना पाप है।'', ''खुशियों की मछली को / चिंता का बगुला / खा जाता है।'', ''कब होंगे आज़ाद / कहो हम / कब होंगे आज़ाद?'' आदि।
अच्छे दिन आने की आशा में बैठे दीन -हीन जनों को सांत्वना देते हुए कवि कहता है- ''उम्मीदों की फ़सल / उगाना बाकी है / अच्छे दिन नारों - वादों से कब आते हैं? / कहें बुरे दिन / मुनादियों से कब जाते हैं?'' इसी प्रकार एक अन्य नवगीत में कवि द्वारा प्रयुक्त टटके प्रतीकों एवं बिम्बों का उल्लेख आवश्यक है- ''खों - खों करते / बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी / पछुआ अम्मा बड़बड़ करतीं / डाँट लगतीं तगड़ी।''
निष्कर्षतः, कृति के सभी गीत - नवगीत एक से बढ़कर एक सुन्दर, सरस, भावप्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। इन सभी रचनाओं के कथ्य का कैनवास अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक है। यह सभी रचनाएँ छंदों के अनुशासन में आबद्ध और शिल्प के निकष पर खरी उतरनेवाली हैं।
कविता के नाम पर अतुकांत और व्याकरणविहीन पद्य सामग्री परोसनेवाली प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं को प्रस्तुत कृति आईना दिखने में समर्थ है। कुल मिलाकर प्रस्तुत कृति पठनीय ही नहीं अपितु मननीय और संग्रहणीय भी है। इस क्षेत्र में कवि से और अधिक सार्थक कृतियों की अपेक्षा की जा सकती है।
***
पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, ISBN ८१७७६१०००-७ , गीत-नवगीत, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२०११ म.प्र., दूरभाष-०७६१ २४१११३१, चलभाष- ९४२५१ ८३२४४, प्रथम संस्करण २०१६, मूल्य २००/- पेपरबैक संस्करण, ३००/- सजिल्द संस्करण।
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, एकन्तिका, निकट बावन चुंगी चौक, हरदोई २४१००१ उ. प्र., दूरभाष- ०५८५२ २३२३९२।
***
मुक्तक
खिलखिलाते रहें, मुसकुराते रहें
पंछियों की तरह चहचहाते रहें
हाथ में हाथ लेकर चलें साथ में
जिंदगी भर मधुर गीत गाते रहें
११-६-२०१४
***
नवगीत
क्यों??...
*
कहीं धूप क्यों?,
कहीं छाँव क्यों??...
*
सबमें तेरा
अंश समाया,
फ़िर क्यों
भरमाती है काया?
जब पाते तब-
खोते हैं क्यों?
जब खोते
तब पाते पाया।
अपने चलते
सतत दाँव क्यों?...
*
नीचे-ऊपर,
ऊपर-नीचे।
झूलें सब
तू डोरी खींचे,
कोई डरता,
कोई हँसता।
कोई रोये
अँखियाँ मींचे।
चंचल-घायल
हुए पाँव क्यों?...
*
तन पिंजरे में
मन बेगाना।
श्वास-आस का
ताना-बाना।
बुनता-गुनता
चुप सर धुनता।
तू परखे,
दे संकट नाना।
सूना पनघट,
मौन गाँव क्यों?...
११-६-२०१२
***

मंगलवार, 10 जून 2025

जून १०, पोयम, सरस्वती, दोहे, पानी, लहसुन, स्वास्थ्य, फुलबगिया, पूर्णिका

सलिल सृजन जून १०
*
पूर्णिका : फुलबगिया 
हो आनंदित आप, फुलबगिया में घूमिए। 
सुमन सुमन में व्याप, पवन झुलाए झूमिए।। 
भँवरा ख्वाब हसीन, दिखा रहा है कली को।   
मादक महुआ मौन, कहे बाँह भर चूमिए।। 
.
'लिव इन' का है दौर, पल-पल नाते बदलते। 
सुबह किसी के आप, शाम किसी के हो लिए।। 
.
रहे बाँह में एक, और चाह में दूसरा। 
नजर तीसरा खोज, कहे शीघ्र फ्री होइए।। 
फुलबगिया गमगीन, देख बिक रही प्रीत को।   
प्रेम न पूजा आज, एक-दूसरे हित जिए।।    
००० 
Particle
*
O tiny particle! You are really Great.
Are very heavy but without weight.
What is the size?, knowbody know.
From where you come?, where you go.
No caste, no cult, no religion, no race.
Still not loose, always win the race.
O little particle! nobody can destroy.
Nobody can sell, nobody can buy.
You are the ultimate root of universe.
You never bother fate favour or adverse.
world say your are the samllest.
But to me you are the biggest.
10-6-2022
***
मुक्तक
ले लेती है जिंदों की भी अनजाने ही जान मोहब्बत।
दे देती हैं मुर्दों को भी अनजाने ही जान मोहब्बत।।
मरुथल में भी फूल खिलाती, पत्थर फोड़ बहाती झरना-
यही जीव संजीव बनाती, फिर भी क्यों अनजान मोहब्बत।।...
१०-६-२०२१
***
सरस्वती वंदना
*
भोर भई पट खोल सुरसती
दरसन दे महतारी।
हात जोड़ ठाँड़े हैं सुर-नर
अकल देओ माँ! माँग रए वर
मौन न रह कुछ बोल सुरसती
काहे सुधी बिसारी?
ध्वनि-धुन, स्वर-सुर, वाक् देओ माँ!
मति गति-यति, लय-ताल, छंद गा
विधि-हरि-हर ने रमा-उमा सँग
तोरे भए पुजारी
नेह नरमदा की कलकल तू
पंछी गुंजाते कलरव तू
लोरी, बम्बुलिया, आल्हा तू
मैया! महिमा न्यारी
***
एक रचना
*
अरुण अर्णव लाल-नीला
अहम् तज मन रहे ढीला
स्वार्थ करता लाल-पीला
छंद लिखता नयन गीला
संतुलन चाबी, न ताला
बिना पेंदी का पतीला
नमन मीनाक्षी सुवाचा
गगन में अरविंद साँचा
मुकुल मन ने कथ्य बाँचा
कर रहा जग तीन-पाँचा
मंजरी सज्जित भुआला
पुनीता है शक्ति वर ले
विनीता मति भक्ति वर ले
युक्तिपूर्वक जिंदगी जी
मुक्ति कर कुछ कर्म वर ले
काल का सब जग निवाला
८-६-२०२०
***
वंदना
*
शारद मैया! कैंया लेओ
पल पल करता मन कुछ खटपट
चाहे सुख मिल जाए झटपट
भोला चंचल भाव अँजोरूँ
हूँ संतान तुम्हारी नटखट
आपन किरपा दैया! देओ
शारद मैया! कैंया लेओ
मो खों अच्छर ग्यान करा दे
परमशक्ति सें माँ मिलवा दे
इकनी एक, अनादि अजर 'अ'
दिक् अंबर मैया! पहना दे
किरपा पर कें नीचें सेओ
शारद मैया! कैंया लेओ
अँगुली थामो, राह दिखाओ
कंठ बिराजो, हृदै समाओ
सुर-सरगम-स्वर दे प्रसाद माँ
मत मोखों जादा अजमाओ
नाव 'सलिल' की भव में खेओ
शारद मैया! कैंया लेओ
९-६-२०२०
***
श्वास शारदा माँ बसीं, हैं प्रयास में शक्ति
आस लक्ष्मी माँ मिलीं, कर मन नवधा भक्ति
त्रिगुणा प्रकृति नमन स्वीकारो,
तीन देव की जय बोलो
तीन काल का आत्म मुसाफिर,
कर्म-धर्म मति से तोलो
नमन करो स्वीकार शारदे! नमन करो स्वीकार
सब कुछ तुम पर वार शारदे आया तेरे द्वार
तुम आद्या हो, तुम अनंत हो
तुम्हीं अंत मेरी माता
ध्यान तुम्हारे में खोता जो, वही आप को पा पाता
पाती मन की कोरी इस पर, ॐ लिखूँ झट सिखला दो
सलिल बिंदु हो नेह नर्मदा, झलक पुनीता विख्याता
ग्यान तारिका! कला साधिका!
मन मुकुलित पुष्पा दो माँ!
'मावस को कर शरत् पूर्णिमा,
मैया! वरदा प्रख्याता
शुभदा सुखदा मातु वर्मदा,
देवि धर्मदा जगजननी
वीणा झंकृत कर दो मन की,
जीवन अर्पित हे प्राता
जड़ है जीव करो संजीवित, चेतन हो सत् जान सके
शिव-सुंदर का चित्र गुप्त लख
रहे सदा तुमको ध्याता
१०-६-२०२०
***
क्षणिका
क्यों पूछते हो
राह यह जाती कहाँ है?
आदमी जाते हैं नादां
रास्ते जाते नहीं हैं।*
दिशाएँ दीवार,
छत है आसमान
बेदरो-दीवार
कहिए कौन है?
१०-६-२०१९
***
दोहे पानीदार
पानी तो अनमोल है, मत कह तू बेमोल।
कंठ सूखते ही तुझे, पता लगेगा मोल।।
*
वर्षा-जल संग्रहण कर, बुझे ग्रीष्म में प्यास।
बहा निरर्थक क्यों सहो, रे मानव संत्रास।।
*
सलिल' नीर जल अंबु बिन, कैसे हो आनंद।
कलकल ध्वनि बिन कल कहाँ, कैसे गूँज छंद।।
*
लहर-लहर हँस हहरकर, बन-मिट दे संदेश।
पाया-खोया भूलकर, चिंता मत कर लेश।।
*
पानी मरे न आँख का, रखिए हर दम ध्यान।
सूखे पानी आँख का, यदि कर तुरत निदान।।
*
10.6.2018
***
स्वास्थ्य सलिला
कुछ नुस्खे: छोटे लहसुन के बड़े फायदे.......
___________________________________________________
(इन बीमारियों में है रामबाण)
लहसुन सिर्फ खाने के स्वाद को ही नहीं बढ़ाता बल्कि शरीर के लिए एक औषधी की तरह भी काम करता है।इसमें प्रोटीन, विटामिन, खनिज, लवण और फॉस्फोरस, आयरन व विटामिन ए,बी व सी भी पाए जाते हैं। लहसुन शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाता है। भोजन में किसी भी तरह इसका सेवन करना शरीर के लिए बेहद फायदेमंद होता है आज हम बताने जा रहे हैं आपको औषधिय गुण से भरपूर लहसुन के कुछ ऐसे ही नुस्खों के बारे में जो नीचे लिखी स्वास्थ्य समस्याओं में रामबाण है।
1-- 100 ग्राम सरसों के तेल में दो ग्राम (आधा चम्मच) अजवाइन के दाने और आठ-दस लहसुन की कुली डालकर धीमी-धीमी आंच पर पकाएं। जब लहसुन और अजवाइन काली हो जाए तब तेल उतारकर ठंडा कर छान लें और बोतल में भर दें। इस तेल को गुनगुना कर इसकी मालिश करने से हर प्रकार का बदन का दर्द दूर हो जाता है।
2-- लहसुन की एक कली छीलकर सुबह एक गिलास पानी से निगल लेने से रक्त में कोलेस्ट्रॉल का स्तर नियंत्रित रहता है।साथ ही ब्लडप्रेशर भी कंट्रोल में रहता है।
3-- लहसुन डायबिटीज के रोगियों के लिए भी फायदेमंद होता है। यह शुगर के स्तर को नियंत्रित करने में कारगर साबित होता है।
4-- खांसी और टीबी में लहसुन बेहद फायदेमंद है। लहसुन के रस की कुछ बूंदे रुई पर डालकर सूंघने से सर्दी ठीक हो जाती है।
5-- लहसुन दमा के इलाज में कारगर साबित होता है। 30 मिली लीटर दूध में लहसुन की पांच कलियां उबालें और इस मिश्रण का हर रोज सेवन करने से दमे में शुरुआती अवस्था में काफी फायदा मिलता है। अदरक की गरम चाय में लहसुन की दो पिसी कलियां मिलाकर पीने से भी अस्थमा नियंत्रित रहता है।
6-- लहसुन की दो कलियों को पीसकर उसमें और एक छोटा चम्मच हल्दी पाउडर मिला कर क्रीम बना ले इसे सिर्फ मुहांसों पर लगाएं। मुहांसे साफ हो जाएंगे।
7-- लहसुन की दो कलियां पीसकर एक गिलास दूध में उबाल लें और ठंडा करके सुबह शाम कुछ दिन पीएं दिल से संबंधित बीमारियों में आराम मिलता है।
8-- लहसुन के नियमित सेवन से पेट और भोजन की नली का कैंसर और स्तन कैंसर की सम्भावना कम हो जाती है।
9-- नियमित लहसुन खाने से ब्लडप्रेशर नियमित रहता है। एसीडिटी और गैस्टिक ट्रबल में भी इसका प्रयोग फायदेमंद होता है। दिल की बीमारियों के साथ यह तनाव को भी नियंत्रित करती है।
10-- लहसुन की 5 कलियों को थोड़ा पानी डालकर पीस लें और उसमें 10 ग्राम शहद मिलाकर सुबह -शाम सेवन करें। इस उपाय को करने से सफेद बाल काले हो जाएंगे।
11- यदि रोज नियमित रूप से लहसुन की पाँच कलियाँ खाई जाएँ तो हृदय संबंधी रोग होने की संभावना में कमी आती है। इसको पीसकर त्वचा पर लेप करने से विषैले कीड़ों के काटने या डंक मारने से होने वाली जलन कम हो जाती है।
12- जुकाम और सर्दी में तो यह रामबाण की तरह काम करता है। पाँच साल तक के बच्चों में होने वाले प्रॉयमरी कॉम्प्लेक्स में यह बहुत फायदा करता है। लहसुन को दूध में उबालकर पिलाने से बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। लहसुन की कलियों को आग में भून कर खिलाने से बच्चों की साँस चलने की तकलीफ पर काफी काबू पाया जा सकता है।
13- लहसुन गठिया और अन्य जोड़ों के रोग में भी लहसुन का सेवन बहुत ही लाभदायक है।
लहसुन की बदबू-
अगर आपको लहसुन की गंध पसंद नहीं है कारण मुंह से बदबू आती है। मगर लहसुन खाना भी जरूरी है तो रोजमर्रा के लिये आप लहसुन को छीलकर या पीसकर दही में मिलाकर खाये तो आपके मुंह से बदबू नहीं आयेगी। लहसुन खाने के बाद इसकी बदबू से बचना है तो जरा सा गुड़ और सूखा धनिया मिलाकर मुंह में डालकर चूसें कुछ देर तक, बदबू बिल्कुल निकल जायेगी।
***
दोहा सलिला
बिन नागा सूरज उगे सुबह ढले हर शाम.
यत्न सतत करते रहें, बिना रुके निष्काम..
***
अंतिम पल तक दिये से, तिमिर न पाता जीत.
सफर साँस का इस तरह, पूर्ण करें हम मीत..
***
संयम तज हम बजायें, व्यर्थ न अपने गाल.
बन संतोषी हों सुखी, रखकर उन्नत भाल..
***
ढाई आखर पढ़े बिन पढ़े, तज अद्वैत वर द्वैत.
मैं-तुम मिटे, बचे हम ही हम, जब-जब खेले बैत..
***
जीत हार में, हार जीत में, पायी हुआ कमाल.
सलिल'-साधना सफल हो सके, सबकी अबकी साल..
***
दूर क्षितिज को ताकती, रहकर मौन निगाह.
धरे हाथ पर हाथ हम, देखें काल-प्रवाह..
१०.६.२०१०
***

सोमवार, 9 जून 2025

जून ९, अम्मी, शहतूत, आँसू, ओस, दोहा, नवगीत, हिंदी ग़ज़ल, तेवरी, सॉनेट

सलिल सृजन जून ९
*
सॉनेट
हुआ मोगरा मनुआ महका
गाल गुलाबी लाल हुआ है
छुईमुई सिर झुका हुआ है
तन पलाश होकर है दहका।
नैन-बैन हो महुआ बहका
चकित चपल चित किसे छुआ है?
माँग माँग भर करी दुआ है
आशा-पंछी कूका-चहका।

जुड़ी-चमेली हुई किशोरी
हरसिंगार सुमन चुन-चुनकर
हर सिंगार करे तरुणाई।
तितली ताके भ्रमर टपोरी
नैनों में सपने बुन-बुनकर
फुलबगिया करती पहुनाई।।
९.६.२०२५
०0०
सॉनेट  सलिला
*
सॉनेट  अंग्रेजी में कविता का एक रूप है। सॉनेट  (sonnet) एक इटालियन शब्द सॉनेट  (sonetto) से बना है जिसका अर्थ है नन्हा गीत या लघु गीत (little song)। तेरहवीं शताब्दी में आते-आते यह १४ पंक्तियोंवाली कविता हो गया। सॉनेट  की लय के आधार पर इसे लिखने के कुछ विशिष्ट नियम हैं। सॉनेट के रचयिता को सॉनेटकार (sonneteers) कहते हैं। सॉनेट के इतिहास में समय-समय पर सोनेटकार कुछ न कुछ परिवर्तन करते रहे हैं।
इटेलियन या मिलटेनियन सॉनेट
प्रसिद्ध सॉनेटकार जॉन मिल्टन ने इटालियन शिल्प पर सॉनेट लिखे। सोलहवीं शताब्दी में थॉमस याट (Wyatt) ने इटेलियाँ तथा फ्रेंच सॉनेटों का अनुवाद करने के साथ अपने सॉनेट भी लिखे। उन दिनों सॉनेट का विषय सामान्यत: प्रेम से सम्बंधित होता था। लन्दन में १५९० में जब प्लेग फैला तो सभी थियेटर आदिबंद हो गए, सभी नाटककारों को रंगमंच पर नाटक खेलना, अभिनय करना आदि प्रतिबंधित कर दिया गया था। उसे दौर में शेक्सपियर ने अपने सॉनेट लिखे। १६७० के बाद काफी समय तक सॉनेट्स लिखने का शौक खत्म हो गया। फ्रांसीसी क्रांति आरंभ होने पर अचानक सॉनेट फिर लिखे जाने लगे और वर्ड्सवर्थ, मिल्टन, कीट्स, शैली आदि ने सॉनेट लिखे। इटेलियन सॉनेट में एक अठपदी (oktev) तथा एक षट्पदी या दो त्रिपदियों (sestek) का संयोजन होता है। इसका मीटर ABBAABBA CDECDE है।
इंग्लिश या शेक्सपीरियन सॉनेट
सर्वाधिक प्रसिद्ध सॉनेटकार विलियम शेक्सपियर ने १५४ सोंनेट्स इआंबिक पेरामीटर में लिखे। शेक्सपियर के सॉनेट का शिल्प विधान ABAB CDCD EFEF GG था। इसमें तीन चतुष्पदी के बाद एक द्विपदी का समायोजन है। अंग्रेजी द्विपदी (English couplets) लयबद्ध होती है जिसके अंतिम शब्द (पदांत) की समान तुक होती है।
सोनेट का रचना विधान
१. सॉनेट में १४ काव्य पक्तियाँ होती हैं।
२. प्रथम १२ पंक्तियाँ ४ - ४ पंक्तियों के ३ पद या अंतरे होते हैं।
३. हर अंतरे की पहली-तीसरी पंक्ति तथा दूसरी-चौथी पंक्तियाँ समान लय तथा पदांत की होना आवश्यक है।
४. शेष अंतिम २ पंक्तियाँ द्विपदी (couplet) होती हैं जिसकी लय तथा पदांत समान होता है।
५. सॉनेट की हर पंक्ति इआंबिक पैरामीटर ( iambic perameter) में लिखी होती है।
इआंबिक पैरामीटर ( iambic perameter):
१. इआंबिक पैरामीटर की काव्य पंक्ति २ उच्चारों के ५ ध्वनि खंडों (syllables) में विभाजित होती है।
२. इसमें ५ उच्चारों का कम जोर से (unstressed अलंबित) उच्चारण किया जाता है जबकि अन्य ५ उच्चारों का अधिक जोर से (stressed प्रलंबित) उच्चारण किया जाता है।
९.६.२०२३ 
***
तेवरी / मुक्तिका :
मुमकिन
*
शीश पर अब पाँव मुमकिन.
धूप के घर छाँव मुमकिन..
.
बस्तियों में बहुत मुश्किल
जंगलों में ठाँव मुमकिन..
.
नदी सूखी, घाट तपता.
तोड़ता दम गाँव मुमकिन..
.
सिखाता उस्ताद कुश्ती.
छिपाकर इक दाँव मुमकिन..
.
कौन पाहुन है अवैया?
'सलिल'-अँगना काँव मुमकिन..
९-६-२०१७
***
मुक्तिका
*
खुद को खुद माला पहनाओ
अख़बारों में खबर छपाओ
.
करो वायदे, बोलो जुमला
लोकतंत्र को कफ़न उढ़ाओ
.
बन समाजवादी अपनों में
सत्ता-पद-मद बाँट-लुटाओ
.
आरक्षण की माँग रेवड़ी
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटो-खाओ
.
भीख माँगकर पुरस्कार लो
नगद पचा वापिस लौटाओ
.
घर की कमजोरी बाहर कह
गैरों से ताली बजवाओ
.
नाच न आये, तो मत सीखो
आँगन को टेढ़ा बतलाओ
[संस्कारी जातीय छंद ]
***
हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म से परमात्म की फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का वाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
२-५-२०१६
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
नवगीत:
*
जिंदगी की पढ़ो पुस्तक
सीख कर
कुछ नव लिखो,
दूसरों जैसे
दिखों मत
अलग औरों से दिखो.
*
उषा की किरणें सुनहरी
'सलिल' लहरों संग खेलें
जाल सिकता पर बनायें
परे भँवरों को ढकेलो
बाट सीढ़ी घाट पर चल
नाव ले
आगे बढ़ो.
मत उतारों से डरो रे
चढ़ावों पर हँस चढ़ो
अलग औरों से दिखो.
*
दुपहरी सीकर नहाओ
परिश्रम का पथ वरो
तार दो औरों को पहले
स्वार्थ साधे बिन तरो
काम करना कुछ न ऐसा
बिना मारे
खुद मरो.
रखो ऊँचा सदा मस्तक
पीर निज गुपचुप पियो रे
सभी के बनकर जियो
अलग औरों से दिखो.
*
साँझ से ले लालिमा कुछ
अपने सपनों पर मलो
भास्कर की तरह हँस फिर
ऊगने खातिर ढलो
निशा को देकर निमन्त्रण
नींद पलकों
पर मलो.
चन्द्रमा दे रहा दस्तक
चन्द्रिका अँजुरी भरो रे
क्षितिज-भू दीपित करो
अलग औरों से दिखो.
***
नव गीत:
आँसू और ओस
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद
मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम
हँस-मुस्का
प्रिय! सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी तो कहें:
बहुत रुके
'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' नाद
कलकल ध्वनि हम
नित गहिये हमको...
***
द्विपदियाँ (शे'र)
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बहे आँसू मगर इस इश्क ने नही छोड़ा
दिल जलाया तो बने तिल ने दिल ही लूट लिया
***
दोहा का रंग आँसू के संग
*
आँसू टँसुए अश्रु टिअर, अश्क विविध हैं नाम
नयन-नीर निरपेक्ष रह, दें सुख-दुःख पैगाम
*
भाषा अक्षर शब्द नत, चखा हार का स्वाद
कर न सके किंचित कभी, आँसू का अनुवाद
*
आह-वाह-परवाह से, आँसू रहता दूर
कर्म धर्म का मर्म है, कहे भाव-संतूर
*
घर दर आँगन परछियाँ, तेरी-मेरी भिन्न
साझा आँसू की फसल, करती हमें अभिन्न
*
आल्हा का आँसू छिपा, कजरी का दृष्टव्य
भजन-प्रार्थना कर हुआ, शांत सुखद भवितव्य
*
बूँद-बूँद बहुमूल्य है, रखना 'सलिल' सम्हाल
टूटे दिल भी जोड़ दे, आँसू धार कमाल
*
आँसू शोभा आँख की, रहे नयन की कोर
गिरे-बहे जब-तब न हो, ऐसी संध्या-भोर
*
मैं-तुम मिल जब हम हुए, आँसू खुश था खूब
जब बँट हम मैं-तुम हुए, गया शोक में डूब
*
आँसू ने हरदम रखा, खुद में दृढ़ विश्वास
सुख-दुःख दोहा-सोरठा, आँसू है अनुप्रास
*
ममता माया मोह में, आँसू करे निवास
क्षोभ उपेक्षा दर्द दुःख, कुछ पल मात्र प्रवास
*
आँसू के संसार से, मैल-मिलावट दूर
जो न बहा पाये 'सलिल', बदनसीब-बेनूर
*
इसे अगर काँटा चुभे, उसको होती पीर
आँसू इसकी आँख का, उसको करे अधीर
*
आँसू के सैलाब में, डूबा वह तैराक
नेह-नर्मदा का क़िया, जिसने दामन चाक
*
आँसू से अठखेलियाँ, करिए नहीं जनाब
तनिक बहाना पड़े तो, खो जाएगी आब
*
लोहे से कर सामना, दे पत्थर को फोड़
'सलिल' सूरमा देखकर, आँसू ले मुँह मोड़
*
बहे काल के गाल पर, आँसू बनकर कौन?
राधा मीरा द्रौपदी, मोहन सोचें मौन
*
धूप-छाँव का जब हुआ, आँसू को अभ्यास
सुख-दुःख प्रति समभाव है, एक त्रास-परिहास
*
सुख का रिश्ता है क्षणिक, दुःख का अप्रिय न चाह
आँसू का मुसकान सँग, रिश्ता दीर्घ-अथाह
*
तर्क न देखे भावना, बुद्धि करे अन्याय
न्याय संग सद्भावना, आँसू का अभिप्राय
*
मलहम बनकर घाव का, ठीक करे हर चोट
आँसू दिल का दर्द हर, दूर करे हर खोट
*
मन के प्रेशर कुकर में, बढ़ जाता जब दाब
आँसू सेफ्टी वाल्व बन, करता दूर दबाव
*
बहे न आँसू आँख से, रहे न दिल में आह
किसको किससे क्या पड़ी, कौन करे परवाह?
*
आँसू के दरबार में, एक सां शाह-फ़क़ीर
भेद-भाव होता नहीं, ख़ास न कोई हक़ीर
9-6-2015
***
नवगीत:
जो नहीं हासिल...
संजीव 'सलिल'
*
जो नहीं हासिल
वही सब चाहिए...
*
जब किया कम काम
ज्यादा दाम पाया.
या हुए बदनाम
या यश-नाम पाया.
भाग्य कुछ अनुकूल
थोड़ा वाम पाया.
जो नहीं भाया
वही अब चाहिए...
*
चैन पाकर मन हुआ
बेचैन ज्यादा.
वजीरों पर हुआ हावी
चतुर प्यादा.
किया लेकिन निभाया
ही नहीं वादा.
पात्र जो जिसका
वही कब चाहिए...
*
सगे सत्ता के रहे हैं
भाट-चारण.
संकटों का, कंटकों का
कर निवारण.
दूर कर दे विफलता के
सफल कारण.
बंद मुट्ठी में
वही रब चाहिए...
*
कहीं पंडा, कहीं झंडा
कहीं डंडा.
जोश तो है गरम
लेकिन होश ठंडा.
गैस मँहगी हो गयी
तो जला कंडा.
पाठ-पूजा तज
वही पब चाहिए..
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब से
कर लिया झगड़ा.
मलिनता ने धवलता को
'सलिल' रगडा.
शनिश्चर कमजोर
मंगल पड़ा तगड़ा.
दस्यु के मन में
छिपा नब चाहिए...
९-६-२०१२
***
स्वास्थ्य / आयुर्वेद
शहतूत -
यह मूलतः चीन में पाया जाता है | यह साधारणतया जापान ,नेपाल,पाकिस्तान,बलूचिस्तान ,अफगानिस्तान ,श्रीलंका,वियतनाम तथा सिंधु के उत्तरी भागों में पाया जाता है | भारत में यह पंजाब,कश्मीर,उत्तराखंड,उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी पश्चिमी हिमालय में पाया जाता है | इसकी दो प्रजातियां पायी जाती हैं | १- तूत (शहतूत) २-तूतड़ी |
इसके फल लगभग २.५ सेंटीमीटर लम्बे,अंडाकार अथवा लगभग गोलाकार ,श्वेत अथवा पक्वावस्था में लगभग हरिताभ-कृष्ण अथवा गहरे बैंगनी वर्ण के होते हैं | इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जनवरी से जून तक होता है | इसके फल में प्रोटीन,वसा,कार्बोहायड्रेट,खनिज,कैल्शियम,फॉस्फोरस,कैरोटीन ,विटामिन A ,B एवं C,पेक्टिन,सिट्रिक अम्ल एवं मैलिक अम्ल पाया जाता है |आज हम आपको शहतूत के औषधीय गुणों से अवगत कराएंगे -
१- शहतूत के पत्तों का काढ़ा बनाकर गरारे करने से गले के दर्द में आराम होता है ।
२- यदि मुँह में छाले हों तो शहतूत के पत्ते चबाने से लाभ होता है |
३- शहतूत के फलों का सेवन करने से गले की सूजन ठीक होती है |
४- पांच - दस मिली शहतूत फल स्वरस का सेवन करने से जलन,अजीर्ण,कब्ज,कृमि तथा अतिसार में अत्यंत लाभ होता है |
५- एक ग्राम शहतूत छाल के चूर्ण में शहद मिलाकर चटाने से पेट के कीड़े निकल जाते हैं |
६- शहतूत के बीजों को पीस कर लगाने से पैरों की बिवाईयों में लाभ होता है |
७- शहतूत के पत्तों को पीसकर लेप करने से त्वचा की बीमारियों में लाभ होता है|
८- सूखे हुए शहतूत के फलों को पीसकर आटे में मिलाकर उसकी रोटी बनाकर खाने से शरीर पुष्ट होता है
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मुक्तिका:
अम्मी
*
माहताब की
जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी
पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.
कौन बताये
कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की
सूनी आँखों में,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकीपहुनाई अम्मी.
बसा सासरे
केवल तन है.
मन तो तेरे
साथ रह गया.
इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.
अब्बा में
तुझको देखा है,
तू ही
बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ,
तू ही दिखती
भाई और
भौजाई अम्मी.
तू दीवाली ,
तू ही ईदी.
तू रमजान
और होली है.
मेरी तो हर
श्वास-आस में
तू ही मिली
समाई अम्मी.
९-६-२०१०
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