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शुक्रवार, 14 जून 2024

जून १४, सदोका, दोहा मुक्तिका, भारत, हास्य, बाल गीत, सूरज, लघुकथा, एकलव्य, आम, गीत

सलिल सृजन जून १४
*
सदोका सलिला
*
ई​ कविता में
करते काव्य स्नान ​
कवि​-कवयित्रियाँ।
सार्थक​ होता
जन्म निरख कर
दिव्य भाव छवियाँ।१।
*
ममता मिले
मन-कुसुम खिले,
सदोका-बगिया में।
क्षण में दिखी
छवि सस्मित मिले
कवि की डलिया में।२।
*
​न​ नौ नगद ​
न​ तेरह उधार,
लोन ले, हो फरार।
मस्तियाँ कर
किसी से मत डर
जिंदगी है बहार।३।
*
धूप बिखरी
कनकाभित छवि
वसुंधरा निखरी।
पंछी चहके
हुलस, न बहके
सुनयना सँवरी।४।
* ​
श्लोक गुंजित
मन भाव विभोर,
पूज्य माखनचोर।
उठा हर्षित
सक्रिय नीरव भी
क्यों हो रहा शोर?५।
*
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।६।
*
गुलाबी हाथ
मृणाल अंगुलियाँ
कमल सा चेहरा।
गुलाब थामे
चम्पा सा बदन
सुंदरी या बगिया?७।
१४-६-२०२२
***
सामयिक दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..
योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..
आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..
बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार
राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..
अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..
जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?
सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..
सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..
लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..
'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..
***
मैं भारत हूँ
सुमन पुष्पा भी न था, तूफान आया
विनत था हो प्रबल सँग सैलाब लाया
बिजलियाँ दिल पर गिरीं, संसार उजड़े
बेरहम कह सफलता फिर मुस्कुराया
सोचता है जीत मुझको वह लिखेगा
फिर नया इतिहास देवों सम दिखेगा
सदा दानव चाहते हैं अमर होना
मिले सत्ता तो उसे चाहें न खोना
सोच यह लिखती पतन की पटकथा है
चतुर्दिक जातीं बिखर बेबस व्यथा है
मैं भारत हूँ, देखता जन जागता है
देश को ही इष्ट अपना मानता है
आह हो एकत्र, बनती आग सूरज
शिखर होते धूसरित, झट रौंदती रज
मैं भारत हूँ, भाग्य अपना आप लिखता
मैं भारत हूँ, जगत् गुरु फिर श्रेष्ठ दिखता
काल जन को टेरता है जाग जाओ
करो फिर बदलाव भारत को बचाओ
१४-६-२०२१
***
हास्य रचना:
मेरी श्वास-श्वास में कविता
*
मेरी श्वास-श्वास में कविता
छींक-खाँस दूँ तो हो गीत।
युग क्या जाने खर्राटों में
मेरे व्याप्त मधुर संगीत।
पल-पल में कविता कर देता
पहर-पहर में लिखूँ निबंध।
मुक्तक-क्षणिका क्षण-क्षण होते
चुटकी बजती काव्य प्रबंध।
रस-लय-छंद-अलंकारों से
लेना-देना मुझे नहीं।
बिंब-प्रतीक बिना शब्दों की
नौका खेना मुझे यहीं।
धुंआधार को नाम मिला है
कविता-लेखन की गति से।
शारद भी चकराया करतीं
हैं; मेरी अद्भुत मति से।
खुद गणपति भी हार गए हैं
कविता सुन लिख सके नहीं।
खोजे-खोजे अर्थ न पाया
पंक्ति एक बढ़ सके नहीं।
एक साल में इतनी कविता
जितने सर पर बाल नहीं।
लिखने को कागज़ इतना हो
जितनी भू पर खाल नहीं।
वाट्स एप को पूरा भर दूँ
अगर जागकर लिख दूँ रात।
गूगल का स्पेस कम पड़े,
मुखपोथी की क्या औकात?
ट्विटर, वाट्स एप, मेसेंजर
मुझे देख डर जाते हैं।
वेदव्यास भी मेरे सम्मुख
फीके से पड़ जाते हैं।
वाल्मीकि भी पानी भरते
मेरी प्रतिभा के आगे।
जगनिक और ईसुरी सम्मुख
जाऊँ तो पानी माँगे।
तुलसी सूर निराला बच्चन
से मेरी कैसी समता?
अब का कवि खद्योत सरीखा
हर मेरे सम्मुख नमता।
किसमें क्षमता है जो मेरी
प्रतिभा का गुणगान करे?
इसीलिये मैं खुद करता हूँ,
धन्य वही जो मान करे.
विन्ध्याचल से ज्यादा भारी
अभिनंदन
के पत्र हुए।
स्मृति-चिन्ह अमरकंटक सम
जी से प्यारे लगें मुए।
करो न चिता जो व्यय; देकर
मान पत्र ले, करूँ कृतार्थ।
लक्ष्य एक अभिनंदित होना,
इस युग का मैं ही हूँ पार्थ।
१४.६.२०१८
***
बाल गीत
सूरज
*
पर्वत-पीछे झाँके ऊषा
हाथ पकड़कर आया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
धूप संग इठलाया सूरज।
*
योग कर रहा संग पवन के
करे प्रार्थना भँवरे के सँग।
पैर पटकता मचल-मचलकर
धरती मैडम हुईं बहुत तँग।
तितली देखी आँखमिचौली
खेल-जीत इतराया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
नाक बहाता आया सूरज।
*
भाता है 'जन गण मन' गाना
चाहे दोहा-गीत सुनाना।
झूला झूले किरणों के सँग
सुने न, कोयल मारे ताना।
मेघा देख, मोर सँग नाचे
वर्षा-भीग नहाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
झूला पा मुस्काया सूरज।
*
खाँसा-छींका, आई रुलाई
मैया दिशा झींक-खिसियाई।
बापू गगन डॉक्टर लाया
डरा सूर्य जब सुई लगाई।
कड़वी गोली खा, संध्या का
सपना देख न पाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
कॉमिक पढ़ हर्षाया सूरज।
***
लघुकथा:
एकलव्य
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
***
दोहा सलिला
आम खास का खास है......
*
आम खास का खास है, खास आम का आम.
'सलिल' दाम दे आम ले, गुठली ले बेदाम..
आम न जो वह खास है, खास न जो वह आम.
आम खास है, खास है आम, नहीं बेनाम..
पन्हा अमावट आमरस, अमकलियाँ अमचूर.
चटखारे ले चाटिये, मजा मिले भरपूर..
दर्प न सहता है तनिक, बहुत विनत है आम.
अच्छे-अच्छों के करे. खट्टे दाँत- सलाम..
छककर खाएं अचार, या मधुर मुरब्बा आम .
पेड़ा बरफी कलौंजी, स्वाद अमोल-अदाम..
लंगड़ा, हापुस, दशहरी, कलमी चिनाबदाम.
सिंदूरी, नीलमपरी, चुसना आम ललाम..
चौसा बैगनपरी खा, चाहे हो जो दाम.
'सलिल' आम अनमोल है, सोच न- खर्च छदाम..
तोताचश्म न आम है, तोतापरी सुनाम.
चंचु सदृश दो नोक औ', तोते जैसा चाम..
हुआ मलीहाबाद का, सारे जग में नाम.
अमराई में विचरिये, खाकर मीठे आम..
लाल बसंती हरा या, पीत रंग निष्काम.
बढ़ता फलता मौन हो, सहे ग्रीष्म की घाम..
आम्र रसाल अमिय फल, अमिया जिसके नाम.
चढ़े देवफल भोग में, हो न विधाता वाम..
'सलिल' आम के आम ले, गुठली के भी दाम.
उदर रोग की दवा है, कोठा रहे न जाम..
चाटी अमिया बहू ने, भला करो हे राम!.
सासू जी नत सर खड़ीं, गृह मंदिर सुर-धाम..
***
मुक्तक
पलकें भिगाते तुम अगर बरसात हो जाती
रोते अगर तो ज़िंदगी की मात हो जाती
ख्वाबों में अगर देखते मंज़िल को नहीं तुम
सच कहता हूँ मैं हौसलों की मात हो जाती
१४-६-२०१४
एक गीत
*
छंद बहुत भरमाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
वरण-मातरा-गिनती बिसरी
गण का? समझ न आएँ
राम जी जान बचाएँ
*
दोहा, मुकतक, आल्हा, कजरी,
बम्बुलिया चकराएँ
राम जी जान बचाएँ
*
कुंडलिया, नवगीत, कुंडली,
जी भर मोए छकाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
मूँड़ पिरा रओ, नींद घेर रई
रहम न तनक दिखाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
कर कागज़ कारे हम हारे
नैना नीर बहाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
ग़ज़ल, हाइकू, शे'र डराएँ
गीदड़-गधा बनाएँ
राम जी जान बचाएँ
*
ऊषा, संध्या, निशा न जानी
सूरज-चाँद चिढ़ाएँ
राम जी जान बचाएँ
***
नवगीत :
माँ जी हैं बीमार...
*
माँ जी हैं बीमार...
*
प्रभु! तुमने संसार बनाया.
संबंधों की है यह माया..
आज हुआ है वह हमको प्रिय
जो था कल तक दूर-पराया..
पायी उससे ममता हमने-
प्रति पल नेह दुलार..
बोलो कैसे हमें चैन हो?
माँ जी हैं बीमार...
*
लायीं बहू पर बेटी माना.
दिल में, घर में दिया ठिकाना..
सौंप दिया अपना सुत हमको-
छिपा न रक्खा कोई खज़ाना.
अब तो उनमें हमें हो रहे-
निज माँ के दीदार..
करूँ मनौती, कृपा करो प्रभु!
माँ जी हैं बीमार...
*
हाथ जोड़ कर करूँ वन्दना.
अब तक मुझको दिया रंज ना.
अब क्यों सुनते बात न मेरी?
पूछ रही है विकल रंजना..
चैन न लेने दूँगी, तुमको
जग के तारणहार.
स्वास्थ्य लाभ दो मैया को हरि!
हों न कभी बीमार..
****
मुक्तक सलिला
*
कलम तलवार से ज्यादा, कहा सच वार करती है.
जुबां नारी की लेकिन सबसे ज्यादा धार धरती है.
महाभारत कराया द्रौपदी के व्यंग बाणों ने-
नयन के तीर छेदें तो न दिल की हार खलती है..
*
कलम नीलाम होती रोज ही अखबार में देखो.
खबर बेची-खरीदी जा रही बाज़ार में लेखो.
न माखनलाल जी ही हैं, नहीं विद्यार्थी जी हैं-
रखे अख़बार सब गिरवी स्वयं सरकार ने देखो.
*
बहाते हैं वो आँसू छद्म, छलते जो रहे अब तक.
हजारों मर गए पर शर्म इनको आई ना अब तक.
करो जूतों से पूजा देश के नेताओं की मिलकर-
करें गद्दारियाँ जो 'सलिल' पाएँ एक भी ना मत..
*
वसन हैं श्वेत-भगवा किन्तु मन काले लिए नेता.
सभी को सत्य मालुम, पर अधर अब तक सिए नेता.
सभी दोषी हैं इनको दंड दो, मत माफ़ तुम करना-
'सलिल' पी स्वार्थ की मदिरा सतत, अब तक जिए नेता..
*
जो सत्ता पा गए हैं बस चला तो देश बेचेंगे.
ये अपनी माँ के फाड़ें वस्त्र, तन का चीर खीचेंगे.
यही तो हैं असुर जो देश से गद्दारियाँ करते-
कहो कब हम जागेंगे और इनको दूर फेंकेंगे?
*
तराजू न्याय की थामे हुए हो जब कोई अंधा.
तो काले कोट क्यों करने से चूकें सत्य का धंधा.
खरीदी और बेची जा रही है न्याय की मूरत-
'सलिल' कोई न सूरत है न हो वातावरण गन्दा.
*

१४-६-२०१० 

गुरुवार, 13 जून 2024

जून १३, गीता अध्याय ६, नवगीत, क्षणिका, रवींद्र, भावानुवाद,

सलिल सृजन जून १३
*

गीता अध्याय ६ ध्यान (आत्मसंयम) योग
यथारूप हिंदी रूपांतरण- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
प्रभु बोले- "आश्रित न कर्मफल पर, जो सतत कर्म करता।
वह सन्यासी योगी, वह नहिं जो पावक व क्रिया तजता।।१।।
*
जो सन्यास कहा जाता वह, है परब्रह्म युक्त होना।
पांडव बिन संकल्प तजे ही, योगी कोई नहिं होता।।२।।
*
नव आरंभ किया जिसने मुनि, योग कर्म-कारण पाता।
योग-सिद्ध के लिए कर्म को, तजना कारण कहलाता।।३।।
*
जब भी इन्द्रिय तृप्ति-हित नहीं, कर्म निरत वह रहता है।
सब संकल्पों को तज योगी, योग-सिद्ध तब होता है।।४।।
*
कर उद्धार आप ही अपना, खुद का पतन न होने दे।
खुद निश्चय खुद का शुभचिंतक, खुद ही खुद का शत्रु रहे।।५।।
*
बांधव आत्मा हो आत्मा की, यदि आत्मा को जीत सके।
हैं न आत्म तो शत्रु बने वह, कार्य करे दुश्मनवत ही।।६।।
*
आत्म जीत जो शांत रह सके, परमेश्वर पाया उसने।
सर्दी-गर्मी हो, सुख-दुख हो, मान-अपमान समान उसे।।७।।
*
तृप्त ज्ञान-विजान से हुई, आत्मा अचल जितेन्द्रिय हो।
युक्त वही समदर्शी योगी, पत्थर-स्वर्ण समान जिसे।।८।।
*
सुहृद मित्र अरि तटस्थ जन या, द्वेषी पंच बंधुओं को।
साधुपुरुष या पापी प्रति भी, रख समभाव श्रेष्ठजन वो।।९।।
*
योगी दिव्य चेतना में ही, केंद्रित सतत स्वयं होता।
एकाकी मन में सचेत रह, अनाकृष्ट परिग्रह खेता।।१०।।
*
शुद्ध भूमि पर करे प्रतिष्ठित, अपना आसन अचल रखे।
अधिक न ऊँचा-नीचा उस पर, कुश मृगछाला वसन बिछे।।११।।
*
उस पर एकचित्त चित करके, मन-इंद्रिय-क्रिय कर वश में।
बैठ सतत अभ्यास योग का, आत्मशुद्धि के लिए करे।।१२।।
*
सीधा तन सिर गर्दन रखकर, अचल शांत मन बैठ रहे।
देख नासिका-अग्रभाग निज, और कहीं भी में देखे।।१३।।
*
शांत आत्म जो गत भय बिन हो, ब्रह्मचर्य व्रत को पाले।
मन संयम से मुझ में केंद्रित, कर योगी मुझमें पैठे।।१४।।
*
कर अभ्यास इस तरह नित प्रति, योगात्मा संयमयुत हो।
शांत चित्त, भवसागर तज, मम धाम प्राप्त कर लेता है।।१५।।
*
कभी नहीं अतिभोजी योगी, नहिं एकांत-अभोजी ही।
नहिं अति सोने-जगने वाला, हो सकता है हे अर्जुन!।।१६।।
*
नियमित भोजन-मन-रंजन कर, नियमित जीवन-कर्म करे।
नियमित शयन-जागरण करता, योगी निज दुख दूर करे।।१७।।
*
जब अनुशासित चित्त आत्म में, निश्चय ही रम जाता है।
तब निस्पृह ऐन्द्रिक चाहों से हो, योगी कहलाता है।।१८।।
*
जैसे दीपक वायु के बिना, नहीं काँपता उपमा है।
योगी की जिसका मन वश में, सतत ध्यान में लीन रहे।।१९।।
*
जिस सुख से हो चित्त रुद्ध वह, अनुभव सदा योग से हो।
जिसमें आत्मा विशुद्ध मन से, अपने में संतुष्ट रहे।।२०।।
*
सुख आत्यंतिक बुद्धि गहे जो, दिव्य अतींद्रिय वह जानो।
जिसमें कभी नहीं निश्चय ही, वह हटती है सत्पथ से।।२१।।
*
जिसे प्राप्त कर अन्य लाभ को, माने अधिक नहीं उससे।
जिसमें रहते हुए न किंचित, अति दुख से विचलित होता।।२२।।
*
उसको जानो सांसारिक दुख, नाशक योग कहाता है।
दृढ़ विश्वास सहित अभ्यासे योग, न विचलित कभी रहे।।२३।।
*
संकल्पजनित भौतिक इच्छा, तजकर पूरी तरह सभी।
मन से निज इन्द्रियसमूह को, वश में कर ही ले पूरी।।२४।।
*
धीरे-धीरे निवृत्त बुद्धि से, हो विश्वासपूर्वक ही।
समाधि में मन लीन रखे नित, नहीं अन्य कुछ भी सोचे।।२५।।
*
जहाँ-जहाँ भी विचलित होता मन चंचल अस्थिर, टोंकें।
वहाँ वहाँ पर करें नियंत्रण, अपने वश में ले रोकें।।२६।।
*
है प्रशांत मन जिसका वह ही योगी, सच्चा सुख पाए।
शांत रजोगुण हो, ईश्वर से पापमुक्त हो मिल पाए।।२७।।
*
योग प्रवृत्त सदा आत्मा को मुक्त कल्मषों से रखता।
दिव्य सुखद परब्रह्म संग पा, उत्तम सुख पाता रहता।।२८।।
*
सब भूतों में परमात्मा को, भूतों में आत्मा को।
देखे योगयुक्त आत्मा ही, जगह समभावी हो।।२९।।
*
जो मुझको सब जगह देखते, मुझमें ही सब कुछ देखे।
उसके लिए न मैं अदृश्य हूँ, मेरे लिए अदृश्य न वे।।३०।।
*
सब जीवों के ह्रदय बसा जो एक मुझी में बसते हैं।
सब प्रकार से वर्तमान में भी वह मुझमें रहते हैं।।३१।।
*
अपनी तरह हर जगह सबको देखा करता अर्जुन! जो।
सुख हो या दुख हो वह योगी, परम पूर्ण ही होता है।।३२।।
*
अर्जुन बोला- 'यह पद्धति जो योग कही माधव तुमने।
मैं न देख पाता, चंचल मन, मन का गुण है अचल सदा।।३३।।
*
चंचल है निश्चय मन माधव!, विचलित करता हठी-बली।
उसका अहं नियंत्रित करना, कठिन पवन की तरह लगे।।३४।।
*
भगवन बोले- 'बेशक भुजबली!, चंचल मन-निग्रह दुष्कर।
पर अभ्यास-विराग पृथासुत! इसको वश में कर ।।३५।।
*
मन-संयम बिन योग कठिन है, इस प्रकार मेरा मत है।
वशीभूत मन को कर कोशिश, तब उपाय यह संभव है।।३६।।
*
अर्जुन पूछे- 'असफल योगी, श्रद्धा से विचलित मन का।
प्राप्त न करके योग-सिद्धि को, क्या पाता दें कृष्ण! बता।।३७ ।।
*
क्या न उभय से विचलित बिखरे बादल सदृश नष्ट होता?
बिना प्रतिष्ठा महाबाहु हे!, मोहित ब्रह्म-प्राप्ति पथ पा।।३८।।
*
यह मेरा संदेह कृष्ण हे! करें दूर प्रार्थना यही।
दूजा कोई इस संशय का समाधान कर सके नहीं'।।३९।।
*
प्रभु बोले- 'हे पार्थ! विश्व या नए जन्म में नाश न हो।
नहीं कार्य शुभ करता कोई, पतित तात! सकता है।।४०।।
*
मिले पुण्यकर्मी लोकों में, शुभ निवास बहु काल उसे।
पुण्यात्मा संपन्न ग्रहों में, योगभ्रष्ट जन्मा करते।।४१।।
*
या योगी निश्चय ही कुल में, लेता जन्म मतिमयों के।
अति दुर्लभ है इस दुनिया में, लेना जन्म इस तरह से।।४२।।
*
वहाँ चेतना की जागृति वह, पूर्वजन्म से है पाता।
कोशिश करता है तब ही वह, सिद्धि हेतु कुंतीनंदन!।।४३।।
*
गत-आदत से ही आकर्षित होता अवश आप ही वो।
उत्सुक योग व शब्द ब्रह्म में, परे चला जाता है वो।।४४।।
*
कर अभ्यास-प्रयास कठिन वह, योगी पाप शुद्ध होता।
बहु वर्षों के बाद सिद्धियाँ, और परमपद पा लेता।।४५।।
*
तापस से बढ़कर है योगी, ज्ञानी से भी श्रेष्ठ अधिक।
कर्मी से भी उत्तम योगी, योगी ही बन हे अर्जुन!।।४६।।
*
योगी सारे मुझको सोचें जो अंतर्मन में पाते।
श्रद्धावान भजें मुझको जो, योगी परम मानता मैं।।४२।।
१३-६-२०२१
***
दोहा सलिला

बाधाओं से रुक सकी, आभा कभी न मीत
बादल आकर दूर हों, कोशिश गाए गीत
*
पैर जमा कर भूमि पर, छू सकते आकाश
बाधाओं के तोड़ दो, संकल्पों से पाश
नवगीत
*
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार,
व्यथा-कथा का है नहीं
कोई पारावार।
*
लोरी सुनकर कब हँसी?
कब खेली बाबुल गोद?
कब मैया की कैयां चढ़ी
कर आमोद-प्रमोद?
मलिन दृष्टि से भीत है
रुचता नहीं दुलार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
*
पर्वत - जंगल हो गए
नष्ट, न पक्षी शेष हैं
पशुधन भी है लापता
नहीं शांति का लेश है
दानववत मानव करे
अनगिन अत्याचार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
*
कलकल धारा सूखकर
हाय! हो गयी मंद
धरती की छाती फ़टी
कौन सुनाए छंद
पछताए, सुधरे नहीं
पैर कुल्हाड़ी मार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
१०-६-२०१६
तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी
जबलपुर
***
क्षणिकाएँ
ब्यूटी पार्लर में गयी
वृद्धा बाहर निकलकर
युवा रूपसी लग रही..
*
नश्वर है यह देह रे!
बता रहे जो भक्त को
रीझे भक्तिन-देह पे..
*
संत न करते परिश्रम
भोग लगाते रात-दिन
सर्वाधिक वे ही अधम..
*
गिद्ध भोज बारात में
टूटो भूखें की तरह
अब न मान-मनुहार है..
*
पितृ-देहरी छिन गयी
विदा होटलों से हुईं
हाय! हमारी बेटियाँ..
*
करते कन्या-दान जो
पाते हैं वर-दान वे
दे दहेज़ वर-पिता को..
*
खोज कहाँ उनकी कमर,
कमरा ही आता नज़र,
लेकिन हैं वे बिफिकर..
*
विस्मय होता देखकर.
अमृत घट समझा जिसे
विषमय है वह सियासत..
*
दुर्घटना में कै मरे?
गैस रिसी भोपाल में-
बतलाते हैं कैमरे..
*
एंडरसन को छोड़कर
की गद्दारी देश से
नेताओं ने स्वार्थ वश..
*
भाग गया भोपाल से
दूर कैरवां जा छिपा
अर्जुन दोषी देश का..
***
कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक
रचना का भावानुवाद:
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
१३-६-२०१०
***

बुधवार, 12 जून 2024

१२ जून, दोहा, गीत, शिरीष, हास्य, ठेंगा, विधाता छंद, शुद्धगा छंद, सॉनेट

सलिल सृजन १२ जून
*
सॉनेट
अहंकार
*
अहंकार सिर पर चढ़ा,
खुद को कहते श्रेष्ठ खुद,
दिन-दिन अधिकाधिक बढ़ा,
सबसे ज्यादा नेष्ठ खुद।
औरों को उपदेश दें,
चाल-चलन विपरीत कर,
श्रेय न पर को लेश दें,
चाटुकार से प्रीत कर।
देख मलिन मुख तोड़ दें,
दर्पण मुख धोते नहीं,
ऐसों को झट छोड़ दें,
जो पछता-रोते नहीं।
अहंकार ही हार है,
शीघ्र पतन का द्वार है।
बेंगलुरू, १२.६.२०२४
***
दोहा दुनिया
मैं भारत हूँ कह करें, मनमानी दिन-रात।
भारत का दुख दिख रहा, किंचित तुम्हें न तात।।
*
मैं भारत हूँ मानकर, सत्ता मूँदे नैन।
जन-मन को पीड़ित करे, आप गँवाए चैन।।
*
मैं भारत हूँ कह सहे, जनगण चुप हो पीर।
मन ही मन में घुट रही, जनता हुई अधीर।।
*
मैं भारत हूँ कह रहीं, घुटती साँसें रोज।
अस्पताल धन लूटते, गिद्ध पा रहे भोज।।
*
मैं भारत हूँ बोलतीं, दबीं रेत में लाश।
सिसक रही है हर नदी, हर घर मौन-हताश।।
१२-६-२०२१
***
एक गीत
शिरीष के फूल
*
फूल-फूल कर बजा रहे हैं
बीहड़ में रमतूल,
धूप-रूप पर मुग्ध, पेंग भर
छेड़ें झूला झूल
न सुधरेंगे
शिरीष के फूल।
*
तापमान का पान कर रहे
किन्तु न बहता स्वेद,
असरहीन करते सूरज को
तनिक नहीं है खेद।
थर्मामीटर नाप न पाये
ताप, गर्व निर्मूल
कर रहे हँस
शिरीष के फूल।।
*
भारत की जनसँख्या जैसे
खिल-झरते हैं खूब,
अनगिन दुःख, हँस सहे न लेकिन
है किंचित भी ऊब।
माथे लग चन्दन सी सोहे
तप्त जेठ की धूल
तार देंगे
शिरीष के फूल।।
*
हो हताश एकाकी रहकर
वन में कभी पलाश,
मार पालथी, तुरत फेंट-गिन
बाँटे-खेले ताश।
भंग-ठंडाई छान फली संग
पीकर रहते कूल,
हमेशा ही
शिरीष के फूल।।
*
जंगल में मंगल करते हैं
दंगल नहीं पसंद,
फाग, बटोही, राई भाते
छन्नपकैया छंद।
ताल-थाप, गति-यति-लय साधें
करें न किंचित भूल,
नाचते सँग
शिरीष के फूल।।
*
संसद में भेजो हल कर दें
पल में सभी सवाल,
भ्रमर-तितलियाँ गीत रचें नव
मेटें सभी बबाल।
चीन-पाक को रोज चुभायें
पैने शूल-बबूल
बदल रँग-ढँग
शिरीष के फूल।।
***
हास्य रचना
ठेंगा
*
ठेंगे में 'ठ', ठाकुर में 'ठ', ठठा हँसा जो वह ही जीता
कौन ठठेरा?, कौन जुलाहा?, कौन कहाँ कब जूते सीता?
बिन ठेंगे कब काम चला है?, लगा, दिखा, चूसो या पकड़ो
चार अँगुलियों पर भारी है ठेंगा एक, न उससे अकड़ो
ठेंगे की महिमा भारी है, पूछो ठकुरानी से जाकर
ठेंगे के संग जीभ चिढ़ा दें, हो जाते बेबस करुणाकर
ठेंगा हाथों-लट्ठ थामता, पैरों में हो तो बेनामी
ठेंगा लगता, इसकी दौलत उसको दे देता है दामी
लोक देखता आया ठेंगा, नेता दिखा-दिखा है जीता
सीता-गीता हैं संसद में, लोकतंत्र को लगा पलीता
राम बाग़ में लंका जैसा दृश्य हुआ अभिनीत, ध्वंस भी
कान्हा गायब, यादव करनी देख अचंभित हुआ कंस भी
ठेंगा नितीश मुलायम लालू, ममता माया जया सोनिया
मौनी बाबा गुमसुम-अण्णा, आप बने तो मिले ना ठिया
चाय बेचकर छप्पन इंची, सीना बन जाता है ठेंगा
वादों को जुमला कहता है, अंधे को कहता है भेंगा
लोकतंत्र को लोभतंत्र कर, ठगता ठेंगा खुद अपने को
ढपली-राग हो गया ठेंगा, बेच रहा जन के सपने को
ठेंगे के आगे नतमस्तक, चतुर अँगुलियाँ चले न कुछ बस
ठेंगे ठाकुर को अर्पित कर भोग लगाओ, 'सलिल' मिले जस
१२-६-२०१६
***
मुक्तक
नेह नर्मदा में अवगाहो, तन-मन निर्मल हो जाएगा।
रोम-रोम पुलकित होगा प्रिय!, अपनेपन की जय गाएगा।।
हर अभिलाषा क्षिप्रा होगी, कुंभ लगेगा संकल्पों का,
कोशिश का जनगण तट आकर, फल पा-देकर तर जाएगा।।
७-६-२०१६
***
छंद सलिला:
विधाता/शुद्धगा छंद
*
छंद लक्षण: जाति यौगिक, प्रति पद २८ मात्रा,
यति ७-७-७-७ / १४-१४ , ८ वीं - १५ वीं मात्रा लघु
विशेष: उर्दू बहर हज़ज सालिम 'मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन' इसी छंद पर आधारित है.
लक्षण छंद:
विधाता को / नमन कर ले , प्रयासों को / गगन कर ले
रंग नभ पर / सिंधु में जल , साज पर सुर / अचल कर ले
सिद्धि-तिथि लघु / नहीं कोई , दिखा कंकर / मिला शंकर
न रुक, चल गिर / न डर, उठ बढ़ , सीकरों को / सलिल कर ले
संकेत: रंग =७, सिंधु = ७, सुर/स्वर = ७, अचल/पर्वत = ७
सिद्धि = ८, तिथि = १५
उदाहरण:
१. न बोलें हम न बोलो तुम , सुनें कैसे बात मन की?
न तोलें हम न तोलो तुम , गुनें कैसे जात तन की ?
न डोलें हम न डोलो तुम , मिलें कैसे श्वास-वन में?
न घोलें हम न घोलो तुम, जियें कैसे प्रेम धुन में?
जात = असलियत, पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात
२. ज़माने की निगाहों से , न कोई बच सका अब तक
निगाहों ने कहा अपना , दिखा सपना लिया ठग तक
गिले - शिकवे करें किससे? , कहें किसको पराया हम?
न कोई है यहाँ अपना , रहें जिससे नुमायाँ हम
३. है हक़ीक़त कुछ न अपना , खुदा की है ज़िंदगानी
बुन रहा तू हसीं सपना , बुजुर्गों की निगहबानी
सीखता जब तक न तपना , सफलता क्यों हाथ आनी?
कोशिशों में खपा खुदको , तब बने तेरी कहानी
४. जिएंगे हम, मरेंगे हम, नहीं है गम, न सोचो तुम
जलेंगे हम, बुझेंगे हम, नहीं है तम, न सोचो तुम
कहीं हैं हम, कहीं हो तुम, कहीं हैं गम, न सोचो तुम
यहीं हैं हम, यहीं हो तुम, नहीं हमदम, न सोचो तुम
*********
१२-६-२०१४

मंगलवार, 11 जून 2024

मधु प्रधान

लेख
मधु प्रधान के नवगीत : आगत का स्वागत करता अतीत 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
छायावादी भावधारा के जिन साहित्यकारों ने नववगीत के लिए उर्वर सृजन भूमि तैयार करने में प्राण-प्राण से प्रयास किए उनका साहचर्य और उनसे प्रेरणा पाने का सौभाग्य मधु प्रधान जी को मिला है। विरासत को सहेज कर, वर्तमान से जूझने और भविष्य का आशीष-अक्षत से तिलक करने का भाव मधु जी की गीति रचनाओं की प्राणशक्ति रहा है। गीत और छंद की आधारभूत समझकर  नवगीतों के कलेवर को शिल्प सौष्ठव से सुसज्जित कर जीवन में प्राप्त दर्द और पीड़ा को पचाकर मिठास लुटाने के जीवट और पुरुषार्थ का पर्याय मधु जी हैं। पद्मभूषण नीरज जी ने ठीक ही कहा है- "उनके (मधु जी के) भीतर काव्य-सृजन की सहज क्षमता है इसीलिए अनायास-अप्रयास उनके गीतों में बड़े ही मार्मिक बिंब स्वयं ही उतरकर सज जाते हैं।"

छायावादी गीत परंपरा में पली-बढ़ी मधु जी ने सौंदर्यानुभूति को जीवन-चेतना के रूप में अपने गीतों में ढाला है। मधु जी के नवगीत साँस के सितार पर राग और विराग के सुर एक साथ जितनी सहजता से छेड़ पाते हैं वह अनुभूतियों को आत्मसात किये बिना संभव नहीं होता। उनका मानस जगत कामना और कल्पना को इतनी एकाग्रता से एकरूप करता है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में अंतर नहीं रह जाता। स्मृतियों के वातायन से झाँकते हुए वर्तमान के साथ चलने में असंगति और स्मृति-भ्रम का खतरा होता है किंतु मधु जी ने स्मृति-मोह (नास्टेलजिया) से बचते हुए पूरी निस्संगता के साथ गतागत के बीच  संपर्क-सेतु बनाते हुए कथ्य के साथ न्याय किया है-

"मेरे मादक / मधु गीतों में / तुमने कैसी तृषा जगा दी। / मैं अपने में ही खोई थी / अनजानी थी जगत रीति से / कोई चाह नहीं थी मन में / ज्ञात नहीं थे गीत प्रीत के / रोम-रोम अब / महक रहा है / तुमने सुधि की सुधा पिला दी।"

सुधियों की सुधा पीकर पीड़ा से बेसुध होता कवि-मन सुध-बुध के साथ सहज-स्वाभाविक समन्वय स्थापित कर पाता है। मधु जी के गीतों में छायावाद (''वे सृजन के / प्रणेता, मैं / प्रकृति की / अभिव्यंजना हूँ , कौन बुलाता / चुपके से / यह मौन निमंत्रण / किसका है, तुम रहे / पाषाण ही / मैं आरती गाती रही, शून्य पथ है मैं अकेली / हो रहा आभास लेकिन / साथ मेरे चल रहे तुम'' आदि) के साथ कर्म योग (''मोह का परिपथ नहीं मेरे लिए / क्यूं (क्यों) करूँ मुक्ति का अभिनन्दन / मैं गीत जन्म के गाऊँगी, धूप ढल गयी, बीत गया दिन / लौट चलो घर रात हो गई'' आदि) का दुर्लभ सम्मिश्रण दृष्टव्य है। वे अभाव से भाव-संसार की सृष्टि में प्रवेश कर समय की आँखों में आँखें डालकर विषमताओं को ललकारती हैं। नारी का सर्वाधिक असरकारक हथियार होता है। मधू जी आँसू बहाती नहीं आँसू का अर्चन करती हैं  - ''दिखी किसी की सजल आँख तो / मेरे भी आँसू भर आये / पीड़ा की थपकी / पाकर ही / मन के बोल अधर पर आये / फिर भी पत्थर / नही पसीजे / आँसू का अर्चन जारी है''। 

मधु जी के लिए नवगीत केवल विसंगति-वर्णन नहीं है। वे नवगीत के माध्यम से समन्वय और सामंजस्य के सोपानों का चरणाभिषेक करती हैं- 
''आस्था के इस सफर में / शूल भी हैं, फूल भी हैं / हैं बहुत / तूफान लेकिन / शान्त सरिता कूल भी हैं / सीख लें सुख-दुख निभाना।''

'सीख लें सुख-दुःख निभाना' जैसे जीवनोपयोगी संदेशों ने मधु जी की गीति रचनाओं को समाजोपयोगिता से समृद्ध किया है। हिंदी साहित्य विशेषकर नवगीत, कहानी, व्यंग्यलेख और लघुकथाओं जैसी विधाओं को वामपंथी विचारधारा के कैदी रचनाकारों ने सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं, अतिरेकी वर्ग संघर्षों हुए शोषण आदि तक सीमित रखने का दुष्प्रयास किया। सम विचारधारा के अनुनायी समीक्षकों ने इन विधाओं के विधान को भी अपनी वैचारिक मान्यताओं के अनुरूप ढालकर कृतियों का मूल्याङ्कन और कृतिकारों को श्रेष्ठ बताने के निरंतर प्रयास किए। इस आँधी में सनातन मूल्यपरक सर्वकल्याणकारी साहित्य रचनेवाले रचनाधर्मी उपेक्षित किए जाने से आहत हुए। कई ने अपनी वैचारिक राह बदल ली, कुछ ने सृजन से न्यास ले लिए किन्तु मधु जी तूफान में जलती निष्कंप दीपशिखा की भाँति मौन संघर्ष करती हुई सृजनरत रहीं। पारिवारिक संकट भी उनके सृजन-पथ को अवरुद्ध नहीं कर सके। मधु जी ने सृजन को अपनी जिजीविषा की संजीवनी बन लिया। नमन तुम्हें मेरे भारत (राष्ट्रीय भावधारा परक गीत संग्रह), आजादी है सबको प्यारी (बाल गीत संग्रह) तथा माटी की गंध (कविता संग्रह) जैसी नवगीतेतर कृतियों में भी मधु जी जमीन से जुड़ाव की यथार्थपरकता को, जो नवगीतों की मूलशक्ति है, दूर नहीं होने दिया। वे साहित्यिक पत्रों को प्रतीकों के रूप में उपयोग करते हुए कहती हैं- 'होरी के आँगन में फागुन / रूपा के माथे पर रोली / चौक अँचरती झुनिया का सुख / नन्हें की तुतली सी बोली / बिना महाजन का मुँह जोहे / काज सभी सरते देखे हैं'। नमन तुम्हें मेरे भारत गीत संग्रह से उद्धृत ये काव्य पंक्तियाँ शोषण मुक्त होते समाज का शब्द-चित्र प्रस्तुत करता है। इसी संकलन में 'अनछुई राहें बुलातीं / टेरता है इक नया पल', 'जीवन है अमलतास तरु सा / जो कड़ी धूप में है खिलता', 'खेत जोतते हीरा-मोती / घर में दही बिलोती मैया', 'कितनी विषम परिस्थितियाँ हों / पर हम हार नहीं मानेंगे।', 'उठ सके न कोई आँख इधर / प्राणों में ऐसी शक्ति भरो' आदि गीत पंक्तियाँ संकेतित करती हैं कि मधु जी नवगीत को बदलते देश-समाज के साथ कदम से कदम मिलकर उड़ने वाला गीत-पाखी मानती हैं। नवगीत को परिभाषित करते हुई मधु जी लिखती हैं- 'वेदना की कोख से जन्मे हुए नवगीत को / पाँव के छाले छुपाकर मुस्कुराती प्रीत को / स्नेह का प्रतिदान दे सुधि में बसाना चाहते हैं / चेतना के गीत गाना चाहते हैं'। स्पष्ट है कि मधु जी नवगीत को वेदना से जन्मा, दर्द छिपाकर प्रीत बिखेरता, चेतना संपन्न गीति रचना मानती हैं।

सामान्यत: बालगीत और नवगीत दो भिन्न विधाएँ मानी जाती हैं। मधु जी ने बाल गीतों में नवगीतीय तत्वों का सम्मिश्रण किया है। तथाकथित प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक जिस आजादी का महत्त्व बताने के लिए नवगीतों में जमीन-आसमान एक कर देते है उसे ही मधु जी गागर में सागर की तरह संक्षिप्तता, सहजता तथा सरलता अहित इस प्रकार गीतित करती हैं कि बाल मानस बिना किसी कठिनाई के आजादी का महत्त्व ग्रहण कर सके- 'पिजरे का तुम द्वार हटाओ / मुझको आजादी दिलवाओ / रोज सवेरे मैं आऊँगी / तुमको गीत सुना जाऊँगी / सबसे सुंदर सबसे न्यारी / आजादी है सबको प्यारी' -(आजादी है सबको प्यारी पृष्ठ १०)

नवगीत में जमीन से जुड़ाव और यथार्थ को अनिवार्य माननेवाले 'यद्यपि मेरी देह खड़ी है / ईटों के जंगल में / पर मेरे रोम रोम में / अंतर में बसी है / उस माटी की गंध / जहाँ मेरा बचपन गुजरा है' जैसी काव्य पंक्तियों में मधु जी नवगीत के तत्वों को कविताओं में ढालती हैं। घर की ओर लौटते हुए पंछियों का समूह, धरती कभी बंजर नहीं होती, गांधारी कभी मत बनना, सपने तो टूटते ही हैं जैसी अभिव्यक्तियाँ मधु जी की कविताओं में नवगीततीय तत्वों की उपस्थिति संकेतित करती है। नकारात्मक ऊर्जा को नवगीतों की पहचान माननेवालों से मधु जी शालीनतापूर्वक कहती हैं- 'तुम देख रहे बस काँटों को / मैं गीत फूलों को दुलराऊँगी' तथा 'नीरव मरघट में शांति कहाँ / मंदिर में दीप जलाऊँगी'।     
        
मधु जी रचित 'मुखर अब मौन है' प्रथम कृति है जिसमें गीत की नवगीतीय भंगिमा पूरी जीवसंतता के साथ उपस्थित है। विश्ववाणी हिंदी के गीति काव्य की छायावादी विरासत को सहेजने-सम्हालने ही नहीं जीनेवाली वरिष्ठ गीतकार डॉ. मधु प्रधान की बहु प्रतीक्षित कृति है मुखर अब मौन है । छायावादी भावधारा को साहित्यकारों की जिस पीढ़ी ने प्राण-प्राण से पुष्पित करने में अपने आपको अर्पित कर दिया उनका साहचर्य और उनसे प्रेरणा पाने का सौभाग्य मधु जी को मिला है। मधु जी के इन गीतों में यत्र-तत्र मधु की मिठास व्याप्त है। जीवन में प्राप्त दर्द और पीड़ा को पचाकर मिठास के गीत गाने के लिए जिस जीवट और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है वह मधु जी में है। पद्मभूषण नीरज जी ने ठीक ही कहा है- "उनके भीतर काव्य-सृजन की सहज क्षमता है इसीलिए अनायास-अप्रयास उनके गीतों में बड़े ही मार्मिक बिंब स्वयं ही उतरकर सज जाते हैं।"

छायावादी गीत परंपरा में पली-बढ़ी मधु जी ने सौंदर्यानुभूति को जीवन-चेतना के रूप में अपने गीतों में ढाला है। उनका मानस जगत कामना और कल्पना को इतनी एकाग्रता से एकरूप करता है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में अंतर नहीं रह जाता। स्मृतियों के वातायन से झाँकते हुए वर्तमान के साथ चलने में असंगति और स्मृति-भ्रम का खतरा होता है किंतु मधु जी ने पूरी निस्संगता के साथ कथ्य के साथ न्याय किया है-



"मेरे मादक / मधु गीतों में / तुमने कैसी तृषा जगा दी। / मैं अपने में ही खोई थी / अनजानी थी जगत रीति से / कोई चाह नहीं थी मन में / ज्ञात नहीं थे गीत प्रीत के / रोम-रोम अब / महक रहा है / तुमने सुधि की सुधा पिला दी।" सुधियों की सुधा पीकर बेसुध होना सहज-स्वाभाविक है।

मधु जी के ये गीत साँस के सितार पर राग और विराग के सुर एक साथ जितनी सहजता से छेड़ पाते हैं वह अनुभूतियों को आत्मसात किये बिना संभव नहीं होता।


"प्राणी मात्र / खिलौना उसका / जिसमें सारी सृष्टि समाई ... आगत उषा-निशा का स्वागत / ओस धुले पथ पर आमंत्रण पर मन की उन्मादी लहरें
खोज रहीं कुछ मधु-भीगे क्षण / किंतु पता / किसको है किस पल / ले ले समय / विषम अंगड़ाई।"

उनके गीतों में छायावाद (वे सृजन के / प्रणेता, मैं / प्रकृति की / अभिव्यंजना हूँ , कौन बुलाता / चुपके से / यह मौन निमंत्रण / किसका है, तुम रहे / पाषाण ही / मैं आरती गाती रही, शून्य पथ है मैं अकेली / हो रहा आभास लेकिन / साथ मेरे चल रहे तुम आदि) के साथ कर्म योग (मोह का परिपथ नहीं मेरे लिए / क्यूं (क्यों) करूँ मुक्ति का अभिनन्दन / मैं गीत जन्म के गाऊँगी, धूप ढल गयी, बीत गया दिन / लौट चलो घर रात हो गई आदि) का दुर्लभ सम्मिश्रण दृष्टव्य है।

काव्य प्राणी की अन्तश्चेतना में व्याप्त कोमलतम अनुभूति की ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति है। इसमें जीवन के हर उतार-चढ़ाव, धूप-छाँव, फूल-शूल, सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इस तरह होती है कि व्यक्ति का नाम न हो और प्रवृत्ति का उल्लेख हो जाए। कलकल और कलरव, नाद और ताल, रुदन और हास काव्य में बिंबित होकर 'स्व' की प्रतीति 'सर्व' के लिए ग्रहणीय बनाते हैं। मधु जी ने जीवन में जो पाया और जो खोया उसे न तो अपने तक सीमित रखा, न सबके साथ साझा किया। उन्होंने आत्मानुभव को शब्दों में ढालकर समय का दस्तावेज बना दिया। उनके गीत उनकी अनुभूतियों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि वे स्वयं अनुपस्थित होती हैं लेकिन उनकी प्रतीति पाठक / श्रोता को अपनी प्रतीत होती है। इसीलिये वे अपनी बात में कहती हैं- "रचनाओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण कारक होते हैं जो सृजन को जमीन देते हैं और उनका पोषण करते हैं। वे बीज रूप में अंतस में बैठ जाते हैं और समय पाकर अंकुरित हो उठते हैं।"

रचनाकार की भावाकुलता कभी-कभी अतिरेकी हो जाती है तो कभी-कभी अस्पष्ट, ऐसा उसकी ईमानदारी के कारण होता है। अनुभूत को अभिव्यक्त करने की अकृत्रिमता या स्वाभाविकता ही इसका करक होती है। सजग और सतर्क रचनाकार इससे बचने की कोशिश में कथ्य को बनावटी और असहज कर बैठता है। 'काग उड़ाये / सगुन विचारे' के सन्दर्भ में विचारणीय है कि काग मुंडेर पर बैठे तो अतिथि आगमन का संकेत माना जाता है (मेरी अटरिया पे कागा बैठे, मोरा जियरा डोले, कोई आ रहा है)।

"कहीं नीम के चंचल झोंके / बिखरा जाते फूल नशीले" के संदर्भ में तथ्य यह कि महुआ, धतूरा आदि के फूल नशीले होते हैं किंतु नीम का फूल नशीला नहीं होता। इसी प्रकार तथ्य यह है कि झोंका हवा का होता है पेड़-पौधों का नहीं, पुरवैया का झोंका या पछुआ का झोंका कहा जाता है, आम या इमली का झोंका कहना तथ्य दोष है।

'मेरे बिखरे बालों में तुम / हरसिंगार ज्यों लगा रहे हो' के सन्दर्भ में पारंपरिक मान्यता है कि हरसिंगार, जासौन, कमल आदि पुष्प केवल भगवान को चढ़ाए जाते है। इन पुष्पों का हार मनुष्य को नहीं पहनाया जाता। बालों को मोगरे की वेणी, गुलाब के फूल आदि से सजाया जाता है।

मधु जी का छंद तथा लय पर अधिकार है, इसलिए गीत मधुर तथा गेय बन पड़े हैं तथापि 'टु एरर इज ह्युमन' अर्थात 'त्रुटि मनुष्य का स्वभाव है' लोकोक्ति के अनुसार 'फूलों से स्पर्धा करते (१४) / नए-नए ये पात लजीले (१६) / कहीं नीम के चंचल झोंके (१६) / बिखरा जाते फूल नशीले (१६) के प्रथम चरण में २ मात्राएँ कम हो गयी हैं। यह संस्कारी जातीय पज्झटिका छंद है जिसमें ८+ गुरु ४ + गुरु का विधान होता है।

केन्द्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा निर्धारित वर्तनी मानकीकरण के प्रावधानों का पालन न किए जाने से अनुस्वार (बिंदी) के प्रयोग में कहीं-कहीं विसंगति है। देखें 'सम्बन्ध', 'अम्बर' तथा 'अकंपित'। इसी तरह अनुनासिक (चंद्र बिंदी) के प्रयोग में चूक 'करूँगी' तथा 'करूंगी' शब्द रूपों के प्रयोग में हो गयी है। इसी तरह उनके तथा किस की में परसर्ग शब्द के प्रयोग में भिन्नता है। उद्धिग्न (उद्विग्न), बंधकर (बँधकर), अंगड़ाई (अँगड़ाई), साँध्य गगन (सांध्य गगन), हुये (हुए), किसी और नाम कर चुके (किसी और के नाम कर चुके), भंवरे (भँवरे), संवारे (सँवारे), क्यूं (क्यों) आदि में हुई पाठ्य शुद्धि में चूक खटकती है।

डॉ, सूर्यप्रसाद शुक्ल जी ने ठीक ही लिखा है "जीवन सौंदर्य की भावमयी व्यंजन ही कल्पना से समृद्ध होकर गीत-प्रतिभा का अवदान बनती है.... मानस की अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए शब्द-सामर्थ्य की एक सीमा तो होती है, जहाँ वाणी का विस्तार भाव-समाधि में समाहित हो जाता है... इस स्थति को ही 'गूँगे का गुड़' कह सकते हैं। 'मुखर अब मौन है' में जिस सीमा तक शब्द पहुँचा है, वह प्रिय स्मृति में लीन भाव समाधी के सूक्ष्म जगत का आनंदमय सृजन-समाहार ही है जिसमें चेतना का शब्दमय आलोक है और है कवयित्री के सौंदर्य-भाव से प्रस्फुटित सौंदर्य बोध के लालित्य का छायावादी गीत प्रसंस्करण।"

संकलन के सभी गीत मधु जी के उदात्त चिंतन की बानगी देते हैं। इन गीतों को पढ़ते हुए महीयसी महादेवी जी तथा पंत जी का स्मरण बार-बार हो आता  है - 'कोई मुझको बुला रहा है / बहुत दूर से / आमंत्रण देती सी लहरें / उद्वेलित करतीं / तन-मन को / शायद सागर / का न्योता है / मेरे चिर प्यासे / जीवन को / सोये सपने जगा रहा है / बहुत दूर से' अथवा 'भूल गए हो तुम मुझको पर / मैं यादों को पाल रही हूँ या 'कहीं अँधेरा देख द्वार पर / मेरा प्रियतम लौट न जाए / देहरी पर ही खड़ी रही मैं / रात-रात भर दिया जलाये / झंझाओं से घिरे दीप को / मैं यत्नों से संभाल रही  हूँ' आदि में प्रेम की उदात्तता देखते ही बनती है। मधु जी का यह गीत संग्रह नयी पीढ़ी के गीतकारों को अवश्य पढ़ना चाहिए. भाषिक प्रांजलता, सटीक शब्द चयन, इंगितों में बात कहना, 'स्वानुभूति' को 'सर्वानुभूति' में ढालना, 'परानुभूति' को 'स्वानुभूति' बना सकना सीखने के लिए यह कृति उपयोगी है। श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार मधु जी की रचनाएँ नई पीढ़ी के लिए मानक की तरह देखी जाएँगी, इसलिए उनका शुद्ध होना अपरिहार्य है।

यह निर्विवाद है कि 'नवगीत' में 'गीत' होना ज़रूरी है। जन सामान्य किसी भी गुनगुनाई जा सकनेवाली शब्द रचना को गीत कह लेता है। संगीत में किसी एक ढाँचे में रची गई समान उच्चार कालवाली कविता जिसे ताल में लयबद्ध करके गाया जा सके, वह गीत की श्रेणी में आती है, किन्तु साहित्य के मर्मज्ञों ने गीत और कविता में अन्तर करने वाले कुछ सर्वमान्य मानक तय किये हैं। छन्दबद्ध कोई भी कविता गाई जा सकती है पर उसे गीत नहीं कहा जाता। गीत एक प्राचीन विधा है जिसका हिंदी में व्यापक विकास छायावादी युग में हुआ। गीत में स्थाई और अंतरे होते हैं। स्थाई और अन्तरों में स्पष्ट भिन्नता होनी चाहिये। प्राथमिक पंक्तियाँ जिन्हें स्थाई कहते हैं, प्रमुख होती है, और हर अन्तरे से उनका स्पष्ट सम्बन्ध दिखाई देना चाहिये। गीत में लय, गति और ताल होती है। इस तरह के गीत में गीतकार कुछ मौलिक नवीनता ले आये तो वह नवगीत कहलाने लगता है।

राजेन्द्र प्रसाद सिंह (१९३०-२००७) ने बतौर संपादक लिखा था : "नयी कविता के कृतित्व से युक्त या वियुक्त भी ऐसे धातव्य कवियों का अभाव नहीं है,जो मानव जीवन के ऊंचे और गहरे, किन्तु सहज नवीन अनुभव की अनेकता, रमणीयता, मार्मिकता, विच्छित्ति और मांगलिकता को अपने विकसित गीतों में सहेज संवार कर नयी ‘टेकनीक’ से, हार्दिक परिवेश की नयी विशेषताओं का प्रकाशन कर रहे हैं । प्रगति और विकास की दृष्टि से उन रचनाओं का बहुत मूल्य है, जिनमें नयी कविता की प्रगति का पूरक बनकर ‘नवगीत’ का निकाय जन्म ले रहा है । नवगीत नयी अनुभूतियों की प्रक्रिया में संचयित मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार होगा, जिसमें अभिव्यक्ति के आधुनिक निकायों का उपयोग और नवीन प्रविधियों का संतुलन होगा ।”

‘गीतांगिनी’ के सम्पादकीय में राजेंद्र प्रसाद सिंह ने नवगीत के पाँच विकासशील तत्व जीवन-दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व-बोध, प्रीति-तत्व और परिसंचय बताए हैं। ‘नवगीत’ के पूर्व गीतों में दर्शन की प्रचुरता थी- जीवन दर्शन की नहीं; धर्म, नैतिकता और रहस्य की निष्ठा का स्रोत था- व्यावहारिक आत्मनिष्ठा का नहीं; व्यक्तिवादिता थी- व्यक्तित्व-बोध नहीं, प्रणय-शृंगार था,-जीवनानुभव से अविभाज्य प्रीति-तत्व नहीं, तथा सौंदर्य एवं मार्मिकता के प्रदत्त प्रतिमान थे,- प्रेरणा की विविध विषय-वस्तुओं के परिसंचय का सिलसिला नहीं। निराला ने अपनी एक रचना में इस ओर संकेत करते हुए कहा है- नव गति, नव लय, ताल, छंद नव। यही आगे चलकर नवगीत की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ मानी गईं। नवगीत में कथ्य, भंगिमा, बिंब, उपमान, प्रतीक और शब्द को नवता की कसौटी मानते हुए रचनाओं को परखा जाना चाहिए। आवश्यक नहीं कि एक नवगीत में इन सभी तत्वों की नवता लेकिन कुछ नवता ज़रूरी है। नवगीत में पारंपरिक पर नव छंद को वरीयता दी जान चाहिए पर पारंपरिक छंद को वर्जित नहीं मन जा सकता। छंद में बहाव हो लय का सौंदर्य हो, ताकि गीत में माधुर्य बना रहे। इस निकष पर मधु जी के द्वितीय नवगीत संकलन 'गीत विहग उतरे' पर दृष्टि डालना रोचक है।

मधु जी के शब्दों में 'लय तो जीवन के साथ जुड़ी है, श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह  में लय समाहित है। ..... काव्य सृजन में सब कुछ समाहित हो जाता है प्रेम, वत्सल्य, वियोग, वितृष्णा और घायल मन का दर्द, अभाव में घटते लोगों की उसाँसें भी।' स्वाभाविक है कि मधु जी के नवगीत यही सब समाहित किए हों। इस संग्रह के गीतों में हृदय की सघन संवेदना, आनुभूतिक तरलता, भाषी सरलता और बैंबिक स्पष्टता सहज दृष्टव्य है। इन गीतों का रसपान करते समय अभिव्यक्ति की सीपियों में अनुभूति के मोती आभा बिखेरते मिलते हैं। इन नवगीतों को वैचारिक प्रतिबद्धता की तुला पर तोलना निरथक व्यायाम होगा। इनमें जीवन का मांगल्य भाव प्रतिष्ठित है। ये नवगीत वातायन से दिखते खंडित आकाश को नहीं, गिरी शिखर से दिखते अनंत नीलकाश को पंक्ति-भुजाओं में समेटे हैं। वैयक्तिक-पारिवारिक और सामाजिक जीवन फलक पर घटित होती ऊँच-नीच को शब्दित करते मधु जी के नवगीत प्रकृति के आँचल मरण प्रेम और पीड़ा की अठखेलियाँ समेटे हैं। नातों की सच्चाई, सत्ता की निरंकुशता, राजनैतिक-सामाजिक जियावाँ में मूल्य-ह्रास, कृषकों-श्रमिकों का शोषण, साक्षारों में व्याप्त असंतोष, कर्तव्य भाव की न्यूनता आदि विविध दृश्य इस संग्रह को सम-सामयिक परिदृश्य का आईना बनाते हैं। 

कवयित्री पाखंडियों से सचेत करते हुए कहती है- 'रेत-रेत हो / रही जिंदगी / देख रहे सब एक तमाशा / छुरी छिपाये / वधिक हाथ में / बोल रहे संतों की भाषा / सावधान हो / स्वर के साधक / सर्पों ने बदला है बाना'। 

समाज और परिवार में हो रहा विघटन मधु जी की चिंता का केंद्र है- 'रिश्तों में अब / शेष नहीं हैं मर्यादाएँ / शेष मात्र हैं ताने-बाने ॥। धूप ढाल गई / दोपहरी में / कुदरत जाने क्या है ठाने? ॥। कैसे सिलें / फटी कथरी को / बिखर गए हैं ताने-बाने? ... हुआ भीड़ में गुम अपनापन / खोज रहा अपनी पहचानें'।

पर्यावरणीय प्रदूषण और प्राकृतिक आपदा गीतकार को व्यथित करती हैं। वह अमिधा में अपनी अनुभूतियाँ व्यक्त करती है- 'रूठकर मत जा रे / बदरा रूठकर / दरकता है हिय धरा का / अधूरी है चिर पिपासा / म्लान मुख अवसाद घेरे / आज तो ठहरो जरा सा / सब्र का न बाँध टूटे / बिखर जाए ना रे कजरा'। 

गाँवों से लगातार शहरों की ओर होता पलायन आर्थिक ताना भले ही जोड़ दे पर पारिवारिक बाना तो अस्त-व्यस्त हो ही जाता है। श्वास-प्रश्वास की तरह ग्राम्य और नागर दोनों परिवेशों की आनुभूतिक समृद्धता संपन्न मधु जी पीपल के वृक्ष के माध्यम से मन की व्यथा-कथा कहती है- 'ठहर जो / ओ! प्रवासी / तनिक पीपल छाँव में / कौन जाने कल यहाँ / हम हों न हों / हो रहे हैं खंडहर घर / रेत सी झरने लगी है / नोना लगी दीवार भी /  आह सी भरने लगी है / अब दिया जलता नहीं / वीरानियाँ हैं गाँव में / आह सी भरने लगी है / खेत हरियाले बिके सब / ईंट-पत्थर उग रहे / आ गए हैं बाज, दाना / पंछियों का चुग रहे / जल रही संवेदना / कंकड़ चुभे हैं पाँव में / कौन जाने कल / यहाँ हम हों न हों।' 

पारिस्थितिक विषमता जीवन को रसहीन करती जाती है। समय-चक्र ठिठककर देखता रहता है और कोयल की कूक हर्ष के स्थान पर दर्द को गाती है- 'मौसम सब / रसहीन हो गए / ऐसा चला वक्त का पहिया / सभी ठौर पर ठिठक गए हैं / हवा चली कुछ ऐसी / सब के सब अपने में ठिठक गये हैं / जो मंसूबे बाँध चले थे / पात ढाक के तीन हो गये / कोयल कूक रही पर लगता / दर्द किसी का है दुहराती / टूट-टूट कर बिखर रही है / बहुत दिनों से मिली न पाती / खोया मीठापन / कूपों का / खारे कुछ नमकीन हो गए'।

लोकतंत्र में लोक पर तंत्र हावी हो, आश्वासन की मदिरा युवा को बेबस कर बेसहारा कर दे तो आग लगने की संभावना होती है। नवगीतकार का ऐसी स्थिति में चिंतित होना स्वभावैक है- 'बदल गया है / मौसम का रुख / सूखे खेत चटकती धरती / नगर-नगर में, गली गली में / प्यास-प्यास का शोर मचा है / पर बादल से / जल के बदले / आश्वासन की मदिरा झरती / सपने थे आँखों में पर अब / मात्र बेबसी छलक रही है / गिरवी खुशियाँ / कुंठाओं में / सांसें अपराधों सी चलतीं / आक्रोशों की पौध बढ़ रही / मुरझाई आस्था की बालें / कहीं व्यवस्था / सुलग न जाए / युवा मानों में / आग मचलती'।

नवगीतकार मधु प्रधान का वैशिष्ट्य तमाम विसंतुयों, कमियों, अभावों आदि को स्वीकारते हुए भी आशा के आकाश को कम न होने देना है। उनके नवगीत निराश पर आशा की जय बोलते हैं, जीवन में रस घोलते हैं- 'कब तक रोयेंगे बीते को / चलो नये प्रतिमान गढ़ें हम' कहते हुए मानवीय जिजीविषा को नव राह और नव लक्ष्य दिखाते हैं ये नवगीत- 'माना कठिन समय है लेकिन, फिर भी कुछ तो सुविधाएँ हैं / लेकिन कदम बढ़ाते डरते / मन में कैसी द्विविधाएँ हैं / ठिठकें नहीं पैर अब बढ़कर / नए नए उपमान गढ़ें हम'।
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[संपर्क आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, वाट्सऐप ९४२५१८३२४४, एमेल salil.sanjiv@gmail.com ] 
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मधु प्रधान के गीत
आओ बैठें नदी किनारे - आओ बैठें नदी किनारे, गीत पुराने फिर दोहराएँ। कैसे किरनों ने पर खोले, कैसे सूरज तपा गगन में, कैसे बादल ने छाया दी, कैसे सपने जगे नयन में, सुधियाँ उन स्वर्णिम दिवसों की, मन के सोये तार जगाएँ। जल में झुके सूर्य की आभा, और सलोने चाँद का खिलना, सिन्दूरी बादल के रथ का, लहरों पर इठला कर चलना, बिम्ब पकड़ने दौड़ें लहरें, खुद में उलझ उलझ रह जाएँ । श्वेत पांखियों की कतार ने, नभ में वन्दनवार सजाये, प्रकृति नटी के इन्द्रजाल में, ये मन ठगा-ठगा रह जाये, धीरे-धीरे संध्या उतरी, लेकर अनगिन परी कथाएँ। आओ बैठे नदी किनारे

१. प्रीति की पाँखुरी


प्रीति की
पाँखुरी छू गयी बाँसुरी
गीत झरने लगे स्वप्न तिरने लगे


साँस में
बस गया गाँव इक, गन्ध का
दे के सौरभ गया पत्र अनुबन्ध का
प्राण झंकृत हुये तार कुछ अनछुये
राग अनुराग मय
पल ठहरने लगे


चन्द्रमा को
मिली रुप की पूर्णिमा
नेह के मंत्र रचने लगी उर्मियाँ
थरथराते अधर गुनगुनाते प्रहर
शून्यता को प्रणव
शब्द भरने लगे


लो विभासित
हुयी कोई पावन व्यथा
योग संयोग की नव चिरन्तन कथा
मौलश्री छाँव में शिंजनी पाँव में
शुभ सृजन के नये
स्वर सँवरने लगे


***


२. मेरी है यह भूल अगर


मेरी है
यह भूल अगर
तो मुझको भूल प्यारी है
लिखना मेरी लाचारी है

दिखी किसी की सजल आँख तो
मेरे भी आँसू भर आये
पीड़ा की थपकी
पाकर ही
मन के बोल अधर पर आये
फिर भी पत्थर
नही पसीजे
आँसू का अर्चन जारी है।

सच पूछूँ तो बुरा लगेगा
बीज द्वेष के किसने बोये
पौधा बढ़कर वृक्ष
बन गया
फिर भी सब अपने में खोये
नागफनी उग रही
बाग में
कहते फूलों की क्यारी है।

इतने खंडहर उगे शहर में
वीराने भी मात हो गये
उगे प्रश्न गूँगे
होठों पर
शब्दों पर आघात हो गये
बहुत देर तक चुप
रहना भी
कुछ कहने की तैयारी है
***


३. रूठकर मत दूर जाना

रूठ कर
मत दूर जाना।

माँग भर कर प्राण! तुमने
प्राण वश में कर लिये हैं
था अँधेरी
रात सा मन
जले फिर सौ-सौ दिये हैं
आ गया फिर गुनगुनाना

आस्था के इस सफर में
शूल भी हैं, फूल भी हैं
हैं बहुत
तूफान लेकिन
शान्त सरिता कूल भी हैं
सीख लें सुख-दुख निभाना

पतझरों के बीच भी
मधुमास का आभास होना।
हो रहा
अनुभव, तुम्हारा
बहुत मन के पास होना।
पर कठिन तुमको बताना
***


४. सुलग रही फूलों की घाटी


सुलग रही
फूलों की घाटी
प्यासी हिरनी
सम्मुख मृग जल
कंपित पग पथराया मन है
बहुत उदास आज दर्पण है।


नीलकंठ
के पंख नोच कर
मस्त बाज कर रहे किलोलें
सहमी सहमी-सी गौरैया
छुपी छुपी
शाखों पर डोलें
कोटर पर
नागों का पहरा
नींद दूर है, दूर सपन है।


पके खेत
खलिहान जोहते
बाट कहाँ वंशी की तानें
कहाँ खो गई अल्हड़ कल-कल
झरने सी
झरती मुस्काने
उभर रहे
कुंठा के अंकुश
ठहरा ठहरा सा जीवन है।


बरस रही
है आग रात दिन
सुलग रही फूलों की घाटी
उडे पखेरु नीड़ छोड़ कर
स्वप्न हुई
देहरी की माटी
बिछ़़ड गई
कोपल डाली से,
सूना सूना घर आँगन है।


***


५. आओ बैठें नदी किनारे


आओ बैठें नदी किनारे
गीत पुराने फिर दोहराएँ


कैसे किरनों ने पर खोले
कैसे सूरज तपा गगन में
कैसे बादल ने छाया दी
कैसे सपने जगे नयन में
सुधियाँ उन स्वर्णिम दिवसों की
मन के सोये तार जगाएँ


जल में झुके सूर्य की आभा
और सलोने चाँद का खिलना
सिन्दूरी बादल के रथ का
लहरों पर इठला कर चलना
बिम्ब पकड़ने दौड़ें लहरें
खुद में उलझ उलझ रह जाएँ


श्वेत पांखियों की कतार ने
नभ में वन्दनवार सजाये
प्रकृति नटी के इन्द्रजाल में
ये मन ठगा-ठगा रह जाये
धीरे-धीरे संध्या उतरी
लेकर अनगिन परी कथाएँ


***


६. तुम क्या जानो


तुम क्या जानो क्या होता है


जब स्वप्निल अनुबन्ध टूटते
मिले मिलाये तार रुठते
धवल चाँदनी के छौनों को
अंधकार के दूत लूटते
सूनी चौखट पर जब कोई
खुद पर ही हँसता रोता है।


रिमझिम के मृदु गीत सुनाकर
बेसुध सोई पीर जगा कर
दस्तक देती है पुरवाई
हरियाली चुनर लहरा कर
पर सुधियाँ पग रखते डरतीं
इतना मन भीगा होता है


कहने को सब कहते रहते
अनजाने ही दे जाते हैं
कुछ कड़वी, कुछ मीठी बातें
कोमल मन को गहरी घातें
किन्तु मौन अधरों की भाषा
समझे जो, विरला होता है।


***


७. पीपल की छाँह में


सोचा था बैठेंगे जी भर
हम पीपल की छाँव में
किन्तु सुलगना
पड़ा हमें नित
साजिश भरे अलाव में


चूर हुये सिन्दूरी सपने
बिछुड़ गये सब जो थे अपने
नयनों की निंदिया से अनबन
सहमी है पायल
की रुनझुन
रहजन बैठे घात लगाये
गली-गली हर ठाँव में


जिसको समझा सुख का सागर
वो तो था पीड़ा का निर्झर
आस खुशी की हुई जहाँ से
मिले दर्द के
गीत वहाँ से
मन का मोती बिका अजाने
कौड़ी वाले भाव भाव में


मौन हुये अकुला अकुला कर
मधु गीतों के भावुक अक्षर
शापित है साँसों की राधा
मुरली ने भी
व्रत है साधा
पासे उलटे पड़े न जाने
क्यों अपने हर दाँव में


***


८. प्यासी हिरनी


प्यासी हिरनी सम्मुख मृग जल
कम्पित पग पथराया मन है


बहुत उदास आज दर्पण है।
नीलकंठ के पंख नोच कर
मस्त बाज कर रहे किलोलें
सहमी-सहमी सी गौरैयाँ,
छुपी-छुपी शाखों पर डोलें
कोटर पर नागों का पहरा
नींद दूर है,दूर सपन है।


पके खेत खलिहान जोहते
बाट, कहाँ वंशी की तानें
कहाँ खो गई अल्हड़ कल कल
झरने सी झरती मुस्कानें।
उभर रहे कुंठा के अंकुश
ठहरा-ठहरा सा जीवन है।


बरस रही है आग रात दिन
सुलग रही फूलों की घाटी
उड़े पखेरु नीड़ छोड़ कर
स्वप्न हुई देहरी की माटी
बिछ़ड़ गई कोपल डाली से,
सूना-सूना घर आँगन है


***


९. सुमन जो मन में बसाए


सुमन जो मन में बसाये
भाव भीनी गंध हूँ मैं।


वर्जनायें थीं डगर की
किन्तु कुछ मधुपल चुराये
कल्पनाओंके क्षितिज पर
र्स्वण शतदल से सजाये
अंजली अनुराग की
झरता हुआ मकरंद हूँ मै


मधुर अंकुर कामना का
बीज बन अन्तरनिहित है
काव्य के अनहद स्वरों में
गन्ध मृग सा जो भ्रमित है
गीत की अर्न्तकथा का
वह प्रथम अनुबन्ध हूँ मैं।


मोहिनी की मदिर छवि में
उमड़ते मृदु भाव भर कर
चितेरे की तूलिका से
झरे रस के बिन्दु झर झर
छलछलाते नयन से
छलका हुआ आनन्द हूँ मैं


***


१०. लो हम भी संत हो गए


गंगा केवल नदी नहीं है


गंगा केवल नदी नहीं है,
मां की ममता है,


सदा सींचती आई संस्कृति
नव सोपान दिए
कल कल छल छल बहती जाती
जग का भार लिए
इसकी पावनता की जग में
कोई समता है?


जटा जूट से शिव की उतरी
थी, निर्मलता लेकर
किन्तु मिला क्या इसको
जग को, जीवन का फल देकर
अन्नपूर्णा कल्प वृक्ष सी
इसमें क्षमता है,


आज कह रही सुरसरि हमसे
मन में पीर लिए
कौन बनेगा भागीरथ जो कलि का कलुष हरे
मिले ज्योति से ज्योति, दीप से
तम भी डरता है,
***


११. गीतों में एक अधूरापन




गीतों में एक अधूरापन
पर क्या खोया मन न जाने।


जो कोलाहल से जन्मी है
अनुभूति उसी नीरवता कि
रंगों के झुरमुट में बिखरी
हिम-सी गुमसुम एकरसता कि


अहसास ढूंढ़ती आखों में
जो मिले कहीं पर पहचाने॥


है व्यथा-कथा उन परियों की
जो पंख खोजती भटक रहीं
पीड़ा अधचटकी कलियों की
जो कहीं धूल में सिसक रहीं


तड़पन बिसरे मधुगीतों की
जिनके गायक थे अनजाने॥


उल्लास मिला तो कुछ ऐसे
पानी में चन्दा कि छाया
अन्तस् की सूनी घाटी को
दिव-स्वप्नों से बहलाया


मरुथल में जल की छलना
प्यासी हिरनी को भरमाने॥


***
१२. मौन भटकते गीतों को


मौन भटकते गीतों को
यदि तुम वंशी का स्वर दे दो॥


मैं व्यथा कहूँ कैसे अपनी
उन्मन मन की क्या अभिलाषा
भावों के भटके हुये शलभ
जलना यौवन की परिभाषा


बन बिन्दु रीतते जीवन को
मधु सुधियों की गागर दे दो॥


भीगी पलकों की छाया में
सोये सुख सपने मचल-मचल
गन्ध भरी अमराई में
मत्त भ्रमर जैसे आकुल


सुरभि बाँध लूं आँचल में
यदि कलियों का कोहबर दे दो॥


बौराई कोकिल की कुहुकन
ने छेड़ा मन के तारों को
आशा के कच्चे धागों से
बाँधा है दिन बंजारों को


मद भरी फागुनी रातों को
सपनों का सोन शिखर दे दो


***
१३. दूर है गंतव्य तेरा


चुभ रहे कांटे पगों में
इन्हें यादों में सँजो ले ,
उपेक्षायें मिलीं तो क्या
इन्हें मोती सा पिरो ले,


सीपियों से ढाल दे जो
दर्द दुनियाँ ने बिखेरा ।
दूर है गन्तव्य तेरा ।।
थक रहे क्यों पाँव तेरे
घिर रहे मन में अँधेरे ,


बाती सजा विश्वास की
हैं साधना के दीप कोरे ,


मत्त झंझा के झकोरों ने
प्रभाती राग छेड़ा ।
दूर है गन्तव्य तेरा ।।


निर्झरों से हास लेकर
थकन राहों की भुलादे ,
भोर का तारा बने और
राह औरों को दिखा दे


इन अँधेरी घाटियों में
शेष कुछ पल का बसेरा ।
दूर है गन्तव्य तेरा ।।
***


१४.
मेरा प्यारा भारत देश
सबसे न्यारा मेरा भारत देश
कल- कल करके नदिया बहती
झर-झर करके झरने बहते
आँखों में बसते दृश्य मनोहर।
नित्य नये त्योहार मनाते
आलाप मधुर संगीत सुनाते
बच्चो के मन चहक -चहक है जाते
रसमयी गागर सब छलकाते।
सूर्य चन्द्र नक्षत्र और पशु-पक्षी भी यहाँ पूजे जाते हैं।
खुश तुष्ट हो अतिथि जाते
गुणगान यहां का वे सुनाते।
पर्वत घाटो की कमी नहीं सबको यह बतलाते हैं।
गेंहू चना धान मक्का के
खेत खूब लहराते
फल फूलो के बाग बगीचे
इस धरती की हैं शान ।
भरी हुई है प्रकृति संपदा।
भारत में आपस में मेल बढ़ाती सभ्यता, संस्कृति है।
अनेक भाषाएँ वेशभूषा
शान हमारी खूब बढ़ाती
यह बात औरों को
पच नहीं पाती किन्तु
यही है इस देश की थाती।
बारी-बारी मौसम है आते
रोज नये रंग हैं बरसाते
परिवारों का बंधन है मजबूत
यहाँ चट्टानों सा है जीवन सबका।
वीर शिवाजी औ लक्ष्मीबाई की
गाथाएँ सबको याद जवानी है
शहीद भगत और आजाद की
सरफरोशी की तमन्ना सबने ही समानी है।
वेद व्यास औ कृपाचार्य का
बुद्धि बल व्याप्त हुआ जगत में
गौतम बुद्ध महावीर से ऋषियो ने
अपने उपदेशों से लोगों में फूँका ऐसा मन्त्र मनोहर
उमड़ी त्याग तप की भावना
भरत नाम से बना यह भारत देश
ऐसे महान देश को करते सभी
शत-शत प्रणाम।।
***
१५. निर्दयी कोरोना


*


बडा ही निर्दयी है कोरोना तू


लाखों की जान लेने वाला


जायेगी कब तेरी ये जान


लगेगा कब यह संसार
चलायमान है


सबकी खुशियां गटक गया


जैसे चूरन का सेवन कर गया


बिन बुलाए मेहमान सा


आकर अटक गया है


नहीं चाहिए नहीं किसी को


दुष्ट तेरा यह सानिध्य


आज सारा संसार कर


रहा हा हा कार है


बस जा यहां से तू


उपकार इतना कर हम सब पर


बुजुर्गो के पीछे पड़ा तू भी है


क्यों सबकी बदुआ लेने पर है तुला


सारी गलियां शांत हो गई


सिनेमा घर पकड़ कर


बैठे है‌ अपना‌ सर


‌‌‌
 दुकाने सब खाली हो गयी



कंगाली के बादल घिरने को है


क्यों कड़ी परीक्षा ले रहा है


दांव अपना खेल रहा


मानव से पंगा ले रहा है


जहां क्षण में मात खायेगा


अपने अस्तित्व का समूचा


नाश तू करवायेगा पछतायेगा।।

***

प्रकाशन--**नमन तुम्हें मेरे भारत** देशगीत पुस्तक, *मुखर अब मौन है*,गीत संग्रह , शताधिक पत्र पत्रिकाओं एवं सम्मलित संग्रहों में गीत ग़ज़ल दोहे आदि प्रकाशित। सम्मान--- उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा 'नज़ीर अकबराबादी ' सर्जना सम्मान। मानद " विद्यावाचस्पति" सम्मान। उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा राजभाषा सम्मान। विभिन्न साहित्यिक संस्थानों द्वारा शताधिक सम्मान।। सम्प्रति--पूर्व शिक्षिका वर्तमान में स्वतंत्र लेखन।। संपर्क--149 D, ख्योरा ,नवाबगंज, कानपुर पिन 208002 उत्तर प्रदेश मोबाइल 8562984895 ,,// 9236017666