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रविवार, 7 अप्रैल 2024

अप्रैल ९, सोरठे, भुजंग प्रयात, दोहे, कुण्डलिया, नदी काव्य, हिमकर श्याम, सुबोध श्रीवास्तव, पंकज मिश्र

सलिल सृजन अप्रैल ९
युगतुलसी स्मरण
नागेंद्रबालाय शिप्राय शंभुनाथाय, सुरेशाय पवनाय सचेतनाय।
रेखाय सरलाय भरद्वजाय, किशोराय श्यामाय विभा किंकराय।।
***
कविता
समय-साक्षी  
*
हिमालय की कंदराओं में 
जमाएँ हम बर्फ फ्रिज लेकर  
हुआ विकसित देश अब भारत। 
संपदा हो चंद चंद हाथों में 
शेष को खैरात दे सरकार 
कर रहा चुनाव सब गारत।

जिंदगी भर करो काले काम 
जाँच होती हो न घबराना 
जुड़ो सत्तासीन दल के साथ।  
जो न हाँ में हाँ मिलाए वह 
देशद्रोही जेल में दो डाल 
धन कुबेरों से मिलकर हाथ।  

निज प्रशंसा खुद करो सौ बार,
दो विपक्षी को अगिन गाली 
कराओ जयकार चमचों से। 
करो वादा; बताओ जुमला 
ठगो जनगण को न कर संकोच
धमकियाँ दो रोज मंचों से। 

'लगे मुरझाने कमल के फूल' 
कह गए दुष्यंत युग का सच 
सरोवर का बदल दो पानी। 
लूट अरबों की कराएँ आप, 
भेंट दें भगवान को लाखों 
ऋण चुराकर कहाएँ दानी।
                                  
समय साक्षी मत लिखो कविता 
बहुत है खतरा न बोलो सच 
कलम धरकर मूँद लो आँखें। 
हो गया अपराध अब उड़ना 
बैठ पिंजरे में चुगो दाना 
कट न जाएँ समेटो पाँखें। 
९.४.२०२४ 
*** 
सोरठे
जिनके कच्चे कान, उन्हें पकड़ कर खींचिए।
नानी आए याद, खूब मसलिए भींचिए।।
*
सलिल सम्हलकर बोल, बड़बोले नादान हैं।
खतरनाक वे मित्र, जिनके कच्चे कान हैं।।
*
बोला-गोला जान, लौट नहीं पाता कभी।।
जिनके कच्चे कान, करें भरोसा मत कभी।।
*
सोरठ दोहा
रैन भिगोए नैन, बैन न कटु कहती कभी।
कहती सो पा चैन, हो बेचैन न मनु सभी।।
रैन-रैनपति लग्न, तारागण बारात ले।
झूम-नाच मुद मग्न, मंत्र-वचन अंबर कहे।।
रैन न जाए जाग, लोरी उषा सुना रही।
तेरा अमर सुहाग, रवि लख आशीषे दिशा।।
शरत्पूर्णिमा रैन, लगे फिरंगन नार सी।
डूबे सागर नैन, मावस में हँस चंद्रमा।।
७-४-२०२३
***
मुक्तिका
आधार छंद/ वाचिक भुजंग प्रयात
मापनी 122 122 122 122
पदांत- हुए है
समांत - आए
*
सभी को खिलौना बनाए हुए है।
खुदी में खुदा को समाए हुए है।।
जिसे वोट लेना बताए हमें वो।
किए वायदे क्या निभाए हुए है।।
लिए हाथ में आइना देखता जो
खुदी पे खुदी को रिझाए हुए है।।
न कुर्सी, न सत्ता, न नेता, न दिल्ली।
हमें गाँव अपना लुभाए हुए है।।
सुनाती न दादी, न नानी कहानी।
सदी बचपना क्यों गँवाए हुए है।।
नहीं लोक की तंत्र में फ़िक्र बाकी।
करे जुल्म जुल्मी, छिपाए हुए है।।
नहीं बात जन की, करे बात मन की।
खुदी को खुदा खुद बनाए हुए है।।
७-४-२०२३
***
दोहे
*
चेत सके चित् चैत में, साँस-साँस सत् साथ।
कहे हाथ से हाथ मिल, जिओ उठाकर माथ।।
*
हम नंदन वैशाख के, पके न; आया चैत।
द्वैत हृदय में बसाए, जिह्वा पर अद्वैत।।
*
महुआ महुआ के तले, मोहे गंध बिखेर।
ढाई आखर बाँचती, नैन मूँद अंधेर।।
*
चैती देख पलाश को, तन-मन रही निसार।
क्रुद्ध-तप्त सूरज जला, बरसाता अंगार।।
*
ज्यों की त्यों चादर धरी, हुए कबीरा खेत।
बन कमाल खलिहान ने, चादर धरी समेट।।
*
कल तक मालामाल थे, आज खेत कंगाल।
कल खाली खलिहान थे, अब हैं मालामाल।।
*
बूँद पसीने की गिरी, भू पर उपजी बाल।
देख फसल खलिहान में, मिहनत हुई निहाल।।
*
७-४-२०२२
***
नदी काव्य
*
स्वर्ण रेखा!
अब न हो निराश,
रही तट पर गूँज
आप आ गीता।
काश,
फिर मंगल
कर सके जंगल,
पा पुन: सीता।
अवध
और रजक
गँवा निष्ठा सत
मलिन कर सरयू
गँवा देते राम।
नदी मैया है
जमुन जल राधा,
काट भव बाधा
कान्ह को कर कृष्ण
युग बदलता है।
बीन कर कचरा
रोप पौधा एक
बना उसको वृक्ष
उगा फिर सूरज
हो न जो बीता।
सुन-सुना गीता।।
स्वर्ण रेखा = एक नदी
****
शब्दों की खोज*
*पागलपंती*
पागलपंती शब्द का उद्गम पागलपंथी संप्रदाय से हुआ है।
यह आंदोलन 1833 में अंग्रेज सेना की मदद से कुचला गया था। पागलपंथी आंदोलन करीम शाह और मुस्लिम फकीर मजनू शाह के अन्य शिष्यों द्वारा स्थापित किया गया था। मदारिया सूफी इस पंथ के नेता थे। 1813 में करीम शाह की मृत्यु के बाद, इसका नेतृत्व उनके बेटे टीपू शाह ने किया था। करीम शाह और टीपू शाह की माँ की पत्नी चांद बीबी ने भी समुदाय में एक प्रभावशाली स्थान हासिल किया, जिसे पीर-माता (संत-माता) के नाम से जाना जाता है।
(विकिपीडिया)
गोरखनाथ के बारह पंथ में पागलपंथी का उल्लेख मिलता है।
सत्यनाथी ,धर्मनाथी ,रामपंथी ,नाटेश्वरी, कन्हड़,कपिलानी, वैरागपंथी, माननाथी,आईपंथी, पागलपंथी,धजपंथी और गंगानाथी ।
कार्यशाला
कुंडलिया
*
मानव जब दानव बने, बढ़ता पापाचार ।
शरण राम की लीजिए, आएँ ले अवतार ।। -आशा शैली
आएँ ले अवतार, जगत की पीड़ा हरने
पापी प्रभु से जूझ, मरें भव सागर तरने
दुष्कर्मी थे मिला, विशेषण जिनको दानव
वर्ना थे वे हाड़-मांस के हम से मानव - संजीव
*
७-४-२०२०
***
चित्रगुप्त भजन

१४. चित्रगुप्त प्रभु जी की छवि मनोहारी है
*
चित्रगुप्त प्रभु जी की छवि मनोहारी है, छवि मनोहारी है
सुर, नर, मुनियों ने आरती उतारी है, आरती उतारी है
*
देवा की जै-जै गुंजाने, मिलकर आज चले हैं
मन-मंदिर में प्रभु को बसाने, घर से हम निकले हैं
पाप-पुण्य के स्वामी, सारी सृष्टि पुजारी है
*
कर में कलम-किताब सुशोभित, गल बैजंती माला
उन्नत ग्रीव, सुदीर्घ बाहु, स्कंध सुदृढ़ सुविशाला
वर्ण व्यवस्था सृजी, सभ्यता देव सँवारी है
*
लिपि-लेखनी से युग-परिवर्तन, मानवता को देन
न्याय, नीति, विधि, कुशल प्रशासन, फैलाया सुख-चैन
हे देवों के देव! 'सलिल' तुम पे बलिहारी है
***
१५. प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाए रे!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाएँ रे!
सिर झुकाएँ, जीवन सफल बनाएँ रे!!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाएँ रे!
प्रभु परमेश्वर की महिमा सुहानी, महिमा सुहानी न जाए बखानी
महिमा सुहानी सुन पुण्य पाएँ रे!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाए रे!
प्रभु परमेश्वर हैं भाग्य-विधाता, भाग्य-विधाता हैं मोक्ष-प्रदाता
भाग्य-विधाता को नित मनाएँ रे!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाएँ रे!
प्रभु कर्मेश्वर हैं पाप-पुण्य लेखक, पाप-पुण्य लेखक, माँ अंबे के सेवक
पाप-पुण्य लेखक का जस गुँजाएँ रे!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाएँ रे!
प्रभु गुप्तेश्वर हैं दीनों के बंधु, दीनों के बंधु, कृपा के सिंधु
'सलिल' भव सागर से पार पाएँ रे!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाए रे!
***
कृति चर्चा:
युद्धरत हूँ मैं : जिजीविषा गुंजाती कविताएँ
*
(कृति विवरण: युद्घरत हूँ मैं, हिंदी गजल-काव्य-दोहा संग्रह, हिमकर श्याम, प्रथम संस्करण, २०१८, आईएसबीएन ९७८८१९३७१९०७७, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ २१२, मूल्य २७५रु., नवजागरण प्रकाशन, नई दिल्ली, कवि संपर्क बीच शांति एंक्लेव, मार्ग ४ ए, कुसुम विहार, मोराबादी, राँची ८३४००८, चलभाष ८६०३१७१७१०)
*
आदिकवि वाल्मीकि द्वारा मिथुनरत क्रौंच युगल के नर का व्याध द्वारा वध किए जाने पर क्रौंच के चीत्कार को सुनकर प्रथम काव्य रचना हो, नवजात शावक शिकारी द्वारा मारे जाने पर हिरणी के क्रंदन को सुनकर लिखी गई गजल हो, शैली की काव्य पंक्ति 'अवर स्वीटैस्ट सौंग्स आर दोस विच टैल अॉफ सैडेस्ट थॉट' या साहिर का गीत 'हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं' यह सुनिश्चित है कि करुणा और कविता का साथ चोली-दामन का सा है। दुनिया की कोई भी भाषा हो, कोई भी भू भाग हो आदमी की अनुभूति और अभिव्यक्ति समान होती है। पीड़ा, पीड़ा से मुक्ति की चेतना, प्रयास, संघर्ष करते मन को जब यह प्रतीति हो कि हर चुनौती, हर लड़ाई, हर कोशिश करते हुए अपने आप से 'युद्धरत हूँ मैं' तब कवि कविता ही नहीं करता, कविता को जीता है। तब उसकी कविता पिंगल और व्याकरण के मानक पर नहीं, जिंदगी के उतार-चढ़ाव पर बहती हुई नदी की उछलती-गिरती लहरों में निहित कलकल ध्वनि पर परखी जाती है।
हिमकर श्याम की कविता दिमाग से नहीं, दिल से निकलती है। जीवन के षट् राग (खटराग) में अंतर्निहित पंचतत्वों की तरह इस कृति की रचनाएँ कहनी हैं कुछ बातें मन की, युद्धरत हूँ मैं, आखिर कब तक?, झड़ता पारिजात तथा सबकी अपनी पीर पाँच अध्यायों में व्यवस्थित की गई हैं। शारदा वंदन की सनातन परंपरा के साथ बहुशिल्पीय गीति रचनाएँ अंतरंग भावनाओं से सराबोर है।
आरंभ में ३ से लेकर ६ पदीय अंतरों के गीत मन को बाँधते हैं-
सुख तो पल भर ही रहा, दुख से लंबी बात
खुशियाँ हैं खैरात सी, अनेकों की सौग़ात
उलझी-उलझी ज़िंदगी, जीना है दुश्वार
साँसों के धन पर चले जीवन का व्यापार
चादर जितनी हो बड़ी, उतनी ही औक़ात
व्यक्तिगत जीवन में कर्क रोग का आगमन और पुनरागमन झेल रहे हिमकर श्याम होते हुए भी शिव की तरह हलाहल का पान करते हुए भी शुभ की जयकार गुँजाते हैं-
दुखिया मन में मधु रस घोलो
शुभ-मंगल सब मिलकर बोलो
छंद नया है, राग नया है
होंठों पर फिर फाग नया है
सरगम के नव सुर पर डोलो
शूलों की सेज पर भी श्याम का कवि-पत्रकार देश और समाज की फ़िक्र जी रहा है।
मँहगा अब एतबार हो गया
घर-घर ही बाजार हो गया
मेरी तो पहचान मिट गई
कल का मैं अखबार हो गया
विरासत में अरबी-फारसी मिश्रित हिंदी की शब्द संपदा मसिजीवी कायस्थ परिवारों की वैशिष्ट्य है। हिमकर ने इस विरासत को बखूबी तराशा-सँभाला है। वे नुक़्तों, विराम चिन्हों और संयोजक चिन्ह का प्रयोग करते हैं।
'युद्धरत हूँ मैं' में उनके जिजीविषाजयी जीवन संघर्ष की झलक है किंतु तब भी कातरता, भय या शिकायत के स्थान पर परिचर्चा में जुटी माँ, पिता और मामा की चिंता कवि के फौलादी मनोबल की परिचायक है। जिद्दी सी धुन, काला सूरज, उपचारिकाएँ, किस्तों की ज़िंदगी, युद्धरत हूँ मैं, विष पुरुष, शेष है स्वप्न, दर्द जब लहराए आदि कविताएँ दर्द से मर्द के संघर्ष की महागाथाएँ हैं। तन-मन के संघर्ष को धनाभाव जितना हो सकता है, बढ़ाता है तथापि हिमकर के संकल्प को डिगा नहीं पाता। हिमकर का लोकहितैषी पत्रकार ईसा की तरह व्यक्तिगत पीड़ा को जीते हुए भी देश की चिंता को जीता है। सत्ता, सुख और समृद्धि के लिए लड़े-मरे जा रहे नेताओं, अफसरों और सेठों के हिमकर की कविताओं के पढ़कर मनुष्य होना सीखना चाहिए।
दम तोड़ती इस लोकतांत्रिक
व्यवस्था के असंख्य
कलियुगी रावणों का हम
दहन करना भी चाहें तो
आखिर कब तक
*
तोड़ेंगे हम चुप्पी
और उठा सकेंगे
आवाज़
सर्वव्यापी अन्याय के ख़िलाफ़
लड़ सकेंगे तमाम
खौफ़नाक वारदातों से
और अपने इस
निरर्थक अस्तित्व को
कोई अर्थ दे सकेंगे हम।
*
खूब शोर है विकास का
जंगल, नदी, पहाड़ की
कौन सुन रहा चीत्कार
अनसुनी आराधना
कैसी विडंबना
बिखरी सामूहिक चेतना
*
यह गाथा है अंतहीन संघर्षों की
घायल उम्मीदों की
अधिकारों की है लड़ाई
वजूद की है जद्दोजहद
समय के सत्य को जीते हुए, जिंदगी का हलाहल पीते हुए हिमकर श्याम की युगीन चिंताओं का साक्षी दोहा बना है।
सरकारें चलती रहीं, मैकाले की चाल
हिंदी अपने देश में, अवहेलित बदहाल
कैसा यह उन्माद है, सर पर चढ़ा जुनून
खुद ही मुंसिफ तोड़ते, बना-बना कानून
चाक घुमाकर हाथ से, गढ़े रूप आकार
समय चक्र धीमा हुआ, है कुम्हार लाचार
मूर्ख बनाकर लोक को, मौज करे ये तंत्र
धोखा झूठ फरेब छल, नेताओं के मंत्र
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा प्रकाशित सहयोगाधारित दोहा शतक मंजूषा के भाग २ 'दोहा सलिला निर्मला' में सम्मिलित होने के लिए मुझसे दोहा लेखन सीखकर श्याम ने मुझे गत ५ दशकों की शब्द साधना का पुरस्कार दिया है। सामान्यतः लोग सुख को एकाकी भोगते और दुख को बाँटते हैं किंतु श्याम अपवाद है। उसने नैकट्य के बावजूद अपने दर्द और संघर्ष को छिपाए रखा।इस कृति को पढ़ने पर ही मुझे विद्यार्थी श्याम में छिपे महामानव के जीवट की अनुभूति हुई।
इस एक संकलन में वस्तुत: तीन संकलनों की सामग्री समाविष्ट है। अशोक प्रियदर्शी ने ठीक ही कहा है कि श्याम की रचनाओं में विचार की एकतानता तथा कसावट है और कथन भंगिमा भी प्रवाही है। कोयलांचल ही नहीं देश के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार हरेराम त्रिपाठी 'चेतन' के अनुसार 'रचनाकार अपनी सशक्त रचनाओं से अपने पूर्व की रचनाओं के मापदंडों को झाड़ता और उससे आगे की यात्रा को अधिक जिग्यासा पूर्ण बनाकर तने हुए सामाजिक तंतुओं में अधिक लचीलापन लाता है। मानव-मन की जटिलताओं के गझिन धागों को एक नया आकार देता है।'
इन रचनाओं से गुजरने हुए बार-बार यह अनुभूति होना कि किसी और को नहीं अपने आपको पढ़ रहा हूँ, अपने ही अनजाने मैं को पहचानने की दिशा में बढ़ रहा हूँ और शब्दों की माटी से समय की इबारत गढ़ रहा हूँ। मैं श्याम की जिजीविषा, जीवट, हिंदी प्रेम और रचनाधर्मिता को नमन करता हूँ।
हर हिंदी प्रेमी और सहृदय इंसान श्याम को जीवन संघर्ष का सहभागी और जीवट का साक्षी बन सकता है इस कृति को खरीद-पढ़कर। मैं श्याम के स्वस्थ्य शतायु जीवन की कामना करता हुए आगामी कृतियों की प्रतीक्षा करता हूँ।
७-४-२०१९
***
षट्पदी
बीस साल में जेल है, दो दिन में है बेल.
पकड़ो-छोडो में हुआ, चोर-पुलिस का खेल.
चोर-पुलिस का खेल, पंगु है न्याय व्यवस्था,
लाभ मिले शक का, सुधरे किस तरह अवस्था?
कहे सलिल कविराय, छूटता है क्यों रईस?
मारे-कुचले फिर भी नायक?, हाय! यही है टीस
७.४.२०१८
***
पुस्तक सलिला-
‘सरहदें’ कवि कलम की चाह ले कर सर हदें
[पुस्तक परिचय- सरहदें, ISBN 978.93.83969.72.2, कविता संग्रह, सुबोध श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१. ५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १२० रु., अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चैराहा, मुटठीगंज, इलाहाबाद २११००३, ९४५३००४३९८, anjumanprakashan@gmail.com , कवि संपर्कः माॅडर्न विला, १०/५१८ खलासी लाइंस, कानपुर २०८००१, चलभाष ०९३०५५४०७४५, subodh158@gmail.com ।]
0
मूल्यों के अवमूल्यन, नैतिकता के क्षरण तथा संबंधों के हनन को दिनानुदिन सशक्त करती तथाकथित आधुनिक जीवनशैली विसंगतियों और विडंबनाओं के पिंजरे में आदमी को दम तोड़ने के लिये विवश कर रही है। कवि-पत्रकार सुबोध श्रीवास्तव की कविताएॅं बौद्धिक विलास नहीं, पारिस्थितिक जड़ता की चट्टान को तोड़ने में जुटी छेनी की तरह हैं। आम आदमी अवश्वास और निजता की हदों में कैद होकर घुट रहा है। सुबोध जी की कविताएॅं ऐसी हदों को सर करने की कोशिश से उपजी हैं। कवि सुबोध का पत्रकांर उन्हें वायवी कल्पनाओं से दूरकर जमीनी सामाजिकता सम जोड़ता है। उनकी कविताएॅं अनुभूत की सहज-सरल अभिव्यक्ति करती हैं। वर्तमान नकारात्मक पत्रकारिता के समय में एक पत्रकांर को उसका कवि आशावादी बनाता है।
सब कुछ खत्म/नहीं होता
सब कुछ/खत्म हो जाने के बाद भी
बाकी रह जाता है/कहीं कुछ
फिर सृजन को।
हाॅं, एक कतरा उम्मीद भी/खड़ी कर सकती है
हौसले और विष्वास की/बुलंद इमारत।
अपने नाम के अनुरूप् सुबोध ने कविताओं को सहज बोधगम्य रखा है। वे आतंक के सरपरस्तों को न तो मच्छर के दहाडने की तरह नकली चुनौती देते हैं, न उनके भय से नतमस्तक होते हैं अपितु उनकी साक्षात शांति की शक्ति और हिंसा की निस्सारिता से कराते हैं-
तुम्हें/भले ही भाती हो
अपने खेतों में खड़ी/बंदूकों की फसल
लेकिन-/मुझे आनंदित करती है
पीली-पीली सरसों/और/दूर तक लहलहाती
गेहूॅं की बालियों से उपजता/संगीत।
तुम्हारे बच्चों को/शायद
लोरियों सा सुख भी देती होगी
गोलियों की तड़तड़ाहट/लेकिन/सुनो
कभी खाली पेट नहीं भरा करती
बंदूकें/सिर्फ कोख उजाड़ती हैं।
सुबोध की कविताएॅं आलंकारिकता का बहिष्कार नहीं करतीं, नकारती भी नहीं पर सुरुचिपूर्ण तरीके कथ्य और भाषा की आवश्यकता के संप्रेषण को अधिक प्रभावी बनाने के लिये उपकरण की तरह अनुरूप उपयोग करती हैं।
उसके बाद/फिर कभी नहीं मिले/हम-तुम
लेकिन/मेरी जि़ंदगी को/महका रही है
अब तक/खुशबू/तेरी याद की
क्योकि/यहाॅं नहीं है/कोई सरहद।
‘अहसास’ शीर्षक अनुभाग में संकलित प्रेमपरक रचनाएॅं लिजलिजेपन से मुक्त और यथार्थ के समीप हैं।
आॅंगन में/जरा सी धूप खिली
मुंडेर पे बैठी/ चिडि़या ने/फुदककर
पंखों में छिपा मुॅंह/बाहर निकाला
और/चहचहाई/तो यूॅं लगा/कि तुम आ गये।
कवि मानव मन की गहराई से पड़ताल कर, कड़वे सच को भी सहजता और अपनेपन से कह पाता है-
जितना/खौफनाक लगता है/सन्नाटा
उससे भी कहीं ज्यादा/डर पैदा करता है
कोई/खामोश आदमी।
दोनों ही स्थितियाॅं/तकरीबन एक सी हैं
फर्क सिर्फ इतना है कि/सन्नाटा/टूटता है तो
फिर पहले जैसा हो जाता है/माहौल/लेकिन
चुप्पी टूटने पे/अक्सर/बदला-बदला सा
नज़र आता है/आदमी।
संग्रह के आकर्षण में डाॅ. रेखा निगम, अजामिल तथा अशोक शुक्ल 'अंकुश' के चित्रों ने वृद्धि की है। प्रतिष्ठित कलमकार दिविक रमेश जी की भूमिका सोने में सुहागे की तरह है।
000
रसानंद दे छंद नर्मदा २४: ६-४-२०१६
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय तथा भुजंगप्रयात छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए कुण्डलिया छंद से.
कुण्डलिनी का वृत्त है दोहा-रोला युग्म
*
कुण्डलिया हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है। एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित,सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु, या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिया छंद को आकार देते हैं। दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिया भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा का अंतिम या चौथा चरण रोला प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है। दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है। प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है। सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक देखता है।
१. कुण्डलिया छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद होते हैं।
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है।
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है।
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक छंदहैं अर्थात इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं।
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं।
उदाहरण: समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर।।
५. रोला भी अर्ध सम मात्रिक छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
क. रोला में ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं। दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं।
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
की. रोला के सम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय।।
६. कुण्डलिनी:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर
सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय
कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान।।
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक।
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक।।
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया।
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया।। - नवीन चतुर्वेदी
कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित
कुण्डलिया है जादुई
२११२ २ २१२ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
२१ २१ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दोहा रोला का मिलन
२२ २२ २ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु [प्रभाव लघु गुरु] के साथ यति
इसकी है पहिचान।।
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
इसकी है पहिचान,
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
मानते साहित सर्जक।
२१२ २११ २११ = १३ मात्रा
आदि-अंत सम-शब्द,
२१ २१ ११ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
साथ, बनता ये सार्थक।।
२१ ११२ २ २११ = १३ मात्रा
लल्ला चाहे और
२२ २२ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
चाहती इसको ललिया।
२१२ ११२ ११२ = १३ मात्रा
सब का है सिरमौर
११ २ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
छन्द प्यारे कुण्डलिया।।
२१ २२ २११२ = १३ मात्रा
उदाहरण -
०१. भारत मेरी जान है, इस पर मुझको नाज़।
नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज।।
यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया।
बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया।।
करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत।
पहले जैसा आज, कहाँ है? मेरा भारत।। - राजेंद्र स्वर्णकार
०२. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा
०३. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल।
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल।।
तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत।
मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत।।
तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत।
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत।।
(यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)
०४. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान।
इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान।।
कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर।
तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर।।
जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर।
'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर।।
('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पढ़कर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)
०५. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत।
घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत।।
जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर।
बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर।।
असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ।
नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ।।
(इस कुण्डलिया की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ' करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।)
०६. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन।।
कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के।। - गिरधर
कुण्डलिया छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।
०७. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है।
०८. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग।
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग।।
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना।
करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना।।
कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल।
आरक्षण कर ख़त्म, योग्यता ही हो संबल।।
यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है। प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें।
०९. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से।।
यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है।
***
नवगीत-
*
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
अल्हड, कमसिन, सपनों को
आकार मिल रहा।
अरमानों का कमल
यत्न-तालाब खिल रहा।
दिल को भायी कली
भ्रमर गुंजार करे पर-
मौसम को खिलना-हँसना
क्यों व्यर्थ खल रहा?
तेज़ाबी बारिश की जिसने
पात्र मौत का-
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
व्यक्त असहमति करना
क्या अधिकार नहीं है?
जबरन मनमानी क्या
पापाचार नहीं है?
एसिड-अपराधी को
एसिड से नहला दो-
निरपराध की पीर
तनिक स्वीकार नहीं है।
क्यों न किया अहसास-
पीड़ितों की पीड़ा का?
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
अपराधों से नहीं,
आयु का लेना-देना।
नहीं साधना स्वार्थ,
सियासत-नाव न खेना।
दया नहीं सहयोग
सतत हो, सबल बनाकर-
दण्ड करे निर्धारित
पीड़ित जन की सेना।
बंद कीजिए नाटक
खबरों की क्रीड़ा का
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
***
पुस्तक सलिला-
‘‘बोलना सख्त मना है’’ नवगीत की विसंगतिप्रधान भावमुद्रा
[पुस्तक परिचय- बोलना सख्त मना है, ISBN 978-93-85942-09-9, नवगीत संग्रह, पंकज मिश्र ‘अटल’,वर्ष २०१६, आकार २०.५ से.मी. x ७.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १०० रु., बोधि प्रकाशन एफ ७७ ए सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क सृजन, कुमरा गली, रोशनगंज, शाहजहाॅंपुर २४१००१, चलभाष 99366031136 ।]
0
साहित्य को सशक्त हथियार और पारंपरिकता को तोड़ने व वैचारिक क्रांति करने का उद्देश्य मात्र माननेवाले रचनाकार पंकज मिश्र की इस नवगीत संग्रह से पूर्व दो पुस्तकें ‘चेहरों के पार’ तथा ‘नए समर के लिये’ प्रकाशित हो चुकी र्हैं। विवेच्य संकलन की भूमिका में नवगीतकार अपनी वैचारिक प्रतिबद्वता से अवगत कराकर पाठक को रचनाओं में अंतप्र्रवहित भावों का पूर्वाभास करा देता है। उसके अनुसार ‘‘माध्यम महत्वपूर्ण तो है, पर उतना नहीं जितना कि वह विचार, लक्ष्य या मंतव्य जो समाज को चैतन्यता से पूर्ण कर दे, उसे जागृत कर दे और सकारात्मकता के साथ आगे पढ़ने को बाध्य कर दे। मैंने अपने नवगीतों में अपने आस-पास जो घटित हो रहा है, जो मैं महसूस कर रहा हूॅं और जो भोग रहा हूॅं, उस भोगे हुए यथार्थ को कथ्य रूप में अभिव्यक्ति प्रदान की है।’’ इसका अर्थ यह हुआ कि रचनाकार केवल भोगे हुए को अभिव्यक्ति दे सकता है, अनुभूत को नहीं। तब किसी अनपढ, किसी शोषित़ के दर्द की अभ्व्यिक्ति कोई पढ़ा-लिखा यंा अशोषित कैसे कर सकतंा है? तब कोई स्त्रीए पुरुष की, कोई प्रेमचंद किसी धीसू या जालपा की बात नहीं कह सकेगा क्योंकि उसने वह भोगा नहीं, देखा मात्र है। यह सोच एकांगी ही नहीं गलत भी है। वस्तुतः अभिव्यक्त करने के लिये भोगना जरूरी नहीं, अनुभूति को भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। अतः भोगे हुए यथार्थ कथ्य रूप में अभिव्यक्त करने का दावा अतिशयोक्ति ही हो सकता है।
कवि के अनुसार उसके आस-पास वर्जनाएॅं, मूल्य नहीं मूल्यों की चर्चाएॅं, खोखलेपन और दंभ को पूर्णता मान भटकती-बिखरती पीढ़ी, तिक्त-चुभते संवाद और कथन, खीझ और बासीपन, अति तार्किकता, दम तोड़ती भावनाएॅं, खुद को खोती-चुकती अवसाद धिरी भीड़ है और इसी को से जन्मे हैं उसके नवगीत। यह वक्तव्य कुछ सवाल खड़े करता है. क्या समाज में केवल नकारात्मकता ही है, कुछ भी-कहीं भी सकारात्मक नहीं है? इस विचार से सहमति संभव नहीं क्योंकि समाज में बहुत कुछ अच्छा भी होता है। यह अच्छा नवगीत का विषय क्यों नहीं होे सकता? किसी एक का आकलन सब के लिये बाध्यता कैसे हो सकता है? कभी एक का शुभ अन्य के लिये अशुभ हो सकता है तब रचनाकार किसी फिल्मकार की तरह एक या दोनों पक्षों की अनुभूतियों को विविध पात्रों के माध्यम से व्यक्त कर सकता है।
कवि की अपेक्षा है कि उसके नवगीत वैचारिक क्रांति के संवाहक बनें। क्रांति का जन्म बदलाव की कामना से होता है, क्रांति को ताकत त्याग-बलिदान-अनुशासन से मिलती है। क्रांति की मशाल आपसी भरोसे से रौशन होती है किंतु इन सबकी कोई जगह इन नवगीतों में नहीं है। गीत से जन्में नवगीत में शिल्प की दृष्टि से मुखड़ा-अंतरा, अंतरों में सामान्यतः समान पंक्ति संख्या और पदभार, हर अंतरे के बाद मुखड़े के समान पदभार व समान तुक की पंक्तियाॅं होती हैं। अटल जी ने इस शिल्पानुशासन से रचनाओं को गति-यति युक्त कर गेय बनाया है। हिंदी में स्नातकोत्तर कवि अभिव्यक्ति सामथ्र्य का धनी है। उसका शब्द-भंडार समृद्ध है। कवि का अवचेतन अपने परिवेश में प्रचलित शब्दों को बिना किसी पूर्वाग्रह के ग्रहण करता है इसलिए भाषा जीवंत है। भाषा को प्राणवान बनाने के लिये कवि गुंफित, तिक्त, जलजात, कबंध, यंत्रवत, वाष्प, वीथिकाएॅं जैसे संस्क्रतनिष्ठ शब्द, दुआरों, सॅंझवाती, आखर आदि देशज शब्द, हाकिम, जि़ंदगी, बदहवास, माफिक, कुबूल, उसूल जैसे उर्दू शब्द तथा फुटपाथ, कल्चर, पेपरवेट, पेटेंट, पिच, क्लासिक, शोपीस आदि अंग्रेजी शब्द यथास्थान स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करता है। अहिंदी शब्दों का प्रयोग करतें समय कवि सजगतापूर्वक उन्हें हिंदी शब्दों की तरह वापरता है। पेपरों तथा दस्तावेजों जैसे शब्दरूप सहजता से प्रयोग किये गये हैं।
हिंदी मातृभाषा होने के कांरण कवि की सजगता हटी और त्रुटि हुई। शीष, क्षितज जैसी मुद्रण त्रुटियाॅं तथा अनुनासिक तथा अनुस्वार के प्रयोग में त्रुटि खटकती है। संदर्भ का उच्चारण सन्दर्भ है तो हॅंसकर को अहिंदीभाषी हन्सकर पढ़कर हॅंसी का पात्र बन जाएगा। हॅंस और हंस का अंतर मिट जाना दुखद है। इसी तरह बहुवचन शब्दों में कहीं ‘एॅं’ का प्रयोग है, कहीं ‘यें’ का देखें ‘सभ्यताएॅं’और ‘प्रतिमायें’। कवि ने गणित से संबंधित शब्दों का प्रयौग किया है। ये प्रयोग अभिव्यक्ति को विशिष्ट बनाते हैं किंतु सटीकता भी चाहते हैं। ‘अपनापन /घिर चुका आज / फिर से त्रिज्याओं में’ के संबंध में तथ्य यह है कि त्रिज्या वृत के केंद्र से परिधि तक सीधी लकीर होती है, त्रिज्याएॅं चाप के बिना किसी को घेर नहीे सकतीं। ‘बन चुकी है /परिधि सारी /विवशतायें’, गूॅंगी /चुप्पी में लिपटी /सारी त्रिज्याएॅं हैं’, घुट-घुटकर जीता है नगरीय भूगोल, बढ़ने और घटनें में ही घुटती सीमाएॅं है, रेखाएॅं /घुलकर क्यों /तिरता प्रतिबिंब बनीं?’, ‘धुॅंधलाए /फलकों पर/आधा ही बिंब बनीं’, ‘आकांश बनने /में ही उनके/कट गए डैने’, ‘ड्योढि़याॅं/हॅंसती हैं/आॅंगन को’, इतिहास के /सीने पे सिल/बोते रहे’, ‘लड़ रहीं/लहरें शिलाओं से’, लिपटकर/हॅंसती हवाओं से’, ‘एक बौना/सा नया/सूरज उगाते हम’जैसे प्रयोग ध्यान आकर्षित करते हैं किंतु अधिक सजगता भी चाहते हैं।
अटल जी के ये नवगीत पारंपरिक कथ्य को तोड़ते और बहुत कुछ जोड़ते हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता पर सहज अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति को वरीयता होने पर रस औ भाव पक्ष गीत को अधिक प्रभावी होंगे। यह संकलन अटल जी से और अधिक की आशा जगाता है। नवगीतप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होगे। सुरुचिपूर्ण आवरण, मुद्रण तथा उपयुक्त मूल्य के प्रति प्रकाशक का सजग होना स्वागतेय है।
७.४.२०१६
***
मुक्तिका:
.
गैर से हमको क्यों गिला होगा?
आइना सामने मिला होगा
झील सी आँख जब भरी होगी
कोई उसमें कमल खिला होगा
गर हकीकत न बोल पायी तो
होंठ उसने दबा-सिला होगा
कब तलक चैट से मिलेगा वह
क्या कभी खत्म सिलसिला होगा
हाय! ऐसे न मुस्कुराओ तुम
ढह गया दिल का हर किला होगा
झोपड़ी खाट धनुष या लाठी
जब बनी बाँस ही छिला होगा
काँप जाते हैं कलश महलों के
नीव पत्थर कोई हिला होगा
***
बाँस
.
ज़िन्दगी भर
नेह-नाते
रहे जिनसे.
रह गए हैं
छूट पीछे
आज घर में.
साथ आया वह
न जिसकी
कभी भायी फाँस.
उठाया
हाँफा न रोया
वीतरागी बाँस
*
मान किया, अभिमान किया, अपमान किया- हरि थे मुस्काते
सौंवी न हो गलती यह भी प्रभु आप ही आप रहे चेताते
काल चढ़ा सिर पर न रुका, तब चक्र सुदर्शन कृष्ण चलाते
शीश कटा भू लोट रहा था, प्राण गए हरि में ही समाते
***
मुक्तिका:
.
पल में न दिल में दिल को बसाने की बात कर
जो निभ सके वो नाता निभाने की बात कर
मुझको तो आजमा लिया, लूँ मैं भी आजमा
तू अब न मुझसे पीछा छुड़ाने की बात कर
आना है मुश्किलात को आने भी दे ज़रा
आ जाए तो महफिल से न जाने की बात कर
बचना 'सलिल' वो चाहता मिलना तुझे गले
पड़ जाए जो गले तो भुलाने की बात कर
बेचारगी और तीरगी से हारना न तुम
यायावरी को अपनी जिताने की बात कर
७.४.२०१५
...
क्षणिकाएँ
*
कर पाता दिल
अगर वंदना
तो न टूटता
यह तय है.
*
निंदा करना
बहुत सरल है.
समाधान ही मुश्किल है.
*
असंतोष-कुंठा कब उपजे?
बूझे कारण कौन?
'सलिल' सियासत स्वार्थ साधती
जनगण रहता मौन.
*
मैं हूँ अदना शब्द-सिपाही.
अर्थ सहित दें शब्द गवाही..
***
मुक्तक

दोस्तों की आजमाइश क्यों करें?
मौत से पहले ही बोलो क्यों मरें..
नाम के ही हैं मगर हैं साथ जो-
'सलिल' उनके बिन अकेले क्यों डरें?
दिल लगाकर दिल्लगी हमने न की.
दिल जलाकर बंदगी तुमने न की..
दिल दिया ना दिल लिया, बस बात की-
दिल दुखाया सबने हमने उफ़ न की..
७.४.२०१०
***

मार्च ३०, रामकिंकर, सॉनेट, सवैया, सोरठा, चित्रगुप्त, लघु कथा, नवगीत, पैरोडी, पलाश, हाइकु गीत

सलिल सृजन ३० मार्च
*
स्मरण युगतुलसी
सॉनेट
युग तुलसी युग निर्माता थे,
वे मर्यादा उन्नायक थे,
युग मर्यादा उद्गाता थे,
प्रभु-लीन तपस्वी साधक थे।

वे सिया-राम जप जापक थे,
था धैर्य नर्मदा सम अथाह,
वे हनुमत के आराधक थे,
प्रभु पद में पाई थी पनाह।

मानस पर श्रद्धा थी असीम,
नित शब्दों के नव अर्थ खोज,
नैवेद्य समर्पित कर ससीम,
मीमांसा मौलिक बना भोज।

थे राम-दास हनुमंत-बंधु
युगतुलसी निर्मल कृपा-सिंधु।
३०.३.२०२४
•••
स्मरण युग तुलसी
सवैया 
राम राम जप, यही एक तप, बतलाया है युग तुलसी ने।
सुबह-शाम भज, बिन विराम जप, गुण गाया है युग तुलसी ने।।
कर प्रभु दर्शन, त्याग प्रदर्शन, सिखलाया है युग तुलसी ने।
मर्यादा पर्याय किस तरह हों दिखलाया युग तुलसी ने।।
राम नाम नर्मदा धार में, नहा पवित्र हुए युग तुलसी।
माया-मोह बिसार राम भज, जीवन-इत्र हुए युग तुलसी।।
राम चरित मानस मीमांसा, करी आम जन सुन-गुन तरता-
वाल्मीकि जाबाली तुलसी, विश्वामित्र हुए युग तुलसी।।
सुनें राम महिमा गुन गाएँ, नीर-क्षीर मति रख युग तुलसी।
भक्ति-ज्ञान-वैराग्य पंथ पर, बढ़े सतत पग रख युग तुलसी।।
सुख-दुख ऊँच-नीच सम मानें, खास न कोई लख युग तुलसी।
स्वाद अमिय-विष को नहिं भावै, राम नाम रस चख युग तुलसी।।
३०.३.२०२४
•••
मुक्तिका
'शाम कितनी अनमनी है इस शहर में'
रात होगी अजनबी क्या इस शहर में?
बात मन की कर अँधेरा इस शहर में
बोल सकता- 'है उजाला इस शहर में'
सूर्य छल धोखा दगा दे जब उगेगा
भोर को ऊषा छलेगी इस शहर में
'ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं'
जो लिखे आफत बुलाए इस शहर में
जो असहमत हो वही अब जेल जाए
सिर्फ 'हाँ' ही 'हाँ' रहेगी इस शहर में
३०-३-२०२३
***
सोरठा सलिला
जी भरकर आराम, भक्त करें 'आ राम' कह।
राम न कर विश्राम, काम करें निष्काम रह।।
गहें राम पतवार, वाल्मीकि जपकर "मरा'।
राम नाम पतवार, जिसने थामी वह तरा।।
राम-नाम बन बाण, काल दशानन का बना।
राम आप संप्राण, पूजन शिवा-शिव को हुए।।
आप बने लंकेश, राम-नाम जप विभीषण।
नोच मरा निज केश, रावण लड़कर राम से।।
३०-३-२०२३
***
सॉनेट
श्वेत-श्याम
(१६-१५ मात्रा)
जन्म श्वेत का हुआ श्याम से,
श्याम श्वेत का दे उपहार।
हैं अभिन्न पर भिन्न नाम से,
पल पल करते मिल उपकार।।
श्याम विष्णु शिव पूजे जाते,
श्वेत ब्रह्म को भूला लोक।
गोरेपन की क्रीम बने क्यों?
क्यों न लग रही इस पर रोक??
जो जैसा है उसको वैसा
क्यों न सके हैं हम स्वीकार?
बेहतर-कमतर कहें व्यर्थ ही
आमंत्रित करते खुद हार।।
शांति छोड़ करते क्यों युद्ध?
क्यों न शांति वर बनें प्रबुद्ध??
३०-३-२०२२
•••
सॉनेट
(मात्रा १६-१४)
नमन सभी को, सबका वंदन,
विश्व समूचा एक बने।
सब के माथे रोली-चंदन।।
प्रभु! न कहीं भी समर ठने।।
ममता समता सम्मुख सब नत।
प्रभुता हेतु हो न प्रयास।
मानव हो उजास हित नित रत।।
हर नयन में रहे उजास।।
सीमा भूल असीम हो सकें।
तजे मन निज-पर का भाव।
युद्ध त्याग कर शांति बो सकें।।
रवि-धरा सम करें निभाव।।
सबका मन से कर अभिनंदन।
यह वसुधा हो नंदन वन।।
३०-३-२०२२
•••
चित्रगुप्त आख्यान
॥ ॐ यमाय धर्मराजाय श्री चित्रगुप्ताय वै नमः ॥
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि चित्रगुप्त का राज्य सिंहासन यमपुरी में है और वो अपने न्यायालय में मनुष्यों के कर्मों के अनुसार उनका न्याय करते हैं तथा उनके कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं,
‘धर्मराज चित्रगुप्त: श्रवणों भास्करादय:
कायस्थ तत्र पश्यनित पाप पुण्यं च सर्वश:’
चित्रगुप्तम, प्रणम्यादावात्मानं सर्वदेहीनाम।
कायस्थ जन्म यथाथ्र्यान्वेष्णे नोच्यते मया।।
(सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विधमान चित्रगुप्त को प्रमाण। कायस्थ का जन्म यर्थाथ के अन्वेषण (सत्य कि खोज ) हेतु ही हुआ है।
>> यजुर्वेद आपस्तम्ब शाखा चतुर्थ खंड यम विचार प्रकरण से ज्ञात होता है कि महाराज चित्रगुप्त के वंसज चित्ररथ ( चैत्ररथ ) जो चित्रकुट के महाराजाधिराज थे और गौतम ऋषि के शिष्य थे ।
बहौश्य क्षत्रिय जाता कायस्थ अगतितवे।
चित्रगुप्त: सिथति: स्वर्गे चित्रोहिभूमण्डले।।
चैत्ररथ: सुतस्तस्य यशस्वी कुल दीपक:।
ऋषि वंशे समुदगतो गौतमो नाम सतम:।।
तस्य शिष्यो महाप्रशिचत्रकूटा चलाधिप:।।
“प्राचीन काल में क्षत्रियों में कायस्थ इस जगत में हुये उनके पूर्वज चित्रगुप्त स्वर्ग में निवास करते हैं तथा उनके
पुत्र चित्र इस भूमण्डल में सिथत है उसका पुत्र (वंसज ) चैत्रस्थ अत्यन्त यशस्वी और कुलदीपक है जो ऋषि-वंश
के महान ऋषि गौतम का शिष्य है वह अत्यन्त महाज्ञानी परम प्रतापी चित्रकूट का राजा है।”
विष्णु धर्म सूत्र (विष्णु स्मृति ग्रंथ के प्रथम परिहास के प्रथम श्लोक में तो कायस्थ को परमेश्वर का रुप कहा गया है।
येनेदम स्वैच्छया, सर्वम, माययाम्मोहितम जगत।
स जयत्यजित: श्रीमान कायस्थ: परमेश्वर:।।
यमांश्चैके-यमायधर्मराजाय मृतयवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय, कालाय, सर्वभूत क्षयाय च।।
औदुम्बराय, दघ्नाय नीलाय परमेषिठने।
वृकोदराय, चित्रायत्र चित्रगुप्ताय त नम:।।
एकैकस्य-त्रीसित्रजन दधज्जला´जलीन।
यावज्जन्मकृतम पापम, तत्क्षणा देव नश्यति।।
यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतों का क्षय करने वाले, औदुम्बर, चित्र, चित्रगुप्त, एकमेव, आजन्म
किये पापों को तत्क्षण नष्ट कर सकने में सक्षम, नील वर्ण आदि विशेषण चित्रगुप्त के परमप्रतापी स्वरूप का बखान करते
हैं। पुणयात्मों के लिए वे कल्याणकारी और पापियों के लिए कालस्वरूप है।
***
चित्रगुप्त पूजन क्यों?
*
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम में उनका जन्म प्रमाण पत्र है.कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती. नव उत्पत्ति प्रकृति तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता. चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह शक्ति निराकार है.हम निराकार शक्तियों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं.
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है.'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है.सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) केरूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं. यही शक्ति सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है. सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं. हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा,पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं.आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं.
वैदिक काल से कायस्थ जान हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं चूँकि वे जानते और मानते रहे हैं कि सभी में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा. कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया.
निराकार चित्रगुप्त जी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा. कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व,कोई जयंती,कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं सब चित्रगुप्त जी के एक विशिष्ट रूप के लिये हैं. उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते. यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा प्रचालन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया. यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वैदिक काल से है.
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा लोक में मान्य है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं.
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कृतिचर्चा :
चित्रगुप्त मीमांसा : श्रृष्टि-श्रृष्टा की तलाश में सार्थक सृजन यात्रा
चर्चाकार: आचार्य संजीव 'सलिल'
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(कृति विवरण: नाम: चित्रगुप्त मीमांसा, विधा: गद्य, कृतिकार: रवीन्द्र नाथ, आकार: डिमाई, पृष्ठ: ९३, मूल्य: ७५/-,आवरण: पेपरबैक, अजिल्द-एकरंगी, प्रकाशक: जैनेन्द्र नाथ, सी १८४/३५१ तुर्कमानपुर, गोरखपुर २७३००५ )
श्रृष्टि के सृजन के पश्चात से अब तक विकास के विविध चरणों की खोज आदिकाल से मनुष्य का साध्य रही है। 'अथातो धर्म जिज्ञासा' और 'कोहं' जैसे प्रश्न हर देश-कल-समय में पूछे और बूझे जाते रहे हैं। समीक्ष्य कृति में श्री रविन्द्र नाथ ने इन चिर-अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर अपनी मौलिक विवेचना से देने का प्रयास किया है।
चित्रगुप्त, कायस्थ, नारायण, ब्रम्हा, विष्णु, महेश, सरस्वती, इहलोक, परलोक आदि अबूझ प्रश्नों को तर्क के निकष पर बूझते हुए श्री रवींद्र नाथ ने इस कृति में चित्रगुप्त की अवधारणा का उदय, सामाजिक संरचना और चित्रगुप्त, सांस्कृतिक विकास और चित्रगुप्त, चित्रगुप्त पूजा और साक्षरता, पारलौकिक न्याय और चित्रगुप्त, लौकिक प्रशासन और चित्रगुप्त तथा जगत में चित्रगुप्त का निवास शीर्षक सात अध्यायों में अपनी अवधारणा प्रस्तुत की है।
विस्मय यह कि इस कृति में चित्रगुप्त के वैवाहिक संबंधों (प्रचलित धारणाओं के अनुसार २ या ३ विवाह), १२ पुत्रों तथा वंश परंपरा का कोई उल्लेख नहीं है। यम-यमी संवाद व यम द्वितीया, मनु, सत्य-नारायण, आदि लगभग अज्ञात प्रसंगों पर लेखक ने यथा संभव तर्क सम्मत मौलिक चिंतन कर विचार मंथन से प्राप्त अमृत जिज्ञासु पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है।
पुस्तक का विवेच्य विषय जटिल तथा गूढ़ होने पर भी कृतिकार उसे सरल, सहज, बोधगम्य, रोचक, प्रसादगुण संपन्न भाषा में अभिव्यक्त करने में सफल हुआ है। अपने मत के समर्थन में लेखक ने विविध ग्रंथों का उल्लेख कर पुष्ट-प्रामाणिक पीठिका तैयार की है। गायत्री तथा अग्नि पूजन के विधान को चित्रगुप्त से सम्बद्ध करना, चित्रगुप्त को परात्पर ब्रम्ह तथा ब्रम्हा-विष्णु-महेश का मूल मानने की जो अवधारणा अखिल कायस्थ महासभा के हैदराबाद अधिवेशन के बाद से मेरे द्वारा लगातार प्रस्तुत की जाती रही है, उसे इस कृति में लेखक ने न केवल स्वीकार किया है अपितु उसके समर्थन में पुष्ट प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं।
यह सत्य है कि मेरी तथा लेखक की भेंट कभी नहीं हुई तथा हम दोनों लगभग एक समय एक से विचार तथा निष्कर्ष से जुड़े किन्तु परात्पर परम्ब्रम्ह की परम सत्ता की एक समय में एक साथ, एक सी अनुभूति अनेक ब्रम्हांश करें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। 'को जानत, वहि देत जनाई'... सत्य-शिव-सुंदर की सनातन सत्ता की अनुभूति श्री मुरली मनोहर श्रीवास्तव, बालाघाट को भी हुई और उनहोंने 'चित्रगुप्त मानस' महाकाव्य की रचना की है, जिस पर हम बाद में चर्चा करेंगे।
'इल' द्वारा इलाहाबाद तथा 'गय' द्वारा गया की स्थापना सम्बन्धी तथ्य मेरे लिए नए हैं. कायस्थी लिपि के बिहार से काठियावाड तक प्रसार तथा ब्राम्ही लिपि से अंतर्संबंध पर अधिक अन्वेषण आवश्यक है। मेरी जानकारी के अनुसार इस लिपि को 'कैथी' कहते हैं तथा इसकी वर्णमाला भी उपलब्ध है. संभवतः यह लिपि संस्कृत के प्रचलन से पहले प्रबुद्ध तथा वणिक वर्ग की भाषा थी।
लेखक की अन्य १४ कृतियों में पौराणिक हिरन्यपुर साम्राज्य, सागर मंथन- एक महायज्ञ, विदुए का राजनैतिक चिंतन आदि कृतियाँ इस जटिल विषय पर लेखन का सत्पात्र प्रमाणित करती हैं। इस शुष्ठु कृति के सृजन हेतु लेखक साधुवाद का पात्र है ।
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लघु कथा
आँख मिचौली
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कल तक अपने मुखर और परोपकारी स्वभाव के लिए चर्चित रहनेवाली 'वह' आज कुछ और अधिक मुखर थी। उसने कब सोचा था कि समाचारों में सुनी या चलचित्रों में देखी घटनाओं की तरह यह घटना उसके जीवन में घट जायेगी और उसे चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने लोगों के अप्रिय प्रश्नों के व्यूह में अभिमन्यु की तरह अकेले जूझना पड़ेगा।
कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता मानो पुलिस अधिकारी, पत्रकार और वकील ही नहीं तथाकथित शुभ चिन्तक भी उसके कहे पर विश्वास न कर कुछ और सुनना चाहते हैं। कुछ ऐसा जो उनकी दबी हुई मनोवृत्ति को संतुष्ट कर सके, कुछ मजेदार जिस पर प्रगट में थू-थू करते हुए भी वे मन ही मन चटखारे लेता हुआ अनुभव कर सकें, कुछ ऐसा जो वे चाहकर भी देख या कर नहीं सके। उसका मन होता ऐसी गलीज मानसिकता के मुँह पर थप्पड़ जड़ दे किन्तु उसे खुद को संयत रखते हुए उनके अभद्रता की सीमा को स्पर्श करते प्रश्नों के उत्तर शालीनतापूर्वक देना था।
जिन लुच्चों ने उसे परेशान करने का प्रयास किया वे तो अपने पिता के राजनैतिक-आर्थिक असर के कारण कहीं छिपे हुए मौज कर रहे थे और वह निरपराध तथा प्रताड़ित किये जाने के बाद भी नाना प्रकार के अभियोग झेल रही थी।
वह समझ चुकी थी कि उसे परिस्थितियों से पार पाना है तो न केवल दुस्साहसी हो कर व्यवस्था से जूझते हुए छद्म हितैषी पुरुषों को मुँह तोड़ जवाब देना होगा बल्कि उसे कठिनाई में देखकर मन ही मन आनंदित होती महिलाओं के साथ भी लगातार खेलने होगी आँख मिचौली।
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लघु कथा
मीरा
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'ऐसा क्यों करें माँ? रिश्ता न जोड़ने का फैसला करने कोई कारण भी तो हो। दुर्घटना तो किसी के भी साथ हो सकती है। याद करो बड़की का रिश्ता तय हो जाने की बाद उसके पैर की हड्डी टूट गयी थी लेकिन उसके ससुरालवालों ने हमारे बिना कुछ कहे कितनी समझदारी से शादी की तारीख आगे बढ़ा दी थी, तभी तो वह ससुरालवालों पर जान छिड़कती है।.... वह बात और कैसे हो गई? वहाँ भी दुर्घटना हुई थी, यहाँ भी दुर्घटना हुई है। दुर्घटना पर किसका बस? आधी रात को क्यों गयी? यह नहीं मालुम, तुमने पूछा-जाना भी नहीं और उसे गलत मान लिया?
तुम्हीं ने हम दोनों का रिश्ता तय किया, जिद करके मुझे मनाया और अब तुम्हीं?.... बदनामी उसकी नहीं, गुनहगारों की हो रही है। इस समय हमें उसके साथ मजबूती से खड़ा होकर न्याय-प्राप्ति की राह में उसकी हिम्मत बढ़ानी है। हम सबंध तोड़ेंगे नहीं, जल्दी से जल्दी जोड़ेंगे ताकि उसे तंग करनेवाला कितने भी असरदार बापका बेटा हो, कितनी भी धमकियाँ दे, हम देखें कि सियासत न उड़ा सके उस सिया के सत का मजाक, प्रेस न ले सके चटखारे। कानून अपराधी को सजा दे और अब हमारी व्यवस्था की अपंगता का विष पीने को मजबूर न हो वह मीरा।
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लघु कथा
काल्पनिक सुख
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'दीदी! चलो बाँधो राखी' भाई की आवाज़ सुनते ही उछल पडी वह। बचपन से ही दोनों राखी के दिन खूब मस्ती करते, लड़ते का कोई न कोई कारण खोज लेते और फिर रूठने-मनाने का दौर।
'तू इतनी देर से आ रहा है? शर्म नहीं आती, जानता है मैं राखी बाँधे बिना कुछ खाती-पीती नहीं। फिर भी जल्दी नहीं आ सकता।'
"क्यों आऊँ जल्दी? किसने कहा है तुझे न खाने को? मोटी हो रही है तो डाइटिंग कर रही है, मुझ पर अहसान क्यों थोपती है?"
'मैं और मोटी? मुझे मिस स्लिम का खिताब मिला और तू मोटी कहता है.... रुक जरा बताती हूँ.'... वह मारने दौड़ती और भाई यह जा, वह जा, दोनों की धाम-चौकड़ी से परेशान होने का अभिनय करती माँ डांटती भी और मुस्कुराती भी।
उसे थकता-रुकता-हारता देख भाई खुद ही पकड़ में आ जाता और कान पकड़ते हुई माफ़ी माँगने लगता। वह भी शाहाना अंदाज़ में कहती- 'जाओ माफ़ किया, तुम भी क्या याद रखोगे?'
'अरे! हम भूले ही कहाँ हैं जो याद रखें और माफी किस बात की दे दी?' पति ने उसे जगाकर बाँहों में भरते हुए शरारत से कहा 'बताओ तो ताकि फिर से करूँ वह गलती'...
"हटो भी तुम्हें कुछ और सूझता ही नहीं'' कहती, पति को ठेलती उठ पडी वह। कैसे कहती कि अनजाने ही छीन गया है उसका काल्पनिक सुख।
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लघु कथा
साधक की आत्मनिष्ठा
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'बेटी! जल्दी आ, देख ये क्या खबर आ रही है?' सास की आवाज़ सुनते ही उसने दुधमुँहे बच्चे को उठाया और कमरे से बाहर निकलते हुए पूछा- 'क्या हुआ माँ जी?'
बैठक में पहुँची तो सभी को टकटकी लगाये समाचार सुनते-देखते पाया। दूरदर्शन पर दृष्टि पड़ी तो ठिठक कर रह गयी वह.... परदे पर भाई कह रहा था- "उस दिन दोस्तों की दबाव में कुछ ज्यादा ही पी गया था। घर लौट रहा था, रास्ते में एक लड़की दिखी अकेली। नशा सिर चढ़ा तो भले-बुरे का भेद ही मिट गया। मैं अपना दोष स्वीकारता हूँ। कानून जो भी सजा दगा, मुझे स्वीकार है। मुझे मालूम है कि मेरे माफी माँगने या सजा भोगने से उस निर्दोष लडकी तथा उसके परिवार के मन के घाव नहीं भरेंगे पर मेरी आत्म स्वीकृति से उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा मिल सकेगी। मैं शर्मिन्दा और कृतज्ञ हूँ अपनी उस बहन के प्रति जो मुझे राखी बाँधने आयी थी लेकिन तभी यह दुर्घटना घटने के कारण बिना राखी बाँधे अपने घर लौट गयी। उसने मुझे अपने मन में झाँकने के लिए मजबूर कर दिया। मैं उससे वादा करता हूँ कि अब ज़िंदगी में कभी कुछ ऐसा नहीं करूँगा कि उसे शर्मिन्दा होना पड़े। मुझे आत्मबोध कराने के लिए नमन करता हूँ उसे।" भाई ने हाथ जोड़े मानो वह सामने खड़ी हो।
दीवार पर लगे भगवान् के चित्र को निहारते हुए अनायास ही उसके हाथ जुड़ गए और वह बोल पडी 'प्रभु! कृपा करना, उसे सद्बुद्धि देना ताकि अडिग और जयी रहे उस साधक की आत्मनिष्ठा।
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लघुकथा:
नीरव व्यथा
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बहुत उत्साह से मायके गयी थी वह की वर्षों बाद भाई की कलाई पर राखी बाँधेगी, बचपन की यादें ताजा होंगी जब वे बच्चे थे और एक-दूसरे से बिना बात ही बात-बात पर उलझ पड़ते थे और माँ परेशान हो जाती थी।
उसे क्या पता था कि समय ऐसी करवट लेगा कि उसे जी से प्यारे भाई को न केवल राखी बिना बाँधे उलटे पैरों लौटना पडेगा अपितु उस माँ से भी जमकर बहस हो जायेगी जिसे बचपन से उसने दादी-बुआ आदि की बातें सुनते ही देखा है और अब यह सोचकर गयी थी कि सब कुछ माँ की मर्जी से ही करेगी।
बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक, अकेले और असमय उसे घर के दरवाजे पर देखकर पति, सास-ससुर चौंके तो जरूर पर किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया। ससुर जी ने लपककर उसके हाथ से बच्चे को लिया, पति ने रिक्शे से सामान उतारकर कमरे में रख दिया सासू जी उसे गले लगाकर अंदर ले आईं बोली 'तुम एकदम थक गयी हो, मुँह-हाथ धो लो, मैं चाय लाती हूँ, कुछ खा-पीकर आराम कर लो।'
'बेटी! दुनिया की बिल्कुल चिंता मत करना। हम सब एक थे, हैं और रहेंगे। तुम जब जैसा चाहो बताना, हम वैसा ही करेंगे।' ससुर जी का स्नेहिल स्वर सुनकर और पति की दृष्टि में अपने प्रति सदाशयता का भाव अनुभव कर उसे सांत्वना मिली।
सारे रास्ते वह आशंकित थी कि किन-किन सवालों का सामना करना पड़ेगा?, कैसे उत्तर दे सकेगी और कितना अपमानित अनुभव करेगी? अपनेपन के व्यवहार ने उसे मनोबल दिया, स्नान-ध्यान, जलपान के बाद अपने कमरे में खुद को स्थिर करती हुई वह सामना कर पा रही थी अपनी नीरव व्यथा का।
लघु कथा
अंतर्विरोध
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कल तक पुलिस की वह वही हो रही थी कि उसने दो लड़कों द्वारा सताई जा रही लड़की को सुचना मिलते ही तत्काल जाकर न केवल बचाया अपितु दोनों अपराधियों को गिरफ्तार कर अगली सुबह अदालत में पेश करने की तैयारी भी कर ली। खबरची पत्रकार पुलिस अधिकारियों की प्रशंसा कर रहे थे।
खबर लेने गए किसी पत्रकार ने अपराधी लड़कों को पहचान लिया कि एक सता पक्ष के असरदार नेता का सपूत और दूसरा एक धनकुबेर का कुलदीपक है।
यह सुनते ही पुलिस अधिकारीयों के हाथ-पैर फूल गए। फ़ौरन से पेश्तर चलभाष खटखटाए जाने लगे। कचहरी भेजे जाने वाले कगाज़ फिर देखे जाने लगे, धाराओं में किया जाने लगा बदलाव, दोनों लुच्चों को बैरक से निकालकर ससम्मान कुर्सी पर बैठा कर चाय-पानी पेश किया जाने लगा, लापता बता दी गयी सी.सी.टी.वी. की फुटेज।
दिल्ली से प्रधान मंत्री गरीब से गरीब आदमी को बिना देर किया सस्ता और निष्पक्ष न्याय दिलाने की घोषणा आकार रहे ठे और उन्हीं के दल के लोग लोकतंत्र के कमल को दलदल में दफना की जुगत में लगे उद्घाटित कर रहे थे कथनी और करनी का अन्तर्विरोध।
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लघुकथा
समाधि
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विश्व पुस्तक दिवस पर विश्व विद्यालय के ग्रंथागार में पधारे छात्र नेताओं, प्राध्यापकों, अधिकारियों, कुलपति तथा जनप्रतिनिधियों ने क्रमश: पुस्तकों की महत्ता पर लंबे-लंबे व्याख्यान दिए।
द्वार पर खड़े एक चपरासी ने दूसरे से पूछा- 'क्या इनमें से किसी को कभी पुस्तकें लेते, पढ़ते या लौटाते देखा है?'
'चुप रह, सच उगलवा कर नौकरी से निकलवायेगा क्या? अब तो विद्यार्थी भी पुस्तकें लेने नहीं आते तो ये लोग क्यों आएंगे?'
'फिर ये किताबें खरीदी ही क्यों जाती हैं?
'सरकार से प्राप्त हुए धन का उपयोग होने की रपट भेजना जरूरी होता है तभी तो अगले साल के बजट में राशि मिलती है, दूसरे किताबों की खरीदी से कुलपति, विभागाध्यक्ष, पुस्तकालयाध्यक्ष आदि को कमीशन भी मिलता है।'
'अच्छा, इसीलिये हर साल सैंकड़ों किताबों को दे दी जाती है समाधि।'
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लघुकथा
काँच का प्याला
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हमेशा सुरापान से रोकने के लिए तत्पर पत्नी को बोतल और प्याले के साथ बैठा देखकर वह चौंका। पत्नी ने दूसरा प्याला दिखाते हुए कहा 'आओ, तुम भी एक पैग ले लो।'
वह कुछ कहने को हुआ कि कमरे से बेटी की आवाज़ आयी 'माँ! मेरे और भाभी के लिए भी बना दे। '
'क्या तमाशा लगा रखा है तुम लोगों ने? दिमाग तो ठीक है न?' वह चिल्लाया।
'अभी तक तो ठीक नहीं था, इसीलिए तो डाँट और कभी-कभी मार भी खाती थी, अब ठीक हो गया है तो सब साथ बैठकर पियेंगे। मूड मत खराब करो, आ भी जाओ। ' पत्नी ने मनुहार के स्वर में कहा।
वह बोतल-प्याले समेट कर फेंकने को बढ़ा ही था कि लड़ैती नातिन लिपट गयी- 'नानू! मुझे भी दो न।'
उसके सब्र का बाँध टूट गया, नातिन को गले से लगाकर फूट पड़ा वह 'नहीं, अब कभी हाथ भी नहीं लगाऊँगा। तुम सब ऐसा मत करो। हे भगवान्! मुझे माफ़ करों' और लपककर बोतल घर के बाहर फेंक दी। उसकी आँखों से बह रहे पछतावे के आँसू समेटकर मुस्कुरा रहा था काँच का प्याला।
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लघुकथा : एक दृष्टि
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लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३.तीक्ष्ण प्रभाव हैं।
इनमें से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है।
घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुड़ी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी।
इन ३ तत्वों का प्रयोगकर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है।
कुछ रचनाकार इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं।
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग घटते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघुकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो।
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं, इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों का चरित्र-चित्रण, कथोपकथन आदि नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है।
शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं।
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है।
एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है।
कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है।
सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है।
व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा?
व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है।
१७-३-२०२०
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सॉनेट
(मात्रा १६-१४)
नमन सभी को, सबका वंदन,
विश्व समूचा एक बने।
सब के माथे रोली-चंदन।।
प्रभु! न कहीं भी समर ठने।।
ममता समता सम्मुख सब नत।
प्रभुता हेतु हो न प्रयास।
मानव हो उजास हित नित रत।।
हर नयन में रहे उजास।।
सीमा भूल असीम हो सकें।
तजे मन निज-पर का भाव।
युद्ध त्याग कर शांति बो सकें।।
रवि-धरा सम करें निभाव।।
सबका मन से कर अभिनंदन।
यह वसुधा हो नंदन वन।।
३०-३-२०२२
•••
नवगीत
*
पीर ने पूछें
दोस दै रये
काय निकल रय?
कै तो दई 'घर बैठो भइया'
दवा गरीबी की कछु नइया
ढो लाये कछु कौन बिदेस सें
हम भोगें कोरोना दइया
रोजी-रोटी गई
राम रे! हांत सें
तोते उड़ रय
दो बचो-बचाओ खाओ
फिर उधार सें काम चलाओ
दो दिन भूखे बैठ बिता लए
जान बचाने, गाँव बुला रओ
रेल-बसें भईं बंद
राम रे! लट्ठ
फुकट में घल रय
खोदत-खाउत जिनगी बीती
बिकी कसेंड़ी, गुल्लक रीती
तकवारों की मौज भई रे
जनता हारी, रिस्वत जीती
कग्गज पै बँट रओ
धन-रासन, आसें
गिद्ध निगल रय
***
नवगीत:
*
गरियाए बिन
हजम न होता
खाना, किसको कोसें?
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वैचारिक प्रतिबद्ध भौत हम
जो न साथ हो, करें फौत हम
झूठ - हकीकत क्या?
क्यों सोचें?
स्वार्थ जियें, सर्वार्थ-मौत हम
जुतियाए बिन
नींद न आती
बैर हमेसा पोसें
.
संसद हो या टी. व्ही. चरचा
जन-धन का लाखों हो खरचा
नकल मार या
धमकी देकर, रउआ
देते आये परचा
पास हुए जो
चाकर, उनको
फेल हुए हम धौंसें
.
हाय बिधाता! जे का कर दओ?
बुरो जमानो, ऐब इतै सौ
जिन्हें लड़ाओ, हांत मिलाए
राम दुहाई - जे कैसें भओ?
गोड़ तोड़ रये
टैक्स भरें पे
कुटें-पिटें मूँ झौंसे
३०-३-२०२०
***
एक दोहा
*
सुन पढ़ सीख समझ जिसे, लिखा साल-दर साल।
एक निमिष में पढ़ लिया?, सचमुच किया कमाल।।
***
ई मित्रता पर पैरोडी:
*
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
***
मतदाता विवेकाधिकार मंच
*
त्रिपदिक छंद हाइकु
विषय: पलाश
विधा: गीत
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लोकतंत्र का / निकट महापर्व / हावी है तंत्र
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मूक है लोक / मुखर राजनीति / यही है शोक
पूछे पलाश / जनता क्यों हताश / कहाँ आलोक?
सत्ता की चाह / पाले हरेक नेता / दलों का यंत्र
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योगी बेहाल / साइकिल है पंचर / हाथी बेकार
होता बबाल / बुझी है लालटेन / हँसिया फरार
रहता साथ / गरीबों के न हाथ / कैसा षड़्यंत्र?
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दलों को भूलो / अपराधी हराओ / न हो निराश
जनसेवी ही / जनप्रतिनिधि हो / छुए आकाश
ईमानदारी/ श्रम सफलता का / असली मंत्र
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मतदाता विवेकाधिकार मंच
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अपराधी हो यदि खड़ा, मत करिए स्वीकार।
नोटा बटन दबाइए, खुद करिए उपचार।।
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जन भूखा प्रतिनिधि करे, जन के धन पर मौज।
मतदाता की शक्ति है, नोटा मत की फौज।।
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नेता बात न सुन रहा, शासन देता कष्ट।
नोटा ले संघर्ष कर, बाधा करिए नष्ट।
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३०-३-२०१९
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सामयिक गीत -
परिवर्तन
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करें भिखारी भीड़ बढ़ाकर
आरक्षण की माँग
अगर न दे सरकार तोड़ दें
कानूनों की टाँग
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पढ़े-लिखे हम, सुख समृद्धि भी
पाई है भरपूर
अकल-अजीर्ण हो गया, सारी
समझ गयी है दूर
स्वार्थ-साधने खापों में
फैसले किये अंधे
रहें न रहने देंगे सुख से
कर गोरखधंधे
अगड़े होकर भी करते हैं
पिछड़ों का सा स्वाँग
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भूमि, भवन, उद्योग हमारे
किन्तु नहीं है चैन
लूटेंगे बाज़ार, निबल को
मारेंगे दिन-रैन
वाहन जला, उखाड़ पटरियाँ
लज्जा लूटेंगे
आर्तनाद का भोग लगाकर
आहें घूंटेंगे
बात होश की हमें न करना
घुली कुएँ में भाँग
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मार रहे मरतों को मिलकर
बहुत वीर हैं हम
मातृभूमि की पीड़ा से भी
आँख न होती नम
कोस रहे जन-सरकारों को
पी-पीकर पानी
लाल करेंगे माँ की चूनर
चीर यही ठानी
सोने का अभिनय करते हम
जगा न सकती बाँग
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नहीं शत्रु की तनिक जरूरत
काफी हैं हम ही
जीवनदात्री राष्ट्र एकता
खातिर हम यम ही
धृतराष्ट्री हम राष्ट्रप्रमुख को
देंगे केवल दोष
किन्तु न अपने कर्तव्यों का
हमें तनिक है होश
हँसें ठठा हम रावण, बहिना
की सुनी कर माँग
३०-३-२०१६
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कृति चर्चा:
मुक्त उड़ान: कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु और सम्भावनाओं की आहट
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[पुस्तक विवरण: मुक्त उड़ान, हाइकु संग्रह, कुमार गौरव अजितेंदु, आईएसबीएन ९७८-८१-९२५९४६-८-२ प्रथम संस्करण २०१४, पृष्ठ १०८, मूल्य १००रु., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, शुक्तिका प्रकाशन ५०८ मार्किट कॉम्प्लेक्स, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३, हाइकुकार संपर्क शाहपुर, ठाकुरबाड़ी मोड़, दाउदपुर, दानापुर कैंट, पटना ८०१५०२ चलभाष ९६३१६५५१२९]
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विश्ववाणी हिंदी का छंदकोष इतना समृद्ध और विविधतापूर्ण है कि अन्य कोई भी भाषा उससे होड़ नहीं ले सकती। देवभाषा संस्कृत से प्राप्त छांदस विरासत को हिंदी ने न केवल बचाया-बढ़ाया अपितु अन्य भाषाओँ को छंदों का उपहार (उर्दू को बहरें/रुक्न) दिया और अन्य भाषाओं से छंद ग्रहण कर (पंजाबी से माहिया, अवधी से कजरी, बुंदेली से राई-बम्बुलिया, मराठी से लावणी, अंग्रेजी से आद्याक्षरी छंद, सोनेट, कपलेट, जापानी से हाइकु, बांका, तांका, स्नैर्यू आदि) उन्हें भारतीयता के ढाँचे और हिंदी के साँचे ढालकर अपना लिया।
द्विपदिक (द्विपदी, दोहा, रोला, सोरठा, दोसुखने आदि) तथा त्रिपदिक छंदों (कुकुभ, गायत्री, सलासी, माहिया, टप्पा, बंबुलियाँ आदि) की परंपरा संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाओं में चिरकाल से रही है। एकाधिक भाषाओँ के जानकार कवियों ने संस्कृत के साथ पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोकभाषाओं में भी इन छंदों का प्रयोग किया। विदेशों से लघ्वाकारी काव्य विधाओं में ३ पंक्ति के छंद (हाइकु, वाका, तांका, स्नैर्यू आदि) भारतीय भाषाओँ में विकसित हुए।
हिंदी में हाइकु का विकास स्वतंत्र वर्णिक छंद के साथ हाइकु-गीत, हाइकु-मुक्तिका, हाइकु खंड काव्य के रूप में भी हुआ है। वस्तुतः हाइकु ५-७-५ वर्णों नहीं, ध्वनि-घटकों (सिलेबल) से निर्मित है जिसे हिंदी भाषा में 'वर्ण' कहा जाता है।
कैनेथ यशुदा के अनुसार हाइकु का विकासक्रम 'रेंगा' से 'हाइकाइ' फिर 'होक्कु' और अंत में 'हाइकु' है। भारत में कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी जापान यात्रा के पश्चात् 'जापान यात्री' में चोका, सदोका आदि शीर्षकों से जापानी छंदों के अनुवाद देकर वर्तमान 'हाइकु' के लिये द्वार खोला। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् लौटे अमरीकियों-अंग्रेजों के साथ हाइकु का अंग्रेजीकरण हुआ। छंद-शिल्प की दृष्टि से हाइकु त्रिपदिक, ५-७-५ में १७ अक्षरीय वर्णिक छंद है। उसे जापानी छंद तांका / वाका की प्रथम ३ पंक्तियाँ भी कहा गया है। जापानी समीक्षक कोजी कावामोटो के अनुसार कथ्य की दृष्टि से तांका, वाका या रेंगा से उत्पन्न हाइकु 'वाका' (दरबारी काव्य) के रूढ़, कड़े तथा आम जन-भावनाओं से दूर विषय-चयन (ऋतु परिवर्तन, प्रेम, शोक, यात्रा आदि से उपजा एकाकीपन), शब्द-साम्य को महत्व दिये जाने तथा स्थानीय-देशज शब्दों का करने की प्रवृत्ति के विरोध में 'हाइकाइ' (हास्यपरक पद्य) के रूप में आरंभ हुआ जिसे बाशो ने गहनता, विस्तार व ऊँचाइयाँ हास्य कविता को 'सैंर्यु' नाम से पृथक पहचान दी। बाशो के अनुसार संसार का कोई भी विषय हाइकु का विषय हो सकता है।
शुद्ध हाइकु रच पाना हर कवि के वश की बात नहीं है। यह सूत्र काव्य की तरह कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्त करने की काव्य-साधना है। ३ अन्य जापानी छंदों तांका (५-७-५-७-७), सेदोका (५-७-७-५-७-७) तथा चोका (५-७, ५-७ पंक्तिसंख्या अनिश्चित) में भी ५-७-५ ध्वनिघटकों का संयोजन है किन्तु उनके आकारों में अंतर है।
छंद संवेदनाओं की प्रस्तुति का वाहक / माध्यम होता है। कवि को अपने वस्त्रों की तरह रचना के छंद-चयन की स्वतंत्रता होती है। हिंदी की छांदस विरासत को न केवल ग्रहण अपितु अधिक समृद्ध कर रहे हस्ताक्षरों में से एक कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु इस त्रिपदिक छंद के ५-७-५ वर्णिक रूप की रुक्ष प्रस्तुति मात्र नहीं हैं, वे मूल जापानी छंद का हिंदीकरण भी नहीं हैं, वे अपने परिवेश के प्रति सजग तरुण-कवि मन में उत्पन्न विचार तरंगों के आरोह-अवरोह की छंदानुशासन में बँधी-कसी प्रस्तुति हैं।
अजीतेंदु के हाइकु व्यक्ति, देश, समाज, काल के मध्य विचार-सेतु बनाते हैं। छंद की सीमा और कवि की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का ताल-मेल भावों और कथ्य के प्रस्तुतीकरण को सहज-सरस बनाता है। शिल्प की दृष्टि से अजीतेंदु ने ५-७-५ वर्णों का ढाँचा अपनाया है। जापानी में यह ढाँचा (फ्रेम) सामने तो है किन्तु अनिवार्य नहीं। बाशो ने १९ व २२ तथा उनके शिष्यों किकाकु ने २१, बुशोन ने २४ ध्वनि घटकों के हाइकु रचे हैं। जापानी भाषा पॉलीसिलेबिक है। इसकी दो ध्वनिमूलक लिपियाँ 'हीरागाना' तथा 'काताकाना' हैं। जापानी भाषा में चीनी भावाक्षरों का विशिष्ट अर्थ व महत्व है। हिंदी में हाइकु रचते समय हिंदी की भाषिक प्रकृति तथा शब्दों के भारतीय परिवेश में विशिष्ट अर्थ प्रयुक्त किये जाना सर्वथा उपयुक्त है। सामान्यतः ५-७-५ वर्ण-बंधन को मानने
अजितेन्दु के हाइकु प्राकृतिक सुषमा और मानवीय ममता के मनोरम चित्र प्रस्तुत करते हैं। इनमें सामयिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति है। ये पाठक को तृप्त न कर आगे पढ़ने की प्यास जगाते हैं। आप पायेंगे कि इन हाइकुओं में बहुत कुछ अनकहा है किन्तु जो-जितना कहा गया है वह अनकहे की ओर आपके चिंतन को ले जाता है। इनमें प्राकृतिक सौंदर्य- रात झरोखा / चंद्र खड़ा निहारे / तारों के दीप, पारिस्थितिक वैषम्य- जिम्मेदारियाँ / अपनी आकांक्षाएँ / कशमकश, तरुणोचित आक्रोश- बन चुके हैं / दिल में जमे आँसू / खौलता लावा, कैशोर्य की जिज्ञासा- जीवन-अर्थ / साँस-साँस का प्रश्न / क्या दूँ जवाब, युवकोचित परिवर्तन की आकांक्षा- लगे जो प्यास / माँगो न कहीं पानी / खोद लो कुँआ, गौरैया जैसे निरीह प्राणी के प्रति संवेदना- विषैली हवा / मोबाइल टावर / गौरैया लुप्त, राष्ट्रीय एकता- गाँव अग्रज / शहर छोटे भाई / बेटे देश के, राजनीति के प्रति क्षोभ- गिद्धों ने माँगी / चूहों की स्वतंत्रता / खुद के लिए, आस्था के स्वर- धुंध छँटेगी / मौसम बदलेगा / भरोसा रखो, आत्म-निरीक्षण, आव्हान- उठा लो शस्त्र / धर्मयुद्ध प्रारंभ / है निर्णायक, पर्यावरण प्रदूषण- रोक लेता है / कारखाने का धुँआ / साँसों का रास्ता, विदेशी हस्तक्षेप - देसी चोले में / विदेशी षडयंत्र / घुसे निर्भीक, निर्दोष बचपन- सहेजे हुए / मेरे बचपन को / मेरा ये गाँव, विडम्बना- सूखा जो पेड़ /जड़ों की थी साजिश / पत्तों का दोष, मानवीय निष्ठुरता- कौओं से बचा / इंसानों ने उजाड़ा / मैना का नीड़ अर्थात जीवन के अधिकांश क्षेत्रों से जुड़ी अभिव्यक्तियाँ हैं।
अजितेन्दु के हाइकु भारतीय परिवेश और समाज की समस्याओं, भावनाओं व चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनमें प्रयुक्त बिंब, प्रतीक और शब्द सामान्य जन के लिये सहज ग्रहणीय हैं। इन हाइकुओं के भाषा सटीक-शुद्ध है। अजितेन्दु का यह प्रथम हाइकु संकलन उनके आगामी रचनाकर्म के प्रति आश्वस्त करता है।
३०.३.२०१४
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मुक्तिका
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कद छोटा परछाईं बड़ी है.
कैसी मुश्किल आई घड़ी है.
चोर कर रहे चौकीदारी
सचमच ही रुसवाई बड़ी है..
बीबी बैठी कोष सम्हाले
खाली हाथों माई खड़ी है..
खुद पर खर्च रहे हैं लाखों
भिक्षुक हेतु न पाई पड़ी है..
'सलिल' सांस-सरहद पर चुप्पी
मौत शीश पर आई-अड़ी है..
३०-३-२०१०
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शनिवार, 6 अप्रैल 2024

संगीता भारद्वाज "मैत्री"

लेख
डॉ. संगीता भारद्वाज "मैत्री"
गीतिका श्री वर्मा
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            महाकवि नीरज के अनुसार 'मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य'। तीन पीढ़ियों तक कवि होना और साथ में साहित्य और संगीत का सम्मिलन हो तो इसे 'सौ भाग्य' नहीं, 'हजार भाग्य कहना होगा। डॉ. संगीता भारद्वाज 'मैत्री' ऐसी ही 'हजार भाग्य' की धनी हैं। संगीता अपनी गौरवशाली पारिवारिक विरासत को पाकर ही संतुष्ट नहीं हुईं, उन्होंने इसे सतत श्रम, प्रयास और संघर्ष से सँवारा और निखारा है। संगीता के पितामह स्वतंत्रता सत्याग्रही माणिकलाल चौरसिया 'मुसाफिर' एक कृषक और पान व्यवसायी थे। उन्होंने महात्मा गांधी जी के आह्वान पर प्राणप्रण से सत्याग्रहों में भाग लिया और कारावास भी झेला। उनके परिवार को अंग्रेज पुलिस और प्रशासन द्वारा निरंतर परेशान किया जाता रहा किंतु मुसाफिर जी का मनोबल कभी नहीं डिगा। वे श्रेष्ठ कवि और गायक भी थे। मुसाफिर जी के तीनों बेटे जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण' (हिंदी प्राध्यापक, प्राचार्य), कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक' (शिक्षक) तथा गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' (सहायक अभियंता जल संसाधन विभाग) तथा बेटी कमलेश चौरसिया (शिक्षिका) हिंदी काव्य के सशक्त हस्ताक्षर हुए। साहित्य प्रेम और काव्य रचना की यह विरासत २० अगस्त १९६८ को जबलपुर में जन्मी संगीता तथा उनकी बहिनों नवनीता और अस्मिता ने भी पाई। तरुण जी की धर्मपत्नी श्रीमती हेमलता ने अपेक्षाकृत कम शिक्षित चौरसिया समाज और ग्रामीण परिवेश में व्याप्त विसंगतियों से जूझते हुए भी बेटियों को बेटों की तरह न केवल पढ़ाया-लिखाया अपितु उनके व्यक्तित्व को तराशने में महती भूमिका निभाई। संगीता ने एम. ए. हिंदी साहित्य प्रथम स्थान तथा स्वर्णपदक सहित मानकुँवर बाई महिला महाविद्यालय जबलपुर से प्राप्त किया तथा  'जबलपुर परिक्षेत्र की राष्ट्रीय काव्य धारा' (वर्ष १८५७ से १९५७ तक) पर अथक परिश्रम कर शोध कार्य किया और पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त की।  

            सोने में सुहागा यह कि संगीता को जीवन साथी के रूप में श्री जयंत भारद्वाज (सहायक महाप्रबंधक भारतीय स्टेट बैंक) मिले जो उत्तम चित्रकार, रंगकर्मी तथा मिमिक्री, दूरदर्शन, फिल्म कलाकार भी हैं।संगीता जी तथा जयंत जी दोनों युग पुरुष सत्य साई बाबा के अनन्य भक्त तथा समर्पित सक्रिय कार्यकर्ता भी हैं। आपके निवास पर साई के चित्र से भभूत भी निकलती है, जिससे पीड़ित श्रद्धालुओं की पीड़ा काम करने का उपकार वे निरंतर करते हैं। संगीता भिलाई से प्रकाशित साप्ताहिक साईं किरण अखबार का संपादन चर्चित रही हैं। वे श्री सत्य साईं सेवा अंतर्राष्ट्रीय संगठन के मध्य प्रदेश चैप्टर द्वारा नामित 'ज्योति ध्यान अधिकारी' हैं। अपनी कृतियों 'डॉ. प्रो. जवाहरलाल तरूण जी के साहित्यिक योगदान-अवदान' हेतु काव्य श्री अलंकरण, 'यात्राओं की तलाश' यात्रा वृत्तान्त हेतु मध्य प्रदेश लेखिका संघ भोपाल द्वारा श्री अरुण भार्गव २०२४ पुरस्कार, काव्य संग्रह 'यादों के पलाश' हेतु काव्य अलंकरण सम्मान, विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर, अंतरराष्ट्रीय संस्था कादंबरी आदि द्वारा अलंकृत-सम्मानित की जा चुकी हैं संगीता जी। आपकी प्रकाशाधीन कृतियाँ मैत्री मुक्तक, मैत्री दोहा सलिला, साकार होते स्वप्न, यायावर मन, प्रत्यूषा की किरण आदि हैं।

            संगीता अपने साहित्यिक गुरु आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के मार्गदर्शन में वाट्स ऐप तथा फ़ेसबुक पर 'संत समागम' जीवंत कार्यक्रम का समीचीन संचालन कर चर्चित हुई हैं। अब तक ५० से अधिक संतों के व्यक्तित्व-कृतित्व पर विमर्श हो चुके हैं तथा रामचरित मानस के सर्वोत्तम मीमांसक पद्मभूषण रामकिंकर उपाध्याय जी के जन्म शती वर्ष में किंकर जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर ११ रविवार तक विमर्श जारी है। 

 








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