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रविवार, 17 दिसंबर 2023

जसाला, बुंदेली, सॉनेट, लोकोक्ति, कहावत, दोहा मुक्तिका, गीत, हृदय रोग, पीपल, वंशी,


जसाला फाउण्डेशन (पंजी) दिल्ली एवं सुप्रभात मंच (पंजी) दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में 24 दिसम्बर 2023 को आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कला, साहित्य एवं संस्कृति सम्मान -2023 के लिए चयनित नाम सर्व श्री/श्रीमती/सुश्री-

राष्ट्र विभूषण सम्मान - 2023

1- योगेश चन्द्र कुलश्रेष्ठ, वैशाली, उत्तर प्रदेश
2- प्रो. विश्वम्भर शुक्ल, लखनऊ , उत्तर प्रदेश
3- पीतम सिंह 'प्रियतम', शाहदरा , दिल्ली
3- पं. जगदीश प्रसाद शर्मा, अध्यक्ष ब्राहमण समाज, दिल्ली
5- डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, चेयरमैन शशि पब्लिक सीनियर सेकेंडरी स्कूल, दिल्ली
6- विजय कुमार स्वर्णकार, दिल्ली
7- पवन वर्मा शाहीन, दिल्ली
8- आचार्य संजीव वर्मा सलिल, जबलपुर, मध्य प्रदेश
9- साधुराम पल्लव, हरिद्वार, उत्तराखंड
10- रमाकांत कौशिक, शाहदरा, दिल्ली
11- अरुण कुमार शर्मा, अर्वाचीन इण्टर नेशनल स्कूल, दिल्ली
12 - सी. के. शर्मा, सर्वोदय कम्प्यूटर, शाहदरा, दिल्ली
13- रामप्रकाश वर्मा, कानपुर, उत्तर प्रदेश
14- रामचरण सिंह साथी, शाहदरा, दिल्ली
15- कुलदीप कुमार, हरिद्वार, उत्तराखंड

राष्ट्र रत्न सम्मान - 2023
1- सचिन वर्मा, मल्टीनेशनल कंपनी, गुरुग्राम
2- दिव्या वर्मा, सनसिटी स्कूल गुरुग्राम
3- संदीप वर्मा, मल्टीनेशनल कंपनी, नोएडा
4- डॉ. नवीन वर्मा, दिल्ली सरकार
5- गौरव वर्मा, मल्टीनेशनल कंपनी,, अमेरिका
6- अंकिता बिजपुरिया, मल्टीनेशनल कंपनी, अमेरिका
7- डॉ. नीरज धोलियान, दिल्ली सरकार
8- शुभम धोलियान, सीए, दिल्ली
9- प्रीति वर्मा, सीए, दिल्ली

भारत गौरव सम्मान 2023
1- अशोक जैन, आरपीआर आर्ट गैलरी, दिल्ली
2- प्रभात कुमार, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
3- आर. के. जैन, शेरिडन बुक कम्पनी, नई दिल्ली
4- जितेन्द्र बच्चन, राष्ट्रीय जनमोर्चा, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
5- राजेन्द्र प्रसाद वर्मा, संस्थापक स्वर्णकार धर्मशाला, दिल्ली
6- अरुण वर्मा प्रधान, शाहदरा , दिल्ली
7- एम के राजपूत, गरिमांजलि पब्लिक स्कूल, नई दिल्ली
8- कुँवरअशोक, सुरभि पत्रिका, दिल्ली
9- ममता वर्मा, गंधर्व वैलनेस स्टूडियो, नई दिल्ली
10- ओमप्रकाश प्रजापति, ट्रू मीडिया, राजनगर, गाजियाबाद
11- योगेश कौशिक, जोशीला टाइम्स, दिल्ली
12- प्रशान्त कुमार सरकार , नई दिल्ली
13- हरस्वरुप भामा, शाहदरा, दिल्ली
14- प्रवीण आर्य, संस्थापक सतमौला कवियों की चौपाल
15- सुशील कुमार जैन, जैन साड़ी सैंटर, शाहदरा दिल्ली
16- अभिनंदन गुप्ता, हरिद्वार, उत्तराखंड

साहित्य शिरोमणि सम्मान - 2023
1- पं ज्वाला प्रसाद शांडिल्य 'दिव्य', हरिद्वार, उत्तराखंड
2- समीर उपाध्याय सलिल, गुजरात
3- वीणा शर्मा वशिष्ठ, चंडीगढ़.
4- संजु श्रीमाली, बीकानेर , राजस्थान
5- नाजुहातिकाकोति बरुआ, आसाम
6- राजेन्द्र सैन, सागर, मध्यप्रदेश
7- सोनिया गुप्ता, चंडीगढ़
8- नीता नय्यर 'निष्ठा', हरिद्वार , उत्तराखंड

साहित्य रत्न सम्मान -2023
1- श्री कमलेश कुमार वर्मा, लखनऊ
2- शारदा मदरा, दिल्ली
3- मिलन सिंह मधुर, दिल्ली
4- प्रज्ञा देवले, महेश्वर, उज्जैन, मध्य प्रदेश
5- दामोदर प्रजापति, सागर, मध्यप्रदेश
6- निशि अग्रवाल, बिजनौर, उत्तर प्रदेश
7- देवनारायण शर्मा, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश
8- रीता ग्रोवर, दिल्ली
9- वीना तँवर, गुरुग्राम , हरियाणा
10- प्रबोध मिश्र हितैषी, बड़वानी, मध्य प्रदेश
11 - नीता अग्रवाल, पूरनपुर, पीलीभीत, उत्तर प्रदेश

साहित्य विभूति सम्मान - 2023
1- दीक्षित दनकौरी, दिल्ली
2- रामकिशोर उपाध्याय, दिल्ली
3- रंजना झा, नेपाल
4- वसुधा कनुप्रिया, दिल्ली
5- विजय प्रशान्त, नोएडा, उत्तर प्रदेश
6- अनिल मीत, शाहदरा, दिल्ली

साहित्य गौरव सम्मान - 2023
1- ओमप्रकाश शुक्ल, दिल्ली
2- वीरेश प्रेम आर्य, दिल्ली
4- आदराम नायक, गजसिंहपुर, गंगानगर, राजस्थान
5- बिहारी लाल सोनी, सागर, मध्यप्रदेश
6- मीनाक्षी भटनागर, दिल्ली
7- प्रमिला पांडेय, कानपुर, उत्तर प्रदेश
8- अविनाश सैन, सागर, मध्यप्रदेश
9- मिलन सिंह मधुर, दिल्ली
10- सरोज सिंह सजल, दिल्ली
11- सुषमा शैली, दिल्ली
***
बुंदेली सॉनेट
बालम
*
जाने का का हेरत बालम,
हरदम चिपके रैत जोंक सें,
भिन्नाउत हैं रोक-टोंक सें,
नैना खूबई सेकें जालम।
सुनतइ नईं थे बरज रए हम,
लाड़ लड़ाउत रए सौक सें,
करत इसारे छिपे ओट सें, 
भए गुमसुम ज्यों फूट गओ बम। 
मोबाइल लए साँझ-सकारे,
कैते संग हमाए देखो,
बैरन ननदी आँख दिखा रई। 
इतै कूप उत खाई दुआरे, 
बिधना बिपद हमाई लेखो,
अतपर लरकोरी आफत भई।
१५-१२-२०१३  
***
बुंदेली सॉनेट 
*
छंद- चौकड़िया, १६-१२, पदांत  गुरु गुरु  
*
बेंदी करत किलोरें बाला, बाला झूला झूलें,
अँगुरी-अँगुरी सोहे मुँदरी, नथ बिजुरी सम चमकें,
गोरी-चिक्कन देह लता सी, दिप-दिप जब-तब दमकें,    
कजरा से कजरारी अँखियाँ, बाँके गलियाँ भूलें। 
खन खन खनक न जाने कैती का का चूरी ऊलें, 
'आँचर धरो सँभार ननदिया' भौजी बम सी बमकें
बीर निहोरें कछू नें कइयो, लरकौरी में इनकें, 
सूनी खोरें भईं सकारे, मन-मन मन्नत हूलें। 
पैंजन खाए चुगली बज खें, नैना झुक के बरजें, 
गाल लाल भय छतिया धड़की, लगे साँस रुकती सी, 
भोले बाबा किरपा करियो, इतै न कोऊ झाँके। 
मेघा छाए आसमान में, गड़ गड़ खूबई गरजें, 
गाँव-गली में संझा बिरिया मनो रुकी झुकती सी, 
अनबोले लें बोल-समझ जाने काअ बाँकी-बाँके। 
 १५-१२-२०१३ 
*
बुंदेली लोकोक्तियां / कहावतें

अंदरा की सूद
अपनी इज्जत अपने हाथ
अक्कल के पाछें लट्ठ लयें फिरत
अक्कल को अजीरन
अकेलो चना भार नईं फोरत
अकौआ से हाती नईं बंदत
अगह्न दार को अदहन
अगारी तुमाई, पछारी हमाई

इतै कौन तुमाई जमा गड़ी
इनईं आंखन बसकारो काटो?
इमली के पत्ता पपे कुलांट खाओ

ईंगुर हो रही

उंगरिया पकर के कौंचा पकरबो
उखरी में मूंड़ दओ, तो मूसरन को का डर
उठाई जीव तरुवा से दै मारी
उड़त चिरैंया परखत
उड़ो चून पुरखन के नाव
उजार चरें और प्यांर खायें
उनकी पईं काऊ ने नईं खायीं
उन बिगर कौन मॅंड़वा अटको
उल्टी आंतें गरे परीं

ऊंची दुकान फीको पकवान
ऊंटन खेती नईं होत
ऊंट पे चढ़के सबै मलक आउत
ऊटपटांग हांकबो

एक कओ न दो सुनो
एक म्यांन में दो तलवारें नईं रतीं

ऐसे जीबे से तो मरबो भलो
ऐसे होते कंत तौ काय कों जाते अंत

ओंधे मो डरे
ओई पातर में खायें, ओई में धेद करें
ओंगन बिना गाड़ी नईं ढ़ंड़कत

कंडी कंडी जोरें बिटा जुरत
कतन्नी सी जीव चलत
कयें खेत की सुने खरयान की
करिया अक्षर भैंस बराबर
कयें कयें धोबी गदा पै नईं चढ़त
करता से कर्तार हारो
करम छिपें ना भभूत रमायें
करें न धरें, सनीचर लगो
करेला और नीम चढो‌‌

का खांड़ के घुल्ला हो, जो कोऊ घोर कें पीले
काजर लगाउतन आंख फूटी
कान में ठेंठा लगा लये

कुंअन में बांस डारबो
कुंआ बावरी नाकत फिरत

कोऊ को घर जरे, कोऊ तापे
कोऊ मताई के पेट सें सीख कें नईं आऊत
कोरे के कोरे रे गये

कौआ के कोसें ढ़ोर नहिं मरत
कौन इतै तुमाओ नरा गड़ो

खता मिट जात पै गूद बनी रत
खाईं गकरियां, गाये गीत, जे चले चेतुआ मीत
खेत के बिजूका

गंगा नहाबो
गरीब की लुगाई, सबकी भौजाई
गांव को जोगी जोगिया, आनगांव को सिद्ध
गोऊंअन के संगे घुन पिस जात
गोली सें बचे, पै बोली से ना बचे

घरई की अछरू माता, घरई के पंडा
घरई की कुरैया से आंख फूटत
घर के खपरा बिक जेयें
घर को परसइया, अंधियारी रात
घर को भूत, सात पैरी के नाम जानत
घर घर मटया चूले हैं
घी देतन वामन नर्रयात
घोड़न को चारो, गदन कों नईं डारो जात

चतुर चार जगां से ठगाय जात
चलत बैल खों अरई गुच्चत
चित्त तुमाई, पट्ट तुमाई
चोंटिया लेओ न बकटो भराओ

छाती पै पथरा धरो
छाती पै होरा भूंजत
छिंगुरी पकर कें कोंचा पकरबो
छै महीनों को सकारो करत

जगन्नाथ को भात, जगत पसारें हाथ
जनम के आंदरे, नाव नैनसुख
जब की तब सें लगी
जब से जानी, तब सें मानी
जा कान सुनी, बा कान निकार दई
जाके पांव ना फटी बिम्बाई, सो का जाने पीर पराई
जान समझ के कुआ में ढ़केल दओ
जित्ते मों उत्ती बातें
जित्तो खात. उत्तई ललात
जित्तो छोटो, उत्तई खोटो
जैसो देस, तैसो भेष
जैसो नचाओ, तैसो नचने
जो गैल बताये सो आंगे होय
जोलों सांस, तौलों आस

झरे में कूरा फैलाबो

टंटो मोल ले लओ
टका सी सुनावो
टांय टांय फिस्स

ठांडो‌ बैल, खूंदे सार

ढ़ोर से नर्रयात

तपा तप रये
तरे के दांत तरें, और ऊपर के ऊपर रै गये
तला में रै कें मगर सों बैर
तिल को ताड़ बनाबो
तीन में न तेरा में, मृदंग बजाबें डेरा में
तुम जानो तुमाओ काम जाने
तुम हमाई न कओ, हम तुमाई न कयें
तुमाओ मो नहिं बसात

तुमाओ ईमान तुमाय संगे
तुमाये मों में घी शक्कर
तेली को बैल बना रखो

थूंक कैं चाटत

दबो बानिया देय उधार
दांत काटी रोटी
दांतन पसीना आजे
दान की बछिया के दांत नहीं देखे जात

धरम के दूने

नान सें पेट नहीं छिपत
नाम बड़े और दरसन थोरे
निबुआ, नोंन चुखा दओ
नौ खायें तेरा की भूंक
नौ नगद ना तेरा उधार

पके पे निबौरी मिठात
पड़े लिखे मूसर
पथरा तरें हाथ दबो
पथरा से मूंड़ मारबो
पराई आंखन देखबो
पांव में भौंरी है
पांव में मांदी रचायें
पानी में आग लगाबो
पिंजरा के पंछी नाईं फरफरा रये
पुराने चांवर आयें
पेट में लात मारबो

बऊ शरम की बिटिया करम की
बचन खुचन को सीताराम
बड़ी नाक बारे बने फिरत
बातन फूल झरत

मरका बैल भलो कै सूनी सार
मन मन भावे, मूंड़ हिलाबे
मनायें मनायें खीर ना खायें जूठी पातर चांटन जायें
मांगे को मठा मौल बराबर
मीठी मीठी बातन पेट नहीं भरत
मूंछन पै ताव दैवो
मौ देखो व्यवहार

रंग में भंग
रात थोरी, स्वांग भौत

लंका जीत आये
लम्पा से ऐंठत
लपसी सी चांटत
लरका के भाग्यन लरकोरी जियत
लाख कई पर एक नईं मानी

सइयां भये कोतबाल अब डर काहे को
सकरे में सम्धियानो
समय देख कें बात करें चइये
सोउत बर्रे जगाउत
सौ ड़ंडी एक बुंदेलखण्डी
सौ सुनार की एक लुहार की

हम का गदा चराउत रय
हरो हरो सूजत
हांसी की सांसी
हात पै हात धरें बैठे
हात हलाउत चले आये
होनहार विरबान के होत चीकने पात
हुइये सोई जो राम रचि राखा
***
सॉनेट
आशा पुष्पाती रहे, किरण बखेर उजास।
गगन सरोवर में खिले, पूनम शशि राजीव सम।
सुषमा हेरें नैन हो, मन में खुशी हुलास।।
सुमिर कृष्ण को मौन, हो जाते हैं बैन नम।।
वीणा की झंकार सुन, वाणी होती मूक।
ज्ञान भूल कर ध्यान, सुमिर सुमिर ओंकार।
नेत्र मुँदें शारद दिखें, सुन अनहद की कूक।।
चित्र गुप्त झलके तभी, तर जा कर दीदार।।
सफल साधना सिद्धि पा, अहंकार मत पाल।
काम-कामना पालकर, व्यर्थ न तू होना दुखी।
ढाई आखर प्रेम के, कह हो मालामाल।
राग-द्वेष से दूर, लोभ भुला मन हो सुखी।।
दाना दाना फेरकर, नादां बन रह लीन।
कर करतल करताल, हँस बजा भक्ति की बीन।।
१६-१२-२०२१
***
त्वरित कविता
*
दागी है जो दीप, बुझा दो श्रीराधे
आगी झट से उसे लगा दो श्रीराधे
रक्षा करिए कलियों की माँ काँटों से
माँगी मन्नत शांति दिला दो श्रीराधे
१६-१२-२०१९
***
दोहा मुक्तिका
*
दोहा दर्पण में दिखे, साधो सच्चा रूप।
पक्षपात करता नहीं, भिक्षुक हो या भूप।।
*
सार-सार को गह रखो, थोथा देना फेंक।
मनुज स्वभाव सदा रखो, जैसे रखता सूप।।
*
प्यासा दर पर देखकर, द्वार न करना बंद।
जल देने से कब करे, मना बताएँ कूप।।
*
बिसरा गौतम-सीख दी, तज अचार-विचार।
निर्मल चीवर मलिन मन, नित प्रति पूजें स्तूप।।
*
खोट न अपनी देखती, कानी सबको टोंक।
सब को कहे कुरूप ज्यों, खुद हो परी अनूप।।
१६-१२-२०१८
***
गीत:
दरिंदों से मनुजता को जूझना है
.
सुर-असुर संघर्ष अब भी हो रहा है
पा रहा संसार कुछ, कुछ खो रहा है
मज़हबी जुनून पागलपन बना है
ढँक गया है सूर्य, कोहरा भी घना है
आत्मघाती सवालों को बूझना है
.
नहीं अपना या पराया दर्द होता
कहीं भी हो, किसी को हो ह्रदय रोता
पोंछना है अश्रु लेकर नयी आशा
बोलना संघर्ष की मिल एक भाषा
नाव यह आतंक की अब डूबना है
.
आँख के तारे अधर की मुस्कुराहट
आये कुछ राक्षस मिटाने खिलखिलाहट
थाम लो गांडीव, पाञ्चजन्य फूंको
मिटें दहशतगर्द रह जाएँ बिखरकर
सिर्फ दृढ़ संकल्प से हल सूझना है
.
जिस तरह का देव हो, वैसी ही पूजा
दंड के अतिरिक्त पथ वरना न दूजा
खोदकर जड़, मठा उसमें डाल देना
तभी सूझेगा नयन कर रुदन सूजा
सघन तम के बाद सूरज ऊगना है
*
***
आयुर्वेद
हृदय रोग चिकित्सा- पीपल पत्ता
99 प्रतिशत ब्लॉकेज को भी रिमूव कर देता है पीपल का पत्ता....
पीपल के १५ हरे-कोमल पत्तों का ऊपर व नीचे का कुछ भाग कैंची से काटकर अलग कर दें। पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें। इन्हें एक गिलास पानी में धीमी आँच पर पकने दें। जब पानी उबलकर एक तिहाई रह जाए तब ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लें और उसे ठंडे स्थान पर रख दें, दवा तैयार।
सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद इस काढ़े की तीन खुराकें प्रत्येक तीन घंटे बाद प्रातः लें। खुराक लेने से पहले पेट एक दम खाली नहीं होना चाहिए। लगातार पंद्रह दिन तक इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है और फिर दिल का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती। दिल के रोगी इस नुस्खे का एक बार प्रयोग अवश्य करें। प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें। मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें। नमक, चिकनाई का प्रयोग बंद कर दें। अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथी दाना, सेब का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, गुग्गुल, दही, छाछ आदि लें । पीपल के पत्ते में दिल को बल और शांति देने की अद्भुत क्षमता ह, संभवत: पीपल-पत्र का हृदयाकार यही बताता है।
***
एक हाइकु-
बहा पसीना
चमक उठी देह
जैसे नगीना।
***
नवगीत:
जितनी रोटी खायी
की क्या उतनी मेहनत?
.
मंत्री, सांसद मान्य विधायक
प्राध्यापक जो बने नियामक
अफसर, जज, डॉक्टर, अभियंता
जनसेवक जन-भाग्य-नियंता
व्यापारी, वकील मुँह खोलें
हुए मौन क्यों?
कहें न तुहमत
.
श्रमिक-किसान करे उत्पादन
बाबू-भृत्य कर रहे शासन
जो उपजाए वही भूख सह
हाथ पसारे माँगे राशन
कब बदलेगी परिस्थिति यह
करें सोचने की
अब ज़हमत
.
उत्पादन से वेतन जोड़ो
अफसरशाही का रथ मोड़ो
पर्यामित्र कहें क्यों पिछड़ा?
जो फैलाता कैसे अगड़ा?
दहशतगर्दों से भी ज्यादा
सत्ता-धन की
फ़ैली दहशत
१६-१२-२०१४
***
वंशी और वास्तु :
(बांसुरीवादन व स्थापन से वास्तुदोष परिहार)
वंशी का पौराणिक इतिहास:
भगवान श्रीकृष्ण और वंशी एक दुसरे के बिना अधूरे हैं, प्रभु श्रीकृष्ण की वंशी तो शब्दब्रह्म का प्रतीक है। ऐसा भी समझा जाता है कि बांसनिर्मित वंशी के आविष्कारक संभवतः कन्हैयाजी ही हैं | साथ-साथ ऐसा भी कहा जाता है की ब्रह्मा के किसी शाप वश उनकी मानस पुत्री माँ सरस्वती को बॉस रूपी जड़रूप में धरती पर आना पडा था किन्तु किसी संयोग वश जड़ होने से पूर्व उन्होंने एक सहस्त्र वर्ष तक भगवत-प्राप्ति के लिए तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर प्रभु ने कृष्णावतार में उन्हें अपनी सहचरी बनाने का वरदान दिया | तब उन्होंने ब्रह्माजी के शाप का स्मरण करके प्रभु से कहा, " हे प्रभु! मैं तो जड़बांस के रूप में जन्म लेने के लिए श्रापग्रस्त हूँ |" यह सुनकर प्रभु ने कहा, "यद्यपि तुम्हें जन्म चाहे जड़ रूप में मिलेगा, तथापि मैं तुम्हें अपनाकर तुम में ऐसी प्राण-शक्ति अवश्य भर दूंगा जिससे तुम एक विलक्षण चेतना का अनुभव करके अपनी जड़ों को सदैव के लिए चैतन्य बनाए रख सकोगी |" तब से इस जगत में प्रभु के अधरों पर वंशी, मुरली, वेणु या बांसुरी के रूप में वस्तुतः ब्रह्मा जी की मानस पुत्री सरस्वती जी ही निरंतर विराजमान हैं | वंशी या बांसुरी का वर्णन सबसे पहले सामवेद में ही मिलता है | वस्तुतः बांसुरी संगीत के सप्त स्वरों की एक साथ प्रस्तुति का सर्वोत्तम वाद्ययंत्र है |
वंशी, मुरली, वेणु या बांसुरी की मधुर धुन तन-मन को परमानंद से भर देती है | यह क्या जड़ क्या चेतन सभी के मन का हरण कर लेती है इसके गीत की धुन सुनकर गोपियाँ अपनी सुध-बुध तक खो बैठती थीं. गोपियाँ तो गोपियाँ, वहां की सारी गायें तक इस धुन से आकर्षित होकर कन्हैया के सम्मुख आ उपस्थित होती थीं | वंशी की तान सुनकर आज भी हम सभी को असीमित आनंद की अनुभूति होती है | कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के लिए इसे बजाने से पूर्व एक बार इसकी अभूतपूर्व परीक्षा भी ली थी | एक दिन उनके वंशीवादन करते ही वास्तव में यमुना की गति ही रूक गई तदनंतर एक दिन वृन्दावन के पाषाण तक वंशी ध्वनि का श्रवण कर द्रवीभूत हो उठे साथ-साथ पशु-पक्षी व देवताओं के विमान आदि की गति भी रूक गई, जिससे सभी स्तब्ध हो उठे | इस प्रकार जब वंशी की पूर्ण परीक्षा हो गई तब श्यामसुन्दर ने अपनी ब्रजगोपांगनाओं के लिए वंशी बजाई | जिन ब्रजदेवियों ने वंशीगीत सुना वे सभी अपनी सुधबुध ही खो बैठीं साथ-साथ उन सभी के अंत करण में किशोर श्यामसुन्दर का सुन्दर मनोहारी स्वरूप विराजमान हो गया | ब्रह्म, रूद्र, इन्द्र आदि ने भी उस वंशी का सुर सुना, वे सभी एक विशेष भाव में मुग्ध तो हुए, उनमें से किसी-किसी की समाधि भी भंग हुई परन्तु वंशी का तात्विक रहस्य निश्चिंत रूपेण उस समय किसी को भी ज्ञात न हो सका | यह भी कहा जाता है कि एक बार राधा जी ने बांसुरी से पूछा, "हे बांसुरी! यह बताइये कि मैं कृष्ण जी को इतना प्रेम करती हूं, फिर भी मैं अनुभव कर रही हूँ कि मेरे श्याम मुझसे अधिक तुमसे प्रेम करते है, वह तुम्हे सदैव ही अपने होठों से लगाये रखते है, इसका क्या राज है? तब विनीत भाव से बांसुरी ने सुरीले स्वर में कहा, "प्रिय राधे! प्रभु के प्रेम में पहले मैंने अपने तन को कटवाया, फिर से काट-छाँट कर अलग करके जलती आग में तपाकर सीधी की गई, तद्पश्चात मैंने अपना मन भी कटवाया, अर्थात बीच में से आर-पार एकदम पूरी की पूरी खाली कर दी गई | फिर जलते हुए छिद्रक से समस्त अंग-अंग छिदवाकर स्वयं में अनेक सुराख़ करवाये | तदनंतर कान्हा ने मुझे जैसे बजाना चाहा मै ठीक वैसे ही अर्थात उनके आदेशानुसार ही बजी |अपनी मर्ज़ी से तो मैं कभी भी नहीं बज सकी | बस हममें व तुममें एकमात्र यही अंतर है कि मैं कन्हैया की मर्ज़ी से चलती हूं और तुम कृष्णजी को अपनी मर्ज़ी से चलाना चाहती हो!" वस्तुतः यह प्रेम में त्याग व समर्पण की पराकाष्ठा है | वंशी हमें सदैव यही सन्देश देती है कि हम अपने प्रभु की इच्छानुसार ही सत्कर्म करके अपना जीवनमार्ग प्रशस्त करें ! यह कदापि उचित नहीं कि हम अपने हठयोग से उन्हें विवश करें कि प्रभु हमारे जीवनमार्ग का निर्धारण हमारी इच्छानुसार ही करें |
वास्तु दोष परिहार :
एक समय था जब अधिकाँश घरों में कोई न कोई व्यक्ति वंशी बजाने में प्रवीण होता ही होता था | यहाँ तक कि अपने लोक गीतों में भी कहा गया है कि "देवर जी आवैं वंशी बजावैं" किन्तु आज के आधुनिक दौर में अपने देश में गिने चुने बांसुरीवादक ही रह गए हैं जबकि विदेशों में इसे अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है | चायना जैसे देश में तो अधिकांश लडकियाँ तक बांसुरी वादन में प्रवीण हैं वहां की वास्तु विद्या फेंगशुई के अनुसार वास्तु दोष के निवारण हेतु बांस की बांसुरी का प्रयोग अति उत्तम है लो पिच पर उत्पन्न की गयी इसकी शंख समान ध्वनि से आस-पास के वातावरण में व्याप्त सूक्ष्म वायरस तक नष्ट हो जाते हैं | यह धनात्मक ऊर्जा का सर्वश्रेष्ठ स्रोत है जिसकी उपस्थिति में नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है | फेंग-शुई में ऐसी मान्यता है कि इसे लाल धागे में बाँध कर भवन के मुख्य द्वार पर क्रास रूप में दो बांसुरी एक साथ लगाने से भवन में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश नहीं हो पाता है और अचानक आने वाली मुसीबतें दूर हो जाती हैं | शिक्षा, व्यवसाय या नौकरी में बाधा आने पर शयन कक्ष के दरवाजे पर दो बांसुरियों को लगाना शुभ फलदायी होता है | ऐसी भी मान्यता है कि बीम के नीचे बैठकर काम करने, भोजन करने व सोने से दिमागी बोझ व अशान्ति बनी रहती है किन्तु उसी बीम के नीचे यदि लाल धागे में बांधकर बांसनिर्मित वंशी लटका दी जाय तो इस दोष का परिहार हो जाता है | बीमार व्यक्ति के तकिये के नीचे बांसुरी रखने से रोगमुक्ति होगी है | यह भी मान्यता है कि यदि घर के अंदर किसी तरह की बुरी आत्मा या अशुभ चीजों का संदेह हो तो इसे घर की दीवार पर तलवार की तरह लटकाकर इन चीजों से घर को मुक्त किया जा सकता है साथ-साथ यदि वैवाहिक जीवन ठीक न चल रहा हो तो सोते-समय इसे सिराहने के नीचे रखने से आपसी तनाव आदि दूर हो जाता है | जन्माष्टमी के दिन बांसुरी को सजाकर भगवान कृष्ण के समझ रखकर इसकी पूजा करने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है | धर्मग्रंथों के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण को बांसुरी अत्यधिक प्रिय है और वे इसे सदैव अपने साथ ही रखते हैं इसी कारण से इसे अति पवित्र व पूज्यनीय माना जाता है | यह भी भगवान् श्रीकृष्ण का वरदान ही है कि जिस स्थान पर बांसुरीवादन होता रहता है वह स्थान वास्तुदोष जनित दुष्प्रभावों व बीमारियों से पूर्णतः सुरक्षित रहता है | वहां पर परिवार के सदस्यों के विचार सकारात्मक हो जाते हैं जिससे उन्हें सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है | बांसुरी से निकलने वाला स्वर प्रेम बरसाने वाला ही है | इसी वजह से जिस घर में बांस निर्मित बांसुरी रखी होती है वहां पर प्रेम और धन की कोई कमी नहीं रहती है साथ साथ सभी दुःख व आर्थिक तंगी भी दूर हो जाती है |
सहज उपलब्धता :
बजाने योग्य वंशी आमतौर पर वाद्ययंत्रों की दुकानों पर सहजता से उपलब्ध हो जाती है | वैसे तो अक्सर किसी भी मेले में बांसुरी बेचने वाले दिखाई दे जाते हैं किन्तु उनके पास बहुत छाँट-बीन करने के उपरान्त भी बहुत कम ही बजाने योग्य बाँसुरियाँ उपलब्ध हो पाती हैं | कुंछएक बैंड की दुकानों पर भी बिक्री के लिए यह उपलब्ध हो जाती है | इसके विभिन्न ट्यून की तेरह, अठारह व चौबीस बांसुरियों के ट्यून्ड सेट भी उपलब्ध हो जाते हैं जिनकी अधिकतर आपूर्ति उत्तर प्रदेश के पीलीभीत शहर से की जाती है | नबी एण्ड संस यहाँ के प्रमुख बांसुरी निर्माता हैं जो विदेशों तक में बांसुरी का निर्यात करते हैं | पीलीभीत को बांसुरी नगरी के नाम से भी जाना जाता है |
कुछ प्रसिद्द व प्रमुख बांसुरी वादक :
भगवान् श्रीकृष्ण (सर्वश्रेष्ठ बांसुरी वादक)
पंडित पन्नालाल घोष
पंडित भोलानाथ
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया
पंडित रघुनाथ सेठ
पंडित विजय राघव राव
पंडित देवेन्द्र
पंडित देवेन्द्र गुरूदेश्वर
पंडित रोनू मजूमदार
पंडित रूपक कुलकर्णी
बांसुरी वादक श्री राजेंद्र प्रसन्ना
बांसुरी वादक श्री एन रामानी
बांसुरी वादक श्री समीर राव
पंडित प्रमोद बाजपेयी (वरिष्ठ एडवोकेट)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री नरेन्द्र मोदी (वर्तमान प्रधानमंत्री भारत सरकार)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री लालकृष्ण आडवानी (वरिष्ठ राजनेता)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री मुक्तेश चन्द्र (पुलिस कमिश्नर)
बांसुरी वादक श्री बलबीर कुमार (कनॉट प्लेस सब वे पर बांसुरी विक्रेता व बांसुरी-शिक्षक) आदि..
आज के दौर में बांसुरी वादकों की संख्या बहुत ही कम रह गयी है | कहीं-कहीं पर ये खोजने से भी नहीं मिल पाते हैं | इसका प्रमुख कारण हमारे संस्कारों की क्षति व पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण ही है | हमारी सरकारों व समाज को इस ओर ध्यान देकर बांसुरीवादकों के लिए सम्मानजनक रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने चाहिए |
मुक्तक:
अधरों पर मुस्कान, आँख में चमक रहे
मन में दृढ़ विश्वास, ज़िन्दगी दमक कहे
बाधा से संकल्प कहो कब हारा है?
आओ! जीतो, यह संसार तुम्हारा है
***
दोहा:
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान
गंध हीन कटु स्वाद पर, पालक गुण की खान
१६-१२-२०१४
*

नवगीत, सरदार पटेल,


समीक्षा, ब्रजेश श्रीवास्तव, निर्मल शुक्ल, नवगीत

कृति चर्चा:
बाँसों के झुरमुट से : मर्मस्पर्शी नवगीत संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: बाँसों के झुरमुट से, नवगीत संग्रह, ब्रजेश श्रीवास्तव, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ११२, २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
*
हिंदी साहित्य का वैशिष्ट्य आम और खास के मध्य सेतु बनकर भाव सरिता की रस लहरियों में अवगाहन का सुख सुलभ कराना है. पाषाण नगरी ग्वालियर के नवनीत हृदयी वरिष्ठ नवगीतकार श्री ब्रजेश श्रीवास्तव का यह नवगीत संग्रह एक घाट की तरह है जहाँ बैठकर पाठक-श्रोता न केवल अपने बोझिल मन को शांति दे पाता है अपितु व्यथा बिसराकर आनंद भी पाता है. ब्रजेश जी की वाणी का मखमली स्पर्श उनके नवगीतों में भी है.
बाँसों के झुरमुट से आती चिरैया के कलरव से मन को जैसी शांति मिलती है, वैसी ही प्रतीति ये नवगीत कराते हैं. राग-विराग के दो तटों के मध्य प्रवहित गीतोर्मियाँ बिम्बों की ताज़गी से मन मोह लेती हैं:
नीड़ है पर स्वत्व से हम / बेदखल से हैं
मूल होकर दिख रहे / बरबस नकल से हैं
रास्ता है साफ़ फ्रूटी, कोक / कॉफी का
भीगकर फूटे बताशे / खूब देखे हैं
पारिस्थितिक विसंगतियों को इंगित करते हुए गीतकार की सौम्यता छीजती नहीं। सामान्य जन ही नहीं नेताओं और अधिकारियों की संवेदनहीनता और पाषाण हृदयता पर एक व्यंग्य देखें:
सियाचिन की ठंड में / पग गल गये
पाक -भारत वार्ता पर / मिल गये
एक का सिंदूर / सीमा पर पुछा
चाय पीते पढ़ लिया / अखबार में
ब्रजेश जी पर्यावरण और नदियों के प्रदूषण से विशेष चिंतित और आहत हैं. यह अजूबा है शीर्षक नवगीत में उनकी चिंता प्रदूषणजनित रोगों को लेकर व्यक्त हुई है:
कौन कहता बह रही गंगो-यमुन
बह रहा उनमें रसायन गंदगी भी
उग रही हैं सब्जियाँ भी इसी जल से
पोषते हम आ रहे बीमारियाँ भी
नारी उत्पीड़न को लेकर ब्रजेश जी तथाकथित सुधारवादियों की तरह सतही नारेबाजी नहीं करते, वे संग्रह के प्रथम दो नवगीतों 'आज अभी बिटिया आई है' और 'देखते ही देखते बिटिया' में एक पिता के ममत्व, चिंता और पीड़ा के मनोभावों को अभिव्यक्त कर सन्देश देते हैं. इस नवगीत के मुखड़े और अंतरांत की चार पंक्तियों से ही व्यथा-कथा स्पष्ट हो जाती है:
बिटिया सयानी हो गई
बिटिया भवानी हो गई
बिटिया कहानी हो गई
बिटिया निशानी हो गई
ये चार पंक्तियाँ सीधे मर्म को स्पर्श करती हैं, शेष गीत पंक्तियाँ तो इनके मध्य सोपान की तरह हैं. किसी नवगीत में एक बिम्ब अन्तरा दर अन्तरा किस तरह विकसित होकर पूर्णता पाता है, यह नवगीत उसका उदहारण है. 'सरल सरिता सी समंदर / से गले मिलने चली' जैसा रूपक मन में बस जाता है. कतिपय आलोचक अलंकार को नवगीत हेतु अनावश्यक मानते हैं कि इससे कथ्य कमजोर होता है किन्तु ब्रजेश जी अलंकारों से कथ्य को स्पष्टा और ग्राह्यता प्रदान कर इस मत को निरर्थक सिद्ध कर देते हैं.
ब्रजेश जी के पास सिक्त कंठ से इस नवगीत को सुनते हुए भद्र और सुशिक्षित श्रोताओं की आँखों से अश्रुपात होते मैंने देखा है. यह प्रमाण है कि गीतिकाव्य का जादू समाप्त नहीं हुआ है.
ब्रजेश जी के नवगीतों का शिल्प कथ्य के अनुरूप परिवर्तित होता है. वे मुखड़े में सामान्यतः दो, अधिकतम सात पंक्तियों का तथा अँतरे में छ: से अठारह पंक्तियों का प्रयोग करते हैं. वस्तुतः वे अपनी बात कहते जाते हैं और अंतरे अपने आप आकारित होते हैं. उनकी भाषिक सामर्थ्य और शब्द भण्डार स्वतः अंतरों की पंक्ति संख्या और पदभार को संतुलित कर लेते हैं.कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि सायास संतुलन स्थापित किया गया है. 'आज लिखी है घर को चिट्ठी' नवगीत में अभिव्यक्ति की सहजता देखें:
माँ अब भी रोटी-पानी में / ही खटती होगी
साँझ समय बापू के संग / मुझको रटती होगी
उनका मौन बुलावा आया / बहुत दिनों के बाद
यहाँ 'रटती' शब्द का प्रयोग सामान्य से हटकर किन्तु पूरी तरह स्वभाविक है. नव रचनाकारों को किसी शब्द का सामान्य अर्थ से हटकर प्रयोग कैसे किया जाए और बात में अपना रंग भरा जाए- ऐसे प्रयोगों से सीखा जा सकता है. 'मौन बुलावा' भी ऐसा ही प्रयोग है जो सतही दृष्टि से अंतर्विरोधी प्रतीत होते हुए भी गहन अभिव्यंजना में समर्थ है.
ब्रजेश जी की भाषा आम पाठक-श्रोता के आस-पास की है. वे क्लिष्ट संस्कृत या अरबी-फ़ारसी या अप्रचलित देशज शब्द नहीं लेते, इसके सर्वथा विपरीत जनसामान्य के दैनंदिन जीवन में प्रचलित शब्दों के विशिष्ट उपयोग से अपनी बात कहते हैं. उनके इन नवगीतों में आंग्ल शब्द: फ्रॉक, सर्कस, ड्राइंग रूम, वाटर बॉटल, ऑटो, टा टा, पेरेंट्स, होमवर्क, कार्टून, चैनल, वाशिंग मशीन, ट्रैक्टर, ट्रॉली, रैंप, फ्रूटी, कोक, कॉफी, बाइक, मोबाइल, कॉलों, सिंथेटिक, फीस, डिस्कवरी, जियोग्राफिक, पैनल, सुपरवाइजर, वेंटिलेटर, हॉकर आदि, देशज शब्द: रनिया, ददिया, दँतुली, दिपती, तलक, जेवना, गरबीला, हिरना, बतकन, पतिया, पुरवाई, बतियाहट, दुपहरी, चिरइया, बिरचन, खटती, बतियाना, तुहुकन, कहन, मड़िया, बाँचा, पहड़ौत, पहुँनोर, हड़काते, अरजौ, पुरबिया, छवना, बतरस, बुड़की, तिरे, भरका, आखर, तुमख, लोरा, लड़याते आदि तथा संस्कृत निष्ठ शब्द भदृट, पादप, अंबर, वाक्जाल, अधुना-युग, अंतस, संवेदन, वणिक, सूचकांक, स्वेदित, अनुनाद, मातृ, उत्ताल, नवाचार आदि नित्य प्रचलित शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले मिलते हैं.
इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग पूरी स्वाभाविकता से हुआ है जो सरसता में वृद्धि करता है. कमल-नाल, मकड़-जाल, जेठ-दुपहरी, बात-बेबात, सरिता-धार, झूठ-साँच, जंतर-मंतर, लीप-पोत, घर-आँगन, राजा-राव, घर-आँगन-दीवाल, रोटी-पानी, कपड़े-लत्ते, सावन-कजरी, भादों-आल्हा, ताने-बाने, लाग-ठेल, धमा-चौकड़ी, पोथी-पत्रा, उट्टी-कुट्टी, सीरा-पाटी, चूल्हा-चकिया, बासन-भाड़े जैसे शब्द युग्म एक ओर नवगीतकार के परिवेश और जन-जीवन से जुड़ाव इंगित करते हैं तो दूसरी ओर भिन्न परिवेश या हिंदीतर पाठकों के लिये कुछ कठिनाई उपस्थित करते हैं. शब्द-युग्मों और देशज शब्दों के भावार्थ सामान्य शब्द कोषों में नहीं मिलते किन्तु यह नवगीत और नवगीतकार का वैशिष्ट्य स्थापित करते हैं तथा पाठक-श्रोता को ज्ञात से कुछ अधिक जानने का अवसर देकर सांस्कृतिक जुड़ाव में सहायक अस्तु श्लाघ्य हैं.
ब्रजेश जी ने कुछ विशिष्ट शब्द-प्रयोगों से नवबिम्ब स्थापित किये हैं. बर्फीला ताला, जलहीना मिट्टी, अभिसारी नयन, वासंतिक कोयल, नयन-झरोखा, मौन बुलावा, फूटे-बताशे, शब्द-निवेश, बर्फीला बर्ताव, आकाशी भटकाव आदि उल्लेख्य हैं.
'बांसों के झुरमुट से' को पढ़ना किसी नवगीतकार के लिए एक सुखद यात्रा है जिसमें नयनाभिराम शब्द दृश्य तथा भाव तरंगें हैं किन्तु जेठ की धूप या शीत की जकड़न नहीं है. नवगीतकारों के लिए स्वाभाविकता को शैल्पिक जटिलता पर वरीयता देता यह संग्रह अपने गीतों को प्रवाहमयी बनाने का सन्देश अनकहे ही दे देता है. ब्रजेश जी के अगले नवगीत संग्रह की प्रतीक्षा करने का पाठकीय मन ही इस संग्रह की सफलता है.
***
कृति चर्चा:
एक और अरण्य काल : समकालिक नवगीतों का कलश
[कृति विवरण: एक और अरण्य काल, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ७२, १५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
*
हर युग का साहित्य अपने काल की व्यथा-कथाओं, प्रयासों, परिवर्तनों और उपलब्धियों का दर्पण होता है. गद्य में विस्तार और पद्य में संकेत में मानव की जिजीविषा स्थान पाती है. टकसाली हिंदी ने अभिव्यक्ति को खरापन और स्पष्टता दी है. नवगीत में कहन को सरस, सरल, बोधगम्य, संप्रेषणीय, मारक और बेधक बनाया है. वर्तमान नवगीत के शिखर हस्ताक्षर निर्मल शुक्ल का विवेच्य नवगीत संग्रह एक और अरण्य काल संग्रह मात्र नहीं अपितु दस्तावेज है जिसका वैशिष्ट्य उसका युगबोध है. स्तवन, प्रथा, कथा तथा व्यथा शीर्षक चार खण्डों में विभक्त यह संग्रह विरासत ग्रहण करने से विरासत सौंपने तक की शब्द-यात्रा है.
स्तवन के अंतर्गत शारद वंदना में नवगीतकार अपने नाम के अनुरूप निर्मलता और शुक्लता पाने की आकांक्षा 'मनुजता की धर्मिता को / विश्वजयनी कीजिए' तथा 'शिल्पिता की संहिता को / दिक्विजयिनी कीजिए' कहकर व्यक्त करता है. आत्मशोधी-उत्सवधर्मी भारतीय संस्कृति के पारम्परिक मूल्यों के अनुरूप कवि युग में शिवत्व और गौरता की कामना करता है. नवगीत को विसंगति और वैषम्य तक सीमित मानने की अवधारणा के पोषक यहाँ एक गुरु-गंभीर सूत्र ग्रहण कर सकते हैं:
शुभ्र करिए देश की युग-बोध विग्रह-चेतना
परिष्कृत, शिव हो समय की कुल मलिन संवेदना
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शब्द के अनुराग में बसिये उतरिए रंध्र में
नव-सृजन का मांगलिक उल्लास भरिए छंद में
संग्रह का प्रथा खंड चौदह नवगीत समाहित किये है. अंधानुकरण वृत्ति पर कवि की सटीक टिप्पणी कम शब्दों में बहुत कुछ कहती है. 'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है'.
जनगणना में लड़कों की तुलना में कम लड़कियाँ होने और सुदूर से लड़कियाँ लाकर ब्याह करने की ख़बरों के बीच सजग कवि अपना भिन्न आकलन प्रस्तुत करता है: 'बेटियाँ हैं वर नहीं हैं / श्याम को नेकर नहीं है / योग से संयोग से भी / बस गुजर है घर नहीं है.'
शुक्ल जी पारिस्थितिक औपनिषदिक परम्परानुसार वैषम्य को इंगित मात्र करते हैं, विस्तार में नहीं जाते. इससे नवगीतीय आकारगत संक्षिप्तता के साथ पाठक / श्रोता को अपने अनुसार सोचने - व्याख्या करने का अवसर मिलता है और उसकी रुचि बनी रहती है. 'रेत की भाषा / नहीं समझी लहर' में संवादहीनता, 'पूछकर किस्सा सुनहरा / उठ गया आयोग बहरा' में अनिर्णय, 'घिसे हुए तलुओं से / दिखते हैं घाव' में आम जन की व्यथा, 'पाला है बन्दर-बाँटों से / ऐसे में प्रतिवाद करें क्या ' में अनुदान देने की कुनीति, 'सुर्ख हो गयी धवल चाँदनी / लेकिन चीख-पुकार नहीं है' में एक के प्रताड़ित होने पर अन्यों का मौन, 'आज दबे हैं कोरों में ही / छींटे छलके नीर के' में निशब्द व्यथा, 'कौंधते खोते रहे / संवाद स्वर' में असफल जनांदोलन, 'मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार' में आश्वासनों-वायदों के बाद भी चुनावी पराजय, 'ठूंठ सा बैठा / निसुग्गा / पोथियों का संविधान' में संवैधानिक प्रावधानों की लगातार अनदेखी और व्यर्थता, 'छाँव रहे माँगते / अलसाये खेत' में राहत चाहता दीन जन, 'प्यास तो है ही / मगर, उल्लास / बहुतेरा पड़ा है' में अभावों के बाद भी जन-मन में व्याप्त आशावाद, 'जाने कब तक पढ़ी जाएगी / बंद लिफाफा बनी ज़िंदगी' में अब तक न सुधरने के बाद भी कभी न कभी परिस्थितियाँ सुधरने का आशावाद, 'हो गया मुश्किल बहुत / अब पक्षियों से बात करना' में प्रकृति से दूर होता मनुष्य जीवन, 'चेतना के नवल / अनुसंधान जोड़ो / हो सके तो' में नव निर्माण का सन्देश, 'वटवृक्षों की जिम्मेदारी / कुल रह गयी धरी' में अनुत्तरदायित्वपूर्ण नेतृत्व के इंगित सहज ही दृष्टव्य हैं.
शुक्ल जी ने इस संग्रह के गीतों में कुछ नवीन, कुछ अप्रचलित भाषिक प्रयोग किये हैं. ऐसे प्रयोग अटपटे प्रतीत होते हैं किन्तु इनसे ही भाषिक विकास की पगडंडियां बनती हैं. 'दाना-पानी / सारा तीत हुआ', 'ठूंठ सा बैठा निसुग्गा', ''बच्चों के संग धौल-धकेला आदि ऐसे ही प्रयोग हैं. इनसे भाषा में लालित्य वृद्धि हुई है. 'छीन लिया मेघों की / वर्षायी प्यास' और 'बीन लिया दानों की / दूधिया मिठास' में 'लिया' के स्थान पर 'ली' का प्रयोग संभवतः अधिक उपयुक्त होता। 'दीवारों के कान होते हैं' लोकोक्ति को शुक्ल जी ने परिवर्तित कर 'दरवाजों के कान' प्रयोग किया है. विचारणीय है की दीवार ठोस होती है जिससे सामान्यतः कोई चीज पार नहीं हो पाती किन्तु आवाज एक और से दूसरी ओर चली जाती है. मज़रूह सुल्तानपुरी कहते हैं: 'रोक सकता है हमें ज़िन्दाने बला क्या मज़रुह / हम तो आवाज़ हैं दीवार से भी छन जाते हैं'. इसलिए दीवारों के कान होने की लोकोक्ति बनी किन्तु दरवाज़े से तो कोई भी इस पार से उस पार जा सकता है. अतः, 'दरवाजों के कान' प्रयोग सही प्रतीत नहीं होता।
ऐसी ही एक त्रुटि 'पेड़ कटे क्या, सपने टूटे / जंगल हो गये रेत' में है. नदी के जल प्रवाह में लुढ़कते-टकराते-टूटते पत्थरों से रेत के कण बनते हैं, जंगल कभी रेत नहीं होता. जंगल कटने पर बची लकड़ी या जड़ें मिट्टी बन जाती हैं.उत्तम कागज़ और बँधाई, आकर्षक आवरण, स्पष्ट मुद्रण और उत्तम रचनाओं की इस केसरी खीर में कुछ मुद्रण त्रुटियाँ हुये (हुए), ढूढ़ते (ढूँढ़ते), तस्में (तस्मे), सुनों (सुनो), कौतुहल (कौतूहल) कंकर की तरह हैं.
शुक्ल जी के ये नवगीत परंपरा से प्राप्त मूल्यों के प्रति संघर्ष की सनातन भावना को पोषित करते हैं: 'मैं गगन में भी / धरा का / घर बसाना चाहता हूँ' का उद्घोष करने के पूर्व पारिस्थितिक वैषम्य को सामने लाते हैं. वे प्रकृति के विरूपण से चिंतित हैं: 'धुंआ मन्त्र सा उगल रही है / चिमनी पीकर आग / भटक गया है चौराहे पर / प्राण वायु का राग / रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम / दमा करे हलकान' में कवि प्रदूषण ही नहीं उसका कारण और दुष्प्रभाव भी इंगित करता है.
लोक प्रचलित रीतियों के प्रति अंधे-विश्वास को पलटा हुआ ठगा ही नहीं जाता, मिट भी जाता है. शुक्ल जी इस त्रासदी को अपने ही अंदाज़ में बयान करते हैं:
'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है
पुतलियाँ कितना कहाँ / इंगित करेंगी यह व्यथा है
सिलसिले / स्वीकार-अस्वीकार के / गुनते हुए ही
उंगलियाँ घिसती रही हैं / उम्र भर / इतना हुआ बस
'इतना हुआ बस' का प्रयोग कर कवि ने विसंगति वर्णन में चुटीले व्यंग्य को घोल दिया है.
'आँधियाँ आने को हैं' शीर्षक नवगीत में शुक्ल जी व्यवस्थापकों को स्पष्ट चेतावनी देते हैं:
'मस्तकों पर बल खिंचे हैं / मुट्ठियों के तल भिंचे हैं
अंततः / है एक लम्बे मौन की / बस जी हुजूरी
काठ होते स्वर / अचानक / खीझकर कुछ बड़बड़ाये
आँधियाँ आने को हैं'
क़र्ज़ की मार झेलते और आत्महत्या करने अटक को विवश होते गरीबों की व्यथा कथा 'अन्नपूर्णा की किरपा' में वर्णित है:
'बिटिया भर का दो ठो छल्ला / उस पर साहूकार
सूद गिनाकर छीन ले गया / सारा साज-सिंगार
मान-मनौव्वल / टोना-टुटका / सब विपरीत हुआ'
विश्व की प्राचीनतम संस्कृति से समृद्ध देश के सबसे बड़ा बाज़ार बन जाने की त्रासदी पर शुक्ल जी की प्रतिक्रिया 'बड़ा गर्म बाज़ार' शीर्षक नवगीत में अपने हो अंदाज़ में व्यक्त हुई है:
बड़ा गर्म बाज़ार लगे बस / औने-पौने दाम
निर्लज्जों की सांठ-गांठ में / डूबा कुल का नाम
'अलसाये खेत'शीर्षक नवगीत में प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत नवगीतकार की शब्द सामर्थ्य और शब्द चित्रण और चिंता असाधारण है:
'सूर्य उत्तरायण की / बेसर से झाँके
मंजरियों ने करतल / आँचल से ढाँके
शीतलता पल-छीन में / होती अनिकेत
.
लपटों में सनी-बुझी / सन-सन बयारें
जीव-जन्तु. पादप, जल / प्राकृत से हारे
सोख गये अधरों के / स्वर कुल समवेत'
सारतः इन नवगीतों का बैम्बिक विधान, शैल्पिक चारुत्व, भाषिक सम्प्रेषणीयता, सटीक शब्द-चयन और लयात्मक प्रवाह इन्हें बारम्बार पढ़ने प्रेरित करता है.
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार कुमार रवीन्द्र ने ठीक ही लिखा है: 'समग्रतः निर्मल शुक्ल का यह संग्रह गीत की उन भंगिमाओं को प्रस्तुत करता है जिन्हें नवगीत की संज्ञा से परिभाषित किया जाता रहा है। प्रयोगधर्मी बिम्बों का संयोजन भी इन गीतों को नवगीत बनाता है। अस्तु, इन्हें नवगीत मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है। जैसा मैं पहले भी कह चुका हूँ कि इनकी जटिल संरचना एवं भाषिक वैशिष्ट्य इन्हें तमाम अन्य नवगीतकारों की रचनाओं से अलगाते हैं। निर्मल शुक्ल का यह रचना संसार हमे उलझाता है, मथता है और अंततः विचलित कर जाता है। यही इनकी विशिष्ट उपलब्धि है।'
वस्तुतः यह नवगीत संग्रह नव रचनाकारों के लिए पाठ्यपुस्तक की तरह है. इसे पढ़-समझ कर नवगीत की समस्त विशेषताओं को आत्मसात किया जा सकता है.
१७-१२-२०१४
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दोहा, मुक्तक, सॉनेट, रूपमाला छंद, अरुण मिश्र, दोहा सलिला निर्मला

मुक्तक

बोल जब भी जुबान से निकले।
पान ज्यों पानदान से निकले।।
बात में घोल दे गुलकंद 'सलिल'
चाँद ज्यों आसमान से निकले।।
१७.१२.२०२३
*
दोहा सलिला
शंभु नाथ सब सृष्टि के, उमानाथ जगदीश।
रहें सलिल पर सदय प्रभु, सह पार्वती गिरीश।।
*
रेखा खींचे भक्ति की, हो जिज्ञासु विवेक।
पुष्पा सरला मुकुल मन, वसुधा हर्षित नेक।।
*
दें संतोष सुरेश आ, राम नाम अविनाश।
सुख-दुःख में तजिए नहीं, धीरज रहें सुभाष।।
*
रहे सुनीता ज़िंदगी, हँस मर्यादापूर्ण।
सुधा राम का नाम ले, अहंकार हो चूर्ण।।
*
विषपायी प्रिय राम को, शंकर को प्रिय राम।
सलिल न भरमा नित्य जप, दोनों का ही नाम।।
*
रत रहते हैं राम में, जो वे भरत महान।
धर्म नहीं है भरत बिन, भरत राम का मान।।
*
पीताम्बर मर्याद है, नीलाम्बर है अंत।
रक्ताम्बर से नाश हो, श्वेताम्बर है संत।।
*
धर्म-प्रेम का पथ चुनें, प्रेम-धर्म रख साथ।
जब तब ही साकार हों, भरत और रघुनाथ।।
*
धर्म-प्रेम की राह में, हो न हार; नहिं जीत।
प्रेम-धर्म के पंथ पर, कर जो चाहे मीत।।
*
प्रेम-धर्म संयोग का, भक्ति भाव है नाम।
भक्ति और अनुरक्ति में, नहीं भेद का काम।।
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सॉनेट
नमन
*
तूलिका को, रंग को, आकार को नमन ।
कल्पना की सृष्टि, दृष्टि ईश का वरदान।
शब्द करें कला-ओ-कलाकार को नमन।।
एक एक चित्र है रस-भावना की खान।।
रेखाओं की लय सरस सूर-पद सुगेय।
वर्तुलों में साखियाँ चित्रित कबीर की।
निराला संसार है प्रसाद शारदेय।।
भुज भेंटती नीराजना, दीपशिखा भी।।
ध्यान लगा, खोल नयन, निरख छवि बाँकी।
ऊँचाई-गहराई-विस्तार है अगम।
झरोखे से झाँक, है बाँकी नवल झाँकी।।
अधर पर मृदु हास ले, हैं कमल नयन नम।।
निशा-उषा-साँझ, घाट-बाट साथ-साथ।
सहेली शैली हरेक, सलिल नवा माथ।।
१७-१२-२०२१
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सॉनेट
गुरुआनी
*
गुरुआनी गुरु के हृदय, अब भी रहीं विराज।
देख रहीं परलोक से, धीरज धरकर आप।
विधि-विधान से कर रहे, सारे अंतिम काज।।
गुरु जी उनको याद कर, पल-पल सुधियाँ व्याप।।
कवि-कविता-कविताइ का, कभी न छूटे साथ।
हुई नर्मदा की सुता, गंगा-तनया मीत।
सात जन्म बंधन रहे, लिए हाथ में हाथ।।
देही थी अब विदेही, हुई सनातन प्रीत।।
गुरुआनी जी थीं सरल, पति गौरव पर मुग्ध।
संस्कार संतान को, दिए सनातन शुद्ध।
व्रत-तप से हर अशुभ को, किया निरंतर दग्ध।।
संगत पाकर साँड़ भी, गुरु हो पूज्य प्रबुद्ध।।
दिव्यात्मा आशीष दे, रहे सुखी कुल वंश।
कविता पुष्पित-पल्लवित, हो बन सुधि का अंश।।
१६-१२-२०२१
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छंद सलिला
रूपमाला
२४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद
*
पदभार २४, यति १४-१०, पदांत गुरु लघु।
विविध गणों का प्रयोग कर कई मापनियाँ बनाई जा सकती हैं।
उदाहरण
रूपमाला फेरता ले, भूप जैसा भाग।
राग से अनुराग करता, भोग दाहक आग।।
त्यागता वैराग हँसकर, जगत पूजे किंतु-
त्याग देता त्याग को ही, जला ईर्ष्या आग।।
कलकल कलकल अमल विमल, जल प्रवह-प्रवहकर।
धरणि-तपिश हर मुकुलित मन, सुखकर दुख हरकर।।
लहर-लहर लहरित मुखरित, छवि मनहर लखकर-
कलरव कर खगगण प्रमुदित, खुश चहक-चहककर।
जो बोया सो काटेगा, काहे को रोना।
जो पाया सो खोएगा, क्यों जोड़े सोना?
आएगा सो जाएगा, छोड़ेगा यादें-
बागों के फूलों जैसे, तू खुश्बू बोना
१७-१२-२०२०
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पुस्तक चर्चा:
नई उम्र की नई फसल: दोहा सलिला निर्मला
डॉ. अरुण मिश्र
*
प्रतिभा कवित्व का बीज है जिसके बिना काव्य रचना संभव नहीं है। 'कवित्तं दुर्लभं लोके' काव्य रचना सृष्टि में सर्वाधिक दुर्लभ कार्य है। आचार्यों के अनुसार काव्य के ३ हेतु हैं।
' नैसर्गिकी च प्रतिभा, श्रुतञ्च बहु निर्मलं।
अमंदश्चाभियोगश्च, कारणं काव्य संपद:।।' दंडी काव्यादर्श १ / १०३
निसर्गजात प्रतिभा, निर्भ्रांत लोक-शास्त्र ज्ञान और अमंद अभियोग यही काव्य के लक्षण हैं। कावय की रचना शक्ति, निपुणता और अभ्यास द्वारा ही संभव है। काव्य छंद-विधान से युक्त सरस वाणी है जिसका सीधा संबंध लोक मंगल से होता है। आचार्य शुक्ल भी यही स्वीकार करते हैं कि जिस काव्य में लोक के प्रति अधिक भावना होगी, वही उत्तम है। छंद-शास्त्र का ज्ञान सभी को प्राप्त नहीं है, वाग्देवी की कृपा ही छंद-युक्त काव्य के लिए प्रेरित करती है।
आचार्य श्री संजीव वर्मा 'सलिल' एवं डॉ. साधना वर्मा के संपादन में विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा शांतिराज पुस्तक माला के अंतर्गत प्रकाशित दोहा शतक मञ्जूषा २ 'दोहा सलिला निर्मला' कृति का प्रकाशन हुआ है। आज के दौर में साहित्य-लेखन में छंदों का प्रयोग नगण्य होता जा रहा है तथापि कुछ रचनाकार ऐसे हैं जिन्होंने छंदों के प्रति असीम निष्ठा का भाव अपनाकर छंद-रचना से खुद को अलग नहीं किया है। वे छंद-विधान में निष्णात हैं। संपादक द्वय ने इनकी प्रतिभा का आकलन कर पंद्रह-पंद्रह दोहाकारों द्वारा रचित सौ-सौ दोहों को इस कृति में संग्रहित किया है। यह संग्रह उपयुक्त व सटीक है। इस संग्रह की विशेष बात यह है कि हर दोहाकार के दोहों पर पहले संपादक द्वारा समीक्षकीय टिप्पणी करने के साथ-साथ पाद टिप्पणी में दोहा में ही दोहा विषयक जानकारी दी गई है।
संग्रह के पहले रचनाकार अखिलेश खरे 'अखिल' के दोहों में ग्राम्य जीवन की सुवास महकती है-
खेतों से डोली चली, खलिहानों में शोर।
पिता-गेह से ज्यों बिदा, पिया गेह की ओर।।
निम्न दोहे में ग्राम्य व नगर जीवन की सटीक तुलना की गई है-
शहर-शहर सा सुघर है, उससे सुंदर गाँव।
सुदिन बांचता भोर से, कागा कर-कर काँव।।
श्रृंगार रस से भरपूर दोहे भी अखिल जी द्वारा लिखे गए हैं-
नैना खुली किताब से, छुपा राज कह मौन।
महक छिपे कब इत्र की, कहो लगाए कौन।।
प्रेम की भाषा मौन रहती है पर प्रेम छिपाये नहीं छिपता। यह प्रेम स्वर्गीय ज्योति से प्रकाशित रहता है।
दोहाकार अरुण शर्मा की चिंता गंगा-शुद्धि को लेकर है। निर्मल पतित पावनी, राम की गंगा को मैली होते देख कवि ने अनायास यह दोहा कहा होगा-
गंगा नद सा नद नहीं, ना गंगे सा नीर।
दर्जा पाया मातु का, फिर भी गंदे तीर।।
करते गंगा आरती, लेकर मन-संताप।
मन-मैला धोया नहीं, कहाँ मिटेंगे पाप।।
बरही कटनी निवासी श्री उदयभानु तिवारी के दोहों में भक्ति और प्रेम की रसधारा प्रवाहित है। महारास लीला शीर्षक उनके दोहों में मधुरा भक्ति का प्राकट्य हुआ है। मन को आल्हादित करने वाले एक-एक दोहे में पाठक का मन रमता जाता है और वह ब्रम्हानंद सहोदर का आनंद उठाता है-
गोपी जीवन प्रेम है, कान्हा परमानंद।
मोहे खग नर नाग सब, फैला सर्वानंद।।
श्री कृष्ण योगिराज हैं। 'वासुदेव पुरोज्ञानं वासुदेव पराङ्गति।' इन दोहों को हृदयंगम कर बरबस ही स्मरण हो आते हैं ये दोहे-
कित मुरली कित चंद्रिका, कित गोपियन के साथ।
अपने जन के कारने, कृष्ण भये यदुनाथ।।
महारास में 'मैं-'तुम' का विभेद नहीं रहता, सब प्रेम-पयोधि में डूब जाते हैं। बिहारी कहते हैं-
गिरि वे ऊँचै रसिक मन, बूड़ै जहाँ हजार।
वहै सदा पशु नरन को, प्रेम पयोधि पगार।।
बरौंसा, सुल्तानपुर के ओमप्रकाश शुक्ल गाँधीवादी विचारधारा के पोषक हैं। समसामयिक परिवेश में जो घटित है, उसके प्रति उनकी चिंता स्वाभाविक है-
भरे खज़ाना देश का, पर अद्भुत दुर्योग।
निर्धन हित त्यागें; करें, चोर-लुटेरे भोग।।
समानता, न्याय का सभी को अधिकार प्राप्त हो कवि की यही कामना है-
सबको सबका हक मिले, बिंदु-बिंदु हो न्याय।
ऐसा हो कानून जो, रहे धर्म-पर्याय।।
जीवन में सहजता और सारल्य ही शक्ति देता है, इसलिए दोहाकार ने संतोष व्यक्त किया है। उसकी इच्छा है कि सब प्रेम से रहें, सन्मार्ग पर चलें-
सत का पथ मत छोड़ना, हे भारत के लाल।
राजभोग क्यों लालसा, जब है रोटी दाल।।
नरसिंहपुर निवासी जयप्रकाश श्रीवास्तव गीत-नवगीत के रचनाकार हैं। वे निसर्ग से संवाद करते नज़र आते हैं-
यूँ तो सूरज नापता, धरती का भूगोल।
पर कोइ सुनता नहीं गौरैया के बोल।।
पेड़ हुए फिर से नए, पहन धुले परिधान।
फूलों ने हँसकर किया, मौसम का सम्मान।।
हिंदी में प्रारंभ से ही नीतिपरक दोहों का चलन रहा है। इसी परंपरा में नीता सैनी के दोहों का सृजन हुआ है-
नैतिकता कायम रहे, करिए चरित-विकास।
कोरे भाषण नीति के, तनिक न आते रास।।
उनके इस दोहे में गंगा के प्रति असीम निष्ठा का भाव अभिव्यक्त हुआ है-
युगों-युगों से धो रहीं, गंगा मैया पाप।
निर्मल मन करतीं सदा, हरतीं पीड़ा-पाप।।
सोहागपुर, शहडोल निवासी डॉ. नीलमणि दुबे का व्यक्तित्व ही काव्यमय है। छंदविधान उनकी बाल्य जीवन की कविताओं में दृष्टव्य है। वे हिंदी प्रध्यापाल होने के पहले काव्य-रचयिता हैं। कविता उनके आस-पास विचरती है। संस्कृतनिष्ठ पदावली में उनकी गीत-रचना पाठकों को सहज ही लुभाती है। वर्तमान समय में बेमानी होते संबंधों को वे दोहे के माध्यम से उजागर करते हैं-
आग-आग सब शहर हैं, जहर हुए संबंध।
फूल-फूल पर लग गए, मौसम के अनुबंध।।
प्रकृति के प्रति असीम लगाव है उन्हें। खेतों की हरियाली, वासंतिक प्रभा उन्हें विमोहित करती है। प्रकृति के पल-पल बदलते परिवेश का वे स्वागत करती हैं-
आम्र-मंजरी मिस मधुर, देते अमृत घोल।
हिय में गहरे उतरते, पिक के मीठे बोल।।
सरसों सँकुचाई खड़ी, खिला-खिला कचनार।
कर सिंगार सँकुचा गई, हरसिंगार की डार।।
धौलपुर, राजस्थान के कवि बसंत कुमार शर्मा राजस्थान की वीरभूमि व् टैग-बलिदान की माटी की सुवास लेकर दोहे रचते हैं। उन्हें छंदों के प्रति विशेष लगाव है। शोष्हित वर्ग के प्रति उनके मन में विशेष करुणा है। हमारे कृषि प्रधान देश में किसान प्रकृति के रूठ जाने से लचर हो जाता है-
रामू हरिया खेत में, बैठा मौन उदास।
सूखा गया असाढ़ तो, अब सावन से आस।.
सिवनी मध्य प्रदेश के रहनेवाले डॉ. रामकुमार चतुर्वेदी वर्तमान व्यवस्था से आक्रोशित हैं। वे अपने परिवेश को व्यंग्य-धार से समझाते हैं-
पाँव पकड़ विनती करैं, सिद्ध करो सब काम।
अपना हिस्सा तुम रखो, कुछ अपने भी नाम।।
विषय चयन के क्षेत्र में, गाए अपना राग।
कौआ छीने कान को, कहते भागमभाग।।
सिवान, बिहार की रीता सिवानी युवा कवयित्री हैं। वे समतामूलक समाज में पूर्ण आस्था रखती हैं-
धरा जगत के एक है, अंबर सबका एक।
मनुज एक मिट्टी बने, रंगत रूप अनेक।।
रिश्ते में जब प्रीत हो, तभी बने वह खास।
प्रीत बिना रिश्ते लगें, बोझिल मूक उदास।।
प्रेम जहाँ है, वहाँ तर्क नहीं है क्योंकि तर्क से विद्वेष बढ़ता है। जहाँ प्रेम हो, निष्ठां हो, वहां कुतर्कों का स्थान नहीं है, प्रेम के बिना जीवन सूना है। अहंकार को त्यगना ही सच्चा प्रेम है। कबीर की वाणी में- 'जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि है मैं नाहिँ'। ईश्वर को पाना है, अच्छा इंसान बनना है तो अहंकार का त्याग आवश्यक है-
गर्व नहीं करना कभी, धन पर ऐ इंसान!
कर जाता पल में प्रलय, छोटा सा तूफ़ान।।
शुचि भवि भिलाई (छत्तीसगढ़)निवासी हैं। विरोधाभास की जिंदगी उनहोंने देखी है। परिवार-समाज से वे कुछ चाहती हैं। समाज में विश्वास नहीं रहा है। सहज-सरल लोगों का आज जीना दुश्वार हो गया है। भवि को समाज से सिर्फ निराशा ही नहीं है अपितु कहीं न कहीं वह आशान्वित भी हैं।भवि जीवन में सरलता के साथ ही विनम्रता को प्रश्रय देते हुए कहती हैं-
कटु वचनों से क्या कहीं, बनती है कुछ बात?
बोलो मीठे वचन तो, सुधरेंगे हालात।।
तुलसीदास जी भी यही कहते हैं-
लसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।
बसीकरन इक मंत्र है, परिहरु बचन कठोर।।
'भवानी शंकरौ वजनदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' की अनुगूँज भवि के इस दोहे में व्यंजित है-
बूँद-बूँद विश्वास से, बनती है पहचान।
पल भर में कोई कभी, होता नहीं महान।।
दिल्ली में जन्में शोभित वर्मा में एक अभियांत्रिकी महाविद्यालय में विभागाध्यक्ष होने के बाद भी पारिवारिक संस्कार के कारण हिंदी के प्रति रूचि है। सलिल जी से जुड़ाव ने उनमें और छंद के प्रति लगाव उत्पन्न कर दिया। उनका कवि पर्यावरण के प्रति जागरूक है-
काट रहे नित पेड़ हम, करते नहीं विचार।
आपने पाँव कुल्हाड़ पर, आप रहे हैं मार।।
अभियंता होने के नाते वे जानते हैं की किसी निर्णय का समय पर होना कितना आवश्यक है-
यदि न समय पर लिया तो निर्णय हो बेअर्थ।
समय बीतने पर लिया निर्णय करे अनर्थ।।
सुदूर ईटानगर अरुणांचल में पेशे से शिक्षिका सरस्वती कुमारी ने अपने दोहों में सामाजिक विसंगतियों को उद्घाटित किया है। वे नारी शक्ति की समर्थक और राधा-कृष्ण के प्रेम की उपासिका हैं-
रंग-रँगीली राधिका, छैल छबीला श्याम।
रास रचाते जमुन-तट, दोनों आठों याम।।
गीता का कर्म योग भी उनके दोहों में व्याप्त है-
ढूँढ जरा ऐ ज़िंदगी!, तू अपनी पहचान।
भाग्य बदल दे कर्म कर, लिख अपना उन्वान।।
हिंदी प्राध्यापक फैज़ाबाद निवासी हरी फ़ैज़ाबादी अवधि के कवि हैं। वे कविता की पारम्परिकता को बरकरार रखे हुआ माँ को श्रेष्ठ मानते हैं-
कर देती नौ रात में, जीवन का उद्धार।
माँ की महिमा यूँ नहीं, गाता है संसार।।
स्वच्छता अभियान के लिए वे जागरूक हैं। उनकी पीड़ा यह कि स्वच्छ रहने के लिए भी अभियान चलना पड़ रहा है-
आखिर चमके किस तरह मेरा हिंदुस्तान।
यहाँ सफाई भी नहीं, होती बिन अभियान।।
सारण बिहार में जन्मे, रांची में कार्यरत हिमकर श्याम इस दोहा संग्रह के अंतिम रचनाकार हैं। पत्रकारिता में स्नातक होने के साथ ही वे दोहा, ग़ज़ल, रिपोर्ताज लिखने में सिद्धहस्त हैं। सहज व्यक्तित्व होने के कारण ही वे पर्यावरणीय विक्षोभ से चिंतित हैं। प्रकृति के प्रति असीम अनुराग उनके लेखन में व्याप्त है-
झूमे सरसों खेत में, बौराए हैं आम।
दहके फूल पलाश के, है सिंदूरी शाम।।
वृक्षों की अंधाधुंध कटाई उन्हें चिंतित करती है। आँगन में लगे तुलसी के पौधे के नीचे रखे दीपक अब ध्यान में नहीं है-
आँगन की तुलसी कहाँ, दिखे नहीं अब नीम।
जामुन-पीपल कट गए, ढूँढे कहाँ हकीम।।
आचार्य संजीव सलिल तथा प्रो। साधना वर्मा द्वारा 'शान्तिराज पुस्तक मालांतर्गत संपादित 'दोहा शतक मञ्जूषा २ "दोहा सलिला निर्मला" छंद विधान की परंपरा को सुदृढ़ बना सकी है। स्वतंत्रता के बाद विशेषकर नवें-दसवें दशक से छंद यत्र-तत्र ही दिखते हैं। छंद लेखन कठिन कार्य है। आचार्य संजीव सलिल जी ने अथक श्रम कर दोहाकारों को तैयार कर उनके प्रतिनिधि दोहों का चयन कर यह दोहा शतक मंजूषा श्रृंखला बनाई है जो वर्तमान परिवेश और सामयिक समस्याओं के अनुकूल है। ये रचनाकार अपने परिवेश से सुपरिचित हैं। अत; उसे अभिव्यक्त करने में वे संकोच नहीं करते हैं। कुल मिलाकर सभी दृष्टियों से संग्रहीत कवियों के दोहे छंद-विधान के उपयुक्त व् सटीक हैं। संपादक द्वय को ढेर सी
बधाई
और शुभकानाएँ। विश्वास है कि भविष्य में ये दोहे पाठकों को दिशा-सोची बना सकेंगे।
*
संपर्क: से.नि. विभागाध्यक्ष हिंदी, शासकीय मानकुँवर बाई स्नातकोत्तर स्वशासी महिला महाविद्यालय, जबलपुर ४८२००१
१७-१२-२०१८

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कृष्ण भक्त परमानन्द दास, अष्ट छाप

परमानन्द दास जी
भक्ति सगुण-निर्गुण करें, हरि प्रतीति बिन व्यर्थ।
कण-कण में हरि देख ले, उसी भक्ति का अर्थ॥
*
भेद न निर्गुण सगुण में, भक्ति तत्व अनिवार्य।
कंकर में शंकर दिखे, अंश-पूर्ण पर्याय॥
*
कृष्ण भक्त आनंद दे, शैव करे कल्याण।
राम भक्त मर्याद रख, शाक्त करे संप्राण॥
*
कौशल-लाघव अपरिमित, जिसमें वही सरोज।
पंक-सलिल में विमल रह, सुरभि बिखेरे ओज॥
*
भ्रमर गीत गुंजार में, है सर्वत्र सरोज।
कृष्ण जमुन जल राधिका, मुख मण्डल है ओज॥
*
भक्ति शिखर कैलाश है, आरोहण का यत्न।
बिन कौशल करिए नहीं, वर वैराग्य प्रयत्न॥
*
द्वन्द बिना निर्द्वन्द की, होती नहीं प्रतीति।
हो निर्भीक वही जिसे, कभी हुई हो भीति॥
*
अंशुमान है कृष्ण जू, अंशुल प्रभु की भक्ति।
भाव दीप माला सतत, दे प्रकाश अनुरक्ति॥
*
दधि-माखन का कुंभ हैं, जो कहिए दाधीच।
भोज्य बने हँस ब्रह्म का, रस-आनंद उलीच॥
*
शिक्षक को शिक्षा मिले, जनगण से यह ठान।
उद्धव को हरि भेजते, तजें ज्ञान-अभिमान॥
*
परमात्मा ही पुरुष है, आत्मा उसका अंश।
प्रिय-प्रेयसि वत जानिए, मिटे पृथकता-दंश॥
*
हैँ अक्रूर उद्धव भ्रमर, श्याम- गोपियाँ गौर।
मिला श्याम से श्याम जा, हो उनका सिरमौर॥
*
द्रुपद-धमास विकास कर, भक्त रचा मधुर संगीत।
भोग-राग-सिंगार त्रय, करे पुष्ट हरि-प्रीत॥
*
अष्ट छाप कवि सखा हैं, सख्य भाव है भक्ति।
अंतर में अंतर नहीं, दीप माल अनुरक्ति॥
*
भक्ति काव्य संगीत त्रय, हरि-दर्शन की राह।
परमानन्द करे अभय, माँ रख प्रभु की चाह॥
*
अगले रविवार के विषय
०१. परमानन्द दास जी के साहित्य में शुद्धाद्वैत दर्शन
०२. परमानन्द सागर में रास सौन्दर्य
०३. परमानन्द दास जी के काव्य में विरह वर्णन
०४. परमानन्द दास जी केकाव्य में पर्यावरण और पशु-पक्षी
०५. संगीतविद परमानन्द दास जी

शनिवार, 16 दिसंबर 2023

आयुर्वेद, हृदयाघात, लौकी, इला घोष, स्मृति शुक्ल, सुमनलता श्रीवास्तव, माँ, चौपदे, नवगीत, कैंसर


 
हृदयाघात (हार्ट अटैक) - उपचार लौकी
भारत में लगभग ३००० वर्ष पूर्व हुए महर्षि वागवट जी लिखित पुस्तक अष्टांग हृदयम में उन्होंने बीमारियों को ठीक करने के लिए ७००० सूत्र लिखे हैं। तदनुसार हृदय-घात होने का अर्थ दिल की नलियों मे अवरोध (ब्लॉकेज) होना है। इसका कारण रक्त अम्लता (असीडीटी) बढ़ना है ।अम्लता दो तरह की होती है एक होती है पेट की अम्लता और दूसरी रक्त की अम्लता। पेट में अम्लता बढ़ने पर जलन होती है, खट्टी डकार आती है, मुँह से लार निकलती है। अम्लता अधिक बढ़ जाये तो हायपर एसिडिटी होती है। यही पेट की अम्लता बढ़ते-बढ़ते जब रक्त में मिल जाती है तो रक्त अम्लता (ब्लड एसिडिटी) होती है जो दिल की नलियों में से न निकल पाने पर उन्हें अवरुद्ध (ब्लॉक) कर देती है। तभी हृदयाघात होता है।

इलाज क्या है ?

वागवट जी लिखते हैं कि रक्त में अम्लता बढ़ने पर क्षारीय खाद्य का सेवन करो। दो तरह की चीजें होती हैं अम्लीय और क्षारीय। अमल और क्षार को मिलाने पर परिणाम उदासीन (न्यूट्रल) होता है।

रसोई में बहुत सी चीजें क्षारीय हैं जिनका सेवन कर हृदयाघात को दूर रखा जा सकता है। घर मे आसानी से क्षारीय वस्तु है लौकी या दुधी (बॉटल गोर्ड)। आप रोज २०० मिलीग्राम लौकी-रस शौच के पश्चात खाली पेट या नाश्ते के आधे घंटे बाद पिएँ या कच्ची लौकी खाएँ।लौकी के रस को अधिक क्षारीय बनाने के लिए ५-७ तुलसी के पत्ते, ५-७ पुदीने के पत्ते और काला नमक (सेंधा नमक) मिल लें।आयोडीन युक्त नमक अम्लीय है, इसे कतई न लें। लगभग २-३ माह में हृदय नलिका का अवरोध दूर हो जाता है।

***
भावांजलि
बहुमुखी प्रतिभा की धनी डॉक्टर इला घोष
डॉ. साधना वर्मा
*
[लेखक: डॉ. साधना वर्मा, प्राध्यापक अर्थशास्त्र विभाग, शासकीय मानकुँवर बाई कला वाणिज्य स्वशासी महिला महाविद्यालय जबलपुर। ]
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मस्तिष्क में सहेजी पुरानी यादें किताब के पृष्ठों पर टंकित कहानियों की तरह होती हैं। एक बार खेलकर पढ़ना-जुड़ना आरंभ करते ही घटनाओं का अटूट सिलसिला और स्मरणीय व्यक्तित्वों की छवियाँ उभरती चली आती हैं। तीन दशक से अधिक के अपने प्राध्यापकीय जीवन पर दृष्टिपात करती हूँ तो जिन व्यक्तित्वों की छवि अपने मन पर अंकित पाती हूँ उनमें उल्लेखनीय नाम है असाधारण व्यक्तित्व-कृतित्व की धनी डॉक्टर इला घोष जी का । वर्ष १९८५ में विवाह के पूर्व मैंने भिलाई, रायपुर तथा बिलासपुर के विविध महाविद्यालयों में अध्यापन कार्य किया था। विवाह के पश्चात पहले १९८६ मेंशासकीय तिलक महाविद्यालय कटनी और फिर १९८७ में शासकीय महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर में मेरी पदस्थापना हुई। शासकीय महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर में पदभार ग्रहण करते समय मेरे मन में बहुत उथल-पुथल थी। बिलासपुर और कटनी के महाविद्यालय अपेक्षाकृत छोटे और कम विद्यार्थियों की कक्षाओं वाले थे। शासकीय महाकौशल महाविद्यालय में प्रथम प्रवेश करते समय यही सोच रही थी कि मैं यहाँ शिक्षण विभाग में पदस्थ वरिष्ठ और विद्वान प्राध्यापकों के मध्य तालमेल बैठा सकूँगी या नहीं?
सौभाग्य से महाविद्यालय में प्रवेश करते ही कुछ सहज-सरल और आत्मीय व्यक्तित्वों से साक्षात हुआ। डॉ. इला घोष, डॉ. गीता श्रीवास्तव, डॉ. सुभद्रा पांडे, डॉ. चित्रा चतुर्वेदी आदि ने बहुत आत्मीयता के साथ मुझ नवागंतुक का स्वागत किया। कुछ ही समय में अपरिचय की खाई पट गई और हम अदृश्य मैत्री सूत्र में बँधकर एक दूसरे के सुख-दुख के साथी बन गए। महाविद्यालय में विविध दायित्वों का निर्वहन करते समय एक-दूसरे के परामर्श और सहयोग की आवश्यकता होती ही है। इला जी अपने आकर्षक व्यक्तित्व, मंद मुस्कान, मधुर वाणी, सात्विक खान-पान, सादगीपूर्ण रहन-सहन तथा अपनत्व से पूरे वातावरण को सुवासित बनाए रखती थी। संस्कृत भाषा व साहित्य की गंभीर अध्येता, विदुषी व वरिष्ठ प्राध्यापक तथा नवोन्मेषी शोधकर्त्री होते हुए भी उनके व्यवहार में कहीं भी घमंड नहीं झलकता था। वे अपने से कनिष्ठों के साथ बहुत सहज, सरल, मधुर एवं आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करती रही हैं।
कुशल प्रशासक, अनुशासित प्राध्यापक एवं दक्ष विभागाध्यक्ष के रूप से कार्य करने में उनका सानी नहीं है। महाविद्यालय में विद्यार्थियों को प्रवेश देते समय, छात्रसंघ के चुनावों के समय, स्नेह सम्मेलन अथवा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों, मासिक, षडमात्रिक व वार्षिक परीक्षाओं के कार्य संपादित कराते समय कनिष्ठ प्राध्यापक कभी-कभी असहजता या उलझन अनुभव करते थे किंतु इला जी ऐसे अवसरों पर हर एक के साथ तालमेल बैठते हुए, सबको शांत रखते हुए व्यवस्थित तरीके से काम करने में सहायक होती थीं। मैंने उनका यह गुण आत्मसात करने की कोशिश की और क्रमश: वरिष्ठ होने पर अपने कनिष्ठों के साथ सहयोग करने का प्रयास करती रही हूँ।
महाविद्यालयों में समाज के विभिन्न वर्गों से विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं। संपन्न या प्रभावशाली परिवारों के छात्र वैभव प्रदर्शन कर गर्वित होते, राजनैतिक पृष्ठभूमि के विद्यार्थी नियमों की अवहेलना कर अन्य छात्रों को प्रभवित करने की कुचेष्टा करते जबकि ग्रामीण तथा कमजोर आर्थिक परिवेश से आये छात्र अपने में सिमटे-सँकुचे रहते। प्राध्यापक सबके साथ समानता का व्यवहार करें, बाह्य तत्वों का अवांछित हस्तक्षेप रोकें तो कठिनाइयों और जटिलताओं से सामना करना होता है। ऐसी दुरूह परिस्थितियों में इलाजी मातृत्व भाव से पूरी तरह शांत रहकर, सभी को शांत रहने की प्रेरणा देती। उनका सुरुचिपूर्ण पहनावा, गरिमामय व्यवहार, संतुलित-संयमित वार्तालाप उच्छृंखल तत्वों को बिना कुछ कहे हतोत्साहित करता। अन्य प्राध्यापक भी तदनुसार स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास करते और महाविद्यालय का वातावरण सौहार्द्रपूर्ण बना रहता।
अपनी कुशलता और निपुणता के बल पर यथासमय पदोन्नत होकर इलाजी ने शासकीय महाविद्यालय कटनी, स्लीमनाबाद, दमोह, जुन्नारदेव आदि में प्राचार्य के पद पर कुशलतापूर्वक कार्य करते हुए मापदंड इतने ऊपर उठा दिए जिनका पालन करना उनके पश्चातवर्तियों के लिए कठिन हो गया। आज भी उन सब महाविद्यालयों में इला जी को सादर स्मरण किया जाता है। उनके कार्यकाल में महाविद्यालयों में निरन्तर नई परियोजनाएँ बनीं, भवनों का निर्माण हुआ, नए विभाग खुले और परीक्षा परिणामों में सुधार हुआ। संयोगवश मेरे पति इंजी. संजीव वर्मा, संभागीय परियोजना अभियंता के पद पर छिंदवाड़ा में पदस्थ हुए। उनके कार्यक्षेत्र में जुन्नारदेव महाविद्यालय भी था जहाँ छात्रावास भवन निर्माण का कार्य आरंभ कराया गया था। कार्य संपादन के समय उनके संपर्क में आये तत्कालीन प्राध्यापकों और प्राचार्य ने इलाजी को सम्मान सहित स्मरण करते हुए उनके कार्य की प्रशंसा की जबकि इलाजी तब सेवा निवृत्त हो चुकी थीं। यही अनुभव मुझे जुन्नारदेव में बाह्य परीक्षक के रूप में कार्य करते समय हुआ।
किसी कार्यक्रम की पूर्व तैयारी करने में इला जी जिस कुशलता, गहन चिंतन के साथ सहभागिता करती हैं, वह अपनी मसाल आप है। हरि अनंत हरि कथा अनंता.... इला जी के समस्त गुणों और प्रसंगों की चर्चा करने में स्थानाभाव के आशंका है। ऐसी बहुमुखी प्रतिभा, इतना ज्ञान, इतनी विनम्रता, संस्कृत हिंदी बांग्ला और अंग्रेजी की जानकारी, प्राचीन साहित्य का गहन अध्ययन और उसे वर्तमान परिवेश व परिस्थितियों के अनुकूल ढालकर नवीन रचनाओं की रचना करना सहज कार्य नहीं है। इला जी एक साथ बहुत सी दिशाओं में जितनी सहजता, सरलता और कर्मठता के साथ गतिशील रहती हैं वह आज के समय में दुर्लभ है। सेवा निवृत्ति के पश्चात् जहाँ अधिकांश जन अपन में सिमटकर शिकायत पुस्तिका बन जाते हैं वहाँ इला जी समाजोपयोगी गतिविधियों में निरंतर संलग्न हैं। उनकी कृतियाँ उनके परिश्रम और प्रतिभा की साक्षी है। मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि इलाजी शतायु हों और हिंदी साहित्य को अपनी अनमोल रत्नों से समृद्ध और संपन्न करती रहें।
१५-१२-२०१९
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पुस्तक परिचय:
"दोहा-दोहा नर्मदा, दोहा शतक मंजूषा भाग १"
समीक्षक- प्रो. स्मृति शुक्ल
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[पुस्तक विवरण: दोहा-दोहा नर्मदा (दोहा शतक मञ्जूषा भाग १), आई एस बी एन ८१७७६१००७४, प्रथम संस्करण २०१८, आकार २१.५ से. x १४ से., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १६०, मूल्य २५०/-, प्रकाशक समन्वय ,४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]
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आचार्य संजीव 'सलिल' हिंदी साहित्य में अनवरत स्तरीय लेखन कर रहे हैं। वे विगत बीस वर्षों से अंतरजाल पर भी सक्रिय हैं और हिंदी की विभिन्न विधाओं में सार्थक रच रहे हैं। 'कलम के देव', 'भूकंप के साथ जीना सीखें', 'लोकतंत्र का मकबरा', 'मीत मेरे' आदि कृतियों के साथ आपके नवगीत संग्रहों 'काल है संक्रांति का' ने खासी प्रसिद्धि पाई है। ‘सड़क पर’ आपका सद्य प्रकाशित नवगीत संग्रह है। आचार्य संजीव 'सलिल' और प्रो. साधना वर्मा के संपादकत्व में प्रकाशित 'दोहा-दोहा नर्मदा' दोहा शतक मञ्जूषा भाग एक, 'दोहा सलिला-निर्मला' दोहा शतक मञ्जूषा भाग दो एवं 'दोहा दीप्त दिनेश' दोहा शतक मञ्जूषा भाग तीन प्रकाशित हुआ है। इन तीनों संग्रहों में पंद्रह-पंद्रह दोहाकारों के सौ-सौ दोहों को संकलित किया गया है। इस प्रकार आचार्य संजीव 'सलिल' व डॉ. साधना वर्मा ने पैंतालीस दोहाकारों के चार हजार पाँच सौ दोहों के साथ सलिल जी द्वारा रचित लगभग ५०० दोहे और अन्य १०० दोहे मिलकर लगभग ५१०० दोहों को पुस्तकाकार प्रकाशित कर हिंदी साहित्य के प्राचीन छंद दोहा को पुनः नई पीढ़ी के सामने लाने का प्रयास किया है। दोेहा पुरातन काल से आज तक प्रयुक्त हो रहा अत्यंत लोकप्रिय छंद है। सिद्धाचार्य सरोज बज्र ‘सरह’ ने विक्रम संवत् ६९० में अपभ्रंश में दोहा लिखा-
जेहि मन पवन न सँचरई, रवि-ससि नाहिं पवेस।
तेहि बढ़ चित्त बिसाम करु, सरहे कहिय उवेस।।
‘दोहा-दोहा नर्मदा’ संकलन के प्रथम पृष्ठ पर ‘दोहा-दोहा विरासत’ शीर्षक से सिद्धाचार्य सरोज बज्र ‘सरह’ के इस दोहे के साथ देवसेन जैन, हेमचंद्र, चंदरबरदाई, बाबा फरीद, सोमप्रभ सूरि, अमीर खुसरो, जैनाचार्य मेरूतंग, कबीर, तुलसी, रत्नावली, अब्दुर्ररहीम खानखाना, बिहारी, रसनिधि से लेकर किशोर चंद कपूर संवत् १९५६ तक ३४ दोहा व सर्जक कवियों का कालक्रमानुसार विवरण देना आचार्य संजीव 'सलिल' की अनुसंधानपरक दृष्टि का परिचायक है साथ ही यह बेहद मूल्यवान जानकारी है।
आचार्य संजीव 'सलिल' ने पिंगल शास्त्र का गहन अध्ययन किया है । आपने परंपरागत छंदों के साथ ३५० से अधिक नवीन छंदों की भी रचना की है। वे नये रचनाकारों को सदैव छंद रचना का प्रशिक्षण देते रहे हैं और उनके लिखे हुए का परिष्कार करते रहे हैं । समन्वय प्रकाशन से प्रकाशित 'दोहा-दोहा नर्मदा' में पंद्रह वरिष्ठ-कनिष्ठ दोहाकारों के सौ-सौ दोहे संकलित हैं । संपादक ने इस संग्रह की भूमिका ‘दोहा गाथा सनातन’ शीर्षक से लिखी है। यह भूमिका भी एक ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह संग्रहणीय है । इस भूमिका में आचार्य संजीव सलिल लिखते हैं कि- ‘‘दोहा विश्व की सभी भाषाओं के इतिहास में सबसे प्राचीन छंद होने के साथ बहुत प्रभावी और तीव्र गति से संप्रेषित होने वाला छंद है। इतिहास गवाह है कि दोहा ही वह छंद है जिससे पृथ्वीराज चौहान और रायप्रवीण के सम्मान की रक्षा हो सकी और महाराजा जयसिंह की मोहनिद्रा भंग हुई।’’ दोहा रचना के प्रमुख तत्वों का भी गहन और वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन संपादकीय में किया गया है।पंद्रह दोहाकारों के परिचय के साथ ही उनके दोहो पर समीक्षात्मक टीप देने का कार्य संपादकद्वय ने किया है जो सराहनीय है ।
‘दोहा-दोहा नर्मदा’ में प्रथम क्रम पर आभा सक्सेना ‘दूनवी’ के दोहे संकलित हैं । आभाजी ने प्रथम दोहे में ईश्वर आराधना करते हुए विनय की है उनके भाव सदैव उदात्त हों, सत्य,शिव और सुंदर का समवेत स्वर उनके दोहों में अनुगुंजित होता रहे । अपने गुरू का स्मरण और उनके प्रति कृतज्ञता का भाव भी व्यक्त किया है। आभा सक्सेना के दोहों का प्रारंभ हिंदुओं के सबसे बड़े पाँच दिवसीय त्यौहार दीपावली से हुआ है। धनतेरस दीपावली, करवाचौथ के बाद उन्होंने अपने बचपन को स्मृत किया है । यह बहुत स्वाभाविक भी है कि त्यौहार अक्सर अतीत के गलियारों में ले जाते हैं ।
यादों के उजले दिये, मन-रस्सी पर डार।
बचपन आया झूलने, माँ-आँगन कर पार।।
पुरवाई का मेघ को चिट्ठी देना और सावन में खूब बरसकर नदियाँ ताल भरने का संदेशा देना इस दोहे को बहुत भावपरक बनाता है, साथ ही प्रकृति में मानवीय कार्य व्यापारों का समावेश करता है ।
पुरवाई ने मेघ को, दी है चिठिया लाल ।
अब की सावन में बरस, भर दे नदियाँ ताल ।।
ग्रीष्म में सूरज के बढ़ते ताप को एक दोहे में आभा जी ने बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी है । उनके इस दोहे ने पद्माकर के ऋतु वर्णन को स्मृत करा दिया । आभा जी के दोहे में जीवन के अनेक प्रसंग है राजनीति, धर्म, अध्यात्मक, प्रेम, परिवार, जीवन-जगत दर्शन, ऋतुएँ और प्रकृति अर्थात जीवन का कोई पक्ष अछूता नहीं है । दोहों में मात्राओं का निर्वाह पूरी सतर्कता से किया गया है ।
चुन काफिया-रदीफ लो, मनमाफिक सरकार ।
गज़ल बने चुटकी बजा, हो सुनकर अश'आर ।।
आभा सक्सेना ने इस दोहे में चुटकी बजाकर गजल बनाने की बात कही है जो मेरे गले इसलिये नहीं उतरी कि गज़ल महज मनमाफिक काफिया या रदीफ के चुनने से ही नहीं बन जाती। बहर और शब्दों के वजन, मक्ता-मतला के साथ काफिया-रदीफ का ध्यान रखा जाए तभी मुअद्दस ग़ज़ल बन पाती है ।
दोहाकार आभा सक्सेना के दोहों की समीक्षा में आचार्य संजीव सलिल ने ‘यमकीयता’ शब्द का नवीन प्रयोग किया है । हिन्दी साहित्य में अभी तक इस शब्द का प्रयोग नहीं किया गया । यमक शब्द में ‘इयता’ प्रत्यय लगाकर यह शब्द निर्मित किया गया है, पर यह शब्द प्रयोग की दृष्टि से उचित नहीं है । कबीरदास ने- ‘सद्गुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार। लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावन हार।।' इस दोहे में अनंत शब्द का चार बार प्रयोग करके यमक अलंकार का अत्यंत सुंदर प्रयोग किया है लेकिन उनके लिये भी किसी आलोचक ने यमकीयता घोलना शब्द का प्रयोग नहीं किया है। काव्य-रचना के अनुकूल शब्द तथा अर्थ को प्रस्तुत करने की प्रतिभा आभा जी के पास है । धूप का कुलाँचे मारना, मूँड़ उघार कर सोना, आस के पखेरु का उड़ना, जीवन का पापड़ होना, चपल हठीली रश्मियाँ आदि प्रयोग नवीन होने के साथ दोहों में भाव प्रवणता भरते हैं।
कालीपद प्रसाद के दोहों में उनके गहन और सुदीर्घ जीवनानुभवों का ताप पूरी प्रखरता से मौजूद है। उनके दोहों में मनुष्य को सिखावन है और नीतिगत बातें है। भारतीय धर्मशास्त्र सदैव हमें आत्मालोचन की सीख देता है। कालीपद जी एक दोहा में लिखते हैं-
अपनी ही आलोचना, मुक्ति प्राप्ति की राह।
गलती देखे और की, जो न गहे वह थाह।।
ईर्ष्या-तृष्णा वृत्ति जो, उन सबका हो नाश।
नष्ट न होती साधुता, रहता सत्य अनाश।।
जीवन सत्य का दिग्दर्शन वाले ये दोहे कहीं-कहीं मध्यकालीन संतों का स्मरण कराते हैं-
सिंधु सदृष संसार है, गहरा पारावार।
यह जीवन है नाव सम, जाना सागर पार।।
कालीपद ‘प्रसाद’ जी के दोहे हमें जीवन का मर्म सिखाते हैं, विपरीत परिस्थितियों में हौसला रखने तथा कर्मशील बनने की प्रेरणा देते हैं।
डाॅ. गोपालकृष्ण भट्ट ‘आकुल’ के दोहों में विनष्ट होते पर्यावरण के प्रति चिंता और जल संरक्षण की बात कही गई है। राजभाषा हिंदी की वैज्ञानिकता और उसके महत्व तथा वर्तमान स्थिति पर भी ‘आकुल’ जी ने दोहे रचे हैं। छंद्धबद्ध साहित्य और छंदों के निष्णात कवियों के अभाव पर लिखा दोहा साहित्य के प्रति चिंता से जन्मा है-
छंदबद्ध साहित्य का, हुआ पराक्रम क्षीण।
वैसे ही कुछ रह गये, कविवर छंद प्रवीण।।
चंद्रकांता अग्निहोत्री एक समर्थ दोहाकार हैं । उनके दोहों में बहुत उदात्त भाव शब्दबद्ध हुए हैं। परनिंदा का त्याग, तृष्णा, लोभ, मोह माया और अहंकार से ऊपर उठने का भाव उनके दोहों में अनुगूँजित है।
अहंकार की नींव पर कैसा नव निर्माण।
साँसों में अटके रहे, दीवारों के प्राण।।
छगनलाल गर्ग ‘विज्ञ’ दोहा रचने में माहिर हैं। गर्ग जी के दोहों का मूल कथ्य प्रेम है। लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम तक की यात्रा इन दोहों में हैं। दोहों में अनुप्रास अलंकार की सुंदर छटा बिखरी है। गर्ग जी के श्रृंगारिक दोहों में बिहारी के दोहों की भाँति भावों, अनुभावों और आंगिक भंगिमाओं का चित्रण हुआहै-
नशा नजर रस नयन में, लाज-लाल मुख रेख।
झुक सजनी भयभीत मन, झिझक विहग सी लेख।।
छाया सक्सेना ‘प्रभु’ के दोहे उनकी हृदयगत उदारता और सरलता के परिचायक हैं। उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से कुछ न कुछ अपने दोहों में लिया है। सहज-सरल भाषा में अपने हृदयगत उद्गारों को दोहों में पिरो दिया है। दोहों में प्रचलित मुहावरों का प्रयोग भी वे बहुत खूबसूरती से करती हैं-
दीवारों के कान हैं, सोच-समझकर बोल।
वाणी के वरदान को, ले पहले तू तोल।।
पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता और प्रकृति के प्रति असीम अनुराग भी उनके दोहों में परिलक्षित होता है।
त्रिभवन कौल की जन्मस्थली जम्मू-कश्मीर ने उन्हें प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति तीव्र लगाव से अनुरंजित किया तो भारतीय वायुसेना की कर्मस्थली ने उन्हें अगाध राष्ट्र-प्रेम से आपूरित किया। अनुशासन बद्ध जीवन ने उनके सृजन को छंदों के अनुशासन में बँधना सिखाया।‘षठं शाठ्यं समाचरेत’ इस सूक्ति को उन्होंने अपना सिद्धांत मानते हुए यह माना है कि जो देश के साथ विश्वासघात करे वह क्षमा के योग्य नहीं और आतंकी को केवल कब्र में ही ठौर मिलना चाहिये। वन, पर्वत, नदियों के संरक्षण की चिंता के साथ ही आज की राजनीति पर भी अनेक अर्थपूर्ण दोहे त्रिभुवन कौल जी ने लिखे हैं। वर्तमान समय में लेखन को भी व्यवसाय समझ लिया गया है। बहुत कुछ निरर्थक भी लिखा जा रहा है इस सत्य का उद्घाटन करते हुए त्रिभुवन कौल लिखते हैं -
हीरों सा व्यापार है, लेखन नहीं दुकान।
जब से रज-कण आ गये, गुमी कहीं पहचान।।
प्रेम बिहारी मिश्र ने अपने दोहों में बड़ी सहजता से हृदय के उद्गारों को अभिव्यक्त किया गया है। भूमंडलीकरण के दौर में परिवर्तित सामाजिक परिवेश को अपने दोहों में चित्रित करने वाले प्रेमबिहारी मिश्र लिखते हैं-
चना चबैना बाजरा, मक्का रोटी साग ।
सब गरीब से छिन गया, हुआ अमीरी राग ।।
दीन-धर्म पैसा यहाँ, पैसा ही है प्यार ।
अमराई छूटी यहाँ, नकली बहे बयार ।।
मिथलेश राज बड़गैया के नारी मन की कोमल संवेदनाएँ उनके दोहों में भावपूर्ण सलिला बनकर प्रवाहित है। प्रेम, श्रृंगार, संयोग, वियोग आदि भावों को उन्होंने अपने दोहों में सँजोया है-
मैं मीरा सी बावली, घट-घट ढूँढूँ श्याम।
मन वृंदावन हो गया, नैन हुए घनश्याम।।
रामेश्वर प्रसाद सारस्वत जी के दोहे सार्थक शब्द चयन और निश्छल अभिव्यक्ति के कारण सम्प्रेषणीय बन गए हैं। सारस्वत जी ने अनेक दोहों में ‘आँखों में पानी नहीं’, ‘आँख में आँख डालना’, ‘हाथ को हाथ न सूझना’, ‘मन के घोड़े दौड़ाना’, ‘आँख मिचौली खेलना’, ‘ताल ठोंकना’, ‘सूखकर काँटा होना’ आदि मुहावरों का सार्थक प्रयोग करके दोहों की अभिव्यंजना शक्ति में वृद्धि की है। बीते समय की जीवन शैली और आज की जीवन शैली का अंतर अनेक दोहों में स्पष्ट है। विकास की अंधी दौड़ के दुष्परिणामों को भी सारस्वत जी अभिव्यक्त करते हैं-
अंधी दौड़ विकास की, छोड़े नहीं वजूद।
इत टिहरी जलमग्न है, उत डूबा हरसूद।।
विजय बागरी एक संवेदनशील दोहाकार हैं। आचार्य संजीव 'सलिल' ने लिखा है कि- ‘‘युगीन विसंगतियों और त्रासदियों को संकेतों से मूर्त करने में वे व्यंजनात्मकता और लाक्षणिकता का सहारा लेते हैं।’’ विजय जी के दोहों में वर्तमान समय की विसंगतियाँ पूरी सच्चाई के साथ मूर्त हुई हैं। आज साहित्य जगत में छद्म बुद्धिवाद फैला हुआ है। अपने पैसों से ही सम्मान समारोह आयोजित कराके अखबारों में खबरें प्रकाशित की जाती हैं। इस सच्चाई को विजय जी ने इस दोहे में व्यक्त किया है-
छलनाओं का हो रहा, मंचों से सत्कार।
सम्मानों की सुर्खियाँ, छाप रहे अखबार।।
हम संसार में आकर भूल जाते हैं कि यहाँ हमारा डेरा स्थायी नहीं है, जीवन क्षणिक है। विजय जी संत कवियों की भाँति इस आर्ष सत्य का उद्घाटन करते हैं-
है उधार की जिंदगी, साँसें साहूकार।
रिश्ते-नाते दरअसल, मायावी बाजार।।
विनोद जैन ‘वाग्वर’ ने अपने दोहों में आज के मनुष्य की स्वार्थपरता, राजनीति के छल-छद्म, मूल्यों का अवमूल्यन, भ्रष्टाचार और तमाम तरह विभेदों को उजागर किया है । आजादी के इतने वर्षों के पश्चात् भी आम आदमी कितना लाचार और बेबस है-
हम कितने स्वाधीन हैं, कितने बेबस आज।
आजादी के नाम पर गुंडे करते राज।।
श्रीधर प्रसाद द्विवेदी के दोहों का कथ्य विविधता पूर्ण और शिल्प समृद्ध है । वर्तमान समय में मनुष्य तकनीक के जाल में उलझ रहा है। उपभोक्तावादी समय में मनुश्य की संवेदनाओं की तरलता शुष्क हो गई है। द्विवेदी जी ने लिखा है -
विकट समय संवेदना, गई मनुज से दूर।
अपनों से संबंध अब, होते चकनाचूर।।
श्यामल सिन्हा के दोहों में भाव प्रवणता है। सुख-दुख,हास-रुदन, विरह-मिलन, आशा-निराशा आदि भावों का चित्रण करने में सिन्हा जी सिद्धहस्त है। प्रेम में नेत्रों की भूमिका महत्वपूर्ण हैं। रीतिकाल में बिहारी ने अपने दोहों में नायक और नायिका को नेत्रों से प्रेमपूर्ण संवाद करते दिखाया है । श्यामल सिन्हा भी लिखते हैं-
आँखें जब करने लगी, आँखों से संवाद।
आँखों में आँखे रखें, प्रेम भवन बुनियाद।।
श्यामल जी के कुछ दोहे सार्थक शब्द चयन के अभाव में अर्थपूर्ण नहीं बन पाये तथा पाठक के हृदय को छूने में असमर्थ हैं। जैसे-
अहंकार मन में भरा, तन-मन बहुत उदास।
भटक रहा मन अकारण, मोती मिला न घास।।
इस दोहे में असंगति दोष भी है। मोती के साथ घास शब्द केवल तुकबंदी के लिए रखा गया है। इस कारण काव्य में औचित्य का निर्वाह नहीं हो पाया है।
'दोहा-दोहा नर्मदा' में संकलित अंतिम दोहाकार सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ के दोहों में समसामयिक परिवेश की समस्त गतिविधियाँ, परिवर्तनों की एक-एक आहट मौजूद है। मानव मन की अभिलाषाएँ, लिप्साएँ, और भावनाएँ अपने वास्तविक रूप में उभरी हैं । किसी प्रकार मुलम्मा चढ़ाकर उन्हें प्रस्तुत नहीं किया गया है । अभिव्यक्ति की सादगी ही उनके दोहों को विशिष्ट बनाती है-
बूढ़ा बरगद ले रहा, है अब अंतिम श्वास।
फिर होगा नव अंकुरण, पाले मन में आस।।
नव अंकुरण की इसी आशा की डोर थामे हम चलते रहते हैं। आशा ही विपरीत परिस्थिति में हमें टूटने नहीं देती। निष्कर्षतः 'दोहा-दोहा नर्मदा' संपादक द्वय आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ और प्रो. साधना वर्मा के संपादकत्व में विश्व वाणी हिंदी संस्थान, जबलपुर से प्रकाशित एक महत्वपूर्ण कृति है। आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने 'दोहा शतक मंजूषा १' में पंद्रह दोहाकार रूपी अनमोल मोतियों को एक साथ पिरोया है। उन्होंने अत्यंत कुशलतापूर्वक अपने आचार्यत्व का निर्वाह किया है। अनेक दोहों को परिष्कृत कर उनका संस्कार किया है। सभी पंद्रह दोहाकारों के परिचय के साथ उनके दोहों पर बहुत ही विवेकपूर्ण ढंग से सम्यक समीक्षा भी लिखी है। 'दोहा-दोहा नर्मदा की भूमिका' आपके काव्य काव्य-शास्त्रीय ज्ञान का मुकुर है। पाठक को दोहा का इतिहास और स्वरूप समझने में यह भूमिका बहुत उपयोगी है।
इस संकलन के प्रत्येक पृष्ठ पर पाद टिप्पणी के रूप में तथा भूमिका में आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ द्वारा रचित एक सौ बहत्तर दोहे निस्संदेह इस संग्रह की उपलब्धि हैं। इन दोहों में दोहा छंद का स्वरूप, इतिहास, प्रकार दोहा रचने के लिए आवश्यक तत्वों जैसे शब्दों का चारुत्व, मौलिक प्रयोग, रस, अलंकार, भावों की अभिव्यक्ति में समर्थ शब्दों का चयन, अर्थ-गांभीर्य, कम शब्दों में अर्थों की अमितता, लालित्य, सरलता, काव्य दोष, काव्य गुणों आदि की चर्चा करके नये दोहाकारों को दोहा रचना की सिखावन दी है। निश्चय ही 'दोहा शतक मंजूषा भाग-एक' छंदबद्ध कविता को स्थापित करने वाली महत्वपूर्ण कृति है। जनमानस के हृदय में स्पंदित होने वाले लोकप्रिय छंद दोहा की अभ्यर्थना में माँ सरस्वती के चरणों में अर्पित एक अति सुंदर सुमन है।
दोहा- 'दोहा दोहा नर्मदा' दोहा शतक मञ्जूषा भाग १
संपादक- आचार्य संजीव वर्मा‘सलिल’ एवं प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा
समीक्षक- प्रो. (डॉ.) स्मृति शुक्ल
प्रकाशन-ंसमन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर, रायपुर, बैंगलुरू
पृष्ठ १६०, प्रथम संस्करण- २०१८, आई एस बी एन ८१-७७६१-००७-४, मूल्य- २५०/-
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संपर्क समीक्षक: प्रो. स्मृति शुक्ल, ए१६, पंचशील नगर, नर्मदा मार्ग, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९९९३४१९३७४
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कृति चर्चा:
जिजीविषा : पठनीय कहानी संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: जिजीविषा, कहानी संग्रह, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, द्वितीय संस्करण वर्ष २०१५, पृष्ठ ८०, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक जेकट्युक्त, बहुरंगी, प्रकाशक त्रिवेणी परिषद् जबलपुर, कृतिकार संपर्क- १०७ इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट मार्ग जबलपुर।]
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हिंदी भाषा और साहित्य से आम जन की बढ़ती दूरी के इस काल में किसी कृति के २ संस्करण २ वर्ष में प्रकाशित हो तो उसकी अंतर्वस्तु की पठनीयता और उपादेयता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। यह तथ्य अधिक सुखकर अनुभूति देता है जब यह विदित हो कि यह कृतिकार ने प्रथम प्रयास में ही यह लोकप्रियता अर्जित की है। जिजीविषा कहानी संग्रह में १२ कहानियाँ सम्मिलित हैं।
सुमन जी की ये कहानियाँ अतीत के संस्मरणों से उपजी हैं। अधिकांश कहानियों के पात्र और घटनाक्रम उनके अपने जीवन में कहीं न कहीं उपस्थित या घटित हुए हैं। हिंदी कहानी विधा के विकास क्रम में आधुनिक कहानी जहाँ खड़ी है ये कहानियाँ उससे कुछ भिन्न हैं। ये कहानियाँ वास्तविक पात्रों और घटनाओं के ताने-बाने से निर्मित होने के कारण जीवन के रंगों और सुगन्धों से सराबोर हैं। इनका कथाकार कहीं दूर से घटनाओं को देख-परख-निरख कर उनपर प्रकाश नहीं डालता अपितु स्वयं इनका अभिन्न अंग होकर पाठक को इनका साक्षी होने का अवसर देता है। भले ही समस्त और हर एक घटनाएँ उसके अपने जीवन में न घटी हुई हो किन्तु उसके अपने परिवेश में कहीं न कहीं, किसी न किसी के साथ घटी हैं उन पर पठनीयता, रोचकता, कल्पनाशक्ति और शैली का मुलम्मा चढ़ जाने के बाद भी उनकी यथार्थता या प्रामाणिकता भंग नहीं होती ।
जिजीविषा शीर्षक को सार्थक करती इन कहानियों में जीवन के विविध रंग, पात्रों - घटनाओं के माध्यम से सामने आना स्वाभविक है, विशेष यह है कि कहीं भी आस्था पर अनास्था की जय नहीं होती, पूरी तरह जमीनी होने के बाद भी ये कहानियाँ अशुभ पर चुभ के वर्चस्व को स्थापित करती हैं। डॉ. नीलांजना पाठक ने ठीक ही कहा है- 'इन कहानियों में स्थितियों के जो नाटकीय विन्यास और मोड़ हैं वे पढ़नेवालों को इन जीवंत अनुभावोब में भागीदार बनाने की क्षमता लिये हैं। ये कथाएँ दिलो-दिमाग में एक हलचल पैदा करती हैं, नसीहत देती हैं, तमीज सिखाती हैं, सोई चेतना को जाग्रत करती हैं तथा विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।'
जिजीविषा की लगभग सभी कहानियाँ नारी चरित्रों तथा नारी समस्याओं पर केन्द्रित हैं तथापि इनमें कहीं भी दिशाहीन नारी विमर्ष, नारी-पुरुष पार्थक्य, पुरुषों पर अतिरेकी दोषारोपण अथवा परिवारों को क्षति पहुँचाती नारी स्वातंत्र्य की झलक नहीं है। कहानीकार की रचनात्मक सोच स्त्री चरित्रों के माध्यम से उनकी समस्याओं, बाधाओं, संकोचों, कमियों, खूबियों, जीवत तथा सहनशीलता से युक्त ऐसे चरित्रों को गढ़ती है जो पाठकों के लिए पथ प्रदर्शक हो सकते हैं। असहिष्णुता का ढोल पीटते इस समय में सहिष्णुता की सुगन्धित अगरु बत्तियाँ जलाता यह संग्रह नारी को बला और अबला की छवि से मुक्त कर सबल और सुबला के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
'पुनर्नवा' की कादम्बिनी और नव्या, 'स्वयंसिद्धा' की निरमला, 'ऊष्मा अपनत्व की' की अदिति और कल्याणी ऐसे चरित्र है जो बाधाओं को जय करने के साथ स्वमूल्यांकन और स्वसुधार के सोपानों से स्वसिद्धि के लक्ष्य को वरे बिना रुकते नहीं। 'कक्का जू' का मानस उदात्त जीवन-मूल्यों को ध्वस्त कर उन पर स्वस्वार्थों का ताश-महल खड़ी करती आत्मकेंद्रित नयी पीढ़ी की बानगी पेश करता है। अधम चाकरी भीख निदान की कहावत को सत्य सिद्ध करती 'खामियाज़ा' कहानी में स्त्रियों में नवचेतना जगाती संगीता के प्रयासों का दुष्परिणाम उसके पति के अकारण स्थानान्तारण के रूप में सामने आता है। 'बीरबहूटी' जीव-जंतुओं को ग्रास बनाती मानव की अमानवीयता पर केन्द्रित कहानी है। 'या अल्लाह' पुत्र की चाह में नारियों पर होते जुल्मो-सितम का ऐसा बयान है जिसमें नायिका नुजहत की पीड़ा पाठक का अपना दर्द बन जाता है। 'प्रीती पुरातन लखइ न कोई' के वृद्ध दम्पत्ति का देहातीत अनुराग दैहिक संबंधों को कपड़ों की तरह ओढ़ते-बिछाते युवाओं के लिए भले ही कपोल कल्पना हो किन्तु भारतीय संस्कृति के सनातन जवान मूल्यों से यत्किंचित परिचित पाठक इसमें अपने लिये एक लक्ष्य पा सकता है।
संग्रह की शीर्षक कथा 'जिजीविषा' कैंसरग्रस्त सुधाजी की निराशा के आशा में बदलने की कहानी है। कहूँ क्या आस निरास भई के सर्वथा विपरीत यह कहानी मौत के मुंह में जिंदगी के गीत गाने का आव्हान करती है। अतीत की विरासत किस तरह संबल देती है, यह इस कहानी के माध्यम से जाना जा सकता है, आवश्यकता द्रितिकों बदलने की है। भूमिका लेख में डॉ. इला घोष ने कथाकार की सबसे बड़ी सफलता उस परिवेश की सृष्टि करने को मन है जहाँ से ये कथाएँ ली गयी हैं। मेरा नम्र मत है कि परिवेश निस्संदेह कथाओं की पृष्ठभूमि को निस्संदेह जीवंत करता है किन्तु परिवेश की जीवन्तता कथाकार का साध्य नहीं साधन मात्र होती है। कथाकार का लक्ष्य तो परिवेश, घटनाओं और पात्रों के समन्वय से विसंगतियों को इंगित कर सुसंगतियों के स्रुअज का सन्देश देना होता है और जिजीविषा की कहानियाँ इसमें समर्थ हैं।
सांस्कृतिक-शैक्षणिक वैभव संपन्न कायस्थ परिवार की पृष्ठभूमि ने सुमन जी को रस्मो-रिवाज में अन्तर्निहित जीवन मूल्यों की समझ, विशद शब्द भण्डार, परिमार्जित भाषा तथा अन्यत्र प्रचलित रीति-नीतियों को ग्रहण करने का औदार्य प्रदान किया है। इसलिए इन कथाओं में विविध भाषा-भाषियों,विविध धार्मिक आस्थाओं, विविध मान्यताओं तथा विविध जीवन शैलियों का समन्वय हो सका है। सुमन जी की कहन पद्यात्मक गद्य की तरह पाठक को बाँधे रख सकने में समर्थ है। किसी रचनाकार को प्रथम प्रयास में ही ऐसी परिपक्व कृति दे पाने के लिये साधुवाद न देना कृपणता होगी।
१५-१२-२०१८
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मुक्तक
हर दिन होली, रात दिवाली हो प्यारे
सुबह - साँझ पल हँसी-ख़ुशी के हों न्यारे
सलिल न खोने - पाने में है तंत अधिक
हो अशोक सद्भाव सकल जग पर वारे
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एक रचना
अंधे पीसें
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अंधे पीसें
कुत्ते खांय
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शीर्षासन कर सच को परखें
आँख मूँद दुनिया को निरखें
मनमानी व्याख्या-टीकाएँ
सोते - सोते
ज्यों बर्राएँ
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
*
आँखों पर बाँधे हैं पट्टी
न्याय तौलते पीकर घुट्टी
तिल को ताड़, ताड़ को तिल कर
सारे जग को
मूर्ख बनायें
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
*
तुम जिंदा हो?, कुछ प्रमाण दो
देख न मानें] भले प्राण दो
आँखन आँधर नाम नैनसुख
सच खों झूठ
बता हरषाएं
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
१२ - १२- २०१५
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माँ को अर्पित चौपदे
बारिश में आँचल को छतरी, बना बचाती थी मुझको माँ
जाड़े में दुबका गोदी में, मुझे सुलाती थी गाकर माँ
गर्मी में आँचल का पंखा, झलती कहती नयी कहानी-
मेरी गलती छिपा पिता से, बिसराती थी मुस्काकर माँ
मंजन स्नान आरती थी माँ, ब्यारी दूध कलेवा थी माँ
खेल-कूद शाला नटखटपन, पर्व मिठाई मेवा थी माँ
व्रत-उपवास दिवाली-होली, चौक अल्पना राँगोली भी-
संकट में घर भर की हिम्मत, दीन-दुखी की सेवा थी माँ
खाने की थाली में पानी, जैसे सबमें रहती थी माँ
कभी न बारिश की नदिया सी कूल तोड़कर बहती थी माँ
आने-जाने को हरि इच्छा मान, सहज अपना लेती थी-
सुख-दुःख धूप-छाँव दे-लेकर, हर दिन हँसती रहती थी माँ
गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ
कविता दोहा गीत गजल थी, रात्रि-जागरण चैया थी माँ
हाथों की राखी बहिना थी, सुलह-लड़ाई भैया थी माँ
रूठे मन की मान-मनौअल, कभी पिता का अनुशासन थी-
'सलिल'-लहर थी, कमल-भँवर थी, चप्पू छैंया नैया थी माँ
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नवगीत:
पत्थरों की फाड़कर छाती
उगे अंकुर
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चीथड़े तन पर लपेटे
खोजते बाँहें
कोई आकर समेटे।
खड़े हो गिर-उठ सम्हलते
सिसकते चुप हो विहँसते।
अंधड़ों की चुनौती स्वीकार
पल्लव लिये अनगिन
जकड़कर जड़ में तनिक माटी
बढ़े अंकुर।
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आँख से आँखें मिलाते
बनाते राहें
नये सपने सजाते।
जवाबों से प्रश्न करते
व्यवस्था से नहीं डरते।
बादलों की गर्जना-ललकार
बूँदें पियें गिन-गिन
तने से ले अकड़ खांटी
उड़े अंकुर।
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घोंसले तज हौसले ले
चल पड़े आगे
प्रथा तज फैसले ले।
द्रोण को ठेंगा दिखाते
भीष्म को प्रण भी भुलाते।
मेघदूतों का करें सत्कार
ढाई आखर पढ़ हुए लाचार
फूलकर खिल फूल होते
हँसे अंकुर।
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नवगीत :
कैंसर!
मत प्रीत पालो
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अभी तो हमने बिताया
साल भर था साथ
सच कहूँ पूरी तरह
छूटा ही नहीं है हाथ
कर रहा सत्कार
अब भी यथोचित मैं
और तुम बैताल से फिर
आ लदे हो काँध
अरे भाई! पिंड तो छोड़ो
चदरिया निज सम्हालो
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मत बनो आतंक के
पर्याय प्यारे!
बनो तो
आतंकियों के जाओ द्वारे
कांत श्री की
छीन पाओगे नहीं तुम
जयी औषधि-हौसला
ले पुनः हों हम
रखे धन काला जो
जा उनको सम्हालो
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शारदासुत
पराजित होता नहीं है
कलमधारी
धैर्य निज खोता नहीं है
करो दो-दो हाथ तो यह
जान लो तुम
पराजय निश्चित तुम्हारी
मान लो तुम
भाग जाओ लाज अब भी
निज बचालो
१५-१२-२०१४
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विश्वेश्वरैया,

 विश्वेश्वरैया उवाच 

मूल अंग्रेजी, हिंदी अनुवाद आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

If you buy what you do not need you will need, what you can not buy.   

यदि तुम वह खरीदते हो जिसकी आवश्यकता नहीं है तो तुम्हें उसकी आवश्यकता होगी जो तुम खरीद नहीं सकते।

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To give real service you must add some thing that can no tbe bought and measured with money.  

सच्ची सेवा करने के लिए तुम्हें  वह करना चाहिए जो खरीदा नहीं जा सकता और रुपए से तौला नहीं जा सकता।
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Hard work performed in a disciplined mannar in most cases will keep the worker fit and prolong his life.   

अनुशासन सहित किया गया कड़ा परिश्रम करनेवाले को चुस्त और दीर्घजीवी बनाता है।
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Every man who has become great ows his achievement to incessent life.   

हर वह मनुष्य जो महान बनता है, सतत परिश्रम से उपलब्धि अर्जित करता है।
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The way to build a nation is the way to build a good citizen. The majority of the citizens should be efficient, of good character and possess a high sence of duty.   
एक श्रेष्ठ राष्ट्र बनाने का मार्ग श्रेष्ठ नागरिक बनाना है। अधिकांश नागरिकों को सक्षम, सच्चरित्र और कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए। 
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