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बुधवार, 23 अगस्त 2023

सॉनेट, सुधियाँ, दोहा, बघेली मुक्तिका, यगणादित्य घनाक्षरी, बाल गीत पारुल, जनकछंदी गीत, आँख

सॉनेट  
शतक वीर 
*
शतकवीरों का होता है कुल श्रेष्ठ,
श्री वास्तव में उनको ही मिलती है, 
राह में उनकी बाधक होते नेष्ठ,
फिर भी प्रतिभा उगती है, खिलती है।  

लक्ष्मण-रेखा खींचते शतकवीर,
लाँघना होता है सत्य ही दुष्कर,
शतकवीर नहीं होते कभी अधीर,
कठिन परीक्षा होती उनकी अक्सर। 

शतकवीर होते हैं नीलम सा नग,
जिस-तिस को अनुकूल नहीं होते हैं, 
वे रख देते हैं अंगद जैसे पग,
नव आशा के बीज सदा बोते हैं। 

सब मिल करिए शतकवीरों को नमन। 
अनुकरण कीजिए, महकाइए चमन।।    
***
सॉनेट 
लेखक 
*
लेखक नहीं होता छोटा या बड़ा,
लेखक कदापि नहीं होता बिकाऊ,
लेखक नहीं होता सिर के बल खड़ा, 
लेखक नहीं है उत्पादन टिकाऊ। 

चारण-भाट नहीं हो सकते लेखक,
सच अदेखा नहीं कर सकते लेखक, 
तारणहार नहीं  हो सकते लेखक,
समय-सत्य-साक्षी होते हैं लेखक। 

लेखक का सच्चा सम्मान धन नहीं, 
लेखक का लिखा पढ़ना-समझना है,
लेखक की पहचान जाति-वर्ण नहीं, 
लेखक का इंसानियत बरतना है। 

अक्षर-रक्षक, शब्द-सिपाही लेखक। 
न तो तालियाँ, न वाहवाही लेखक।।    
***
सॉनेट
सुधियाँ
सुधियाँ सखी-सहेली प्यारी,
भुज भर भेंट विहँस दुलराया,
गोद खिलाया कुछ थीं न्यारी,
गिरी उठा चलना सिखलाया।

खेल-कूद लड़-मिल बढ़ आगे,
हुई किशोरी तरुण युवा झट,
सतरंगे सपने अनुरागे,
गोदी भरी रँगा जीवन-पट।

फिर बसंत की हुई बिदाई,
शीत-ग्रीष्म एकाकीपन दे,
कहते दुनिया नहीं पराई,
निरख उसे हँस तोड़ो फंदे।

छोड़ नीड़ उड़ना है पाखी।
सुमिर ईश-गुण, गुरु की साखी।।
२३-८-२०२३
•••
दोहा सलिला
मिली तरुण की तरुणता, संगीता के साथ
याद हरी हो गई झट, झुका आप ही माथ
*
संस्कार ही अस्मिता, सीख रखें हम याद
गूँगे के गुड़ सा सरस, स्नेह सलिल का स्वाद
*
अनुकृति हो सद्गुणों की, तभी मिले सम्मान
पथिक सदृश हों मधुर हम, जीवन हो रसखान
*
कान कजलियाँ खोंसकर, दें मन से आशीष
पूज्य-चरण पर हो विनत, सदा हमारा शीश
*
लोक मनाता कजलियाँ, गाकर कजरी गीत
कजरारे बंकिम नयन, कहें बनो मन मीत
*
मन मंदिर में बस गए, जो जन वे हैं धन्य
बसा सके जो किसी को, सचमुच वहीअनन्य
*
अपने अपनापन बिसर, बनते हों जब गैर
कान कजलिया खोँसिए, मिटा दिलों से बैर
२३-८-२०२१
***
बघेली मुक्तिका
*
बढ़िगा बहुतै पाप
रुपिया मैया-बाप
सलगे नेता चोर
जन-जन के संताप
भागिस सूरज-धूप
काय न लागिस खाप
साधू कीन्हिस ढोंग
हाय अकारथ जाप
सबकै खुलि गै पोल
जोरू के पग चाप
जउने पंडा-देव
तउने टीका-छाप
लड़िकन केर पढ़ाई
लीन्हिस खेती ताप
डूब गइस घर-गाँव
आसमान से नाप
२३-८-२०२०
***
नवान्वेषित दण्डक छंद
यगणादित्य घनाक्षरी
*
विधान- बारह यगण
संकेत-यगण = १२२, आदित्य = १२।
*
कन्हैया! कन्हैया! पुकारें हमेशा, तुम्हें राधिका जी! गुहारें हमेशा, सभी गीत गाएँ तुम्हारे हमेशा।
नहीं कर्म भूलें, नहीं मर्म भूलें, लड़ें राक्षसों से नहीं धर्म भूलें, तुम्हीं को मनाएँ-बुलाएँ हमेशा।।
कहा था तुम्हीं ने 'उठो पार्थ प्यारे!, लड़ो कौरवों से नहीं हारना रे!, झुका या डरो ना बुराई से जूझो।
करो कर्म सारे, न सोचो मिले क्या?, मिला क्या?, गुमा क्या?, रहा क्या? हमेशा।।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
२३-८-२०१९
दोहा
*
हो प्रशांत मन सिंधु सा, गिरि सा दृढ़ संकल्प.
स्वप्न सदा शुभ देखना, जिसका नहीं विकल्प.
२३-८-२०१७
***
- स्मृति के वातायन से
हिन्दयुग्म
बाल गीत
पारुल
रुन-झुन करती आयी पारुल।
सब बच्चों को भायी पारुल।
बादल गरजे, तनिक न सहमी।
बरखा लख मुस्कायी पारुल।
चम-चम बिजली दूर गिरी तो,
उछल-कूद हर्षायी पारुल।
गिरी-उठी, पानी में भीगी।
सखियों सहित नहायी पारुल।
मैया ने जब डाँट दिया तो-
मचल-रूठ-गुस्सायी पारुल।
छप-छप खेले, ता-ता थैया।
मेंढक के संग धायी पारुल।
'सलिल' धार से भर-भर अंजुरी।
भिगा-भीग मस्तायी पारुल।
मंगलवार ७-७-२००९
अभिनव प्रयोग
जनकछंदी (त्रिपदिक) गीत
*
मेघ न बरसे राम रे!
जन-मन तरसे साँवरे!
कब आएँ घन श्याम रे!!
*
प्राण न ले ले घाम अब
झुलस रहा है चाम अब
जान बचाओ राम अब
.
मेघ हो गए बाँवरे
आए नगरी-गाँव रे!
कहीं न पाई ठाँव रे!!
*
गिरा दिया थक जल-कलश
स्वागत करते जन हरष
भीगे-डूबे भू-फ़रश
.
कहती उगती भोर रे
चल खेतों की ओर रे
संसद-मचे न शोर रे
*
काटे वन, हो भूस्खलन
मत कर प्रकृति का दमन
ले सुधार मानव चलन
.
सुने नहीं इंसान रे
भोगे दण्ड-विधान रे
कलपे कह 'भगवान रे!'
*
तोड़े मर्यादा मनुज
करे आचरण ज्यों दनुज
इससे अच्छे हैं वनज
.
लोभ-मोह के पाश रे
करते सत्यानाश रे
क्रुद्ध पवन-आकाश रे
*
तूफ़ां-बारिश-जल प्रलय
दोषी मानव का अनय
अकड़ नहीं, अपना विनय
.
अपने करम सुधार रे
लगा पौध-पतवार रे
कर धरती से प्यार रे
***
पुस्तक सलिला
"खेतों ने खत लिखा" गीतिकाव्य के नाम
*�
[पुस्तक विवरण- खेतों ने खत लिखा, गीत-नवगीत, कल्पना रामानी, वर्ष २०१६ ISBN ९७८-८१-७४०८-८६९-७, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार डिमाई, पृष्ठ १०४, मूल्य २००/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली, नई दिल्ली ११००३०, लेखिका संपर्क ६०१/५ हेक्स ब्लॉक, सेक्टर १०, खारघर, नवी मुम्बई ४१०२१०, चलभाष ७४९८८४२०७२, ईमेल kalpanasramani@gmail.com]
*
गीत-नवगीत के मध्य भारत-पकिस्तान की तरह सरहद खींचने पर उतारू और एक को दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के दुष्प्रयास में जुटे समीक्षक समूह की अनदेखी कर मौन भाव से सतत सृजन साधना में निमग्न रहकर अपनी रचनाओं के माध्यम से उत्तर देने में विश्वास रखनेवाली कल्पना रामानी का यह दूसरा गीत-नवगीत संग्रह आद्योपांत प्रकृति और पर्यावरण की व्यथा-कथा कहता है। आवरण पर अंकित धरती के तिमिर को चीरता-उजास बिखेरता आशा-सूर्य और झूमती हुई बालें आश्वस्त करती हैं कि नवगीत प्रकृति और प्रकृतिपुत्र के बीच संवाद स्थापितकर निराश में आशा का संचार कर सकने में समर्थ है। अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में सूर्य की विविध भाव-भंगिमाओं पर ८ तथा नए साल पर ६ रचनाएँ देने के बाद इस संकलन में सूर्य तथा नव वर्ष पर केंद्रित ३-३ रचनाएँ पाकर सुख हुआ। एक ही समय में समान अनुभूतियों से गुजरते दो रचनाकारों की भावसृष्टि में साम्य होते हुए भी अनुभति और अभिव्यक्ति में विविधता स्वाभाविक है। कल्पना जी ने 'शत-शत वंदन सूर्य तुम्हारा', 'सूरज संक्रांति क्रांति से' तथा 'भक्ति-भाव का सूर्य उगा' रचकर तिमिरांतक के प्रति आभार व्यक्त किया है। 'नव वर्ष आया', 'शुभारंभ है नए साल का' तथा 'नए साल की सुबह' में परिवर्तन की मांगल्यवाहकता तथा भविष्य के प्रति नवाशा का संकेत है।
सूरज की संक्रांति क्रांति से / जन-जन नीरज वदन हुआ
*
एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर
नींद से बोला- 'उठो / नव वर्ष आया
कल्पना जी ने अपने प्रथम नवगीत संग्रह से अपने लेखन के प्रति आशा जगाई है।जंगल, हरियाली, बाग़-बगीचे, गुलमोहर, रातरानी, बेल, हरसिंगार, चंपा, बाँस, गुलकनेर, बसन्त, पंछी, कौआ, कोयल, सावन, फागुन, बरखा, मेघ, प्रात, दिन, सन्ध्या, धूप, शीत आदि के माध्यम से गीत-गीत में प्रकृति से साक्षात कराती यह कृति अधिक परिपक्व रचनाएँ समाहित किये है। मौसम के बदलते रंग जन-जीवन को प्रभावित करते हैं-
धड़क उठेंगी फिर से साँसें / ज्यों मौसम बदलेगा चोला
*
देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है
आधी उधड़ी ओढ़ रजाई / खींच-खींचकर नाप रही है
जर्जर गात, कुहासा कथरी / वेध रहा बनकर हथगोला
*
'बेबस कमली' की व्यथा-कथा कल्पना जी की रचना सामर्थ्य की बानगी है। एक दिन बिना नहाये काम पर जाने का दंड उससे काम छुड़ाकर दिया जाता है-
रूठी किस्मत, टूटी हिम्मत / ध्वस्त हुए कमली के ख्वाब
काम गया क्या दे पायेगी / बच्चों को वो सही जवाब?
लातों से अब होगी खिदमत / मुआ मरद है क्रूर / कसाई
*
हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू के कटघरों से मुक्त कल्पना जी कथ्य की आवश्यकतानुसार शब्दों का प्रयोग करती हैं।इन नवगीतों में जलावतन, वृंत, जर्जर, सन्निकट, वृद्धाश्रम, वसन, कन्दरा, आम्र, पीतवर्णी, स्पंदित, उद्घोष, मृदु, श्वेताभ जैसे तत्सम शब्द आखर, बतरस, बतियाते, चौरा, बिसरा, हुरियारों, पैंजन, ठेस, मारग, चौबारे, पुरवाई, अगवानी, सुमरन, जोगन आदि तद्भव शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले हैं तो खत, ज़िंदा, हलक, नज़ारा, आशियां, कारवां, खौफ, रहगुजर, क़ातिल, फ़क़ीर, इनायत, रसूल, खुशबू आदि उर्दू शब्द कोर्ट, डी जे, पास, इंजीनियर, डॉक्टर जैसे अंग्रेजी शब्दों के साथ आँख मिचौली खेल रहे हैं।
कल्पना जी परंपरा का अनुसरण करने के साथ-साथ नव भाषिक प्रयोग कर पाठकों-श्रोताओं का अभिव्यक्ति सामर्थ्य बढ़ाती हैं। सरसों की धड़कन, ओस चाटकर सोई बगिया, लातों से अब होगी खिदमत, मुआ मरद है क्रूर कसाई, ख़ौफ़ ही बेख़ौफ़ होकर अब विचरता जंगलों में, अंजुरी अनन्त की, देव! छोड़ दो अब तो होना / पल में माशा पल में तोला, उनके घर का नमक न खाना, लहरें आँख दिखाएँ तो भी / आँख मिला उन पर पग धरना, 'पल में माशा, पल में तोला' जैसे मुहावरे, 'घड़ा देखकर प्यासा कौआ / चला चोंच में पत्थर लेकर' जैसी बाल कथाएँ, गुणा-भाग, कर्म-कलम, छान-छप्पर, लेख-जोखा, बिगड़ते-बनते, जोड़-तोड़, रूखी-सूखी, हल-बैल-बक्खर, काया-कल्प, उमड़-घुमड़, गिल्ली-डंडा, सुख-दुःख, सूखे-भीगे, चाक-चौबंद, झील-ताल, तिल-गुड़, शिकवे-गिले, दान-पुण्य आदि शब्द युग्म तथा दिनकर दीदे फाड़ रहा, सून सकोरा, सूखी खुरचन, जूते चित्र बनाते आये, जोग न ले अमराई, घने पेड़ का छायाघर, सूरज ने अरजी लौटाई, अमराई को अमिय पिलाओ, घिरे अचानक श्याम घन घने, खोल गाँठें गुत्थियों की, तिल-तिल बढ़ता दिन बंजारा, खेतों ने खत लिखा, पालकी बसन्त की, दिन बसन्ती ख्वाब पाले, रात आई रातरानी ख्वाब पाले, गीत कोकिला गाती रहना, बेला महके कहाँ उगाऊँ हरसिंगार, गुलकनेर यादों में छाया, हमें बुलाते बाग़-बगीचे, धान की फसल पुकारे, कभी न होना धूमिल चंदा जैसे सरस प्रयोग मन में चाशनी सी घोल देते हैं।
'खेतों ने खत लिखा सूर्य को', 'नज़रें नूर बदन नूरानी', 'सर्प सारे सर उठा, अर्ध्य अर्पित अर्चना का', 'कन्दरा से कोकिला का मौन बोला', आदि में अनुप्रास की मोहक छटा यत्र-तत्र दर्शनीय है। 'देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है' में पुनरावृत्ति अलंकार, 'चाट गया जल जलता तापक', 'रात आई रातरानी' आदि में यमक अलंकार, 'कर्म कलम', 'दिन भट्टी' आदि में रूपक अलंकार हैं।
'एक मन्त्र दें वृक्षारोपण' कहते समय यह तथ्य अनदेखा हुआ है कि वृक्ष नहीं, पौधा रोपा जाता है। 'साथ चमकता पथ जब चलता' में तथ्य दोष है क्योंकि पथ नहीं पथिक चलता है। 'उगी पुनः नयी प्रभात' के स्थान पर 'उगा पुनः नया प्रभात' होना था। 'माँ होती हैं जाँ बच्चों की' के सन्दर्भ में स्मरणीय है कि किसी शब्द के अंत में 'न' आने पर एक मात्रा कम करने के लिए उसे पूर्व के दीर्घाक्षर में समाहित कर दीर्घाक्षर पर बिंदी लगाई जाती है। 'जान' के स्थान पर 'जां' होगा 'जाँ' नहीं।
हिंदी के आदि कवि अमीर खुसरो को प्रिय किंतु आजकल अल्प प्रचलित 'मुकरी' विधा की रचनाओं का नवगीत में होना असामान्य है। बेहतर होता कि समतुकांती मुकरियों का प्रयोग अंतरे के रूप में करते हुए कुछ नवगीत रचे जाते। ऐसा प्रयोग रोचक और विचारणीय होता।
नवगीत को लेकर कल्पना जी की संवेदनशीलता कुछ पंक्तियों में व्यक्त हुई है- 'दिनचर्या के गुणा-भाग से / रधिया ने नवगीत रचा', 'रच लो जीवन-गीत, कर्म की / कलम गहो हलधर', 'भाव, भाषा, छंद, रस-लय / साथ सब ये गीत माँगें', 'गीत सलोने बिखरे चारों ओर', 'गर्दिशों के भूलकर शिकवे-गिले / फिर उमंगों के / चलो नवगीत गायें'। नवगीत को सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं, त्रासदियों और टकरावों से उपजे दर्द, पीड़ा और हताश का पर्याय मानने-बतानेवाले साम्यवादी चिन्तन से जुड़े समीक्षकों को नवगीत के सम्बन्ध में कल्पना जी की सोच से असहमति और उनके नवगीतों को स्वीकारने में संकोच हो सकता है किन्तु इन्हीं तत्वों से सराबोर नयी कविता को जनगण द्वारा ठुकराया जाना और इन्हीं प्रगतिवादियों द्वारा गीत के मरण की घोषणा के बाद भी गीत की लोकप्रियता बढ़ती जाना सिद्ध करता है नवगीत के कथ्य और कहन के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे उद्भव कालीं दमघोंटू और सामाजिक बिखरावजनित मान्यताओं से मुक्त कर उत्सवधर्मी नवाशा से संयुक्त किया जाना समय की माँग है। इस संग्रह के गीत-नवगीत यह करने में समर्थ हैं।
'बाँस की कुर्सी', 'पालकी बसन्त की', दिन बसन्ती ख्वाबवाले', 'मन जोगी मत बन', 'कलम गहो हलधर' आदि गीत इस संग्रह की उपलब्धि हैं। सारत:, कल्पना जी के ये गीत अपनी मधुरता, सरसता, सामयिकता, सरलता और पर्यावरणीय चेतना के लिए पसंद किये जाएंगे। इन गीतों में स्थान-स्थान पर सटीक बिम्ब और प्रतीक अन्तर्निहित हैं। 'सर्प सारे सिर उठा चढ़ते गए / दबती रहीं ये सीढ़ियाँ', 'एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर', घने पेड़ के छाया घर में / आये आज शरण में इसकी / ज़ख़्मी जूते भर दुपहर में', दाहक रहे दिन भाटी बन / भून रहे बेख़ता प्राण-मन', 'बनी रहें इनायतें रसूल दानवन्त की / जमीं पे आई व्योम वेध पालकी बसन्त की', 'क्रूर मौसम के किले को तोड़कर फिर / लौट आये दिन बसन्ती ख्वाबवाले' जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक के साथ रह जाती हैं। कल्पना जी के मधुर गीत-नवगीत फिर-फिर पढ़ने की इच्छा शेष रह जाना और अतृप्ति की अनुभूति होना ही इस संग्रह की सफलता है।
***
पुस्तक सलिला
"रिश्ते बने रहें" पाठक से नवगीत के
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*�
[पुस्तक विवरण- रिश्ते बने रहें, गीत-नवगीत, योगेंद्र वर्मा 'व्योम', वर्ष २०१६ ISBN ९७८-९३-८०७५३-३१-७, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार डिमाई, पृष्ठ १०४, मूल्य २००/-, गुंजन प्रकाशन सी १३० हिमगिरि कॉलोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद २४४००१ गीतकार संपर्क- ए एल ४९ सचिन स्वीट्स क्व पीछे, दीनदयाल नगर प्रथम, कांठ रोड मुरादाबाद २४४००१ चलभाष ९४१२८०५९८१ ईमेल vyom70 @gmail.com]
*
समय के साथ सतत होते परिवर्तनों को सामयिक विसंगतियों और सामाजिक विडंबनाओं मात्र तक सीमित न रख, उत्सवधर्मिता और सहकारिता तक विस्तारित कर ईमानदार संवेदनशीलता सहित गति-यतिमय लयात्मत्कता से सुसज्ज कर नवगीत का रूप देनेवाले समर्थ नव हस्ताक्षरों में श्री योगेंद्र वर्मा 'व्योम' भी हैं। उनके लिए नवगीत रचना घर-आँगन की मिट्टी में उगनेवाले रिश्तों की मिठास को पल्लवित-पोषित करने की तरह है। व्योम जी कागज़ पर नवगीत नहीं लिखते, वे देश-काल को महसूसते हुए मन में उठ रहे विचारों साथ यात्राएँ कर अनुभूतियों को शब्दावरण पहना देते हैं और नवगीत हो जाता है।
कुछ यात्राएँ /बाहर हैं /कुछ मन के भीतर हैं
यात्राएँ तो / सब अनंत हैं / बस पड़ाव ही हैं
राह सुगम हो / पथरीली हो / बस तनाव ही हैं
किन्तु नयी आशाओंवाले / ताज़े अवसर हैं
गत सात दशकों से विसंगति और वैषम्यप्रधान विधा मानने की संकीर्ण सोच से हटकर व्योम जी के गीत मन के द्वार पर स्वप्न सजाते हैं, नई बहू के गृहप्रवेश पर बन्दनवार लगाते हैं, आँगन में सूख रही तुलसी की चिंता करते हैं, बच्चे को भविष्य के बारे में बताते हैं, तन के भीतर मन का गाँव बसाते हैं, पुरखों को याद कर ताज़गी अनुभव करते हैं, यही नहीं मोबाइल के युग में खत भी लिखते हैं।
मोबाइल से / बातें तो काफ़ी / हो जाती हैं
लेकिन शब्दों की / खुशबुएँ / कहाँ मिल पाती हैं?
थके-थके से / खट्टे-मीठे / बीते सत्र लिखूँ
कई दिनों से / सोच रहा हूँ , तुमको पत्र लिखूँ
निराशा और हताशा पर नवाशा को वरीयता देते ये नवगीत घुप्प अँधेरे में आशा- किरण जगाते हैं।
इस बच्चे को देखो / यह ही / नवयुग लाएगा
संबंधों में मौन / शिखर पर / बंद हुए संवाद
मौलिकता गुम हुई / कहीं, अब / हावी हैं अनुवाद
घुप्प अँधेरे में / आशा की / किरण जगाएगा
व्योम जी का कवि ज़िंदगी की धूप-छाँव, सुख-दुःख समभाव से देखता है। वे गली में पानी भरने से परेशान नहीं होते, उसका भी आनंद लेते हैं। उन्हें फिसलना-गिरना भी मन भाता है यूँ कहें कि उन्हें जीना आता है।
गली-मुहल्लों की / सड़कों पर / भरा हुआ पानी
चोक नालियों के / संग मिलकर / करता शैतानी
ऐसे में तो / वाहन भी / इतराकर चलते हैं...
... कभी फिसलना / कभी सँभलना / और कभी गिरना
पर कुछ को / अच्छा लगता है / बन जाना हिरना
उतार-चढ़ाव के बावज़ूद जीवन के प्रति यह सकारात्मक दृष्टि नवगीतों का वैशिष्ट्य है।व्योम जी का कवि अंधानुकरण में नहीं परिवर्तन हेतु प्रयासों में विश्वास करता है।
संबंधों सपनों / की सब /परिभाषाएँ बदलीं
तकनीकी युग में / सबकी / अभिलाषाएँ बदलीं
संस्कृति की मीनार / यहाँ पर / अनगिन बार ढही
विवेच्य संकलन के नवगीत विसंगतियों, त्रासदियों और विडंबनाओं की मिट्टी, खाद, पानी से परिवर्तन की उपज उगाते हैं। ये नवगीत काल्पनिक या अतिरेकी अभाव, दर्द, टकराव, शोषण, व्यथा, अश्रु और कराह के लिजलिजेपन से दूर रहकर शांत, सौम्य, मृदुभाषी हैं। वे हलाहल-पान कर अमृत लुटाने की विरासत के राजदूत हैं। उनके नवगीत गगनविहारी नहीं, धरती पर चलते-पलते, बोलते-मुस्काते हैं।
गीतों को / सशरीर बोलते-मुस्काते / देखा है मैंने / तुमने भी देखा?
साधक है वह / सिर्फ न कवि है / एक तपस्वी जैसी छवि है
शांत स्वभाव, / सौम्य मृदुभाषी / मुख पर प्रतिबिंबित ज्यों रवि है
सदा सादगी / संग ताज़गी को / गाते देखा है मैंने / तुमने भी देखा?
राजनैतिक स्वार्थ और वैयक्तिक अहं जनित सामाजिक टकरावों के होते हुए भी ये नवगीत स्नेह-सरसिज उगाने का दुस्साहस कर आर्तनादवादियों को चुनौती देते हैं।
इन विषमता के पलों में / स्वार्थ के इन मरुथलों में
नेह के सरसिज उगायें / हों सुगंधित सब दिशाएँ
भूमिका में श्री माहेश्वर तिवारी ठीक लिखते हैं कि इन नवगीतों की भाषा अपनी वस्तु-चेतना के अनुरूप सहज, सरल और बोधगम्य है। ये नवगीत बतियाहट से भरे हैं। मेरी दृष्टि में व्योम जी रचित ये नवगीत 'मुनिया ने / पीहर में / आना-जाना छोड़ दिया', ' दहशत है अजब सी / आज अपने गाँव में', 'अपठनीय हस्ताक्षर जैसे / कॉलोनी / के लोग', 'जीवन में हम / ग़ज़लों जैसा / होना भूल गए', 'उलझी / वर्ग पहेली जैसा / जीवन का हर पल', 'जीन्स-टॉप में / नई बहू ने / सबको चकित किया', 'संबंधों में मौन / शिखर पर / बंद हुए संवाद', 'गौरैया / अब नहीं दीखती / छतों-मुँडेरों पर', 'सुना आपने? / राजाजी दौरे पर आयेंगे / सुनहरे स्वप्न दिखायेंगे' जैसी विसंगतियों में जीने के बाद भी आम आदमी की आशा-विश्वास के साक्षी बने रह सके हैं। ये गीत नेता, पत्रकार, अधिकारी, मठाधीश या साहित्यकार नहीं माँ और पिता बने रह सके हैं। 'माँ का होना / मतलब दुनिया / भर का होना है' तथा 'याद पिता की / जगा रही है / सपनों में विश्वास'। नवगीत भली भाँति जानते, मानते और बताते हैं 'माँ को खोना / मतलब दुनिया / भर को खोना है' तथा 'जब तक पिता रहे / तब तक ही / घर में रही मिठास'।
अपनी थाती और विरासत के प्रति बढ़ते अविश्वास, सामाजिक टकराव राजनैतिक संकीर्णताओं के वर्तमान संक्रमण काल में व्योम जी के नवगीत सूर्य तरह प्रकाश और चंद्रमा की तरह उजास बिखरते रहें। उनके नवगीतों की आगामी मंजूषा से निकलने वाले नवगीत रत्नों की प्रतीक्षा होना स्वाभाविक है।
२३-८-२०१६
***
चित्र अलंकार :
हिंदी पिंगल ग्रंथों में चित्र अलंकार की चर्चा है जिसमें ध्वज, धनुष, पिरामिड आदि के शब्द चित्र की चर्चा। वर्तमान में इस अलंकार में लिखनेवाले अत्यल्प हैं। मेरा प्रयास ध्वज अलंकार :
भोर हुई
सूरज किरण
झाँक थपकती द्वार।
पुलकित सरगम गा रही
कलरव संग बयार।।
चलो
हम
ध्वज
फहरा
दें।
संग
जय
हिन्द
गुँजा
दें।
***
नवगीत:
*
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
कलम नहीं
पेडों की रहती
कभी पेड़ के साथ.
झाड़ न लेकिन
झुके-झुकाता
रोकर अपना माथ.
आजीवन फल-
फूल लुटाता
कभी न रोके हाथ
गम न करे
न कभी भटकता
थामे प्याला-साकी
मानव! क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
तिनके चुन-चुन
नीड बनाते
लाकर चुग्गा-दाना।
जिन्हें खिलाते
वे उड़ जाते
पंछी तजें न गाना।
आह न भरते
नहीं जानते
दुःख कर अश्रु बहाना
दोष नहीं
विधना को देते,
जियें ज़िंदगी बाकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
जैसा बोये
वैसा काटे
नादां मनुज अकेला
सुख दे, दुःख ले
जिया न जीवन
कह सम्बन्ध झमेला.
सीखा, नहीं सिखाया
पाया, नहीं
लुटाना जाना।
जोड़ा, काम न आया
आखिर छोड़ी
ताका-ताकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
***
याद आ रही है फ़िल्मी गीतों की कुछ पंक्तियाँ जिनका केंद्रीय विषय है आँख या आँख के पर्यायवाची शब्द नैन, नज़र,निगाह आदि. अन्य पाठक इसमें योगदान करें, गैर फ़िल्मी पंक्तियाँ भी दे सकते हैं. रचनाकार का नाम या अन्य जानकारियों का भी स्वागत है.
*
आँख:
भूल सकता है भला कौन ये प्यारी आँखें
रंज में डूबी हुई नींद से भारी आँखें
.
मेरी हर साँस ने, हर आस ने चाहा है तुम्हें
जब से देखा है तुम्हें तब से सराहा है तुम्हें
बस है गयी हैं मेरी आँखों में तुम्हारी आँखें
.
तुम जो नज़रों को उठाओ तो सितारे झुक जाएँ
तुम जो पलकों को झुकाओ तो ज़माने झुक जाएँ
क्यों न बन जाएँ इन आँखों की पुजारी आँखें
.
जागती रात को सपनों का खज़ाना मिल जाए
तुम जो मिल जाओ तो जीने का बहन मिल जाए
अपनी किस्मत पे करें नाज़ हमारी आँखें
***
आँखों-आँखों में बात होने दो
मुझको अपनी बाँहों में सोने दो
*
जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमें
राख के ढेर में शोला है, न चिंगारी है
*
उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता
जिस मुल्क की सरहद की निगहबान हैं आँखें
*
नैन:
सारंगा तेरी याद में नैन हुए बेचैन
मधुर तुम्हारे मिलन बिन दिन तरसेसे नहीं रैन
.
वो अम्बुआ का झूलना, वो पीपल छाँव
घूंघट में जब चाँद था, मेंहदी लगी थी पाँव
आज उजड़ कर रह गया, वो सपनों का गाँव
.
संग तुम्हारे दो घडी, बीत गए दो पल
जल भर कर मेरे नैन में, आज हुए ओझल
सुख लेकर दुःख दे गयीं दो अँखियाँ चंचल
***
हम तुम एक कमरे में बंद हों और चाबी खो जाए
तेरे नैनों की भूल-भुलैयाँ में बॉबी खो जाए
*
नज़र :
जाने कहाँ गए वो दिन कहते थे तेरी याद में
नज़रों को हम बिछायेंगे
चाहे कहीं भी तुम रही, चाहेंगे तुमको उम्र भर
तुमको न भूल पाएंगे
२३-८-२०१५
***
विमर्श- अनावश्यक कुप्रथा: वरमाल या जयमाल???
*
आजकल विवाह के पूर्व वर-वधु बड़ा हार पहनाते हैं। क्यों? इस समय वर के मिटे हुल्लड़ कर उसे उठा लेते हैं ताकि वधु माला न पहना सके। प्रत्युत्तर में वधु पक्ष भी यही प्रक्रिया दोहराता है।
दुष्परिणाम:
वहाँ उपस्थित सज्जन विवाह के समर्थक होते हैं और विवाह की साक्षी देने पधारते हैं तो वे बाधा क्यों उपस्थित करते हैं? इस कुप्रथा के दुपरिणाम देखने में आये हैं, वर या वधु आपाधापी में गिरकर घायल हुए तो रंग में भंग हो गया और चिकित्सा की व्यवस्था करनी पडी। सारा कार्यक्रम गड़बड़ा गया. इस प्रसंग में वधु को उठाते समय उसकी साज-सज्जा और वस्त्र अस्त-व्यस्त हो जाते हैं. कोई असामाजिक या दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति हो तो उसे छेड़-छाड़ का अवसर मिलता है. यह प्रक्रिया धार्मिक, सामाजिक या विधिक (कानूनी) किसी भी दृष्टि से अनिवार्य नहीं है.
औचित्य:
यदि जयमाल के तत्काल बाद वर-वधु में से किसी एक का निधन हो जाए या या किसी विवाद के कारण विवाह न हो सके तो क्या स्थिति होगी? सप्तपदी, सिंदूर दान या वचनों का आदान-प्रदान न हुआ तो क्या केवल माला को अदला-बदली को विवाह माना जाएगा?हिन्दू विवाह अधिनियम ऐसा नहीं मानता।ऐसी स्थिति में वधु को वर की पत्नी के अधिकार और कर्तव्य (चल-अचल संपत्ति पर अधिकार, अनुकम्पा नियुक्ति या पेंशन, वर का दूसरा विवाह हो तो उसकी संतान के पालन-पोषण का अधिकार) नहीं मिलते।सामाजिक रूप से भी उसे अविवाहित माना जाता है, विवाहित नहीं। धार्मिक दृष्टि से भी वरमाल को विवाह की पूर्ति अन्यथा बाद की प्रक्रियाओं का महत्त्व ही नहीं रहता।
कारण:
धर्म, समाज तथा विधि तीनों दृष्टियों से अनावश्यक इस प्रक्रिया का प्रचलन क्यों, कब और कैसे हुआ?
सर्वाधिक लोकप्रिय राम-सीता जयमाल प्रसंग का उल्लेख राम-सीता के जीवनकाल में रचित वाल्मीकि रामायण में नहीं है. रामचरित मानस में तुलसीदास प्रसंग का मनोहारी चित्रण किया है। तभी श्री राम के ३ भाइयों के विवाह सीता जी की ३ बहनों के साथ संपन्न हुए किन्तु उनकी जयमाल का वर्णन नही है।
श्री कृष्ण के काल में द्रौपदी स्वयंवर में ब्राम्हण वेषधारी अर्जुन ने मत्स्य वेध किया। जिसके बाद द्रौपदी ने उन्हें जयमाल पहनायी किन्तु वह ५ पांडवों की पत्नी हुईं अर्थात जयमाल न पहननेवाले अर्जुन के ४ भाई भी द्रौपदी के पति हुए। स्पष्ट है कि जयमाल और विवाह का कोई सम्बन्ध नहीं है। रुक्मिणी का श्रीकृष्ण ने और सुभद्रा का अर्जुन के पूर्व अपहरण कर लिया था। जायमाला कैसी होती?
ऐतिहासिक प्रसंगों में पृथ्वीराज चौहा और संयोगिता का प्रसंग उल्लेखनीय है। पृथ्वीराज चौहान और जयचंद रिश्तेदार होते हुए भी एक दूसरे के शत्रु थे। जयचंद की पुत्री संयोगिता के स्वयंवर के समय पृथ्वीराज द्वारपाल का वेश बनाकर खड़े हो गये। संयोगिता जयमाल लेकर आयी तो आमंत्रित राजाओं को छोड़कर पृथ्वीराज के गले में माल पहना दी और पृथ्वीराज चौहान संयोगिता को लेकर भाग गये। इस प्रसंग से बढ़ी शत्रुता ने जयचंद के हाथों गजनी के मो. गोरी को भारत आक्रमण के लिए प्रेरित कराया, पृथ्वीराज चौहान पराजितकर बंदी बनाये गये, देश गुलाम हुआ।
स्पष्ट है कि जब विवाहेच्छुक राजाओं में से कोई एक अन्य को हराकर अथवा निर्धारित शर्त पूरी कर वधु को जीतता था तभी जयमाल होता था अन्यथा नहीं।
मनमानी व्याख्या:
तुलसी ने राम को मर्यादपुषोत्तम मुग़लों द्वारा उत्साह जगाने के लिए कई प्रसंगों की रचना की। प्रवचन कारों ने प्रमाणिकता का विचार किये बिना उनकी चमत्कारपूर्ण सरस व्याख्याएँ चढ़ोत्री बढ़े। वरमाल तब भी विवाह का अनिवार्य अंग नहीं थी। तब भी केवल वधु ही वर को माला पहनाती थी, वर द्वारा वधु को माला नहीं पहनायी जाती थी। यह प्रचलन रामलीलाओं से प्रारम्भ हुआ। वहां भी सीता की वरमाला को स्वीकारने के लिये उनसे लम्बे राम अपना मस्तक शालीनता के साथ नीचे करते हैं। कोई उन्हें ऊपर नहीं उठाता, न ही वे सर ऊँचा रखकर सीता को उचकाने के लिए विवश करते हैं।
कुप्रथा बंद हो:
जयमाला वधु द्वारा वर डाली जाने के कारण वरमाला कही जाने लगी। रामलीलाओं में जान-मन-रंजन के लिये और सीता को जगजननी बताने के लिये उनके गले में राम द्वारा माला पहनवा दी गयी किन्तु यह धार्मिक रीति न थी, न है। आज के प्रसंग में विचार करें तो विवाह अत्यधिक अपव्ययी और दिखावे के आयोजन हो गए हैं। दोनों पक्ष वर्षों की बचत खर्च कर अथवा क़र्ज़ लेकर यह तड़क-भड़क करते हैं। हार भी कई सौ से कई हजार रुपयों के आते हैं। मंच, उजाला, ध्वनिविस्तारक सैकड़ों कुसियों और शामियाना तथा सैकड़ों चित्र खींचना, वीडियो बनाना आदि पर बड़ी राशि खर्चकर एक माला पहनाई जाना हास्यास्पद नहीं तो और क्या है?
इस कुप्रथा का दूसरा पहलू यह है की लाघग सभी स्थानीयजन तुरंत बाद भोजन कर चले जाते हैं जिससे वे न तो विवाह सम्बन्ध के साक्षी बन पते हैं, न वर-वधु को आशीष दे हैं, न व्धु को मिला स्त्रीधन पाते हैं। उन्हें के २ कारण विवाह का साक्षी बनना तथा विवाह पश्चात नव दम्पति को आशीष देना ही होते हैं। जयमाला के तुरंत बाद चलेजाने पर ये उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाते। अतः, विवेकशीलता की मांग है की जयमाला की कुप्रथा का त्याग किया जाए। नारी समानता के पक्षधर वर द्वारा वधु को जीतने के चिन्ह रूप में जयमाला को कैसे स्वीकार सकते हैं? इसी कारण विवाह पश्चात वार वधु से समानता का व्यवहार न कर उसे अपनी अर्धांगिनी नहीं अनुगामिनी और आज्ञानुवर्ती मानता है। यह प्रथा नारी समानता और नारी सम्मान के विपरीत और अपव्यय है। इसे तत्काल बंद किया जाना उचित होगा।
२३-८-२०१४
***
सामयिक व्यंग्य कविता:
दवा और दाम
*
देव! कभी बीमार न करना...
*
यह दुनिया है विकट पहेली.
बाधाओं की साँस सहेली.
रहती है गंभीर अधिकतर-
कभी-कभी करती अठखेली.
मुश्किल बहुत ज़िंदगी लेकिन-
सहज हुआ जीते जी मरना...
*
मर्ज़ दिए तो दवा बनाई.
माना भेजे डॉक्टर भाई.
यह भी तो मानो हे मौला!
रूपया आज हो गया पाई.
थैले में रुपये ले जाएँ-
दवा पड़े जेबों में भरना...
*
तगड़ी फीस कहाँ से लाऊँ?
कैसे मँहगे टेस्ट कराऊँ??
ओपरेशन फी जान निकले-
ब्रांडेड दवा नहीं खा पाऊँ.
रोग न हो परिवार में कोई-
सबको पड़े रोग से डरना...
२२-८-२०१२
*

मंगलवार, 22 अगस्त 2023

मुक्तिका, नवगीत, मुक्तक, चिरैया, बघेली मुक्तिका, गणपति बब्बा, रक्षाबंधन, सॉनेट

सॉनेट
असमंजस
मैं इधर जाऊँ,
तो सफल होऊँ,
या उधर जाऊँ,
तो विफल होऊँ?

हूँ खड़ा ठिठका,
पंथ ही न पता,
भूल से भटका,
बोलिए न खता।

राह खुद न मिली,
जो कदम न बढ़ा,
न कली ही खिली,
बीज घर न उगा।

छोड़ असमंजस,
यह न जस का तस।
२२-८-२०२३
•••
विशेष आलेख-
रक्षाबंधन : कल, आज और कल
*
भारतीय लोक मनीषा उत्सवधर्मी है। ऋतु परिवर्तन, पवित्र तिथियों-मुहूर्तों, महापुरुषों की जयंतियों आदि प्रसंगों को त्यौहारों के रूप में मनाकर लोक मानस अभाव पर भाव का जयघोष करता है। ग्राम्य प्रथाएँ और परंपराएँ प्रकृति तथा मानव के मध्य स्नेह-सौख्य सेतु स्थापना का कार्य करती हैं। नागरजन अपनी व्यस्तता और समृद्धता के बाद भी लोक मंगल पर्वों से संयुक्त रहे आते हैं। हमारा धार्मिक साहित्य इतिहास, धर्म, दर्शन और सामाजिक मूल्यों का मिश्रण है। विविध कथा प्रसंगों के माध्यम से सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों के नियमन का कार्य पुराणादि ग्रंथ करते हैं। श्रावण माह में त्योहारों की निरंतरता जन-जीवन में उत्साह का संचार करती है। रक्षाबंधन, कजलियाँ और भाईदूज के पर्व भारतीय नैतिक मूल्यों और पावन पारिवारिक संबंधों की अनूठी मिसाल हैं।
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम, झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह, एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह, मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं, भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
(विजया घनाक्षरी)
रक्षा बंधन क्यों ?
स्कंदपुराण, पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत में वामनावतार प्रसंग के अनुसार दानवेन्द्र राजा बलि का अहंकार मिटाकर उसे जनसेवा के सत्पथ पर लाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन रूप धारणकर भिक्षा में ३ पग धरती माँगकर तीन पगों में तीनों लोकों को नाप लिया तथा उसके मस्तक पर चरणस्पर्श कर उसे रसातल भेज दिया। बलि ने भगवान से सदा अपने समक्ष रहने का वर माँगा। नारद के सुझाये अनुसार इस दिन लक्ष्मी जी ने बलि को रक्षासूत्र बाँधकर भाई माना तथा विष्णु जी को वापिस प्राप्त किया।
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का, तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई, हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया, हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ, हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
(कलाधर घनाक्षरी)
भवन विष्णु के छल को पहचान कर असुर गुरु शुक्राचार्य ने शिष्य बलि को सचेत करते हुए वामन को दान न देने के लिए चेताया पर बलि न माना। यह देख शुक्राचार्य सक्षम रूप धारणकर जल कलश की टोंटी में प्रवाह विरुद्ध कर छिप गए ताकि जल के बिना भू दान का संकल्प पूरा न हो सके। इसे विष्णु ने भाँप लिया। उनहोंने कलश की टोंटी में एक सींक घुसेड़ दी जिससे शुक्राचार्य की एक आँख फुट गयी और वे भाग खड़े हुए-
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने, एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली, हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये, शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े, साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
(कलाधर)
भविष्योत्तर पुराण के अनुसार देव-दानव युद्ध में इंद्र की पराजय सन्निकट देख उसकी पत्नी शशिकला (इन्द्राणी) ने तपकर प्राप्त रक्षासूत्र श्रवण पूर्णिमा को इंद्र की कलाई में बाँधकर उसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि वह विजय प्राप्त कर सका।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'मयि सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव' अर्थात जिस प्रकार सूत्र बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर माला के रूप में एक बनाये रखता है उसी तरह रक्षासूत्र लोगों को जोड़े रखता है। प्रसंगानुसार विश्व में जब-जब नैतिक मूल्यों पर संकट आता है भगवान शिव प्रजापिता ब्रम्हा द्वारा पवित्र धागे भेजते हैं जिन्हें बाँधकर बहिने भाइयों को दुःख-पीड़ा से मुक्ति दिलाती हैं। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध में विजय हेतु युधिष्ठिर को सेना सहित रक्षाबंधन पर्व मनाने का निर्देश दिया था।
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी, कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका, बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी, आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें, बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
(कलाधर घनाक्षरी)
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहा जाता है तथा यजुर्वेदी विप्रों का उपकर्म (उत्सर्जन, स्नान, ऋषितर्पण आदि के पश्चात नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।) राजस्थान में रामराखी (लालडोरे पर पीले फुंदने लगा सूत्र) भगवान को, चूड़ाराखी (भाभियों को चूड़ी में) या लांबा (भाई की कलाई में) बाँधने की प्रथा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में बहनें शुभ मुहूर्त में भाई-भाभी को तिलक लगाकर राखी बाँधकर मिठाई खिलाती तथा उपहार प्राप्त कर आशीष देती हैं।महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा कहा जाता है। इस दिन समुद्र, नदी तालाब आदि में स्नान कर जनेऊ बदलकर वरुणदेव को श्रीफल (नारियल) अर्पित किया जाता है। उड़ीसा, तमिलनाडु व् केरल में यह अवनिअवित्तम कहा जाता है। जलस्रोत में स्नानकर यज्ञोपवीत परिवर्तन व ऋषि का तर्पण किया जाता है।
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये, स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें, कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व, निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो, धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
(कलाधर घनाक्षरी)
रक्षा बंधन से जुड़ा हुआ एक ऐतिहासिक प्रसंग भी है। राजस्थान की वीरांगना रानी कर्मावती ने राज्य को यवन शत्रुओं से बचने के लिए मुग़ल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजी थी। राखी पाते ही हुमायूँ ने अपना कार्य छोड़कर बहिन कर्मवती की रक्षा के लिए प्रस्थान किया। विधि की विडंबना यह कि हुमायूँ के पहुँच पाने के पूर्व ही कर्मावती ने जौहर कर लिया, तब हुमायूँ ने कर्मवती के शत्रुओं का नाश किया।
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी, शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी, शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी, बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया, नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
(कलाधर घनाक्षरी )
रक्षा बंधन के दिन बहिन भाई के मस्तक पर कुंकुम, अक्षत के तिलक कर उसके दीर्घायु और समृद्ध होने की कामना करती है। भाई बहिन को स्नेहोपहारों से संतुष्ट कर, उसकी रक्षा करने का वचन देकर उसका आशीष पाता है।
कजलियाँ
कजलियां मुख्‍यरूप से बुंदेलखंड में रक्षाबंधन के दूसरे दिन की जाने वाली एक परंपरा है जिसमें नाग पंचमी के दूसरे दिन खेतों से लाई गई मिट्टी को बर्तनों में भरकर उसमें गेहूं बो दिये जाते हैं और उन गेंहू के बीजों में रक्षाबंंधन के दिन तक गोबर की खाद् और पानी दिया जाता है और देखभाल की जाती है, जब ये गेंहू के छोटे-छोटे पौधे उग आते हैं तो इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इस बार फसल कैसी होगी, गेंहू के इन छोटे-छोटे पौधों को कजलियां कहते हैं। कजलियां वाले दिन घर की लड़कियों द्वारा कजलियां के कोमल पत्‍ते तोडकर घर के पुरूषों के कानों के ऊपर लगाया जाता है, जिससे लिये पुरूषों द्वारा शगुन के तौर पर लड़कियों को रूपये भी दिये जाते हैं। इस पर्व में कजलिया लगाकर लोग एक दूसरे की शुभकामनाये के रूप कामना करते है कि सब लोग कजलिया की तरह खुश और धन धान्य से भरपूर रहे इसी लिए यह पर्व सुख समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
भाई दूज
कजलियों के अगले दिन भाई दूज पर बहिनें गोबर से लोककला की आकृतियाँ बनाती हैं। भटकटैया के काँटों को मूसल से कूट-कूटकर भाई के संकट दूर होने की प्रार्थना करती हैं। नागपंचमी, राखी, कजलियाँ और भाई दूज के पर्व चतुष्टय भारतीय लोकमानस में पारिवारिक संबंधों की पवित्रता और प्रकृति से जुड़ाव के प्रतीक हैं। पाश्चात्य मूल्यों के दुष्प्रभाव के कारण नई पीढ़ी भले ही इनसे कम जुड़ पा रही है पर ग्रामीणजन और पुरानी पीढ़ी इनके महत्व से पूरी तरह परिचित है और आज भी इन त्योहारों को मनाकर नव स्फूर्ति प्राप्त करती है।
***
***
बघेली मुक्तिका
गणपति बब्बा
*
रात-रात भर भजन सुनाएन गणपति बब्बा
मंदिर जाएन, दरसन पाएन गणपति बब्बा
कोरोना राच्छस के मारे, बंदी घर मा
खम्हा-दुअरा लड़ दुबराएन गणपति बब्बा
भूख-गरीबी बेकारी बरखा के मारे
देहरी-चौखट छत बिदराएन गणपति बब्बा
छुटकी पोथी अउर पहाड़ा घोट्टा मारिन
फीस बिना रो नाम कटाएन गणपति बब्बा
एक-दूसरे का मुँह देखि, चुरा रए अँखियाँ
कुठला-कुठली गाल फुलाएन गणपति बब्बा
माटी रांध बनाएन मूरत फूल न बाती
आँसू मोदक भोग लगाएन गणपति बब्बा
चुटकी भर परसाद मिलिस बबुआ मुसकाएन
केतना मीठ सपन दिखराएन गणपति बब्बा
२२-८-२०२०
***
चिरैया!
आ, चहचहा
*
द्वार सूना
टेरता है।
राह तोता
हेरता है।
बाज कपटी
ताक नभ से-
डाल फंदा
घेरता है।
सँभलकर चल
लगा पाए,
ना जमाना
कहकहा।
चिरैया!
आ, चहचहा
*
चिरैया
माँ की निशानी
चिरैया
माँ की कहानी
कह रही
बदले समय में
चिरैया
कर निगहबानी
मनो रमा है
मन हमेशा
याद सिरहाने
तहा
चिरैया!
आ चहचहा
*
तौल री पर
हारना मत।
हौसलों को
मारना मत।
मत ठिठकना,
मत बहकना-
ख्वाब अपने
गाड़ना मत।
ज्योत्सना
सँग महमहा
चिरैया!
आ, चहचहा
२१-८-२०१९
***
नवगीत
*
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
संविधान कर प्रावधान
जो देता, लेता छीन
सर्वशक्ति संपन्न जनता
केवल बेबस-दीन
नाग-साँप-बिच्छू चुनाव लड़
बाँट-फूट डालें
विजयी हों, मिल जन-धन लूटें
जन-गण हो निर्धन
लोकतंत्र का पोस्टर करती
राजनीति बदरंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
आश्वासन दें, जीतें चुनाव, कह
जुमला जाते भूल
कहें गरीबी पर गरीब को
मिटा, करें निर्मूल
खुद की मूरत लगा पहनते,
पहनाते खुद हार
लूट-खसोट करें व्यापारी
अधिकारी बटमार
भीख , पा पुरस्कार
लौटा करते हुड़दंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
*
गौरक्षा का नाम, स्वार्थ ही
साध रहे हैं खूब
कब्ज़ा शिक्षा-संस्थान पर
कर शराब में डूब
दुश्मन के झंडे लहराते
दें सेना को दोष
बिन मेहनत पा सकें न रोटी
तब आएगा होश
जनगण जागे, गलत दिखे जो
करे उसी से जंग
प्रजातंत्र का अर्थ हो गया
केर-बेर का संग
***
मुक्तक
राकेशी चंदनी चाँदनी, बिम्बित हुई सलिल में जब-जब
श्री प्रकाश महिमा सुरेंद्र सँग, निरख गए आकर महेश तब
कुसुम-सुमन की गीत-अंजुरी, पिंगल नाग सुने हर्षाए
बरसाए अमृत धरती पर, गगन-मेघ हँस बलि-बलि जाए
२२-८-२०१६
***
नवगीत:
*
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
कलम नहीं
पेडों की रहती
कभी पेड़ के साथ.
झाड़ न लेकिन
झुके-झुकाता
रोकर अपना माथ.
आजीवन फल-
फूल लुटाता
कभी न रोके हाथ
गम न करे
न कभी भटकता
थामे प्याला-साकी
मानव! क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
तिनके चुन-चुन
नीड बनाते
लाकर चुग्गा-दाना।
जिन्हें खिलाते
वे उड़ जाते
पंछी तजें न गाना।
आह न भरते
नहीं जानते
दुःख कर अश्रु बहाना
दोष नहीं
विधना को देते,
जियें ज़िंदगी बाकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
जैसा बोये
वैसा काटे
नादां मनुज अकेला
सुख दे, दुःख ले
जिया न जीवन
कह सम्बन्ध झमेला.
सीखा, नहीं सिखाया
पाया, नहीं
लुटाना जाना।
जोड़ा, काम न आया
आखिर छोड़ी
ताका-ताकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
***
कविता
*
मात्र कर्म अधिकार है'
बता गये हैं ईश।
मर्म कर्म का चाहकर
बूझ न सके मनीष।
'जब आये संतोष धन
सब धन धूरि समान'
अगर सत्य तो कर्म क्यों
करे कहें इंसान?
कर्म करें तो मिलेगा
निश्चय ही परिणाम।
निष्फल कर्म न वरेगा
कोई भी प्रतिमान।
धर्म कर्म है अगर तो
जो न कर रहे कर्म
जीभर भरते पेट नित
आजीवन बेशर्म
क्यों न उन्हें दंडित करे
धर्म, समाज, विधान?
पूजक, अफसर, सेठ या
नेता दुर्गुणवान।
श्रम उत्पादक हो तभी
देश बने संपन्न।
अनुत्पादक श्रम अगर
होगा देश विपन्न।
जो जितना पैदा करे
खर्च करे कम मीत
तभी जुड़े कुछ, विपद में
उपयोगी हो, रीत।
हर जन हो निष्काम तो
निकल जाएगी जान
रहे सकाम बढ़े तभी
जीवन ले सच मान।
***
मुक्तिका:
*
तन माटी सा, मन सोना हो
नभ चादर, धरा बिछौना हो
साँसों की बहू नवेली का
आसों के वर सँग गौना हो
पछुआ लय, रस पुरवैया हो
मलयानिल छंद सलोना हो
खुशियाँ सरसों फूलें बरसों
मृग गीत, मुक्तिका छौना हो
मधुबन में कवि मन झूम उठे
करतल ध्वनि जादू-टोना हो
२२-८-२०१५
*

सोमवार, 21 अगस्त 2023

मुक्तिका, मुक्तक, दोहा, हाइकु,

दोहा सलिला
मन-मंजूषा जब खिली, यादें बन गुलकंद
मतवाली हो महककर, लुटा रही मकरंद
*
सुमन सुमन उपहार पा, प्रभु को नमन हजार
सुरभि बिखेरें हम 'सलिल ', दस दिश रहे बहार
*
जिससे मिलकर हर्ष हो, उससे मिलना नित्य
सुख न मिले तो सुमिरिए, प्रभु को वही अनित्य
*
मुक्तक:
मिलीं मंगल कामनाएँ, मन सुवासित हो रहा है।
शब्द, चित्रों में समाहित, शुभ सुवाचित हो रहा है।।
गले मिल, ले बाँह में भर, नयन ने नयना मिलाए-
अधर भी पीछे कहाँ, पल-पल सुहासित हो रहा है।।
***
चिंतन :
पादुका को शीश पर धर, चले त्रेता में भरत थे.
पादुका बिन जानकी को, त्यागने राघव त्वरित थे.
आज ने पाई विरासत, कर रहा निर्वाह बेबस-
सार्थक हों यदि किताबें, समादृत होंगी तभी बस .
सिर्फ लिखने के लिए, मत लिखें थोडा मर्म भी हो.
व्यर्थ कागज़ हो न जाया, सोच सार्थक कर्म भी हो.
***
जिसने सपने में देखा, उसने ही पाया
जिसने पाया, स्वप्न मानकर तुरत भुलाया
भुला रहा जो याद उसी को फिर-फिर आया
आया बाँहों-चाहों में जो वह मन-भाया
***
मुक्तिका:
जागे बहुत, चलो अब सोएँ
किसका कितना रोना रोएँ?
नेता-अफसर माखन खाएँ
आम आदमी दही बिलोएँ
पाये-जोड़े की तज चिंता
जो पाया, दे कर खुद खोएँ
शासन चाहे बने भिखारी
हम-तुम केवल साँसें ढोएँ
रहे विपक्ष न शेष देश में
फूल रौंदकर काँटे बोएँ
सत्ता करे देश को गंदा
जनगण केवल मैला धोएँ
***
षट्पदी-
कर-भार
चाहा रहें स्वतंत्र पर, अधिकाधिक परतंत्र
बना रहा शासन हमें, छीन मुक्ति का यंत्र
रक्तबीज बन चूसते, कर जनता का खून
गला घोंटते निरन्तर, नए-नए कानून
राहत का वादा करें, लाद-लाद कर-भार
हे भगवान्! बचाइए, कम हो अत्याचार
***
कठिन-सरल
'क ख ग' भी लगा था, प्रथम कठिन लो मान.
बार-बार अभ्यास से, कठिन हुआ आसान
कठिन-सरल कुछ भी नहीं, कम-ज्यादा अभ्यास
मानव मन को कराता, है मिथ्या आभास.
भाषा मन की बात को, करती है प्रत्यक्ष
अक्षर जुड़कर शब्द हों, पाठक बनते दक्ष
***
चतुष्पदी
फूल चित्र दे फूल मन, बना रहा है fool.
स्नेह-सुरभि बिन धूल है, या हर नाता शूल
स्नेह सुवासित सुमन से, सुमन कहे चिर सत्य
जिया-जिया में पिया है, पिया जिया ने सत्य
***
मुक्तिका
बेटी
*
बेटी दे आशीष, आयु बढ़ती है
विधि निज लेखा मिटा, नया गढ़ती है
*
सचमुच है सौभाग्य बेटियाँ पाना-
आस पुस्तकें, श्वास मौन पढ़ती है.
*
कभी नहीं वह रुकती,थकती, चुकती
चुक जाते सोपान अथक चढ़ती है
*
पथ भटके तो नाक कुलों की कटती
काली लहू खलों का पी कढ़ती है
*
असफलता का फ्रेम बनाकर गुपचुप
चित्र सफलता का सुन्दर मढ़ती है
21-8-2017
***
हाइकु
*
जो जमाये हो
धरती पर पैर
उसी की खैर।
*
भू पर पैर
हाथ में आसमान
कोई न गैर।
*
गह ले थाह
तब नदी में कूद
जी भर तैर
*
सब अपने
हैं प्रभु की सृष्टि में
पाल न बैर
*
भुला चिंता
नित्य सबेरे-शाम
कर ले सैर
***
बाल गीत
खेलें खेल
*
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
मैं दौडूँगा इंजिन बनकर
रहें बीच में डब्बे बच्चे
गार्ड रहेगा सबसे पीछे
आपस में रखना है मेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
सीटी बजी भागना हमको
आपस में बतियाना मत
कोई उतर नहीं पायेगा
जब तक खड़ी न होगी रेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
यह बंगाली गीत सुनाये
उसे माहिया गाना है
तिरक्कुरल, आल्हा, कजरी सुन
कोई करे न ठेलमठेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
खेल कबड्डी, हॉकी, कैरम
मुक्केबाजी, तैराकी
जायेंगे हम भी ओलंपिक
पदक जितने,क्यों हों फेल?
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
योगासन, व्यायाम करेंगे
अनुशासित करना व्यवहार
पौधे लगा, स्वच्छता रख हम
दूध पियें,खाएंगे भेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
***
मुक्तिका
*
रखें पुराना भी सहेजकर, आवश्यक नूतन वर लें
अब तक रहते आये भू पर, अब मंगल को घर कर लें
*
किया अमंगल कण-कण का लेकिन फिर भी मन भरा नहीं
पंचामृत तज, देसी पौआ पियें कण्ठ तर कर, तर लें
*
कण्ठ हलाहल धारण कर ले भले, भला हो सब जग का
अश्रु पोंछकर क्रंदन के, कलरव-कलकल से निज स्वर लें
*
कल से कल को मिले विरासत कल की, कोशिश यही करें
दास न कल का हो यह मानव, 'सलिल' लक्ष्य अपने सर लें
*
सर करना है समर न अवसर बार-बार सम्मुख होगा
क्यों न पुराने और नए में सही समन्वय हम कर लें
***
*राम की बहन शांता*
अंगदेश के राजा रोमपाद और उनकी रानी वर्षिणी थे वर्षिणी कौशल्या की बहन थी। उनके कोई संतान नहीं थी। राजा दशरथ ने अपनी पुत्री शांता को उन्हेंदे दिया. शांता अंगदेश की राजकुमारी बन गईं। शांता वेद, कला तथा शिल्प में पारंगत थीं और वे अत्यधिक सुंदर भी थीं। उनका विवाह ऋषि श्रुंग से हुआ . इन्हीं ऋषि श्रुंग ( जो कि दशरथ के दामाद थे) ने पुत्रेष्ठी यज्ञ करवाया जिससे राम और उनके भाइयों का जन्म हुआ . राम अपनी बहन शांता से कभी नहीं मिले. आधुनिक काल के काव्य को छोड़कर सभी प्राचीन रामायण ने इन सन्दर्भों पर मौन हैं . कहा जाता है कि सेंगर राजपूत इन्ही शांता देवी और ऋषि श्रुंग के वंशज हैं....
***
*भाषाविद तुलसी *.
तुलसीदास जी ने अपने सम्पूर्ण काव्य में 90 हज़ार ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो संस्कृत मूल के हैं और बोली के रूप में तैयार किये गए हैं . दूसरी तरफ 40 हज़ार ऐसे शब्द हैं जो देशज प्रकृति के हैं . एक शोधार्थी ने यह रोचक आंकडा प्रस्तुत किया है. मैंने कहीं यह भी पढ़ा है कि आंग्ल भाषा में सबसे अधिक शब्दों का प्रयोग करने वाले शेक्सपियर भी तुलसी के निकट हैं . यूं देखा जाए तो आचार्य भवभूति शब्द संयोजना में सबसे आगे हैं और उनके बाद आचार्य केशवदास ...
21-8-2016
***
मुक्तक:
संजीव
*
अहमियत न बात को जहाँ मिले
भेंट गले दिल-कली नहीं खिले
'सलिल' वहां व्यर्थ नहीं जाइए
बंद हों जहाँ ह्रदय-नज़र किले
*
'चाँद सा' जब कहा, वो खफा हो गये
चाँदनी थे, तपिश दुपहरी हो गये
नेह निर्झर नहीं, हैं चट्टानें वहाँ
'मैं न वैसी' कहा औ' जुदा हो गये
*
मुक्तिका:
*
नज़र मुझसे मिलाती हो, अदा उसको दिखाती हो
निकट मुझको बुलाती हो, गले उसको लगाती हो
यहाँ आँखें चुराती हो, वहाँ आँखें मिलाती हो
लुटातीं जान उस पर, मुझको दीवाना बनाती हो
हसीं सपने दिखाती हो, तुरत हँसकर भुलाती हो
पसीने में नहाता मैं, इतर में तुम नहाती हो
जबाँ मुझसे मुखातिब पर निग़ाहों में बसा है वो
मेरी निंदिया चुराती, ख़्वाब में उसको बसाती हो
अदा दिलकश दिखा कर लूट लेती हो मुझे जानम
सदा अपना बतातीं पर नहीं अपना बनाती हो
न इज़हारे मुहब्बत याद रहता है कभी तुमको
कभी तारे दिखाती हो, कभी ठेंगा दिखाती हो
वज़न बढ़ना मुनासिब नहीं कह दुबला दिया मुझको
न बाकी जेब में कौड़ी, कमाई सब उड़ाती हो
कलेजे से लगाकर पोट, लेतीं वोट फिर गायब
मेरी जाने तमन्ना नज़र तुम सालों न आती हो
सियासत लोग कहते हैं सगी होती नहीं संभलो
बदल बैनर, लगा नारे मुझे मुझसे चुराती हो
सखावत कर, अदावत कर क़यामत कर रही बरपा
किसी भी पार्टी में हो नहीं वादा निभाती हो
२१-८-२०१४
*

शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

सॉनेट, कशमकश, शुद्धगीता, छंद, कहमुकरी, सरसी कुण्डलिया, मुक्तक, गीता,

सॉनेट 
वाह कहूँ या आह करूँ? 
मन-मंथन कर लिया चित्र का, 
दृश्य-अदृश्य शब्द माला में, 
गूंँथ कार्य कर दिया मित्र का। 

शब्द सटीक तलब, लब चुनकर, 
धूम्रपान की हानि बताई, 
कथ्य सही क्रम में विकसित कर, 
सार दो पदी में ले आई। 

सहज सज गया है मुहावरा, 
'छाती फूँक' न सब जन जागो, 
सीख जरूरी, सबक है खरा, 
अब मत रोगों को अनुरागो। 

नीलम सॉनेट समझ रही है। 
कली मोगरा महक रही है।। 
१८-८-२०२३
 •••
सॉनेट
कशमकश
जागती हैं कामनाएँ,
नहीं वश में हृदय रहता,
हम नयन कैसे मिलाएँ?,
मन विकल अनकहा कहता।

धड़कनें सुन, दिल धड़कता,
परस पारस कहे पा रस,
नयन बायाँ झट फड़कता?,
लब अबोले गा रहा जस।

मुँह फिराए वक्ष से लग,
राज मन में है छिपाए,
जाए तो उठते नहीं पग,
रुके तो साजन लुभाए।

कशमकश प्रिय जान ना ले।
कशमकश प्रिय! जान ना ले।।
१७-८-२०२३
***
मुकरी /कहमुकरी
*
अंतर्मन में चित्र गुप्त है
अभी दिख रहा, अभी लुप्त है
कुछ पहचाना, कुछ अनजान
क्या सखि साजन?, नहिं भगवान
*
मन मंदिर में बैठा आकर
कहीं नहीं जाता वह जाकर
उसकी दम से रहे बहार
क्या सखि ईश्वर?, ना सखि प्यार
*
है समर्थ पर कष्ट न हरती
पल में निर्भय, पल में डरती
मनमानी करती हर बार
मितवा सजनी?, नहिं सरकार
*
जब आता तब आग लगाता
इसे लड़ाता, उसे भिड़ाता
होने देता नहीं निभाई
भाग्यविधाता?, नहीं चुनाव
*
देख आप हर कर जुड़ जाता
बिना कहे मस्तक झुक जाता
भूल व्यथा, हो हर मन चंगा
देव?, नहीं है ध्वजा तिरंगा
*
दैया! लगता सबको भय
कोई रह न सके निर्भय
कैद करे मानो कर टोना
सखी! सिपैया, नहिं कोरोना
*
जो पाता सो सुख से सोता
हाय हाय कर चैन न खोता
जिसे न मिलता करता रोष
है सखि रुपया, नहिं संतोष
*
माया पाती तनिक न मोह
पास न फटके गुस्सा-द्रोह
राजा है या संत विशेष
सुन सखि! सूरज, ना मिथिलेश
*
जन प्रिय मोह न पाता काम
अभिवादन है जिसका नाम
भक्तों का भय पल में लें हर
प्रिय! मधुसूदन?, नहिं शिवशंकर
*
पल में सखि री! चित्त चुराता
अनजाने मन में बस जाता
नयन बंद तो भी दे दर्शन
सखि! साजन?, नहिं कृष्ण सुदर्शन
*
काम करे निष्काम रात-दिन
रक्षा कर, सुख भी दे अनगिन
फिर भी रहती सदा विनीता
सजनी?, ना ना नदी पुनीता
*
इसको उससे जोड़ मिलाए
शीत-घाम हँस सहता जाए
सब पग धरते निज हित हेतु
क्या सखि धरती?, ना सखि सेतु
*
वह आए रौनक आ जाती
जाए ज्यों जीवन ले जाती
आँख मिचौली खेले उजली
क्या प्रिय सजनी?, ना सखि बिजली
*
भर देता मन में आनंद
फूल खिला बिखरा मकरंद
सबको सुखकर जैसे संत
क्या सखि!साजन? नहीं बसंत
18-8-2020
***
पाठ १०४
नव प्रयोग: शुद्धगीता छंद
*
छंद सलिला सतत प्रवहित, मीत अवगाहन करें।
शारदा का भारती सँग, विहँस आराधन करें।।
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार।
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।
*
लक्षण:
१. ४ पंक्ति।
२. प्रति पंक्ति २७ मात्रा।
३. १४-१३ मात्राओं पर यति।
४. हर पंक्ति के अंत में गुरु-लघु मात्रा।
५. हर २ पंक्ति में सम तुकांत।
लक्षण छंद:
शुद्धगीता छंद रचना, सत्य कहना कवि न भूल।
सम प्रशंसा या कि निंदा, फूल दे जग या कि शूल।।
कला चौदह संग तेरह, रहें गुरु-लघु ही पदांत।
गगनचुंबी गिरे बरगद, दूब सह तूफ़ान शांत।।
उदाहरण:
कौन है किसका सगा कह, साथ जो देता न छोड़?
गैर क्यों मानें उसे जो, साथ लेता बोल होड़।।
दे चुनौती, शक्ति तेरी बढ़ाता है वह सदैव।
आलसी तू हो न पाए, गर्व की तज दे कुटैव।।
***
हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल
*
मुक्तक
ढाले- दिल को छेदकर तीरे-नज़र जब चुभ गयी,
सांस तो चलती रही पर ज़िन्दगी ही रुक गयी।
तरकशे-अरमान में शर-हौसले भी कम न थे -
मिल गयी ज्यों ही नज़र से नज़र त्यों ही झुक गयी।।
***
छंद सलिला: पहले एक पसेरी पढ़ / फिर तोला लिख...
छंद सलिला सतत प्रवाहित, मीत अवगाहन करें
शारदा का भारती सँग, विहँस आराधन करें
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार
*
पाठ १०२
नव प्रयोग: सरसी कुण्डलिया
*
कुंडलिया छंद (एक दोहा + एक रोला, दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण, दोहारम्भ के अक्षर, शब्द, शब्द समूह या पंक्ति रोला के अंत में) और्सर्सी छंद (१६-११, पदांत गुरु-लघु) से हम पूर्व परिचित हो चुके हैं. इन दोनों के सम्मिलन से सरसी कुण्डलिया बनता है. इसमें कुछ लक्षण कुण्डलिया के (६ पंक्तियाँ, चतुर्थ चरण का पंचम चरण के रूप में दुहराव, आरंभ के अक्षर, शब्दांश, शब्द ता चरण का अंत में दुहराव) तथा कुछ लक्षण सरसी के (प्रति पंक्ति २७ मात्रा, १६-११ पर यति, पदांत गुरु-लघु) हैं. ऐसे प्रयोग तभी करें जब मूल दोनों छंद साध चुके हों.
लक्षण:
१. ६ पंक्ति.
२. प्रति पंक्ति २७ मात्रा.
३. पहली दो पंक्ति १६-११ मात्राओं पर यति, बाद की ४ पंक्ति ११-१६ पर यति.
४. पंक्ति के अंत में गुरु-लघु मात्रा.
५. चतुर्थ चरण का पंचम चरण के रूप में दुहराव.
६. छंदारंभ के अक्षर, शब्दांश, शब्द, या शब्द समूह का छंदात में दुहराव.
उदाहरण:
भारत के जन गण की भाषा, हिंदी बोलें आप.
बने विश्ववाणी हिंदी ही, मानव-मन में व्याप.
मानव मन में व्याप, भारती दिल से दिल दे जोड़.
क्षेत्र न पाए नाप, आसमां कितनी भी ले होड़.
कहता कवी 'संजीव', दिलों में बढ़े हमेशा प्यार.
हो न नेह निर्जीव, न नाते कभी बनेंगे भार.
***
हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल
18-8-2017
***
दोहा मुक्तिका-
*
साक्षी साक्षी दे रही, मत हो देश उदास
जीत बनाती है सदा, एक नया इतिहास
*
कर्माकर ने दिखाया, बाकी अभी उजास
हिम्मत मत हारें करें, जुटकर सतत प्रयास
*
जीत-हार से हो भले, जय-जय या उपहास
खेल खिलाड़ी के लिए, हर कोशिश है खास
*
खेल-भावना ही हरे, दर्शक मन की प्यास
हॉकी-शूटिंग-आर्चरी, खेलो हो बिंदास
*
कहाँ जाएगी जीत यह?, कल आएगी पास
नित्य करो अभ्यास जुट, मन में लिए हुलास
*
निराधार आलोचना, भूल करो अभ्यास
सुन कर कर दो अनसुना, मन में रख विश्वास
*
मरुथल में भी आ सके, निश्चय ही मधुमास
आलोचक हों प्रशंसक, डिगे न यदि विश्वास
***
मुक्तक
ढाले- दिल को छेदकर तीरे-नज़र जब चुभ गयी,
सांस तो चलती रही पर ज़िन्दगी ही रुक गयी।
तरकशे-अरमान में शर-हौसले भी कम न थे -
मिल गयी ज्यों ही नज़र से नज़र त्यों ही झुक गयी।।
18-8-2016
***
अध्याय १
कुरुक्षेत्र और अर्जुन
कड़ी ४.
*
कुरुक्षेत्र की तपोभूमि में
योद्धाओं का विपुल समूह
तप्त खून के प्यासे वे सब
बना रहे थे रच-रच व्यूह
*
उनमें थे वीर धनुर्धर अर्जुन
ले मन में भीषण अवसाद
भरा ह्रदय ले खड़े हुए थे
आँखों में था अतुल विषाद
*
जहाँ-जहाँ वह दृष्टि डालता
परिचित ही उसको दिखते
कहीं स्वजन थे, कहीं मित्र थे
कहीं पूज्य उसको मिलते
*
कौरव दल था खड़ा सामने
पीछे पाण्डव पक्ष सघन
रक्त एक ही था दोनों में
एक वंश -कुल था चेतन
*
वीर विरक्त समान खड़ा था
दोनों दल के मध्य विचित्र
रह-रह जिनकी युद्ध-पिपासा
खींच रही विपदा के चित्र
*
माँस-पेशियाँ फड़क रही थीं
उफ़न रहा था क्रोध सशक्त
संग्रहीत साहस जीवन का
बना रहा था युद्धासक्त
*
लड़ने की प्रवृत्ति अंतस की
अनुभावों में सिमट रही
झूल विचारों के संग प्रतिपल
रौद्र रूप धर लिपट रही
*
रथ पर जो अनुरक्त युद्ध में
उतर धरातल पर आया
युद्ध-गीत के तेज स्वरों में
ज्यों अवरोह उतर आया
*
जो गाण्डीव हाथ की शोभा
टिका हुआ हुआ था अब रथ में
न्योता महानाश का देकर-
योद्धा था चुप विस्मय में
*
बाण चूमकर प्रत्यञ्चा को
शत्रु-दलन को थे उद्यत
पर तुरीण में ही व्याकुल हो
पीड़ा से थे अब अवनत
*
और आत्मा से अर्जुन की
निकल रही थी आर्त पुकार
सकल शिराएँ रण-लालायित
करती क्यों विरक्ति संचार?
*
यौवन का उन्माद, शांति की
अंगुलि थाम कर थका-चुका
कुरुक्षेत्र से हट जाने का
बोध किलकता छिपा-लुका
*
दुविधा की इस मन: भूमि पर
नहीं युद्ध की थी राई
उधर कूप था गहरा अतिशय
इधर भयानक थी खाई
*
अरे! विचार युद्ध के आश्रय
जग झुलसा देने वाले
स्वयं पंगु बन गये देखकर
महानाश के मतवाले
*
तुम्हीं क्रोध के प्रथम जनक हो
तुम में वह पलता-हँसता
वही क्रिया का लेकर संबल
जग को त्रस्त सदा करता
*
तुम्हीं व्यक्ति को शत्रु मानते
तुम्हीं किसी को मित्र महान
तुमने अर्थ दिया है जग को
जग का तुम्हीं लिखो अवसान
*
अरे! कहो क्यों मूल वृत्ति पर
आधारित विष खोल रहे
तुम्हीं जघन्य पाप के प्रेरक
क्यों विपत्तियाँ तौल रहे?
*
अरे! दृश्य दुश्मन का तुममें
विप्लव गहन मचा देता
सुदृढ़ सूत्र देकर विनाश का
सोया क्रोध जगा देता
*
तुम्हीं व्यक्ति को खल में परिणित
करते-युद्ध रचा देते
तुम्हीं धरा के सब मनुजों को
मिटा उसे निर्जन करते
*
तुम मानस में प्रथम उपल बन
लिखते महानाश का काव्य
नस-नस को देकर नव ऊर्जा
करते युद्ध सतत संभाव्य
*
अमर मरण हो जाता तुमसे
मृत्यु गरल बनती
तुम्हीं पतन के अंक सँजोकर
भाग्य विचित्र यहाँ लिखतीं
*
तुम्हीं पाप की ओर व्यक्ति को
ले जाकर ढकेल देते
तुम्हीं जुटा उत्थान व्यक्ति का
जग को विस्मित कर देते
*
तुम निर्णायक शक्ति विकट हो
तुम्हीं करो संहार यहाँ
तुम्हीं सृजन की प्रथम किरण बन
रच सकती हो स्वर्ग यहाँ
*
विजय-पराजय, जीत-हार का
बोध व्यक्ति को तुमसे है
आच्छादित अनवरत लालसा-
आसक्तियाँ तुम्हीं से हैं
*
तुम्हीं प्रेरणा हो तृष्णा की
सुख पर उपल-वृष्टि बनते
जीवन मृग-मरीचिका सम बन
व्यक्ति सृष्टि अपनी वरते
*
अरे! शून्य में भी चंचल तुम
गतिमय अंतर्मन करते
शांत न पल भर मन रह पाता
तुम सदैव नर्तन करते
*
दौड़-धूप करते पल-पल तुम
तुम्हीं सुप्त मन के श्रृंगार
तुम्हीं स्वप्न को जीवन देते
तुम्हीं धरा पर हो भंगार
*
भू पर तेरी ही हलचल है
शब्द-शब्द बस शब्द यहाँ
भाषण. संभाषण, गायन में
मुखर मात्र हैं शब्द जहाँ
*
अवसरवादी अरे! बदलते
क्षण न लगे तुमको मन में
जो विनाश का शंख फूँकता
वही शांति भरता मन में
*
खाल ओढ़कर तुम्हीं धरा पर
नित्य नवीन रूप धरते
नये कलेवर से तुम जग की
पल-पल समरसता हरते
*
तुम्हीं कुंडली मारे विषधर
दंश न अपना तुम मारो
वंश समूल नष्ट करने का
रक्त अब तुम संचारो
*
जिस कक्षा में घूम रहे तुम
वहीँ शांति के बीज छिपे
अंधकार के हट जाने पर
दिखते जलते दिये दिपे
*
दावानल तुम ध्वस्त कर रहे
जग-अरण्य की सुषमा को
तुम्हीं शांति का चीर-हरण कर
नग्न बनाते मानव को
*
रोदन जन की है निरीहता
अगर न कुछ सुन सके यहाँ
तुम विक्षिप्त , क्रूर, पागल से
जीवन भर फिर चले यहाँ
*
अरे! तिक्त, कड़वे, हठवादी
मृत्यु समीप बुलाते क्यों?
मानवहीन सृष्टि करने को
स्वयं मौत सहलाते क्यों?
*
गीत 'काम' के गाकर तुमने
मानव शिशु को बहलाया
और भूख की बातचीत की
बाढ़ बहाकर नहलाया
*
सदा युद्ध की विकट प्यास ने
छला, पतिततम हमें किया
संचय की उद्दाम वासना, से
हमने जग लूट लिया
*
क्रूर विकट घातकतम भय ने
विगत शोक में सिक्त किया
वर्तमान कर जड़ चिंता में
आगत कंपन लिप्त किया
*
लूट!लूट! तुम्हारा नाम 'राज्य' है
औ' अनीति का धन-संचय
निम्न कर्म ही करते आये
धन-बल-वैभव का संचय
*
रावण की सोने की लंका
वैभव हँसता था जिसमें
अट्हास आश्रित था बल पर
रोम-रोम तामस उसमें
*
सात्विक वृत्ति लिये निर्मल
साकेत धाम अति सरल यहाँ
ऋद्धि-सिद्धि संयुक्त सतत वह
अमृतमय था गरल कहाँ?
*
स्वेच्छाचारी अभय विचरते
मानव रहते हैं निर्द्वंद
दैव मनुज दानव का मन में
सदा छिड़ा रहता है द्वंद
*
सुनो, अपहरण में ही तुमने
अपना शौर्य सँवारा है
शोषण के वीभत्स जाल को
बुना, सतत विस्तारा है
*
बंद करो मिथ्या नारा
जग के उद्धारक मात्र तुम्हीं
उद्घोषित कर मीठी बातें
मूर्ख बनाते हमें तुम्हीं
*
व्यक्ति स्वयं है अपना नेता
अन्य कोई बन सकता
अपना भाग्य बनाना खुद को
अन्य कहाँ कुछ दे सकता?
*
अंतर्मन की शत शंकाएँ
अर्जुन सम करतीं विचलित
धर्मभूमि के कर्मयुद्ध का
प्रेरक होता है विगलित
*
फिर निराश होता थक जाता
हार सहज शुभ सुखद लगे
उच्च लक्ष्य परित्याग, सरलतम
जीवन खुद को सफल लगे
*
दुविधाओं के भंवरजाल में
डूब-डूब वह जाता है
क्या करना है सोच न पाता
खड़ा, ठगा पछताता है

18-8-2015

***

रोचक चर्चा:
अगले २० वर्षों में मिटने-टूटनेवाले देश
साभार : https://youtu.be/1vP3Ju7J4gk
यू ट्यूब के उक्त अध्ययन के अनुसार अगले २० वर्षों में दुनिया के निम्न देशों के सामने मिटने या टूटने का गंभीर खतरा है.
१. स्पेन: केटेलेनिआ तथा बास्क क्षेत्रों में स्वतंत्रता की सबल होती मांग से २ देशों में विभाजन.
२. उत्तर कोरिआ: न्यून संसाधनों के कारण दमनकारी शासन के समक्ष आत्मनिर्भरता की नीति छोड़ने की मजबूरी, शेष देशों से जुड़ते ही परिवर्तन और दोनों कोरिया एक होने की मान के प्रबल होने के आसार.
३. बेल्जियम: वालोनिआ तथा फ्लेंडर्स में विभाजन की लगातार बढ़ती मांग.
४. चीन: प्रदूषित होता पर्यावरण, जल की घटती मात्र, २०३० तक चीन उपलब्ध जल समाप्त कर लेगा। प्रांतों में विभाजन की माँग।
५. इराक़: सुन्नी, कुर्द तथा शीट्स बहुल ३ देशों में विभाजन की माँग.
६. लीबिया: ट्रिपोलिटेनिआ, फैजान तथा सायरेनीका में विभाजन
७. इस्लामिक स्टेट: तुर्किस्तान, सीरिया, सऊदी अरब, ईरान, तथा इराक उसके क्षेत्र को आपस में बांटने के लिये प्रयासरत।
८. यूनाइटेड किंगडम: स्कॉट, वेल्स तथा उत्तर आयरलैंड में स्वतंत्र होने के पक्ष में जनमत।
९. यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका: ५० प्रांतों का संघ, अलास्का तथा टेक्सास में स्वतंत्र होने की बढ़ती माँग।
१०. मालदीव: समुद्र में डूब जाने का भीषण खतरा।
११. पाकिस्तान: पंजाब, सिंध तथा बलूचों में अलग होने की मांग.
१२. श्री लंका: तमिलों तथा सिंहलियों में सतत संघर्ष।
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ओशो का अंतिम प्रवचन

ओशो का अंतिम प्रवचन :
"सम्मासति"
10 अप्रैल 1989
बुद्धा सभागार
ओशो आश्रम, पुणे
भारत।
अपने अंतिम प्रवचन में भगवान् श्री ने कहा-
"परम्परावादी झेन का मार्ग रहित मार्ग बहुत कठिन या दुरूह है।20-30 वर्षों तक, घर परिवार छोड़कर मठ में गुरु के सानिध्य में निरंतर ध्यान करते रहना और सभी स्थानों से अपनी उर्जा हटाकर केवल ध्यान में लगाना बहुत मुश्किल है। यह परम्परा गौतम बुद्ध से प्रारम्भ हुई जो बारह वर्ष तक निरंतर कठोर तप करते रहे और एक दिन सब छोडकर परम विश्राम में लेट गये और घटना घट गई। पर आज के युग में न तो किसी के पास इतना धैर्य और समय है और न सुविधा।
मैं इस परम्परा को पूर्णतया बदल रहा हूं। इसी परम्परा के कारण झेन चीन से समाप्त हुआ और अब वह जापान से समाप्त हो रहा है। इसका प्रारम्भ गौतम बुद्ध द्वारा महाकाश्यप को कमल का फूल देने से हुआ था जब उन्होंने मौन की संपदा का महाकाश्यप को हस्तांतरण किया था। बुद्ध के 500 वर्षों बाद तक यह परम्परा भारत में रही। फिर भारत में इस सम्पदा के लेवनहार न होने से बोधिधर्म इसे चीन ले गया। भारत से चीन, चीन से जापान और अब इस परम्परा को अपने नूतन स्वरुप में मैं फिर जापान से भारत ले आया हूं।
जापान के झेन सदगुरु पत्र लिखकर मुझे बताते हैं कि जापान में बढ़ती वैज्ञानिक प्रगति और टेक्नोलोजी से झेन जापान से मिट रहा है और वह झेन मठों में मेरी प्रवचन पुस्तकों से शिष्यों को शिक्षा दे रहें हैं। यही स्थिति भारत में भी है।
यह परम्परा तभी जीवित रह सकती है जब यह सरल, सहज और विश्राम पूर्ण हो। यह उबाऊ न होकर उत्सवपूर्ण हो। यह वर्षों की साधना न होकर समझ विकसित होते ही कम समय ले।
जब उर्जा अंदर जाती है तो वही उर्जा विचारों, भावों और अनुभवों में रूपांतरित हो जाती है। जब वही उर्जा बाहर गतिशील होती है तो वह व्यक्तियों से, वस्तुओं से या प्रकृति से संबंध जोड़ती है। अब एक तीसरी स्थिति भी है कि उर्जा न अंदर जाये और न बाहर, वह नाड़ियों में धड़कती हुई अस्तित्व से एकाकार हो जाये।
पूरे समाज का यही मानना है कि उर्जा खोपड़ी में गतिशील है, पर झेन कहता है कि खोपड़ी से निकल कर अपने हारा केंद्र पर पहुंचो। वह तुम्हारा ही नहीं पूरे अस्तित्व का केंद्र है। वहां पहुंचकर अंदर और बाहर का आकाश एक हो जाता है, जहां तुम स्वतंत्रता से मुक्ताकाश में पंखों को थिर किये चील की भांति उड़ते हो। झेन का अर्थ है- इसी केंद्र पर थिर होकर पहुंचना। यह प्रयास से नहीं, यह होता है परम विश्रामपूर्ण स्थिति में।
सबसे पहले शांत बैठकर अपने अंदर सरक जाओ। अपनी खोपड़ी के अंदर समस्त उर्जा को भृकुटी या त्रिनेत्र पर ले आओ। गहन भाव करो कि सिर की सारी उर्जा भुकुटि पर आ गई है। थोड़ी ही देर में भृकुटी पर उर्जा के संवेदनों को महसूस करोगे।फिर गहन भाव करते हुये इस उर्जा को हृदय की ओर ले आओ। हृदय चक्र पर तुम्हें जब उर्जा के स्पंदनों का अनुभव होने लगे तो समग्रता से केंद्र की ओर गतिशील करना है। पर यह बिंदु बहुत नाज़ुक है। हृदय चक्र से उर्जा से सीधे सहस्त्रधार की ओर फिर से वापस लौट सकती है। पर गहन भाव से तुम्हें अपनी गहराई में उतरना है। अपने केंद्र तक अपनी समग्र उर्जा को लाये बिना उसे जानने का अन्य कोई उपाय नहीं।
'हू मंत्र की चोट से, सूफी नृत्य के बाद नाभि के बल लेटकर, चक्रा ब्रीदिंग, चक्रा साउंड अथवा मिस्टिक रोज़ ध्यान से जिनका हारा चक्र सक्रिय हो गया है, वह गहन भाव करते ही स्वयं समस्त उर्जा को अपनी ओर खीँच लेते हैं। मैं इसीलिये पिछले एक वर्ष से प्रवचन के बाद तुम्हें सरदार गुरुदयाल सिंह के जोक्स सुनाकर ठहाके लगाने को विवश करता हूं, जिससे तुम्हारा हारा चक्र सक्रिय हो। उसके द्वारा नो माइंड ध्यान द्वारा मैं तुम्हें निर्विचार में ले जाता रहा हूं जिससे विचारों भावों में लगी उर्जा रूपांतरित होकर नाड़ियों में गतिशील हो जाये।"
इतना कहकर भगवान् श्री कुछ देर के लिये मौन में चले गये। बोलते-बोलते उनके अचानक मौन हो जाने से, सभी संन्यासी भी प्रस्तर प्रतिमा की भांति अपनी दो श्वांसों के अन्तराल में थिर हो गये। उन्होंने ओशो से यही सीखा था कि दो शब्दों या आती जाती श्वांस के अंतराल में थिर हो जाना ही मौन में गहरे सरक जाना है, जहाँ विचार और भाव सभी विलीन हो जाते हैं। इस गहन मौन में ओशो उस अमूल्य संपदा को अपने शिष्यों को हस्तांतरित कर रहे थे जिसे शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करने का कोई उपाय नहीं।पर यह अमूल्य सम्पदा केवल थोड़े से ही संन्यासी ही ग्रहण कर सके जो मौन की भाषा समझने लगे थे।
कुछ मिनट बाद भगवान् ने काफी देर से थिर पलकों को झपकाया। उनके हाथों की मुद्रा परवर्तित हुई। उनके होठ हिले।
उन्होंने कहा-" सम्मासति "
"स्मरण करो। तुम भी एक बुद्ध हो।"

गुरुवार, 17 अगस्त 2023

संजीव वर्मा 'सलिल'


आप अपनी जानकारी आज ही भेज दीजिए---
1-नाम : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
2-पिता का नाम : स्मृतिशेष राजबहादुर वर्मा, पूर्व जेल अधीक्षक। 
3 -माता का नाम : स्मृतिशेष शांति देवी वर्मा, कवयित्री।
3 a - जीवन संगिनी : डॉ. साधना वर्मा, पूर्व प्राध्यापक अर्थशास्त्र।   
4-जन्म दिनांक : 20 अगस्त 1952। 
5-जन्म स्थान : मंडला, मध्य प्रदेश। 
6-प्रेरणाश्रोत : बुआश्री महियासी महादेवी वर्मा। 
7-दायित्व : पूर्व संभागीय परियोजना अभियंता लोक निर्माण विभाग, सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर, संचालक समन्वय प्रकाशन जबलपुर, चेयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर । पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महासभा,  पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व मण्डल अध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, पूर्व संपादक चित्राशीष कायस्थ पत्रिका, पूर्व महामंत्री प्रादेशिक चित्रगुपर महासभा मध्य प्रदेश। 
8-किन क्षेत्रों में कार्यरत हैं/समाज/देश आदि : साहित्य सृजन, छंद शिक्षण, समाज सेवा, पर्यावरण सुधार, तकनीकी क्षेत्र में हिंदी का उपयोग, हिंदी से रोजगार, प्रेरक व्याख्यान, चित्रगुप्त जी व कायस्थों पर शोध आदि।  
9-कोई उल्लेखनीय उपलब्धि-
1. 500 से अधिक नये छंदों का आविष्कार। 
2. प्रति दिन लाखों बच्चों द्वारा सरस्वती वंदना 'हे हँसवाहिनी ज्ञानदायिनी अंब! विमल मति दे' का सभी सरस्वती शिशु मंदिरों में गायन। 
3. 85 पुस्तकों में भूमिका लेखन। 
4. 350 पुस्तकों की समीक्षा। 
5. 12 पुस्तकें प्रकाशित ।
6.  जीवन परिचय प्रकाशित 7 साहित्यकार कोश।
7.  इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी में तकनीकी लेख 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ को द्वितीय श्रेष्ठ - तकनीकी प्रपत्र पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति द्वारा।
8.  9 बोलिओं में रचना।  
9. 75 सरस्वती वंदना लेखन ।  
10. 51 चित्रगुप्त भजन लेखन।
11. विशेष: विश्व रिकॉर्ड - विविध अभियंता संस्थाओं द्वारा जबलपुर में भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की ९ मूर्तियों की स्थापना कराई।
12 ट्रू मिडिया पत्रिका द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित।
13.  'सलिल : एक साहित्यिक निर्झर' व्यक्तित्व-कृतित्व पर पुस्तक, लेखिका मनोरमा 'पाखी'।
14. हिंदी सोनेट लेखन सिखाकर 32 सॉनेटकारों के 321 सॉनेटों का साझा संकलन प्रकाशित किया- विश्व रिकॉर्ड। 
15. इंडिया बुक ऑफ रिकार्ड में "भारत को जाने" एक अद्वितीय ग्रंथ लेखन में सहभागिता।
16. 300 से अधिक सम्मान, 12 प्रांतों की संस्थाओं द्वारा।