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गुरुवार, 17 अगस्त 2023

कुंडलिया, मुक्तक, षडपदिक सवैया, सरसी छंद, लघुकथा, राखी गीत, गीता गायन

कुंडलिया छंद :

रावण लीला देख
*
लीला कहीं न राम की, रावण लीला देख.
मनमोहन है कुकर्मी, यह सच करना लेख..
यह सच करना लेख काटेगा इसका पत्ता.
सरक रही है इसके हाथों से अब सत्ता..
कहे 'सलिल' कविराय कफन में ठोंको कीला.
कभी न कोई फिर कर पाये रावण लीला..
*
खरी-खरी बातें करें, करें खरे व्यवहार.
जो कपटी कोंगरेस है,उसको दीजे हार..
उसको दीजै हार सबक बाकी दल लें लें.
सत्ता पाकर जन अधिकारों से मत खेलें..
कुचले जो जनता को वह सरकार है मरी.
'सलिल' नहीं लाचार बात करता है खरी.
*
फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.
शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..
हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.
जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..
कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर.
नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
१७-८-२०२१
***
दोहा सलिला
श्री-प्रकाश पाकर बने, तमस चन्द्र सा दिव्य.
नहीं खासियत तिमिर की, श्री-प्रकाश ही भव्य ..
*
आशा-आकांक्षा लिये, सबकी जीवन-डोर.
'सलिल' न अब तक पा सका, कहाँ ओर या छोर.
*
मुक्तक :
अधरों पर सोहे मुस्कान
नित गाओ कोयल सम गान
हर बाधा पर विजयी हो -
शीश उठा रह सीना तान
*
मन की पीड़ा को शब्दों ने जब-जब भी गाया है
नूर खुदाई उनमें बरबस उतर-उतर आया है
करा कीर्तन सलिल रूप का, लीन हुआ सुध खोकर
संगत-रंगत में सपना साकार हुआ पाया है
*
कुसुम वीर हो, भ्रमर बहादुर, कली पराक्रमशाली
सोशल डिस्टेंसिंग पौधों में रखता है हर माली
गमछे-चुनरी से मुँह ढँककर, होंगी अजय बहारें-
हाथ थाम दिनकर का ऊषा, तम हर दे खुशहाली
१७-८-२०२०
***
नवप्रयोग
षडपदिक सवैया
*
पौ फटी नीलांबरी नभ, मेघ मल्लों को बुलाता, दामिनी की छवि दिखा, दंगल कराता।
होश खोते जोश से भर, टूट पड़ते, दाँव चलते, पटक उठते मल्ल कोई जय न पाता।
स्वेद धारा प्रवह धरती को भिगोती, ऊगते अंकुर नए शत, नर सृजन दुंदुभि बजाता।
दामिनी जल पतित होती, मेघ रो आँसू बहाता, कुछ न पाता।
पवन सनन सनन बहता, सत्य कहता मत लड़ो, मिलकर रचे कुछ नित नया जो कीर्ति पाता।
गरजकर आतंक की जो राह चलता, कुछ न पाता, सब गँवाता, हार कहता बहुत निष्ठुर है विधाता।
*
संजीव
१७-८-२०१९, मथुरा
बी ३-५२ संपर्क क्रांति एक्सप्रेस
***
छंद सलिला: पहले एक पसेरी पढ़ / फिर तोला लिख...
छंद सलिला सतत प्रवाहित, मीत अवगाहन करें
शारदा का भारती सँग, विहँस आराधन करें
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार
*
पाठ १०१
सरसी छंद
*
लक्षण:
१. ४ पंक्ति.
२. प्रति पंक्ति २७ मात्रा.
३. १६-११ मात्राओं पर यति.
४. पंक्ति के अंत में गुरु-लघु मात्रा.
५. दो-दो पंक्ति में सम तुकांत.
लक्षण छंद:
सरसी सोलह-ग्यारह रखिए मात्रा, गुरु-लघु अंत.
नित्य करें अभ्यास सधे तब, कहते कविजन-संत.
कथ्य भाव रस अलंकार छवि, बिंब-प्रतीक मनोहर.
काव्य-कामिनी जन-मन मोहे, रचना बने धरोहर.
*
उदाहरण:
पशु-पक्षी,कृमि-कीट करें सुन, निज भाषा में बात.
हैं गुलाम मानव-मन जो पर-भाषा बोलें तात.
माँ से ज्यादा चाची-मामी,'सलिल' न करतीं प्यार.
माँ-चरणों में स्वर्ग, करो सेवा तो हो उद्धार.
***
हिंदी आटा माढ़िये, देशज मोयन डाल
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल
१७-८-२०१७
***
लघुकथा-
टूटती शाखें
*
नुक्कड़ पर खड़े बरगद की तरह बब्बा भी साल-दर-साल होते बदलावों को देखकर मौन रह जाते थे। परिवार में खटकते चार बर्तन अब पहले की तरह एक नहीं रह पा रहे थे। कटोरियों को थाली से आज़ादी चाहिए थी तो लोटे को बाल्टी की बन्दिशें अस्वीकार्य थीं। फिर भी बरसों से होली-दिवाली मिल-जुलकर मनाई जा रही थी।

राजनीति के राजमार्ग के रास्ते गाँव में घुसपैठ कर चुके शहर ने टाट पट्टियों पर बैठकर पढ़ते बच्चे-बच्चियों को ऐसा लुभाया कि सुनहरे कल के सपनों को साकार करने के लिए अपनों को छोड़कर, शहर पहुँच कर छात्रावासों के पिंजरों में कैद हो गए।

कुछ साल बाद कुछ सफलता के मद में और शेष असफलता की शर्म से गाँव से मुँह छिपाकर जीने लगे। कभी कोई आता-जाता गाँववाला किसी से टकरा जाता तो 'राम राम दुआ सलाम' करते हुए समाचार देता तो समाचार न मिलने को कुशल मानने के आदी हो चुके बब्बा घबरा जाते। ये समाचार नए फूल खिलने के कम ही होते थे जबकि चाहे जब खबरें बनती रहती थीं गुल खिलानेवाली हरकतें और टूटती शाखें।
***
मुक्तक
अधरों पर सोहे मुस्कान
नित गाओ कोयल सम गान
हर बाधा पर विजयी हो -
शीश उठा रह सीना तान

१७-८-२०१६

***

राखी गीत
*
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बंधनों से मुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
कभी अबला रही बहिना
बने सबला अब प्रखर हो
तोड़ देना वह कलाई
जो अचाहे राह रोके
काट लेना जुबां जो
फिकरे कसे या तुझे टोंके
सासरे जा, मायके से
टूट मत, संयुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
बंधनों से मुक्त हो जा
बलि न तेरे हौसलों को
रीति वामन कर सके अब
इरादों को बाँध राखी
तू सफलता वर सके अब
बाँध रक्षा सूत्र तू ही
ज़िंदगी को ज़िंदगी दे
हो समर्थ-सुयोग्य तब ही
समय तुझको बन्दगी दे
स्वप्न हर साकार करने
कोशिशों के बीज बो जा
नयी फसलें उगाना है
बंधनों से मुक्त हो जा
पूज्य बन जा राम राखी
तुझे बाँधेगा जमाना
सहायक हो बँधा लांबा
घरों में रिश्ते जिलाना
वस्त्र-श्रीफल कर समर्पित
उसे जो सब योग्य दिखता
अवनि की हर विपद हर ले
शक्ति-वंदन विश्व करता
कसर कोई हो न बाकी
दाग-धब्बे दिखे धो जा
शिथिल कर दे नेह-नाते
बंधनों से मुक्त हो जा
१५ अगस्त २०१६
***

गीता गायन

अध्याय १
पूर्वाभास
कड़ी ३.
*
अभ्यास सद्गुणों का नित कर
जीवन मणि-मुक्ता सम शुचि हो
विश्वासमयी साधना सतत
कर तप: क्षेत्र जगती-तल हो
*
हर मन सौंदर्य-उपासक है
हैं सत्य-प्रेम के सब भिक्षुक
सबमें शिवत्व जगता रहता
सब स्वर्ग-सुखों के हैं इच्छुक
*
वे माता वहाँ धन्य होतीं
होती पृथ्वी वह पुण्यमयी
होता पवित्र परिवार व्ही
होती कृतार्थ है वही मही
*
गोदी में किलक-किलक
चेतना विहँसती है रहती
खो स्वयं परम परमात्मा में
आनंद जलधि में जो बहती
*
हो भले भिन्न व्याख्या इसकी
हर युग के नयन उसी पर थे
जो शक्ति सृष्टि के पूर्व व्याप्त
उससे मिलने सब आतुर थे
*
हम नेत्र-रोग से पीड़ित हो
कब तप:क्षेत्र यह देख सके?
जब तक जीवित वे दोष सभी
तब तक कैसा कब लेख सके?
*
संसार नया तब लगता है
संपूर्ण प्रकृति बनती नवीन
हम आप बदलते जाते हैं
हो जाते उसमें आप लीन
*
परमात्मा की इच्छानुसार
जीवन-नौका जब चलती है
तब नये कलेवर के मानव
में, केवल शुचिता पलती है
*
फिर शोक-मुक्त जग होता है
मिलता है उसको नया रूप
बनकर पृथ्वी तब तप:क्षेत्र
परिवर्तित करती निज स्वरूप
*
जीवन प्रफुल्ल बन जाता है
भौतिक समृद्धि जुड़ जाती है
आत्मिक उत्थान लक्ष्य लेकर
जब धर्म-शक्ति मुड़ जाती है
*
है युद्ध मात्र प्रतिशोध बुद्धि
जिसमें हर क्षण बढ़ता
दो तत्वों के संघर्षण में
अविचल विकास क्रम वह गढ़ता
*
कुत्सित कर्मों का जनक यहाँ
अविवेक भयानकतम दुर्मुख
जिससे करना संघर्ष, व्यक्ति का
बन जाता है कर्म प्रमुख
*
कर्मों का गुप्त चित्र अंकित
हो पल-पल मिटता कभी नहीं
कर्मों का फल दें चित्रगुप्त
सब ज्ञात कभी कुछ छिपे नहीं
*
यह तप:क्षेत्र है कुरुक्षेत्र
जिसमें अनुशासन व्याप्त सकल
जिसका निर्णायक परमात्मा
जिसमें है दण्ड-विधान प्रबल
*
बन विष्णु सृष्टि का करता है
निर्माण अनवरत वह पल-पल
शंकर स्वरूप में वह सत्ता
संहार-वृष्टि करता छल-छल
*
'मैं हूँ, मेरा है, हमीं रहें,
ये अहंकार के पुत्र व्यक्त
कल्मष जिसका आधार बना
है लोभ-स्वार्थ भी पूर्व अव्यक्त
*
कुत्सित तत्वों से रिक्त-मुक्त
जस को करना ही अनुशासन
संपूर्ण विश्व निर्मल करने
जुट जाएँ प्रगति के सब साधन
*
कौरव-पांडव दो मूर्तिमंत
हैं रूप विरोधी गतियों के
ले प्रथम रसातल जाती है
दूसरी स्वर्ग को सदियों से
*
आत्मिक विकास में साधक जो
पांडव सत्ता वह ऊर्ध्वमुखी
माया में लिपट विकट उलझी
कौरव सत्ता है अधोमुखी
*
जो दनुज भरोसा वे करते
रथ, अश्वों, शासन, बल, धन का
पर मानव को विश्वास अटल
परमेश्वर के अनुशासन का
*
संघर्ष करें अभिलाषा यह
मानव को करती है प्रेरित
दुर्बुद्धि प्रबल लालसा बने
हो स्वार्थवृत्ति हावी उन्मत
*
हम नहीं जानते 'हम क्या हैं?
क्या हैं अपने ये स्वजन-मित्र?
क्या रूप वास्तविक है जग का
क्या मर्म लिये ये प्रकृति-चित्र?
*
अपनी आँखों में मोह लिये
हम आजीवन चलते रहते
भौतिक सुख की मृगतृष्णा में
पल-पल खुद को छलते रहते
*
जग उठते हममें लोभ-मोह
हबर जाता मन में स्वार्थ हीन
संघर्ष भाव अपने मन का
दुविधा-विषाद बन करे दीन
*
भौतिक सुख की दुर्दशा देख
होता विस्मृत उदात्त जीवन
हो ध्वस्त न जाए वह क्षण में
हम त्वरित त्यागते संघर्षण
*
अर्जुन का विषाद
सुन शंख, तुमुल ध्वनि, चीत्कार
मनमें विषाद भर जाता है
हो जाते खड़े रोंगटे तब
मन विभ्रम में चकराता है
*
हो जाता शिथिल समूचा तन
फिर रोम-रोम जलने लगता
बल-अस्त्र पराये गैर बनकर डँसते
मन युद्ध-भूमि तजने लगता
*
जिनका कल्याण साधना ही
अब तक है रहा ध्येय मेरा
संहार उन्हीं का कैसे-कब
दे सके श्रेय मुझको मेरा?
*
यह परंपरागत नैतिकता
यह समाजगत रीति-नीति
ये स्वजन, मित्र, परिजन सारे
मिट जाएँगे प्रतीक
*
हैं शत्रु हमारे मानव ही
जो पिता-पितामह के स्वरूप
उनका अपना है ध्येय अलग
उनकी आशा के विविध रूप
*
उनके पापों के प्रतिफल में
हम पाप स्वयं यदि करते हैं
तो स्वयं लोभ से हो अंधे
हम मात्र स्वार्थ ही वरते हैं
*
हम नहीं चाहते मिट जाएँ
जग के संकल्प और अनुभव
संतुलन बिगड़ जाने से ही
मिटते कुलधर्म और वैभव
*
फिर करुणा, दया, पुण्य जग में
हो जाएँगे जब अर्थहीन
जिनका अनुगमन विजय करती
होकर प्रशस्ति में धर्मलीन
*
मैं नहीं चाहता युद्ध करूँ
हो भले राज्य सब लोकों का
अपशकुन अनेक हुए देखो
है खान युद्ध दुःख-शोकों का
*
चिंतना हमारी ऐसी ही
ले डूब शोक में जाती है
किस हेतु मिला है जन्म हमें
किस ओर हमें ले जाती है?
*
जीवन पाया है लघु हमने
लघुतम सुख-दुःख का समय रहा
है माँग धरा की अति विस्तृत
सुरसा आकांक्षा रही महा
*
कितना भी श्रम हम करें यहाँ
अभिलाषाएँ अनेक लेकर
शत रूप हमें धरना होंगे
नैया विवेचना की खेकर
*
सीधा-सदा है सरल मार्ग
सामान्य बुद्धि यह कहती है
कर लें व्यवहार नियंत्रित हम
सर्वत्र शांति ही फलती है
*
ज्यों-ज्यों धोया कल्मष हमने
त्यों-त्यों विकीर्ण वह हुआ यहाँ
हम एक पाप धोने आते
कर पाप अनेकों चले यहाँ
*
प्राकृतिक कार्य-कारण का जग
इससे अनभिज्ञ यहाँ जो भी
मानव-मन उसको भँवर जाल
कब समझ सका उसको वह भी
*
है जनक समस्याओं का वह
उससे ही जटिलतायें प्रसूत
जानना उसे है अति दुष्कर
जो जान सका वह है सपूत
*
अधिकांश हमारा विश्लेषण
होता है अतिशय तर्कहीन
अधिकांश हमारी आशाएँ
हैं स्वार्थपूर्ण पर धर्महीन
*
जो मुक्ति नहीं दे सकती हैं
जीवन की किन्हीं दशाओं में
जब तक जकड़े हम रहे फँसे
है सुख मरीचिका जीवन में
*
लगता जैसे है नहीं कोई
मेरा अपना इस दुनिया में
न पिता-पुत्र मेरे अपने
न भाई-बहिन हैं दुनिया में
*
उत्पीड़न की कैसी झाँकी
घन अंधकार उसका नायक
चिंता-संदेह व्याप्त सबमें
एकाकीपन जिसका गायक
*
जब भी होता संघर्ष यहाँ
हम पहुँच किनारे रुक जाते
साहस का संबल छोड़, थकित
भ्रम-संशय में हम फँस जाते
१७-८-२०१५
***

बुधवार, 16 अगस्त 2023

लाल बहादुर शास्त्री

लाल बहादुर शास्त्री
*
2 अक्टूबर को महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के साथ पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) का भी जन्मदिन होता है. लेकिन लोग गांधी जयंती (Gandhi Jayanti) के सामने शास्त्री जयंती (Shastri Jayanti) अक्सर भूल जाते हैं. एक सच ये भी है कि भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपना प्रोफाइल हमेशा लो रखा. वो ईमानदार, विनम्र और हमेशा धीमे बोलने वाले नेता रहे. उन्होंने बिना शोर शराबा किए देश के निर्माण में योगदान दिया. लो प्रोफाइल व्यक्तित्व रखने की वजह से भी लोग उनकी जयंती याद नहीं रख पाते.

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय शहर में हुआ. शास्त्री जी का जन्म एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम शारदा प्रसाद श्रीवास्तव था. वो एक स्कूल में टीचर थे, बाद में उन्होंने इलाहाबाद के राजस्व विभाग में क्लर्क की नौकरी कर ली.

लाल बहादुर वर्मा को कैसे मिला शास्त्री का टाइटल?

लाल बहादुर शास्त्री के बचपन का नाम लाल बहादुर वर्मा था. कायस्थ परिवार में श्रीवास्तव और वर्मा सरनेम लगाने की परंपरा रही है. इसी के चलते मां-बाप ने उनका नाम लाल बहादुर वर्मा रखा. लाल बहादुर वर्मा के लाल बहादुर शास्त्री बनने की दिलचस्प कहानी है.

लाल बहादुर बचपन से ही पढ़ने-लिखने में काफी तेज थे. 1906 में जब लाल बहादुर की उम्र सिर्फ एक साल और 6 महीने थी, उनके सिर से पिता का साया उठ गया. वो अपनी मां रामदुलारी देवी के साथ अपने ननिहाल मुगलसराय आ गए. शास्त्री जी पढ़ाई लिखाई अपने ननिहाल में हुई.

उनके नाना मुंशी हजारी लाल मुगलसराय के एक सरकारी स्कूल में अंग्रेजी के टीचर थे. 1908 में लाल बहादुर के नाना हजारी लाल का भी निधन हो गया. इसके बाद उनके परिवार की देखभाल हजारीलाल के भाई दरबारी लाल और उनके बेटे बिंदेश्वरी प्रसाद ने की. बिंदेश्वरी प्रसाद भी मुगलसराय के एक स्कूल में टीचर थे.

बचपन में एक मौलवी से ली उर्दू की तालीम

लाल बहादुर की पढ़ाई लिखाई 4 साल की उम्र से शुरू हुई. उस वक्त कायस्थ परिवारों में अंग्रेजी से ज्यादा उर्दू भाषा की शिक्षा देने की परंपरा थी. ऐसा इसलिए था क्योंकि मुगलकाल से भारत में राजकाज की भाषा उर्दू ही हुआ करती थी. जमींदारी के सारे काम-काज उर्दू में होते थे. लाल बहादुर को बुड्ढन मियां नाम के एक मौलवी ने उर्दू की तालीम देनी शुरू की.

छठी क्लास तक उनकी पढाई-लिखाई मुगलसराय में ही हुई. उसके बाद बिंदेश्वरी प्रसाद का ट्रांसफर वाराणसी हो गया. लाल बहादुर को अपनी मां और भाइयों के साथ वाराणसी जाना पड़ा. वाराणसी के हरीश चंद्र हाईस्कूल में सातवीं क्लास में उनका दाखिला हुआ. यही वो वक्त था जब लाल बहादुर ने अपना सरनेम वर्मा छोड़ने का फैसला लिया.

लाल बहादुर के परिवार का स्वतंत्रता आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं था. लेकिन हरीश चंद्र हाई स्कूल का माहौल बड़ा देशभक्तिपूर्ण था. वहां के टीचर निष्कामेश्वर मिश्रा बच्चों को देशभक्ति का पाठ पढ़ाते. लाल बहादुर पर इन सबका बड़ा असर पड़ा. वो स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित हुए.

10वीं क्लास में स्कूल छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े

जनवरी 1921 में जब लाल बहादुर 10वीं क्लास में थे, उन्होंने वाराणसी में महात्मा गांधी और मदन मोहन मालवीय के एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया. वो गांधीजी से इतने प्रभावित हुए कि दूसरे ही दिन स्कूल छोड़कर स्थानीय कांग्रेस दफ्तर में जाकर पार्टी की सदस्यता ले ली. इस तरह लाल बहादुर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े. जल्द ही अंग्रेजी हुकूमत ने गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. बाद में उनकी कम उम्र को देखते हुए उन्हें रिहा कर दिया गया.

विदेश दौरे पर लाल बहादुर शास्त्री की तस्वीर

उस वक्त लाल बहादुर को गाइड करने वाले जेबी कृपलानी हुआ करते थे. जेबी कृपलानी महात्मा गांधी के करीबी नेताओं में से थे. वाराणसी में युवाओं की पढ़ाई-लिखाई को ध्यान में रखते हुए कृपलानी ने अपने मित्र वीएन शर्मा की मदद से राष्ट्रवादी शिक्षा देने की तैयारी शुरू की. स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस पार्टी की आर्थिक मदद देने के लिए मशहूर धनाढ्य शिव प्रसाद गुप्ता ने इस दिशा में काफी मदद की.

उनकी मदद से महात्मा गांधी ने वाराणसी में 10 फरवरी 1921 को काशी विद्यापीठ की स्थापना की. इसका मकसद स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े युवाओं को राष्ट्रवादी शिक्षा देना था. लाल बहादुर ने काशी विद्यापीठ में एडमिशन लिया. यहां से उन्होंने नैतिक और दर्शन शास्त्र में 1925 में ग्रैजुएशन की डिग्री ली.

लाल बहादुर को 'शास्त्री' का टाइटल मिला. काशी विद्यापीठ में ग्रैजुएट डिग्री के बतौर शास्त्री टाइटल मिलता था. इसी के बाद लाल बहादुर ने अपने नाम से लगा वर्मा टाइटल हटाकर शास्त्री टाइटल जोड़ लिया. इसके बाद लाल बहादुर वर्मा, लाल बहादुर शास्त्री के नाम से मशहूर हुए.


जब शास्त्रीजी ने अपने बेटे का प्रमोशन रुकवाया

लाल बहादुर शास्त्री की वजह से भारत में सफेद और हरित क्रांति आई. वो हरित आंदोलन से इस कदर जुड़े हुए थे कि अपने आवास के लॉन में उन्होंने खेती-बाड़ी शुरू कर दी थी. वो देश के सामने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते थे. इसलिए वो किसानों को हरित क्रांति से जोड़ने के लिए खुद अपने लॉन में कृषि कार्य किया करते थे.
लाल बहादुर शास्त्री अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर थे. उन्होंने अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक कमिटी बनाई थी. करप्शन से जुड़े सवाल पर उन्होंने अपने बेटे तक को नहीं बख्शा. एक बार उन्हें पता चला कि उनके बेटे को गलत तरीके से प्रमोशन मिल रहा है. उन्होंने अपने बेटे की प्रमोशन रुकवा दी.

शास्त्रीजी की विनम्रता के कायल थे लोग

लाल बहादुर शास्त्री की विनम्रता के लोग कायल थे. उनके साथ प्रेस एडवाइजर के तौर पर काम करने वाले मशहूर पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने उनके बारे में एक दिलचस्प किस्सा सुनाया. कुलदीप नैय्यर ने बताया कि शास्त्री जी इतने विनम्र थे कि जब भी उनके खाते में तनख्वाह आती, वो उन्हें लेकर गन्ने का जूस बेचने वाले के पास जाते. शास्त्री जी शान से कहते- आज जेब भरी हुई है. फिर दोनों गन्ने का जूस पीते.

शास्त्री जी अपनी तनख्वाह का अच्छा खासा हिस्सा सामाजिक भलाई और गांधीवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में खर्च किया करते थे. इसलिए अक्सर उन्हें घर की जरूरतों के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ता था. घर का बजट बड़ा संतुलित रखना पड़ता था.

जब शास्त्रीजी ने पीएनबी बैंक से लिया कार लोन

शास्त्री जी के लोन लेकर कार खरीदने का किस्सा बड़ा मशहूर है. लाल बहादुर ईमानदारी और सादगीभरा जीवन व्यतीत करते थे. दूसरे सामाजिक कार्यों में पैसे खर्च करने के वजह से अक्सर उनके घर पैसों की किल्लत रहा करती थी. उनके प्रधानमंत्री बनने तक उनके पास खुद का घर तो क्या एक कार भी नहीं थी. ऐसे में उनके बच्चे उन्हें कहते थे कि प्रधानमंत्री बनने के बाद आपके पास एक कार तो होनी चाहिए. घरवालों के कहने पर शास्त्रीजी ने कार खरीदने की सोची.

उन्होंने बैंक से अपने एकाउंट का डिटेल मंगवाया. पता चला कि उनके बैंक खाते में सिर्फ 7 हजार रुपए पड़े थे. उस वक्त कार की कीमत 12000 रुपए थी. कार खरीदने के लिए उन्होंने बिल्कुल आम लोगों की तरह पंजाब नेशनल बैंक से लोन लिया. 5 हजार का लोन लेते वक्त शास्त्रीजी ने बैंक से कहा कि उन्हें उतनों ही सुविधा मिलनी चाहिए जितनी आम नागरिक को मिलती है.

हालांकि शास्त्रीजी कार का लोन चुका पाते उसके एक साल पहले ही उनका निधन हो गया. उनके निधन के बाद प्रधानमंत्री बनी इंदिरा गांधी ने लोन माफ करने की पेशकश की. लेकिन शास्त्री जी की पत्नी ललिता शास्त्री नहीं मानी और शास्त्री जी की मौत के चार साल बाद तक कार की ईएमआई देती रहीं. उन्होंने कार लोन का पूरा भुगतान किया. वह कार हमेशा लाल बहादुर शास्त्री जी के साथ रही. शास्त्रीजी की कार अभी भी दिल्ली लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल में रखी हुई है.


सॉनेट, अनुराधा पाण्डेय, कुण्डलिया, मुक्तिका, गीत, नवगीत, मुक्तक

नव प्रयोग
सॉनेट
उजियारा
है दिनेश दत्त उजियारा,
सुख संतोष, सुहाना सपना,
प्राची पर रवि ने दिल वारा,
धरा रश्मि का आँगन अपना।

भागे जीवन से अंँधियारा,
ऐसा हो कोशिश का नपना,
मंजिल को श्रम ने उपकारा,
तापस वह जो जाने तपना।

श्रम सीकर प्रवहित जल-धारा,
व्यर्थ न निज यश माला जपना,
सार्थक सत्य सतत उच्चारा,
जो असत्य उसको मिट-खपना।

अंकुर ने सिर उठा निहारा,
शुभ दिनेश दत्त उजियारा।।
१६-८-२०२३
•••
कार्यशाला
दो कवि - एक कुण्डलिया
*
दाता! उनसे क्यों हुआ, अन्धा अनहद प्रेम?
बाण हृदय में बेध जो, पूछ रहे अब क्षेम।। - अनुराधा पाण्डेय

पूछ रहे अब क्षेम, भेज उद्धव को गोकुल।
बिन कान्हा हैं कैसे, गोप-गोपियाँ, गो-कुल।।
बिन जाने साकार, निराकारी समझाता।
कैसा अनहद प्रेम, काश! वह समझे दाता।। - संजीव वर्मा 'सलिल'
१६-८-२०२३
***
सॉनेट
अंजली
अंजली खाली मेरे ईश!
सब कुछ तेरा, क्या दूँ तुझको?
क्या मेरा कुछ?, बतला मुझको
विकल पूछता तेरा शीश
यह धन-दौलत, रिश्ते-नाते
तुम देते, तुम ही ले लेते
भ्रभ होता हम नैया खेते
तुम ही नैया पार लगाते
हम से तुम या तुम से हैं हम?
हम या तुम उपजाते सुख-गम
जान न पाते हो जाते गुम
प्रभु! यह अंजली भी तेरी है
कुछ दूँ, बुद्धि नहीं मेरी है
यही समर्पित बिन देरी है
१६-८-२०२३
•••
मुक्तिका
*
रवि आ भा
छिप जाता
अनकहनी
कहवाता
माटी भी
है माता
जो खोता
वह पाता
मत तोड़ो
मन नाता
जो आता
वह जाता
पथ-भूला
समझाता
१६-८-२०२०
***
गीत
*
किसके-किसके नाम करूँ मैं, अपने गीत बताओ रे!
किसके-किसके हाथ पिऊँ मैं, जीवन-जाम बताओ रे!!
*
चंद्रमुखी थी जो उसने हो, सूर्यमुखी धमकाया है
करी पंखुड़ी बंद भ्रमर को, निज पौरुष दिखलाया है
''माँगा है दहेज'' कह-कहकर, मिथ्या सत्य बनाया है
किसके-किसके कर जोड़ूँ, आ मेरी जान बचाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ मैं, अपनी पीर बताओ रे!!
*
''तुम पुरुषों ने की रंगरेली, अब नारी की बारी है
एक बाँह में, एक चाह में, एक राह में यारी है
नर निश-दिन पछतायेगा क्यों की उसने गद्दारी है?''
सत्यवान हूँ हरिश्चंद्र, कोई आकर समझाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ कवि की जागीर बताओ रे!!
*
महिलायें क्यों करें प्रशंसा?, पूछ-पूछ कर रूठ रही
खुद सवाल कर, खुद जवाब दे, विषम पहेली बूझ रही
द्रुपदसुता-सीता का बदला, लेने की क्यों सूझ रही?
झाड़ू, चिमटा, बेलन, सोंटा कोई दूर हटाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ अपनी तकदीर बताओ रे!!
*
देवदास पारो को समझ न पाया, तो क्यों प्यार किया?
'एक घाट-घर रहे न जो, दे दगा', कहे कर वार नया
'सलिल बहे पर रहता निर्मल', समझाकर मैं हार गया
पंचम सुर में 'आल्हा' गाए, 'कजरी' याद दिलाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ जिव्हा-शमशीर बताओ रे!!
*
कुसुम, सुमन, नीलू, अमिता, पूर्णिमा, नीरजा आएँगी
'पत्नी को परमेश्वर मानो', सबको पाठ पढ़ाएँगी
पत्नीव्रती न जो कवि होगा, उससे कलम छुड़ाएँगी
कोई भी मौसम हो तुम गुण पत्नी के ही गाओ रे!
किसके-किसके नाम करूँ कवि आहत वीर बताओ रे!!
१६-८-२०१६
***
नवगीत
*
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
भाग गया परदेशी शासन
गूँज रहे निज देशी भाषण
वीर शहीद स्वर्ग से हेरें
मँहगा होता जाता राशन
रँगे सियार शीर्ष पर बैठे
मालिक बेबस नौकर ऐंठे
कद बौने, लंबी परछाई
सूरज लज्जित, जुगनू ऐंठे
सेठों की बन आयी, भाई
मतदाता की शामत आई
प्रतिनिधि हैं कुबेर, मतदाता
हुआ सुदामा, प्रीत न भायी
मन ने चाही मन की बातें
मन आहत पा पल-पल घातें
तब-अब चुप्पी-बहस निरर्थक
तब भी, अब भी काली रातें
ढोंग कर रहे
संत फकीरा
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
जनसेवा का व्रत लेते जो
धन-सुविधा पा क्षय होते वो
जनमत की करते अवहेला
जनहित बेच-खरीद गये सो
जनहित खातिर नित्य ग्रहण बन
जन संसद को चुभे दहन सम
बन दलाल दल करते दलदल
फैलाते केवल तम-मातम
सरहद पर उग आये कंटक
हर दल को पर दल है संकट
नाग, साँप, बिच्छू दल आये
किसको चुनें-तजें, है झंझट
क्यों कोई उम्मीदवार हो?
जन पर क्यों बंदिश-प्रहार हो?
हर जन जिसको चाहे चुन ले
इतना ही अब तो सुधार हो
मत मतदाता
बने जमूरा?
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
*
चयनित प्रतिनिधि चुन लें मंत्री
शासक नहीं, देश के संत्री
नहीं विपक्षी, नहीं विरोधी
हटें दूर पाखंडी तंत्री
अधिकारी सेवक मनमानी
करें न, हों विषयों के ज्ञानी
पुलिस न नेता, जन-हित रक्षक
हो, तब ऊगे भोर सुहानी
पारदर्शितामय पंचायत
निर्माणों की रचकर आयत
कंकर से शंकर गढ़ पाये
सब समान की बिछा बिछायत
उच्छृंखलता तनिक नहीं हो
चित्र गुप्त अपना उज्जवल हो
गौरवमय कल कभी रहा जो
उससे ज्यादा उज्जवल कल हो
पूरा हो
हर स्वप्न अधूरा
पीटो ढोल
बजाओ मँजीरा
***
गीत
*
अरमानों की फसलें हर दिन ही कुदरत बोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
उठ आशीष दीजिए छोटों को महके फुलवारी
नमन ईश को करें दूर हों चिंता पल में सारी
गीत ग़ज़ल कवितायेँ पोयम मंत्र श्लोक कुछ गा लें
मन की दुनिया जब जैसी चाहें रच खूब मजा लें
धरती हर दुःख सह देती है खूब न पर रोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
देश-विदेश कहाँ कैसा क्या भला-बुरा बतलायें
हम न जहाँ जा पाये पढ़कर ही आनंद मनायें
मौसम लोग, रीतियाँ कैसी? कैसा ताना-बाना
भारत की छवि कैसी? क्या वे चाहें भारत आना?
हरे अँधेरा मौन चाँदनी, नील गगन धोती है
कुछ करने के लिए कभी भी देर नहीं होती है
१६-८-२०१५
***
मुक्तक सलिला :
*
नयन में शत सपने सुकुमार
अधर का गीत करे श्रृंगार
दंत शोभित ज्यों मुक्तामाल
केश नागिन नर्तित बलिहार
*
भौंह ज्यों प्रत्यंचा ली तान
दृष्टि पत्थर में फूंके जान
नासिका ऊँची रहे सदैव
भाल का किंचित घटे न मान
*
सुराही कंठ बोल अनमोल
कर्ण में मिसरी सी दे घोल
कपोलों पर गुलाब खिल लाल
रहे नपनों-सपनों को तोल

१६-८-२०१४
***
नवगीत :
होता था घर एक.
*
शायद बच्चे पढेंगे'
होता था घर एक.'
शब्द चित्र अंकित किया
मित्र कार्य यह नेक.


अब नगरों में फ्लैट हैं,
बंगले औ' डुप्लेक्स.
फार्म हाउस का समय है
मिलते मल्टीप्लेक्स.


बेघर खुद को कर रहे
तोड़-तोड़ घर आज.
इसीलिये गायब खुशी
हर कोई नाराज़.


घर न इमारत-भवन है
घर होता सम्बन्ध.
नाते निभाते हैं जहाँ
बिना किसी अनुबंध.


बना फेसबुक भी 'सलिल'
घर की नयी मिसाल.
नाते नव नित बन रहे
देखें आप कमाल.


बिना मिले भी मन मिले,
होती जब तकरार.
दूजे पल ही बिखरता
निर्मल-निश्छल प्यार.


मतभेदों को हम नहीं
बना रहे मन-भेद.
लगे किसी को ठेस तो
सबको होता खेद.


नेह नर्मदा निरंतर
रहे प्रवाहित मित्र.
'फेसबुक' घर का बने
'सलिल' सनातन चित्र..
१६-८-२०१०
***

मंगलवार, 15 अगस्त 2023

सॉनेट, आजादी, तिरंगा, जन गण मन, पताका, पछेली दोहा, काल है संक्रांति का, नवगीत

सॉनेट
आजादी 
आजादी की साल गिरह है,
नाचो गाओ झूमो प्यारे,
बहुत खुशनुमा आज सुबह है,
मंज़र दिलकश, हसीं नजारे।

तीन रंग का परचम फहरा,
खाके-वतन लगा माथे पर,
मुट्ठी बाँध हवा में लहरा,
अमर शहीदों की जय जय कर।

दिल की दिल से रहे न दूरी,
सुख-दुख साझा रहें हमारे,
सुबह-साँझ हर हो सिंदूरी,
जन्नत धरती पर ले आ रे!

वतन परस्ती मजहब अपना।
पूरा हो सबका हर सपना।।
१५-८-२०२३
•••
सॉनेट
तिरंगा • धोती हरी लपेटे धरती, तब घर-घर होती खुशहाली, श्वेत कपासी चादर बुनती, अमन-चैन होती दीवाली। पाग कुसुंबी शीश सजाए, बाँका वीर पलाश सजीला, सलिल धार निर्मल-नीली बह, जीवन चक्र बनाए रंँगीला। कर तीली बन ताली देते, बनता है ध्वजदंड सहारा, ईश्वर जन्म धरा पर लेते, हो आलोकित भारत प्यारा। नव आशा लाती आजादी। देशप्रेम की करे मुनादी।। १५-८-२०२३ •••
!! हमारा राष्ट्रगीत !!
[ इसका प्रथम पद ही हम गाते हैं ]
जन-गण-मन अधिनायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
पंजाब-सिन्ध-गुजरात-मराठा
द्राविड़-उत्कल-बंग
विन्ध्य-हिमाचल, यमुना-गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मांगे
गाहे तव जय गाथा
जन-गण-मंगलदायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे !
पतन-अभ्युदय-वन्धुर-पंथा
युग-युग धावित यात्री
हे चिर-सारथी
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माँझे
तव शंखध्वनि बाजे
संकट-दुख-श्राता
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे !
घोर-तिमिर-घन-निविड़-निशीथ
पीड़ित मूर्च्छित-देशे
जागृत दिल तव अविचल मंगल
नत-नत-नयन अनिमेष
दुस्वप्ने आतंके
रक्षा करिजे अंके
स्नेहमयी तुमि माता
जन-गण-मन-दुखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे !
जय-जय-जय, जय हे
रात्रि प्रभातिल उदिल रविच्छवि
पूरब-उदय-गिरि-भाले
साहे विहंगम, पूर्ण समीरण
नव-जीवन-रस ढाले
तव करुणारुण-रागे
निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा
जय-जय-जय हे, जय राजेश्वर
भारत-भाग्य-विधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय, जय हे !
- रवीन्द्रनाथ टैगोर
***
सॉनेट
पताका
लोक शक्ति की विजय पताका
तंत्र शीश पर फहर रही है
नील गगन में लहर रही है
खींचे उज्जवल भावी-खाका
दादा-दादी,काकी-काका
बेटी-बेटे का हर सपना
हो साकार, वक्ष हो तना
शरत्पूर्णिमा हो हर राका
चलो!लिखें इतिहास नया हम
नयन न कोई कहीं रहे नम
अधरों को दें हास नया हम
हो जीवंत-जाग्रत जनमत
नव निर्माणों हित हर हिकमत
बना सके भारत को जन्नत
१५-८-२०२२
•••
दोहा पचेली में
*
ठाँड़ी खेती खेत में, जब लौं अपनी नांय।
गाभिन गैया ताकियो, जब लौं नई बिआय।।
*
नीलकंठ कीरा भखैं, हमें दरस से काम।
कथरिन खों फेंकें नई, चिलरन भले तमाम।।
*
बाप न मारी लोखरी, बीटा तीरंदाज।
बात मम्योरे की करें, मामा से तज लाज।।
*
पानी में रै कहें करें, बे मगरा सें बैर।
बैठो मगरा-पीठ पे, बानर करबे सैर।।
*
घर खों बैरी ढा रओ, लंका कैसो पाप।
कूकुर धोए बच्छ हो, कबऊँ न बचियो आप।।
*
६.८.२०१८
*
पुस्तक चर्चा-
नवगीत के निकष पर "काल है संक्रांति का"
रामदेव लाल 'विभोर'
*
[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र. दूरभाष ०७६१ २४१११३१, प्रकाशन वर्ष २०१६, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, कवि संपर्क चलभाष ९४२५१८३२४४, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com ]
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' विरचित गीत-कृति "काल है संक्रांति का" पैंसठ गीतों से सुसज्जित एक उत्तम एवं उपयोगी सर्जना है। इसे कृतिकार ने गीत व नवगीत संग्रह स्वयं घोषित किया है। वास्तव में नवगीत, गीत से इतर नहीं है किन्तु अग्रसर अवश्य है। अब गीत की अजस्र धारा वैयक्तिकता व अध्यात्म वृत्ति के तटबन्ध पर कर युगबोध का दामन पकड़कर चलने लगी है। गीतों में व्याप्त कलात्मकता व भावात्मकता में नवता के स्वरूप ने उसे 'नवगीत' नामित किया है। युगानुकूल परिवर्तन हर क्षेत्र में होता आ रहा है। अत:, गीतों में भी हुआ है। नवगीत में गीत के कलेवर में नयी कविता के भाव-रंग दिखते हैं। नए बिंब, नए उपमान, नए विचार, नयी कहन, वैशिष्ट्य व देश-काल से जुडी तमाम नयी बातों ने नवगीत में भरपूर योगदान दिया है। नवगीत प्रियतम व परमात्मा की जगह दीन-दुखियों की आत्मा को निहारता है जिसे दीनबन्धु परमात्मा भी उपयुक्त समझता होगा।
स्वर-देव चित्रगुप्त तथा वीणापाणी वंदना से प्रारंभ प्रस्तुत कृति के गीतों का अधिकांश कथ्य नव्यता का पक्षधर है। अपने गीतों के माध्यम से कृतिकार कहता है कि 'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती' है और 'गेयता संवेदनों का गान करती' है। नवगीत को एक प्रकार से परिभाषित करनेवाली कृतिकार की इन गीत-पंक्तियों की छटा सटीक ही नहीं मनोहारी भी है। निम्न पंक्तियाँ विशेष रूप से दृष्टव्य हैं-
''नव्यता संप्रेषणों में जान भरती / गेयता संवेदनों का गान करती''
''सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती / मर्मबेधकता न हो तो रार ठनती''
''लाक्षणिकता, भाव, रस, रूपक सलोने, बिम्ब टटकापन मिले बारात सजती''
''नाचता नवगीत के संग लोक का मन / ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?''
''छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किंतु बन आरोह या अवरोह पलता'' -पृष्ठ १३-१४
इस कृति में 'काल है संक्रांति का' नाम से एक बेजोड़ शीर्षक-गीत भी है। इस गीत में सूरज को प्रतीक रूप में रख दक्षिणायन की सूर्य-दशा की दुर्दशा को एक नायाब तरीके से बिम्बित करना गीतकार की अद्भुत क्षमता का परिचायक है। गीत में आज की दशा और कतिपय उद्घोष भरी पंक्तियों में अभिव्यक्ति की जीवंतता दर्शनीय है-
''दक्षिणायन की हवाएँ कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी काटती है झाड़'' -पृष्ठ १५
"जनविरोधी सियासत को कब्र में दो गाड़
झोंक दो आतंक-दहशत, तुम जलाकर भाड़" -पृष्ठ १६
कृति के गीतों में राजनीति की दुर्गति, विसंगतियों की बाढ़, हताशा, नैराश्य, वेदना, संत्रास, आतंक, आक्रोश के तेवर आदि नाना भाँति के मंज़र हैं जो प्रभावी ही नहीं, प्रेरक भी हैं। कृति से कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
"प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखें रहते भी हो सूर" -पृष्ठ २०
"दोनों हाथ लिए लड्डू / रेवड़ी छिपा रहा नेता
मुँह में लैया-गजक भरे / जन-गण को ठेंगा देता" - पृष्ठ २१
"वह खासों में खास है / रुपया जिसके पास है....
.... असहनीय संत्रास है / वह मालिक जग दास है" - पृष्ठ ६८
"वृद्धाश्रम, बालश्रम और / अनाथालय कुछ तो कहते है
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?" - पृष्ठ ९४
"करो नमस्ते या मुँह फेरो / सुख में भूलो, दुःख में हेरो" - पृष्ठ ४७
ध्यान आकर्षण करने योग्य बात कि कृति में नवगीतकार ने गीतों को नव्यता का जामा पहनाते समय भारतीय वांग्मय व् परंपरा को दृष्टि में रखा है। उसे सूरज प्रतीक पसन्द है। कृति के कई गीतों में उसका प्रयोग है। चन्द पंक्तियाँ उद्धरण स्वरूप प्रस्तुत हैं -
"चंद्र-मंगल नापकर हम चाहते हैं छुएँ सूरज"
"हनु हुआ घायल मगर वरदान तुमने दिए सूरज" -पृष्ठ ३७
"कैद करने छवि तुम्हारी कैमरे हम भेजते हैं"
"प्रतीक्षा है उन पलों की गले तुमसे मिलें सूरज" - पृष्ठ ३८
कृति के गीतों में लक्षणा व व्यंजना शब्द-शक्तियों का वैभव भरा है। यद्यपि कतिपय यथार्थबोधक बिम्ब सरल व स्पष्ट शब्दों में बिना किसी लाग-लपेट के विद्यमान हैं किन्तु बहुत से गीत नए लहजे में नव्य दृष्टि के पोषक हैं। निम्न पंक्तियाँ देखें-
"टाँक रही है अपने सपने / नए वर्ष में धूप सुबह की" - पृष्ठ ४२
"वक़्त लिक्खेगा कहानी / फाड़ पत्थर मैं उगूँगा" - पृष्ठ ७५
कई गीतों में मुहावरों का का पुट भरा है। कतिपय पंक्तियाँ मुहावरों व लोकोक्तियों में अद्भुत ढंग से लपेटी गई हैं जिनकी चारुता श्लाघनीय हैं। एक नमूना प्रस्तुत है-
"केर-बेर सा संग है / जिसने देखा दंग है
गिरगिट भी शरमा रहे / बदला ऐसा रंग है" -पृष्ठ ११५
कृति में नवगीत से कुछ इतर जो गीत हैं उनका काव्य-लालित्य किंचित भी कम नहीं है। उनमें भी कटाक्ष का बाँकपन है, आस व विश्वास का पिटारा है, श्रम की गरिमा है, अध्यात्म की छटा है और अनेक स्थलों पर घोर विसंगति, दशा-दुर्दशा, सन्देश व कटु-नग्न यथार्थ के सटीक बिम्ब हैं। एक-आध नमूने दृष्टव्य हैं -
"पैला लेऊँ कमिसन भारी / बेंच खदानें सारी
पाछूँ घपले-घोटालों सौं / रकम बिदेस भिजा री!" - पृष्ठ ५१
"कर्म-योग तेरी किस्मत में / भोग-रोग उनकी किस्मत में" - पृष्ठ ८०
वेश संत का मन शैतान / खुद को बता रहे भगवान" - पृष्ठ ८७
वही सत्य जो निज हित साधे / जन को भुला तन्त्र आराधें" - पृष्ठ ११८
कृति की भाषा अधिकांशत: खड़ी बोली हिंदी है। उसमें कहीं-कहीं आंचलिक शब्दों से गुरेज नहीं है। कतिपय स्थलों पर लोकगीतों की सुहानी गंध है। गीतों में सम्प्रेषणीयता गतिमान है। माधुर्य व प्रसाद गुण संपन्न गीतों में शांत रस आप्लावित है। कतिपय गीतों में श्रृंगार का प्रवेश नेताओं व धनाढ्यों पर ली गयी चुटकी के रूप में है। एक उदाहरण दृष्टव्य है -
इस करवट में पड़े दिखाई / कमसिन बर्तनवाली बाई
देह साँवरी नयन कँटीले / अभी न हो पाई कुड़माई
मलते-मलते बर्तन खनके चूड़ी / जाने क्या गाती है?
मुझ जैसे लक्ष्मीपुत्र को / बना भिखारी वह जाती है - पृष्ठ ८३
पूरे तौर पर यह नवगीत कृति मनोरम बन पड़ी है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को इस उत्तम कृति के प्रणयन के लिए हार्दिक साधुवाद।
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संपर्क- ५६५ के / १४१ गिरिजा सदन, अमरूदही बाग़, आलमबाग, लखनऊ २२६००५, चलभाष- ९३३५७५११८८
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स्वतंत्रता दिवस पर विशेष गीत:
सारा का सारा हिंदी है
संजीव 'सलिल'
*
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
*
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्ज्वल बिंदी है....
***
स्वाधीनता दिवस पर :
मुक्तक
*
शहादतों को भूलकर सियासतों को जी रहे
पड़ोसियों से पिट रहे हैं और होंठ सी रहे
कुर्सियों से प्यार है, न खुद पे ऐतबार है-
नशा निषेध इस तरह कि मैकदे में पी रहे
*
जो सच कहा तो घेर-घेर कर रहे हैं वार वो
हद है ढोंग नफरतों को कह रहे हैं प्यार वो
सरहदों पे सर कटे हैं, संसदों में बैठकर-
एक-दूसरे को कोस, हो रहे निसार वो
*
मुफ़्त भीख लीजिए, न रोजगार माँगिए
कामचोरी सीख, ख्वाब अलगनी पे टाँगिए
फर्ज़ भूल, सिर्फ हक की बात याद कीजिए-
आ रहे चुनाव देख, नींद में भी जागिए
*
और का सही गलत है, अपना झूठ सत्य है
दंभ-द्वेष-दर्प साध, कह रहे सुकृत्य है
शब्द है निशब्द देख भेद कथ्य-कर्म का-
वार वीर पर अनेक कायरों का कृत्य है
*
प्रमाणपत्र गैर दे: योग्य या अयोग्य हम?
गर्व इसलिए कि गैर भोगता, सुभोग्य हम
जो न हाँ में हाँ कहे, लांछनों से लाद दें -
शिष्ट तज, अशिष्ट चाह, लाइलाज रोग्य हम
*
गंद घोल गंग में तन के मुस्कुराइए
अनीति करें स्वयं दोष प्रकृति पर लगाइए
जंगलों के, पर्वतों के नाश को विकास मान-
सन्निकट विनाश आप जान-बूझ लाइए
*
स्वतंत्रता है, आँख मूँद संयमों को छोड़ दें
नियम बनायें और खुद नियम झिंझोड़-तोड़ दें
लोक-मत ही लोकतंत्र में अमान्य हो गया-
सियासतों से बूँद-बूँद सत्य की निचोड़ दें
*
हर जिला प्रदेश हो, राग यह अलापिए
भाई-भाई से भिड़े, पद पे जा विराजिए
जो स्वदेशी नष्ट हो, जो विदेशी फल सके-
आम राय तज, अमेरिका का मुँह निहारिए
*
धर्महीनता की राह, अल्पसंख्यकों की चाह
अयोग्य को वरीयता, योग्य करे आत्म-दाह
आँख मूँद, तुला थाम, न्याय तौल बाँटिए-
बहुमतों को मिल सके नहीं कहीं तनिक पनाह
*
नाम लोकतंत्र, काम लोभतंत्र कर रहा
तंत्र गला घोंट लोक का विहँस-मचल रहा
प्रजातंत्र की प्रजा है पीठ, तंत्र है छुरा-
राम हो हराम, तज विराम दाल दल रहा
*
तंत्र थाम गन न गण की बात तनिक मानता
स्वर विरोध का उठे तो लाठियां है भांजता
राजनीति दलदली जमीन कीचड़ी मलिन-
लोक जन प्रजा नहीं दलों का हित ही साधता
*
धरें न चादरों को ज्यों का त्यों करेंगे साफ़ अब
बहुत करी विसंगति करें न और माफ़ अब
दल नहीं, सुपात्र ही चुनाव लड़ सकें अगर-
पाक-साफ़ हो सके सियासती हिसाब तब
*
लाभ कोई ना मिले तो स्वार्थ भाग जाएगा
देश-प्रेम भाव लुप्त-सुप्त जाग जाएगा
देस-भेस एक आम आदमी सा तंत्र का-
हो तो नागरिक न सिर्फ तालियाँ बजाएगा
*
धर्महीनता न साध्य, धर्म हर समान हो
समान अवसरों के संग, योग्यता का मान हो
तोडिये न वाद्य को, बेसुरा न गाइए-
नाद ताल रागिनी सुछंद ललित गान हो
*
शहीद जो हुए उन्हें सलाम, देश हो प्रथम
तंत्र इस तरह चले की नयन कोई हो न नम
सर्वदली-राष्ट्रीय हो अगर सरकार अब
सुनहरा हो भोर, तब ही मिट सके तमाम तम
१५-८-२०१५
*
सामयिक दोहागीत:
क्या सचमुच?
*
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
गहन अंधविश्वास सँग
पाखंडों की रीत
शासन की मनमानियाँ
सहें झुका सर मीत
स्वार्थ भरी नजदीकियाँ
सर्वार्थों की मौत
होते हैं परमार्थ नित
नेता हाथों फ़ौत
संसद में भी कर रहे
जुर्म विहँस संगीन हम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
तंत्र लाठियाँ घुमाता
जन खाता है मार
उजियारे की हो रही
अन्धकार से हार
सरहद पर बम फट रहे
सैनिक हैं निरुपाय
रण जीतें तो सियासत
हारे, भूल भुलाय
बाँट रहें हैं रेवड़ी
अंधे तनिक न गम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
दूषित पर्यावरण कर
मना रहे आनंद
अनुशासन की चिता पर
गिद्ध-भोज सानंद
दहशतगर्दी देखकर
नतमस्तक कानून
बाज अल्पसंख्यक करें
बहुल हंस का खून
सत्ता की ऑंखें 'सलिल'
स्वार्थों खातिर नम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
१५-८-२०१४
*
सामयिक व्यंग्य कविता:
मौसमी बुखार
**
अमरीकनों ने डटकर खाए
सूअर मांस के व्यंजन
और सारी दुनिया को निर्यात किया
शूकर ज्वर अर्थात स्वाइन फ़्लू
ग्लोबलाइजेशन अर्थात
वैश्वीकरण का सुदृढ़ क्लू..
*'
वसुधैव कुटुम्बकम'
भारत की सभ्यता का अंग है
हमारी संवेदना और सहानुभूति से
सारी दुनिया दंग है.
हमने पश्चिम की अन्य अनेक बुराइयों की तरह
स्वाइन फ़्लू को भी
गले से लगा लिया.
और फिर शिकार हुए मरीजों को
कुत्तों की मौत मरने से बचा लिया
अर्थात डॉक्टरों की देख-रेख में
मौत के मुँह में जाने का सौभाग्य (?) दिलाकर
विकसित होने का तमगा पा लिया.
*
प्रभु ने शूकर ज्वर का
भारतीयकरण कर दिया
उससे भी अधिक खतरनाक
मौसमी ज्वर ने
नेताओं और कवियों की
खाल में घर कर लिया.
स्वाधीनता दिवस निकट आते ही
घडियाली देश-प्रेम का कीटाणु,
पर्यवरण दिवस निकट आते ही
प्रकृति-प्रेम का विषाणु,
हिन्दी दिवस निकट आते ही
हिन्दी प्रेम का रोगाणु,
मित्रता दिवस निकट आते ही
भाई-चारे का बैक्टीरिया और
वैलेंटाइन दिवस निकट आते ही
प्रेम-प्रदर्शन का लवेरिया
हमारी रगों में दौड़ने लगता है.
*
'एकोहम बहुस्याम' और'
विश्वैकनीडं' के सिद्धांत के अनुसार
विदेशों की 'डे' परंपरा के
समर्थन और विरोध में
सड़कों पर हुल्लड़कामी हुड़दंगों में
आशातीत वृद्धि हो जाती है.
लाखों टन कागज़ पर
विज्ञप्तियाँ छपाकर
वक्तव्यवीरों की आत्मा
गदगदायमान होकर
अगले अवसर की तलाश में जुट जाती है.
मौसमी बुखार की हर फसल
दूरदर्शनी कार्यक्रमों,संसद व् विधायिका के सत्रों का
कत्ले-आम कर देती है
और जनता जाने-अनजाने
अपने खून-पसीने की कमाई का
खून होते देख आँसू बहाती है.
*
गीत
भारत माँ को नमन करें....
स्वतंत्रता गीत
*
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें.
ध्वजा तिरंगी मिल फहराएँ
इस धरती को चमन करें.....
*
नेह नर्मदा अवगाहन कर
राष्ट्र-देव का आवाहन कर
बलिदानी फागुन पावन कर
अरमानी सावन भावन कर
राग-द्वेष को दूर हटायें
एक-नेक बन, अमन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
अंतर में अब रहे न अंतर
एक्य कथा लिख दे मन्वन्तर
श्रम-ताबीज़, लगन का मन्तर
भेद मिटाने मारें मंतर
सद्भावों की करें साधना
सारे जग को स्वजन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
काम करें निष्काम भाव से
श्रृद्धा-निष्ठा, प्रेम-चाव से
रुके न पग अवसर अभाव से
बैर-द्वेष तज दें स्वभाव से
'जन-गण-मन' गा नभ गुंजा दें
निर्मल पर्यावरण करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
जल-रक्षण कर पुण्य कमायें
पौध लगायें, वृक्ष बचायें
नदियाँ-झरने गान सुनायें
पंछी कलरव कर इठलायें
भवन-सेतु-पथ सुदृढ़ बनाकर
सबसे आगे वतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
शेष न अपना काम रखेंगे
साध्य न केवल दाम रखेंगे
मन-मन्दिर निष्काम रखेंगे
अपना नाम अनाम रखेंगे
सुख हो भू पर अधिक स्वर्ग से
'सलिल' समर्पित जतन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
१५-८-२०१०

* 

सोमवार, 14 अगस्त 2023

सॉनेट, शेक्सपियर, मिल्टन,









           शेक्सपियर


शेक्सपियर को सॉनेट अंजलि, 
हिंदी भाषा अर्पित करती,
स्वीकारे कवि यह प्रणतांजलि,
सॉनेट उर में हिंदी धरती।

याद त्रिलोचन की आती है, 
सॉनेट लिख इतिहास रच दिया,
माटी की सुगंध भाती है,
सत्य समय का सहज कह दिया।

जीवित भारत की परिपाटी, 
सॉनेट में हम रख जाएँगे, 
लिट्टा-चोखा, भर्ता-बाटी,
खा बम्बुलिया मिल गाएँगे। 

बने विश्ववाणी हिंदी तब।  
हर भाषा को अपनाए जब।।

               ***












           मिल्टन 

लेंटिनि ने अठ-छह पद जोड़ा, 
प्रथम चौपदी तुक दोहराई, 
सम-तुकांत दो त्रिपदी जोड़ा, 
सॉनेट रचकर कीर्ति कमाई।

पेट्रार्च ऑक्टेव-सेस्टेट लेकर,
वोल्टा रखता नौवें पद में, 
मिल्टन सॉनेट नैया खेकर, 
आगे बढ़ता सबसे कद में। 

सॉनेट नहीं 'कसीदा' किंचित, 
मिलता साम्य 'ओड' से थोड़ा,
वर्ड्सवर्थ करता है विस्मित,
बारोक ओर हूफ़्ट ने मोड़ा। 

हिंदी सॉनेट गढ़ परंपरा।
नूतनता दें परा व अपरा।।

            ***