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शनिवार, 10 जून 2023

लहसुन, स्वास्थ्य, दोहे, पानी, क्षणिका, सरस्वती, शारदा, particle, poetry, मुक्तक

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Particle
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O tiny particle! You are really Great.
Are very heavy but without weight.
What is the size?, knowbody know.
From where you come?, where you go.
No caste, no cult, no religion, no race.
Still not loose, always win the race.
O little particle! nobody can destroy.
Nobody can sell, nobody can buy.
You are the ultimate root of universe.
You never bother fate favour or adverse.
world say your are the samllest.
But to me you are the biggest.
10-6-2022
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मुक्तक
ले लेती है जिंदों की भी अनजाने ही जान मोहब्बत।
दे देती हैं मुर्दों को भी अनजाने ही जान मोहब्बत।।
मरुथल में भी फूल खिलाती, पत्थर फोड़ बहाती झरना-
यही जीव संजीव बनाती, करे प्राण संप्राण मोहब्बत।।...
१०-६-२०२१
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सरस्वती वंदना
*
भोर भई पट खोल सुरसती
दरसन दे महतारी।
हात जोड़ ठाँड़े हैं सुर-नर
अकल देओ माँ! माँग रए वर
मौन न रह कुछ बोल सुरसती
काहे सुधी बिसारी?
ध्वनि-धुन, स्वर-सुर, वाक् देओ माँ!
मति गति-यति, लय-ताल, छंद गा
विधि-हरि-हर ने रमा-उमा सँग
तोरे भए पुजारी
नेह नरमदा की कलकल तू
पंछी गुंजाते कलरव तू
लोरी, बम्बुलिया, आल्हा तू
मैया! महिमा न्यारी
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एक रचना
*
अरुण अर्णव लाल-नीला
अहम् तज मन रहे ढीला
स्वार्थ करता लाल-पीला
छंद लिखता नयन गीला
संतुलन चाबी, न ताला
बिना पेंदी का पतीला
नमन मीनाक्षी सुवाचा
गगन में अरविंद साँचा
मुकुल मन ने कथ्य बाँचा
कर रहा जग तीन-पाँचा
मंजरी सज्जित भुआला
पुनीता है शक्ति वर ले
विनीता मति भक्ति वर ले
युक्तिपूर्वक जिंदगी जी
मुक्ति कर कुछ कर्म वर ले
काल का सब जग निवाला
८-६-२०२०
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वंदना
*
शारद मैया! कैंया लेओ
पल पल करता मन कुछ खटपट
चाहे सुख मिल जाए झटपट
भोला चंचल भाव अँजोरूँ
हूँ संतान तुम्हारी नटखट
आपन किरपा दैया! देओ
शारद मैया! कैंया लेओ
मो खों अच्छर ग्यान करा दे
परमशक्ति सें माँ मिलवा दे
इकनी एक, अनादि अजर 'अ'
दिक् अंबर मैया! पहना दे
किरपा पर कें नीचें सेओ
शारद मैया! कैंया लेओ
अँगुली थामो, राह दिखाओ
कंठ बिराजो, हृदै समाओ
सुर-सरगम-स्वर दे प्रसाद माँ
मत मोखों जादा अजमाओ
नाव 'सलिल' की भव में खेओ
शारद मैया! कैंया लेओ
९-६-२०२०
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श्वास शारदा माँ बसीं, हैं प्रयास में शक्ति
आस लक्ष्मी माँ मिलीं, कर मन नवधा भक्ति
त्रिगुणा प्रकृति नमन स्वीकारो,
तीन देव की जय बोलो
तीन काल का आत्म मुसाफिर,
कर्म-धर्म मति से तोलो
नमन करो स्वीकार शारदे! नमन करो स्वीकार
सब कुछ तुम पर वार शारदे आया तेरे द्वार
तुम आद्या हो, तुम अनंत हो
तुम्हीं अंत मेरी माता
ध्यान तुम्हारे में खोता जो, वही आप को पा पाता
पाती मन की कोरी इस पर, ॐ लिखूँ झट सिखला दो
सलिल बिंदु हो नेह नर्मदा, झलक पुनीता विख्याता
ग्यान तारिका! कला साधिका!
मन मुकुलित पुष्पा दो माँ!
'मावस को कर शरत् पूर्णिमा,
मैया! वरदा प्रख्याता
शुभदा सुखदा मातु वर्मदा,
देवि धर्मदा जगजननी
वीणा झंकृत कर दो मन की,
जीवन अर्पित हे प्राता
जड़ है जीव करो संजीवित, चेतन हो सत् जान सके
शिव-सुंदर का चित्र गुप्त लख
रहे सदा तुमको ध्याता
१०-६-२०२०
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क्षणिका
क्यों पूछते हो
राह यह जाती कहाँ है?
आदमी जाते हैं नादां
रास्ते जाते नहीं हैं।*
दिशाएँ दीवार,
छत है आसमान
बेदरो-दीवार
कहिए कौन है?
१०-६-२०१९
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दोहे पानीदार
पानी तो अनमोल है, मत कह तू बेमोल।
कंठ सूखते ही तुझे, पता लगेगा मोल।।
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वर्षा-जल संग्रहण कर, बुझे ग्रीष्म में प्यास।
बहा निरर्थक क्यों सहो, रे मानव संत्रास।।
*
सलिल' नीर जल अंबु बिन, कैसे हो आनंद।
कलकल ध्वनि बिन कल कहाँ, कैसे गूँज छंद।।
*
लहर-लहर हँस हहरकर, बन-मिट दे संदेश।
पाया-खोया भूलकर, चिंता मत कर लेश।।
*
पानी मरे न आँख का, रखिए हर दम ध्यान।
सूखे पानी आँख का, यदि कर तुरत निदान।।
*
10.6.2018
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स्वास्थ्य सलिला
कुछ नुस्खे: छोटे लहसुन के बड़े फायदे.......
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(इन बीमारियों में है रामबाण)
लहसुन सिर्फ खाने के स्वाद को ही नहीं बढ़ाता बल्कि शरीर के लिए एक औषधी की तरह भी काम करता है।इसमें प्रोटीन, विटामिन, खनिज, लवण और फॉस्फोरस, आयरन व विटामिन ए,बी व सी भी पाए जाते हैं। लहसुन शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाता है। भोजन में किसी भी तरह इसका सेवन करना शरीर के लिए बेहद फायदेमंद होता है आज हम बताने जा रहे हैं आपको औषधिय गुण से भरपूर लहसुन के कुछ ऐसे ही नुस्खों के बारे में जो नीचे लिखी स्वास्थ्य समस्याओं में रामबाण है।
1-- 100 ग्राम सरसों के तेल में दो ग्राम (आधा चम्मच) अजवाइन के दाने और आठ-दस लहसुन की कुली डालकर धीमी-धीमी आंच पर पकाएं। जब लहसुन और अजवाइन काली हो जाए तब तेल उतारकर ठंडा कर छान लें और बोतल में भर दें। इस तेल को गुनगुना कर इसकी मालिश करने से हर प्रकार का बदन का दर्द दूर हो जाता है।
2-- लहसुन की एक कली छीलकर सुबह एक गिलास पानी से निगल लेने से रक्त में कोलेस्ट्रॉल का स्तर नियंत्रित रहता है।साथ ही ब्लडप्रेशर भी कंट्रोल में रहता है।
3-- लहसुन डायबिटीज के रोगियों के लिए भी फायदेमंद होता है। यह शुगर के स्तर को नियंत्रित करने में कारगर साबित होता है।
4-- खांसी और टीबी में लहसुन बेहद फायदेमंद है। लहसुन के रस की कुछ बूंदे रुई पर डालकर सूंघने से सर्दी ठीक हो जाती है।
5-- लहसुन दमा के इलाज में कारगर साबित होता है। 30 मिली लीटर दूध में लहसुन की पांच कलियां उबालें और इस मिश्रण का हर रोज सेवन करने से दमे में शुरुआती अवस्था में काफी फायदा मिलता है। अदरक की गरम चाय में लहसुन की दो पिसी कलियां मिलाकर पीने से भी अस्थमा नियंत्रित रहता है।
6-- लहसुन की दो कलियों को पीसकर उसमें और एक छोटा चम्मच हल्दी पाउडर मिला कर क्रीम बना ले इसे सिर्फ मुहांसों पर लगाएं। मुहांसे साफ हो जाएंगे।
7-- लहसुन की दो कलियां पीसकर एक गिलास दूध में उबाल लें और ठंडा करके सुबह शाम कुछ दिन पीएं दिल से संबंधित बीमारियों में आराम मिलता है।
8-- लहसुन के नियमित सेवन से पेट और भोजन की नली का कैंसर और स्तन कैंसर की सम्भावना कम हो जाती है।
9-- नियमित लहसुन खाने से ब्लडप्रेशर नियमित रहता है। एसीडिटी और गैस्टिक ट्रबल में भी इसका प्रयोग फायदेमंद होता है। दिल की बीमारियों के साथ यह तनाव को भी नियंत्रित करती है।
10-- लहसुन की 5 कलियों को थोड़ा पानी डालकर पीस लें और उसमें 10 ग्राम शहद मिलाकर सुबह -शाम सेवन करें। इस उपाय को करने से सफेद बाल काले हो जाएंगे।
11- यदि रोज नियमित रूप से लहसुन की पाँच कलियाँ खाई जाएँ तो हृदय संबंधी रोग होने की संभावना में कमी आती है। इसको पीसकर त्वचा पर लेप करने से विषैले कीड़ों के काटने या डंक मारने से होने वाली जलन कम हो जाती है।
12- जुकाम और सर्दी में तो यह रामबाण की तरह काम करता है। पाँच साल तक के बच्चों में होने वाले प्रॉयमरी कॉम्प्लेक्स में यह बहुत फायदा करता है। लहसुन को दूध में उबालकर पिलाने से बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। लहसुन की कलियों को आग में भून कर खिलाने से बच्चों की साँस चलने की तकलीफ पर काफी काबू पाया जा सकता है।
13- लहसुन गठिया और अन्य जोड़ों के रोग में भी लहसुन का सेवन बहुत ही लाभदायक है।
लहसुन की बदबू-
अगर आपको लहसुन की गंध पसंद नहीं है कारण मुंह से बदबू आती है। मगर लहसुन खाना भी जरूरी है तो रोजमर्रा के लिये आप लहसुन को छीलकर या पीसकर दही में मिलाकर खाये तो आपके मुंह से बदबू नहीं आयेगी। लहसुन खाने के बाद इसकी बदबू से बचना है तो जरा सा गुड़ और सूखा धनिया मिलाकर मुंह में डालकर चूसें कुछ देर तक, बदबू बिल्कुल निकल जायेगी।
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मोहन राकेश

स्मरण-
हिंदी नाट्य जगत का शिखर पुरुष मोहन राकेश
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                मदन मोहन गुगलानी उर्फ मोहन राकेश का जन्म ८ जनवरी १९२५ को अमृतसर, पंजाब में हुआ। वे मूलतः एक सिंधी परिवार से थे। उनके पिता कर्मचन्द बहुत पहले सिंध से पंजाब आए थे। मोहन राकेश नई कहानी आंदोलन से जुड़े महत्वपूर्ण कथाकार थे। पंजाब विश्वविद्यालय से हिंदी और अँग्रेज़ी में एम. ए. थे। जीविका हेतु अध्यापन से जुड़े। कुछ वर्षो तक 'सारिका' के संपादक रहे। अपनी साहित्यिक अभिरुचि के कारण मोहन राकेश का अध्यापन कार्य में मन नहीं लगा और एक वर्ष तक उन्होंने 'सारिका' पत्रिका का सम्पादन किया। इस कार्य को भी अपने लेखन में बाधा समझकर इससे किनारे कर लिया और जीवन के अन्त तक स्वतंत्र लेखन ही इनके जीविकोपार्जन का साधन रहा। मोहन राकेश हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार थे। समाज की संवेदनशील अनुभूतियों को चुनकर उनका सार्थक सम्बन्ध खोज निकालना उनकी कहानियों की विषय-वस्तु थी। वे 'आषाढ़ का एक दिन', 'आधे अधूरे' और ‘लहरों के राजहंस’ जैसे महत्वपूर्ण नाटकों के रचनाकार हैं। मोहन राकेश की रचनाएँ पाठकों और लेखकों के दिलों को छूती हैं। एक बार जो उनकी रचना को पढ़ता है तो वह पूरी तरह से राकेश के शब्दों में डूब जाता है। उन्हें सम्मानित कर 'संगीत नाटक अकादमी' खुद सम्मानित हुई। मोहन राकेश की 'डायरी' हिंदी में इस विधा की सबसे सुंदर कृतियों में एक मानी जाती है। सर्वप्रथम कहानी के क्षेत्र में सफल लेखन के बाद नाट्य-लेखन में ख्याति के नए स्तंभ स्थापित किए। 'उसकी रोटी' नामक कहानी राकेश ने लिखी, जिस पर १९७० के दशक में फिल्मकार मणि कौल ने इसी शीर्षक से एक फिल्म बनाई। फिल्म की पटकथा खुद राकेश ने लिखी थी। ३ दिसम्बर १९७२ को नई दिल्ली में हिंदी नाट्य जगत का यह दीप्तिमान सितारा अस्त हो गया।

रचना संसार

उपन्यास: अँधेरे बंद कमरे १९६१, अंतराल १९७२, न आने वाला कल १९६८, काँपता हुआ दरिया (अपूर्ण)।

नाटक: आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे अधूरे, पैर तले की ज़मीन (अधूरा, कमलेश्वर ने पूरा किया), सिपाही की माँ , प्यालियाँ टूटती हैं, रात बीतने तक, छतरियाँ, शायद, हंः।

एकांकी: अण्डे के छिल्के, बहुत बड़ा सवाल।

कहानी संग्रह: क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ, पहचान तथा अन्य कहानियाँ, वारिस तथा अन्य कहानियाँ।

निबंध संग्रह: परिवेश।

अनुवाद: मृच्छकटिक, शाकुंतलम।

यात्रा वृतांत: आख़िरी चट्टान तक।

सृजन यात्रा

                मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा साहित्यकारों में हैं जिन्हें 'नयी कहानी आंदोलन' का नायक माना जाता है और साहित्य जगत में अधिकांश लोग उन्हें उस दौर का 'महानायक' कहते हैं। उनकी 'मिसपाल', 'आद्रा', 'ग्लासटैंक', 'जानवर' और 'मलबे का मालिक' आदि कहानियों ने हिन्दी कहानी का परिदृश्य ही बदल दिया। वे 'नई कहानी आन्दोलन' के शीर्ष कथाकार के रूप में चर्चित हुए। मोहन राकेश हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार हैं। उनकी कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं। उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के उस्ताद थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक में उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है। कहानी के बाद राकेश को सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली है।उन्होंने 'आषाढ़ का एक दिन' के रूप में हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी लिखा। कहानीकार−उपन्यासकार प्रकाश मनु नई कहानी के दौर में मोहन राकेश को सर्वोपरि मानते हुए कहते हैं- ''नयी कहानी आंदोलन ने हिंदी कहानी की पूरी तस्वीर बदली है। उस दौर में तीन नायक मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव रहे। मैं मोहन राकेश को सबसे ऊपर मानता हूँ। खुद कमलेश्वर और राजेंद्र यादव भी राकेश को हमेशा सर्वश्रेष्ठ मानते रहे। ... मोहन राकेश की रचनाएँ पाठकों और लेखकों के दिलों को छूती हैं। एक बार जो उनकी रचना को पढ़ता तो वह पूरी तरह से राकेश के शब्दों में डूब जाता है।''

                मोहन राकेश को कहानी के बाद सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली। हिंदी नाटकों में भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद का दौर मोहन राकेश का दौर है जिसें हिंदी नाटकों को फिर से रंगमंच से जोड़ा। हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर कोई नाम उभरता है तो मोहन राकेश का। हालाँकि बीच में और भी कई नाम डॉ. रामकुमार वर्मा, जगदीशचंद्र माथुर, भुवनेश्वर, उपेन्द्र नाथ 'अश्क', भीष्म साहनी, सेठ गोविंददास, डॉ. धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल आदि आते हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैं तथापि मोहन राकेश का लेखन एक दूसरे ध्रुवान्त पर नज़र आता है। इसलिए ही नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहक से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया।

                मेरे मत में मोहन राकेश के नाटक केवल हिंदी के नाटक नहीं हैं। वे हिंदी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। उन्होंने हिंदी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान किया वरन् उसके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया। मैं मोहन राकेश को हिंदी नाट्य लोक का शिखर हस्ताक्षर मानता हूँ। मोहन राकेश के नाटकों का प्रमुख भारतीय निर्देशकों इब्राहीम अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविन्द गौड़, श्यामानन्द जालान, राम गोपाल बजाज और दिनेश ठाकुर ने नाटकों का निर्देशन किया जाना मेरे मत की पुष्टि करता है।

                मोहन राकेश के दो नाटकों 'आषाढ़ का एक दिन' तथा 'लहरों के राजहंस' में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेने पर भी आधुनिक मनुष्य के अंतर्द्वंद और संशयों की ही गाथा कही गई है। एक नाटक की पृष्ठभूमि में गुप्तकाल है तो दूसरा बौद्धकाल के समय पर लिखा गया है।

आषाढ़ का एक दिन

                मोहन राकेश की सबसे बड़ी उपलब्धि १९५८ में प्रकाशित उनका नाटक "आषाढ़ का एक दिन" था, जिसने नाटकों को एक नया आयाम दिया। मोहन राकेश आषाढ़ का एक दिन में सफलता और प्रेम में से एक को चुनने के द्वंद्व से जूझते कालिदास एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को सामने रखते हैं। वहीं प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं टूटने देने वाली इस नाटक की नायिका मल्लिका के रूप में हिंदी साहित्य को एक अविस्मरणीय पात्र मिला है। इसे हिन्दी नाटक के आधुनिक युग का प्रथम नाटक कहा जाता है। सन १९७९में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था। कई प्रसिद्ध निर्देशक इस नाटक को मंच पर ला चुके हैं। १९७९ में निर्देशक मणि कौल ने इस पर आधारित एक फ़िल्म बनाई, जिसने आगे जाकर साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' भी जीत लिया। 'आषाढ़ का एक दिन' महाकवि कालिदास के निजी जीवन पर केन्द्रित है, जो १०० ई. पू. से ५०० ईसवी के अनुमानित काल में व्यतीत हुआ। इस नाटक का शीर्षक कालिदास की कृति 'मेघदूतम्' की शुरुआती पंक्तियों से लिया गया है, क्योंकि आषाढ़ का महीना उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का शुरुआती महीना होता है, इसका सीधा अर्थ "वर्षा ऋतु का एक दिन" है। मोहन राकेश द्वारा रचित 'आषाढ़ का एक दिन' एक त्रिखंडीय नाटक है। इसमें सफलता और प्रेम में से एक को चुनने के संशय से जूझते कालिदास, एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को रखा गया है।

                ‘आषाढ़ का एक दिन’ की प्रत्यक्ष विषयवस्तु कवि कालिदास के जीवन से संबंधित है। मूलत: वह उसके प्रसिद्ध होने के पहले की प्रेयसी का नाटक है- एक सीधी-सादी समर्पित लड़की की नियति का चित्र, जो एक कवि से प्रेम ही नहीं करती, उसे महान् होते भी देखना चाहती है। महान् वह अवश्य बनता है, पर इसका मूल्य मल्लिका अपना सर्वस्व देकर चुकाती है। अंत में कालिदास भी उसे केवल अपनी सहानुभूति दे पाता है, और चुपके से छोड़कर चले जाने के अतिरिक्त उससे कुछ नहीं बन पड़ता। मल्लिका के लिए कालिदास उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के, जीवन में, साथ एकाकार सुदूर स्वप्न की भाँति है; कालिदास के लिए मल्लिका उसके प्रेरणादायक परिवेश का एक अत्यन्त जीवंत तत्व मात्र। अनन्यता और आत्मलिप्तता की इस विसदृशता में पर्याप्त नाटकीयता है, और मोहन रोकेश जिस एकाग्रता, तीव्रता और गहराई के साथ उसे खोजने और व्यक्त करने में सफल हुए हैं वह हिन्दी नाटक के लिए सर्वथा अपरिचित है।

                इसके साथ ही समकालीन अनुभव और भी कई आयाम इस नाटक में हैं, जो उसे एकाधिक स्तर पर सार्थक और रोचक बनाते हैं। उसका नाटकीय संघर्ष कला और प्रेम, सर्जनशील व्यक्ति और परिवेश, भावना और कर्म, कलाकार और राज्य, आदि कई स्तरों को छूता है। इसी प्रकार काल के आयाम को बड़ी रोचक तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है-लगभग एक पात्र के रूप में। मल्लिका और उसके परिवेश की परिणति में तो वह मौजूद है ही, स्वयं कालिदास भी उसके विघटनकारी रूप का अनुभव करता है। अपनी समस्त आत्मलिप्तता के बावजूद उसे लगता है कि अपने परिवेश में टूटकर वह स्वयं भी भीतर कहीं टूट गया है।

                कालिदास ही इस नाटक का सबसे कमज़ोर अंश है; क्योंकि अंतत: नाटक में उद्घाटित उसका व्यक्तित्व न तो किसी मूल्यवान और सार्थक स्तर पर स्थापित ही हो पाता है, न इतिहास-प्रसिद्ध कवि कालिदास को, और इस प्रकार उसके माध्यम से समस्त भारतीय सर्जनात्मक प्रतिभा को, कोई गहरा विश्वसनीय आयाम ही दे पाता है। नाटक में प्रस्तुत कालिदास बड़ा क्षुद्र और आत्मकेन्द्रित, बल्कि स्वार्थी व्यक्ति है। साथ ही उसके व्यक्तित्व में कोई तत्व ऐसा नहीं दीख पड़ता, जो उसकी महानता का, उसकी असाधारण सर्जनात्मक प्रतिभा का, स्रोत्र समझा जा सके या उसका औचित्य सिद्ध कर सके। राज्य की ओर से सम्मान और निमंत्रण मिलने पर वह नहीं-नहीं करता हुआ भी अंत में उज्जैन चला ही जाता है। कश्मीर का शासक बनने पर गाँव में आकर भी मल्लिका से मिलने नहीं आता; अंत में मल्लिका के जीवन की उतनी करुण, दुखद परिणति देखकर भी उसे छोड़कर कायरतापूर्वक चुपचाप खिसक पड़ना संभव पाता है। ये सभी उसके व्यक्तित्व के ऐसे पक्ष हैं, जो उसको एक अत्यन्त साधारण व्यक्ति के रूप में ही प्रकट करते हैं। निस्संदेह, किसी महान् सर्जनात्मक व्यक्तित्व में महानता और नीचता के दो छोरों का एक साथ अंतर्ग्रथित होना संभव है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास का हीन रूप ही दीख पड़ता है। महानता को छूने वाले सूत्र का छोर कहीं नहीं नज़र आता। लेखक उसके भीतर ऐसे तीव्र विरोधी तत्त्वों का कोई संघर्ष भी नहीं दिखा सकता है, जो इस क्षुद्रता के साथ-साथ उसकी असाधारण सर्जनशीलता को विश्वसनीय बना सके। कालिदास की यह स्थिति नाटक को किसी-किसी हद तक किसी भी गहराई के साथ व्यंजित नहीं होने देती।

                विसदृशता के दो अन्य रोचक रूप हैं- मल्लिका की माँ अम्बिका और कालिदास का मामा मातुल। दोनों बुजुर्ग हैं, नाटक के दो प्रमुख तरुण पात्रों के अभिभावक। दोनों ही अपने-अपने प्रतिपालितों से असन्तुष्ट, बल्कि निराश हैं। फिर भी दोनों एक दूसरे से एकदम भिन्न, बल्कि लगभग विपरीत हैं। दोनों के बीच यह भिन्नता संस्कार, जीवनदृष्टि, स्वभाव, व्यवहार, बोलचाल, भाषा आदि अनेक स्तरों पर उकेरी गयी है। इससे मल्लिका और कालिदास दोनों के चरित्र अधिक सूक्ष्म और रोचकता के साथ रूपायित हो सके हैं। ऐसी ही दिलचस्प विसदृशता विक्षेप और कालिदास तथा मल्लिका और प्रियंगुमंजरी के बीच भी रची गयी है। इसी तरह बहुत संयत और प्रभावी ढंग से, व्यंग्य और सूक्ष्म हास्य के साथ, समकालीन स्थितियों की अनुगूंज पैदा की गयी है रंगिणा-संगिणी और अनुस्वार-अनुनासिक की दो जोड़ियों के द्वारा। ये थोड़ी ही देर के लिए आते हैं, पर बड़ी कुशलता से कई बातें व्यंजित कर जाते हैं। वास्तव में ‘आषाढ़ का एक दिन’ की लेखन और प्रदर्शन दोनों ही स्तरों पर व्यापक सफलता का आधार है उसकी बेहद सधी हुई, संयमति और सुचिंतित पात्र-योजना। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ पिछले तीस-बत्तीस वर्षों में भारत की अनेक भाषाओं में, अनेक केन्द्रों में बार-बार खेला गया है और अब भी उसका आकर्षण कुछ कम नहीं हुआ है।

                निस्संदेह, हिन्दी नाटक के परिप्रेक्ष्य में और भाववस्तु और रूपबंध दोनों स्तर पर ‘आषाढ़ का एक दिन’ ऐसा पर्याप्त सघन, तीव्र और भावोद्दीप्त लेखन प्रस्तुत करता है, जैसा हिन्दी नाटक में बहुत कम ही हुआ है। उसमें भाव और स्थिति की गहराई में जाने का प्रयास है और पूरा नाटक एक साथ कई स्तरों पर प्रभावकारी है। बिंबों के बड़े प्रभावी नाटकीय प्रयोग के साथ उसमें शब्दों की अपूर्व मितव्ययता भी है और भाषा में ऐसा नाटकीय काव्य है, जो हिंदी नाटकीय गद्य के लिए अभूतपूर्व है। हिन्दी के ढेरों तथा कथित ऐतिहासिक नाटकों से ‘आषाढ़ का एक दिन’ इसलिए मौलिक रूप में भिन्न है कि उसमें अतीत का न तो तथाकथित विवरण है, न पुनरुथानवादी गौरव-गान, और न ही वह द्विजेंद्रलाल राय के नाटकों की शैली में कोई भावुकतापूर्ण अतिनाटकीय स्थितियाँ रचने की कोशिश करता है। उसकी दृष्टि कहीं ज्यादा आधुनिक और सूक्ष्म है, जिसके कारण वह सही अर्थ में आधुनिक हिन्दी नाटक की शुरुआत का सूचक है।

                लहरों के राजहंस में और भी जटिल प्रश्नों को उठाते हुए जीवन की सार्थकता, भौतिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन के द्वन्द, दूसरों के द्वारा अपने मत को दुनिया पर थोपने का आग्रह जैसे विषय उठाये गए हैं। राकेश के नाटकों को रंगमंच पर मिली शानदार सफलता इस बात का गवाह बनी कि नाटक और रंगमंच के बीच कोई खाई नही है। 'लहरों के राजहंस' में एक ऐसे कथानक का नाटकीय पुनराख्यान है, जिसमें सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध तथा उनके बीच खड़े हुए व्यक्ति के द्वारा निर्णय लेने का अनिवार्य द्वन्द्व निहित है। इस द्वन्द्व का एक दूसरा पक्ष स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबंधों का अंतर्विरोध है। जीवन के प्रेय और श्रेय के बीच एक कृत्रिम और आरोपित द्वन्द्व है, जिसके कारण व्यक्ति के लिए चुनाव कठिन हो जाता है और उसे चुनाव करने की स्वतंत्रता भी नहीं रह जाती। अनिश्चित, अस्थिर और संशयी मन वाले नंद की यही चुनाव की यातना ही इस नाटक का कथा-बीज और उसका केन्द्र-बिन्दु है। धर्म-भावना से प्रेरित इस कथानक में उलझे हुए ऐसे ही अनेक प्रश्नों का इस कृति में नए भाव-बोध के परिवेश में परीक्षण किया गया है।

                मोहन राकेश का यह नाटक ‘लहरों के राजहंस’ कुछ अंशों में ‘आषाढ़ का एक दिन’ की उपलब्धियों को अधिक सक्षम और गहरा करता है, यद्यपि रूपबंध के स्तर पर उसका तीसरा अंक अधिक दुर्बल है और पर्याप्त स्पष्टता और तीव्रता के साथ अभिव्यंजित नहीं होता। इसमें भी सुदूर अतीत के एक आधार पर आज के मनुष्य की बेचैनी और अन्तर्द्वन्द्व संप्रेषित है। हर व्यक्ति को अपनी मुक्ति का पथ स्वयं ही तलाश करना होता है। दूसरों के द्वारा खोजा गया पथ चाहे जितना श्रद्धास्पद हो, चाहे जितना आकर्षक और मोहक हो किसी संवेदनशील व्यक्ति का समाधान नहीं कर सकता। इसलिए नाटक के अंत में नंद न केवल बुद्ध द्वारा बलपूर्वक थोपा गया भिक्षुत्व अस्वीकार कर देता है, बल्कि सुंदरी के आत्मसंतुष्ट और छोटे वृत्त में आबद्ध किन्तु आकर्षक जीवन को भी त्यागकर चला जाता है। अपनी मुक्ति का मार्ग उसे स्वयं ही रचना होगा।

                इस नाटक में भी मोहन राकेश कार्य-व्यापार को दैनंदिनी क्रिया-कलाप से उठाकर एक सार्थक अनुभूति और उसके भीतर किसी अर्थ की खोज के स्तर पर ले जा सके हैं। किन्तु इसकी विषयवस्तु में पर्याप्त सघनता, एकाग्रता और संगति नहीं है। पहला अंक सुंदरी पर केन्द्रित जान पड़ता है, जिसमें नन्द एक लुब्ध मुग्ध, किसी हद तक संयोजित और संतुलनयुक्त, पति मात्र लगता है। दूसरे अंक से नाटक स्वयं उसके अंत:संघर्ष पर केन्द्रित होने लगता है, यद्यपि अभी इस संघर्ष की रूपरेखा अस्पष्ट है। तीसरे अंक में संघर्ष की आकृति तो स्पष्ट होने लगती है, किंतु वह किसी तीव्रता या गहराई का आयाम प्राप्त करने के बजाय अकस्मात ही नंद और सुंदरी के बीच एक प्रकार की गलतफ़हमी में खो जाता है। दोनों एक दूसरे के संघर्ष का, व्यक्तित्वों के विस्फोट का, सामना नहीं करते और नंद बड़ी विचित्र सी कायरता से चुपचाप घर छोड़कर चला जाता है। उसके इस पलायन की अनिवार्यता नाटक के कार्य व्यापार में नहीं है। बल्कि एक अन्य स्तर पर वह ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास के भी इसी प्रकार के भाग निकलने की याद दिलाता है। कुल मिलाकर, तीनों अंक अलग-अलग से लगते हैं, जिनमें सामग्रिक अन्विति नहीं अनुभव होती। किंतु इस कमी के बावजूद, पहला और दूसरा अंक अत्यन्त सावधानी से गठित और अपने आप में अत्यन्त कलापूर्ण है। विशेषकर दूसरे अंक में, नंद और सुंदरी के बीच दो अलग-अलग स्तरों पर चलनेवाले पारस्परिक आकर्षण उद्वेग तथा उसके तनाव की बड़ी सूक्षमता, संवेदनशीलता और कुशलता के साथ प्रस्तुत किया गया है।

आधे अधूरे

                मोहन राकेश का तीसरा व सबसे लोकप्रिय नाटक 'आधे अधूरे' है । इस नाटक में नाटककार ने मध्यवर्गीय परिवार की दमित इच्छाओ कुंठाओ व विसंगतियो को दर्शाया है। इस नाटक की पृष्ठभूमि एतिहासिक न होकर आधुनिक मध्यवर्गीय समाज है। आधे अधूरे मे वर्तमान जीवन के टूटते हुए संबंधों, मध्यवर्गीय परिवार के कलहपुर्ण वातावरण, विघटन, सन्त्रास, व्यक्ति के आधे अधूरे व्यक्तित्व तथा अस्तित्व का यथात्मक सजीव चित्रण हुआ है । मोहन राकेश का यह नाटक, अनिता औलक की कहानी 'दिन से दिन' का नाट्य रूपांतरण है।

                'आधे अधूरे' आज के जीवन के एक गहन अनुभव खण्ड को मूर्त करता है। इसके लिए हिन्दी के जीवन्त मुहावरे को पकड़ने की सार्थक प्रभावशाली कोशिश की गई है। इस नाटक की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी भाषा है। इसमें वह सामर्थ्य है, जो समकालीन जीवन के तनाव को पकड़ सके। शब्दों का चयन उनका क्रम उनका संयोजन सब कुछ ऐसा है, जो बहुत सम्पूर्णता से अभिप्रेत को अभिव्यक्त करता है। लिखित शब्द की यह शक्ति और उच्चारित ध्वनिसमूह का यही बल है, जिसके कारण यह नाट्य रचना बन्द और खुले दोनों प्रकार के मंचों पर अपना सम्मोहन बनाये रख सकी। यह नाट्यालेख एक स्तर पर स्त्री-पुरुष के लगाव और तनाव का दस्तावेज़ है। दूसरे स्तर पर पारिवारिक विघटन की गाथा है। एक अन्य स्तर पर यह नाट्य रचना मानवीय सन्तोष के अधूरेपन का रेखांकन है। जो लोग जिन्दगी से बहुत कुछ चाहते हैं, उनकी तृप्ति अधूरी रहती है। एक ही अभिनेता द्वारा पाँच पृथक् भूमिका निभाये जाने की दिलचस्प रंग-युक्ति का सहारा इस नाटक की एक और विशेषता है। संक्षेप में, 'आधे अधूरे' समकालीन ज़िन्दगी का पहला सार्थक हिन्दी नाटक है। इसका गठन सुदृढ़ एवं रंगोपयुक्त है। पूरे नाटक की अवधारणा के पीछे सूक्ष्म रंगचेतना निहित है।

                'आधे अधूरे' सिर्फ़ एक नाटक ही नहीं है। यह हमारे समाज, परिवार, व्यक्ति और उनके पारस्परिक सम्बन्धों में आए और लगातार आ रहे बदलाव का गम्भीर समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी है। इक्कीसवीं शताब्दी के आरम्भ में परिवार और विवाह जैसी समय-सिद्ध संस्थाओं के विघटन, मानवीय मूल्यों के पतन तथा सर्वग्रासी महत्वाकांक्षा की अन्धी दौड़ से उपजी जिन अर्थ एवं कामज विकृतियों को आज सर्वत्र सार्वजनिक तांडव करते देखा जाता है। ये भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद और पश्चिमी संस्कृति एवं मीडिया के अदम्य आक्रमण के कारण तेज़ी से उफ़नी ज़रूर हैं, लेकिन अचानक पैदा नहीं हो गई हैं। इनके बीज तो स्वतन्त्रता और विभाजन के बाद हुए मोहभंग के साथ ही हमारी धरती में पड़ गए थे। साठ के दशक से इनका अंकुरना शुरू हुआ। सत्तर के दशक में ये हमारे जीवन और समाज में कुनमुनाने–कसमसाने लगे थे। पहले इन परिवर्तनों की दबी-घुटी स्पष्ट अभिव्यक्ति महानगर के उच्च मध्यवर्गीय परिवारों में हुई। भीतर ही भीतर इनका क्रमिक विकास और विस्तार होता रहा। बस, परिवेश और परिस्थितियों की अनुकूलता पाकर आज इनका व्यापक विस्फोट हो गया है।


                मोहन राकेश के अवदान का महत्व इसी बात से समझा जा सकता हैं कि उनके अवसान के बाद हिंदी नाटक ठहर सा गया है। साहित्यकार प्रेम जनमेजय का कहना है, ''मोहन राकेश की रचनाओं में गजब की प्रयोगशीलता थी। उनके हर नाटक और उपन्यास में कुछ अलग है। एक महान लेखक होने के अलावा उनमें लेखकीय स्वाभिमान था। इसको लेकर वह विख्यात हैं। नई कहानी दौर में उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई।''
(दिव्य नर्मदा. इन से साभार)
***

शुक्रवार, 9 जून 2023

शहतूत, अम्मी, आँसू, दोहा, शे'र, ब्रह्म, ब्रम्हांश, हिंदी ग़ज़ल, तेवरी, मुक्तिका,

तेवरी / मुक्तिका :
मुमकिन
*
शीश पर अब पाँव मुमकिन.
धूप के घर छाँव मुमकिन..
.
बस्तियों में बहुत मुश्किल
जंगलों में ठाँव मुमकिन..
.
नदी सूखी, घाट तपता.
तोड़ता दम गाँव मुमकिन..
.
सिखाता उस्ताद कुश्ती.
छिपाकर इक दाँव मुमकिन..
.
कौन पाहुन है अवैया?
'सलिल'-अँगना काँव मुमकिन..
९-६-२०१७
***
मुक्तिका
*
खुद को खुद माला पहनाओ
अख़बारों में खबर छपाओ
.
करो वायदे, बोलो जुमला
लोकतंत्र को कफ़न उढ़ाओ
.
बन समाजवादी अपनों में
सत्ता-पद-मद बाँट-लुटाओ
.
आरक्षण की माँग रेवड़ी
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटो-खाओ
.
भीख माँगकर पुरस्कार लो
नगद पचा वापिस लौटाओ
.
घर की कमजोरी बाहर कह
गैरों से ताली बजवाओ
.
नाच न आये, तो मत सीखो
आँगन को टेढ़ा बतलाओ
[संस्कारी जातीय छंद ]
***
हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म से परमात्म की फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का वाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
२-५-२०१६
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
नवगीत:
*
जिंदगी की पढ़ो पुस्तक
सीख कर
कुछ नव लिखो,
दूसरों जैसे
दिखों मत
अलग औरों से दिखो.
*
उषा की किरणें सुनहरी
'सलिल' लहरों संग खेलें
जाल सिकता पर बनायें
परे भँवरों को ढकेलो
बाट सीढ़ी घाट पर चल
नाव ले
आगे बढ़ो.
मत उतारों से डरो रे
चढ़ावों पर हँस चढ़ो
अलग औरों से दिखो.
*
दुपहरी सीकर नहाओ
परिश्रम का पथ वरो
तार दो औरों को पहले
स्वार्थ साधे बिन तरो
काम करना कुछ न ऐसा
बिना मारे
खुद मरो.
रखो ऊँचा सदा मस्तक
पीर निज गुपचुप पियो रे
सभी के बनकर जियो
अलग औरों से दिखो.
*
साँझ से ले लालिमा कुछ
अपने सपनों पर मलो
भास्कर की तरह हँस फिर
ऊगने खातिर ढलो
निशा को देकर निमन्त्रण
नींद पलकों
पर मलो.
चन्द्रमा दे रहा दस्तक
चन्द्रिका अँजुरी भरो रे
क्षितिज-भू दीपित करो
अलग औरों से दिखो.
***
नव गीत:
आँसू और ओस
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद
मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम
हँस-मुस्का
प्रिय! सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी तो कहें:
बहुत रुके
'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' नाद
कलकल ध्वनि हम
नित गहिये हमको...
*
द्विपदियाँ (शे'र)
संजीव
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बहे आँसू मगर इस इश्क ने नही छोड़ा
दिल जलाया तो बने तिल ने दिल ही लूट लिया
***
दोहा का रंग आँसू के संग
*
आँसू टँसुए अश्रु टिअर, अश्क विविध हैं नाम
नयन-नीर निरपेक्ष रह, दें सुख-दुःख पैगाम
*
भाषा अक्षर शब्द नत, चखा हार का स्वाद
कर न सके किंचित कभी, आँसू का अनुवाद
*
आह-वाह-परवाह से, आँसू रहता दूर
कर्म धर्म का मर्म है, कहे भाव-संतूर
*
घर दर आँगन परछियाँ, तेरी-मेरी भिन्न
साझा आँसू की फसल, करती हमें अभिन्न
*
आल्हा का आँसू छिपा, कजरी का दृष्टव्य
भजन-प्रार्थना कर हुआ, शांत सुखद भवितव्य
*
बूँद-बूँद बहुमूल्य है, रखना 'सलिल' सम्हाल
टूटे दिल भी जोड़ दे, आँसू धार कमाल
*
आँसू शोभा आँख की, रहे नयन की कोर
गिरे-बहे जब-तब न हो, ऐसी संध्या-भोर
*
मैं-तुम मिल जब हम हुए, आँसू खुश था खूब
जब बँट हम मैं-तुम हुए, गया शोक में डूब
*
आँसू ने हरदम रखा, खुद में दृढ़ विश्वास
सुख-दुःख दोहा-सोरठा, आँसू है अनुप्रास
*
ममता माया मोह में, आँसू करे निवास
क्षोभ उपेक्षा दर्द दुःख, कुछ पल मात्र प्रवास
*
आँसू के संसार से, मैल-मिलावट दूर
जो न बहा पाये 'सलिल', बदनसीब-बेनूर
*
इसे अगर काँटा चुभे, उसको होती पीर
आँसू इसकी आँख का, उसको करे अधीर
*
आँसू के सैलाब में, डूबा वह तैराक
नेह-नर्मदा का क़िया, जिसने दामन चाक
*
आँसू से अठखेलियाँ, करिए नहीं जनाब
तनिक बहाना पड़े तो, खो जाएगी आब
*
लोहे से कर सामना, दे पत्थर को फोड़
'सलिल' सूरमा देखकर, आँसू ले मुँह मोड़
*
बहे काल के गाल पर, आँसू बनकर कौन?
राधा मीरा द्रौपदी, मोहन सोचें मौन
*
धूप-छाँव का जब हुआ, आँसू को अभ्यास
सुख-दुःख प्रति समभाव है, एक त्रास-परिहास
*
सुख का रिश्ता है क्षणिक, दुःख का अप्रिय न चाह
आँसू का मुसकान सँग, रिश्ता दीर्घ-अथाह
*
तर्क न देखे भावना, बुद्धि करे अन्याय
न्याय संग सद्भावना, आँसू का अभिप्राय
*
मलहम बनकर घाव का, ठीक करे हर चोट
आँसू दिल का दर्द हर, दूर करे हर खोट
*
मन के प्रेशर कुकर में, बढ़ जाता जब दाब
आँसू सेफ्टी वाल्व बन, करता दूर दबाव
*
बहे न आँसू आँख से, रहे न दिल में आह
किसको किससे क्या पड़ी, कौन करे परवाह?
*
आँसू के दरबार में, एक सां शाह-फ़क़ीर
भेद-भाव होता नहीं, ख़ास न कोई हक़ीर
9-6-2015
***
नवगीत:
जो नहीं हासिल...
संजीव 'सलिल'
*
जो नहीं हासिल
वही सब चाहिए...
*
जब किया कम काम
ज्यादा दाम पाया.
या हुए बदनाम
या यश-नाम पाया.
भाग्य कुछ अनुकूल
थोड़ा वाम पाया.
जो नहीं भाया
वही अब चाहिए...
*
चैन पाकर मन हुआ
बेचैन ज्यादा.
वजीरों पर हुआ हावी
चतुर प्यादा.
किया लेकिन निभाया
ही नहीं वादा.
पात्र जो जिसका
वही कब चाहिए...
*
सगे सत्ता के रहे हैं
भाट-चारण.
संकटों का, कंटकों का
कर निवारण.
दूर कर दे विफलता के
सफल कारण.
बंद मुट्ठी में
वही रब चाहिए...
*
कहीं पंडा, कहीं झंडा
कहीं डंडा.
जोश तो है गरम
लेकिन होश ठंडा.
गैस मँहगी हो गयी
तो जला कंडा.
पाठ-पूजा तज
वही पब चाहिए..
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब से
कर लिया झगड़ा.
मलिनता ने धवलता को
'सलिल' रगडा.
शनिश्चर कमजोर
मंगल पड़ा तगड़ा.
दस्यु के मन में
छिपा नब चाहिए...
९-६-२०१२
***
स्वास्थ्य / आयुर्वेद
शहतूत -
यह मूलतः चीन में पाया जाता है | यह साधारणतया जापान ,नेपाल,पाकिस्तान,बलूचिस्तान ,अफगानिस्तान ,श्रीलंका,वियतनाम तथा सिंधु के उत्तरी भागों में पाया जाता है | भारत में यह पंजाब,कश्मीर,उत्तराखंड,उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी पश्चिमी हिमालय में पाया जाता है | इसकी दो प्रजातियां पायी जाती हैं | १- तूत (शहतूत) २-तूतड़ी |
इसके फल लगभग २.५ सेंटीमीटर लम्बे,अंडाकार अथवा लगभग गोलाकार ,श्वेत अथवा पक्वावस्था में लगभग हरिताभ-कृष्ण अथवा गहरे बैंगनी वर्ण के होते हैं | इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जनवरी से जून तक होता है | इसके फल में प्रोटीन,वसा,कार्बोहायड्रेट,खनिज,कैल्शियम,फॉस्फोरस,कैरोटीन ,विटामिन A ,B एवं C,पेक्टिन,सिट्रिक अम्ल एवं मैलिक अम्ल पाया जाता है |आज हम आपको शहतूत के औषधीय गुणों से अवगत कराएंगे -
१- शहतूत के पत्तों का काढ़ा बनाकर गरारे करने से गले के दर्द में आराम होता है ।
२- यदि मुँह में छाले हों तो शहतूत के पत्ते चबाने से लाभ होता है |
३- शहतूत के फलों का सेवन करने से गले की सूजन ठीक होती है |
४- पांच - दस मिली शहतूत फल स्वरस का सेवन करने से जलन,अजीर्ण,कब्ज,कृमि तथा अतिसार में अत्यंत लाभ होता है |
५- एक ग्राम शहतूत छाल के चूर्ण में शहद मिलाकर चटाने से पेट के कीड़े निकल जाते हैं |
६- शहतूत के बीजों को पीस कर लगाने से पैरों की बिवाईयों में लाभ होता है |
७- शहतूत के पत्तों को पीसकर लेप करने से त्वचा की बीमारियों में लाभ होता है|
८- सूखे हुए शहतूत के फलों को पीसकर आटे में मिलाकर उसकी रोटी बनाकर खाने से शरीर पुष्ट होता है
***
मुक्तिका:
अम्मी
*
माहताब की
जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी
पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.
कौन बताये
कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की
सूनी आँखों में,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकीपहुनाई अम्मी.
बसा सासरे
केवल तन है.
मन तो तेरे
साथ रह गया.
इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.
अब्बा में
तुझको देखा है,
तू ही
बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ,
तू ही दिखती
भाई और
भौजाई अम्मी.
तू दीवाली ,
तू ही ईदी.
तू रमजान
और होली है.
मेरी तो हर
श्वास-आस में
तू ही मिली
समाई अम्मी.
९-६-२०१०
*********

गुरुवार, 8 जून 2023

सोनेट लेखन, मिल्टन, शन्नो, शेक्सपियर

सोनेट सलिला 
*

सोनेट अंग्रेजी में कविता का एक रूप है। सोनेट (sonnet) एक इटालियन शब्द सोनेटो (sonetto) से बना है जिसका अर्थ है नन्हा गीत या लघु गीत (little song)। तेरहवीं शताब्दी में आते-आते यह १४ पंक्तियोंवाली कविता हो गया। सोनेट की लय के आधार पर इसे लिखने के कुछ विशिष्ट नियम हैं। सोनेट के रचयिता को सोनेटकार (sonneteers) कहते हैं। सोनेट के इतिहास में समय-समय पर सोनेटकार कुछ न कुछ परिवर्तन करते रहे हैं। 

इंग्लिश या शेक्सपीरियन सोनेट 

सर्वाधिक प्रसिद्ध सोनेटकार विलियम शेक्सपियर ने १५४ सोंनेट्स इआंबिक  पेरामीटर में लिखे। शेक्सपियर के सोनेट का शिल्प विधान ABAB CDCD EFEF GG था। इसमें तीन चतुष्पदी के बाद एक द्विपदी का समायोजन है। अंग्रेजी द्विपदी (English couplets) लयबद्ध होती है जिसके अंतिम शब्द (पदांत) की समान तुक होती है।
 
इटेलियन या मिलटेनियन  सोनेट 

अन्य प्रसिद्ध सोनेटकार जॉन मिल्टन ने इटालियन शिल्प पर सोनेट लिखे। सोलहवीं शताब्दी में थॉमस याट (Wyatt) ने इटेलियाँ तथा फ्रेंच सोनेटों का अनुवाद करने के साथ अपने सोनेट भी लिखे। उन दिनों  सोनेट का विषय सामान्यत: प्रेम से सम्बंधित होता था। लन्दन में १५९० में जब प्लेग फैला तो सभी थियेटर आदिबंद हो गए, सभी नाटककारों को रंगमंच पर नाटक खेलना, अभिनय करना आदि प्रतिबंधित कार दिया गया था। उसे दौर में शेक्सपियर ने अपने सोनेट लिखे। १६७० के बाद काफी समय तक सोंनेट्स लिखने का शौक खत्म स हो गया। फ्रांसीसी क्रांति आरंभ होने पर अचानक सोनेट फिर लिखे जाने लगे और वर्ड्सवर्थ, मिल्टन, कीट्स, शैली आदि ने सोनेट लिखे। इटेलियन सोनेट में एक अठपदी (oktev) तथा एक षट्पदी या दो त्रिपदियों (sestek) का संयोजन होता है। इसका मीटर ABBAABBA CDECDE है।

सोनेट का रचना विधान 

१. सोंनेट में १४ काव्य पक्तियाँ होती हैं। 
२. प्रथम १२ पंक्तियाँ ४ - ४ पंक्तियों के ३ पद या अंतरे होते हैं। 
३. हर अंतरे की पहली-तीसरी पंक्ति तथा दूसरी-चौथी पंक्तियाँ समान लय तथा पदांत की होना आवश्यक है।  
४. शेष अंतिम २ पंक्तियाँ द्विपदी (couplet)  होती हैं जिसकी लय तथा पदांत समान होता है। 
५. सोंनेट की हर पंक्ति इआंबिक पैरामीटर ( iambic perameter) में लिखी होती है।  

इआंबिक पैरामीटर ( iambic perameter):

१.  इआंबिक पैरामीटर की काव्य पंक्ति २ उच्चारों के  ५ ध्वनि खंडों (syllables) में विभाजित होती है। 
२. इसमें ५ उच्चारों का कम जोर से (unstressed) उच्चारण किया जाता है जबकि अन्य ५ उच्चारों का अधिक जोर से (stressed) उच्चारण किया जाता है। 

यहाँ पर unstressed और stressed syllables की ताल (rhythm या beat) का उदाहरण शेक्सपियर द्वारा लिखी दो पंक्तियों में देखिये:

If mu - / -sic be / the food / of love, / play on
Is this / a dag - /- ger I / see be - / - fore me.

तो Syllables के हर pair को iambus कहते हैं. और हर iambus एक unstressed और एक stressed ताल से बनता है.

William Shakespeare के लिखे एक सोंनेट का उदाहरण देखिये:
(With rhyme scheme in four stanzas)

A Shall I compare thee to a summer's day?
B Thou art more lovely and more temperate:
A Rough winds do shake the darling buds of May
B And summer's lease hath all too short a date:

C Sometimes too hot the eye of heaven shines,
D And often is his gold complexion dimm'd;
C And every fair from fair sometime declines,
D By chance or nature's changing course untrimm'd;

E But thy eternal summer shall not fade
F Nor loose possession of that fair thou ow'st;
E Nor shall death brag thou wand'rest in his shade,
F When in eternal lines to time thou grow'st:

G So long as men can breathe or eyes can see,
G So long lives this, and this gives life to thee.

इसी ऊपर वाले सोंनेट का अब सरल अंग्रेजी में अनुवाद देखिये
(Divided in four line stanzas)

If I compare you to a summer's day
I'd have to say you are more beautiful and serene
By comparison, summer is rough on budding life
And doesn't last longer; once it has been;
At times the summer sun (heaven's eye) is too hot
And at other times clouds dim its brilliance
Everything fair in nature becomes less fair from time to time
No one can change (trim) nature or chance;
However, you yourself will not fade
Nor loose ownership of your fairness
Not even death will claim you
Because these lines I write will immortalize you;
Your beauty will last as long as men breathe and see,
As long as this sonnet lives and gives you life.

इसी सोंनेट का  हिंदी अनुवाद- 

अगर मैं तुम्हारी तुलना एक ग्रीष्म दिवस से करुँ
तो तुममें उससे कहीं अधिक शांति और सुन्दरता है
तुम्हारी तुलना में यह मई का खिला सा महीना भी
देर तक नहीं रुकेगा और जल्दी ही मुरझा सकता है.
कभी-कभी सूरज इतना तपता हुआ होता है
और कभी बादलों के पीछे जाकर छिप जाता है
समय के साथ प्रकृति भी फीकी हो जाती है
और अचानक वाली बातों पर जोर नहीं होता है.
फिर भी तुम अपने में कभी नहीं मुर्झाओगी
ना ही तुम्हारी सुन्दरता में कोई कमी आयेगी
यहाँ तक की मृत्यु भी तुम्हे कभी नहीं छू पायेगी
क्योंकि मेरी यह पंक्तियाँ तुम्हें अमर बना देंगीं.
जब तक पुरुष साँसें लेगा और आँखें देख सकेंगी
और जब तक यह sonnet रहेगा तुम भी रहोगी.

एक और सोंनेट का उदाहरण देखिये जो Edmund Spencer ने लिखा है:

One day I wrote her name upon the strand,
but came the waves and washed it away:
Again I wrote it with a second hand,
But came the tide, and made my pains his prey.
Vain man, said she, that doest in vain assay
A mortal thing so to immortalize,
For I myself shall like to this decay,
And eek my name he wiped out likewise.
Not so (quothI), let baser things devise
To die in dust, but you shall live by fame;
My verse your virtues rare shall eternize,
And in the heavens write your glorious name.
Where when as Death shall all the world subdue,
Out love shall live, and later life renew.

इसी सोंनेट का  हिंदी गद्य अनुवाद :

Edmund Spencer ने इस सोंनेट को अपनी पत्नी के लिये लिखा था. जिसमें वह समुद्र के किनारे बैठा हुआ अपनी कल्पना में खोया है कि वह एक युवती के संग बातचीत कर रहा है और चाहता है कि वह सुनहरा समय वहीँ थम जाए और फिर रेत में उसका नाम लिखकर उसे अमर बनाना चाहता है. किन्तु समुन्द्र की निर्मम लहरों ने ऐसा नहीं होने दिया और उस लिखे नाम को अपने संग बहा ले गईं, जैसा कि समय की निर्ममता अक्सर इंसान की बनी चीज़ों को मिटा देती है. लेकिन फिर भी वह हिम्मत नहीं हारता है और दूसरे तरीके से अपने प्रेम को अमर बनाना चाहता है..... और वह है......कविता के रूप में लिखकर.....उस नाम को पृथ्वी से उठाकर स्वर्ग में अमर बना देना चाहता है......जहाँ हमेशा के लिये प्रेम का नाम अमर हो जाए और सारा संसार या मृत्यु भी कुछ न बिगाड़ सके. जैसा कि पहले बताया था तो यह sonnet भी अधिकतर sonnets की तरह प्रेम के विषय पर लिखा गया है. यह प्रेम, कविता और धर्म की भावनाओं का मिश्रण है.

लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ परिवर्तन आए और लिखनेवाले लोग नियम भूल कर अपने ही तरीके से कप्लेट्स व सोंनेट्स लिखने लगे.

अब यहाँ आधुनिक ढंग से एक सोंनेट शन्नो अग्रवाल ने   लिखा है:

Sometimes the path of life becomes thorny
And the truth is sometimes hard to take
The people you know may be so corny
To save the hurt some will lie and fake,
Pain and happiness are the part of life
One's ignorance might numb the pain
Bitter words are always sharp as a knife
The battle of emotions all goes in a vain,
Hidden fury of nature whenever explodes
It wipes earth's beauty with both hands
There is a warning that comes in codes
Not known when death's hand expands.
Life is like a river and we float like a swan
Strange twist of fate can make us a pawn.

और अपने सोंनेट का मैंने हिंदी अनुवाद भी किया है:

कभी-कभी जीवन की पगडंडियाँ हो सकती हैं काँटों से भरी
सचाई को निगलना कभी बहुत कठिन भी हो सकता है
लोग जिन्हें तुम जानते हो उनमें हो सकती है भावुकता भरी
दर्द छिपाने को कोई बहाना होता है या कोई झूठ बोलता है.
दर्द और ख़ुशी हैं एक सच और बने हैं जीवन का हिस्सा
किसी की अज्ञानता उसके दर्द को कभी कर देती है कम
शब्दों का नुकीलापन सदा चुभता है छुरी जैसा और कड़वा सा
भावनाएँ मन में उलझती रहती हैं पर न कम होता है गम.
जब-जब प्रकृति अपने कोप का भयानक रूप दिखाती है
वह मिटा देती है अपने दोनों हाथों से धरती की सुन्दरता
लेकिन पहले से ही चेतावनी कुछ इशारों से मिल जाती है
अचानक मृत्यु के खुले हाथों की अनुभव होती है निकटता.
जीवन एक नदी की तरह है जिसमें हम हंस बन तैरते हैं
कभी तकदीर के खेल में हम मोहरा बन भी फिसलते हैं.

और यह रहा एक और सोंनेट इसे भी शन्नो जी ने ही लिखा है:

The word MUM doesn't echo in the house these days
Reading your text the tears ran down my cheeks
But to know you are sound and safe gives me relief
To see and hug you I have to wait a few more weeks.
I knew the day will come when you spread your wings
You will go to places and the world will be at your feet
To love children also means they enjoy some freedom
Also learn to calm down in the moments of heat.
You will have to make decisions that matter in life
You have grown to be sensible, thoughtful and wise
In life wheather there is a gentle breeze or a storm
But each day you wake up to find a new surprise.
You are a pure joy to me and I can't ask for more
I wish you the joys and the success be at your door.

ऊपरी सोंनेट का भी हिंदी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है:

''माँ'' शब्द न गूंजा कबसे घर में कितना है खालीपन
टेक्स्ट तुम्हारा पढ़कर यह आँखें मेरी निर्झर बन जातीं
जहाँ कहीं हो ठीक-ठाक हो जानके खुश हो जाता है मन
देखूँगी बेटे को फिर से सोच के जलती नयनों की बाती.
पता मुझे था कबसे एक दिन पंख तुम्हारे जब फैलेंगे
एक जगह से उड़कर तुम दुनिया भर में भ्रमण करोगे
नेह करो बच्चों से तो उन पर के कुछ बंधन भी टूटेंगे
अगर कभी कुछ बुरा लगे तो अपने को तुम शांत रखोगे.
बहुत जटिल है यह जीवन ढंग से ही कोई निश्चय करना
समझदार और बुद्धिमान हो समझबूझ के कदम उठाना
सरस हवा सहलाएगी पर यदि आंधी आये तो ना डरना
नयी भोर लायेगी संग अपने एक नयी उमंग का सपना.
मेरी आँखों के तारे तुम, और खुशिओं का एक खजाना
द्वार सफलता दस्तक दे, हर दिन हो खुशिओं का आना.
***