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बुधवार, 31 मई 2023

कुंडली, दोहा, सिर, पहेली, मुक्तिका, तुम, नवगीत, श्री-श्री,


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श्री-श्री चिंतन: दोहा गुंजन
*
प्लास्टिक का उपयोग तज, करें जूट-उपयोग।
दोना-पत्तल में लगे, अबसे प्रभु को भोग।।
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रेशम-रखे बाँधकर, रखें प्लास्टिक दूर।
माला पहना सूत की, स्नेह लुटा भरपूर।।
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हम प्रकृति को पूज लें जीव-जंतु-तरु मित्र।
इनके बिन हो भयावह, मित्र प्रकृति का चित्र।।
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प्लास्टिक से मत जलाएँ पैरा, खरपतवार।
माटी-कीचड में मिला, कर भू का सिंगार।।
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प्रकृति की पूजा करें, प्लास्टिक तजकर बंधु।
प्रकृति मित्र-सुत हों सभी, बनिए करुणासिंधु।।
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अतिसक्रियता से मिले, मन को सिर्फ तनाव।
अनजाने गलती करे, मानव यही स्वाभाव।।
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जीवन लीला मात्र है, ब्रम्हज्ञान कर प्राप्त।
खुद में सारे देवता, देख सको हो आप्त।।
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धारा अनगिन ज्ञान की, साक्षी भाव निदान।
निज आनंद स्वरुप का, तभे हो सके ज्ञान।।
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कथा-कहानी बूझकर, ज्ञान लीजिए सत्य।
ज्यों का त्यों मत मानिए, भटका देगा कृत्य।।
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मछली नैन न मूँदती, इंद्र नैन ही नैन।
गोबर क्या?, गोरक्ष क्या?, बूझो-पाओ चैन।।
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जहाँ रुचे करिए वहीं, सता कीजिए ध्यान।
सम सुविधा ही उचित है, साथ न हो अभिमान
३१.५.२०१८
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हिंदी शब्द सलिला
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चरण पूर्ति:
मुझे नहीं स्वीकार -प्रथम चरण
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मुझे नहीं स्वीकार है, मीत! प्रीत का मोल.
लाख अकिंचन तन मगर, मन मेरा अनमोल.
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मुझे नहीं स्वीकार है, जुमलों का व्यापार.
अच्छे दिन आए नहीं, बुरे मिले सरकार.
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मुझे नहीं स्वीकार -द्वितीय चरण
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प्रीत पराई पालना, मुझे नहीं स्वीकार.
लगन लगे उस एक से, जो न दिखे साकार.
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ध्यान गैर का क्यों करूँ?, मुझे नहीं स्वीकार.
अपने मन में डूब लूँ, हो तेरा दीदार.
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मुझे नहीं स्वीकार -तृतीय चरण
*
माँ सी मौसी हो नहीं, रखिए इसका ध्यान.
मुझे नहीं स्वीकार है, हिंदी का अपमान.
*
बहू-सुता सी हो सदा, सुत सा कब दामाद?
मुझे नहीं स्वीकार पर, अंतर है आबाद.
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मुझे नहीं स्वीकार -चतुर्थ चरण
*
अन्य करे तो सर झुका, मानूँ मैं आभार.
अपने मुँह निज प्रशंसा, मुझे नहीं स्वीकार.
*
नहीं सिया-सत सी रही, आज सियासत यार!.
स्वर्ण मृगों को पूजना, मुझे नहीं स्वीकार.
३१.५.२०१८
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नवगीत:
ओ उपासनी
*
ओ उपासनी!
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
हो सुहासिनी!
*
भोर, दुपहरी, साँझ, रात तक
अथक, अनवरत
बहती रहतीं।
कौन बताये? किससे पूछें?
शांत-मौन क्यों
कभी न दहतीं?
हो सुहासिनी!
सबकी सब खुशियों का करती
अंतर्मन में द्वारचार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
इधर लालिमा, उधर कालिमा
दीपशिखा सी
जलती रहतीं।
कोना-कोना किया प्रकाशित
अनगिन खुशियाँ
बिन गिन तहतीं।
चित प्रकाशनी!
श्वास-छंद की लय-गति-यति सँग
मोह रहीं मन अलंकार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
चौका, कमरा, आँगन, परछी
पूजा, बैठक
हँसती रहतीं।
माँ-पापा, बेटी-बेटा, मैं
तकें सहारा
डिगीं, न ढहतीं
मन निवासिनी!
आपद-विपद, कष्ट-पीड़ा का
गुप-चुप करतीं फलाहार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
२४-२-२०१६

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पहेली
जेब काट ले प्राण निकाल
बचो, आप को आप सम्हाल.
प्रिय बनकर जब लूटे डाकू
क्या बोलोगे उसको काकू?
उत्तर
घातक अधिक न उससे चाकू
जान बचा छोड़ो तम्बाकू
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दोहा सलिला:
दोहा का रंग सिर के संग
*
पहले सोच-विचार लें, फिर करिए कुछ काम
व्यर्थ न सिर धुनना पड़े, अप्रिय न हो परिणाम
*
सिर धुनकर पछता रहे, दस सिर किया काज
बन्धु सखा कुल मिट गया, नष्ट हो गया राज
*
सिर न उठा पाए कभी, दुश्मन रखिये ध्यान
सरकश का सर झुककर रखे सदा बलवान
*
नतशिर होकर नमन कर, प्रभु हों तभी प्रसन्न
जो पौरुष करता नहीं, रहता सदा विपन्न
*
मातृभूमि हित सिर कटा, होते अमर शहीद
बलिदानी को पूजिए, हर दीवाली-ईद
*
विपद पड़े सिर जोड़कर, करिए 'सलिल' विचार
चाह राह की हो प्रबल, मिल जाता उपचार
*
तर्पण कर सिर झुकाकर, कर प्रियजन को याद
हैं कृतज्ञ करिए प्रगट, भाव- रहें फिर शाद
*
दुर्दिन में सिर मूड़ते, करें नहीं संकोच
साया छोड़े साथ- लें अपने भी उत्कोच
*
अरि ज्यों सीमा में घुसे, सिर काटें तत्काल
दया-रहम जब-जब किया, हुआ हाल बेहाल
*
सिर न खपायें तो नहीं, हल हो कठिन सवाल
सिर न खुजाएँ तो 'सलिल', मन में रहे मलाल
*
अगर न सिर पर हों खड़े, होता कहीं न काम
सरकारी दफ्तर अगर, पड़े चुकाना दाम
*
सिर पर चढ़ते आ रहे, नेता-अफसर खूब
पांच साल गायब रहे, जाए जमानत डूब
*
भूल चूक हो जाए तो, सिर मत धुनिये आप
सोच-विचार सुधार लें, सुख जाए मन व्याप
*
होनी थी सो हो गयी, सिर न पीटिए व्यर्थ
गया मनुज कब लौटता?, नहीं शोक का अर्थ
*
सब जग की चिंता नहीं, सिर पर धरिये लाद
सिर बेचारा हो विवश, करे नित्य फरियाद
*
सिर मत फोड़ें धैर्य तज, सर जोड़ें मिल-बैठ
सही तरीके से तभी, हो जीवन में पैठ
*
सिर पर बाँधे हैं कफन, अपने वीर जवान
ऐसा काम न कीजिए, घटे देश का मान
३१-५-२०१५

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नवगीत:
संजीव
*
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
कौए मन्दिर में बैठे हैं
गीध सिंहासन पा ऐंठे हैं
मन्त्र पढ़ रहे गर्दभगण मिल
करतल ध्वनि करते जेठे हैं.
पुस्तक लिख-छपते उलूक नित
चीलें पीर भईं
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
चूहे खलिहानों के रक्षक
हैं सियार शेरों के भक्षक
दूध पिलाकर पाल रहे हैं
अगिन नेवले वासुकि तक्षक
आश्वासन हैं खंबे
वादों की शहतीर नईं
*
न्याय तौलते हैं परजीवी
रट्टू तोते हुए मनीषी
कामशास्त्र पढ़ रहीं साध्वियाँ
सुन प्रवचन वैताल पचीसी
धुल धूसरित संयम
भोगों की प्राचीर मुईं
२७-५-२०१५
***
नवगीत:
संजीव
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
२५-५-२०१५
***

लेख:
कुंडली मिलान में गण-विचार
*
वैवाहिक संबंध की चर्चा होने पर लड़का-लड़की की कुंडली मिलान की परंपरा भारत में है. कुंडली में वर्ण का १, वश्य के २, तारा के ३, योनि के ४, गृह मैटरर के ५, गण के ६, भकूट के ७ तथा नाड़ी के ८ कुल ३६ गुण होते हैं.जितने अधिक गुण मिलें विवाह उतना अधिक सुखद माना जाता है. इसके अतिरिक्त मंगल दोष का भी विचार किया जाता है.
कुंडली मिलान में 'गण' के ६ अंक होते हैं. गण से आशय मन:स्थिति या मिजाज (टेम्परामेन्ट) के तालमेल से हैं. गण अनुकूल हो तो दोनों में उत्तम सामंजस्य और समन्वय उत्तम होने तथा गण न मिले तो शेष सब अनुकूल होने पर भी अकारण वैचारिक टकराव और मानसिक क्लेश होने की आशंका की जाती है. दैनंदिन जीवन में छोटी-छोटी बातों में हर समय एक-दूसरे की सहमति लेना या एक-दूसरे से सहमत होना संभव नहीं होता, दूसरे को सहजता से न ले सके और टकराव हो तो पूरे परिवार की मानसिक शांति नष्ट होती है। गण भावी पति-पत्नी के वैचारिक साम्य और सहिष्णुता को इंगित करते हैं।
ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थ कल्पद्रुम के अनुसार निम्न २ स्थितियों में गण दोष को महत्त्वहीन कहा गया है:
१. 'रक्षो गणः पुमान स्याचेत्कान्या भवन्ति मानवी । केपिछान्ति तदोद्वाहम व्यस्तम कोपोह नेछति ।।'
अर्थात जब जातक का कृतिका, रोहिणी, स्वाति, मघा, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा नक्षत्रों में जन्म हुआ हो।
२. 'कृतिका रोहिणी स्वामी मघा चोत्त्राफल्गुनी । पूर्वाषाढेत्तराषाढे न क्वचिद गुण दोषः ।।'
अर्थात जब वर-कन्या के राशि स्वामियों अथवा नवांश के स्वामियों में मैत्री हो।
गण को ३ वर्गों 1-देवगण, 2-नर गण, 3-राक्षस गण में बाँटा गया है। गण मिलान ३ स्थितियाँ हो सकती हैं:
1. वर-कन्या दोनों समान गण के हों तो सामंजस्य व समन्वय उत्तम होता है.
2. वर-कन्या देव-नर हों तो सामंजस्य संतोषप्रद होता है ।
३. वर-कन्या देव-राक्षस हो तो सामंजस्य न्यून होने के कारण पारस्परिक टकराव होता है ।
शारंगीय के अनुसार; वर राक्षस गण का और कन्या मनुष्य गण की हो तो विवाह उचित होगा। इसके विपरीत वर मनुष्य गण का एवं कन्या राक्षस गण की हो तो विवाह उचित नहीं अर्थात सामंजस्य नहीं होगा।
सर्व विदित है कि देव सद्गुणी किन्तु विलासी, नर या मानव परिश्रमी तथा संयमी एवं असुर या राक्षस दुर्गुणी, क्रोधी तथा अपनी इच्छा अन्यों पर थोपनेवाले होते हैं।
भारत में सामान्यतः पुरुषप्रधान परिवार हैं अर्थात पत्नी सामान्यतः पति की अनुगामिनी होती है। युवा अपनी पसंद से विवाह करें या अभिभावक तय करें दोनों स्थितियों में वर-वधु के जीवन के सभी पहलू एक दूसरे को विदित नहीं हो पाते। गण मिलान अज्ञात पहलुओं का संकेत कर सकता है। गण को कब-कितना महत्त्व देना है यह उक्त दोनों तथ्यों तथा वर-वधु के स्वभाव, गुणों, शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विचारकर तय करना चाहिए।
३१-५-२०१४
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मुक्तिका:
प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
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अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.
जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?
उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..
हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं
यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..
दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.
खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..
कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.
जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..
अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.
आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै..
नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.
हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..
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३१-५-२०१०

मय सभ्यता

-----------------:मय सभ्यता का क्या रहस्य है ?:-------------------
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इधर कुछ वर्षों में भविष्यवाणी और मय सभ्यता पर टी वी और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से काफी चर्चा देखने, सुनने और पढ़ने को मिलती रही है। मय सभ्यता के रहस्य और उनके गणना करने के तरीके पर लोगों का ध्यान काफी आकृष्ट हुआ है। भारत की प्रखर प्रज्ञा ने भी अंतर्योग और ज्ञानयोग से योग-तंत्र और ज्योतिष पर अपना अन्वेषण कार्य समय-समय पर किया है। भारत से अन्य देशों में यह विद्या फैली है--ऐसा सुधी विद्वानों का मत है। लेकिन भारत से हज़ारों मील दूर माया सभ्यता कैसे फली-फूली, उन्हें ग्रह-नक्षत्रों आदि की सटीक जानकारी कैसे हुई--यह शोध का विषय है।
आज का विज्ञान दिन-प्रति-दिन नित नयी खोज करता जा रहा है और नये-नये आयाम को करता जा रहा है स्पर्श। विज्ञान के पास वह सारी आधुनकि सुविधा है--चाहे पृथ्वी से परे गहन अंतरिक्ष की जानकारी हो, सुदूर आकाश गंगाओं, निहारिकाओं में होने वाली हलचल की जानकारी हो--अपनी आधुनिक सुविधाओं से वह सबकुछ जानकारी प्राप्त करता जा रहा है और आगे भी करता रहेगा। लेकिन यह सुविधा हज़ारों वर्ष पूर्व नहीं थी। फिर भी वह सटीक जानकारी, गहन ज्ञान, भविष्य में घटित होने वाली घटना का ज्ञान पृथ्वी की मानव जाति को कैसे हुआ--यह आश्चर्य का विषय है। चाहे भारत हो, चीन हो, तिब्बत्त हो, मिश्र हो या हो सुदूर अमेरिका, कनाडा आदि--सभी के ज्ञान की समानता कहीं न कहीं मिलती है। सबसे बड़े आश्चर्य का विषय है गुम्बद का आकार। एक सभ्यता ने दूसरी सभ्यता को न जानते हुए भी पिरामिड के आकार के स्तूप का निर्माण किया।
जहाँ तक भारतीय अध्यात्म के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि ऊर्ध्व त्रिकोण 'शिवतत्त्व' है और अधो त्रिकोण 'योनितत्व' है और इन दोनों के सामरस्य से जगत् में सृष्टि का शुभारंभ हुआ। ऊर्ध्व त्रिकोण समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है और अधो त्रिकोण है प्रतीक शक्ति का। उर्ध्व त्रिकोण के अंदर सात आकाश अथवा सात मण्डल अथवा सात लोक हैं। सात आकाश की मान्यता लगभग सभी धर्मों में है। विज्ञान इन्हीं को सात आयाम (seven dimensions)मानता है।
हमारा जगत् तीन आयामों वाला है। कुछ समय पूर्व वैज्ञानिकों ने सात सूर्य की खोज की थी। तीसरा सूर्य हमारे सौरमण्डल का अधिपति है। यह बहुत संभव है कि इन सात आयामों का संबंध हमारी पृथ्वी से हो। वैज्ञानिकों के अनुसार चौथे आयाम का समय मन्द है अर्थात् काल का प्रभाव अति मन्द है। लेकिन पृथ्वी पर कुछ ऐसे स्थान हैं जहाँ कोण कटता है, वहां पर कोई भी वस्तु गायब हो सकती है। वर्तमान में सबसे अधिक रहस्यमय है--बरमूडा ट्राइएंगल। उसकी हद में कोई भी वस्तु चाहे हवाई जहाज हो या पानी का जहाज हो--गायब हो जाती है। उनका सबका आजतक भी कोई पता नहीं चल पाया। आज भी उनकी खोज जारी है। प्रश्न यह है कि क्या वे चतुर्थ आयाम में चले गए या फिर और कोई रहस्य है ?--यह तो विज्ञान को खोजना है।
बहरहाल गुम्बद अथवा पिरामिड के कोण के माध्यम से हमारे पूर्वज ध्यान की गहन अवस्था में सुदूर ग्रह के लोगों से संपर्क करते आ रहे थे और ज्ञान भी प्राप्त करते आ रहे थे। उन ग्रहों में रहने वाले प्राणी हमसे ज्यादा ज्ञान, तकनीक और बुद्धि में विकसित हैं। कई बार अंतरिक्ष के प्राणी (एलियंस) प्राचीन काल से ही पृथ्वी पर आते रहे हैं, उड़न तश्तरियों जैसे यानों में उतरते देखे गए हैं। लेकिन क्या मय सभ्यता के लोगों का सम्बंध रहा होगा ऐसे प्राणियों से प्राचीन काल से--यह विचारणीय प्रश्न है।

जनेऊ

 जनेऊ 

शास्त्रों के अनुसार आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में माना गया है।

सनातन हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों में से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ भी कहते हैं। इस संस्कार में मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी अहम होते हैं।हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों में से एक 'उपनयन संस्कार' के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे 'यज्ञोपवीत संस्कार' भी कहा जाता है । ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥

जनेऊ को अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे – उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध, ब्रह्मसूत्र, आदि। जनेऊ संस्कार (जनेऊ धारण) की परम्परा वैदिक काल से चली आ रही है, जिसे उपनयन संस्कार भी कहते हैं।

उपनयन’ का अर्थ है – ” पास या सन्निकट ले जाना। ” किसके पास? – ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। सनातन हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों में से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ भी कहते हैं। इस संस्कार में मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी अहम होते हैं।

क्‍या है जनेऊ के धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व के साथ ही उसके स्वास्थ लाभ :- सनातन धर्म की पहचान : हिन्दू धर्म में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म।

जनेऊ क्या है : जनेऊ को संस्कृत भाषा में ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है। यह तीन धागों वाला सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात् इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे। जनेऊ में तीन सूत्र – त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक – देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक – सत्व, रज और तम के प्रतीक होते है। साथ ही ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक है तो तीन आश्रमों के प्रतीक भी। जनेऊ के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। अत: कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। इनमे एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। इनका मतलब है – हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने। जनेऊ में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। ये पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के भी प्रतीक है।

जनेऊ की लंबाई : जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है क्यूंकि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। 32 विद्याएं चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर होती है। 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि आती हैं।

जनेऊ धारण के समय बालक के हाथ में एक दंड होता है। इस दौरान वो बगैर सिला एक ही वस्त्र पहनता है और उसके गले में पीले रंग का दुपट्टा होता है। मुंडन के बाद शिखा रखी जाती है। पैर में खड़ाऊ होती है। मेखला, कोपीन, दंड : कमर में बांधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को मेखला कहते हैं। मेखला को मुंज और करधनी भी कहते हैं। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बनती है। कोपीन लगभग 4 इंच चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लंगोटी होती है। इसे मेखला के साथ टांक कर भी रखा जा सकता है। दंड रूप में लाठी या ब्रह्म दंड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत को पीले रंग में रंगकर रखा जाता है।

बगैर सिले वस्त्र पहनकर, हाथ में एक दंड लेकर, कोपीन और पीला दुपट्टा पहनकर विधि-विधान से जनेऊ धारण की जाती है। जनेऊ धारण करने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारक अपने संपूर्ण परिवार के साथ भाग लेता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किए गए जनेऊ को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसे गुरु दीक्षा के बाद ही धारण किया जाता है। अपवित्र होने पर इसे बदल लिया जाता है।

गायत्री मंत्र से शुरू होता है ये संस्कार : यज्ञोपवीत संस्कार गायत्री मंत्र से शुरू होता है। गायत्री- उपवीत का सम्मिलन ही द्विजत्व है। यज्ञोपवीत में तीन तार हैं,

गायत्री में तीन चरण हैं।

‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ प्रथम चरण, ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ द्वितीय चरण, ‘धियो यो न: प्रचोदयात् ’

तृतीय चरण है।

गायत्री महामंत्र की प्रतिमा – यज्ञोपवीत, जिसमें 9 शब्द, तीन चरण, सहित तीन व्याहृतियां समाहित हैं। इस मन्त्र से करते हैं यज्ञोपवीत संस्कार : यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

यज्ञोपवित संस्कार प्रारम्भ करने के पूर्व यज्ञोपवीत का मुंडन करवाया जाता है। संस्कार के मुहूर्त के दिन लड़के को स्नान करवाकर उसके सिर और शरीर पर चंदन केसर का लेप करते हैं और जनेऊ पहनाकर ब्रह्मचारी बनाते हैं। फिर हवन करते हैं। विधिपूर्वक गणेशादि देवताओं का पूजन, यज्ञवेदी एवं बालक को अधोवस्त्र के साथ माला पहनाकर बैठाया जाता है। इसके बाद दस बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित करके देवताओं के आह्‍वान के साथ उससे शास्त्र शिक्षा और व्रतों के पालन का वचन लिया जाता है। गुरु मंत्र सुनाकर कहता है कि आज से तू अब ब्राह्मण हुआ अर्थात ब्रह्म (सिर्फ ईश्वर को मानने वाला) को माने वाला हुआ। इसके बाद मृगचर्म ओढ़कर मुंज (मेखला) का कंदोरा बांधते हैं और एक दंड हाथ में दे देते हैं। तत्पश्चात्‌ वह बालक उपस्थित लोगों से भीक्षा मांगता है।

जनेऊ धारण करने की उम्र : जिस दिन गर्भ धारण किया हो उसके आठवें वर्ष में बालक का उपनयन संस्कार किया जाना चाहिए। जनेऊ पहनने के बाद ही विद्यारंभ होना चाहिए, लेकिन आजकल गुरु परंपरा के समाप्त होने के बाद अधिकतर लोग जनेऊ नहीं पहनते हैं तो उनको विवाह के पूर्व जनेऊ पहनाई जाती है। लेकिन वह सिर्फ रस्म अदायिगी से ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि वे जनेऊ का महत्व नहीं समझते हैं। किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना जरूरी है। हिन्दू धर्म में विवाह तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि जनेऊ धारण नहीं किया जाए।

मंगलवार, 30 मई 2023

परिचय नवीन

संक्षिप्त परिचय : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।


संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपिअर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश। ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८।

जन्म: २०-८-१९५२, मंडला मध्य प्रदेश।

माता-पिता: स्व. शांति देवी - स्व. राज बहादुर वर्मा।

प्रेरणास्रोत: बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा।

शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम. आई. ई., विशारद, एम. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.।

उपलब्धि :
- जीवन परिचय प्रकाशित ७ साहित्यकार कोश।
- 'हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी अब विमल मति दे' सरस्वती शिशु मंदिरों में दैनिक प्रार्थना करोड़ों विद्यार्थियों द्वारा गायन।
- इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी में तकनीकी लेख 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ को द्वितीय श्रेष्ठ - तकनीकी प्रपत्र पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति द्वारा।
- ५०० से अधिक नए छंदों की रचना। ९ बोलिओं में रचना, ७५ सरस्वती वंदना लेखन।

- विशेष: विश्व रिकॉर्ड - 
अ. विविध अभियंता संस्थाओं द्वारा जबलपुर में भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की ९ मूर्तियों की स्थापना कराई।
आ. 'भारत को जानें' परियोजना में सहभागिता । भारत के हर राज्य की सभ्यता, संस्कृति, पर्यटन, भुगओ, वनस्पति, कृषि, उद्योग आदि पर दोहों-चौपाइयों का सृजन।   
इ. 'भारत का संविधान' भारत के संविधान का दोहा-रोल छंद में रूपांतरण।  
- ट्रू मिडिया पत्रिका दिल्ली द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित।
- 'सलिल : एक साहित्यिक निर्झर' व्यक्तित्व-कृतित्व पर पुस्तक, लेखिका मनोरमा 'पाखी' भिंड।

संप्रति:
- पूर्व कार्यपालन यंत्री / पूर्व संभागीय परियोजना यंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.।
- अध्यक्ष इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर।
- अधिवक्ता म. प्र. उच्च न्यायालय।
- सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर।
सभापति, इंजीनियर्स फोरम (भारत)।
- संचालक समन्वय प्रकाशन संस्थान जबलपुर।
- पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष / महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद।
- पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा।
- संरक्षक राजकुमारी बाई बाल निकेतन जबलपुर।

प्रकाशित कृतियाँ:
१. कलम के देव (भक्ति गीत संग्रह १९९७)।
२. भूकंप के साथ जीना सीखें (जनोपयोगी तकनीकी १९९७)।
३. लोकतंत्र का मक़बरा (कविताएँ २००१)।
४. मीत मेरे (कविताएँ २००२)।
५. सौरभः (संस्कृत श्लोकों का दोहानुवाद) २००३, सहलेखन।
६. काल है संक्रांति का (नवगीत संग्रह) २०१६।
७. कुरुक्षेत्र गाथा (प्रबंध काव्य सहलेखन) २०१६।
८. सड़क पर (नवगीत संग्रह)२०१८।
९. ओ मेरे तुम श्रृंगार गीत संग्रह २०२१।
१०. आदमी अभी जिन्दा है (लघुकथा संग्रह) २०२२।
११. इक्कीस श्रेष्ठ (आदिवासी) लोककथाएँ मध्य प्रदेश २०२२।
१२. इक्कीस श्रेष्ठ बुंदेली लोककथाएँ मध्य प्रदेश २०२२।
१३. सरस छंद है सोरठा (हिंदी की प्रथम सोरठा सतसई) २०२२।
१४. सोनेट सलिला (हिंदी का प्रथम सोनेट संकलन) २०२३। 
१५. आरोग्य सलिला (५१ बीमारियों की वानस्पतिक चिकित्सा) मुद्रणाधीन। 
१६. आँख के तारे (शिशु गीत संकलन) मुद्रणाधीन। 
१७. दंत निपोरी (हास्य कविता संकलन) मुद्रणाधीन। 

संपादन:
(क) कृतियाँ: १. निर्माण के नूपुर (अभियंता कवियों का संकलन १९८३),२. नींव के पत्थर (अभियंता कवियों का संकलन १९८५), ३. राम नाम सुखदाई १९९९ तथा २००९, ४. तिनका-तिनका नीड़ २०००, ५. ऑफ़ एंड ओन (अंग्रेजी ग़ज़ल संग्रह) २००१, ६. यदा-कदा (ऑफ़ एंड ऑन का हिंदी काव्यानुवाद) २००४, ७ . द्वार खड़े इतिहास के २००६, ८. समयजयी साहित्यशिल्पी प्रो. भागवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' (विवेचना) २००६, ९-१०. काव्य मंदाकिनी २००८ व २०१०, ११, दोहा दोहा नर्मदा २०१८, १२. दोहा सलिला निर्मला २०१८, १३. दोहा दीप्त दिनेश २०१८।

(ख) स्मारिकाएँ: १. शिल्पांजलि १९८३, २. लेखनी १९८४, ३. इंजीनियर्स टाइम्स १९८४, ४. शिल्पा १९८६, ५. लेखनी-२ १९८९, ६. संकल्प १९९४,७. दिव्याशीष १९९६, ८. शाकाहार की खोज १९९९, ९. वास्तुदीप २००२ (विमोचन स्व. कुप. सी. सुदर्शन सरसंघ चालक तथा भाई महावीर राज्यपाल मध्य प्रदेश), १०. इंडियन जिओलॉजिकल सोसाइटी सम्मेलन २००४, ११. दूरभाषिका लोक निर्माण विभाग २००६, (विमोचन श्री नागेन्द्र सिंह तत्कालीन मंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.) १२. निर्माण दूरभाषिका २००७, १३. विनायक दर्शन २००७, १४. मार्ग (IGS) २००९, १५. भवनांजलि (२०१३), १७. आरोहण रोटरी क्लब २०१२, १७. अभियंता बंधु (IEI) २०१३।

(ग) पत्रिकाएँ: १. चित्राशीष १९८० से १९९४, २. एम.पी. सबॉर्डिनेट इंजीनियर्स मंथली जर्नल १९८२ - १९८७, ३. यांत्रिकी समय १९८९-१९९०, ४. इंजीनियर्स टाइम्स १९९६-१९९८, ५. एफोड मंथली जर्नल १९८८-९०, ६. नर्मदा साहित्यिक पत्रिका २००२-२००४, ७. शब्द समिधा २०१९ ।

(घ). भूमिका लेखन: ८५ पुस्तकें।

(च). तकनीकी लेख: १५।

(छ). समीक्षा: ३०० से अधिक।

अप्रकाशित कार्य-
मौलिक कृतियाँ:
जंगल में जनतंत्र, कुत्ते बेहतर हैं ( लघुकथाएँ), मुट्ठी में तकदीर (बाल गीत), दर्पण मत तोड़ो (गीत), आशा पर आकाश (मुक्तक), पुष्पा जीवन बाग़ (हाइकु), काव्य किरण (कवितायें), जनक सुषमा (जनक छंद), मौसम ख़राब है (गीतिका), गले मिले दोहा-यमक (दोहा), दोहा-दोहा श्लेष (दोहा), मूं मत मोड़ो (बुंदेली), जनवाणी हिंदी नमन (खड़ी बोली, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, सिरायकी रचनाएँ), छंद कोश, अलंकार कोश, मुहावरा कोश, दोहा गाथा सनातन, छंद बहर का मूल है, तकनीकी शब्दार्थ सलिला।

अनुवाद:
(अ) ७ संस्कृत-हिंदी काव्यानुवाद: नर्मदा स्तुति (५ नर्मदाष्टक, नर्मदा कवच आदि), शिव-साधना (शिव तांडव स्तोत्र, शिव महिम्न स्तोत्र, द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र आदि),रक्षक हैं श्री राम (रामरक्षा स्तोत्र), गजेन्द्र प्रणाम ( गजेन्द्र स्तोत्र), नृसिंह वंदना (नृसिंह स्तोत्र, कवच, गायत्री, आर्तनादाष्टक आदि), महालक्ष्मी स्तोत्र (श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र), विदुर नीति।

(आ) पूनम लाया दिव्य गृह (रोमानियन खंडकाव्य ल्यूसिआ फेरूल)।

(इ) सत्य सूक्त (दोहानुवाद)।

रचनायें प्रकाशित: मुक्तक मंजरी (४० मुक्तक), कन्टेम्परेरी हिंदी पोएट्री (८ रचनाएँ परिचय), ७५ गद्य-पद्य संकलन, लगभग ४०० पत्रिकाएँ। मेकलसुता पत्रिका में २ वर्ष तक लेखमाला 'दोहा गाथा सनातन' प्रकाशित, पत्रिका शिकार वार्ता में भूकंप पर आमुख कथा।

अंतरजाल पर- १९९८ से सक्रिय, हिन्द युग्म पर छंद-शिक्षण २ वर्ष तक, साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचनाशास्त्र' ८० अलंकारों पर लेखमाला, शताधिक छंदों पर लेखमाला।
विशेष उपलब्धि: ५०० से अधिक नए छंदों की रचना।, हिंदी, अंग्रेजी, बुंदेली, मालवी, निमाड़ी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, अवधी, बृज, राजस्थानी, सरायकी, नेपाली आदि में काव्य रचना।

सम्मान- ११ राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरयाणा, दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, असम, बंगाल, झारखण्ड) की विविध संस्थाओं द्वारा शताधिक सम्मान तथा अलंकरण। प्रमुख - संपादक रत्न २००३ श्रीनाथद्वारा, सरस्वती रत्न आसनसोल, विज्ञान रत्न, २० वीं शताब्दी रत्न हरयाणा, आचार्य हरयाणा, वाग्विदाम्बर उत्तर प्रदेश, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, वास्तु गौरव, मानस हंस, साहित्य गौरव, साहित्य श्री(३) बेंगलुरु, काव्य श्री, भाषा भूषण, कायस्थ कीर्तिध्वज, चित्रांश गौरव, कायस्थ भूषण, हरि ठाकुर स्मृति सम्मान, सारस्वत साहित्य सम्मान, कविगुरु रवीन्द्रनाथ सारस्वत सम्मान कोलकाता, युगपुरुष विवेकानंद पत्रकार रत्न सम्मान कोलकाता, साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान, भारत गौरव सारस्वत सम्मान, सर्वोच्च कामता प्रसाद गुरु वर्तिका अलंकरण जबलपुर, उत्कृष्टता प्रमाणपत्र, सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट, लोक साहित्य शिरोमणि अलंकरण गुंजन कला सदन जबलपुर २०१७, सर्वोच्च राजा धामदेव अलंकरण २०१७ गहमर, युग सुरभि २०१७, सर्वोच्च भवानी प्रसाद तिवारी प्रसंग अलंकरण जबलपुर २०२०, सर्वोच्च भारतेंदु पुरस्कार (५०००/-) उत्कर्ष साहित्य अकादमी दिल्ली २०२२ आदि।
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तांका छंद, मनहरण घनाक्षरी, कवित्त, मुक्तिका, दिंडी छंद, हाइकु, पलाश, दूर वार्ता,

गीत
बावरा मन
*
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
भुला बैठा आत्म को, परमात्म को भी
मुग्ध हैं नित निरख नवता नवल तन की
बावरा मन जाग सुमिरे लय भजन की
*
तंत्र का बन यंत्र मिथ्या मंत्र पढ़ता
नहीं दिखता इसे जोशीमठ बिखरता
काट जंगल, खोद पर्वत यह ठठाता
ताप बढ़ता धरा का इसको न नाता
हुआ दूषित पवन दूभर श्वास लेना
सूखती नदियां इसे लेना न देना
घिरा भक्तों से न चिंता है सुजन की
बताता जुमला न रख लज्जा वचन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
रंग बदले देख गिरगिट भी लजाता
ढंग बेहद अहंकारी, सच न भाता
ध्वज तिरंगा नहीं, भगवा चाहता यह
देशद्रोही विपक्षी को नित रहा कह
करे मनमानी न सहमति-पथ सुहाता
इसे उससे उसे इससे नित लड़ाता
पीर सुनता ही नहीं मन कृषक मन की
जले मणिपुर पर न चिंता है स्वजन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
आम था हो खास, खासुलखास है अब
कह रहा लिखना नया इतिहास है अब
नष्ट कर सद्भावना, विद्वेष बोता
दूरियों को जन्म दे, अपनत्व खोता
कीर्ति अपनी आप गाते नहिं अघाता
निकल जाए समय तो ठेंगा दिखाता
आग सुलगा बात करता है अमन की
है कहानी हर असहमति के दमन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
अहंकारी विरासत को ही भुलाता
श्रेय औरों का सदा अपना बताता
लगता है हर जगह निज नाम-पत्थर
तीर्थों में देव-दर्शन पर लगा कर
व्यर्थ जन-धन भव्य संसद बना करता
लोकमत पर तंत्र को देता प्रमुखता
गालियाँ दे, चाह करता है नमन की
मरुथलों पर पट्टिका चिपका चमन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
२६-५-२०२३
***
नवगीत
*
१. बेला
*
मगन मन महका
*
प्रणय के अंकुर उगे
फागुन लगे सावन.
पवन संग पल्लव उड़े
है कहाँ मनभावन?
खिलीं कलियाँ मुस्कुरा
भँवरे करें गायन-
सुमन सुरभित श्वेत
वेणी पहन मन चहका
मगन मन महका
*
अगिन सपने, निपट अपने
मोतिया गजरा.
चढ़ गया सिर, चीटियों से
लिपटकर निखरा
श्वेत-श्यामल गंग-जमुना
जल-लहर बिखरा.
लालिमामय उषा-संध्या
सँग 'सलिल' दहका.
मगन मन महका
******
२. खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
३. बाँस के कल्ले
*
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
जुही-जुनहाई मिलीं
झट गले
महका बाग़ रे!
गुँथे चंपा-चमेली
छिप हाय
दहकी आग रे!
कबीरा हँसता ठठा
मत भाग
सच से जाग रे!
बीन भोगों की बजी
मत आज
उछले पाग रे!
जवाकुसुमी सदाव्रत
कर विहँस
जागे भाग रे!
हास के पल्ले तले हँस
दर्द सब मिटता गया
त्रास को चुप झेलता तन-
सुलगता-जलता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
प्रथाएँ बरगद हुईं
हर डाल
बैठे काग रे!
सियासत का नाग
काटे, नेह
उगले झाग रे!
घर-गृहस्थी लग रही
है व्यर्थ
का खटराग रे!
छिप न पाते
चदरिया में
लगे इतने दाग रे!
बिन परिश्रम कब जगे
हैं बोल
किसके भाग रे!
पीर के पल्ले तले पल
दर्द भी हँसता गया
जमीं में जड़ जमाकर
नभ छू 'सलिल' उठता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
बालगीत:
बिटिया रानी
*
आँख में आँसू, नाक से पानी
क्यों रूठी है बिटिया रानी?
*
पल में खिलखिल कर हँस देगी
झटपट कह दो 'बहुत सयानी'।
*
ठेंगा दिखा रही भैया को
नटखट याद दिलाती नानी।
*
बारिश में जा छप-छप करती
झबला पहने हरियल-धानी।
*
टप-टप टपक रही हैं बूँदें
भीग गया है छप्पर-छानी।
*
पैर पटककर मचल न जाए
करने दो इसको मनमानी।
***
***
मुक्तिका
विधान: उन्नीस मात्रिक, महापौराणिक जातीय दिंडी छंद
*
साँस में आस; यारों अधमरी है।
अधर में चाह; बरबस ही धरी है।।
*
हवेली-गाँव को हम; छोड़ आए
कुठरिया शहर में; उन्नति करी है।।
*
हरी थी टौरिया, कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है।।
*
चली खोटी; हुई बाज़ार बाहर
वही मुद्रा हमेशा; जो खरी है।।
*
मँगा लो सब्जियाँ जो चाहता दिल
न खोजो स्वाद; सबमें इक करी है।।
*
न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है।।
***
दोहे
पीछे मुड़ क्या देखना?, देखें आगे राह.
क्या जाने हो किस घड़ी, पूरी मन की चाह.
*
समय गया कब?, क्या पता? हाथ न आया वक्त.
फिर मिल तो दूंगा सबक, तुझे सख्त कमबख्त.
३०-५-२०१८
***
विश्ववाणी हिंदी और हम
समाचार है कि विश्व की सर्वाधिक प्रभावशाली १२४ भाषाओं में हिंदी का दसवाँ स्थान है। हिंदी की आंचलिक बोलियों और उर्दू को मिलाने पर सूची में ११३ भाषाएँ यह स्थान आठवाँ होगा. भाषाओं की वैश्विक शक्ति का यह अनुमान इन्सीड(INSEAD) के प्रतिष्ठित फेलो डॉ. काई एल. चान (Dr. Kai L. Chan) द्वारा मई, २०१६ में तैयार किए गए पावर लैंग्वेज इन्डेक्स (Power Language Index) पर आधारित है।
इंडेक्स में हिंदी की कई लोकप्रिय बोलियों भोजपुरी, मगही, मारवाड़ी, दक्खिनी, ढूंढाड़ी, हरियाणवी आदि को अलग स्वतंत्र स्थान दिया गया है। वीकिपीडिया और एथनोलॉग द्वारा जारी भाषाओं की सूची में हिंदी को इसकी आंचलिक बोलियों से अलग दिखाने का भारत में भारी विरोध भी हुआ था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार हिंदी को खंडित और कमतर करके देखे जाने का सिलसिला जानबूझ कर हिंदी को कमजोर दर्शाने का षड़यंत्र है। ऐसी साजिशें हिंदी की सेहत के लिए ठीक नहीं। डॉ. चैन की भाषा- तालिका के अनुसार, हिंदी में सभी आंचलिक बोलियों को शामिल करने पर प्रथम भाषा के रूप में हिंदी बोलनेवालों की संख्या उसे विश्व में दूसरा स्थान दिला सकती है। इंडेक्स में अंग्रेजी प्रथम स्थान पर है, जबकि अंग्रेजी को प्रथम भाषा के रूप में बोलने वालों का संख्या की दृष्टि से चौथा स्थान है।
पावर लैंग्वेज इंडेक्स में भाषाओं की प्रभावशीलता का क्रम निर्धारण भाषाओं के भौगोलिक, आर्थिक, संचार, मीडिया-ज्ञान तथा कूटनीतिक प्रभाव पाँच कारकों को ध्यान में रखकर किया गया है। इनमें भौगोलिक व आर्थिक प्रभावशीलता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हिंदी से उसकी आंचलिक बोलियों को निकालने पर इसका भौगोलिक क्षेत्र , भाषा को बोलने वाले देश, भूभाग और पर्यटकों के भाषायी व्यवहार के आंकड़ों में निश्चित तौर पर बहुत कमी आएगी। भौगोलिक कारक के आधार पर हिंदी को इस सूची में १० वाँ स्थान दिया गया है। डॉ. चैन के भाषायी गणना सूत्र के अनुसार हिंदी और उसकी सभी बोलियों के भाषा-भाषियों की विशाल संख्या के अनुसार गणना करने पर यह शीर्ष पांच में आ जाएगी ।
इन्डेक्स के दूसरे महत्वपूर्ण कारक आर्थिक प्रभावशीलता के अंतर्गत 'भाषा का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव' का अध्ययन कर हिंदी को १२ वां स्थान दिया गया है।
इस इन्डेक्स को तैयार करने का तीसरा कारक संचार (लोगों की बातचीत में संबंधित भाषा का उपयोग है। इंडेक्स का चौथा कारक मीडिया एवं ज्ञान के क्षेत्र में भाषा का इस्तेमाल है। इसमें भाषा की इंटरनेट पर उपलब्धता, फिल्मों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई, भाषा में अकादमिक शोध ग्रंथों की उपलब्धता के आधार पर गणना की गई है। इसमें हिंदी को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है।
विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन और हिंदी फिल्मों का इसमें महत्वपूर्ण योगदान है। हिंदी की लोकप्रियता में बॉलीवुड की विशेष योगदान है। इंटरनेट पर हिंदी सामग्री का अभी घोर अभाव है। इंटरनेट पर अंग्रेजी सामग्री की उपलब्धता ९५% तथा हिंदी की उपलब्धता मात्र ०.०४% है। इस दिशा में हिंदी को अभी लंबा रास्ता तय करना है। इस इन्डेक्स का पांचवा और अंतिम कारक है- कूटनीतिक स्तर पर भाषा का प्रयोग। इस सूची में कूटनीतिक स्तर पर केवल ९ भाषाओं (अंग्रेजी, मंदारिन, फ्रेच, स्पेनिश, अरबी, रूसी, जर्मन, जापानी और पुर्तगाली) को प्रभावशाली माना गया है। हिंदी सहित बाकी सभी १०४ भाषाओं को कूटनीतिक दृष्टि से एक समान १० वां स्थान यानी अत्यल्प प्रभावी कहा गया है। जब तक वैश्विक संस्थाओं में हिंदी को स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक यह कूटनीति की दृष्टि से कम प्रभावशाली भाषाओं में ही रहेगी।
विश्व में अनेक स्तरों पर हिंदी को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। हिंदी को देश के भीतर हिंदी विरोधी ताकतों से तो नुकसान पहुंचाया ही जा रहा है, देश के बाहर भी तमाम साजिशें रची जा रही हैं। दुनिया भर में अंग्रेजी के अनेक रूप प्रचलित हैं, फिर भी इस इंडेक्स में उन सभी को एक ही रूप मानकर गणना की गई है। परन्तु हिंदी के साथ ऐसा नहीं किया गया है।
भारत में हिंदी की सहायक बोलियां एकजुट न हो अपना स्वतंत्र अस्तित्व तलाश कर हिंदी को कमजोर कर रही हैं. इस फूट का फायदा साम्राज्यवादी भाषा न उठ सकें इसके लिए हिंदी की बोलियों की आपसी लड़ाई को बंद कर सभी देशवासियों को हिंदी की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए निरंतर योगदान देना होगा।
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एक दूर वार्ता
ला लौरा मौक़ा मारीशस में कार्यरत पत्रकार श्रीमती सविता तिवारी से
- सर नमस्ते
नमस्ते
= नमस्कार.
- आप बाल कविताएं काफी लिखते हैं
बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान पर आपके क्या विचार हैं?
= जितने लम्बे बाल उतना बढ़िया बाल साहित्यकार
-
अच्छा, यह आज के परिदृष्य पर टिप्पणी है
= बाल साहित्य के दो प्रकार है. १. विविध आयु वर्ग के बाल पाठकों के लिए और उनके द्वारा लिखा जा रहा साहित्य २. बाल साहित्य पर हो रहे शोध कार्य.
- मुझे इस विषय पर एक रेडियो कार्यक्रम करना है सोचा आपका विचार जान लेती.
= बाल साहित्य के अंतर्गत शिशु साहित्य, बाल साहित्य तथा किशोर साहित्य का वर्गीकरण आयु के आधार पर और ग्रामीण तथा नगरीय बाल साहित्य का वर्गीकरण परिवेश के आधार पर किया जा सकता है.
आप प्रश्न करें तो मैं उत्तर दूँ या अपनी ओर से ही कहूँ?
- बाल मन को बास साहित्य के जरिए कैसे प्रभावित किया जा सकता है?
= बाल मन पर प्रभाव छोड़ने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चे के स्तर पर उतार कर सोचना और लिखना होगा. जब वह बच्चा थी तो क्या प्रश्न उठते थे उसके मन में? उसका शब्द भण्डार कितना था? तदनुसार शब्द चयन कर कठिन बात को सरल से सरल रूप में रोचक बनाकर प्रस्तुत करना होगा.
बच्चे पर उसके स्वजनों के बाद सर्वाधिक प्रभाव साहित्य का ही होता है. खेद है कि आजकल साहित्य का स्थान दूरदर्शन और चलभाषिक एप ले रहे हैं.
- मॉरिशस जैस छोटेे देश में जहां हिदी बोलने का ही संकट है वहां इसे बच्चों में बढ़ावा देने के क्या उपाय हैं?
= जो सबका हित कर सके, कहें उसे साहित्य
तम पी जग उजियार दे, जो वह है आदित्य.
घर में नित्य बोली जा रही भाषा ही बच्चे की मातृभाषा होती है. माता, पिता, भाई, बहिनों, नौकरों तथा अतिथियों द्वारा बोले जाते शब्द और उनका प्रभाव बालम के मस्तिष्क पर अंकित होकर उसकी भाषा बनाते हैं. भारत जैस एदेश में जहाँ अंग्रेजी बोलना सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान है वहां बच्चे पर नर्सरी राइम के रूप में अपरिचित भाषा थोपा जाना उस पर मानसिक अत्याचार है.
मारीशस क्या भारत में भी यह संकट है. जैसे-जैसे अभिभावक मानसिक गुलामी और अंग्रेजों को श्रेष्ठ मानने की मानसिकता से मुक्त होंगे वैसे-वैसे बच्चे को उसकी वास्तविक मातृभाषा मिलती जाएगी.
इसके लिए एक जरूरत यह भी है कि मातृभाषा में रोजगार और व्यवसाय देने की सामर्थ्य हो. अभिभावक अंग्रेजी इसलिए सिखाता है कि उसके माध्यम से आजीविका के बेहतर अवसर मिल सकते हैं.
- सर! बहुत धन्यवाद आपके समय के लिए. आप सुनिएगा मेरा कार्यक्रम. मैं लिंक भेजुंगी आपको 3 june ko aayga.
अवश्य. शुभकामनाएँ. प्रणाम.
= सदा प्रसन्न रहें. भारत आयें तो मेरे पास जबलपुर भी पधारें.
वार्तालाप संवाद समाप्त |
३०-५-२०१७
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पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
*
''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।
'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
सच कहूँ तो / पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी / सारी इबारत / अब गुरु जी
शब्द अब तक / आपने जितने पढ़ाये / याद हैं सब
स्मृति में अब भी / तरोताज़ा / पृष्ठ के संवाद हैं अब
सच कहूँ तो / छोड़ आए / हम अँधेरों की बहुत / पीछे इमारत / अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी / शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो / कृत्य की परिकल्पना, अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित / भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी / हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो / धरणि से / आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच / संस्कृत / चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो / हर किसी के दर्द को
अपना समझना / हो सके तो
एक पल को मान लेना / हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो / सांस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो / उन क्षणों में, एक छोटी / चूक से
बचना-सम्हलना / हो सके तो
एक पल को, कोख की / हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत / हवा के / हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में 'नदी से जन्मती है / सच कहूँ तो / आज संस्कृतियाँ', 'प्रवाहों में समाई / सच कहूँ तो / आज विकृतियाँ', तरंगों में बसी हैं / सच कहूँ तो / स्वस्ति आकृतियाँ, सिरा लें, आज चलकर / सच कहूँ तो / हर विसंगतियाँ ' रचनात्मकता का आव्हान है।
निर्मल जी के नवगीत सतयजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
चिनगियों से आग / फिर जल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
बादलों की, परत / फिर गल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज / भी खुलकर बजेंगी देख लेना / सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, विचारों के बीच सेतु बनाते हैं। उर्दू ग़ज़ल में लम्बे - लम्बे रदीफ़ रखने की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज सज्जा के साथ प्रयोग करते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुंचाता है की बारम्बार आने के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समुच ानवगीत इस 'सच कहूं के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयत में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सैम, जँह - तँह करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम, संवेदन के जुगनू हैं / हम से / तम भी थर्राता है
पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में नाव पुरानी उतराती है
सच कह दूँ तो रोज सभ्यता आँख चुराती है
ऐसे में तो, जी करता है / सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को / मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दे-पीड़ित को हौसला देने और सम्बल बनने का परोक्ष सन्देश अन्तर्निहित कर पाना है। यह सन्देश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह ग्राह्य हो गया है-
इसी समय यदि / समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें / तो, आगे अच्छे दिन होंगे / यही समय है
सच कह दूँ तो / फिर जीने के / और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित / जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर / समय बाँचकर / समां गया आँगन में सारा
उत्सव होंगे, पर्व मनेगा / रंग-बिरंगे अम्बर होंगे
सच कह दूँ तो / फिर जीने के वासन्ती / संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है। नए नवगीतकारों के लिये यह कृति अनुकरणीय है। इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
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एक रचना
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे
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शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे, नेटदूतित मिले मन मगन हो गया
बैठ अमराई में कूक सुन कोकिली, दशहरी आम कच्चा भी मन भा गया
कार्बाइड पके नाम थुकवा रहे, रूप - रस - गंध नकली मगर बिक रहे
तर गये पा तरावट शिकंजी को पी, घोल पाती पुदीना मजा आ गया
काट अमिया, लगा नोन सेंधा - मिरच, चाट-चटखारकर आँख झट मुँद गयी
लीचियों की कसम, फालसे की शपथ, बेल शर्बत लखनवी प्रथम आ गया
जय अमरनाथ की बोल झट पी गये, द्वार निर्मल का फिर खटखटाने लगे
रूह अफ्जा की जयकार कर तृप्ति पा, मधुकरी गीत बिसरा न, याद आ गया
श्याम श्रीवास्तवी मूँछ मिल खीर से, खोजती रह गयी कब सुजाता मिले?
शांत तरबूज पा हो गया मन मुदित, ओज घुल काव्य में हो मनोजी गया
आजा माज़ा मिटा द्वैत अद्वैत वर, रोहिताश्वी न सत्कार तू छोड़ना
मोड़ना न मुख देख खरबूज को, क्या हुआ पानी मुख में अगर आ गया
लाड़ लस्सी से कर आड़ हो या न हो, जूस पी ले मुसम्बी नहीं चूकना
भेंटने का न अवसर कोई चूकना, लू - लपट को पटकनी दे पन्हा गया
बोई हरदोई में मित्रता की कलम, लखनऊ में फलूदा से यारी हुई
आ सके फिर चलाचल 'सलिल' इसलिए, नर्मदा तीर तेरा नगर आ गया
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[लखनऊ प्रवास- अमरनाथ- कवि, समीक्षक, निर्मल- निर्मल शुक्ल नवगीतकार, संपादक उत्तरायण, मधुकरी मधुकर अष्ठाना नवगीतकार, श्याम श्रीवास्तव कवि, शांत- देवकीनंदन 'शांत' कवि, मनोजी- मनोज श्रीवास्तव कवि, रोहिताश्वी- डॉ. रोहिताश्व अष्ठाना होंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकर्ता, बाल साहित्यकार हरदोई]
३०-५-२०१६
***
मुक्तक:
तेरी नजरों ने बरबस जो देखा मुझे, दिल में जाकर न खंजर वो फिर आ सका
मेरी नज़रों ने सीरत जो देखी तेरी, दिल को चेहरा न कोई कभी भा सका
तेरी सुनकर सदा मौन है हर दिशा, तेरी दिलकश अदा से सवेरा हुआ
तेरे नखरों से पुरनम हुई है हवा, तेरे सुर में न कोइ कभी गा सका
*



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दोहा सलिला:
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अपने दिन फुटपाथ हैं, प्लेटफोर्म हैं रात
तुम बिन होता ही नहीं, उजला 'सलिल' प्रभात
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भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान
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धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक
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जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
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अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
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द्विपदी सलिला :
*
कंकर-कंकर में शंकर हैं, शिला-शिला में शालिग्राम
नीर-क्षीर में उमा-रमा हैं, कर-सर मिलकर हुए प्रणाम
*
दूल्हा है कौन इतना ही अब तक पता नहीं
यादों की है हसीन सी बारात दोस्ती
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जिसकी आँखें भर आती हैं उसके मन में गंगा जल है
नेह-नर्मदा वहीं प्रवाहित पोर-पोर उसका शतदल है
*
***

हाइकु का रंग पलाश के संग
*
करे तलाश
अरमानों की लाश
लाल पलाश
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है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
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दीन न हीन
हमेशा रहे तीन
ढाक के पात
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप
टेसू निष्पाप
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
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उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
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पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
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मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित
करे पलाश
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होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
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पहरेदार
विरागी तपस्वी या
प्रेमी उदास
३०-५-२०१५

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चौपाल-चर्चा:
भारत में सावन में महिलाओं के मायके जाने की रीत है. क्यों न गृह स्वामिनी के जिला बदर के स्थान पर दामाद के ससुराल जाने की रीत हो. इसके अनेक फायदे हो सकते हैं. आप क्या सोचते हैं?
१. बीबी की तानाशाही से त्रस्त मानुष सेवक के स्थान पर अतिथि होने का सुख पा सकेगा याने नवाज़ शरीफ भारत में।
२. आधी घरवाली और सरहज के प्रभाव से बचने के लिये बेचारे पत्नी पीड़ित पति को घर पर भी कुछ संरक्षण मिलेगा याने बीजेपी के सहयोगी दलों को भी मंत्री पद।
३. निठल्ले और निखट्टू की विशेषणों से नवाज़े गये साथी की वास्तविक कीमत पता चल सकेगी याने जसोदा बेन प्रधान मंत्री निवास में।
४. खरीददारी के बाद थैले खुद उठाकर लाने से स्वस्थ्य होगी तो डॉक्टर और दवाई का खर्च आधा होने से वैसी ही ख़ुशी मिलेगी जैसी आडवाणी जो मोदी द्वारा चरण स्पर्श से होती है।
५. पति के न लौटने तक पली आशंका लौटते ही समाप्त हो जाएगी तो दांपत्य में माधुर्य बढ़ेगा याने सरकार और संघ में तालमेल।
६. जीजू की जेब काटकर साली तो खुश होगी ही, जेब कटाकर जीजू प्रसन्न नज़र आयेंगे अर्थात लूटनेवाले और लूटनेवाले दोनों खुश, और क्या चाहिए? इससे अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव बढ़ेगा ही याने घर-घर सुषमा स्वराज्य.
७. मौज कर लौटे पति की परेड कराने के लिए पत्नी को योजना बनाने का मौका याने संसाधन मंत्रालय मिल सकेगा. कौन महिला स्मृति ईरानी सा महत्त्व नहीं चाहेगी?
कहिए, क्या राय है?
३०-५-२०१४
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तांका: एक परिचय
*
पंचपदी लालित्यमय, तांका शाब्दिक छन्द,
बंधन गण पदभार तुक, बिन रचिए स्वच्छंद।
प्रथम तीसरी पंक्तियाँ, पंचशब्दी मकरंद।।
शेष सात शब्दी रखें, गति-यति रहे न मंद।
जापानी हिंदी जुड़ें, दें पायें आनंद।।
*
जापान की प्राचीनतम क्लासिकल काव्य-विधा तांका ५ पंक्तियों की कविता है जिसमे पहली और तीसरी पंक्ति में पाँच शब्द तथा शेष पंक्तियों में सात शब्द होते हैं! इसके विषय प्रकृति, मौसम, प्रेम, उदासी आदि होते हैं!
उदाहरण :
निरंतर निनादित धवल धार अनुपम,
निरखो न परखो न सँकुचो न ठिठको
कहती टिटहरी प्रकृति पुत्र! आओ
झिझको न, टेरो मन-मीत को तुम
छप-छप-छपाक, नीर नद में नहाओ
*
बन्धन भुलाकर करो मुक्त खुदको
अंजुरी में जल भर, रवि को चढ़ाओ
मस्तक झुकाओ, भजन भी सुनाओ
माथे पे चन्दन, जिव्हा पर हरि-गुण
दिखा भोग प्रभु को, भर पेट खाओ
३०-५-२०१३
***
मुक्तिका :
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.
माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..
तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?
पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..
बर्तन बनने खातिर

पड़ता माटी को तपना..

***

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त

... झटपट करिए

*

लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,

काम जो भी करना हो, झटपट करिए.

तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,

मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.

आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,

खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-

गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,

'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.

छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,

८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.

३०-५-२०११

***
मुक्तिका
.....डरे रहे.
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम हरे-भरे रहे.
दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.
हौसलों के वृक्ष पा
जल मगन हरे रहे.
रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.
नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.
निज हितों में लीन जो
लें समझ मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.
***
: मुक्तिका :
मन का इकतारा
*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
*
सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
*
जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
*
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
*
जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
*
जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
*
सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
***

समीक्षा, सड़क पर, सुरेन्द्र सिंह पवार

पुस्तक समीक्षा
जीवन कहता ''सड़क पर'' सलिल सलिल सम जान
*
नवगीत, कविता की पूर्व-पीठिका पर गूँजता सामवेदी गान है।
नव गीत के वामन- स्वरूप में संवेदना की गहनता, सघनता,
सांद्रता, विषयवस्तु की वैविध्यपूर्ण विस्तृति, नवोन्मेषमयी
कल्पना की उत्तरंग उड़ान, इंद्रिय-संवेद्य बिंबों की प्रत्यग्रता
तो होती ही है, वहीं लोक-भाषा, लोक-लय के प्रति आत्मीयता
पूर्ण आग्रह ‘नव’ विशेषण युक्त अवदात्त गीतों के शिल्प में
अतिरिक्त चारुत्व का आधान करती है.। अप्रासंगिक नहीं
कि कविता ने ‘गीत’ और फिर ‘नव गीत’ की यात्रा में अपने
प्राणतत्व ‘गेयता’ का दामन थामे रखा।
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ का सद्य: प्रकाशित गीत - नवगीत संकलन ‘सड़क पर’ की रचनात्मक-गूढ़ता और बहुआयामिता, परिवेश और परिस्थिति का आवरण हटाकर अभिव्यक्ति के मौलिक संवेदन और विमर्श का दर्शन कराती है। इस संकलन के रचना विधान में नवगीतकार ने शीर्षक (सड़क पर) में ही अपनी विषयवस्तु की मनोवृति का प्रकाशन कर दिया है और उसे लेकर अपनी रचनात्मक या सर्जनात्मक भूमिका को विभिन्न कूचों-कुलियों, पगडंडियों, रास्तों, राजपथों पर प्रश्न के रूप में खड़ा किया है। भाषा, शब्द, मुहावरा, बिम्ब, प्रतीक और प्रयोगों द्वारा उसमें व्याप्त समस्याओं को परोसा ही नहीं है, अपितु गम्भीरतर प्रश्नों के रूप में प्रस्तुत किया है।
संकलन के अंतिम ९ गीतों में उठाए गए मूल्यगत प्रश्न परिचर्चा में वरीयता पर आवश्यक हैं। यथा; सड़क पर बसेरा, कचरा उठा हँस पड़ी जिंदगी, सड़क पर होती फिरंगी सियासत, जमूरा-मदारी का खेल, सड़क पर सोते लोगों को गाड़ी से कुचलना, सड़क विस्तार के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, लव जिहाद, नाचती बारात, हिंसा-वारदात, एम्बुलेंस को रास्ता न देना, सड़क पर गड्ढे, अतिक्रमण, पंचाट, प्यासा राहगीर, सरपट भागती गाड़ियाँ, कालिख हवा में डामल से ज्यादा इत्यादि। नव गीतकार सड़क और भवन निर्माण तकनीक में पारंगत अभियंता है और निर्माण के महत्वपूर्ण तत्वों, रागों, धुनों और सुरों के साथ प्रयुक्त शब्दावलियों को विस्तार से प्रस्तुत करता है। इस उद्यम में अनुभूत वेदना की व्यंजना से रचनात्मकता प्रभावित हुई जान पड़ती है। इतने पर भी नव गीतकार के शिल्प की विशेषता यह है कि उसने वेदना कि तीव्र आवृतियों को आत्मसात किया। अध्ययन-अध्यापन, गहन-चिंतन, विचार-मंथन उपरांत जो परिष्कृत रूप प्रस्तुत किया है, वह भिन्न है। बिंबों, प्रतीकों और मिथकों के सहारे सड़क पर चलता नव गीत-गायक, जब अपनी बात कहता है तो सीधे पाठकों-श्रोताओं के दिल को छू लेती है-
गौतम हौले से पग धरते
महावीर कर नहीं झटकते
’मरा’ नाम जप ‘राम’ पा रहे (सड़क पर- ६ पृ/९२ )
इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं
उस पर यह तुर्रा है खुद को
तीसमारखां पाते हैं
रास न आए
सच कबीर का
हम बुद बुद गुब्बारे हैं। -(दिशाहीन बंजारे-पृ/७२ )
यद्यपि दोराहे, तिराहे और चौराहे पर उपजता मति-भ्रम, सड़क के किनारे योगियों की भाँति साधना रत ट्रेफिक-सिग्नल और मील के पत्थर, सेतु, सुरंग और फ्लाई-ओवर जैसे सड़क-सत्य, कवि की ड्योढ़ी पर खड़े प्रतीक्षा करते रहे कि काश! उन्हें भी इन गीतों में स्थान मिलता।
नव गीतकार सलिल का पूर्व नवगीत-संग्रह ‘संक्रांति काल’ पर केंद्रित रहा, जिसमें सूर्य के विभिन्न रूप, विभिन्न स्थितियाँ और विभिन्न भूमिकाओं को स्थान मिला, वह चाहे बबुआ सूरज हो या जेठ की दुपहरी में पसीना बहाता मेहनतकश सूर्य हो या शाम को घर लौटता, थका, अलसाया या काँखता-खाँसता सूरज उसकी तपिश, उसका तेज, उसका औदार्य, उसका अवदान, उसकी उपयोगिता सभी वर्ण्य विषय थे। समीक्ष्य-संग्रह में भी बाल सूर्य को बिम्बित किया गया है, खग्रास का सूर्य भी है, वैशाख-जेठ की तपिश के बाद वर्षाकाल आता है।
वर्षा आगमन की सूचना के साथ ही गीतकार की बाँछें खिल जातीं हैं, उसका मन मयूर नाचने लगता है। प्रकृति के लजीले-सजीले श्रंगार के साथ वह नए-नए बिम्ब तलाशता है। काले मेघों का गंभीर घोष, उनका झरझरा कर बरसना, बेडनी सा नृत्य करती बिजली, कभी संगीतकार कभी उद्यमी की भूमिका में दादुर, चाँदी से चमकते झरने, कल-कल बहती नदियाँ, उनका मरजाद तोड़ना, मुरझाए पत्तों को नवजीवन पा जाना और इन सबसे इतर वर्षागमन से गरीब की जिंदगी में आई उथल-पुथल सभी उनके केनवास पर उकेरे सजीव चित्र हैं। हाँ! इनमें अतिवृष्टि और अनावृष्टि की विसंगति भी दृष्टव्य होती है, परंतु जीवनदायिनी प्रकृति के सौन्दर्य के समक्ष क्षणिक दुखों या आवेगों को अनदेखा किया गया है।
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर
फिर मेघ बजे/ठुमक बिजुरिया
नचे बेड़नी बिना लजे।
नेह निमंत्रण था वसुधा का
झूम उठे बादल कानन
छाछ महेरी संग जिमाए
गुड़ की मीठी डली लली।
जन्मे माखन चोर
हरीरा भक्त पियें
गणपती बप्पा, लाये
मोदक, हुए मजे।
और यहीं से नव गीतकार की चिंता तथा चिंतन शुरू होता है। सही भी है। जब, दसों दिशाओं में श्रम जयकारा गूँज रहा हो, तो वह (मजदूर) दाने-दाने का मोहताज क्यों ? उसके श्रम का अपेक्षित भुगतान क्यों नहीं होता? उसे मूलभूत-सुविधाएं मुहैया क्यों नहीं होतीं? अपने ही देश में मजदूर, प्रवासी-अप्रवासी क्यों?
मेहनतकश के हाथ हमेशा
रहते हैं क्यों खाली खाली?
मोती तोंदों के महलों में
क्यों वसंत लाता खुशहाली?
ऊँची कुर्सीवाले पाते
अपने मुँह में
सदा बताशा।(चूल्हा झाँक रहा-पृ ३९)
देशज संस्कार, विशेषकर जन्म, अन्नप्राशन और विवाह में ‘बताशा’ प्रचलित मिष्ठान है, इसकी विशेषता है कि वह मुँह में रखते ही घुल जाता है परंतु उसका स्वाद लंबे समय तक रहता है, बिल्कुल बुंदेलखंड की 'गुलगुला' मिठाई जैसा। कुछ और-प्रसंग जो निर्माण (सड़क, भवन इत्यादि) से जुड़े कुशल, अर्ध कुशल और अकुशल मजदूरों के सपनों को स्वर देते हैं, उनकी व्यथा-कथा बखानते हैं, उन्हें ढाढ़स बँधाते हैं, उनके जख्मों पर मल्हम लगाते हैं, उनके श्रम-स्वेद का मूल्यांकन करते हैं, उन्हें संघर्ष करने तथा विकास का आधार बनने का वास्ता देते हैं। इन नवगीतों में प्रतिलोम-प्रवास (मजदूरों की घर-वापसी) का मुद्दा भी प्रतिध्वनित होता है,
एक महल
सौ कुटी-टपरिया कौन बनाए?
ऊँच-नीच यह
कहो खुपड़िया कौन खपाए?
मेहनत भूखी
चमड़ी सूखी आँखें चमके
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हो न पराए
बहका-बहका
संभल गया पग
बढा रहा पर
ठिठका- ठिठका। -(महका-महका पृ/४२ )
नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडी पर सँभल-सँभल
चलना रपट न जाना
मिल-जुल
पार करो पाठ की फिसलन।
लड़ी-झुकी उठ-मिल चुप बोली
नजर नजर से मिली भली -(मन भावन सावन-पृ/२६ )
परंतु यहीं गीतकार “होईहि सोई जो राम रची राखा” की दुहाई देता है---
राजमार्ग हो या पगडंडी
पग की किस्मत
सिर्फ फिसलन। -(पग की किस्मत पृ/६३)
और, दिलासा देते हुए कहता है,
थक मत, रुक मत, झुक मत, चुक मत
फूल-शूल सम, हार न हिम्मत
सलिल मिलेगी पग तल किस्मत
मौन चला चल
नहीं पलटना।(पग की किस्मत –पृ/६३ )
और यहाँ अन्योक्ति में अपनी बात कहता है,
कहा किसी ने,- नहीं लौटता
पुन: नदी में बहता पानी
पर नाविक आता है तट पर
बार-बार ले नई कहानी
दिल में अगर
हौसला हो तो
फिर पहले सी बातें होंगी।
हर युग में दादी होती है
होते है पोती और पोते
समय देखता लाड़-प्यार के
रिश्तों में दुःख पीड़ा खोते
नयी कहानी
नयी रवानी
सुखमय सारी बातें होंगी। -(कहा किसी ने-पृ/६२)
और सड़क पर गुजरती जिंदगी के मानी समझाता है,
अक्षर, शब्द, वाक्य पुस्तक पढ़
तुझे मिलेगा ज्ञान नया
जीवन पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है। (जिंदगी के मानी-पृ/४८ )
वर्तमान की विद्रूपताओं, विषमताओं को देखकर कवि व्यथित है, स्वाभाविक है इन परिस्थितियों में उसकी लेखनी अमिधात्मकता से हटकर व्यंजनात्मकता और लाक्षिणकता का दामन थाम लेती है, जिसमें व्यवस्था के प्रति व्यंग्य भी होता है और विद्रोह भी-
जब भी मुड़कर पीछे देखा
गलत मिला कर्मों का लेखा
एक नहीं सौ बार अजाने
लाँघी थी निज किस्मत रेखा
माया ममता
मोह क्षोभ में
फँस पछताए जन्म गवाए। -(सारे जग में---पृ/६४)
बिक रहा
बेदाम ही इंसान है
कहो जनमत का यहाँ कुछ मोल है?
कर रहा है न्याय अंधा ले तराजू
व्यवस्था में हर कहीं बस झोल है
सत्य जिह्वा पर
असत का गान है।
इसका क्या कारण है?-
मौन हो अर्थात सहमत बात से हो
मान लेता हूँ कि आदम जात से हो ( बिक रहा ईमान पृ/६५ )
कवि आश्चर्य करता है कि, मानव तो निशिदिन (आठों प्रहर) मनमानी करता है, अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने कि नादानी करता है, यहाँ तक कि वह प्रकृति को भी ‘रुको’ कहने का दु:साहस करता है, समर्थ सहस्त्रबाहु की तरह, विशाल विंध्याचल की तरह दंभ से, अभिमान से, उसे रोकने का प्रयास करता है, कभी बाँध बनाकर नदी-प्रवाह को रोकने का प्रयास करता है तो कभी जंगलों कि अंधाधुंध कटाई कर, पहाड़ों को दरका कर/ धरती को विवस्त्र करने का प्रयत्न करता है-जिसका परिणाम होता है,
घट रहा भूजल
समुद्र तल बढ़ रहा
नियति का पारा
निरंतर बढ़ रहा
सौ सुनार की मनुज चलता चाक है
दैव एक लुहार की अब जड़ रहा
क्यों करे क्रंदन
कि निकली जान है। -(बिक रहा ईमान—पृ६६)
नवगीतकार सलिल ने मध्यवर्गीय शहरी घुटन, निरीहता, असहायता, बिखराव, विघटन, संत्रास को स्वर तो दिया है उसमें सड़क पर जी रहे निम्न वर्गीय तबके (दबे-कुचले, पीड़ित—वंचितों, मजबूर-मजदूरों) के दुःख-दर्द, बेकारी, भूख, उत्पीड़न को भी मुखरित किया है। इसमें विशेषकर मूर्त-बिम्बों को प्रयोग किया है, जो आदमी के न केवल करीब हैं, बल्कि उनके बीच के हैं।
अपने नव गीतों में दोहा, जनक, सरसी, भजंगप्रयात और पीयूषवर्ष आदि छंदों को स्थान देकर कवि ने गीतों की गेयता सुनिश्चित कर ली है, जिसमें लय, गति, यति भी स्थापित हो गई है। कथ्य की स्पष्टता के लिए सहज, सरल और सरस हिन्दी का प्रयोग किया है। संस्कृत के सहज व्यवहृत तत्सम शब्दों यथा, पंचतत्व, खग्रास, कर्मफल, अभियंता, कारा, निबंधन, श्रमसीकर, वरेण्य, तुहिन, संघर्षण का प्रशस्त प्रयोग किया है। कुछ देशजशब्द जो हमारे दैनिक व्यवहार में घुल-मिल गए हैं जैसे कि- उजियारा, कलेवा, गुजरिया, गैल, गुड़ की डली, झिरिया, हरीरा, हरजाई आदि से कवि ने हिन्दी भाषा का श्रंगार किया और उसे समृद्धि प्रदान की है। अंग्रेजी तथा अरबी-फारसी के प्रचलित विदेशज शब्दों का भी अपने नव गीतों में बखूबी प्रयोग किया है जैसे- डायवर, ब्रेड-बटर-बिस्किट, राइम, मोबाइल, हाय, हेलो, हग (चूमना) और पब (शराबखाना) तथा आदम जात अय्याशी, ईमान, औकात, किस्मत, जिंदगी, गुनहगार, बगावत, सियासत और मुनाफाखोर। भाषिक-सामर्थ्य के साथ गीतकार ने मुहावरों-कहावतों-लोकोक्तियों का यथारूप या नए परिधान में पिरोकर प्रयुक्त किया है जैसे, लातों को जो भूत बात की भाषा कैसे जाने, ढाई आखर की सरगम सुन, मुँह में राम बगल में छुरी, सीतता रसोई में शक्कर संग नोन, माँ की सौं, कम लिखता हूँ बहुत समझना, कंकर से शंकर बन जाओ, चित्रगुप्त की कर्म तुला है(नया मुहावरा), जिनकी अर्थपूर्ण उक्तियाँ पढ़ने-सुनने वालों के कानों में रस घोलती हैं। छंद-शास्त्री सलिल की रस और अलंकारों पर भी अच्छी पकड़ है, उनके संग्रहित गीतों में शब्दालंकारों (अनुप्रास, यमक) और अर्थालंकारो (उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, अन्योक्ति) का सुंदर प्रयोग किया है। प्रभावी सम्प्रेषण के लिए कबीर जैसी उलट बाँसियों का प्रयोग किया है,
सागर उथला
पर्वत गहरा
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही
सौ अयोग्य पाये, तो
दस ने पायी वाहवाही
नाली का पानी बहता है
नदिया का जल ठहरा (सागर उथला पृ/५४ )
पुनरोक्ति-प्रकाश अलंकार के अंतर्गत पूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- टप-टप, श्वास-श्वास, खों-खों, झूम- झूम, लहका-लहका कण-कण, टपका-टपका तथा अपूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- छली-बली, छुई-मुई, भटकते-थकते, घमंडी-शिखंडी, तन-बदन, भाषा-भूषा शब्दों के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है। वहीं पदमैत्री अलंकार के तहत कुछ सहयोगी शब्द जैसे- ढोल-मजीरा, मादल-टिमकी, आल्हा-कजरी, छाछ-महेरी, पायल-चूड़ी, कूचा-कुलिया तथा विरोधाभास अलंकार युक्त शब्द युग्म जैसे- धूप-छाँव , सत्य-असत्य, क्रय-विक्रय, जीवन-मृत्यु, शुभ-अशुभ, त्याग-वरण का नवगीतों में प्रभावी-प्रयोग है।
इन नव गीतों में “इलाहाबाद के पथ पर तोड़ती पत्थर”(तोड़ती पत्थर) तथा
“वह आता, पछताता, पथ पर जाता”(भिक्षुक) के भाव व स्वर झंकृत होते हैं। क्यों(?) न हों,महाकवि निराला ही तो वे आदि-गीतकार हैं जिन्होंने पहले-पहले “नव गति नव लय, ताल छंद नव” के मधुर घोष के साथ गीत की कोख से नवगीत के उपजने का पूर्व संकेत दे दिया था।
इसे नवगीतकार की सर्जन-प्रक्रिया कहें या उसके सर्जनात्मक अवदान की सम्यक-समझ अथवा उसका व्यंजनात्मक-कौशल, जिसने जड़ में भी चेतना का संचार किया, वरना सड़क कहाँ जाती है? वह तो जड़वत है, अचलायमान है, उसके न पैर हैं न पहिये, हाँ! उस पर पाँव-पाँव चलकर या हल्के/भारी वाहन दौडाकर अपने गंतव्य तक अवश्य पहुँचा जा सकता है। ‘ऊँघ रहा है सतपुड़ा/लपेटे मटमैली खादी’ (ओढ़ कुहासे की पृ/६३) में सतपुड़ा का नींद में ऊँघना या झोंके लेना उसका मानवीकरण (मानव-चेतना) है। वहीं ‘लड़ रहे हैं फावड़े गेंतियाँ’ (वही नेह नाता पृ/७८) में श्रमजीवियों की संघर्ष-चेतना दृष्टव्य है। ‘हलधर हल धर शहर न जाएं’ का यमक, ‘सूर्य अंगारों की सिगड़ी’ दृश्य चेतना, ‘इमली कभी चटाई चाटी’ में स्वाद-चेतना तथा ‘पथवारी मैया’ में लोक-चेतना के साथ–साथ दैवीय स्वरूप के दर्शन होते हैं। सड़क के पर्याय वाची शब्दों के प्रयोग में सलिल जी का अभियांत्रिकीय-कौशल सुस्पष्ट दिखाई देता है।
नव गीतों में गीतकार ने अपने उपनाम (सलिल) का उम्दा-उपयोग किया है। यदि सम्पादन तथा मुद्रण की भूलों को अनदेखा कर दिया जाए तो यह एक स्तरीय और संग्रहणीय संकलन है। अंत में, सुप्रसिद्ध समीक्षाकार राजेंद्र वर्मा के स्वर-से-स्वर मिलाते हुए कहना चाहूँगा कि “इन गीतों में वह जमीन तोड़ने की कोशिश की गई है जो पिछले २०-२५ वर्षों से पत्थर हो गई है उसके सीलने, सौंधेपन, पपड़ाने जैसे गुण नष्ट हो गए हैं, उस भूमि में अंकुरण की संभावना न्यून है।“ फिर भी वह(गीतकार सलिल) मिट्टी पलटा रहा है, फसल-चक्र बदलने का प्रयास कर रहा है।
सलिल के गीतों-नवगीतों का मूल्यांकन किसी एक पैमाने से करना संभव नहीं है मूल्यांकन के मापदंड व्यक्ति और कृति के अनुसार बदलते रहते हैं। क्या शंभूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवींद्र, रामसनेही लाल ‘यायावर’, राधेश्याम बंधु, वीरेंद्र ‘आस्तिक’ के व्यक्तित्व, सृजन या लोक दर्शन में कोई एकरूपता या समरूपता परिलक्षित होती है, नहीं! कदापि नहीं! मेरी निजी मान्यता है कि “सलिल सलिल सम जान” यानि, ‘सलिल’ को सलिल के निकष पर कसा जाना उचित और न्यायसंगत होगा। एक बात-और, आज के अधिकांश नव गीतकार अध्ययन करने से कतराते हैं वे सिर्फ और सिर्फ अपना लिखा-पढ़ा ही श्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन संजीव सलिल इसके अपवाद हैं। उनकी भाषा और साहित्य पर अच्छी पकड़ है। अध्येता-आचार्य होते हुए भी वे अपने आपको एक विद्यार्थी के रूप में देखते हैं।
गीतकार संजीव वर्मा ‘सलिल’ के इस संग्रह (सड़क पर)के नवगीतों की
रचनाशीलता युग-बोध और काव्य-तत्वों के प्रतिमानों की कसौटी पर प्रासंगिक है। इनमें अपने आसपास घटित हो रहे अघट को उद्घाटित तो किया ही है, उनकी अभिव्यक्ति एक सजग अभियंता-कवि के रूप में प्रतिरोध करती दिखाई देती है। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं कि आचार्य सलिल आज के नवगीतकारों से पृथक परिवेश और साकारात्मक-सामाजिक बदलाव के पक्षधर नव गीतकार हैं।
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सुरेन्द्र सिंह पँवार/ संपादक-साहित्य संस्कार/ २०१, शास्त्री नगर, गढ़ा, जबलपुर (मध्य प्रदेश)
९३००१०४२९६ /७०००३८८३३२/ email pawarss2506@gmail-com
कृति—सड़क पर (गीत-नवगीत संग्रह) / नवगीतकार –आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’/प्रकाशक-
विश्ववाणी हिन्दी संस्थान, समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर/ मूल्य- २५०/- मात्र