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शुक्रवार, 10 मार्च 2023

लेख आधुनिक हिंदी कविता : कल से कल

लेख 
आधुनिक हिंदी कविता : कल से कल 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                                कविता किसी भी भाषा / बोली की क्यों न हो उसके कथ्य का संबंध मस्तिष्क की तुलना में ह्रदय से अधिक होता है। कविता तर्क पर भाव को वरीयता देती है। कविता का जन्म कवि की अंतरंग अनुभूति तथा मौलिक प्रवृत्ति से होता है।कविता हृदयात्मक व् ध्वन्यात्मक परिवेश को सांप्रत से लायन्वित कर शब्दित करती है। कविता का आलंबन सत्य / यथार्थ ही होता है। कविता में जो कल्पना निहित होती है वह भी कवी की मानस सृष्टि का सत्य ही होता है। शब्दों की सीमा होती है। कविता शब्दों को सीमातीत भी कर सकती है। आदिकाल से अब तक के सभी समर्थ कवियों ने अपनी कविताओं में प्रयुक्त शब्दों को उनके शब्द-कोशीय अर्थों से इतर और / अथवा वृहत्तर अर्थ में प्रयोग किया है। कविता किसी भी देश-काल-वाद की हो वह नारी की तरह सुंदर, जटिल, मोहक तथा नूतन होती है जबकि गद्य नर की तरह अपेक्षाकृत अधिक स्थिर, दृढ़, सरल तथा सुबोध होता है। कविता का मूल आत्म तत्व है, गद्य का मूल देह तत्व है।     

                                ‘आधुनिक’ शब्द समसामयिक, समकालिक वर्तमान का द्योतक है। आज जो समसामयिक, समकालीन है, कालांतर में वही अतीत हो जाता है। इस दृष्टि से ‘आधुनिक शब्द भ्रामक है। काल-विभाजन की दृष्टि से ‘आधुनिक’ शब्द का अर्थ खोजनेवाले विद्वानों ने सन् १८५७ से अद्यतन लिखे गये काव्य को भाषा की दृष्टि से आधुनिक कहा है।  नई प्रवृत्ति के नज़रिए से भारतेंदु युग तथा उनके परवर्ती समस्त काल आधुनिक कहा जाता है। कुछ अन्य विद्वान भारतेंदु युग के काव्य में ब्रजभाषा की प्रचुरता देखकर इसे आधुनिक कविता नहीं मानते। वे खड़ी बोली की कविता से ही आधुनिक कविता का जन्म मानते हैं। १८९३ ई. में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना, १९०० ई. में नागरी को शासकीय मान्यता प्राप्त होना, १९०० ई. में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन तथा ‘जय हिंदी जय नागरी’ की प्रतिष्ठा होना आधुनिक हिंदी काव्य के उद्भव तथा विकास के महत्वपूर्ण चरण हैं। भाषा के आधार पर भी विकास के चरणों का नामकरण किया जा सकता है। यथा- खड़ी बोली (आधुनिक हिंदी) का उद्भव काल, खड़ी बोली का सुधार काल, खड़ी बोली का लाक्षणिक काल, खड़ी बोली का नव्य अर्थकाल तथा खड़ी बोली के अर्थ की अर्थवत्ता का काल। हिंदी कविता- भारतेंदुयुगीन कविता, द्विवेदीयुगीन कविता, छायावादी कविता, प्रगतिवादी कविता, प्रयोगवादी कविता, नई कविता, समकालीन तथा आज की कविता नामक आंदोलनों से गुजरकर वह आज अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच चुकी है । 

समय के साथ कविता में परिवर्तन 

                                हर आंदोलन या धारा के कवियों ने मानवीय संवेदनाओं (भाव, गतिविधि, दर्शन, विसंगति, समस्या, प्रकृति, प्राकृतिक परिवेश,पर्यावरणआदि) को कविता का कथ्य बनाया है। देश-काल-परिस्थिति तथा कवि की अभिव्यक्ति सामर्थ्य व संवेदनशीलता के अनुसार कविते में कथ्य प्रस्तुत होता आया है। निरंतर द्रुत वैज्ञानिक विकास ने भी कविता में स्थान पाया है। प्राकृतिक सौंदर्य के प्रभाव में तथा अवलोकन करने की साहित्यकारों / कवियों की प्रवृत्ति में भी परिवर्तन होता रहा है । आधुनिक हिंदी कविता की विकास प्रक्रिया को गतिशील रखने में अनेक रचनाकारों की सहभागिता है। प्रारंभिक समय से लेकर आज तक ऐसे अनेक कवि तथा कवयित्रियाँ होकर गयी हैं जिन्होंने ‘आधुनिक हिंदी कविता’ को दिशा दी है। आधुनिक हिंदी कविता’ को केवल इन्होंने विकसित ही नहीं किया पाठकों और श्रोताओं तक पहुँचाया भी है। हिंदी कविता के मुख्या पड़ाव निम्न रहे हैं-

१. राष्ट्रीय काव्य धारा (सन् १८५७ से १९२० तक) - 

                                इस काव्य धारा के अन्तर्गत भारतेन्दु युग तथा द्विवेदी युग में कवियों ने काव्य के बहिरंग तथा अंतरंग दोनों में परिवर्तन किया। रीतिकालीन शृंगारिकता में न्यूनता आई, राष्ट्र की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक आदि समस्याओं को काव्य में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। बंगला और अंग्रेजी के सम्पर्क के कारण हिन्दी कवियों के विषयों में विविधता और व्यापकता का पदार्पण हुआ। इस काल के प्रमुख कवि भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, अंबिका दत्त व्यास, राधाकृष्ण दास, प्रताप नारायण मिश्र, बदरी नारायण चौधरी, जगमोहन सिंह, नवनीत लाल चतुर्वेदी, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, श्रीधर पाठक, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, सत्यनारायण कवि रत्न, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, वचनेश, वियोगी हरि आदि हैं।

                                भारतेन्दु के पश्चात् आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ का भार ग्रहण कर हिंदीको व्याकरण सम्मत बनाया। आपके प्रयास से खड़ी बोली प्रतिष्ठित हुई। द्विवेदी जी नीतिवादिता से शृंगार का उच्छृखल स्वरूप समाप्त कवियों हो गया। यह 'इतिवृत्तात्मक’ काव्य युग रहा है। इसमें अधिकांश कवियों की दृष्टि वस्तु के बाद अंग पर जाकर ही रुक गयी। वह उसके साथ तादात्म्य स्थापित न कर सकी। इस युग ने पौराणिक और ऐतिहासिक आख्यानों को लेकर काव्य रचना की। प्रिय प्रवास’,‘साकेत’ आदि इस युग की प्रतिनिधि कृतियाँ  हैं। इस काल में धार्मिक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, देशभक्ति आदि विभिन्न प्रवृत्तियाँ विविध रूपों में प्रकट हुईं। इस काल के प्रमुख कवि मैथिली शरण गुप्त, गया प्रसादशुक्ल ‘सनेही’, रामचरित उपाध्याय, लाला भगवानदीन, रामनरेश त्रिपाठी, रूपनारायण पाण्डेय, लोचन प्रसाद पाण्डेय आदि इस युग के प्रमुख कवि हैं।

२. छायावादी काव्यधारा (सन् १९२० से १९३५ ई. तक)

                                द्विवेदी युग के नैतिक बुद्धिवाद और इतिवृत्तात्मकता के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में सूक्ष्म ने स्थूल के प्रति विद्रोह किया और छायावाद ने जन्म लिया। इस काव्यधारा पर अंग्रेजी के स्वच्छन्दतावाद तथा बंगला साहित्य का प्रभाव है। उपनिषद् साहित्य का रहस्यवाद भी इसमें अन्तर्निहित है। इस काव्यधारा ने हिन्दी को एक नवीन भावलोक तथा नवीन अभिव्यंजना दी। अब कविता बहिरंग से अंतरंग हो गयी। इस काव्यधारा की मुख्य प्रवृत्तियाँ  सौन्दर्य भावना, आत्माभिव्यक्ति, करुणा, वेदना की निवृत्ति, प्रकृति- प्रेम, रहस्यवाद, राष्ट्रीय भावना, मानवतावाद की प्रतिष्ठा, नई  अभिव्यंजना शैली-प्रतीकात्मकता, लाक्षणिकता वक्रता तथा चित्रात्मकता आदि हैं। इस काल के मुख्य कवि जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, डॉ. रामकुमार वर्मा आदि हैं।

                                छायावादोत्तर काव्य अ. राष्ट्रीय काव्यधारा (मुख्य कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, रामधारीसिंह ‘दिनकर’, श्रीकृष्ण 'सरल' आदि), आ. प्रगीत काव्यधारा (मुख्य कवि हरिवंश राय बच्चन, नरेंद्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', गोपालसिंह नैपाली, ‘नीरज’, बालस्वरूप ‘राही’, आदि) तथा  इ. प्रगतिवादी / प्रयोगवादी काव्यधारा  (कालान्तर में नयी कविता, अकविता, साठोत्तरी कविता आदि) में वर्गीकृत (प्रमुख कवि- पंत, निराला, दिनकर, नवीन, नागार्जुन, केदार, ‘सुमन’, 'मुक्तिबोध’, शमशेर, त्रिलोचन, भवानी प्रसाद मिश्र, धूमिल, भारत भूषण अग्रवाल आदि) में वर्गीकृत किया जाता है। 

३. प्रयोगवादी / प्रगतिवादी काव्यधारा 

                                प्रगतिवादी काव्यधारा के काव्य में सामाजिक यथार्थ केंद्र में रहा। प्रगतिवाद ने एक निश्चित सामाजिक-राजनीतिक जीवन पद्धति को स्वीकार किया मजदूर-किसान वर्ग के उत्पीड़न और संघर्ष,  समाज में वर्ग-भेद, ग्रामीण और दलित बहू-बेटियों की समस्या को मार्क्स के यथार्थवादी दृष्टिकोण, तथा हँसिया, हथौड़ा  लाल सेना, रूस-चीन आदि उपकरणों से उभारा गया।  प्रगतिवादी काव्यधारा की दृष्टि अंतरंगी न होकर बहिरंगी है। इन कविताओं में अनुभूति की गहराई का अभाव तथा विकास, उन्नति, सामाजिक सद्भाव, सांस्कृतिक आध्यात्म आदि की उपेक्षा पाई जाती है।

                                प्रयोगवाद का जन्म छायावाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। इसमें भदेसपन का आग्रह है। प्रयोगवाद ने काव्य वस्तु और शैली-शिल्प के नवीन प्रयोगों द्वारा बहुरूपी अस्थिर जीवन को उपयुक्त बनाने का महत्व समझा, जीवन में नये मूल्यों की प्रतिष्ठा की तथा  भाव-बोध को नवता दी। प्रयोगवादी कवियों में जीवन, समाज, धर्म, राजनीति, काव्यवस्तु, शैली, छंद, तुक, कवि के दायित्व आदि को लेकर मतभेद रहे। जगत के सर्वमान्य -स्वयं सिद्ध मौलिक सत्यों को लोकतंत्र की आवश्यकता, उद्योगों का समाजीकरण, यांत्रिक युग की उपयोगिता इन्हें स्वीकार्य नहीं रही। इन कवियों के प्रयोगशीलता के परिणामस्वरूप अति यथार्थ का आग्रह, बौद्धिकता, भदेस का चित्रण,  घोर वैयक्तिता, अतृप्ति एवं विद्रोह के स्वर,  मध्यम वर्ग की कुण्ठा की विवृत्ति, यौन वर्जनाओं का चित्रण आदि  प्रवृत्तियाँ कविता के केंद्र में आईं।  

                                वर्तमान में हिंदी कविता समीक्षकीय दृष्टि से दो पाटों के बीच में पीसी जा रही है। श्री गोपाल प्रसाद मुद्गल के अनुसार प्रगतिवादी काव्य वर्तमान सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक, आर्थिक, नैतिक आदि दृष्टियों से समस्याओं का परीक्षण कर कटु यथार्थ प्रस्तुत करते हैं। वे लोकमानस में सामाजिक अन्याय, विसंगति, अत्याचार, नैतिक ह्रास, प्रदूषण, जनसंख्या विस्तार, सत्ताधारियों की युद्ध लिप्सा आदि पर कठोर प्रहार करते हैं। उनकी दृष्टि भाषा, छंद, पिङगल, ध्वनि, गति-यति आदि पर न होकर केवल और केवल कथ्य की सशक्तता पर होता है। वे कविता के आईने में सामाजिक सच को देखते और दिखाते हैं। आधुनिकता के पक्षधर प्रगतिवादी साहित्यकार स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श आदि को उपकरण की तरह उपयोग करते हैं। पारंपरिक मूल्यों और मान्यताओं को अंधश्रद्धा, अन्धविश्वास कहकर उनकी खिल्ली उड़ाना और खंडन-मंडन करन वे अपना धर्म मानते हैं। वे कल्पना, श्रृंगार, आस्था, भक्ति-भाव आदि को हास्यास्पद और त्याज्य मानते हैं। 

                                प्रगतिवादी कवि प्रांजल भाषा, पौराणिक मिथक, प्रापारंपरिक बिंब, छंद, अलंकार आदि को नकारकर स्पष्टता,  सपाट बयानी, अछूते बिंबों, अप्रचलित रूपकों, नव मान्यताओं, वैयक्तिक स्वातंत्र्य, असंतुष्टि, विरोध, विद्रोह आदि को प्रमुखता देते हैं। वे व्यक्तिगत आलस्य और सामूहिक उदासीनता पर शब्द-प्रहार कर अराजकता का स्वागत करते हैं। उनका विश्वास है कि विनाश ही नव निर्माण की पूर्व पीठिका है। वे पारंपरिक कविता पर बोझिल, क्लिष्ट, सामंतवाद समर्थक, जन विरोधी, अस्पष्ट और दुर्बोध होने का आरोप लगाते हैं।उनके अनुसार इस युग में श्रद्धा- विश्वास, सत्य-शिव-सुंदर, आत्म-परमात्म आदि की बात करना बेमानी है। वे स्त्री-पुरुष समानता के कट्टर पक्षधर हैं। जनाधिकार प्रगतिवादियों का लक्ष्य है। व्यंजना इन कवियों को अतिप्रिय है। नई कविता में आधुनिक समाज का शोषित-पीड़ित-दलित वर्ग आलंबन की तरह प्रयुक्त हुआ है। आरंभ में छंद से परहेज अपरिहार्य नहीं था। प्रगतिवाद के पुरोधा समीक्षक-कवि डॉ. राम  लिखते हैं -

'हाथी-घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की।
 हिंदी-हिंदुस्तान की, जय कन्हैया लाल की।।

                                भारतभूषण अग्रवाल के शब्दों में- 

खाना खाकर जब बिस्तर पर कमरे में लेटा। 
सोच रहा था मैं मन ही मन, हिटलर बेटा।।

                                गिरिजाकुमार माथुर की कविता में सांगीतिकता का स्वर है। शमशेद बहादुर सिंह भाषा में कला का तड़का लगाते हैं - 
'बात बोलेगी 
हम नहीं। 
भेद खोलेगी 
बात ही।

                                सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' व्यंजना को हथियार की तरह प्रयोग करते हैं- 

'सांप! तुम सभ्य तो हुए नहीं 
शहर में बसना तुम्हें नहीं आया। 
एक बात पूछूँ?
उत्तर डोज?
डँसना कहा से सीखा?
ज़हर कहाँ से पाया??'

                                नरेश कुमार मेहता शुद्ध और प्रांजल भाषा का प्रयोग करते हैं। वे नारी मुक्ति का समर्थन करते हुए लिखते हैं- 

'एक दिन 
साध्वी की भूषा में लिपटी उस नारी ने 
उतार दिए आवरण 
लाँघे तापसता के सारे चौखटे 
और मुक्ति के लिए वरणकर किसी को 
लौटा दी 
अपने को अपनी ही नारी।'   - आखिर समुद्र से तात्पर्य, पृष्ठ ५४ 

                                धर्मवीर  भारती पौराणिक मिथकों से परहेज़ नहीं करते। उनकी शब्द योजना रूमानी तथा सांगीतिक लय युक्त है -

'कल्पने! उदासिनी 
किसी सुदूर देश में, न मेघदूत वेश में 
किसी निराश यज्ञ का प्रणय संदेश ला रही'

                                मधुरेश ग्राम्य परिवेश से दूर शहर में  अपनी माँ को याद करते समय स्त्री का चित्रण करते समय छंद को सहायक पाते हैं- 

'मक्का की रोटी जब खाई मैंने बहुत दिनों के बाद। 
अम्मा! आज अचानक आई मुझे तुम्हारी याद।।
जड़ों में भी तुम प्रतिदिन ही तड़के जातीं जाग। 
राम नाम जप करती रहतीं और जलातीं आग।।
दुहातीं गाय. खिलातीं चारा, नित्य सहित अनुराग 
अहो! तुम्हारी धन्य तपस्या, धन्य तुम्हारे त्याग।।'

                                अटलबिहारी बाजपेई आम आदमी की हिंदी-अंग्रेजी मिश्रित शब्दावली में न्याय व्यवस्था पर प्रहार करते हुए वाकई को यूँ परिभाषित करते हैं-

' न टायर्ड हूँ, न रिटायर हूँ।  
फायर उगलता शायर हूँ।
विदेशों में पैरवी करता हुआ-
इंडिया का सर्वश्रेष्ठ लायर हूँ।' 

                                आदमी में बढ़ती स्वार्थवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए संजीव वर्मा 'सलिल' लिखते हैं- 
 
जब 
स्वार्थ-साधन और 
लोभ-लिप्सा तक 
सीमित रह जाए 
नाक की सीध
तब 
समझ लो 
आदमी, 
आदमी नहीं रह गया है 
बन गया है गीध। 

                                स्पष्ट है कि आरंभ में प्रयोगवादी / प्रगतिवादी काव्य के जो लक्षण कहे गए, कालांतर में उनमें से कई को कवियों ने कथ्य की मांग माँग पर छोड़ा है। ऐसा करना ठीक भी है। काव्य रचना का उद्देश्य कवि द्वारा अपनी अनुभूतियों को अभियक्त कर पाठक तक पहुँचाना ही है। पाठक उन अनुभूतियों को आत्मसात कर सके तो रचनाकर्म सफल है अन्यथा असफल। लक्षण का निर्धारण कभी भी अंतिम नहीं हो सकता। आधुनिक कविता अब वादों की सीमा लांघ चुकी है। 

४. नवगीत और आधुनिक गीति काव्य - 

                                गत लगभग ५ दशकों से आधुनिक गीति काव्य संक्रांति काल से गुजरा है। गीत का रूपान्तरण नवगीत के रूप में हुआ और ग़ज़ल को नई ग़ज़ल के रूप में लिखा जा रहा है। पारंपरिक गीत की वैयक्तिक अनुभूति का स्थान सार्वजनीन अनुभूति ने लिया है। गेट की प्राणजल शब्दावली के स्थान पैट देशज शब्दों का टटकापन नवगीत का वैशिष्ट्य बन गया है। ग़ज़ल ने मृगनयनियों से वार्तालाप की राह छोड़ कर सामाजिक परिवर्तनों को आत्मसात कर लिया है। इस तरह गीत, ग़ज़ल और कविता का कथ्य लगभग एक सा हो गया है। इस कारण मठाधीश रचनाकारों और समीक्षकों को अपना वर्चस्व बनाए रखने में कठनाई अनुभव होने लगी है। जिन लक्षणों के आधार पर काव्य जगत में विभाजन की आधार शिला रखी गई थी, वे लक्षण अनुभूत को अभिव्यक्त करने के रह में बाधक होने लगे तो ईमानदार रचनाकार के सामने उन्हें छोड़ने और कथ्य के अनुरूप राह बदलने का ही विकल्प शेष रहता है। ऐस केवल काव्य जागर में नहीं हो रहा। समाज में जाति व्यवस्था, राजनीति में दलीय विभाजन, परिवार और विवाह जैसी संस्थाएँ भी संक्रमणकाल में बदलाव का सामना कर रही हैं।   

                                नवगीत का कथ्य बहुत कुछ उसी तरह का है जैसा नई कविता है, अंतर केवल शिल्प  का है। गीत मुखड़े-अंतरे के अनुशासन में बँधा है तो ग़ज़ल मतले, मक्ते और काफिया रदीफ़ के अनुशासन में। नई कविता अनुशासनहीन या अराजकअभिव्यक्ति नहीं है। नई कविता का अनुशासन लयबद्धता, सरसता तथा स्पष्टता है। यदि ये तीन तत्व न हों तो नई कविता नीरस, रुक्ष, क्लिष्ट और अग्राह्य हो जाती  है। आधुनि गीति काव्य की तीनों रूप गीत, ग़ज़ल और कविता का कथ्य सामाजिक विसंगतियों और समस्याओं की पहचान और उनका निराकरण का पथ प्रशस्त करना है। नवगीत और ग़ज़ल को प्रगतिवादी समीक्षकों की अनदेखी और अस्वीकृति का शिकार होना पड़ा है। इसकी प्रतिक्रिया यह है कि नवगीतकार और गज़लकार नई कविता को अस्वीकार कर रहे हैं। श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार और गज़लकार डॉ. राम सनेही  लाल शर्मा 'यायावर' के अनुसार 'कविता रसवंती होती है... नए कवियों ने जटिल बिंबों फैंटेसियों और उलझी हुई शब्दावली से ऐसा घटाटोप बनाया कि कविता जटिलतर हो गई। फलत:, नई कविता ने कविता के पाठक समाप्त कर दिए।'

५. हिंदी की विश्व-कविता 

                                भारत में तमाम अंतर्विरोधों और आलोचनाओं का सामना करते हुए हुए हिंदी निरंतर विश्ववाणी बनने के पथ पर अग्रसर है। वह विश्व में सर्वाधिक मनुष्यों द्वारा बोले / समझे जानेवाली भाषा तो बहुत पहले बन चुकी है। दुर्योग यह कि राजनैतिक स्वार्थों को साधने के लिए सरकारों द्वारा यह सत्य स्वीकार नहीं जा रहा। तथापि, जिस तरह आँख मूंदकर उगते सूरज को नहीं नाकारा जा सकता उसी तरह हिंदी को विश्ववाणी बनने से कोई रोक नहीं सकता। विश्ववाणी होने के नाते हिंदी कविता को विश्वजनीन समस्याओं और चिंतन धाराओं के साथ वैज्ञानिक, यांत्रिकी, औद्यौगिकी, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक परिवर्तनों को देख-सुन-समझ काट आत्मसात और अभिव्यक्त करना होगा। यह केवल केवल तभी संभव है जब हिंदी कविता अपने समस्त पप्रारूपों को एक दूसरे का पूरक बना सके। हिंदी ने भारतीय / अभारतीय हिंदीतर भाषाओँ / बोलिओं के काव्य प्रारूपों (बुंदेली -आल्हा,, फाग आदि, बृज -  रास, पंजाबी - माहिया, उर्दू- कहमुकरी और ग़ज़ल, उर्दूअंग्रेजी- सॉनेट जापानी- हाइकु, ताँका, रैगा, सदोका, चुका, हाइगा, कतौता आदि) को अपनाया ही नहीं अपितु उनकी सृजन सामर्थ्य को समृद्ध भी किया है। 

                                नई कविता की विवशता यह है कि वह छन्दानुशासन को अपना नहीं सकती इसलिए छंद को सिरे से नकारती है। गाठ ७ दशकों में  साम्यवादी विचारधारा से आक्रांत रही है। किसी भी सृजन विधा को सर्व स्वीकृति तब तक नहीं मिल सकती जब तक कि वह  हर तरह के विचारों को स्वीकार और अभिव्यक्त न कर सके। वैचारिक प्रतिबद्धता के कारन ही नई कविता केवल साम्यवादी विचार के रचनाकारों और पाठकों तक सीमित रह गई किन्तु कभी बहुसंख्यक रचनाकारों / पाठकों की अपनी नहीं बन सकी जबकि गीत, नवगीत ग़ज़ल और छंद साम्यवादी विचारों को व्यक्त करते समय नई कविता के पाठकों - श्रोताओं द्वारा स्वीकारे जाते हैं। इस परिदृश्य में नव कविता को सर्वस्वीकृत होने के लिए हर तरह के विचारों और विचारधाराओं को आत्मसात करना होगा। अकविता, रैप सॉन्ग्स आदि का प्रारूप भी छंद मुक्त ही है। छड़न मुक्त कविता भले ही छंद मुक्त होने का दावा करे किन्तु उसकी छंद मुक्ति मात्र इस सीमा में सीमित है कि वह किसी एक छंद के अनुशासन में बंधी है किंतु उसकी विविध पंक्तियाँ विविध छंदों में निबद्ध होती हैं जो मिलकर एक रचना बनती हैं। 

                                छंद का उद्भव नाद, ध्वनि या उच्चार से है। छंद का अर्थ है वह ध्वनि जो मानस में छा जाए। यदि नई कविता  छाती ही नहीं है तो वह निरुपयोगी है और अगर वह मानस में छाती है तो वह भी उच्चार, ध्वनि या नाद का ही एक रूप है। रोटी, पराठा, पूड़ी और कचौड़ी सब गेहूं के चूर्ण (आटा /  मैदा) बनाई जाती हैं। उनमें भिन्नता होते भी गेहूँ सामान्य है। सभी गीति काव्य रूपों (गीत, ग़ज़ल, कविता) में ध्वनि या नाद सामान्य तत्व है जो इन्हें एक गोत्रोत्पन्न बनाता है। वर्तमान समय की प्राथमिक और सर्वोपरि आवश्यकता कि हिंदी की सभी काव्य विधाएँ पारस्परिक अंतर को भूलकर पारस्परिक साम्यता के तत्व खोजें और एक दूसरे से हाथ मिलकर हिंदी काव्य को विश्व श्रुत बनाएँ। रचनाकार को यह स्मरण रखना होगा कि रचना अच्छी या कम अच्छी होती है। पाठक अच्छी रचना के कथ्य को याद रखता है उसकी विधा नहीं। रचना कथ्य की आवश्यकता के अनुरूप जिस भी विधा में रची जाए उसमें सम्यक शब्दों का चुनाव, मुहावरेदार प्रवाहमयी भाषा, अभिव्यक्ति की स्पष्टता, सरलता, बोधगम्यता, सरसता होगी तो पाठक उसे स्मरण रख सकेगा। रचनाकार और पाठक दोनों गीत, ग़ज़ल और कविता  लिखते- पढ़ते / सुनते हैं। एक विधा को अन्यों से श्रेष्ठ या हीन बताकर अपने आपक्को स्थापित करने का खेल खेमेबाजी के शौक़ीन मठाधीशों ने खूब किया जिससे भाषा और साहित्य का अहित  ही हुआ है। अब समय आ गया है जब वैचारिक भिन्नता को  टकराव नहीं त्रिभाव के पढ़ पर ले जाया जाए और विश्ववाणी हिंदी के सभी काव्य रूप अपनी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति कर एक दूसरे के पूरक बनकर हिंदी की सामर्थ्य और समृद्धि में  सहायक हों। 
***
सम्पर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 

सॉनेट,सरस्वती,गीत,दोहा,कहमुकरी,होली

सॉनेट
शारदा वंदना 
*
आँख खुली तब, चोट लगी जब
मन सितार का तार बना बज
शारद के चरणों की पा रज
करतब करते, मौन न कर तब
*
ढीला बेसुर, कसा टूटता
राग-विराग रहे सम मैया!
ले लो कैंया, दो निज छैंया
बीजांकुर पा नमी फूटता
*
माता! तुम ही भाग्य विधाता
नाद-ताल-ध्वनि भाषा दाता
जन्म जन्म का तुमसे नाता
*
अँखियाँ छवि-दर्शन की प्यासी
झलक दिखाओ श्वास-निवासी!
अंब! आत्म हो ब्रह्म-निवासी
१०-३-२०२३
•••
पद
*
रे मन! शारद के गुन गाओ।
सोकर समय गँवाया नाहक, जगकर कदम बढ़ाओ।।
ठोकर खाकर रो मत; उठ बढ़, साहस कर मुस्काओ।।
मानव तन पा सबका हित कर, सबसे आशीष पाओ।।
अँगुली पकड़ किसी निर्बल की, मंज़िल तक पहुँचाओ।।
स्वार्थ तजो; परमार्थ राह चल, सबको सुख दे जाओ।।
अन्धकार दस दिश व्यापा है, श्रम कर सूर्य उगाओ।।
अक्षर-अक्षर शब्द बनाकर, पद रच मधुर सुनाओ।।
१-१२-२०२२, जबलपुर
***
कहमुकरी
मन की बात अनकही कहती
मधुर सरस सुधियाँ हँस तहती
प्यास बुझाती जैसे सरिता
क्या सखि वनिता?
ना सखि कविता।
लहर-लहर पर लहराती है।
कलकल सुनकर सुख पाती है।।
मनभाती सुंदर मन हरती
क्या सखि सजनी?
ना सखि नलिनी।
नाप न कोई पा रहा।
सके न कोई माप।।
श्वास-श्वास में रमे यह
बढ़ा रहा है ताप।।
क्या प्रिय बीमा?
नहिं प्रिये, सीमा।
१०-३-२०२२
••
दोहा
आँखमिचौली खेलते, बादल सूरज संग.
यह भागा वह पकड़ता, देखे धरती दंग..
*
पवन सबल निर्बल लता, वह चलता है दाँव .
यह थर-थर-थर काँपती, रहे डगमगा पाँव ..
*
देवर आये खेलने, भौजी से रंग आज
भाई ने दे वर रंगा, भागे बिगड़ा काज
१०-३-२०१०
***
गीत:
ओ! मेरे प्यारे अरमानों,
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ.
ओ! मेरे सपनों अनजानों-
तुमको मैं साकार बनाऊँ...
*
मैं हूँ पंख उड़ान तुम्हीं हो,
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो.
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही-
मैं अक्षर हूँ गान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी निश्छल मुस्कानों
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ...
*
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों आओ!
श्रम का पाठ पढाऊँ...
*
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरस मधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों आओ,
दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
१०-३-२०१०
***

इंजीनियर सत्येंद्र दुबे

 

बिहार के एक युवा इंजीनियर सत्येंद्र दुबे

2002 में, दुबे बिहार में एक सड़क निर्माण परियोजना पर भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) के परियोजना निदेशक के रूप में काम कर रहे थे। उन्होंने पाया कि परियोजना में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार था, ठेकेदारों ने सार्वजनिक धन की हेराफेरी की और सड़क बनाने के लिए घटिया सामग्री का उपयोग किया।.

दुबे ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों और भ्रष्टाचार की जांच करने वाली एक सरकारी एजेंसी केंद्रीय सतर्कता आयोग को भ्रष्टाचार की सूचना दी। हालांकि, उनकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के लिए प्रशंसा किए जाने के बजाय, दुबे को उनके सहयोगियों और वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा धमकाया और परेशान किया गया, जो भ्रष्टाचार नेटवर्क का हिस्सा थे।

यह महसूस करते हुए कि उनका जीवन खतरे में है, दुबे ने प्रधान मंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर एनएचएआई परियोजना में भ्रष्टाचार का विवरण दिया और सुरक्षा की मांग की। हालाँकि, उनका पत्र भ्रष्ट अधिकारियों को लीक कर दिया गया था, और 27 नवंबर, 2003 की रात को दुबे को अज्ञात हमलावरों ने गोली मार दी थी.

दुबे की मौत ने एक राष्ट्रीय आक्रोश को जन्म दिया और भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सार्वजनिक आक्रोश को जन्म दिया। हालाँकि, कई उच्च-स्तरीय जाँचों और न्याय के वादों के बावजूद, उनकी हत्या के लिए किसी को भी ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया है।

इस तरह एक साधारण गलती - इस मामले में, भ्रष्टाचार की सूचना देना और सही काम करने की कोशिश करना - किसी के जीवन के लिए विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। उनकी बहादुरी और बलिदान भारत और दुनिया भर में भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ताओं को प्रेरित करते हैं।

गुरुवार, 9 मार्च 2023

सॉनेट,यूक्रेन,माली छंद,होली के दोहे,मुक्तिका,लघुकथा,सोरठा

सॉनेट
यूक्रेन
सत्य लिखेगा यह इतिहास।
हारा तिनके से तूफान।
धीरज इसका संबल खास।।
हर तिनका करता बलिदान।।

वह करता सब सत्यानाश।
धरती को करता शमशान।
अपराधी का करें विनाश।।
एक साथ मिल सब इंसान।।

भागें मत, संबल दें काश।
एक यही है शेष निदान।
गिरे पुतिन पर ही आकाश।।
यूक्रेनी हैं वीर महान।।

करते हैं हम उन्हें सलाम।
उनकी विपदा अपनी मान।।
९-३-२०२२
•••
आत्मकथ्य
मैं विवाह के पश्चात् प्राध्यापिका पत्नि को रोज कोलेज ले जाता-लाता था. फिर उन्हें लूना और स्कूटर चलाना सिखाया. बाद में जिद कर कार खरीदी तो खुद न चला कर उन्हें ही सिखवाई.शोध कार्य हेतु खूब प्रोत्साहित किया. सडक दुर्घटना के बाद मेरे ओपरेशन में उनहोंने और उन्हें कैंसर होने पर मैंने उनकी जी-जान से सेवा की. हर दंपति को अपने परिवेश और जरूरत के अनुसार एक-दुसरे से तालमेल बैठाना होता है. महिला दिवस मनानेवाली महिलायें घर पर बच्चों और बूढ़ों को नौकरानी के भरोसे कर जाती हैं तो देखकर बहुत बुरा लगता है.
***
कार्यशाला
राजीव गण / माली छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १८ मात्रा, यति ९ - ९
लक्षण छंद:
प्रति चरण मात्रा, अठारह रख लें
नौ-नौ पर रहे, यति यह परख लें
राजीव महके, परिंदा चहके
माली-भ्रमर सँग, तितली निरख लें
उदाहरण:
१. आ गयी होली, खेल हमजोली
भिगा दूँ चोली, लजा मत भोली
भरी पिचकारी, यूँ न दे गारी,
फ़िज़ा है न्यारी, मान जा प्यारी
खा रही टोली, भाँग की गोली
मार मत बोली,व्यंग्य में घोली
तू नहीं हारी, बिरज की नारी
हुलस मतवारी, डरे बनवारी
पोल क्यों खोली?, लगा ले रोली
प्रीती कब तोली, लग गले भोली
२. कर नमन हर को, वर उमा वर को
जीतकर डर को, ले उठा सर को
साध ले सुर को, छिपा ले गुर को
बचा ले घर को, दरीचे-दर को
३. सच को न तजिए, श्री राम भजिए
सदग्रन्थ पढ़िए, मत पंथ तजिए
पग को निरखिए, पथ भी परखिए
कोशिशें करिए, मंज़िलें वरिये
९-३-२०२०
***
होली के दोहे
*
होली हो ली हो रही, होली हो ली हर्ष
हा हा ही ही में सलिल, है सबका उत्कर्ष
होली = पर्व, हो चुकी, पवित्र, लिए हो
*
रंग रंग के रंग का, भले उतरता रंग
प्रेम रंग यदि चढ़ गया कभी न उतरे रंग
*
पड़ा भंग में रंग जब, हुआ रंग में भंग
रंग बदलते देखता, रंग रंग को दंग
*
शब्द-शब्द पर मल रहा, अर्थ अबीर गुलाल
अर्थ-अनर्थ न हो कहीं, मन में करे ख़याल
*
पिच् कारी दीवार पर, पिचकारी दी मार
जीत गई झट गंदगी, गई सफाई हार
*
दिखा सफाई हाथ की, कहें उठाकर माथ
देश साफ़ कर रहे हैं, बँटा रहे चुप हाथ
*
अनुशासन जन में रहे, शासन हो उद्दंड
दु:शासन तोड़े नियम, बना न मिलता दंड
*
अलंकार चर्चा न कर, रह जाते नर मौन
नारी सुन माँगे अगर, जान बचाए कौन?
*
गोरस मधुरस काव्य रस, नीरस नहीं सराह
करतल ध्वनि कर सरस की, करें सभी जन वाह
*
जला गंदगी स्वच्छ रख, मनु तन-मन-संसार
मत तन मन रख स्वच्छ तू, हो आसार में सार
*
आराधे राधे; कहे आ राधे! घनश्याम
वाम न होकर वाम हो, क्यों मुझसे हो श्याम
*
संवस
होली २०१८
मुक्तिका:
*
कर्तव्यों की बात न करिए, नारी को अधिकार चाहिए
वहम अहम् का हावी उस पर, आज न घर-परिवार चाहिए
*
मेरी देह सिर्फ मेरी है, जब जिसको चाहूँ दिखलाऊँ
मर्यादा की बात न करना, अब मुझको बाज़ार चाहिए
*
आदि शक्ति-शारदा-रमा हूँ, शिक्षित खूब कमाती भी हूँ
नित्य नये साथी चुन सकती, बाँहें बन्दनवार चाहिए
*
बच्चे कर क्यों फिगर बिगाडूँ?, मार्किट में वैल्यू कम होती
गोद लिये आया पालेगी, पति ही जिम्मेदार चाहिए
*
घोषित एक अघोषित बाकी,सारे दिवस सिर्फ नारी के
सब कानून उसी के रक्षक, नर बस चौकीदार चाहिए
*
नर बिन रह सकती है दावा, नर चाकर है करे चाकरी
नाचे नाच अँगुलियों पर नित, वह पति औ' परिवार चाहिए
*
किसका बीज न पूछे कोई, फसल सिर्फ धरती की मानो
हो किसान तो पालो-पोसो, बस इतना स्वीकार चाहिए
***
मुक्तक:
मुक्त देश, मुक्त पवन
मुक्त धरा, मुक्त गगन
मुक्त बने मानव मन
द्वेष- भाव करे दहन
*
होली तो होली है, होनी को होना है
शंका-अरि बनना ही शंकर सम होना है
श्रद्धा-विश्वास ही गौरी सह गौरा है
चेत न मन, अब तुझको चेतन ही होना है
*
मुक्त कथ्य, भाव,बिम्ब,रस प्रतीक चुन ले रे!
शब्दों के धागे से कबिरा सम बुन ले रे!
अक्षर भी क्षर से ही व्यक्त सदा होता है
देना ही पाना है, 'सलिल' सत्य गुण ले रे!!
***
लघुकथा:
गरम आँसू
*
टप टप टप
चेहरे पर गिरती अश्रु-बूँदों से उसकी नीद खुल गयी, सास को चुपाते हुए कारण पूछा तो उसने कहा- 'बहुरिया! मोय लला से माफी दिला दे रे!मैंने बापे सक करो. परोस का चुन्ना कहत हतो कि लला की आँखें कौनौ से लर गयीं, तुम नें मानीं मने मोरे मन में संका को बीज पर गओ. सिव जी के दरसन खों गई रई तो पंडत जी कैत रए बिस्वास ही फल देत है, संका के दुसमन हैं संकर जी. मोरी सगरी पूजा अकारत भई'
''नई मइया! ऐसो नें कर, असगुन होत है. तैं अपने मोंडा खों समझत है. मन में फिकर हती सो संका बन खें सामने आ गई. भली भई, मो खों असीस दे सुहाग सलामत रहे.''
एक दूसरे की बाँहों में लिपटी सास-बहू में माँ-बेटी को पाकर मुस्कुरा रहे थे गरम आँसू।
९-३-२०१६
***
सोरठा सलिला
भजन-कीर्तन नित्य, करिए वंदना-प्रार्थना।
रीझे ईश अनित्य, सफल साधना हो 'सलिल'।
*
हों कृपालु जगदीश , शांति-राज सुख-चैन हो।
अंतर्मन पृथ्वीश, सत्य सहाय सदा रहे।।
*
ऐसे ही हों कर्म, गुप्त चित्र निर्मल रहे।
निभा 'सलिल' निज धर्म, ज्यों की त्यों चादर रखे।।
९-३-२०१०
***

बुधवार, 8 मार्च 2023

ओशो,लाओत्से,क्षणिका,महिला,सुधारानी श्रीवास्तव,सॉनेट,तुम,मुक्तिका, श्रृंगार गीत,

होली सलिला 
*
अबकी फागुन में शरारत ये मेरे साथ हुई
मोदी-ममता की लगावट, हुई खटास मुई
युद्ध बंगाल का कुरुक्षेत्र से संगीन अधिक
तीर-तलवार चला कह रहे, चुभा न सुई
रंगे हाथों न पकड़ जाएँ, कभी इस खातिर
दिल की रंगीनियों ने, दिमागी ज़मीं न छुई
*
मुक्तिका 
होली मने 
*
भावना बच पाए तो होली मने
भाव ना बढ़ पाएँ तो होली मने
*
काम ना मिल सके तो त्यौहार क्या
कामना हो पूर्ण तो होली मने
*
साधना की सिद्धि ही होली सखे!
साध ना पाए तो क्या होली मने?
*
वासना से दूर हो होली सदा
वास ना हो दूर तो होली मने
*
झाड़ ना काटो-जलाओ अब कभी
झाड़ना विद्वेष तो होली मने
*
लालना बृज का मिले तो मन खिले
लाल ना भटके तभी होली मने
*
साज ना छोड़े बजाना मन कभी
साजना हो साथ तो होली मने
*   
होली सलिला
होरी के जे हुरहुरे
*
होरी के जे हुरहुरे, लिये स्नेह-सौगात
कौनऊ सुन मुसक्या रहे, कौनऊ दिल सहलात
कौनऊ दिल सहलात, किन्हऊ खों चढ़ि गओ पारा,
जिन खों पारा चढ़े, होय उनखों मूं कारा
जोगीरा सा रा रा रा
*
मुठिया भरे गुलाल से, लै पिचकारी रंग।
शारद ब्रह्मा को रंगें, देखे सब जग दंग।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
*  
काली जी पर कोई भी, चढ़ा न पाया रंग।
हुए लाल-पीले तुनक, शिव जी पीकर भंग।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
*  
मुठिया भरे गुलाल से, लै पिचकारी रंग।
शारद गणपति को रंगें, रिद्धि-सिद्धि है दंग।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
*  
भांग भवानी से भरे, सूँढ गजानन मौन।
पिएँ गटागट रोक दे, कहिए कैसे कौन।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
*
गुप्त चित्र पर डलेगा, कैसे कहिए रंग।
चित्रगुप्त की चतुरता, देखें देव अनंग।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
*  
सिय बिन मूरत राम की, लगे अवध में आज।
होली कैसे मनाएँ, कहिए योगिराज।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
***  
ओशो चिंतन: दोहा मंथन १.
*
लाओत्से ने कहा है, भोजन में लो स्वाद।
सुन्दर सी पोशाक में, हो घर में आबाद।।
लाओत्से ने बताया, नहीं सरलता व्यर्थ।
रस बिन भोजन का नहीं, सत्य समझ कुछ अर्थ।।
रस न लिया; रस-वासना, अस्वाभाविक रूप।
ले विकृत हो जाएगी, जैसे अँधा कूप।।
छोटी-छोटी बात में, रस लेना मत भूल।
करो सलिल-स्पर्श तो, लगे खिले शत फ़ूल।
जल-प्रपात जल-धार की, शीतलता अनुकूल।।
जीवन रस का कोष है, नहीं मोक्ष की फ़िक्र।
जीवन से रस खो करें, लोग मोक्ष का ज़िक्र।।
मंदिर-मस्जिद की करे, चिंता कौन अकाम।
घर को मंदिर बना लो, हो संतुष्ट सकाम।।
छोटा घर संतोष से, भर होता प्रभु-धाम।
तृप्ति आदमी को मिले, घर ही तीरथ-धाम।।
महलों में तुम पाओगे, जगह नहीं है शेष।
सौख्य और संतोष का, नाम न बाकी लेश।।
जहाँ वासना लबालब, असंतोष का वास।
बड़ा महल भी तृप्ति बिन, हो छोटा ज्यों दास।।
क्या चाहोगे? महल या, छोटा घर; हो तृप्त?
रसमय घर या वरोगे, महल विराट अतृप्त।।
लाओत्से ने कहा है:, "भोजन रस की खान।
सुन्दर कपड़े पहनिए, जीवन हो रसवान।।"
लाओ नैसर्गिक बहुत, स्वाभाविक है बात।
मोर नाचता; पंख पर, रंगों की बारात।।
तितली-तितली झूमती, प्रकृति बहुत रंगीन।
प्रकृति-पुत्र मानव कहो, क्यों हो रंग-विहीन?
पशु-पक्षी तक ले रहे, रंगों से आनंद।
मानव ले; तो क्या बुरा, झूमे-गाए छंद।।
वस्त्राभूषण पहनते, थे पहले के लोग।
अब न पहनते; क्यों लगा, नाहक ही यह रोग?
स्त्री सुंदर पहनती, क्यों सुंदर पोशाक।
नहीं प्राकृतिक यह चलन, रखिए इसको ताक।।
पंख मोर के; किंतु है, मादा पंख-विहीन।
गाता कोयल नर; मिले, मादा कूक विहीन।।
नर भी आभूषण वसन, बहुरंगी ले धार।
रंग न मँहगे, फूल से, करे सुखद सिंगार।।
लाओ कहता: पहनना, सुन्दर वस्त्र हमेश।
दुश्मन रस के साधु हैं, कहें: 'न सुख लो लेश।।'
लाओ कहता: 'जो सहज, मानो उसको ठीक।'
मुनि कठोर पाबंद हैं, कहें न तोड़ो लीक।।
मन-वैज्ञानिक कहेंगे:, 'मना न होली व्यर्थ।
दीवाली पर मत जला, दीप रस्म बेअर्थ।।'
खाल बाल की निकालें, यह ही उनका काम।
खुशी न मिल पाए तनिक, करते काम तमाम।।
अपने जैसे सभी का, जीवन करें खराब।
मन-वैज्ञानिक शूल चुन, फेंके फूल गुलाब।।
लाओ कहता: 'रीति का, मत सोचो क्या अर्थ?
मजा मिला; यह बहुत है, शेष फ़िक्र है व्यर्थ।।
होली-दीवाली मना, दीपक रंग-गुलाल।
सबका लो आनंद तुम, नहीं बजाओ गाल।।
***
क्षणिका
महिला
*
खुश हो तो
खुशी से दुनिया दे हिला
नाखुश हो तो
नाखुशी से लोहा दे पिघला
खुश है या नाखुश
विधाता को भी न पता चला
अनबूझ पहेली
अनन्य सखी-सहेली है महिला
***

सॉनेट
तुम
*
ट्रेन सरीखी लहरातीं तुम।
पुल जैसे मैं थरथर होता।
अपनों जैसे भरमातीं तुम।।
मैं सपनों सा बेघर होता।।
तुम जुमलों जैसे मन भातीं।
मैं सचाई सम कडुवा लगता।
न्यूज़ सरीखी तुम बहकातीं।।
ठगा गया मैं; खुद को ठगता।।
कहतीं मन की बात, न सुनतीं।
जन की बात अनकही रहती।
ईश न जाने क्या तुम गुनतीं।।
सुधियों की चादर नित तहती।।
तुम केवल तुम, कोई न तुम सा।
तुम में हूँ मैं खुद भी गुम सा।।
८-३-२०२२
***
मुक्तिका
*
झुका आँखें कहर ढाए
मिला नज़रें फतह पाए
चलाए तीर जब दिल पर
न कोई दिल ठहर पाए
गहन गंभीर सागर सी
पवन चंचल भी शर्माए
धरा सम धैर्य धारणकर
बदरियों सी बरस जाए
करे शुभ भगवती हो यह
अशुभ हो तो कहर ढाए
कभी अबला, कभी सबला
बला हर पल में हर गाए
न दोधारी, नहीं आरी
सुनारी सभी को भाए
८-३-२०२०
***
महिला दिवस पर विशेष
बहुमुखी प्रतिभा की धनी विधि पंडिता सुधारानी श्रीवास्तव
श्रीमती सुधारानी श्रीवास्तव का महाप्रस्थान रंग पर्व के रंगों की चमक कम कर गया है। इल बहुमुखी बहुआयामी प्रतिभा का सम्यक् मूल्यांकन समय और समाज नहीं कर सका। वे बुंदेली और भारतीय पारंपरिक परंपराओं की जानकार, पाककला में निष्णात, प्रबंधन कला में पटु, वाग्वैदग्धय की धनी, शिष्ट हास-परिहासपूर्ण व्यक्तित्व की धनी, प्रखर व्यंग्यकार, प्रकांड विधिवेत्ता, कुशल कवयित्री, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू साहित्य की गंभीर अध्येता, संगीत की बारीकियों को समझनेवाली सुरुचिपूर्ण गरिमामयी नारी हैं। अनेकरूपा सुधा दीदी संबंधों को जीने में विश्वास करती रहीं। उन जैसे व्यक्तित्व काल कवलित नहीं होते, कालातीत होकर अगणित मनों में बस जाते हैं।
सुधा दीदी १९ जनवरी १९३२ को मैहर राज्य के दीवान बहादुर रामचंद्र सहाय व कुंतीदेवी की आत्मजा होकर जन्मीं। माँ शारदा की कृपा उन पर हमेशा रही। संस्कृत में विशारद, हिंदी में साहित्य रत्न, अंग्रेजी में एम.ए.तथा विधि स्नातक सुधा जी मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहीं। विधि साक्षरता के प्रति सजग-समर्पित सुधा जी १९९५ से लगातार दो दशकों तक मन-प्राण से समर्पित रहीं। सारल्य, सौजन्य, ममत्व और जनहित को जीवन का ध्येय मानकर सुधा जी ने शिक्षा, साहित्य और संगीत की त्रिवेणी को बुंदेली जीवनशैली की नर्मदा में मिलाकर जीवनानंद पाया-बाँटा।
वे नारी के अधिकारों तथा कर्तव्यों को एक दूसरे का पूरक मानती रहीं। तथाकथित स्त्रीविमर्शवादियों की उन्मुक्तता को उच्छृंखलता को नापसंद करती सुधा जी, भारतीय नारी की गरिमा की जीवंत प्रतीक रहीं। सुधा दीदी और उन्हें भौजी माननेवाले विद्वान अधिवक्ता राजेंद्र तिवारी की सरस नोंक-झोंक जिन्होंने सुनी है, वे आजीवन भूल नहीं सकते। गंभीरता, विद्वता, स्नेह, सम्मान और हास्य-व्यंग्य की ऐसी सरस वार्ता अब दुर्लभ है। कैशोर्य में
संस्कारधानी के दो मूर्धन्य गाँधीवादी हिंदी प्रेमी व्यक्तित्वों ब्यौहार राजेंद्र सिंह व सेठ गोविंददास द्वारा संविधान में हिंदी को स्थान दिलाने के लिए किए गए प्रयासों में सुधा जी ने निरंतर अधिकाधिक सहयोग देकर उनका स्नेहाशीष पाया।
अधिवक्ता और विधिवेत्ता -
१३ अप्रैल १९७५ को महान हिंदी साहित्यकार, स्त्री अधिकारों की पहरुआ,महीयसी महादेवी जी लोकमाता महारानी दुर्गावती की संगमर्मरी प्रतिमा का अनावरण करने पधारीं। तब किसी मुस्लिम महिला पर अत्याचार का समाचार सामने आया था। महादेवी जी ने मिलने पहुँची सुधा जी से पूछा- "सुधा! वकील होकर तू महिलाओं के लिए क्या कर रही है?" महीयसी की बात मन में चुभ गयी। सुधा दीदी ने इलाहाबाद जाकर सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रिका मनोरमा के संपादक को प्रेरित कर महिला अधिकार स्तंभ आरंभ किया। शुरू में ४ अंकों में पत्र और उत्तर दोनों वे खुद ही लिखती रहीं। बाद में यह स्तंभ इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि रोज ही पत्रों का अंबार लगने लगा। यह स्तंभ १९८१ तक चला। विधिक प्रकरणों, पुस्तक लेखन तथा अन्य व्यस्तताओं के कारण इसे बंद किया गया। १९८६ से १९८८ तक दैनिक नवीन दुनिया के साप्ताहिक परिशिष्ट नारी निकुंज में "समाधान" शीर्षक से सुधा जी ने विधिक परामर्श दिया।
स्त्री अधिकार संरक्षक -
सामान्य महिलाओं को विधिक प्रावधानों के प्रति सजग करने के लिए सुधा जी ने मनोरमा, धर्मयुग, नूतन कहानियाँ, वामा, अवकाश, विधि साहित्य समाचार, दैनिक भास्कर आदि में बाल अपराध, किशोर न्यायालय, विवाह विच्छेद, स्त्री पुरुष संबंध, न्याय व्यवस्था, वैवाहिक विवाद, महिला भरण-पोषण अधिकार, धर्म परिवर्तन, नागरिक अधिरार और कर्तव्य, तलाक, मुस्लिम महिला अधिकार, समानता, भरण-पोषण अधिकार, पैतृक संपत्ति अधिकार, स्वार्जित संपत्ति अधिकार, विधिक सहायता, जीवनाधिकार, जनहित विवाद, न्याय प्रक्रिया, नागरिक अधिकार, मताधिकार, दुहरी अस्वीकृति, सहकारिता, महिला उत्पीड़न, मानवाधिकार, महिलाओं की वैधानिक स्थिति, उपभोक्ता संरक्षण, उपभोक्ता अधिकार आदि ज्वलंत विषयों पर शताधिक लेख लिखे। कई विषयों पर उन्होंने सबसे पहले लिखा।
विधिक लघुकथा लेखन-
१९८७ में सुधा जी ने म.प्र.राज्य संसाधन केंद्र (प्रौढ़ शिक्षा) इंदौर के लिए कार्यशालाओं का आयोजन कर नव साक्षर प्रौढ़ों के लिए न्याय का घर, भरण-पोषण कानून, अमन की राह पर, वैवाहिक सुखों के अधिकार, सौ हाथ सुहानी बात, माँ मरियम ने राह सुझाई, भूमि के अधिकार आदि पुस्तकों में विधिक लघुकथाओं के माध्यम से हिंदू, मुस्लिम, ईसाई कानूनों का प्राथमिक ग्यान दिया।
उपभोक्ता हित संरक्षण
१९८६ में उपभोक्ता हित संरक्षण कानून बनते ही सुधा जी ने इसका झंडा थाम लिया और १९९२ में "उपभोक्ता संरक्षण : एक अध्ययन" पुस्तक लिखी। भारत सरकार के नागरिक आपूर्ति और उपभोक्ता मामले मंत्रालय ने इसे पुरस्कृत किया।
मानवाधिकार संरक्षण
वर्ष १९९३ में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम बना। सुधा जी इसके अध्ययन में जुट गईं। भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद दिल्ली के सहयोग से शोध परियोजना "मानवाधिकार और महिला उत्पीड़न" पर कार्य कर २००१ में पुस्तकाकार में प्रकाशित कराया। इसके पूर्व म.प्र.हिंदी ग्रंथ अकादमी ने सुधा जी लिखित "मानवाधिकार'' ग्रंथ प्रकाशित किया।
विधिक लेखन
सुधा दीदी ने अपने जीवन का बहुमूल्य समय विधिक लेखन को देकर ११ पुस्तकों (भारत में महिलाओं की वैधानिक स्थिति, सोशियो लीगल अास्पेक्ट ऑन कन्ज्यूमरिज्म, उपभोक्ता संरक्षण एक अध्ययन, महिलाओं के प्रति अपराध, वीमेन इन इंडिया, मीनवाधिकार, महिला उत्पीड़न और मानवाधिकार, उपभोक्ता संरक्षण, भारत में मानवाधिकार की अवधारणा, मानवाधिरार और महिला शोषण, ह्यूमैनिटी एंड ह्यूमन राइट्स) का प्रणयन किया।
सशक्त व्यंग्यकार -
सुधा दीदी रचित वकील का खोपड़ा, दिमाग के पाँव तथा दिमाग में बकरा युद्ध तीन व्यंग्य संग्रह तथा ग़ज़ल-ए-सुधा (दीवान) ने सहृदयों से प्रशंसा पाई।
नर्मदा तट सनातन साधनास्थली है। सुधा दीदी ने आजीवन सृजन साधना कर हिंदी माँ के साहित्य कोष को समृद्ध किया है। दलीय राजनीति प्रधान व्यवस्था में उनके अवदान का सम्यक् मूल्यांकन नहीं हुआ। उन्होंने जो मापदंड स्थापित किए हैं, वे अपनी मिसाल आप हैं। सुधा जी जैसे व्यक्तित्व मरते नहीं, अमर हो जाते हैं। मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनका स्नेहाशीष और सराहना निरंतर मिलती रही।
८-३-२०२०
***
गीत 
महिला दिवस
*
एक दिवस क्या
माँ ने हर पल, हर दिन
महिला दिवस मनाया।
*
अलस सवेरे उठी पिता सँग
स्नान-ध्यान कर भोग लगाया।
खुश लड्डू गोपाल हुए तो
चाय बनाकर, हमें उठाया।
चूड़ी खनकी, पायल बाजी
गरमागरम रोटियाँ फूली
खिला, आप खा, कंडे थापे
पड़ोसिनों में रंग जमाया।
विद्यालय से हम,
कार्यालय से
जब वापिस हुए पिताजी
माँ ने भोजन गरम कराया।
*
ज्वार-बाजरा-बिर्रा, मक्का
चाहे जो रोटी बनवा लो।
पापड़, बड़ी, अचार, मुरब्बा
माँ से जो चाहे डलवा लो।
कपड़े सिल दे, करे कढ़ाई,
बाटी-भर्ता, गुझिया, लड्डू
माँ के हाथों में अमृत था
पचता सब, जितना जी खा लो।
माथे पर
नित सूर्य सजाकर
अधरों पर
मृदु हास रचाया।
*
क्रोध पिता का, जिद बच्चों की
गटक हलाहल, देती अमृत।
विपदाओं में राहत होती
बीमारी में माँ थी राहत।
अन्नपूर्णा कम साधन में
ज्यादा काम साध लेती थी
चाहे जितने अतिथि पधारें
सबका स्वागत करती झटपट।
नर क्या,
ईश्वर को भी
माँ ने
सोंठ-हरीरा भोग लगाया।
*
आँचल-पल्लू कभी न ढलका
मेंहदी और महावर के सँग।
माँ के अधरों पर फबता था
बंगला पानों का कत्था रँग।
गली-मोहल्ले के हर घर में
बहुओं को मिलती थी शिक्षा
मैंनपुरी वाली से सीखो
तनक गिरस्थी के कुछ रँग-ढंग।
कर्तव्यों की
चिता जलाकर
अधिकारों को
नहीं भुनाया।
८-३-२०१७
***
श्रृंगार गीत
रहवासी
*
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
खनक-झनक सुनने के आदी
कान तुम्हारे बिन व्याकुल हैं।
''ए जी! ओ जी!!'' मंत्र-ऋचा बिन
कहा नहीं पर प्राण विकल हैं।
नाकाफी लगती है कॉफ़ी
फीके क्यों लगते गुड-शक्कर?
बिना काम क्यों शयन कक्ष के
लगा रहा चक्कर घनचक्कर?
खबर न रुचती, चर्चा नीरस
गीत अगीत हुए जाते हैं
बिन मुखड़ा हर एक अंतरा
लय-गति-रस
आधार खो रहा
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
डाले लेकिन गौरैया आ
बैठ मुँडेरे चुगे न दाना।
दरवाजे पर डाली रोटी
नहीं गाय का मगर ठिकाना।
बिना गुहारे चला गया है
भिक्षुक भी मुझको निराश कर
मन न हो रहा दफ्तर छोडूँ
जल्दी से जल्दी जाऊँ घर।
अधिकारी हो चकित पूछता
कहो, आज क्या घडी बंद है?
क्या बतलाऊँ उसे लघुकथा
का भूली है
कलम ककरहा
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
सब्जी नमक हलाल नहीं है
खाने लायक दाल नहीं है।
चाँवल की संसद में कंकर
दाँत कौन बेहाल नहीं है?
राम राज्य आना है शायद
बही दूध की नदी आज भी।
असल डूबना हुआ सुनिश्चित
हाथ न लगता कुफ़्र ब्याज भी।
अर्थशास्त्र फिकरे कसता है
हार गया रे गीतकार तू!
तेरे बस में नहीं रहा कुछ
क्यों पत्थर पर
फसल बो रहा?
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
८-३-२०१६
***
कविता महिला दिवस पर :
धरती
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता-संस्कृति को,
धरती जन्म देती है
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
८-३-२०११
***
मुक्तिका
*
भुज पाशों में कसता क्या है?
अंतर्मन में बसता क्या है?
*
जितना चाहा फेंक निकालूँ
उतना भीतर धँसता क्या है?
*
ऊपर से तो ठीक-ठाक है
भीतर-भीतर रिसता क्या है?
*
दिल ही दिल में रो लेता है.
फिर होठों से हँसता क्या है?
*
दाने हुए नसीब न जिनको
उनके घर में पिसता क्या है?
*
'सलिल' न पाई खलिश अगर तो
क्यों है मौन?, सिसकता क्या है?
८-३-२०१०
***

मंगलवार, 7 मार्च 2023

कुँवर 'प्रेमिल', समीक्षा, लघुकथा

कृति चर्चा -
रोटी - सारगर्भित लघुकथाएँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[ कृति विवरण - रोटी, लघुकथा संकलन, डॉ. कुँवर 'प्रेमिल', प्रथम संस्करण, २०२२, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ ६०, लेखक संपर्क एम.आई.जी. ८ विजय नगर, जबलपुर ४८२००२, चलभाष ९३०१८ २२७८२ ]

साहित्य सृजन और प्रकाशन का शौक दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहा है। मुद्रण तकनीक सर्व सुलभ और सहज साध्य होने के साथ ही नवधनाढ्यों में लिखास और छपास का व्यसन लत बनते जा रहा है। एक समय था कि एक-एक रुपए जोड़कर हर माह पुस्तकें क्रय कर संतुष्टि होती थी। एक समय आजा का है जब हर माह इतनी पुरतकेँ और पत्रिकाएँ डाक से प्राप्त हो जाती हैं कि चौबीस घंटे बैठकर पढ़ा जाए तो भी सबको नहीं पढ़ा जा सकता। जिनको पढ़ता हूँ उनमें से अधिकांश में कुछ उल्लेखनीय नहीं होता।

जल प्लावन से बड़ी से बड़ी नदी का जल मलिन हो जाना स्वाभाविक है। पावस पश्चात् नदी के शीतल-निर्मल जल की एक अंजुरी भी तृप्त कर देती है। 'रोटी' लघुकथा संग्रह को पढ़ना लघुकथा सलिला से निर्मल जल की अंजुरी पीकर तृप्त करने की तरह है। हिंदी गद्य साहित्य में लघुकथा शिक्षण और लेखन के क्षेत्र में बाढ़ है किंतु लघुकथा पठन और उस पर चर्चा के क्षेत्र में बहुत कार्य किया जाना है। अंतरजाल पर फेसबुक पृष्ठों, वाट्स ऐप समूहों और अन्य पटलों पर लघुकथा गुरुओं और उनके स्वनिर्मित मानकों ने नए लघुकथाकार के समक्ष भ्रम और संदेह का कोहरा घना कर दिया है।

इस वातावरण में संस्कारधानी जबलपुर निवासी श्रेष्ठ-ज्येष्ठ लघुकथाकार डॉ. कुँवर प्रेमिल का छठवाँ लघुकथा संकलन 'रोटी' वामन में विराट के अवतरण की तरह है। जबलपुर में सर्व स्मृतिशेष हरिशंकर परसाई, आनंद मोहन अवस्थी, रविंद्र खरे 'अकेला', श्री राम ठाकुर 'दादा', गुरुनाम सिंह रीहल, मोइनुद्दीन अतहर, गायत्री तिवारी, लक्ष्मी शर्मा आदि के साथ सर्व श्री ओंकार ठाकुर, डॉ. सुमित्र, ओमप्रकाश बजाज, प्रदीप शशांक, संजीव वर्मा 'सलिल', भगवत दुबे, मोहन शशि, रमेश सैनी, छाया त्रिवेदी, सुमनलता श्रीवास्तव, गीता गीत, प्रभा पाण्डे 'पुरनम', प्रभात दुबे, दिनेशनंदन तिवारी, गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, मनीषा गौतम, पवन जैन, मधु जैन, छाया सक्सेना, भारती नरेश पाराशर आदि ने गत छह दशकों में लघुकथा लेखन आंदोलन को निरंतर गतिशील बनाए रखा है। अतहर तथा कुंवर प्रेमिल ने लघुकथा विधा की पत्रिका भी प्रकाशित की।

विवेच्य कृति 'रोटी' गागर में सागर की तरह है। ६ लघुकथा संकलनों अनुवांशिकी, अंतत:, कुंवर प्रेमिल की ६१ लघुकथाएं, हरिराम हँसा, पूर्वाभ्यास, तथा रोटी में कुंवर प्रेमिल जी की कुल ४६० लघुकथाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं और उनकी उर्वराशक्ति संपन्न कलम अभी रुकी-चुकी नहीं है इसलिए शताधिक लघुकथाएँ रचकर वे हिंदी लघुकथा रतनगर को संपन्न कर सकते हैं। रोटी में ४१ लघुकथाएँ सम्मिलित हैं। प्रेमिल जी संख्या बढ़ाने के मोह से मुक्त हैं। वे लघुकथा के कथ्य, भाषा और शिल्प तीनों को समान महत्त्व देते हैं। उनकी लघुकथाएँ सुचिंतित, मौलिक और सहज बोधगम्य होती हैं। प्रेमिल सम्यक शब्द-प्रयोग के शनि हैं। वे भावनाओं की संतुलित अभिव्यक्ति करने में सिद्धहस्त हैं। कथाय के अनावश्यक विस्तार या अतिशय संकुचन के दोष से प्रेमिल जी की लघुकथाएँ मुक्त हैं। 

कृति के आरंभ में 'आप बीती' में कुंवर प्रेमिल लिखते हैं-

''मैंने सोचा''
'आप सोचते भी हैं' भीतरवाले ने तपाक से पूछा। 
मैंने अपनी बात रखी - ''भाई मैं क्या, हर एक को विचारवान होना चाहिए, विचार-विमर्श खुद से खुद को जोड़ने की अद्भुत प्रक्रिया है।''
'कभी हाँ, कभी ना, में फँसा-धँसा आदमी नाम का यह अद्भुत प्राणी जब इस प्रक्रिया से गुजरता है तो वह तपकर सोना हो जाता है।'

इस संकलन की लघुकथाएँ चितन की भट्टी में तपकर कुंदन हो गयी हैं। 'एक आदमी अपने ही खोल के अंदर' में पीढ़ियों का अन्तर, 'सुगबुगाते प्रश्न' में पति द्वारा रुग्ण पत्नी की शुश्रुषा, 'सुंदर लड़की' में शिक्षक की गरिमा, 'पिताजी यहाँ नहीं मरेंगे' में नई पीढ़ी की स्वार्थपरकता, 'डोकलाम' में दादा-पोते के माध्यम से परिस्थितियों पर व्यंग्य, 'लो जी खरगोश बच्चा जीत गया' में राजनैतिक परिदृश्य पर कटाक्ष, 'आदमी बनने की तैयारी' में माँ-और शिशु में मध्य के संबंध की कोमलता, 'औरत को रोबोट मत बनाओ' में पारिवारिक दायित्वों में दबती गृहिणी का दर्द, 'जमाना कुड़ियों का' में लड़कियों की निरंतर होती प्रगति, 'रिश्ते की बुआ जी' में जरुरत मंदों की मदद, 'तालमेल' में जिंदगी से तालमेल बैठंना, 'चेहरे पर चेहरा' में परिस्थितियों के अनुसार बदलाव, 'मौके की तलाश मेंश्वान दंपत्ति के माध्यम से मानवीय वहशीपना को केंद्र में रखा गया है। 

किन्नरों की पीड़ा, दादी-पोते का लगाव, तलाक में औरतों के साथ अन्याय,  पति और पुत्र के मध्य कठपुतली होती स्त्री, कई तरह के अंकों में फंसे आदमी की परेशानी, संतानों के विवाह के कारण  दो पिताओं के द्व्न्द का अंत, आज्ञाकारी पुत्रों का अकाल, संस्कारों की आवश्यकता, दो पीढ़ियों में लगाव आदि इन लघुकथाओं में जीवंत हुआ है। 

'चाँद सूरज और उनकी अम्मा' लघुकथा में रूपक के माध्यम से आशावादिता को स्थापित किया गया है। लघुकथा 'रोटी' जिसके नाम पर इस पुस्तक का शीर्षक है, में निष्कर्ष है कि हम रोटी को नहीं रोटी हमें खा रही है। 

कुंवर प्रेमिल की लघुकथाओं में कारुण्य, हास्य और व्यंग्य का मिश्रण है। वे सामाजिक विसंगतियों के घाव को क्रूरता और निर्दयता से चीरते नहीं, संवेदना और सहानुभूति के साथ दर्द निवारक देकर उपचारित करते हैं। इन लघुकथाओं की भाषा माध्यम वर्गीय परिवारों में बोलिजनेवाली सहज-सरल, बोधगम्य हिंदी है। प्रेमिल जी बोलचाल के आम शब्दों क प्रयोग पूरी अर्थवत्ता के साथ करते हैं। वाक्य संरचना प्रसंगानुकूल है। लघुकथाओं के विषय सामान्य जान के दैनंदिन जीवन से जुड़े हुए हैं। लघुकथाओं के कथ्य का 'ट्रीटमेंट' इस तरह है कि पाठक को बिना बताए प्रेरणा, आदर्श या मार्ग मिल सके। यह लघुकथा संकलन लघुकथा प्रेमियों को रुचिकर लगेगा। 
***
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४।  






नवगीत, आज़ादी, होली, रंग, दोहे

रंगों के दोहे -दोहों के रंग 
*
जोगीरा सा रा रा रा 
रंग रंग पर आ गया, अद्भुत नवल निखार। 
प्रिय से एकाकार हो, खुद को रहा निहार।। जोगीरा सा रा रा रा 
*
हुआ रंग में भंग जब, पड़ी भंग में रंग। 
जोरा-जोरी हुई तो, मन के बजे मृदंग।। जोगीरा सा रा रा रा 
*
फागुन में भूला 'सलिल', श्याम-गौर का द्वैत।
राधा-कान्हा यूँ मिले, ज्यों जीवित अद्वैत।। जोगीरा सा रा रा रा 
*
श्याम-रंग ऐसा चढ़ा, देह न सके उतार। 
गौर रंग मन में बसा, गेह आत्म उजियार।। जोगीरा सा रा रा रा 
*
लल्ला में लावण्य है, लल्ली में लालित्य। 
लीला लल्ला-लली की, लखे लाल आदित्य।। जोगीरा सा रा रा रा
*
प्रिये! लाल पीली न हो, रहना पीली लाल। 
गुस्सा रखो न नाक पर, नाचो आ दे ताल।। जोगीरा सा रा रा रा
*
आस न अब बेरंग हो, श्वास न हो बदरंग। 
प्यास न अब बाकी रहे, खेल खिलाओ रंग।। जोगीरा सा रा रा रा
*
रंग-रंग से रंग को, रंग रंग है पस्त। 
रंग रंग से हार कर, जीत गया हो मस्त।। जोगीरा सा रा रा रा
***
***
नवगीत-
आज़ादी
*
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
किसी चिकित्सा-ग्रंथ में
वर्णित नहीं निदान
सत्तर बरसों में बढ़ा
अब आफत में जान
बदपरहेजी सभाएँ,
भाषण और जुलूस-
धर्महीनता से जला
देशभक्ति का फूस
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
देश-प्रेम की नब्ज़ है
धीमी करिए तेज
देशद्रोह की रीढ़ ने
दिया जेल में भेज
कोर्ट दंड दे सर्जरी
करती, हो आरोग्य
वरना रोगी बचेगा
बस मसान के योग्य
वैचारिक स्वातंत्र्य
स्वार्थ हितकर नाटक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात त्राटक है
*
मुँदी आँख कैसे सके
सहनशीलता देख?
सत्ता खातिर लिख रहे
आरोपी आलेख
हिंदी-हिन्दू विरोधी
केर-बेर का संग
नेह-नर्मदा में रहे
मिला द्वेष की भंग
एक लक्ष्य असफल करना
इनका नाटक है
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
६-३-२०१६
***

शिव

विमर्श -
शिव   
*
आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि ‘कल्पना’ ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है। हम जैसी कल्पना और विचार करते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। शिव ने इस आधार पर ध्यान की कई विधियों का विकास किया। भगवान शिव दुनिया के सभी धर्मों का मूल हैं। शिव के दर्शन और जीवन की कहानी दुनिया के हर धर्म और उनके ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में विद्यमान है।
आज से 15 से 20 हजार वर्ष पूर्व वराह काल की शुरुआत में जब देवी-देवताओं ने धरती पर कदम रखे थे, तब उस काल में धरती हिमयुग की चपेट में थी। इस दौरान भगवान शंकर ने धरती के केंद्र कैलाश को अपना निवास स्थान बनाया।
विष्णु ने समुद्र को और ब्रह्मा ने नदी के किनारे को अपना स्थान बनाया था। पुराण कहते हैं कि जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है, जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है, जबकि धरती पर कुछ भी नहीं था। इन तीनों से सब कुछ हो गया।
वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। फिर जब समुद्र हटा तो अन्य धरती का प्रकटन हुआ और इस तरह धीरे-धीरे जीवन भी फैलता गया।
सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें आदि देव भी कहा जाता है। आदि का अर्थ प्रारंभ। शिव को ‘आदिनाथ’ भी कहा जाता है। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम आदिश भी है। इस ‘आदिश’ शब्द से ही ‘आदेश’ शब्द बना है। नाथ साधु जब एक–दूसरे से मिलते हैं तो कहते हैं- आदेश।
शिव के अलावा ब्रह्मा और विष्णु ने संपूर्ण धरती पर जीवन की उत्पत्ति और पालन का कार्य किया। सभी ने मिलकर धरती को रहने लायक बनाया और यहां देवता, दैत्य, दानव, गंधर्व, यक्ष और मनुष्य की आबादी को बढ़ाया।
महाभारत काल : ऐसी मान्यता है कि महाभारत काल तक देवता धरती पर रहते थे। महाभारत के बाद सभी अपने-अपने धाम चले गए। कलयुग के प्रारंभ होने के बाद देवता बस विग्रह रूप में ही रह गए अत: उनके विग्रहों की पूजा की जाती है।
पहले शिव थे रुद्र : वैदिक काल के रुद्र और उनके अन्य स्वरूप तथा जीवन दर्शन को पुराणों में विस्तार मिला। वेद जिन्हें रुद्र कहते हैं, पुराण उन्हें शंकर और महेश कहते हैं। वराह काल के पूर्व के कालों में भी शिव थे। उन कालों की शिव की गाथा अलग है।
देवों के देव महादेव : देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं।
ब्रह्मा ने बनाए विशालकाय मानव : सन् 2007 में नेशनल जिओग्राफी की टीम ने भारत और अन्य जगह पर 20 से 22 फिट मानव के कंकाल ढूंढ निकाले हैं। भारत में मिले कंकाल को कुछ लोग भीम पुत्र घटोत्कच और कुछ लोग बकासुर का कंकाल मानते हैं।
हिन्दू धर्म के अनुसार सतयुग में इस तरह के विशालकाय मानव हुआ करते थे। बाद में त्रेतायुग में इनकी प्रजाति नष्ट हो गई। पुराणों के अनुसार भारत में दैत्य, दानव, राक्षस और असुरों की जाति का अस्तित्व था, जो इतनी ही विशालकाय हुआ करती थी।
भारत में मिले इस कंकाल के साथ एक शिलालेख भी मिला है। यह उस काल की ब्राह्मी लिपि का शिलालेख है। इसमें लिखा है कि ब्रह्मा ने मनुष्यों में शांति स्थापित करने के लिए विशेष आकार के मनुष्यों की रचना की थी। विशेष आकार के मनुष्यों की रचना एक ही बार हुई थी। ये लोग काफी शक्तिशाली होते थे और पेड़ तक को अपनी भुजाओं से उखाड़ सकते थे। लेकिन इन लोगों ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया और आपस में लड़ने के बाद देवताओं को ही चुनौती देने लगे। अंत में भगवान शंकर ने सभी को मार डाला और उसके बाद ऐसे लोगों की रचना फिर नहीं की गई।
शिव का धनुष पिनाक : शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवरात को सौंप दिया गया था।
उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया।
देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवरात को दे दिया। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया।
शिव का चक्र : चक्र को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था। सुदर्शन चक्र का नाम भगवान कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।
यह बहुत कम ही लोग जानते हैं कि सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था। जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला।
त्रिशूल : इस तरह भगवान शिव के पास कई अस्त्र-शस्त्र थे लेकिन उन्होंने अपने सभी अस्त्र-शस्त्र देवताओं को सौंप दिए। उनके पास सिर्फ एक त्रिशूल ही होता था। यह बहुत ही अचूक और घातक अस्त्र था। त्रिशूल 3 प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक है। इसमें 3 तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन। इसके अलावा पाशुपतास्त्र भी शिव का अस्त्र है।
शिव का सेवक वासुकी : शिव को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। नाग कुल के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में ही रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों का गढ़ था। नागकुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे। नागों के प्रारंभ में 5 कुल थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- शेषनाग (अनंत), वासुकी, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक। ये शोध के विषय हैं कि ये लोग सर्प थे या मानव या आधे सर्प और आधे मानव? हालांकि इन सभी को देवताओं की श्रेणी में रखा गया है तो निश्चिधत ही ये मनुष्य नहीं होंगे।
नाग वंशावलियों में ‘शेषनाग’ को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग को ही ‘अनंत’ नाम से भी जाना जाता है। ये भगवान विष्णु के सेवक थे। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए, जो शिव के सेवक बने। फिर तक्षक और पिंगला ने राज्य संभाला। वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से ‘तक्षक’ कुल चलाया था। उक्त पांचों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं।
उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादि नाम से नागों के वंश हुए जिनके भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।
अमरनाथ के अमृत वचन : शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया, उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।
अमरनाथ के अमृत वचन : शिव द्वारा मां पार्वती को जो ज्ञान दिया गया, वह बहुत ही गूढ़-गंभीर तथा रहस्य से भरा ज्ञान था। उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।
योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव के ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ और ‘शिव संहिता’ में उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं। इसी की एक शाखा हठयोग की है। भगवान शिव कहते हैं- ‘वामो मार्ग: परमगहनो योगितामप्यगम्य:’ अर्थात वाम मार्ग अत्यंत गहन है और योगियों के लिए भी अगम्य है। -मेरुतंत्र
शिव के शिष्य : शिव तो जगत के गुरु हैं। मान्यता अनुसार सबसे पहले उन्होंने अपना ज्ञान सप्त ऋषियों को दिया था। सप्त ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया गया हो। आज सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जाएगी। परशुराम और रावण भी शिव के शिष्य थे।
शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत ‍की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है। आदि गुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया।
सप्त ऋषि ही शिव के मूल शिष्य : भगवान शिव ही पहले योगी हैं और मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ उन्हीं को है। उन्होंने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए 7 ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7 बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन 7 रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं। बाद में योग में आई जटिलता को देखकर पतंजलि ने 300 ईसा पूर्व मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। योग का 8वां अंग मोक्ष है। 7 अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिए है।
शिव गण : भगवान शिव की सुरक्षा और उनके आदेश को मानने के लिए उनके गण सदैव तत्पर रहते हैं। उनके गणों में भैरव को सबसे प्रमुख माना जाता है। उसके बाद नंदी का नंबर आता और फिर वीरभ्रद्र। जहां भी शिव मंदिर स्थापित होता है, वहां रक्षक (कोतवाल) के रूप में भैरवजी की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। भैरव दो हैं- काल भैरव और बटुक भैरव। दूसरी ओर वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया। देव संहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने अपनी जटा से ‘वीरभद्र’ नामक गण उत्पन्न किया।
इस तरह उनके ये प्रमुख गण थे- भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। ये सभी गण धरती और ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं और प्रत्येक मनुष्य, आत्मा आदि की खैर-खबर रखते हैं।
शिव के द्वारपाल : कैलाश पर्वत के क्षेत्र में उस काल में कोई भी देवी या देवता, दैत्य या दानव शिव के द्वारपाल की आज्ञा के बगैर अंदर नहीं जा सकता था। ये द्वारपाल संपूर्ण दिशाओं में तैनात थे।
इन द्वारपालों के नाम हैं- नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल। उल्लेखनीय है कि शिव के गण और द्वारपाल नंदी ने ही कामशास्त्र की रचना की थी। कामशास्त्र के आधार पर ही कामसूत्र लिखा गया था।
शिव पंचायत : पंचायत का फैसला अंतिम माना जाता है। देवताओं और दैत्यों के झगड़े आदि के बीच जब कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेना होता था तो शिव की पंचायत का फैसला अंतिम होता था। शिव की पंचायत में 5 देवता शामिल थे।
ये 5 देवता थे:- 1. सूर्य, 2. गणपति, 3. देवी, 4. रुद्र और 5. विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।
शिव पार्षद : जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं ‍उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि ‍शिव के पार्षद हैं। यहां देखा गया है कि नंदी और भृंगी गण भी है, द्वारपाल भी है और पार्षद भी।
शिव चिह्न : वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यदक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्थगर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्ध चंद्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं। हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।
शिव से जुड़ी 12 गुप्त बातें, जानिए…
शिव की गुफा : शिव ने एक असुर को वरदान दिया था कि तू जिसके भी सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा। इस वरदान के कारण ही उस असुर का नाम भस्मासुर हो गया। उसने सबसे पहले शिव को ही भस्म करने की सोची।
भस्मासुर से बचने के लिए भगवान शंकर वहां से भाग गए। उनके पीछे भस्मासुर भी भागने लगा। भागते-भागते शिवजी एक पहाड़ी के पास रुके और फिर उन्होंने इस पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। बाद में विष्णुजी ने आकर उनकी जान बचाई।
माना जाता है कि वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। इन खूबसूरत पहाड़ियों को देखने से ही मन शांत हो जाता है। इस गुफा में हर दिन सैकड़ों की तादाद में शिवभक्त शिव की अराधना करते हैं।
राम ने किया था शिव से युद्ध : सभी जानते हैं कि राम के आराध्यदेव शिव हैं, तब फिर राम कैसे शिव से युद्ध कर सकते हैं? पुराणों में विदित दृष्टांत के अनुसार यह युद्ध श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के दौरान लड़ा गया।
यज्ञ का अश्व कई राज्यों को श्रीराम की सत्ता के अधीन किए जा रहा था। इसी बीच यज्ञ का अश्व देवपुर पहुंचा, जहां राजा वीरमणि का राज्य था। वीरमणि ने भगवान शंकर की तपस्या कर उनसे उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान मांगा था। महादेव के द्वारा रक्षित होने के कारण कोई भी उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं करता था। जब यज्ञ का घोड़ा उनके राज्य में पहुंचा तो राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने उसे बंदी बना लिया। ऐसे में अयोध्या और देवपुर में युद्ध होना तय था।
महादेव ने अपने भक्त को मुसीबत में जानकर वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित अपने सारे गणों को भेज दिया। एक और राम की सेना तो दूसरी ओर शिव की सेना थी। वीरभद्र ने एक त्रिशूल से राम की सेना के पुष्कल का मस्तक काट दिया। उधर भृंगी आदि गणों ने भी राम के भाई शत्रुघ्न को बंदी बना लिया। बाद में हनुमान भी जब नंदी के शिवास्त्र से पराभूत होने लगे तब सभी ने राम को याद किया। अपने भक्तों की पुकार सुनकर श्रीराम तत्काल ही लक्ष्मण और भरत के साथ वहां आ गए। श्रीराम ने सबसे पहले शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्ष्मण ने हनुमान को मुक्त करा दिया। फिर श्रीराम ने सारी सेना के साथ शिव गणों पर धावा बोल दिया। जब नंदी और अन्य शिव के गण परास्त होने लगे तब महादेव ने देखा कि उनकी सेना बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में प्रकट हुए, तब श्रीराम और शिव में युद्ध छिड़ गया।
भयंकर युद्ध के बाद अंत में श्रीराम ने पाशुपतास्त्र निकालकर कर शिव से कहा, ‘हे प्रभु, आपने ही मुझे ये वरदान दिया है कि आपके द्वारा प्रदत्त इस अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता इसलिए हे महादेव, आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आप पर ही करता हूं’, ये कहते हुए श्रीराम ने वो महान दिव्यास्त्र भगवान शिव पर चला दिया।
वो अस्त्र सीधा महादेव के ह्वदयस्थल में समा गया और भगवान रुद्र इससे संतुष्ट हो गए। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वर मांग लें। इस पर श्रीराम ने कहा कि ‘हे भगवन्, यहां मेरे भाई भरत के पुत्र पुष्कल सहित असंख्य योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए है, कृपया कर उन्हें जीवनदान दीजिए।’ महादेव ने कहा कि ‘तथास्तु।’ इसके बाद शिव की आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का अश्व श्रीराम को लौटा दिया और श्रीराम भी वीरमणि को उनका राज्य सौंपकर शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर चल दिए।
ब्रह्मा, विष्णु और शिव का जन्म एक रहस्य है। तीनों के जन्म की कथाएं वेद और पुराणों में अलग-अलग हैं, लेकिन उनके जन्म की पुराण कथाओं में कितनी सच्चाई है और उनके जन्म की वेदों में लिखी कथाएं कितनी सच हैं, इस पर शोधपूर्ण दृष्टि की जरूरत है।
यहां यह बात ध्यान रखने की है कि ईश्वर अजन्मा है।
अलग-अलग पुराणों में भगवान शिव और विष्णु के जन्म के विषय में कई कथाएं प्रचलित हैं। शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव को स्वयंभू माना गया है जबकि विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु स्वयंभू हैं।
शिव पुराण के अनुसार एक बार जब भगवान शिव अपने टखने पर अमृत मल रहे थे तब उससे भगवान विष्णु पैदा हुए जबकि विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा भगवान विष्णु की नाभि कमल से पैदा हुए जबकि शिव भगवान विष्णु के माथे के तेज से उत्पन्न हुए बताए गए हैं। विष्णु पुराण के अनुसार माथे के तेज से उत्पन्न होने के कारण ही शिव हमेशा योगमुद्रा में रहते हैं।
शिव के जन्म की कहानी हर कोई जानना चाहता है। श्रीमद् भागवत के अनुसार एक बार जब भगवान विष्णु और ब्रह्मा अहंकार से अभिभूत हो स्वयं को श्रेष्ठ बताते हुए लड़ रहे थे, तब एक जलते हुए खंभे से जिसका कोई भी ओर-छोर ब्रह्मा या विष्णु नहीं समझ पाए, भगवान शिव प्रकट हुए।
यदि किसी का बचपन है तो निश्चत ही जन्म भी होगा और अंत भी। विष्णु पुराण में शिव के बाल रूप का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार ब्रह्मा को एक बच्चे की जरूरत थी। उन्होंने इसके लिए तपस्या की। तब अचानक उनकी गोद में रोते हुए बालक शिव प्रकट हुए। ब्रह्मा ने बच्चे से रोने का कारण पूछा तो उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि उसका नाम ‘ब्रह्मा’ नहीं है इसलिए वह रो रहा है।
तब ब्रह्मा ने शिव का नाम ‘रुद्र’ रखा जिसका अर्थ होता है ‘रोने वाला’। शिव तब भी चुप नहीं हुए इसलिए ब्रह्मा ने उन्हें दूसरा नाम दिया, पर शिव को नाम पसंद नहीं आया और वे फिर भी चुप नहीं हुए। इस तरह शिव को चुप कराने के लिए ब्रह्मा ने 8 नाम दिए और शिव 8 नामों (रुद्र, शर्व, भाव, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव) से जाने गए। शिव पुराण के अनुसार ये नाम पृथ्वी पर लिखे गए थे।