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शनिवार, 3 सितंबर 2022

सितम्बर,कुंडलिया,सामाजिक समरसता,नवगीत,दोहा मुक्तिका,दोहा यमक,प्रतिभा सक्सेना,

सितम्बर :
सितम्बर में जन्में जातक परिश्रमी, शांत, बुद्धिजीवी, पर्यटक, कलाप्रिय होते हैं। शुभ: रवि, बुध, गुरुवार, ३, ७, ९ संख्याएँ, मोती, पन्ना।
कब-क्या???
१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा।
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती।
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा।
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस।
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र।
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'।
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा।
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस।
१५. भारतरत्न सर मोक्षगुन्दम विस्वेसराया जयंती, अभियंता दिवस।
चंपक रमन पिल्लई १८९१ तिरुअनंतपुरम केरल, निधन २६.५.१९३४ जर्मनी, स्वाधीनता सेनानी।
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी।
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली।
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर।
२४. भीखाजी कामा १८६१, निधन १३.८.१९३६, स्वतंत्रता सेनानी, विदेश में सर्वप्रथम राष्ट्रीय ध्वज फहराया।
२७. भगत सिंह जन्म १९०७, शहादत २३.३.१९३१ फांसी, भारत की स्वतंत्रता हेतु सशस्त्र क्रान्ति के अगुआ।
विट्ठल भाई पटेल २७.९.१८७३नाडियाद गुजरात, निधन २२.१०.१९३३, प्रखर स्वतंत्रता सत्याग्रही, सरदार पटेल के बड़े भाई, विधान वेत्ता,
निधन: राजा राम मोहन राय।
विश्व पर्यटन दिवस:
२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस।
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कुंडलिया कार्यशाला
बिगडे़ जग के हाल पर, मत चुप रहिए आप।
इंतज़ार में देखिए, शब्द खड़े चुपचाप।।
तारकेश्वरी 'सुधि'
शब्द खड़े चुपचाप, मुखर करिए रचनाकर।
सच कह बनें कबीर, निबल सुधि ले कर आखर।।
स्नेह सलिल दे तृप्ति, मिटाकर सारे झगड़े।
मरुथल मधुवन बने, परिस्थिति अधिक न बिगड़े।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
३-९-२०१९
लेख -
वर्तमान संक्रांतिकाल में सामाजिक समरसता
*
साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में राजनैतिक नेतृत्व के प्रति जनमानस की आस्था डगमगाना चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। आत्मोत्सर्ग और बलिदान के पथ से स्वातँत्र्योपासना करनेवाले बलिपंथियों के सिरमौर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के अदृश्य होने, जबलपुर तथा मुम्बई में भारतीय सेना की इकाइयों द्वारा विद्रोह करने, द्वितीय विश्वयुध्द पश्चात् इंग्लैण्ड की डाँवाडोल होती परिस्थिति ने ब्रिटेन को भारत से हटने के लिए बाध्य कर दिया। अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह देश के स्वतंत्र होने का श्रेय कोंग्रेस को मिला जिसने गाँधी-नेहरू की अयथार्थवादी-आत्मकेंद्रित विचार धारा को शासन प्रणाली का केंद्र बना कर कश्मीर को गाँव दिया जबकि अन्य रियासतों को सरदार पटेल ने येन-केन-प्रकारेण बचा लिया।
देश के विभाजन से जनमानस पर लगे घावों के भरने के पूर्व ही गाँधी-हत्या ने राष्ट्रवादी हिन्दू शक्तियों को हाशिये पर डाल दिया। हिन्दू महासभा और जनसंघ बहुमत नहीं पा सके, समाजवादी वैचारिक बिखराव के शिकार होकर आपस में ही टकराते रहे, साम्यवादी अतिरेकी और एकतरफा क्रांति की भ्रांति में उलझे रह गए और कोंग्रस सत्तासीन होकर भ्रष्टाचार की इबारतें गढ़ती रही। फलत:, सामाजिक संरचना सतत क्षतिग्रस्त होती रही। विनोबा भावे ने सर्वोदय के माध्यम से सत-शिव-सुन्दर के प्रति जनास्था जगाने का प्रयास किया किन्तु वह तूफ़ान में दिए की लौ की तरह टिमटिमाता रह गया। १९६२ में चीन के विश्वासघात पूर्ण आक्रमण तथा नेहरू की मृत्यु ने पराभव की जो कालिमा देश के चेहरे पर पोती उससे निजात लालबहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान को पटकनी देकर तथा इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान के एक हिस्से को बांग्ला देश बनवाकर दिलाई।
सामाजिक समरसता भंग हुई आपातकाल की घोषणा के साथ। कारावास में विविध विचारधारा के नेताओं का मोहभंग हुआ और समन्वय बिना मुक्ति की राह अवरुद्ध देखकर, सब नेता और दल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक साथ आ खड़े हुए। केर-बेर का संग या चूं-चूं का मुरब्बा बहुत दिन टिक नहीं सका और आम आदमी की आशाओं पर तुषारापात करते दल फिर बिखराव की राह पर चल पड़े। राजनैतिक घटाटोप के स्वातंत्र्योत्तर काल में गुरु गोलवलकर, सत्य साईं बाबा, महर्षि महेश योगी, ओशो, आचार्य श्री राम शर्मा, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी, रविशंकर आदि ने धर्म-दर्शन के आधार पर सामाजिक समरसता को बचाने-बढ़ाने का कार्य किया जिसे सरकारों से कोई सहयोग नहीं मिला। कोंग्रेस सरकारों द्वारा प्रताड़ना के बावजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने राष्ट्र-धर्म की ज्योति न केवल जलाये रखी अपितु संकट काल में समर्पण भाव से जनसेवा के मापदण्ड भी बनाये।
सामाजिक समरसता के समर्थक गुरु गोलवलकर के चिंतन का मूलाधार सत्य के प्रति आस्था, राष्ट्र के प्रति समर्पण, आम आदमी से जुड़ाव, आध्यात्म तथा वैश्विकता था। निर्भयता तथा निर्वैर्यता का वरण कर सबको समान समझने और सबके काम आने की विचारधारा देश के कोने-कोने में ही स्वयं सेवकों की अपराजेय वाहिनी नहीं खड़ी की अपितु अगणित स्वयंसेवकों को विविध देशों में प्रवासी बनाकर भेजा और भारतीय राष्ट्रवाद को धीरे-धीरे विश्ववाद का पर्याय बना दिया। गुरूजी ने 'हिंदू' शब्द को पंथ या संप्रदाय के स्थान पर सनातन मानव सभ्यता, मनुष्यता और वैश्विकता के पर्याय रूप में परिभाषित किया। उन्होंने हिंदू समाज के पतन को राष्ट्र के पराभव का कारण मानकर राष्ट्रोन्नति हेतु समाजोन्नति तथा समाजोन्नति हेतु भेद-भाव को भुलाकर एकात्मता, एकरसता तथा समरसता की स्थापना को अपरिहार्य बताया।
सनातन सभ्यता और समन्वयवादी सभ्यता के जनक भारत ने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और वर्तमान कलियुग में आतताइयों का उद्भव, आतंक, संघर्ष और पराभव बार-बार देखा है। देश की माटी साक्षी है कि सत-शिव-सुंदर जीवन-मूल्यों पर कितने ही विकट संकट आयें, अंतत: समाप्त हो ही जाते हैं। अक्षय, अजर, अमर, अटल, अचल अमिट सत-चित-आनंद ही है। आधुनिक काल में भी विविध देशों में कई विचारकों और पंथ गुरुओं ने सामाजिक समरसता के स्वप्न देखे किंतु उन्हीं के अनुयायियों ने उन स्वप्नों को साकार न होने दिया। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मुहम्मद पैगंबर और कार्ल मार्क्स ने आदर्श समाज, नर-नारी सद्भाव, सर्व मानव समानता, शांति, सुख, सहकार आदि की कामना की किन्तु उन्हीं के अनुयायियों ने न केवल अन्य पंथों और देशों के अगणित लोगों को तो मारा ही, उसके पहले अपने ही देश में सहयोगियों को लूटा-मारा। गुरूजी ने नया पंथ स्थापित न कर अपने अनुयायियों को भटकने और मारने-मरने से विरत कर राष्ट्र-धर्म की उपासना और राष्ट्र-निर्माण के महायज्ञ में लगाये रखा। इसका परिणाम पाश्चात्य जीवन-पद्धति और शिक्षा-प्रणाली के प्रति अंध मोह के बावजूद सनातन-सात्विक-सद्भावपरक मूल्यों का पराभव न होने के रूप में हमारे सामने है। यह स्थिति तब है जब कि स्वतंत्रता-पश्चात् शासन-प्रशासन ने राष्ट्रीय शक्तियों की उपेक्षा ही नहीं की, दमन भी किया। यदि सनातन धर्म प्रणीत सामाजिक समरसता को भारत सरकार तथा प्रांतीय सरकारों ने स्थानीय निकायों के माध्यम से क्रियान्वित किया होता तो वर्तमान में भारत विश्व का सिरमौर होता।
अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। सामाजिक जीवन में व्याप्त केंद्रीय भाव के आधार पर मानव सभ्यता का ४ युगों में काल विभाजन किया जाना इसका प्रमाण है। मानव मात्र में समानता, संपत्ति पर सबके सामूहिक अधिकार, हर एक को अपनी आवश्यकतानुसार संसाधनों के उपयोग था। कर्तव्य पालन को धर्म की संज्ञा दी गयी। अपने धर्म का पालन राजा-प्रजा सब के लिए अनिवार्य था। समाज की समन्वित धारणा (सुचारु कार्य विभाजन हेतु वर्ण व्यवस्था, सबके उन्नयन हेतु विप्रों (विद्वानों) को परामर्श / शिक्षा दान का कार्य दिया गया। बाह्य तथा आतंरिक विघ्न संतोषियों से आम जान की रक्षा हेतु समर्थ क्षत्रियों को सैन्य दल गठित कर रक्षा कार्य क्षत्रियों को सौंप गया। दैनन्दिन आवश्यकताओं और अकाल, जलप्लावन, तूफ़ान आदि आपदाओं या आक्रमण काल के समय उपयोगी वस्तुओं के आदान-प्रदान और क्रय-विक्रय का दायित्व वैश्यों ने सम्हाला। आतंरिक व्यवस्था बनाये रखने हेतु शेष सेवा कार्य शूद्रों ने जिम्मे किया गया। कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक वर्ग द्वारा अन्य वर्ग के कार्य में हस्तक्षेप दण्डनीय था। शम्बूक को इसी आधार पर दण्डित किया गया। वह शूद्र के साथ राजन्य वर्ग का अनाचार नहीं निर्धारित रीति का पालन मात्र था। शूद्र उपेक्षित और शोषित होते तो एक धोबी जन प्रतिनिधि के आरोप पर राजमहिषि सीता को वनवास न जाना पड़ता। बाली, रावण, कंस और कौरवों को राजा होते हुए भी मर्यादा भंग करने पर सत्ता ही नहीं प्राण भी गँवाने पड़े।
समाज की धारणा करने वाली तथा ऐहिक और पारलौकिक सुख को संप्रदान करनेवाली शक्ति को ही हमने धर्म की संज्ञा दी है। अखंड मंडलाकार विश्व को एकात्मता का साक्षात्कार कराने वाले धर्म के आधार पर प्रत्येक अपनी प्रकृति को जानकर दूसरे के सुख के लिए काम करता है। सत्ता न होते हुए भी केवल धर्म के कारण न तो एक दूसरे पर आघात होते थे न आपस में संघर्ष ही होता था। चराचर के साथ एकात्मता का साक्षात्कार होने के कारण किसी प्रकार बाह्य नियंत्रण न होते हुए भी मनुष्य 'नायं हन्ति न हन्यते' के भाव के अनुसार पूर्ण शांति व्यवहार करता है। समता तत्व को लेकर स्वामी विवेकानन्द जी के चिंतन में भगवान बुद्ध के उपदेश का आधार मिलता है। वे कहते हैं ‘‘आजकल जनतंत्र और सभी मनुष्यों में समानता इन विषयों के संबंध में कुछ सुना जाता है, परंतु हम सब समान हैं, यह किसी को कैसे पता चले ? उसके लिए तीव्र बुद्धि तथा मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं से मुक्त इस प्रकार का भेदी मन होना चाहिये. मन के ऊपर परतें जमाने वाली भ्रमपूर्ण कल्पनाओं का भेद कर अंतःस्थ शुद्ध तत्व तक उसे पहुंच जाना चाहिये. तब उसे पता चलेगा कि सभी प्रकार की पूर्ण रूप से परिपूर्ण शक्तियां ये पहले से ही उसमें हैं. दूसरे किसी से उसे वे मिलने वाली नहीं। उसे जब इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त होगी, तब उसी क्षण वह मुक्त होगा तथा वह समत्व प्राप्त करेगा। उसे इसकी भी अनुभूति मिलेगी कि दूसरा हर व्यक्ति ही उसी समान पूर्ण है तथा उसे अपने बंधुओं के ऊपर शारीरिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का शासन चलाने की आवश्यकता नहीं। खुद से निचले स्तर का और कोई मनुष्य है, इस कल्पना को तब वह त्याग देता है, तब ही वह समानता की भाषा का उच्चारण कर सकता है, तब तक नहीं।’’ (भगवान बुद्ध तथा उनका उपदेश स्वामी विवेकानन्द, पृष्ठ ‘28)
समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वातंत्र्य, समता और बंधुता इन तीन तत्वों को साधा जा सकता है। दुर्भाग्य से हिन्दू समाज की रचना इन तीन तत्वों के आधार पर नहीं हुई है। जिस समाज रचना में उच्च तत्व व्यवहार्य हों, वही समाज रचना श्रेष्ठ है. जिस समाज रचना में वे व्यवहार्य नहीं होते, उस समाज रचना को भंग कर उसके स्थान पर शीघ्र नयी रचना बनायी जाये, ऐसा स्वामी विवेकानन्द का मत था।
निसर्गतया जो असमानता उत्पन्न होती है उसे भेद या विषमता नहीं माना गया। मनुष्य योनि में जन्म के कारण सभी मानव, मानव इस संज्ञा से समान हैं, लेकिन काया से सब एक सरीखे(identical) नहीं होते। जन्मत: बुध्दि, रंग, कद, शक्ति, रूचि, गुण, स्वभाव आदि में भिन्नता, स्वाभाविक है। निसर्गत: मानव ही नहीं अन्य जीवों में भी गुणों की, क्षमताओं की असमानता रहती है। जन्मत: असमानता, विषमता नहीं है। यह परम चैतन्य शक्ति का विविधतापूर्ण आविष्कार है। आत्मा का आधार ही वास्तविक आधार है, क्योंकि आत्मा सम है, सब में एक ही जैसी समान रूप से अभिव्यक्त है। सब का एक ही चैतन्य है, इस पूर्णता के आधार पर ही प्रेमपूर्ण व्यवहार, व्यक्ति को परमात्मा का अंग मानकर नितांत प्रेम, विश्व को परमेश्वर का व्यक्त रूप मानकर विशुध्द प्रेम यही वह अवस्था है। इसीलिए प्रार्थना की जाती है - सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:, सर्वे भद्राणु पश्यन्ति मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत'
भारतवर्ष में संतों की भी लम्बी परंपरा रही है। संतों ने समरसता भाव और व्यवहार हेतु अपार योगदान दिया है। इनके विचार समय-समय पर लोगों के सामने लाना समरसता प्रस्थापित करने हेतु उपयुक्त है। गुरु गोलवलकर समरस समाज जीवन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'एक वृक्ष को लीजिए, जिसमें शाखाएँ, पत्तियाँ, फूल और फल सभी कुछ एक दूसरे से नितांत भिन्न रहते हैं किंतु हम जानते हैं ये सब दिखनेवाली विविधाताएँ केवल उस वृक्ष की भाँति-भाँति की अभिव्यक्तियाँ है। यही बात हमारे सामाजिक जीवन की विविधाताओं के संबंध में भी है, जो इन सहस्रों वर्षों में विकसित हुई हैं।'' वसुधैव कुटुम्बकम, वैश्विक नीडं, सबै भूमि गोपाल की जैसी उक्तियॉं प्रमाण हैं कि भारत में असमानता नहीं थी।
ईष्या, स्पर्धा, द्वेष, अविश्वास, भोगलालसा, असमानता, शोषण, अन्याय आदि कलियुग की पहचान हैं। 'आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक आदि सभी आधारों पर लोग संघर्ष के लिए तैयार हैं। आत्मौपम्य बुध्दि घटी है। धर्म की न्यूनता के कारण जीवन में दु:ख, दैन्य और अशांति है। आदर्श समाज की रचना केवल भाषण देने, कविता लिखने, चुनाव लगाने से नहीं होगी। उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर कष्ट उठाने पड़ेंगे। संपूर्ण समाज की एकात्मता, पूर्ण राष्ट्र की सेवा, देशवासियों हेतु सर्वस्वार्पण करना होगा।सभी को समान देखते हुए, निरपेक्ष प्रेम भाव से समाज के सभी अंगों, प्रत्यंगों के साथ एकात्मभाव जगाने का प्रयास उन्होंने निरंतर करना होगा। 'समरसता' दिखावे का शब्द नहीं, जीवन व्यवहार का दर्शन बनाना होगा। कलियुग में हर व्यक्ति अपने परिवार, पेशे और लाभ का लक्ष्य लेकर अन्यों हेतु निर्धारित क्षेत्र में प्रवेश का प्रयास करेगा इसलिए टकराव होगा। 'समानों में समानता' (ईक्विटी अमंग्स्ट ईकवल्स) तथा 'विधि के शासन' (रूल ऑफ़ लॉ) हेतु आरक्षण का प्रावधान समता, समानता और साम्यता पाने-देने के लिए आवश्यक है किन्तु क्रमश: कम कर विलोपित करने की नीति अन्यों में असन्तोष न होने देगा।
गुरु जी के सुयोग्य उत्तराधिकारी डॉ. मोहन भागवत के अनुसार 'हमारे समाज में विविधता है स्वभाव, क्षमता और वैचारिक स्तर पर विविधता का होना स्वाभाविक है। भाषा, खान-पान, देवी-देवता, पंथ संप्रदाय तथा जाति व्यवस्था में भी विविधता है पर यह विविधता कभी हमारी आत्मीयता में बाधा उत्पन्न नहीं करती। विविध प्रकार के लोगों का समूह होने के बावजूद हम सब एक हैं। समान व्यवहार, समता का व्यवहार होने से यह विविधता भी समाज का अलंकार बन जाती है। सामाजिक जीवन में जातिभेद के कारण विषमता और संघर्ष होता है, इसलिए जातिभेद को दूर करना होगा। जब तक सामाजिक भेदभाव है, तब तक आरक्षण भी रहे। हमारा मन निर्मल हो, वचन दंशमुक्त हो, व्यवहार मित्र बनाने वाला हो तब समाज में समता का भाव विकसित होगा।
साम्यवादी चिंतन से उपजे सामाजिक विघटनात्मक नक्सलवाद, समाजवादी विचारधारा के व्यक्तिपरक चिन्तन से उपजे विखण्डन, मुस्लिम साम्प्रदायिकता से उत्पन्न आतंकवाद, तमिलनाड व असम में नसलीय टकराव जनित हिंसा और कश्मीर से पण्डितों के पलायन के बाद भी देश कमजोर न होना यह दर्शाता है कि ऊपरी टकराव के बाद भी सामाजिक समरसता कम नहीं हुई है। डॉ. सुवर्णा रावल के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में ‘समता’ एक श्रेष्ठ तत्व है। भारत के संविधान में समानतायुक्त समाज रचना तथा विषमता निर्मूलन को प्राथमिकता दी गयी है।
निसर्ग के इस महान तत्व का विस्मरण जब व्यवहारिक स्तर के मनुष्य जीवन में आता है, तब समाज जीवन में भेदभाव युक्त समाज रचना अपनी जड़ पकड़ लेती है। समय रहते ही इस स्थिति का इलाज नहीं किया गया तो यही रूढ़ि के रूप में प्रतिस्थापित होती है। भारतीय समाज ने समता का यह सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य तत्व स्वीकार तो कर लिया, विचार बुद्धि के स्तर पर मान्यता भी दे दी परंतु इसे व्यवहार में परिवर्तित करने में असफल रहा। ‘समता’ को सिद्ध और साध्य करने हेतु ‘समरसता’ का व्यावहारिक तत्व प्रचलित करना जरूरी है। समरसता में ‘बंधुभाव’ की असाधारण महत्ता है।
भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक राष्ट्र पुरुषों ने जन्म लिया है. उन्होंने अपने जीवन-काल का सम्पूर्ण समय समाज की स्थिति को सुधारने में लगाया। राजा राममोहन रॉय से डॉ. बाबासाहब आंबेडकर तक सभी राष्ट्र पुरुषों ने अधोगति के आखिरी पायदान पर पहुँची सामाजिक स्थिति को सुधारने में अपना सारा जीवन व्यतीत किया। सामाजिक मंथन, अपनी श्रेष्ठ इतिहास-परंपरा जागृति हेतु राष्ट्र पुरुषों के जीवन कार्य का सत्य वर्णन समाज में लाना यह समरसता भाव जगाने हेतु उपयुक्त है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा ज्योतिराव फुले, राजर्षि शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, नारायण गुरु आदि का योगदान अपार है। डॉ. बाबासाहब तो कहा करते थे, ‘‘बंधुता ही स्वतन्त्रता तथा समता का आश्वासन है। स्वतंत्रता तथा समता की रक्षा कानून से नहीं होती।’’
आज अपने देश में समाज व्यवस्था का दृश्य क्या है ? अभिजन वर्ग अत्यल्प है। बहुजन वर्ग वंचित वर्ग, पिछड़ा वर्ग, घुमंतु समाज, वनवासी, महिला समाज आदि अनेक अंगों पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। सुदृढ़ समाज व्यवस्था की अपेक्षा करते समय इन दुर्बल कड़ियों पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। बहुजन समाज की उन्नति उपर्युक्त समता-बंधुता-स्वातंत्रता, समरसता इन तत्वों के आधार पर हो सकती है। स्वामी विवेकानंद जी ने बहुजन समाज की उन्नति के लिए दो बातों पहली शिक्षा और दूसरी सेवा की आवश्यकता प्रतिपादित की है। उनके अनुसार ‘‘साधारण जनता में बुद्धि का विकास जितना अधिक, उतना राष्ट्र का उत्कर्ष अधिक। हिन्दुस्थान देश विनाश के इतने निकट पहुँचा, इसका कारण विद्या तथा बुद्धि का विकास दीर्घ अवधि तक मुट्ठीभर लोगों के हाथ में रहना है। इसमें राजाओं का समर्थन होने से साधारण जनता निरी गँवार रह गयी और देश विनाश के रास्ते पर बढ़ा। इस स्थिति में से ऊपर उठना है तो शिक्षा का प्रसार साधारण जनता में करने को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है।
सामाजिक समरसता पर इस्लाम का विशेष आग्रह है। इस्लाम बहुदेववाद को नहीं मानता लेकिन मनुष्य के धार्मिक व्यवहार सहित दैनिक आचार में वह निश्चित रूप से सहिष्णुता का हिमायती रहा है। इसके लिए वह आस्था बदलना जरूरी नहीं समझता। समाज में जिस तरह सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ रहा है, उसे देखकर सामाजिक जीवन के एक अंतर्निहित गुण के रूप में आज धार्मिक सद्भाव की आवश्यकता अधिक अनुभव की जा रही है। आम धारणा के विपरीत इस्लाम धर्म सामाजिक सौहार्द का प्रतिपादन करता है। क़ुरान के अनुसार 'जो इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म का अनुयायी होगा, उसे अल्लाह स्वीकार नहीं करेंगे और वह इस दुनिया में आकर खो जाएगा' की बहुधा गलत व्याख्या की गई है। क़ुरान में साफ-साफ कहा गया है - यहूदी, ईसाई, सैबियन्स (प्राचीन साबा राजशाही के मूल निवासियों का धर्म) सभी आस्तिक हैं, जो खुदा और क़यामत में विश्वास रखते हैं और जो सही काम करते हैं, अल्लाह उन्हें इनाम देगा। उन्हें न तो डरने की जरूरत है और न पश्चाताप करने की।' इस्लाम के पैमाने से मोक्ष व्यक्ति के अपने आचरण पर निर्भर करता है न कि किसी खास धार्मिक समूह से संबंधित होने पर। यह समझदारी धार्मिक समरसता के लिए निहायत जरूरी है। इस्लाम ईश्वर या सच्चाई की अनेकता में नहीं, एकता में विश्वास करता है जबकि दुनिया में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। तब उनमें समरसता कैसे हो? इस्लाम विचारधारात्मक मतभेदों को स्वीकार करलोगों के दैनिक जीवन में सहिष्णुता और एक-दूसरे के धर्म को आदर देने की वकालत करता है। क़ुरान घोषणा करता है कि धार्मिक मामलों में जोर-जबर्दस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। क़ुरान किसी भी दूसरे धर्म की निंदा करने को गैरवाजिब बताता है।
इस्लाम धार्मिक समरसता के बदले धार्मिक लोगों की समरसता पर ज्यादा जोर देता है। सामाजिक समरसता मतभिन्नता के बावजू्‌द एकता पर आधारित होती है, न कि बिना मतभेद की एकता पर। मुहम्मद साहेब के जीवन काल में ही यहूदी, ईसाई और इस्लाम के धर्मगुरुओं ने उच्च विचार और धार्मिक समरसता के महान उद्देश्यों के लिए याथ्रिब शहर में बहस की थी। धार्मिक मामलों में सहिष्णुता से काम लेना ही काफी नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन के रोज-रोज के आचार-व्यवहार का हिस्सा होनी चाहिए। इस्लाम की आज्ञा है कि अगर प्रार्थना के समय मुसलमान के अलावा कोई अन्य धर्म का अनुयायी भी मस्जिद में आ जाए तो उसे अपने धर्म के अनुसार पूजा करने में स्वतंत्र महसूस करना चाहिए औऱ वह मस्जिद में ही ऐसा कर सकता है। इतिहास के हर दौर में सहिष्णुता इस्लाम का नियम रहा है। यही कारण है कि दुनिया का सबसे नया धर्म होने के बावजूद इसका इतने बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ। इस्लाम ने किसी धर्म को मिटाया नहीं। धार्मिक सहिष्णुता लोगों की आस्था को बदलकर नहीं की जा सकती। इसका एकमात्र रास्ता यही है कि लोगों को दूसरे धर्म के मानने वालों के प्रति आदर भाव रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और व्यवहार में हमेशा लागू किया जाए।
भारत के गरीब, भूखे-कंगाल, पिछड़े, घुमंतु समाज के लोगों को शिक्षा कैसे दी जाए? गरीब लोग अगर शिक्षा के निकट पहुँच सकें हों तो शिक्षा उन तक पहुँचे। दुर्बलों की सेवा ही नारायण की सेवा है। दरिद्र नारायण की सेवा, शिव भावे जीव सेवा यह रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा दिखाया हुआ मार्ग है। लोक शिक्षण तथा लोकसेवा के लिए अच्छे कार्यकर्ता होना जरूरी हैं। कार्यकर्ता में सम्पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, सर्वस्पर्शी बुद्धि तथा सर्व विजयी इच्छा शक्ति इस हो तो मुट्ठीभर लोग भी सारी दुनिया में क्रांति कर सकते हैं। समरसता स्थापित करने हेतु ‘सामाजिक न्याय’ का तत्व अपरिहार्य है। ‘आरक्षण’ सामाजिक न्याय का एक साधन है साध्य नहीं। यह ध्यान रखना जरूरी है। डॉ. आंबेडकर का धर्म पर गहरा विश्वास रथा।धर्म के कारण ही स्वातंत्र्य, समता, बंधुता और न्याय की प्रतिस्थापना होगी, यह उनकी मान्यता थी। धर्म ही व्यक्ति तथा समाज को नैतिक शिक्षा दे सकता है। धर्म को राजनीतिक हथियार के रूप में उन्होंने कभी इस्तेमाल नहीं किया। बौद्ध धर्म ग्रहण कर उन्होंने स्वातंत्र-समता-बंधुता-न्याय समाज में प्रतिस्थापित करने का एक मार्ग प्रस्तुत किया। निस्संदेह सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और बंधुत्व ही आधुनिक युग का मानव धर्म है।
भारत ही नहीं विश्व के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनेताओं में अग्रगण्य नरेन्द्र मोदी जी प्रणीत स्वच्छता अभियान केवल भौतिक नहीं अपितु मानसिक कचरे की सफाई की भी प्रेरणा देता है। जब तक देश और विश्व में हर व्यक्ति को शिक्षा, धन, धर्म, वाद, पंथ, क्षेत्र, लिंग आदि अधरों पर बिना किसी भेदभाव के 'मन की बात' करने और कहने का अवसर न मिले, वह अपने मन के 'मेक इन' और 'मेड इन' को सबके साथ बाँट न सके सामाजिक समरसता बेमानी है। सामाजिक समरसता का महामंत्र विश्व में सर्वत्र बार-बार गुंजित हो रहा है। इसे अपने जीवन में उतारकर हम मानववाद की अनादि-अनंत श्रंखला से जुड़ कर जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
***
रचना-प्रति रचना मेरी पसंद
कवि से -
- प्रतिभा सक्सेना
*
कवि,
महाकाल ,माँगता नहीं मृदु-मधुर मात्र ,
सारे स्वादों से युक्त परोसा वह लेगा.
भोजक, सब रस वाले व्यंजन प्रस्तुत कर दे
अपनी रुचि का वह ग्रास स्वयं ही भर लेगा .
रसपूरित मधु भावों के संग तीखे कषाय भी हों अर्पण
वर्णों -वर्गों में स्वर के सँग धर दो कठोर और कटु व्यंजन
उसकी थाली में सभी स्वाद ,सारे रस- भावनुभाव रहें
अन्यथा सभी को उलट-पलट अपना आस्वादन ढूँढेगा !
*
रुचि का परिमार्जन है अनिवार्य शर्त उसकी
उन दाढ़ों में सामर्थ्य कि सभी करे चर्वण ,
कड़ुआहट खट्टापन का पाक न पाया तो
अपने हिसाब से औटेगा ले वही स्वयं.
उस रुद्र रूप को ,तीखापन ज़्यादा भाता ,
युग -युग के संचित कर्मों के आसव के सँग
नयनों में उसके थोड़ा नशा उतर आता ,
खप्पर में भरे तरल का ले अरुणाभ रंग !
*
वह ग्रास-ग्रास कर जो भाये वह खायेगा ,
जब चाहे जागे या चाहे सो जायेगा
उसकी अपनी ही मौज और अपनी तरंग !
कवि ,उसको दो जीवन का आस्वादन समग्र !
सबसे प्रिय भावांजलि ही स्वीकारेगा
दिख रहा सभी जो उसका एक परोसा है ,
क्रम--क्रम से कवलित कर लेना उसका स्वभाव .
*
बाँटता अवधि का दान कि जिसका जो हिस्सा ,
सिर चढ़ कर वह कीमत भी स्वयं वसूलेगा ?
भोजन परसो कवि ,महाकाल की थाली में,
षट्र्स नव रस में परिणत कर दो नये स्वाद ,
पकने दो उत्तापों की आँच निरंतर दे ,
रच रच पागो अंतर की कड़ुआहट- मिठास
नित-नूतन स्वाद ग्रहण करने का आदी है ,
परिपक्व बना प्रस्तुत कर दो
स्वर के व्यंजन
नव रस भर धर उसके समक्ष .
*
हो वीर -रौद्र सँग करुणा में डूबा विषाद !
वत्सलता उन नन्हों को जो बच जाते हैं
निर्- आश्रित हो उस विषम काल के तुरत बाद !
कवि अगर दे सको ,अपने कोमल भाव उन्हें ,
दे दो उछाह से भरा प्रेम का राग उन्हें !
मुरझाई छिन्न कली को साहस शान्ति धीर ,
बेआस बुढ़ापा शान्ति- भक्ति से संजीवन !
सब उस अदम्य की थाती शिरसा स्वीकारो
कुछ नये मंत्र उच्चार करो दे नये तंत्र का आश्वासन !
*
निश्चिंत हृदय निश्चित सीमा , अग्रिम ही सब कुछ लो सँवार,
सब डाल चले अपने खप्पर में भऱ वह जब
यों ग्रहण करे तो धन्य समझ अन्अन्य भाग !
वह जन्म-मृत्यु का भोग लगाता नित चलता !
जो दाँव स्वयं को लगा ,सके आगे आये
अपनी अभिलाषा आशायें आकर्षण भी
सारे सपने उसके खप्पर में धर जाये !
कवि वह अपराजित टेर रहा ,लाओ दो धर
बढ कर चुन लेगा ताज़े पुष्प मरंद भरे
सबसे टटकी कलियाँ बिंध माल सजायें उसकी छाती पर ,
उसकी पूजा में कौन डाल पाये अंतर !
*
अक्षत अंजलि संकल्पित हो सम्मान सहित ,
जो बिना शिकायत सहज भाव न्योछावर दे
बिन झिझके सौंपे अपने प्रियतम चरम भाव
निरउद्विग्न मनस् धर चले ,आरती- भाँवर दे !
धर दे निजत्व उसके आगे विरहित प्रमाद !
प्रस्तुत कर दे रे, महाकाल का महा- भोग
तू भी है उसकी भेंट ,स्वयं बन जा प्रसाद !
*
उसके कदमों की आहट पर जीते हैं युग ,
उसके पद-चाप बदल देते इतिहासों को !
संसार सर्ग,युग एक भाव ,
मन्वंतर कल्प करवटें ,युग-संध्यायें निश्वास हेतु
इस महाकाश में लेते उसके चित्र रूप !
है महाकाव्य यह सृष्टि, बाह्य-अंतःस्वरूप
अनगिनती नभ-गंगायें ये विस्तृत-विशाल ,
उसका आवेष्टन रूप व्याप्तिमय व्याल-जाल !
उस महाराट् के लिये
बहुत लघु,लघुतम हम ,
पर उस लघुता में भी है उसका एक रूप !
*
बस यही शर्त ,जिसको भाये आगे आये
आमंत्रण स्वीकारे , तम के प्रतिकार हेतु ,
अनसुनी करे जो इस दुर्वह पुकार को सुन,
वह लौट जाय निज शयन-भवन अभिसार हेतु !
*
कवि ,चिर प्रणम्य वह माँग रहा
तेरे उदात्ततम अंतःस्वर !
जिसमें युगंधरा गाथायें निज को रचतीं !
जो महाभाव से आत्मसात् हो सके सतत्
उसका अपना स्व-भाव उसकी तो परख यही
सत्कृत कर ,धरो सधे शब्दों का ऐसा क्रम ,
जिसमें तुम समा सको संसृति के चरम भाव !
*
वह नृत्य करेगा महसृष्टि को मंच बना ,
लपटों को हहराता सब तमस् जला देगा ,
उन्मत्त चरण धर आकाशों को चीर-चीर
क्षितिजों के घेरे तोड़ गगन दहका देगा !
*
भीषण भावों के व्यक्त रूप मुद्राओं में
भर मृत्यु- राग उठते भैरव डमरू के स्वर
लिपि बद्ध कर सको भाषा में लक्षित-व्यंजित
तो समझो तुम तद्रूप हो गये अमर-अजर !
*
नवगीत
*
पल में बारिश,
पल में गर्मी
गिरगिट सम रंग बदलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
खुशियों के ख्वाब दिखाता है
बहलाता है, भरमाता है
कमसिन कलियों की चाह जगा
सौ काँटे चुभा, खिजाता है
अपना होकर भी छाती पर
बेरहम! दाल दल हँसता है
यह मौसम हमको छलता है
*
जब एक हाथ में कुछ देता
दूसरे हाथ से ले लेता
अधिकार न दे, कर्तव्य निभा
कह, यश ले, अपयश दे देता
जन-हित का सूर्य बिना ऊगे
क्यों, कौन बताये ढलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
गर्दिश में नहीं सितारे हैं
हम तो अपनों के मारे हैं
आधे इनके, आधे उनके
कुटते-पिटते बंजारे हैं
घरवाले ही घर के बाहर
क्या ऐसे भी घर चलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
तुम नकली आँसू बहा रहे
हम दुःख-तकलीफें तहा रहे
अंडे कौओं के घर में धर
कोयल कूके, जग अहा! कहे
निर्वंश हुए सद्गुण के तरु
दुर्गुण दिन दूना फलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
है यहाँ गरीबी अधनंगी
है वहाँ अमीरी अधनंगी
उन पर जरुरत से ज़्यादा है
इन पर हद से ज्यादा तंगी
धीरज का पैर न जम पाता
उन्मन मन रपट-फिसलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
१-९-२०१६, १३.००
गोरखपुर दन्त चिकित्सालय जबलपुर
***
नवगीत:
*
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
मौत उजाले की होती
कब-किसने देखी?
सौत अँधेरी रात
हमेशा रही अदेखी।
किस्मत जुगनू सी
टिमटिम कर राह दिखाती।
शरत चाँदनी सी मंज़िल
पथ हेर लुभाती।
दौड़ा लपका हाथ बढ़ा
कर लूँ कुड़माई।
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
अपने सपने
पल भर में नीलाम हो गये।
नपने बने विधाता
काहे वाम हो गये?
को पूछे किससे, काहे
कब, कौन बताये?
किस्से दादी संग गये
अब कौन सुनाये?
पथवारी मैया
लगती हैं गैर-पराई।
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
***
दोहा मुक्तिका:
आशा जिसके साथ हो, तोड़ निराशा-पाश
पा सकता है एक को, फेंट मुश्किलें-ताश
*
धरती पर पग भले हों, निकट लगे आकाश
जब-जब होता सन्निकट, 'सलिल' संग कैलाश
*
जब कथनी को भूल मन, वर लेता मन 'काश'
तज यथार्थ को कल्पना, करे समय का नाश
*
ढोता है आतंक की, जब-जब मजहब लाश
पाखंडों का हो तभी, जग में पर्दाफाश
*
नफरत के सौदागरों, तज तम गहो प्रकाश
अगर न सुधरे सुनिश्चित, होगा सत्यनाश
३-९-२०१५
***
नवगीत:
*
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा बोले बच्चा
बच्चा होता है सच्चा
हम सचाई से सचमुच दूर
आँखें रहते भी हैं सूर
फेंक अमिय
नित विष घोलें
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पंछी बोले
संग-साथ हिल-मिल डोले
हम लड़ते हैं भाई से
दुश्मन निज परछाईं के
दिल में
भड़क रहे शोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पशु को भाती
प्रकृति न भूले परिपाटी
संचय-सेक्स करे सीमित
खुद को करे नहीं बीमित
बदले नहीं
कभी चोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
३-९-२०१४
*
दोहा सलिला:
दोहा-दोहा यमकमय
*
चरखा तेरी विरासत, ले चर खा तू देश
किस्सा जल्दी ख़त्म कर, रहे न कुछ भी शेष
*
नट से करतब देखकर, राधा पूछे मौन
नट मत, नटवर! नट कहाँ?, कसे बता कब कौन??
*
देख-देखकर शकुन तला, गुझिया-पापड़ आज
शकुनतला-दुष्यंत ने, हुआ प्रेम का राज
*
पल कर, पल भर भूल मत, पालक का अहसान
पालक सम हरियाएगा, प्रभु का पा वरदान
*
नीम-हकीम न नीम सम, दे पाते आरोग्य
ज्यों अयोग्य में योग्य है, किन्तु न सचमुच योग्य
३-९-२०१३
*

शुक्रवार, 2 सितंबर 2022

मुक्तिका, मछलियाँ,यमक,दोहा,सूर्य,सोरठा,देवता,परिवार, गणेश,

दोहा
रवि भास्कर मार्तण्ड, रश्मिरथी दिनकर दिनद।
लोहित भानु प्रचंड, सूरज सविता सूर्य शुभ।।
*
आदिदेव भुवनेश, दीप्त दिवाकर प्रभाकर।
छाया-स्वामी दिनेश, किरणकांत किरणेश हे।।
*
अरुणकांत अरुणेश, त्रिभुवनपति भुवनेsश्वर।
दिवाकान्त दीप्तेश, ज्योतिपुंज जगदीsश्वर।
*
रात अलार्म लगा रहे, प्रात जग सकें मीत।
रहें ना रहें अनिश्चित, हुई आस की जीत।।
२-९-२०२२
***
विमर्श - परिवार
क्या एक पति विवाह पश्चात अपनी पत्नी के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगा?
क्या एक पत्नी अपने पति के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगी?
सामान्यत: उत्तर होगा नहीं।
अगर कर लें तो क्या चारों साथ-साथ सहज और प्रसन्न रह सकेंगे, एक दूसरे पर विश्वास कर सकेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर है शिव परिवार। शिव-पार्वती विवाह पश्चात उनके जीवन में आए कार्तिकेय शिवपुत्र हैं, पार्वती पुत्र नहीं हैं। गणेश पार्वती पुत्र हैं, शिव पुत्र नहीं। क्या इससे शिव-पार्वती का दांपत्य प्रभावित हुआ? नहीं।
वे एक दूसरे की संतानों को अपना मानकर जगत्कर्ता और जगज्जननी हो गए। अद्वैत में द्वैत के लिए स्थान नहीं होता। पति-पत्नी एक हो गए तो दूरी, निजता या गैरियत क्यों?
कौन किसका पोषण या शोषण कर सकता है?
किसका त्याग कम, किसका अधिक? ऐसे प्रश्न ही बेमानी हैं।
छोटी-छोटी बातों के अहं को चश्मे से बड़ा बनाकर विलग हो रहे दंपति देखें कि क्या उनके जीवन की समस्या शिव-पार्वती के जीवन की समस्याओं से अधिक बड़ी हैं?
विषमताओं का हलाहल कंठ में धारण करनेवाला ही, शंकाओं को जयकर शंकर बनता है।
पर्वत की तरह बड़ी समस्याओं से अहं की लड़ाई न लड़कर, पुत्री की तरह स्नेहभाव से सुलझानेवाली ही पार्वती हो सकती है।
प्रकृति प्रदत्त विषमता को समभाव से ग्रहण कर, एक दूसरे पर बदलने का दबाव बनाए बिना सहयोग करने पर अरिहंता कार्तिकेय ही नहीं, विघ्नहर्ता गणेश भी पुत्र बनकर पूर्णता तक ले जाते हैं, यही नहीं ऋद्धि-सिद्धि भी पुत्रवधुओं के रूप में सुख-समृद्धि की वर्षा करती हैं।
गणेश चतुर्थी का पर्व सहिष्णुता, समन्वय और सद्भाव का महापर्व है।
आइए! हम सब ऐक्य-सूत्र में बँधकर, जमीन में जड़ जमानेवाली दूर्वा से प्रेरणा ग्रहणकर गणपति गणनायक को प्रणाम करने की पात्रता अर्जित करें।
हम शिव परिवार की तरह भिन्न होकर अभिन्न हों, अनेकता को पचाकर एक हो सकें।
***
संजीव
गणेश चौथ
२-९-२०१९
***
विमर्श - देवता कौन हैं?
देवता, 'दिव्' धातु से बना शब्द है, अर्थ 'प्रकाशमान होना' है। भावार्थ परालौकिक शक्ति जो अमर, पराप्राकृतिक है और पूजनीय है। देवता या देव इस तरह के पुरुष और देवी इस तरह की स्त्रियों को कहा गया है। देवता परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक या सगुण रूप माने गए हैं।
बृहदारण्य उपनिषद के एक आख्यान में प्रश्न है कि कितने देव हैं? उत्तर - वास्तव में देव केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ कोटि (प्रकार); और पूछने और पूछने पर ३ (विधि-हरि-हर या ब्रम्हा-विषय-महेश) फिर डेढ और फिर केवल एक (निराकार जिसका चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है)। वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है। प्रत्येक मन्त्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है।
देवताओं का वर्गीकरण- चार मुख्य प्रकार
१. स्थान क्रम से वर्णित देवता -- द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अन्तरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।
२. परिवार क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि को गिना जाता है।
३. वर्ग क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।
४. समूह क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में सर्व देवा (स्थान, वस्तु, राष्ट्र, विश्व
आदि) की गिनती की जाती है।
ऋग्वेद में स्तुतियों से देवताओं की पहचान की जाती है। ये देवता अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। बहु देवता न माननेवाले सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मा वाचक करते है। बहुदेवतावादी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है। पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा लौकिकीकरण हुआ, फ़िर इनकी मूर्तियाँ, सम्प्रदाय, अलग अलग पूजा-पाठ बनाये गए।
धर्मशास्त्र में सबसे "तिस्त्रो देवता".(तीन देवता) ब्रह्मा, विष्णु और शिव का उदय हुआ। इनका कार्य सृष्टि का निर्माण, इसका पालन और संहार माना जाता है। काल-क्रम से देवों की संख्या बढ़ती गयी। निरुक्तकार यास्क के अनुसार," देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से है"। महाभारत के (शांति पर्व) में आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं। शतपथ ब्राह्मण में भी इसी प्रकार से देवताओं को माना गया है।
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम
शुद्ध बहु ईश्वरवादी धर्मों में देवताओं को पूरी तरह स्वतन्त्र माना जाता है।प्रमुख वैदिक देवता गणेश (प्रथम पूज्य), सरस्वती, श्री देवी (लक्ष्मी), विष्णु, शक्ति (दुर्गा, पार्वती), शंकर, कृष्ण, इन्द्र, सूर्य, हनुमान, ब्रह्मा, राम, वायु, वरुण, अग्नि, शनि , कार्तिकेय, शेषनाग, कुबेर, धन्वंतरि, विश्वकर्मा आदि हैं।
२-९-२०१६
नवगीत:
*
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
दर्जा सबसे अलग दे दिया
चार-चार शादी कर लें.
पा तालीम मजहबी खुद ही
अपनी बर्बादी वर लें.
अलस् सवेरे माइक गूँजे
रब की नींद हराम करें-
अपनी दुख्तर जिन्हें न देते
उनकी दुख्तर खुद ले लें.
फ़र्ज़ भूल दफ़्तर से भागें
कहें इबादत ही मजहब।
कट्टरता-आतंकवाद से
खुश हो सकता कैसे रब?
बिसरा दी
सूफी परंपरा
बदतर फतवे खाप से.
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
भारत माँ की जय से दूरी
दें न सलामी झंडे को.
दहशतगर्दों से डरते हैं
तोड़ न पाते डंडे को.
औरत को कहते जो जूती
दें तलाक जब जी चाहे-
मिटा रहे इतिहास समूचा
बजा सलामी गुंडे को.
रिश्ता नहीं अदब से बाकी
वे आदाब करें कैसे?
अपनों का ही सर कटवाते
देकर मुट्ठी भर पैसे।
शासन गोवध
नहीं रोकता
नहीं बचाता पाप से
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
दो कानून बनाये हैं क्यों?
अलग उन्हें क्यों जानते?
उनकी बिटियों को बहुएँ
हम कहें नहीं क्यों मानते?
दिये जला, वे होली खेलें
हम न मनाते ईद कभी-
मिटें सभी अंतर से अंतर
ज़िद नहीं क्यों ठानते?
वे बसते पूरे भारत में
हम चलकर कश्मीर बसें।
गिले भुलाकर गले मिलें
हँसकर बाँहों में बाँध-गसें।
एक नहीं हम
नज़र मिलायें
कैसे अपने आपसे?
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
(उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी द्वारा मुस्लिमों से भेदभाव की शिकायत पर)
आरक्षण सब चाहते, रहा न कोई छोड़
संविधान को स्वार्थ हित, नेता रहे मरोड़
२-९-२०१५
विमर्श:
देवताओं को खुश करने पशु बलि बंद करो : हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
हमाचल प्रदेश उच्च न्यायलय ने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए की जानेवाली पशुबलि पर प्रतिबन्ध लगते हुए कहा है कि हजारों पशुओं को बलि के नाम पर मौत के घाट उतरा जाता है. इसके लिए पशुओं को असहनीय पिद्दा साहनी पड़ती है. न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और सुरेश्वर ठाकुर की खंडपीठ के अनुसार इस सामाजिक कुरीति को समाप्त किया जाना जरूरी है. नेयाले ने आदेश किया है कि कोई भी पशुओं की बलि नहीं देगा।
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों के निर्णय के मुताबिक पशुओं को हो रही असनीय पीड़ा और मौत देना सही नहीं है. प्रश्न यह है कि क्या केवल देव बलि के लिए अथवा मानव की उदर पूर्ती लिए भी? देवबली के नाम पर मरे जा रहे हजारों जानवर बच जाएँ और फिर मानव भोजन के नाम पर मारे जा रहे जानवरों के साथ मारे जाएँ तो निर्णय बेमानी हो जायेगा। यदि सभी जानवरों को किसी भी कारण से मारने पर प्रतिबंध है तो माँसाहारी लोग क्या करेंगे? क्या मांसाहार बंद किया जायेगा?
इस निर्णय का यह अर्थ तो नहीं है की हिन्दु मंदिर में बलि गलत और बकरीद पर मुसलमान बलि दे तो सही? यदि ऐसा है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. आप सोचें और पानी बात यहाँ कहने के साथ संबंधित अधिकारीयों और जनप्रतिनिधियों तक भी पहुंचाएं।
मुक्तक सलिला:
*
मनमानी कर रहे हैं
गधे वेद पढ़ रहे हैं
पंडित पत्थर फोड़ते
उल्लू पद वर रहे हैं
*
कौन किसी का सगा है
अपना देता दगा है
छुरा पीठ में भोंकता
कहे प्रेम में पगा है
*
आप टेंट देखे नहीं,
काना पर को दोष दे
कुर्सी पा रहता नहीं,
कोई अपने होश में
*
भाई-भतीजावाद ने
कमर देश की तोड़ दी
धारा दीन-विकास की
धनवानों तक मोड़ दी
*
आय नौकरों की गिने,
लेते टैक्स वसूल वे
मालिक बाहर पकड़ से,
कहते सही उसूल है
२-९-२०१४
मुक्तक
देखकर चलिए बुरा है यह जमाना
लगे ठोकर तो न औरों को बताना
दर्द बाँटेगा न कोई, हँसी होगी
बेहतर है चोट चुप सह मुस्कुराना
२-९-२०१३
दोहा सलिला:
यमक का रंग दोहा के संग-
....नहीं द्वार का काम
*
मन मथुरा तन द्वारका, नहीं द्वार का काम.
प्राणों पर छा गये है, मेरे प्रिय घनश्याम..
*
बजे राज-वंशी कहे, जन-वंशी हैं कौन?
मिटे राजवंशी- अमिट, जनवंशी हैं मौन..
*
'सज ना' सजना ने कहा, कहे: 'सजाना' प्रीत.
दे सकता वह सजा ना, यही प्रीत की रीत..
*
'साजन! साज न लाये हो, कैसे दोगे संग?'
'संग-दिल है संगदिल नहीं, खूब जमेगा रंग'..
*
रास खिंची घोड़ी उमग, लगी दिखने रास.
दर्शक ताली पीटते, खेल आ रहा रास..
*
'किसना! किस ना लौकियाँ, सकूँ दही में डाल.
जीरा हींग बघार से, आता स्वाद कमाल'..
*
भोला भोला ही 'सलिल', करते बम-बम नाद.
फोड़ रहे जो बम उन्हें, कर भी दें बर्बाद..
*
अर्ज़ किया 'आदाब' पर, वे समझे आ दाब.
वे लपके मैं भागकर, बचता फिर जनाब..
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, हो जाते जब मौन.
मन से मन तक 'सबद' तब, कह जाता है कौन??
२-९-२०११
***
मुक्तिका
मछलियाँ

कामनाओं की तरह, चंचल-चपल हैं मछलियाँ.
भावनाओं की तरह, कोमल-सबल हैं मछलियाँ..

मन-सरोवर-मथ रही हैं, अहर्निश ये बिन थके.
विष्णु का अवतार, मत बोलो निबल हैं मछलियाँ..

मनुज तम्बू और डेरे, बदलते अपने रहा.
सियासत करती नहीं, रहतीं अचल हैं मछलियाँ..

मलिनता-पर्याय क्यों मानव, मलिन जल कर रहा?
पूछती हैं मौन रह, सच की शकल हैं मछलियाँ..

हो विदेहित देह से, मानव-क्षुधा ये हर रहीं.
विरागी-त्यागी दधीची सी, 'सलिल' है मछलियाँ..
***
मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...

हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..

चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..

गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..

जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..

धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..

कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..

दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..

नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
२-९-२०१०
***

गुरुवार, 1 सितंबर 2022

एकाक्षरी दोहा,लघुकथा,कृष्ण जन्म,नवगीत,दोहा,सावन गीत,मुक्तिका

सितम्बर : कब-क्या???
१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली,
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर
२७. निधन: राजा राम मोहन राय, विश्व पर्यटन दिवस 
२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस
एकाक्षरी दोहा:
आनन्दित हों, अर्थ बताएँ
*
की की काकी कूक के, की को काका कूक.
काका-काकी कूक के, का के काके कूक.
*​
एक द्विपदी
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
यह द्विपदी अश्वावातारी जातीय बीर छंद में है
***
लघुकथा
रीढ़ की हड्डी
*
बात-बात में नीति और सिद्धांतों की दुहाई देने के लिए वे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। तनिक ढील या छूट देना उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता। ब्राम्हण परिवार में जन्मने के कारण वे खुद को औरों से श्रेष्ठ मानकर व्यवहार करते।
समय सदा एक सा नहीं रहता, बीमार हुए, खून दिया जाना जरूरी हो गया, नाते-रिश्तेदार पीछे हट गए तो चिकित्सकों ने रक्त समूह मिलाकर एक अनजान लड़के का खून चढ़ा दिया। उन्होंने धन्यवाद देने के लिए रक्तदाता से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो उसे बुलाया गया, देखते ही उनके पैरों तले से जमीन खिसक गयी, वह सफाई कर्मचारी का बेटा था।
आब वे पहले की तरह ब्राम्हणों की श्रेष्ठता का दावा नहीं कर पाते, झुक गयी है रीढ़ की हड्डी
***
***
लघुकथा
जन्म कुंडली
*
'आपकी गृह दशा ठीक नहीं है, महामृत्युंजय मन्त्र का सवा लाख जाप कराना होगा। आप खुद करें तो श्रेष्ठ अन्यथा मेरे आश्रम में पंडित इसे संपन्न करेंगे, आप नित्य ८ बजाए आकर देख सकते हैं। यह भी न साध सके तो आरम्भ और अंत में पूजन में अवश्य सम्मिलित हों। यह सामग्री और अन्य व्यय होगा' कहते हुए पंडित जी ने यजमान के हाथ में एक परचा थमा दिया जिस पर कुछ हजार की राशि का खर्च लिखा था। यजमान ने श्रद्धा से हाथ जोड़कर लिखी राशि में पांच सौ और जोड़कर पंडित के निकट रखी गणेश प्रतिमा के निकट रखकर चरण स्पर्श किये और प्रसाद लेकर चले गए।
वहाँ उपस्थित अन्य सज्जन आश्रम से बाहर आने पर कुंडली और ग्रहों के नाम पर जाप करने से संकट टालने के विरुद्ध बोलते हुए इसे पाखण्ड बताते रहे। कुछ दिन पश्चात् उनपुत्रय जन सड़क दुर्घटना में घायल हो गया। अब वे स्वयं आश्रम में पण्डित जी को दिखा रहे थे पुत्र की जन्मकुंडली।
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एक रचना
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आज प्रभु श्री कृष्ण के जन्म का छटवाँ दिन 'छटी पर्व' है। बुंदेलखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मालवा आदि में यह दिन लोकपर्व 'पोला' के रूप में मनाया जाता है। पशुओं को स्नान कराकर, सुसज्जित कर उनका पूजन किया जाता है। इन दिन पशुओं से काम नहीं लिया जाता अर्थात सवैतनिक राजपत्रित अवकाश स्वीकृत किया जाता है। पशुओं का प्रदर्शन और प्रतियोगिताएँ मेले आदि की विरासत क्रमश: समापन की ओर हैं। विक्रम समय चक्र के अनुसार इसी तिथि को मुझे जन्म लेने का सौभाग्य मिला। माँ आज ही के दिन हरीरा, सोंठ के लड्डू, गुलगुले आदि बनाकर भगवन श्रीकृष्ण का पूजन कर प्रसाद मुझे खिलाकर तृप्त होती रहीं। अदृश्य होकर भी उनका मातृत्व संतुष्ट होता रहे इसलिए मेरी बड़ी बहिन आशा जिज्जी और धर्मपत्नी साधना आज भी यह सब पूरी निष्ठां से करती हैं। बड़भागी, अभिभूत और नतमस्तक हूँ तीनों के दिव्य भाव के प्रति। आज बाँकेबिहारी की 'छठ' पूजना तो कलम का धर्म है कि बधावा गाकर खुद को धन्य करे-
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नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नव छंद है
नन्द घरा नंद है
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मेघराज आल्हा गाते
तड़ित देख नर डर जाते
कालिंदी कजरी गाये
तड़प देवकी मुस्काये
पीर-धीर-सुख का दोहा
नव शिशु प्रगट मन मोहा
चौपाई-ताला डोला
छप्पय-दरवाज़ा खोला
बंबूलिया गाये गोकुल
कूक त्रिभंगी बन कोयल
बेटा-बेटी अदल-बदल
गया-सुन सोहर सम्हल-सम्हल
जसुदा का मुख चंद है
दर पर शंकर संत है
प्रगटा आनँदकंद है
नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नाव छंद है
नन्द घरा नंद है
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काल कंस पर मँडराया
कर्म-कुंडली बँध आया
बेटी को उछाल फेंका
लिया नाश का था ठेका
हरिगीतिका सुनाई दिया
काया कंपित, भीत हिया
सुना कबीरा गाली दें
जनगण मिलकर ताली दें
भेद न वासुदेव खोलें
राई-रास चरण तोलें
गायें बधावा, लोरी, गीत
सुना सोरठा लें मन जीत
मति पापी की मन्द है
होना जमकर द्वन्द है
कटना भव का फंद
नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नाव छंद है
नन्द घरा नंद है
१-९-२०१६
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नवगीत:
चाह किसकी....
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चाह किसकी है
कि वह निर्वंश हो?....
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ईश्वर अवतार लेता
क्रम न होता भंग
त्यगियों में मोह बसता
देख दुनिया दंग
संग-संगति हेतु करते
जानवर बन जंग
पंथ-भाषा कोई भी हो
एक ही है ढंग
चाहता कण-कण
कि बाकी अंश हो....
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अंकुरित पल्लवित पुष्पित
फलित बीजित झाड़ हो
हरितिमा बिन सृष्टि सारी
खुद-ब-खुद निष्प्राण हो
जानता नर काटता क्यों?
जाग-रोपे पौध अब
रह सके सानंद प्रकृति
हो ख़ुशी की सौध अब
पौध रोपें, वृक्ष होकर
'सलिल' कुल अवतंश हो....
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अपनी बात :
संजीव
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सुखों की
भीख मत दो,
वे तो मेरा
सर झुकाते हैं
दुखों का
हाथ थामे,
सर उठा
जीना मुझे भाता।
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ज़माने से
न शिकवा
गैर था
धोखा दिया
तो क्या?
गिला
अपनों से है
भोंका छुरा
मिल पीठ में
हँसकर
१-९-२०१४
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लघु कथा:
गुरु दक्षिणा
एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराए कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए। उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अंगूठा मांग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया। प्रगट में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा।'
'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बाएँ हाथ का अंगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिया। छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अंगूठा जुड़वाया और द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा।
तब से उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अंगूठा लगाने लगे।
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दोहा सलिला :
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नीर-क्षीर मिल एक हैं, तुझको क्यों तकलीफ ?
एक हुए इस बात की, क्यों न करें तारीफ??
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आदम-शिशु इंसान हो, कुछ ऐसी दें सीख
फख्र करे फिरदौस पर, 'सलिल' सदा तारीख
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है बुलंद यह फैसला, ऊँचा करता माथ
जो खुद से करता वफ़ा, खुदा उसी के साथ
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मैं हिन्दू तू मुसलमां, दोनों हैं इंसान
क्यों लड़ते? लड़ता नहीं, जब ईसा भगवान्
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मेरी-तेरी भूख में, बता कहाँ है भेद?
मेहनत करते एक सी, बहा एक सा स्वेद
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पंडित मुल्ला पादरी, नेता चूसें खून
मजहब-धर्म अफीम दे, चुप अँधा कानून
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'सलिल' तभी सागर बने, तोड़े जब तटबंध
हैं रस्मों की कैद में, आँखें रहते अंध
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जो हम साया हो सके, थाम उसी का हाथ
अन्धकार में अकेले, छोड़ न दे जो साथ
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जगत भगत को पूजता, देखे जब करतूत
पूज पन्हैयों से उसे, बन जाता यमदूत
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थूकें जो रवि-चन्द्र पर, गिरे उन्हीं पर थूक
हाथी चलता चाल निज, थकते कुत्ते भूंक
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'सलिल' कभी भी किसी से, जा मत इतनी दूर
निकट न आ पाओ कभी, दूरी हो नासूर
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पूछ उसी से लिख रहा, है जो अपनी बात
व्यर्थ न कुछ अनुमान कर, कर सच पर आघात
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तम-उजास का मेल ही, है साधो संसार
लगे प्रशंसा माखनी, निंदा क्यों अंगार?
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साधु-असाधु न किसी के, करें प्रीत-छल मौन
आँख मूँद मत जान ले, पहले कैसा-कौन?
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हिमालयी अपराध पर, दया लगे पाखंड
दानव पर मत दया कर, दे कठोरतम दंड
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एक द्विपदी:
कासिद न ख़त की , भेजनेवाले की फ़िक्र कर
औरों की नहीं अपनी, खताओं का ज़िक्र कर
१-९-२०१३
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सावन गीत:
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मन भावन सावन घर आया
रोके रुका न छली बली....
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कोशिश के दादुर टर्राये.
मेहनत मोर झूम नाचे..
कथा सफलता-नारायण की-
बादल पंडित नित बाँचे.
ढोल मँजीरा मादल टिमकी
आल्हा-कजरी गली-गली....
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सपनाते सावन में मिलते
अकुलाते यायावर गीत.
मिलकर गले सुनाती-सुनतीं
टप-टप बूँदें नव संगीत.
आशा के पौधे में फिर से
कुसुम खिले नव गंध मिली....
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हलधर हल धर शहर न जाये
सूना हो चौपाल नहीं.
हल कर ले सारे सवाल मिल-
बाकी रहे बबाल नहीं.
उम्मीदों के बादल गरजे
बाधा की चमकी बिजली....
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भौजी गुझिया-सेव बनाये,
देवर-ननद खिझा-खाएँ.
छेड़-छाड़ सुन नेह भारी
सासू जी मन-मन मुस्कायें.
छाछ-महेरी के सँग खाएँ
गुड़ की मीठी डली लली....
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नेह निमंत्रण पा वसुधा का
झूम मिले बादल साजन.
पुण्य फल गये शत जन्मों के-
श्वास-श्वास नंदन कानन.
मिलते-मिलते आस गुजरिया
के मिलने की घड़ी टली....
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नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडी पर सम्हल-सम्हल.
चलना रपट न जाना- मिल-जुल
पार करो पथ की फिसलन.
लड़ी झुकी उठ मिल चुप बोली
नज़र नज़र से मिली भली....
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गले मिल गये पंचतत्व फिर
जीवन ने अंगड़ाई ली.
बाधा ने मिट अरमानों की
संकुच-संकुच पहुनाई की.
साधा अपनों को सपनों ने
बैरिन निन्दिया रूठ जली....
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मुक्तिका
हम गले मिलते रहें.
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ईद आये या दिवाली हम गले मिलते रहें.
फूल औ' कलियों के जैसे मुस्कुरा खिलते रहें..

एकता की राह पर रखकर कदम डिगना नहीं.
पाँव शूलों से भले घायल हुए, छिलते रहें..

हैं सिवइयों से कभी बाज़ार में दुकां सजी.
कभी गुझियों-पपड़ियों की लोइयाँ बिलते रहें..

खूबियों से गले मिलते रहे हम अब तक 'सलिल'.
क्यों न थोड़ी खामियों के वार भी झिलते रहें..

भेदभावों के उठे तूफ़ान कितने ही 'सलिल'
रहें स्थिर यह न हो कि डगमगा हिलते रहें..
१-९-२०११