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शनिवार, 14 मई 2022

छंद कुण्डलिया, बालगीत, नवगीत, मुक्तक, लघुकथा, परसाई, कुंवर सिंह,

छंद परिचय
कुण्डलिया का वृत्त है दोहा-रोला युग्म
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[लेखक परिचय: जन्म: २०-८-१०५२, मंडला मध्य प्रदेश। शिक्षा: डी. सी. ई., बी. ई. एम्. आई. ई., एम्. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकरिता। प्रकाशित कृतियाँ: १. कलम के देव भक्ति गीत, २. भूकंप के साथ जीना सीखें लोकोपयोगी तकनीकी, ३. लोकतंत्र का मकबरा कवितायेँ, ४. मीत मेरे कवितायेँ, ५. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत, ६. कुरुक्षेत्र गाथा प्रबंध काव्य, काव्यानुवाद: सौरभ:, यदा-कदा। संपादित: ९ पुस्तकें, १६ स्मारिकाएँ, ८ पत्रिकाएँ। ३६ पुस्तकों में भूमिका लेखन, ३०० से अधिक समीक्षाएँ, अंतरजाल पर अनेक ब्लॉग, फेसबुक पृष्ठ ६००० से अधिक रचनाएँ, हिंदी में तकनीकी शोध लेख, छंद शास्त्र में विशेष रूचि। मेकलसुता पत्रिका में दोहा के अवदान पर पर ३ वर्ष तक लेखमाला, हिन्दयुग्म.कोम में छंद लेखन पर २ वर्ष तथा साहित्यशिल्पी.कोम में ८० अलंकारों पर लेखमाला। वर्तमान में साहित्यशिल्पी में 'रसानंद है छंद नर्मदा' लेखमाला में ८० छंद प्रकाशित। संपर्क: २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]
*
कुण्डलिया हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है। एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३ पर यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिनी छंद को आकार देते हैं। दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिनी भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा का अंतिम या चौथा चरण, रोला का प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है। दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है। प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है। सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक देखता है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर१. कुण्डलिनी छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद होते हैं।
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है।
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है।
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक छंद हैं। इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं।
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
उदाहरण:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर।।

उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं।
५. रोला भी अर्ध सम मात्रिक छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
क. रोला में ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं। दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं।
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
की. रोला के सम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय।।
६. कुण्डलिनी:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है, है वहीं, सच मानो अंधेर।।
सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
करें देश हित कार्य, सियासत भूल हर समय।।
*
कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित
दोहा:
समय-समय की बात है
१११ १११ २ २१ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
समय-समय का फेर।
१११ १११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
जहाँ देर है, है वहीं
१२ २१ २ १२ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
सच मानो अंधेर
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
रोला:

सच मानो अंधेर (दोहा के अंतिम चरण का दोहराव)
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
मचा संसद में हुल्लड़
१२ २११ २ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु [प्रभाव गुरु गुरु] के साथ यति
हर सांसद को भाँग
११ २११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
पिला दो भर-भर कुल्हड़
१२ २ ११ ११ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु (प्रभाव गुरु गुरु) के साथ यति
भाँग चढ़े मतभेद
२१ १२ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दूर हो, करें न संशय
२१ २ १२ १ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु के साथ यति
करें देश हित कार्य
करें देश-हित कार्य = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
सियासत भूल हर समय
१२११ २१ ११ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु के साथ यति
उदाहरण -

०१. कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान।।
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक।
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक।।
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया।
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया।। - नवीन चतुर्वेदी
०२. भारत मेरी जान है, इस पर मुझको नाज़।
नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज।।
यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया।
बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया।।
करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत।
पहले जैसा आज, कहाँ है? मेरा भारत।। - राजेंद्र स्वर्णकार

०३. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा
०४. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल।
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल।।
तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत।
मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत।।
तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत।
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत।।
(यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)
०५. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान।
इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान।।
कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर।
तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर।।
जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर।
'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर।।
('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पढ़कर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)
०६. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत।
घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत।।
जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर।
बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर।।
असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ।
नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ।।
(इस कुण्डलिनी की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ' करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।)
०७. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन।।
कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के।। - गिरधर
कुण्डलिनी छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।
०८. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है।
०९. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग।
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग।।
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना।
करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना।।
कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल।
आरक्षण कर ख़त्म, योग्यता ही हो संबल।।
यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है। प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें।
१०. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से।।
यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है।

बाल गीत
पानी दो, अब पानी दो
मौला धरती धानी दो, पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गयी
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो, पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हर्षे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो, पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो, पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो, पानी दो...
*
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो, पानी दो...

***
एक गीति रचना:
करो सामना
*
जब-जब कंपित भू हुई
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
***
१३-५-२०१५
***
अभिनव प्रयोग:
गीत
वात्सल्य का कंबल
*
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
अब मिले सरदार सा सरदार भारत को
अ-सरदारों से नहीं अब देश गारत हो
असरदारों की जरूरत आज ज़्यादा है
करे फुलफिल किया वोटर से जो वादा है
एनिमी को पटकनी दे, फ्रेंड को फ्लॉवर
समर में भी यूँ लगे, चल रहा है शॉवर
हग करें क़ृष्णा से गंगा नर्मदा चंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
मनी फॉरेन में जमा यू टर्न ले आये
लाहौर से ढाका ये कंट्री एक हो जाए
दहशतों को जीत ले इस्लाम, हो इस्लाह
हेट के मन में भरो लव, शाह के भी शाह
कमाई से खर्च कम हो, हो न सिर पर कर्ज
यूथ-प्रायरटी न हो मस्ती, मिटे यह मर्ज
एबिलिटी ही हो हमारा,ओनली संबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
कलरफुल लाइफ हो, वाइफ पीसफुल हे नाथ!
राजमार्गों से मिलाये हाथ हँस फुटपाथ
रिच-पुअर को क्लोद्स पूरे गॉड! पहनाना
चर्च-मस्जिद को गले, मंदिर के लगवाना
फ़िक्र नेचर की बने नेचर, न भूलें अर्थ
भूल मंगल अर्थ का जाएँ न मंगल व्यर्थ
करें लेबर पर भरोसा, छोड़ दें गैंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
(इस्लाम = शांति की चाह, इस्लाह = सुधार)
१४-५-२०१४

***
मुक्तक सलिला :
.
हमसे छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं
दूर जाते भी नहीं, पास बुलाते भी नहीं
इन हसीनों के फरेबों से खुदा भी हारा-
गले लगते भी नहीं और लगाते भी नहीं
*
पीठ फेरेंगे मगर मुड़ के फिर निहारेंगे
फेर नजरें यें हसीं दिल पे दिल को वारेंगे
जीत लेने को किला दिल का हौसला देखो-
ये न हिचकेंगे 'सलिल' तुमपे दिल भी हारेंगे
*
उड़ती जुल्फों में गिरफ्तार कभी मत होना
बहकी अलकों को पुरस्कार कभी मत होना
थाह पाओगे नहीं अश्क की गहराई की-
हुस्न कातिल है, गुनाहगार कभी मत होना
*
१४-५-२०१५
***
लघुकथा
हरिशंकर परसाई
*
एक जनहित की संस्‍था में कुछ सदस्यों ने आवाज उठाई, 'संस्था का काम असंतोषजनक चल रहा है। इसमें बहुत सुधार होना चाहिए। संस्था बरबाद हो रही है। इसे डूबने से बचाना चाहिए। इसको या तो सुधारना चाहिए या भंग कर देना चाहिए।
संस्था के अध्यक्ष ने पूछा कि किन-किन सदस्यों को असंतोष है।
दस सदस्यों ने असंतोष व्यक्त किया।
अध्यक्ष ने कहा, 'हमें सब लोगों का सहयोग चाहिए। सबको संतोष हो, इसी तरह हम काम करना चाहते हैं। आप दस सज्जन क्या सुधार चाहते हैं, कृपा कर बतलावें।'
और उन दस सदस्यों ने आपस में विचार कर जो सुधार सुझाए, वे ये थे -
'संस्था में चार सभापति, तीन उप-सभापति और तीन मंत्री और होने चाहिए...'

***
लघुकथा
कानून के रखवाले
*
'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।'
वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है?"
अन्य श्रोता ने पूछा 'क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा?'
"यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?" चौथा व्यक्ति बोल पड़ा।
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
१४-५-२०१६
***
काव्यांजलि:
अमर शहीद कुंवर सिंह
*
भारत माता पराधीन लख,दुःख था जिनको भारी
वीर कुंवर सिंह नृपति कर रहे थे गुप-चुप तैयारी
अंग्रेजों को धूल चटायी जब-जब वे टकराये
जगदीशपुर की प्रजा धन्य थी परमवीर नृप पाये
समय न रहता कभी एक सा काले बादल छाये
अंग्रेजी सैनिक की गोली लगी घाव कई खाये
धार रक्त की बही न लेकिन वे पीड़ा से हारे
तुरत उठा करवाल हाथ को काट हँसे मतवारे
हाथ बहा गंगा मैया में 'सलिल' हो गया लाल
शुभाशीष दे मैया खद ही ज्यों हो गयी निहाल
वीर शिवा सम दुश्मन को वे जमकर रहे छकाते
छापामार युद्ध कर दुश्मन का दिल थे दहलाते
नहीं चिकित्सा हुई घाव की जमकर चढ़ा बुखार
भागमभाग कर रहे अनथक तनिक न हिम्मत हार
छब्बीस अप्रैल अट्ठारह सौ अट्ठावन दिन काला
महाकाल ने चुपके-चुपके अपना डेरा डाला
महावीर की अगवानी कर ले जाने यम आये
नील गगन से देवों ने बन बूंद पुष्प बरसाये
हाहाकार मचा जनता में दुश्मन हर्षाया था
अग्निदेव ने लीली काया पर मन भर आया था
लाल-लाल लपटें ज्वाला की कहती अमर रवानी
युग-युग पीढ़ी दर पीढ़ी दुहराकर अमर कहानी
सिमट जायेंगे निज सीमा में आंग्ल सैन्य दल भक्षक
देश विश्व का नायक होगा मानवता का रक्षक
शीश झुककर कुंवर सिंह की कीर्ति कथा गाएगी
भारत माता सुने-हँसेगी, आँखें भर आएँगी
***
मुक्तक सलिला :
.
हमसे छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं
दूर जाते भी नहीं, पास बुलाते भी नहीं
इन हसीनों के फरेबों से खुदा भी हारा-
गले लगते भी नहीं और लगाते भी नहीं
*
पीठ फेरेंगे मगर मुड़ के फिर निहारेंगे
फेर नजरें यें हसीं दिल पे दिल को वारेंगे
जीत लेने को किला दिल का हौसला देखो-
ये न हिचकेंगे 'सलिल' तुमपे दिल भी हारेंगे
*
उड़ती जुल्फों में गिरफ्तार कभी मत होना
बहकी अलकों को पुरस्कार कभी मत होना
थाह पाओगे नहीं अश्क की गहराई की-
हुस्न कातिल है, गुनाहगार कभी मत होना
***
सामयिक गीति रचना
देव बचाओ
*
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
पाला-पोसा, लिखा-पढ़ाया
जिसने वह समाज पछताये
दूध पिलाकर जिनको पाला
उनसे विषधर भी शर्माये
रुपया इनकी जान हो गया
मोह जान का इन्हें न व्यापे
करना इनका न्याय विधाता
वर्षों रोगी हो पछताये
रिश्ते-नाते
इन्हें न भाते
इनकी अकल ठिकाने लाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
बैद-हकीम न शेष रहे अब
नीम-हकीम डिगरियांधारी
नब्ज़ देखना सीख न पाये
यंत्र-परीक्षण आफत भारी
बीमारी पहचान न पायें
मँहगी औषधि खूब खिलाएं
कैंची-पट्टी छोड़ पेट में
सर्जन जी ठेंगा दिखलायें
हुआ कमीशन
ज्यादा प्यारा
हे हरि! इनका लोभ घटाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
इसके बदले उसे बिठाया
पर्चे कराया कर, नकल करी है
झूठी डिग्री ले मरीज को
मारें, विपदा बहुत बड़ी है
मरने पर भी कर इलाज
पैसे मांगे, ये लाश न देते
निष्ठुर निर्मम निर्मोही हैं
नाव पाप की खून में खेते
देख आइना
खुद शर्मायें
पीर हारें वह राह दिखाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
***
नवगीत:
*
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
कौन किसी का
कभी हुआ है?
किसको फलता
सदा जुआ है?
वही गिरा
आखिर में भीतर
जिसने खोदा
अंध कुआ है
बिन देखे जो
कूद रहा निश्चित
है गिर पड़ना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
चोर-चोर
मौसेरे भाई
व्यापारी
अधिकारी
जनप्रतिनिधि
करते जनगण से
छिप-मिलकर
गद्दारी
लोकतंत्र को
लूट रहे जो
माफ़ नहीं करना.
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
नाग-साँप
जिसको भी
चुनिए चट
डंस लेता है
सहसबाहु
लूटे बिचौलिया
न्याय न
देता है
ज़िंदा रहने
खातिर हँसकर
सीखो मर मरना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
***
नवगीत:
*
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
कब, क्या, कहाँ,
किस तरह होता?
किसको कौन बताये?
नहीं किसी से
कोई पूछे
और न टांग अड़ाये
नफरत का
गायब नकाब है
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
जब जो जहाँ
घटे या जुड़ता
क्रम नित नया बनाये
अटके-भटके,
गिरे-उठे-बढ़
मंजिल पग पा जाए
मेहनत का
उड़ता उकाब है
.
भोजन जीव
जीव का होता
भोज्य न शिकवा करता
मारे-खाये
नहीं जोड़ या
रिश्वत लेकर धरता
पाप न कुछ
सब कुछ
सबाब है.
१४-५-२०१५
***
भारत के बारे में रोचक तथ्‍य .
१. भारत ने अपने आखिरी १.००.००० वर्षों के इतिहास में किसी भी देश पर हमला नहीं किया है।
२. जब कई संस्कृतियों में ५००० साल पहले लोग घुमंतू वनवासी थे, तब भारतीयों ने सिंधु घाटी (सिंधु घाटी सभ्यता) में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना की।
३. भारत का अंग्रेजी में नाम ‘इंडिया’ इं‍डस नदी से बना है, जिसके आसपास की घाटी में आरंभिक सभ्‍यताएं निवास करती थीं। आर्य पूजकों में इस इंडस नदी को सिंधु नाम दिया था।
४. ईरान से आए आक्रमणकारियों ने सिंधु को हिन्दू की तरह प्रयोग किया। ‘हिंदुस्तान’ नाम सिंधु और हिंदु का संयोजन है, जो कि हिंदुओं की भूमि के संदर्भ में प्रयुक्त होता है।
५. शतरंज की खोज भारत में की गई थी।
६. बीज गणित, त्रिकोणमिति और कलन (कैलकुलस) का अध्‍ययन भारत में ही आरंभ हुआ था।
७. ‘स्‍थान मूल्‍य प्रणाली’ और 'दशमलव प्रणाली' का विकास भारत में १०० ई.पू. में हुआ था।
८. विश्‍व का प्रथम ग्रेनाइट मंदिर तमिलनाडु के तंजौर में बृहदेश्‍वर मंदिर है। इस मंदिर के शिखर ग्रेनाइट के ८० टन के टुकड़ों से बने हैं। यह भव्‍य मंदिर राजाराज चोल के राज्‍य के दौरान केवल ५ वर्ष की अवधि में (१००४ एडी और १००९ एडी के दौरान) निर्मित किया गया था।
९. भारत विश्‍व का सबसे बड़ा लोकतंत्र और विश्‍व का सातवां सबसे बड़ा देश तथा प्राचीन सभ्‍यताओं में से एक है।
१०. सांप सीढ़ी का खेल तेरहवीं शताब्‍दी में कवि संत ज्ञानदेव द्वारा तैयार किया गया था इसे मूल रूप से मोक्षपट कहते थे। इस खेल में सीढ़ियां वरदानों का प्रतिनिधित्‍व करती थीं जबकि सांप अवगुणों को दर्शाते थे। इस खेल को कौड़ियों तथा पांसे के साथ खेला जाता था। आगे चल कर इस खेल में कई बदलाव किए गए, परन्‍तु इसका अर्थ वही रहा अर्थात अच्‍छे काम लोगों को स्‍वर्ग की ओर ले जाते हैं, जबकि बुरे काम दोबारा जन्‍म के चक्र में डाल देते हैं।
११. दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट का मैदान हिमाचल प्रदेश के चायल नामक स्‍थान पर है। इसे समुद्री सतह से २४४४ मीटर की ऊंचाई पर भूमि को समतल बना कर १८९३ में तैयार किया गया था।
१२. भारत में विश्‍व भर से सबसे अधिक संख्‍या में डाक खाने (पोस्ट ऑफिस) स्थित हैं।
१३. भारतीय रेल देश का सबसे बड़ा नियोक्ता है। यह दस लाख से अधिक लोगों को रोजगार प्रदान करता है।
१४. विश्‍व का सबसे प्रथम विश्‍वविद्यालय ७०० ई.पू। में तक्षशिला में स्‍थापित किया गया था। इसमें ६० से अधिक विषयों में १०.५०० से अधिक छात्र दुनियाभर से आकर अध्‍ययन करते थे। नालंदा विश्‍वविद्यालय चौथी शताब्‍दी में स्‍थापित किया गया था, जो शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन भारत की महानतम उपलब्धियों में से एक है।
१५. आयुर्वेद मानव जाति के लिए ज्ञात सबसे आरंभिक चिकित्‍सा शाखा है। शाखा विज्ञान के जनक माने जाने वाले चरक ने २५०० वर्ष पहले आयुर्वेद का समेकन किया था।
१६. भारत १७वीं शताब्‍दी के आरंभ तक ब्रिटिश राज्‍य आने से पहले सबसे सम्‍पन्‍न देश था। क्रिस्‍टोफर कोलम्‍बस भारत की सम्‍पन्‍नता से आकर्षित हो कर भारत आने का समुद्री मार्ग खोजने चला और उसने गलती से अमेरिका को खोज लिया।
१७. नौवहन की कला और नौवहन का जन्‍म ६००० वर्ष पहले सिंधु नदी में हुआ था। दुनिया का सबसे पहला नौवहन संस्‍कृ‍त शब्‍द नावा गाठी से उत्‍पन्‍न हुआ है। शब्‍द नौसेना भी संस्‍कृत शब्‍द नोउ से हुआ।
१८. भास्‍कराचार्य ने खगोलशास्‍त्र के जन्म लेने से कई सौ साल पहले पृथ्‍वी द्वारा सूर्य के चारों ओर चक्‍कर लगाने में लगने वाले सही समय की गणना की थी। उनकी गणना के अनुसार सूर्य की परिक्रमा में पृथ्‍वी को ३६५.२५८७५६४८४ दिन का समय लगता है।
१९. भारतीय गणितज्ञ बुधायन द्वारा 'पाई' का मूल्‍य ज्ञात किया गया था और उन्‍होंने जिस संकल्‍पना को समझाया उसे पाइथागोरस का प्रमेय करते हैं। उन्‍होंने इसकी खोज छठवीं शताब्‍दी में की, जो यूरोपीय गणितज्ञों से काफी पहले की गई थी।
२०. चतुष्‍पद समीकरण का उपयोग ११ वीं शताब्‍दी में श्रीधराचार्य द्वारा किया गया था। ग्रीक तथा रोमनों द्वारा उपयोग की गई की सबसे बड़ी संख्‍या १०६ थी जबकि हिन्‍दुओं ने १० की घात ५३, के साथ विशिष्‍ट नाम ५००० बीसी के दौरान किया। आज भी उपयोग की जाने वाली सबसे बड़ी संख्‍या टेरा: १० की घात १२ है।
२१. वर्ष १८९६ तक भारत विश्‍व में हीरे का एक मात्र स्रोत था। (स्रोत: जेमोलॉजिकल इंस्‍टी‍ट्यूट ऑफ अमेरिका)
२२. बेलीपुल विश्‍व‍ में सबसे ऊंचा पुल है। यह हिमाचल पर्वत में द्रास और सुरु नदियों के बीच लद्दाख घाटी में स्थित है। इसका निर्माण अगस्‍त १९८२ में भारतीय सेना द्वारा किया गया था।
२३. महर्षि सुश्रुत को शल्‍य चिकित्‍सा का जनक माना जाता है। लगभग २६०० वर्ष पहले सुश्रुत और उनके सहयोगियों ने मोतियाबिंद, कृत्रिम अंगों को लगना, शल्‍य क्रिया द्वारा प्रसव, अस्थिभंग जोड़ना, मूत्राशय की पथरी, प्‍लास्टिक सर्जरी और मस्तिष्‍क की शल्‍य क्रियाएं आदि कीं।
२४. निश्‍चेतक का उपयोग भारतीय प्राचीन चिकित्‍सा विज्ञान में भली भांति ज्ञात था। शारीरिकी, भ्रूण विज्ञान, पाचन, चयापचय, शरीर क्रिया विज्ञान, इटियोलॉजी, आनुवांशिकी और प्रतिरक्षा विज्ञान आदि विषय भी प्राचीन भारतीय ग्रंथों में पाए जाते हैं
२५. भारत से ९० देशों को सॉफ्टवेयर का निर्यात किया जाता है।
२६. भारत में ४ धर्मों का जन्‍म हुआ - हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म और जिनका पालन दुनिया की आबादी का २५ प्रतिशत हिस्‍सा करता है।
२७. जैन धर्म और बौद्ध धर्म की स्‍थापना भारत में क्रमश: ६०० बीसी और ५०० बीसी में हुई थी।
२८. इस्‍लाम भारत का और दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा धर्म है।
२९. भारत में ३,००,००० मस्जिदें हैं जो किसी अन्‍य देश से अधिक हैं, यहां तक कि मुस्लिम देशों से भी अधिक।
३०. भारत में सबसे पुराना यूरोपियन चर्च और सिनागोग कोचीन शहर में है। इनका निर्माण क्रमश: १५०३ और १५६८ में किया गया था।
३१. ज्‍यू (यहूदी) और ईसाई व्‍यक्ति भारत में क्रमश: २०० बीसी और ५२ एडी से निवास करते आए हैं।
३२. विश्‍व में सबसे बड़ा धार्मिक भवन अंगकोरवाट, का हिन्‍दू मंदिर है जो कम्‍बोडिया में ११ वीं शताब्‍दी के दौरान बनाया गया था।
३३. तिरुपति शहर में बना विष्‍णु मंदिर १० वीं शताब्‍दी के दौरान बनाया गया था, यह विश्‍व का सबसे बड़ा धार्मिक स्थल है। रोम या मक्‍का धार्मिक स्‍थलों से भी बड़े इस स्‍थान पर प्रतिदिन औसतन ३० हजार श्रद्धालु आते हैं और लगभग ६ मिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति दिन चढ़ावा आता है।
३४. सिख धर्म का उद्भव पंजाब के पवित्र शहर अमृतसर में हुआ था। यहां प्रसिद्ध स्‍वर्ण मंदिर की स्‍थापना १५७७ में गई थी।
३५. वाराणसी, जिसे बनारस के नाम से भी जाना जाता है, एक प्राचीन शहर है जब भगवान बुद्ध ने ५०० बीसी में यहां आगमन किया और यह आज विश्‍व का सबसे पुराना और निरंतर आगे बढ़ने वाला शहर है।
३६. भारत द्वारा श्रीलंका, तिब्‍बत, भूटान, अफगानिस्‍तान और बांग्‍लादेश के ३,००,००० से अधिक शरणार्थियों को सुरक्षा दी जाती है, जो धार्मिक और राजनैतिक अभियोजन के फलस्‍वरूप वहां से निकाले गए हैं।
३७. माननीय दलाई लामा तिब्‍बती बौद्ध धर्म के निर्वासित धार्मिक नेता है, जो उत्तरी भारत के धर्मशाला में अपने निर्वासन में रह रहे हैं।
३८. युद्ध कलाओं का विकास सबसे पहले भारत में किया गया और ये बौद्ध धर्म प्रचारकों द्वारा पूरे एशिया में फैलाई गई।
३९. योग कला का उद्भव भारत में हुआ है और यह ५,००० वर्ष से अधिक समय से मौजूद है।
४०. संख्या प्रणाली भारत द्वारा आविष्कार किया गया था। आर्यभट्ट नामक वैज्ञानिक ने अंक शून्य का आविष्कार किया था।
४१.संस्कृत सभी उच्च भाषाओं की जननी माना जाता है क्योंकि यह कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए सबसे सटीक है और इसलिए उपयुक्त भाषा है।

विमर्श

भाषा हिंदी लिपि रोमन ???
पिछले दिनों एक संगोष्ठी में जाना हुआ । एक प्रतिभागी का कहना था कि हिंदी को रोमन लिपि में लिखने से हमें परहेज नहीं करना चाहिए, बल्कि इसका स्वागत किया जाना चाहिए । उन्होंने तर्क भी दिए कि एसएमएस, कंप्यूटर, इंटरनेट में रोमन लिपि के सहारे हिंदी लिखने में आसानी होती है । इसलिए समय की जरूरत के मुताबिक इस बात पर जोर देना हमें बंद करना चाहिए कि हिंदी को हम देवनागरी लिपि में लिखें । उन्होंने यह भी कहा कि आजकल फिल्मों की स्क्रिप्ट, नाटकों की स्क्रिप्ट, नेताओं के भाषण के साथ-साथ सरकारी कार्यालयों में उच्च अधिकारियों के सम्बोधन – अभिभाषण आदि के लिए लिखे जाने वाले वक्तव्य रोमन लिपि में लिखे होते हैं । देवनागरी में टाइप करने में समय अधिक लगता है । टाइप करना कठिन भी है । रोमन में मोबाइल में भी लिखना सरल है । इसलिए रोमन लिपि में हिंदी लिखने से हिंदी का प्रचार तेजी से होगा । सरसरी तौर पर ये बातें जंचती हुई लग सकती हैं । परन्तु यदि हम इन्हें इतिहास, समाज और भाषायी संस्कृति के पहलुओं पर विचार करते हुए देखें तो कई महत्वपूर्ण बातें सामने आती हैं जिनको नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता । किया तो इतिहास को झुठलाना होगा ।
वस्तुत: भाषा एक सदा विकसित होने वाले और बदलने वाला क्रियाकलाप है जिसके पीछे सबसे बड़ा योगदान उस भाषा के मूलभाषियों का होता है । हिंदी भाषा उसका अपवाद नहीं है । हो भी नहीं सकती । हालांकि यह भी उतना ही सत्य और खरा है कि हिंदी को विकसित करने में हिंदीतर लोगों की बहुत बड़ी भूमिका है । दक्षिण भारत के भाषा-भाषियों के मध्य हिंदी का प्रचार-प्रसार इन हिंदीतर भाषियों की साधना का ही प्रतिफल है । बहरहाल, भाषा विज्ञान कहता है कि किसी भाषा का प्रसार तथा चरित्र उस भाषा का उपयोग करने वाले लोगों द्वारा लगातार परिभाषित और पुन: परिभाषित होते रहने में निहित है । औपनिवेशिक अतीत वाले क्षेत्रों में उपनिवेशकों की भाषा के शब्दों को भी खुलकर अपनाया जाता है । भारत के साथ भी ऐसा ही है । जापान, क्यूबा, तुर्की, निकारागुआ, फ्रांस, जर्मनी आदि जैसे विश्व के कई देशों के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही है । इसलिए अधिकांश देशों ने उपनिवेशवाद से मुक्ति मिलते ही अपनी मूल भाषा के उपयोग के वास्ते कमर कस ली । नतीजा सामने है । न क्यूबा में अंग्रेजी या अन्य औपनिवेशिक भाषा में कामकाज होता है, न जापान, फ्रांस, जर्मनी, वियतनाम, पोलैंड आदि देशों में । भले ही, कामकाज सरकारी हो या निजी कंपनियों में । तुर्की के उदाहरण से तो हम सब वाकिफ हैं ।
मुस्तफा कमाल पाशा ने तुर्की के औपनिवेशिक दासता से छुटकारे के तुरंत बाद पूरे देश में तुर्की के इस्तेमाल और व्यवहार का फरमान जारी कर दिया । यह हम और हमारा भारतीय समाज ही है जो स्वाधीनता के ७५ वर्ष बाद आज भी इसी एक मुद्दे पर रस्साकशी में जुटे हैं । आपको याद होगा एक नाम डॉ. दौलत सिंह कोठारी का । देश के ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक, शिक्षाविद और नीति नियंता थे वे । उन्हें देश की शिक्षा व्यवस्था और प्रशासन के बारे में गहराई तक समझ थी । उनका हमेशा यह मानना रहा कि जिन नौकरशाहों को इस देश की भाषाएं नहीं आतीं, भारतीय साहित्य और संस्कृति का ज्ञान नहीं है, उन्हें भारत सरकार में शामिल होने का कोई हक नहीं है । उन्होंने कहा था कि साहित्य ही समाज को समझने की दृष्टि देता है ।
उनके निर्देशन में ही शिक्षा के संबंध में कोठारी समिति का गठन भारत सरकार ने किया था और उनकी सिफारिशों पर ही वर्ष १९७९ से सभी प्रशासनिक सेवाओं में पहली बार अपनी भाषाओं में लिखने की छूट मिली । इसके अद्भुत परिणाम देखने को मिले । परीक्षा में बैठने वालों की संख्या एकबारगी ही दस गुना बढ़ गई । गरीब घरों के मेधावी छात्र आई.ए.एस. बनने लगे । आदिवासी, अनुसूचित जाति की पहली पीढ़ी के बच्चे प्रशासनिक सेवाओं में चुने गए । रिक्शाचालक का लड़का भी आई.ए.एस. बन सका और दूसरे के घरों में काम करने वाली की लड़की भी । वरना १९७९ से पहले सिर्फ धनाढ्य अंग्रेजीदां के सुपुत्र – सुपुत्रियां ही जिलाधीश की कुर्सियों पर काबिज़ हो पाती थीं । संविधान में समानता के इसी आदर्श तक पहुंचने की लालसा हमारे संविधान – निर्माताओं के मन में थी । यद्यपि वर्ष २०१३ की शुरूआत में इस पध्दति को बदलने की कोशिश की गई । एक डर सा छा गया देश के असंख्य युवक-युवतियों के मन में । संसद में बहस हुई और सिविल सेवाओं में भारतीय भाषाओं का परीक्षा का माध्यम बनाए रखने की पध्दति पूर्ववत रखने का फैसला ले लिया गया । यह सुखद और सुकुन भरा पक्ष रहा ।
शब्दों से प्रगाढ़ता बनाता शब्दों को आसान :
लेकिन फिर वह मसला ज्यों-का-त्यों रह जाता है कि हिंदी के लिए रोमन लिपि के इस्तेमाल के क्या-क्या खतरे हैं । महज इस वजह से कि हमें मोबाइल पर टाइप करते वक्त रोमन का प्रयोग सरल लगता है, रोमन लिपि की तरफदारी नहीं की जा सकती । यह विषय वस्तुपरक (सब्जेक्टिव) भी है । जो कार्य किसी एक के लिए आसान हो सकता है, वही दूसरे के लिए कठिन और दुरूह भी हो सकता है । ये दोनों स्थितियां व्यक्ति की क्षमता, योग्यता, उम्र, परिवेश, संस्कार और कौशल आदि कई गुण-दोषों पर निर्भर करती हैं । वैसे भी, अब एंड्राइड फोनों और कम्प्यूटरों दोनों जगह देवनागरी की वर्णमाला स्क्रीन पर एक क्लिक पर डिस्पले हो जाती है । आप हर चौकोर खाने की उंगली से छूते जाएं, टेक्स्ट टाइप होता जाएगा । कहां क्या परेशानी है ? इस संगोष्ठी में ही एक युवा अपने एंड्राइड फोन पर इस सुविधा को प्रदर्शित करते हुए सभी के समक्ष देवनागरी लिपि की पैरवी करता हुआ दिखा । यह देखकर युवा वर्ग पर लगने वाला यह आरोप भी खारिज़ होता है कि अंग्रेजी की मुख़़ालफत करने वाला वर्ग युवा वर्ग है । हिंदी में सरकारी कामकाज को कई लोग कठिन मानते हैं ।
उच्च शिक्षा हिंदी या मातृभाषा में नहीं प्राप्त की जा सकती, न ही, विज्ञान और तकनीकी संबंधी ज्ञान अंग्रेजी के इतर भारतीय भाषाओं में हासिल नहीं की जा सकती - यह मानना सिरे से मिथ्या है ; कारण यह कि जापान, चीन और दोनों कोरियाई देश, जर्मनी और यहां तक इजरायल भी अंग्रेजी में शिक्षा प्रदान नहीं करते हैं जबकि दुनिया में ये देश तकनीकी प्रगति के प्रणेता माने जाते हैं ।
इस संदर्भ में 'सरल' और 'कठिन' पर थोड़ी चर्चा जरूरी है । भाषा के बनावटीपन को छोड़ दें (जैसे, ट्रेन के लिए 'लौहपथगामिनी' या ट्रैफिक सिग्नल के लिए 'यातायात संकेतक' का प्रयोग) तो क्या सरल है और क्या कठिन, यह अक्सर उपयोग की बारम्बारता पर निर्भर करता है । बार-बार उपयोग से शब्दों से परिचय प्रगाढ़ हो जाता है और वे शब्द हमें आसान प्रतीत होने लगते हैं । जैसे 'रिपोर्ट' के लिए महाराष्ट्र में 'अहवाल' शब्द लोकप्रिय है लेकिन उत्तर प्रदेश में 'आख्या' का प्रयोग होता है । बिहार में 'प्रतिवेदन' का, तो कई अन्य जगह देवनागरी में 'रिपोर्ट' ही लिखी जाती है । उर्दू में पर्यायवाची शब्द है रपट । इसी तरह 'मुद्रिका (दिल्ली की बस सेवा में प्रयुक्त शब्द), विश्वविद्यालय, तत्काल सेवा, पहचान पत्र प्रचलित शब्द हैं गरज़ कि ये संस्कृत मूल शब्द हैं । स्कूली छात्र – छात्राओं के लिए बीजगणित (Algebra), अंकगणित (Arithmetic), ज्यामिति (Geometry), वाष्पीकरण (Veporisation) आदि संस्कृत मूल शब्द आसान हैं, क्योंकि प्रयोग की बारम्बरता यहां लागू होती है । क्वथनांक, गलनांक, घनत्व, रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र, सिध्दांत, गुणनफल, विभाज्यता नियम, समुच्चय सिध्दांत, बीकर, परखनली, कलन शास्त्र आदि भी ऐसे ही शब्द हैं । इनका प्रथम प्रयोग दुरूह प्रतीत हो सकता है, पर निरंतर प्रयोग इन्हें हमारे लिए सरल बना देता है ।
अन्य भारतीय भाषाओं के साथ तालमेल जरूरी
अंग्रेजी के पैरोकारों का मानना है कि अंग्रेजी समृध्द भाषा है, अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क-भाषा है । शेक्सपीयर, मिल्टन और डारविन जैसे मनिषियों ने उसमें अपनी रचनाएं की हैं । ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया में अंग्रेजी बोली जाती है, इस बात को स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं है । लेकिन अंग्रेजी एकमात्र समृध्द भाषा है, सत्य नहीं है । ऐसा ही होता तो कम्प्यूटर के मसीहा कहे जाने वाले अमेरिकी निवासी बिल गेट्स अधिकारिक और सार्वजनिक रूप से यह नहीं कहते कि संस्कृत कम्प्यूटर के लिए सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा और इसकी देवनागरी लिपि सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है ।
प्रसंगवश यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि यूरोपीय देशों में अंग्रेजी का प्रसार उसकी समृध्दि के कारण नहीं हुआ । उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि देशों में लाखों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है, उनकी जमीन छीन ली गई है, वहां की जनता को गुलाम बनाकर बेचा गया है और आज भी कई समुदाय गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं । यूरोपीय भाषाओं के बारे में एक भ्रान्त धारणा यह भी है कि उन सभी में अन्तरराष्ट्रीय शब्दावली प्रचलित है । अंग्रेजी की हिमायत करने वालों के पास एक तर्क यह भी है । लेकिन सत्य यह है कि अंग्रेजी सहित इन सभी यूरोपीय भाषाओं के पास पारिभाषिक शब्दावली गढ़ने के लिए कोई एक निश्चित स्त्रोत नहीं है । वे लैटिन से शब्द गढ़ती हैं । फ्रेंच, इतालवी के लिए यह स्वाभाविक है, क्योंकि वे लैटिन परिवार की हैं । यूरोप की भाषाएं ग्रीक के आधार पर शब्द बनाती हैं, क्योंकि यूरोप का प्राचीनतम साहित्य ग्रीक में है और वह बहुत सम्पन्न भाषा रही है । जर्मन, रूसी भाषाएं बहुत से पारिभाषिक शब्द अपनी धातुओं या मूल शब्द भंडार के आधार पर बनती हैं ।
जिस भाषा के पास अपनी धातुएं हैं और उपयुक्त मूल शब्द होंगे, वह भाषा समृध्द होगी । उसे ग्रीक या लैटिन या किसी अन्य भाषा से उधार लेने की जरूरत नहीं । संस्कृत, हिंदी और भारत की अन्य भाषाओं, विशेषतया दक्षिण भारत की मलयालम, तमिल और कन्नड जैसी शास्त्रीय भाषाएं तथा महाराष्ट्र की मराठी (मराठी को देश की छठी शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने के बाबत गठित अध्ययन समिति ने अपनी अनुशंसा दे दी है) के पास धातु-शब्दों का भंडार है । अंग्रेजी में अपने घर की पूंजी कुछ नहीं है । ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच, फारसी, संस्कृत और हिंदी से उधार माल को अंग्रेजी में अंग्रेजी शब्द कहकर खपाया जाता है । बैंक, रेस्तरां, होटल, आलमीरा, लालटेन, जंगल, पेडस्टल ('पदस्थली' से बना) ऐसे ही चंद शब्द हैं जो मिसाल के लिए काफी हैं । एक तथ्य और है । धार्मिक कारणों से ब्रिटेन में ग्रीक की अपेक्षा लैटिन अधिक पढ़ी जाती रही है । इसलिए ग्रीक शब्दों के आधार पर बनी शब्दावली अधिक गौरवमयी समझी जाती है । हिंदी की बात करें तो इस भाषा में कई पारिभाषिक शब्दों का निर्माण हो चुका है ।
कई विद्वान निजी तौर पर पारिभाषिक शब्दों का निर्माण करते रहे हैं । अज्ञेय ने फ्रीलांस के लिए 'अनी-धनी' शब्द गढ़ा, हालांकि यह शब्द चला नहीं । भारत सरकार के अधीन कार्यरत वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग इस दिशा में सक्रिय रूप से कार्यरत रहते हुए हिंदी और अन्य मुख्य भारतीय भाषाओं में तकनीकी शब्दावली, शब्दार्थिकाओं, पारिभाषिक शब्दकोशों और विश्वकोशों का निर्माण करती रही है जिनमें सभी विज्ञानों, सामाजिक विज्ञानों और मानविकी विषयों को तथा प्रशासनिक लेखन से संबंधित शब्दावली को सम्मिलित किया गया है । हिंदी को आधुनिक
अकादमिक विमर्श और ज्ञान मीमांसा
के नए क्षेत्र के हिसाब से सक्षम करने के लिए लाखों नए शब्द हिंदी में निर्मित किए गए हैं और यह प्रक्रिया अनवरत जारी है । देश की सामासिक संस्कृति (composite culture) को ध्यान में रखते हुए इतर भारतीय भाषाओं के लोकप्रिय और व्यावहारिक प्रयोग के शब्द हिंदी में शामिल किए जाते हैं । जैसे 'tomorrow' और 'note' के लिए मराठी शब्द क्रमश: 'उद्या' एवं 'नोंद' का प्रयोग महाराष्ट्र में लिखी जाने वाली हिंदी में देखने को मिलता है । क्योंकि यह आवश्यक और उपयुक्त प्रतीत नहीं होता कि हम नए पारिभाषिक शब्द बनाते समय हमेशा संस्कृत शब्दों का सहारा लें जैसा कि विगत में अक्सर होता रहा है, भले ही इतर भाषाओं, उर्दू, हिंदी तथा अंग्रेजी के लोकप्रिय शब्दों या 'बोलियों' के रूप में जाने जानी वाली भाषाओं में बेहतर विकल्प मौजूद हों जिनका भाषा के मुहावरे के साथ अच्छा तालमेल हो और समझने में भी आसान हो ।
ज्ञानार्जन की दृष्टि से, विशेषतया अध्ययन – अध्यापन – शोध – शिक्षण – प्रशिक्षण के क्षेत्रों में 'मानक' और संस्कृतनिष्ठ शब्दों की बजाय समझ में आने वाले स्पष्ट व उपयुक्त शब्दों का उपयोग श्रेयस्कर सिध्द हुआ है । कई अंग्रेजी तकनीकी शब्द भी हूबहू देवनागरी लिपि में लिखना प्रेरक और सफल रहा है । आई. टी. से जुड़े कई शब्द यथा, कम्प्यूटर, माउस, हैंग हो जाना, प्रिंटर, टेबलेट, फोल्डर, डेस्कटॉप, एप्लिकेशन, इंस्टॉल करना, इनबॉक्स, अपलोड, डाउनलोड, ट्रैश, स्पैम, स्क्रीन आदि कुछ ऐसे ही शब्द हैं । यह जरूरी है कि हिंदी में गरिमा और मानक के नाम पर अड़ियलपन और निरर्थक जटिलता के बंधनों को हटा दें । लोकप्रिय शब्दों को प्रयोग में लाएं पर सामासिक संस्कृति के हिसाब से, न कि सतही, अल्पकालिक और त्वरित उपाय ढूंढ़ने चाहिए । ऐसा न हो कि हिंदी में मानकीकरण और एकरूपता की धारणा पर हम ज्यादा ही जोर देने लगें । ऐसा होने पर अस्वाभाविक और बनावटी भाषा विकसित हो जाती है जो किसी भी मूलभाषी के भाषा भंडार का हिसाब नहीं होती । विख्यात हिंदी साहित्यकार कमलेश्वर ने कहा था - 'हिंदी तब तक विकसित नहीं हो सकती, जबतक कि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ उसका गहरा संबंध नहीं बनेगा' । – यदि हमें हिंदी को बचाना है तो निश्चितरूप से क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हमें तालमेल को विकसित करना होगा ।
दफ्तर में आते ही हिंदी भाती नहीं
एक दिलचस्प बात यह है कि जब हम सहज होते हैं, मनोरंजन की दुनिया में होते हैं, गाने सुनते हैं, ग़ज़ल-गीत सुनते हैं, फिल्में या टी.वी. धारावाहिक देखते हैं, या फिर बाजार में मोलभाव कर रहे होते हैं तब तो बड़े चाव से हिंदी का सहारा ले रहे होते हैं, लेकिन ज्योंही कार्यालयों में - सरकारी संस्थानों में प्रवेश होता है तो हिंदी लिखने में हमें शर्म महसूस होने लगती है या हाथ कांपने लगते हैं । कोई 'टाइपिंग नहीं आती' का रोना रोने लगते हैं, तो कोई 'जल्दी है' कहकर पीछा छुड़ाने लगते हैं । यह भी प्राय: सुनने को मिलता है कि हिंदी के शब्द जानने के वास्ते हमारे पास 'डिक्शनरी-ग्लॉसरी' नहीं है । पर मूल मुद्दा हमेशा एक ही रहता है - हिंदी लिखने में आत्मविश्वास की कमी । अंग्रेजी लिखने में हम बनावटी दंभ महसूस करते हैं, बस । जब आप अपनी कलम से किसी कागज पर या बैंक या रेल आरक्षण काउंटर पर फॉर्म भरते वक्त नाम लिखते हैं तो किसी टाइपिंग कला या कम्प्यूटर ज्ञान की जरूरत होती है ? किसी शब्दकोश – शब्दावली की आवश्यकता होती है ? फिर आपकी कलम की स्याही अंग्रेजी की तरफ क्यों बढ़ती है ? साफ है, या तो आप में आत्मविश्वास का अभाव है या आप अंग्रेजी के आतंक में हैं। पर यह स्पष्ट है कि तकनीक और शब्दकोशों से ज्यादा जरूरत हमें इच्छाशक्ति की है।
भारत के विख्यात वैज्ञानिक व एकमात्र जीवित आविष्कारक और हिंदी में वैज्ञानिक उपन्यास लिखकर चर्चित हुए डॉ. जयंत नार्लिकर से यह पूछे जाने पर जब वैज्ञानिक लेखन करते वक्त मौलिक चिंतन की आवश्यकता महसूस हुई तब क्या आपने अंग्रेजी भाषा में ही सोचा, उन्होंने कहा - 'यह संभव ही नहीं था' । उस समय मातृभाषा के अतिरिक्त किसी भी भाषा ने मेरी मदद नहीं की और न ही कर सकती थी । फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकोई मितरां से जब पूछा गया कि आप अपने देश में फ्रेंच भाषा को अंग्रेजी की बनिस्पत अधिक तरज़ीह क्यों देते हैं, राष्ट्रपति मितरां ने कहा कि क्योंकि हमें अपने सपने साकार करने हैं । जब हम सपने अपनी भाषा में देखते हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए जो भी काम करेंगे उनके लिए अपनी ही भाषा का प्रयोग जरूरी होगा, पराई भाषा का नहीं ।
भाषा 'फोनेटिक' है तभी वैज्ञानिक है
बहरहाल, उसी संगोष्ठी में एक और सज्जन का कहना था कि भाषा फोनेटिक (ध्वनि पर आधारित) होती है । अर्थात – सुनने में जैसा लगे, भाषा वैसी ही होनी चाहिए और इस लिहाज से तो देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी , मराठी, संस्कृत आदि भाषाओं की ही जरूरत है और भविष्य भी इनका ही है । देवनागरी लिपि में 52 वर्णाक्षर होते हैं । पांच स्वर होते हैं । शेष व्यंजन होते हैं । स्वर वे होते हैं जिन्हें उच्चारित करने के लिए ओंठ और दांतों का सहारा नहीं लिया जाता है । स्वर आधारित राग-रागिनियां हैं हमारे शास्त्रीय संगीत में । फिर कवर्ग (क, ख, ग, घ), टवर्ग (ट, ठ, ड़, ढ) व तवर्ग (त, थ, द, ध) आदि हैं । कितना सूक्ष्म विश्लेषण है अक्षरों का, शब्दों के उच्चारण का । बड़ी ई', छोटी 'इ', छोटा 'उ', बड़ा 'ऊ' की मात्राओं से शब्दों के अर्थ कितने विस्तृत हो जाते हैं ! जैसे, 'दूर' से भौगोलिक दूरी की अभिप्राय होता है तो 'दुर' से तुच्छ वस्तु का अर्थ सामने आता है । इसी प्रकार 'सुख' आनंद का पर्याय है, जबकि 'सूख' से शुष्क या सूख (dry) जाने का बोध होता है । एक उदाहरण लें । यदि हमें 'डमरू' लिखना हो रोमन में तो हम 'dumru' या 'damroo' लिखेंगे । पर क्या पढ़ने वाला 'दमरू' नहीं पढ़ सकता है । 'ण', 'र' के प्रयोग तो हिंदी में विलुप्त ही होते जाते रहे हैं । रोमन में बेड़ा किस कदर गर्क होगा, अनुमान लगाया जा सकता है । और फिर 'क्ष', 'त्र', 'ज्ञ', 'त्र' का क्या - - - 'ड' और 'ड़' तथा 'ढ' और 'ढ़' का क्या करेंगे ? इन सबको हटा देंगे अपने व्याकरण से, अपने जेहन से ? सुविधा और आधुनिकता के नाम पर भविष्य में ऐसा हो जाए तो अचरज नहीं । फिर देवनागरी लिपि के ५२ वर्ण घटकर २५-२६ रह जाएंगे । कल्पना कीजिए, यदि ऐसा ही कुछ हो गया तो !
हमारे देश व पूरी दुनिया में विगत पचास वर्षों में कई भाषाएं और बोलियां विलुप्त हो गई हैं । अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तथा अरूणाचल प्रदेश में कई भाषाएं, बोलियां इन कारणों से लुप्त हो गईं कि कुछ की लिपियां न होने के कारण शिक्षण का माध्यम न बन सकीं और कुछ के बोलने वाले नहीं रहे । झारखण्ड में बोली जाने वाली 'हो', 'संताली', 'मुंडारी' आदि भाषाओं को अक्षुण्ण बनाने के लिए प्रयास तीव्र हो गए हैं, क्योंकि उनके प्रयोग करने वालों की संख्या लगातार घट रही है ।
दरअसल सारी परेशानियां गुरूतर तब हो गई जब कम्प्यूटर का भारत की धरती पर प्रवेश हुआ । अंग्रेजी भाषा के हिमायती नागरिकों ने कहना शुरू कर दिया कि हिंदी व दूसरी भारतीय भाषाओं का भविष्य खतरे में है । खुद कम्प्यूटर के प्रचालकों ने भी यह अफवाह फैलानी शुरू कर दी । धीरे-धीरे लोगों को यह समझ में आया कि कम्प्यूटर की तो अपनी कोई भाषा नहीं होती । यह तो डॉट (.) के रूपों को ही स्क्रीन पर प्रदर्शित करता है । फिर धीरे-धीरे, बल्कि कहें तो 21 वीं सदी में काफी तेजी से कम्प्यूटर ने इंसानी जीवन में दखल देना शुरू कर दिया । तब भी आरंभ के कुछ वर्षों तक भी अंग्रेजी को ही कम्प्यूटर की मित्र भाषा समझा गया । लेकिन धीरे-धीरे यह बात सामने आई कि कम्प्यूटर की दरअसल कोई भाषा नहीं होती है और अगर भाषा की कोई दरकार है अप्लिकेशंस को लेकर तो वह है देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली भाषाएं । मसलन हिंदी, मराठी, संस्कृत आदि । माइक्रोसॉफ्ट के जनक बिल गेट्स ने यह भी कहा है कि देवनागरी लिपि और इस लिपि में लिखी जाने वाली संस्कृत एवं हिंदी भाषाएं सर्वाधिक तार्किक और तथ्यपरक भाषाएं हैं ।
देवनागरी लिपि : श्रेष्ठ लिपि
आइए, यह भी जान लें कि हिंदी भाषा की लिपि 'देवनागरी कहां से और कैसे शुरू हुई; क्योंकि भारत की संविधान सभा ने भी १४ सितम्बर १९४९ को यह घोषणा आधिकारिक तौर पर की थी कि संघ की राजभाषा हिंदी होगी जिसकी लिपि देवनागरी होगी । वस्तुत: 'देवनागरी' लिपि नागरी लिपि का विकसित रूप है । ब्राम्ही लिपि का एक रूप 'नागरी लिपि' था । नागरी लिपि से ही 'देवनागरी लिपि' का विकास हुआ । अनेक प्राचीन शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों में ब्राह्मी लिपि प्रयुक्त हुई है । अशोक के शिलालेख भी ब्राह्मी लिपि में ही लिखे गये हैं । ईसा की चौथी शताब्दी तक समस्त उत्तर भारत में ब्राह्मी लिपि प्रचलित थी । ईसा -पूर्व पाँचवीं सदी तक के लेख ब्राह्मी लिपि में लिखे हुए उपलब्ध हुए हैं । इस प्रकार यह लिपि लगभग ढाई हज़ार वर्ष पुरानी है । इतनी प्राचीन होने के कारण इसे 'ब्रह्मा की लिपि' भी कहा गया है । यही भारत की प्राचीनतम मूल लिपि है, जिससे आधुनिक सभी भारतीय लिपियों का जन्म हुआ ।
ईसा-पूर्व पाँचवीं शताब्दी से लेकर ईसा के बाद चौथी शताब्दी तक के लेखों की लिपि ब्राह्मी रही है । मौर्य-काल में भारत की राष्ट्रीय लिपि 'ब्राह्मी' ही थी । इसके बाद ब्राह्मी लिपि दो रूपों में विभाजित हो गई – उत्तरी ब्राह्मी तथा दक्षिणी ब्राह्मी । उत्तरी ब्राह्मी प्रमुखत: विंध्याचल पर्वतमाला के उत्तर में प्रचलित रही तथा दक्षिणी ब्राह्मी विंध्याचल के दक्षिण में । 'उत्तरी ब्राह्मी' का आगे चलकर विविध रूपों नें विकास हुआ । उत्तरी ब्राह्मी से ही दसवीं शताब्दी में 'नागरी लिपि' विकसित हुई तथा नागरी लिपि से 'देवनागरी लिपि' का जन्म हुआ । उत्तर भारत की अधिकांश लिपियां, यथा, कश्मीरी, गुरूमुखी, राजस्थानी, गुजराती, बंगला, असमिया, उड़िया आदि भाषाओं की लिपियाँ नागरी लिपि का ही विकसित रूप हैं । यही कारण है कि देवनागरी लिपि तथा उक्त सभी लिपियों में अत्यधिक समानता है । 'दक्षिण ब्राह्मी' से दक्षिण भारतीय भाषाओं, य़था, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालय आदि भाषाओं की लिपियों का विकास हुआ । यद्यपि इन लिपियों का विकास भी मूलत: ब्राह्मी लिपि से ही हुआ है, तथापि देवनागरी लिपि से इनमें कुछ भिन्नता आ गई है ।
इन कारणों से देवनागरी लिपि है वैज्ञानिक
• यह लिपि विश्व की सभी भाषाओं की ध्वनियों का उच्चारण करने में सक्षम है । अन्य लिपियों में, विशेषकर विदेशी लिपियों में यह क्षमता नहीं है । जैसे अंग्रेजी में देवनागरी लिपि की महाप्राण ध्वनियों, कुछ अनुनासिक ध्वनियों आदि के लिए कोई उपयुक्त ध्वनि उपलब्ध नहीं है ।
• देवनागरी लिपि में जो लिखा जाता है, वही बोला जाता है और जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है । लिखने और बोलने में समानता के कारण इसे सीखना सरल है । विदेशी लिपियों में यह विशेषता नहीं है । अंग्रेजी में तो बिल्कुल ही नहीं ।
• देवनागरी लिपि में प्रत्येक वर्ण की ध्वनि निश्चित है । वर्णों की ध्वनियों में वस्तुनिष्ठता है, व्यक्तिनिष्ठता नहीं । अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण हर व्यक्ति अपने तरीके से करता है ।
• इस लिपि में एक वर्ण एकाधिक ध्वनियों के लिए प्रयुक्त नहीं होता । अत: किसी भी वर्ण के उच्चारण में कहीं भी भ्रम की स्थिति नहीं है । अंग्रेजी में एक ही वर्ण भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न रूप में उच्चारित होता है, अत: भ्रम की स्थिति रहती है ।
• देवनागरी लिपि में प्रत्येक प्रयुक्त वर्ण ध्वनि अवश्य देता है । चुप नहीं रहता । अंग्रेजी में कहीं-कहीं प्रयुक्त वर्ण चुप भी रहते हैं । जैसे, Budget में 'd' का उच्चारण नही होता । walk और knife में क्रमश: l और k चुप रहते हैं । कैसी विडम्बना है कि जिन वर्णों का सृजन ध्वनि देने के लिए किया गया है, भावों की सम्प्रेषणीयता के लिए किया गया है, उन्हें प्रयुक्त होने के बाद भी चुप रहना पड़ता है ।
• देवनागरी लिपि में ध्वनियों को अधिकाधिक वैज्ञानिकता प्रदान करने के लिए स्वरों तथा व्यंजनो की पृथक-पृथक वर्णमाला निर्मित की गई है ।
• स्वरों के उच्चारण के समय जैसी मुख की आकृति होती है, वैसी ही आकृति सम्बन्धित वर्ण की होती है । जैसे - 'अ' का उच्चारण करते समय आधा मुख खुलता है । 'आ' की रचना पूरा मुख खुलने के समान है । 'उ' का आकार मुख बंद होने की तरह है । 'औ' में दो मात्राएँ मुख के दोनों जबड़ों के संचालन के समान हैं ।
• स्वरों की ध्वनियों की वैज्ञानिकता यह है कि बच्चा पैदा होने के बाद स्वरों के उच्चारण क्रम में ही होते हैं ।
• स्वरों के उच्चारण में हवा कंठ से निकल कर उच्चारण स्थानों को बिना स्पर्श किये, बिना अवरूध्द हुए, ध्वनि करती हुई मुख से बाहर निकलती है ।
• व्यंजनों के उच्चारण में हवा कंठ से निकलकर उच्चारण-स्थानों को स्पर्श करती हुई या घर्षण करती हुई, ध्वनि करती हुई, ओठों तक होती हुई मुख या मुख और नासिका से बाहर निकलती है । इस प्रकार स्वरों तथा व्यंजनों में ध्वनि उत्पन्न करने की प्रक्रिया में भिन्नता है । अत: सिध्दांतत: स्वरों तथा व्यंजनों का वर्गीकरण पृथक-पृथक होना ही चाहिए । देवनागरी लिपि में इसी वैज्ञानिक आधार पर स्वर और व्यंजन अलग-अलग वर्गीकृत किये गये हैं ।
• व्यंजनों को उच्चारण-स्थान के आधार पर कंठ्य, मूर्ध्दन्य, दन्त्य तथा औष्ठ्य-इन पाँच वर्गों में वर्गीकृत किया गया है । कंठ से लेकर ओठों तक ध्वनियों का ऐसा वैज्ञानिक वर्गीकरण अन्य लिपियों में उपलब्ध नहीं है । उक्त वर्गीकरण ध्वनि-विज्ञान पर आधारित है ।
• देवनागरी लिपि में अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में भी वैज्ञानिकता है, क्योंकि शब्दों के साथ उच्चारण करने पर अनुनासिक ध्वनियों में अन्तर आ जाता है, इसलिए व्यंजनों के प्रत्येक वर्ग के साथ, वर्ग के अंत में उसका अनुनासिक दे दिया गया है ।
• देवनागरी लिपि में हृस्व और दीर्घ मात्राओं में स्पष्ट भेद है । उनके उच्चारण में कोई भ्रम की स्थिति नहीं है । अन्य लिपियों में हृस्व और दीर्घ मात्राओं के उच्चारण की ऐसी सुनिश्चितता नहीं है । अंग्रेजी में तो वर्णों से ही मात्राओं का काम लिया जाता है । वहाँ हृस्व और दीर्घ में कोई अंतर नहीं है, मात्राओं का कोई नियम नहीं है ।
बहरहाल, सरकारी संस्थानों में संगोष्ठियों का आयोजन स्वागतयोग्य है । इसके मूलत: तीन कारण मेरे विचार में हैं । पहला, कार्यालयीन कामकाज में तल्लीन व्यक्ति को वैचारिक धरातल पर कुछ सुनने - समझने और सोचने विचारने - के अवसर मिलते हैं । यह उसकी मस्तिष्कीय सक्रियता को बढ़ाता है और सुषुप्त पड़ी रचनात्मक प्रतिभा को सामने लाने में सहायक होता है । दूसरा कारण, विचारवान व्यक्तियों से परिवार व समाज विचारवान होता है । आखिरी वजह बुनियादी भी है । भारत सरकार की राजभाषा नीति के क्रियान्वयन की दिशा में यह एक सशक्त गतिविधि है । उम्मीद है, सशक्त संगोष्ठियों के आयोजन का सिलसिला सरकारी कार्यालयों और विभागों में बढ़ेगा ।
पर यह आवश्यक हे कि हम किसी भी भारतीय भाषा को उसी लिपि में लिखें और लिखने को तरज़ीह दें जो उस भाषा के लिए बनी हुई है । रोमन लिपि के प्रति आकर्षण अंतत: हमें अपनी जड़ों से अलग ही करेगा । आखिर में एक बात । ज्यों - ज्यों हमारे देश में हिंदी और दूसरी भाषाओं को हल्के में लिए जाने का षडयंत्र बढ़ेगा, त्यों - त्यों इन भाषाओं के जानकारों का वर्चस्व बढ़ेगा । अच्छी हिंदी - शुध्द हिंदी, अच्छी मराठी - शुध्द मराठी, अच्छी गुजराती - शुध्द गुजराती लिखने-बोलने वालों की तूती बोलेगी।
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माँ ममता का गाँव है, शुभाशीष की छाँव.
कैसी भी सन्तान हो, माँ-चरणों में ठाँव..
१४-५-२०१२
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लेख, सुभद्रा कुमारी चौहान, लक्ष्मण सिंह चौहान

लेख
राष्ट्रीयता के पर्याय सुभद्रा जी-लक्ष्मण सिंह जी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                          भारतीय इतिहास में गाँधी युग को 'न भूतो; न भविष्यति' कहना इसलिए न्यायोचित है कि इस काल में उग्र, सहिष्णु और नम्र तीनों तरह के सामूहिक असंतोष राष्ट्रीयता की पराकाष्ठा के साथ एक साथ न केवल विकसित हुए अपितु उनका सुपरिणाम भारतीय स्वतंत्रता और लोकतंत्र की स्थापना के रूप में विश्व के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सका। उग्र राष्ट्रवाद के दो रूप भगतसिंह-आजाद और सुभाषचंद्र बोस-आजाद हिंद फ़ौज के रूप में जनगण के आराध्य बने। सहिष्णु राष्ट्रवाद कांग्रेस के गरम दल के रूप में लाल-बाल-पाल में दिखा तो नम्र-सहयोगी राष्ट्रवाद का शतदली कमल गोखले-गाँधी की सत्याग्रही वृत्ति के रूप में सामने आया। साहित्यकारों ने इन तीनों ही विचारधाराओं के अनुरूप साहित्य रचकर लोक को दिशा दी। एक भारतीय आत्मा के विशेषण से जाने गए पद्मभूषण दादा माखनलाल चतुर्वेदी (४ अप्रैल १८८९ बाबई होशंगाबाद - ३० जनवरी १९६८ भोपाल) ने शिक्षक-पत्रकार-क्रान्तिकारी तथा सत्याग्रही की भूमिकाओं में अपनी अमिट छाप रचनाओं ही नहीं; अपने शिष्यों के माध्यम से भी छोड़ी। दादा के अन्यतम शिष्ययुग्म ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान (वैशाख कृष्ण १५ वि. सं. १९५१/ ६ मई १८९४ खंडवा - ३० अगस्त १९५३ जबलपुर) तथा सुभद्रा कुमारी चौहान (श्रावण शुक्ल (नाग)पंचमी वि.सं. १९६१/ १६ अगस्त १९०४ निहालपुर, इलाहाबाद - १५ फरवरी १९४८ सिवनी) ने स्वातंत्र्य संघर्ष तथा लोकचेतना जागरण के महायज्ञ में अपनी आहुति समाजसेवी, आंदोलनकारी, साहित्यकार, राजनेता तथा लोकनायक के रूप में दी। अपने कार्यक्षेत्र जबलपुर में उन्हें स्थानीय समृद्ध नेताओं के प्रच्छन्न विरोध का भी सामना करना पड़ा। कच्ची गृहस्थी, नन्हे बच्चे, अर्थाभाव तथा पारिवारिक असहमतियों के बावजूद लक्ष्मणसिंह-सुभद्रा दंपत्ति ने अपने मार्गदर्शक गुरु माखनलाल चतुर्वेदी के मार्गदर्शन में कर्मवीर के प्रकाशन, सत्याग्रहों और सभाओं के आयोजनों और शासकीय दमन की चुनौतियों का अविचलित रहकर सामना किया।

                          सुभद्रा जी की ख्याति राष्ट्रवादी प्रथमत: कवयित्री और बाद में सभानेत्री के रूप में फ़ैली किन्तु उनको आगे बढ़ाने के लिए आधार, पृष्ठष्भूमि और संबल बनाने और बननेवाले ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान का त्याग-बलिदान, समर्पण और कर्मठता अल्पचर्चित होकर रह गयी। सुभद्रा जी की सहज-स्वाभाविक राष्ट्रीय भावधारापरक काव्यधारा के प्रवाहित होने में उनकी अभिन्न सखी महीयसी महादेवी वर्मा जी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। शालेय जीवन से ही सुभद्रा-महादेवी की जोड़ी विद्रोही प्रवृत्ति के लिए चर्चित रही किन्तु यह विद्रोह सुविचारित और सकारात्मक था। महादेवी का बाल विवाह को नकारकर अविवाहित रहना और सुभद्रा का विवाह में दहेज़ और पर्दा प्रथा को ठुकराना तत्कालीन परिवेश में दुष्कर और चुनौतीपूर्ण कदम थे। लक्ष्मणसिंह जी ने परिवारिक विरोधों और आर्थिक अभावों की परवाह न कर सुभद्रा के साथ मिलकर देश के स्वतंत्रता हेतु सर्वस्व के संकल्प को प्राणप्रण से पूर्ण किया। राष्ट्रीय भावधारा सुभद्रा जी और लक्ष्मण सिंह जी दोनों के काव्य में पल्ल्वित-पुष्पित होकर सत्याग्रहियों और जन सामान्य के लिए प्रेरक शक्ति के रूप में सामने आई।

                          ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान परिवार के पोषण के लिए वकालत करते थे किन्तु अधिकांश मुकदमे दरिद्र ग्रामीणों और सत्ग्रयाहियों के होते थे जिनमें वकील का पारिश्रमिक देने की सामर्थ्य ही न होती; बहुत सा समय कर्मवीर और कांग्रेस की संगठनात्मक गतिविधियों को देना होता; बढ़ते परिवार की जिम्मेदारियाँ और पैतृक परिवार का नाराजगीजनित असहयोग। किसी भी मनुष्य के मनोबल को तोड़ने के लिए इनमें से एक ही पर्याप्त है किन्तु लक्ष्मणसिंह जी न जाने किस मिट्टी के बने थे कि उन पर किसी भी कठिनाई का कोई असर न होता। लक्ष्मण सिंह जी के एक अभिन्न मित्र की बहिन थीं सुभद्रा। प्रथम साक्षात् में ही दोनों के मन में यह भाव आया कि वे पूर्व परिचित हैं। सुभद्रा जी 'प्रथम दर्शन' शीर्षक से लिखती हैं -

प्रथम जब उनके दर्शन हुए, हठीली आँखें अड़ ही गईं
बिना परिचय के एकाएक, हृदय में उलझन पड़ ही गई

मूँदने पर भी दोनों नेत्र, खड़े दिखते सम्मुख साकार
पुतलियों में उनकी छवि श्याम मोहिनी, जीवित जड़ ही गई

भूल जाने को उनकी याद. किए कितने ही तो उपचार
किंतु उनकी वह मंजुल-मूर्ति, छाप-सी दिल पर पड़ ही गई

                          लक्ष्मण सिंह जी ने सुभद्रा जी को किस दिव्य दृष्टि से देखा, इसकी बानगी उनकी यह कविता प्रस्तुत करती है -

'' वह ठिठक अड़ैली चंचल थी, ज्यों प्रीति लाज में घुली हुई।
थी हँसी रसीले होंठों की, नव रूप सुधा से धुली हुई।।
वह अजब छबीली चितवन थी, था तरल वेग पर तुली हुई।
उन घनी लचीली पलकों में, कुछ छिपी हुई कुछ खुली हुई।।
है याद मुझे मैं चौंक पड़ा, जब बजी ह्रदय की बाँसुरिया।
वह दृष्टि तुम्हारी कहती थी, मैं राधा हूँ; तुम साँवरिया।।
थे शब्द कहाँ?; पद-वाक्य कहाँ?; बस भाव सुनाई देता था।
था राग अहा! अनुराग बना, साकार दिखाई देता था।।
पूर्णेन्दु उगा; नव पुष्प खिले, हाँ लगी कुहकने कोइलिया।
यों पूजा का सामान जुटा, मैं राधा था; तुम साँवरिया।।
दो एक हुए स्वच्छंद बने, मिल गई राह आजादी की।
जग मंजुल मंदिर गूँज उठा, सुन पड़ी बधाई शादी की।।
आलोक हुआ; भ्रम लोप हुआ; क्या दीख पड़ा. मैं था तुम थीं।
मैं विश्व बना तुम विश्वात्मा, मैं तुममें था; तुम मुझमें थीं।।''

                          इस दिव्य दंपत्ति का मिलन दैहिक से अधिक आत्मिक अद्वैत का महायज्ञ था। दोनों एक दूसरे के पूरक थे और दोनों का प्राप्य था भारत का स्वातंत्र्य। लक्ष्मण सिंह जी के कवि की पहचान हिंदी साहित्य में अपेक्षाकृत कम है। लक्ष्मण सिंह चौहान रचित साहित्य में नाटक कुली-प्रथा, उत्सर्ग, दुर्गावती और अंबपाली लिखे जो लोकप्रिय हुए। अंग्रेजी उपन्यासों के अनुवादों (विक्टर ह्यूगो रचित ला मिजरेबल्स और लॉफिंगमैन तथा बर्नार्डशॉ की कृति 'द मैन ऑफ़ डेस्टिनी' का 'सौभाग्य लाड़ला नेपोलियन' शीर्षक अनुवाद) तथा उपन्यास उपन्यास मस्तानी उनकी बहुचर्चित रचनाएँ रहीं। उन्होंने 'त्रिधारा' सामूहिक काव्य संकलन का संपादन-प्रकाशन भी किया था जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी, केशवप्रसाद पाठक तथा सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रतिनिधि रचनाएँ सम्मिलित थीं। त्रिधारा की एक हजार प्रतियाँ एक वर्ष से भी कम अवधि में समाप्त होना अपनी मिसाल आप है। आपने महाकाव्य 'कृष्णावतार' भी लिखा था जो प्रकाशित न हो सका। 'वंदे मातरम्' शीर्षक निम्न हिंदी ग़ज़ल में उनकी काव्य कुशलता और राष्ट्रीय भावना की बानगी है -

''चल दिए माता के बंदे जेल वंदे मातरम्
देशभक्तों की यही है गैल वंदे मातरम्
हैं जहाँ गाँधी गए; बरसों तिलक भी थे जहाँ
हम भी वहाँ के कष्ट लेंगे झेल वंदे मातरम्
जानते हैं क्रूर है; खूँखार है सैयाद वह
जाँच ले हरगिज न होंगे फेल वंदे मातरम्
एक को ले जाएगा तो सैंकड़ों आगे बढ़े
जेल जाने को समझते खेल वंदे मातरम्
देशभक्तों ने जिसे सींचा है अपने खून से
लहराएगी; फल लाएगी वह बेल वंदे मातरम्''

उदित हुआ नक्षत्र गगन पर

                          जन्मजात काव्य प्रतिभा की धनी सुभद्रा जी ने मात्र ६ वर्ष की आयु में पहली तुकबन्दी की -

तुम बिन व्याकुल हैं सब लोगा।
तुम तो हो इस देश के गोगा।।

                          गोगा उत्तर प्रदेश और अन्य प्रांतों में पूजित लोकदेवता हैं जो अदृश्य रहकर भक्तों का भला करते हैं। उनके पिता ठाकुर रामनाथ सिंह गोगा जी के भजन गाते थे।

                          अपनी प्रिय शिक्षिका इंदुबाला को काव्य पंक्तियाँ समर्पित करते हुए नन्हीं सुभद्रा ने लिखा -

आई एम ए रोमांटिक लेडी, इंदुबाला इस माय नेम.
आल द गर्ल्स वेयर वैरी हैप्पी, इन द स्कूल व्हेन आई केम.

                          एक दिन उनकी सहपाठिनी सुशीला कक्षा में कुछ देर से आई, कारण पूछा जाने पर उसने अपनी दाई मुनिया को जिम्मेदार बताया जो अकारण उलझ गयी थी। नटखट सुभद्रा ने तत्क्षण आशुकविता कर दी -

देखो एक लड़की है आई,
जिससे लड़ती उसकी दाई।
'लूकरगंज' है उसका धाम,
सुशीला देवी उसका नाम।'

                          मात्र ९ वर्ष की आयु में १९१३ में प्रयाग से प्रकाशित पत्रिका मर्यादा में 'सुभद्रा कुँवरि' नाम से उनकी प्रथम काव्य रचना 'नीम प्रकाशित हुई जिसकी आरंभिक पंक्तियाँ निम्न हैं -

सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।
तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे।
ये लहलही पत्तियाँ हरी, शीतल पवन बरसा रहीं।
निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं।
हे नीम! यद्यपि तू कड़ू, नहिं रंच-मात्र मिठास है।
उपकार करना दूसरों का, गुण तिहारे पास है।

अपनी मिसाल आप

                          स्वातंत्र्य सत्याग्रह के समांतर हिंदी साहित्य में सतत प्रवहित राष्ट्रीय विचार सलिला का अंतरवर्ती उन्मेष सुभद्रा जी के काव्य में अपनी श्रेष्ठ छवि दर्शाता है। मात्र पंद्रह वर्ष की किशोरावस्था में अपने अग्रज के मित्र ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ विवाहित सुभद्रा जी के साहित्य में स्वदेश गौरव, राष्ट्र के प्रति समर्पित बलिदानियों का यशगायन सर्वत्र व्याप्त है। पाँच संतानों सुधा, अजय, विजय, अशोक व ममता की माता सुभद्रा जी ने दुधमुँहे बच्चों को अपनी राष्ट्रभक्ति-पथ और साहित्यिक सृजन में बाधक नहीं बनने दिया। उन्होंने पारिवारिक, राजनैतिक और सामाजिक दायित्व निर्वहन में समन्वय, समंजय और संतुलन की अद्भुत मिसाल प्रस्तुत की। वर्ष १९१९ में लक्ष्मण सिंह जी से विवाह पश्चात सुभद्रा जी जबलपुर आ गईं हुए १९२० में स्वातंत्र्य संघर्ष में कूद पड़ीं। बापू के सादगी के महामंत्र को इस तरह अंगीकार किया कि चूड़ी-बिंदी और किनारेवाली साड़ी तक त्याग दी। १९२० में अखिल भारतीय कोंग्रस के नागपुर अधिवेशन में लक्ष्मण सिंह जी और सुभद्रा जी दोनों कार्यकारिणी सदस्य के रूप में सम्मिलित थे। बापू ने पूछ 'बेन तुम्हारा ब्याह हो गया।' सुभद्रा ने कहा 'हाँ,' उत्साहपूर्वक बताया पति भी साथ आए हैं। बापू आश्वस्त हुए तो 'बा' ने सस्नेह डाँटा कि चूड़ी-बिंदी और किनारेवाली साड़ी पहनो। गृहप्रवेश के साथ ही पर्दा प्रथा का विरोध करनेवाली विद्रोहिणी सुभद्रा ने 'बा' का स्नेहादेश शिरोधार्य किया। १९२२ में झंडा सत्याग्रह में सुभद्रा जी देश की प्रथम महिला सत्याग्रही बनीं तथा १९२३ तथा १९४२ के सत्याग्रह आंदोलनों में हिस्सेदारी कर दो बार कारावास भी पाया। उनकी कविताओं की सहज-स्वाभाविक वृत्ति राष्ट्रीय पौरुष को ललकारने-जगाने की है। देश की पहली महिला सत्याग्रही सुभद्रा जी के ३ कहानी संग्रह बिखरे मोती, उन्मादिनी तथा सीधे-सादे चित्र तथा काव्य संग्रह मुकुल व त्रिधारा प्रकाशित हुए हैं। भारत सरकार ने उनकी याद में एक डाक टिकिट निर्गत किया तथा एक भारतीय तट रक्षक जहाज का नामकरण किया है। जबलपुर नगर निगम प्रांगण में उनकी मानवाकार संगमरमरी प्रतिमा स्थापित की गयी है।

सुभद्रा जी का साहित्यिक वैशिष्ट्य

                          सुभद्रा जी कविता लिखती नहीं थीं, कविता उनके माध्यम से खुद को व्यक्त करती थी। अभिन्न सखी महादेवी जी की ही तरह सुभद्रा जी का भी काव्य माथामच्ची का परिणाम नहीं, ह्रदय की तीव्रतम भावनाओं और गहन अनुभूतियों का सहज प्रागट्य होता था। देश-प्रेम, नारी- जागरण और अन्याय से संघर्ष सुभद्रा जी की जन्मजात प्रवृत्तियाँ थीं। उन्होंने छायावादी आत्माभिव्यक्ति और राष्ट्रीय लोकाभिव्यक्ति नारी जागरण और समाज सुधार का नीर-क्षीर मिश्रण प्रकृत एवं आकर्षक परिधान में प्रस्तुत कर जन-मन जीत लिया। उनकी अभिव्यक्तियाँ सरल, सहज बोधगम्य एवं अकृत्रिम हैं। प्रगीत शिल्प उनकी अनुभूतियों का आवरण नहीं, आत्मिक तत्व है। वे अनुभूतियों पर काव्य को आरोपित नहीं करतीं, वे काव्यमय अनुभूतियाँ अनुभव करती हैं। उनकी अभिव्यंजना ही काव्यमयी है। राजनैतिक परवशता का विरोध, समाजिक विसंगतियों पर प्रहार, पारिवारिक ममत्व की प्रतीति के साथ राष्ट्रीय गौरव गान करते समय सुभद्रा जी की रचनाओं में कहीं अंतर्विरोध नहीं है। वे सर्वत्र राग, सृजन और नव निर्माण के गीत जाती हैं, कहीं भी विनाश या ध्वंस की कामना नहीं करतीं। वे क्रांतिकारिणी हैं, विद्रोहिणी हैं पर उनकी क्रांति बंदूक की नली से नहीं उपजती, उनका विद्रोह रक्तधार नहीं बहाता।

                          वे नवीन जी या दिनकर जी की तरह विपथगा की जयकार नहीं करतीं, महादेवी की तरह वीतरागी नहीं होतीं, भगवतीचरण की तरह महानाश को नहीं न्योततीं, निराला की तरह कटाक्ष से आहत नहीं करतीं। उनके साहित्य में उनकी व्यक्ति चेतना 'अहं' से सर्वथा दूर है। वे द्विवेदी युगीन पारंपरिक अतिशयतापरक राष्ट्रवाद से भी दूर हैं। सुभद्रा गुरुवत माखनलाल जी और हिंदी गीतों के राजकुमार कहे गए बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' से साम्यता रखती हैं। अपनीकर्म भूमि जबलपुर में ही सृजनरत दो समकालिक महारथियों रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरिवी' तथा 'केशव पाठक से नैकट्य होते हुए भी सुभद्रा जी के लेखन पर उनका प्रभाव नहीं मिलता। सुभद्रा जी अपनी कहानियों में व्यावहारिक धरातल पर वस्तुनिष्ठता की पक्षधर है, काल्पनिक आकाश कुसुमीय प्रवृत्ति की नहीं।

सुभद्रा जी के काव्य में आशावाद

                          उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक से आरंभ काव्य यात्रा में सुभद्रा जी सतत अहिंसक सत्याग्रहों का भिन्न हिस्सा रहीं। वे पति की सहधर्मिणी रहीं, अनुगामिनी नहीं। लक्ष्मण सिंह जी जैसा अद्भुत जीवन साथी का अखंड विश्वास सुभद्रा का संबल और प्रेरणाशक्ति था। उन्हें पूर्ण विश्वास था की गाँधीवादी अहिंसक संघर्ष ही देश को स्वतंत्रता दिला सकेगा। १९२० में कांग्रेस अधिवेशन नागपुर में स्वागत गान में उन्होंने लिखा -

आ मैया कोंग्रेस! हमारी आकांक्षा की प्यारी मूर्ति।
राज्यहीन राजाओं के गत वैभव की स्वाभाविक पूर्ति।।
लुटे हुए दीनों की आशा, तू दासों की उज्जवल रत्न।
भारतीय स्वातंत्र्य प्राप्ति की तू चिरजीवी सात्विक यत्न।।

                          सुभद्रा जी के काव्य में देश और परिवार दो धुरियाँ सहज दृष्टव्य हैं। उनकी दो सर्वाधिक प्रसिद्ध गीति रचनाएँ 'झाँसी की रानी' तथा 'कदंब का प्रेम' इन धुरियों पर ही रची गई हैं। छायावाद काल तथा महीयसी का नैकट्य भी उन्हें कोरी कल्पनाशील भाव प्रवणता के प्रति आकर्षित नहीं कर सका, वे गुलाब की पंखुड़ियों पर नहीं, यथार्थ की खुरदुरी सतह पर चलती हैं। वे जन्म ही नहीं कर्म और लेखन से भी क्षत्राणी हैं। उनकी गृहणी घर और पति तथा माँ संतानों तक सिमित नहीं रहती। वे 'वसुधैव कुटुंबकम्' और 'विश्वैक नीड़म्' की विरासत को ग्रहणकर समस्त देशवासियों की पीड़ा अपनी मानकर उसके शमन हेतु जूझती हैं। राष्ट्र सेवा के लिए त्याग, तितिक्षा तथा तर्पण (शहीदों का) उन्हें सहायक हुए। अभावों और कठिनाइयों से घिरी रहकर भी वे कभी निराश नहीं हुईं। वे आंग्ल कवि हेनरी वर्ड्सवर्थ लांगफेलो (२७ फरवरी १८०७ - २४ मार्च १८८२) की तरह जीवन के प्रति सकारात्मक भाव से भरी हुई हैं। लांगफेलो लिखते हैं -

Tell me not, in mournful numbers,
Life is but an empty dream!
For the soul is dead that slumbers,
And things are not what they seem.

नहीं बताएँ मुझको शोकाकुल अंकों में
केवल रीता सपना ही है सकल जिंदगी
क्योंकि आत्मा हुई दिवंगत जो सोती है
नहीं वस्तुएँ हैं वैसी; जैसी दिखतीं वे।

Life is real! Life is earnest!
And the grave is not its goal;
Dust thou art, to dust returnest,
Was not spoken of the soul.

जीवन है सच्चाई, जमा राशि है जीवन
केवल कब्र नहीं हो सकती इसकी मंज़िल
मिले धूल में भले; धूल से लौटेगी फिर
कथ्य नहीं यह जो आत्मा ने कहा कभी था।

सुभद्रा जी लिखती हैं -

मैंने हँसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना
बरसा करता पल-पल पर मेरे जीवन में सोना
मैं अब तक जान न पाई, कैसी होती है पीड़ा
हँस-हँस जीवन में कैसे करती है चिंता क्रीड़ा।
जग है असार सुनती हूँ, मुझको सुख-सार दिखाता;
मेरी आँखों के आगे सुख का सागर लहराता।
उत्साह, उमंग निरंतर रहते मेरे जीवन में,
उल्लास विजय का हँसता मेरे मतवाले मन में।

                          सुभद्रा जी का आशावाद उनकी रचनाओं में उत्साह, उमंग, स्फूर्ति, साफल्य और विजय के रूप में शब्दित होकर पाठकों में नवाशा, विश्वास, ओज तथा कर्मठता का संचार करता है।

सुभद्रा काव्य में श्रृंगार रस

                          सुभद्रा जी के काव्य में श्रृंगार रस की मनोहर छवियाँ जहँ-तहँ शोभित हुई हैं। उनका श्रृंगार भोग-विलास नहीं, त्याग और समर्पण के साथ कर्तव्य पथ पर चलने की प्रेरणा बनता है।

मैं जिधर निकल जाती हूँ, मधुमास उतर आता है।
नीरस जन के जीवन में रस घोल-घोल जाता है।
सुखर सुमनों के दल पर मैं मधु संचालन करती।
मैं प्राणहीन का अपने प्राणों से पालन करती।

                          सुभद्रा जी की नारी प्रिय की अर्धागिनी के रूप में लक्ष्मण सिंह जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी होने के साथ-साथ पाँच बच्चों के लालन-पालन में प्राण-प्राण से निमग्न होती है। वे नारी विमर्श और नारी जागरण करते हुए अर्धांगिनीत्व और मातृत्व को बाधक नहीं साधक पाती हैं। प्रस्तुत हैं दाम्पत्य जीवन में अपने प्रिय के प्रति सुभद्रा जी के अखंडित विश्वास की साक्षी देते कुछ काव्यांश-

तुम कहते हो आ न सकोगे, मैं कहती हूँ आओगे।
सखे! प्रेम के इस बंधन को यों ही तोड़ न पाओगे।
*
जहाँ तुम्हारे चरण, वहीँ पर पद-रज बनी पड़ी हूँ मैं
मेरा निश्चित मार्ग यही है ध्रुव-सी अटल अड़ी हूँ मैं।
*
आओ चलो, कहाँ जाओगे मुझे अकेली छोड़, सखे!
बँधे हुए हो ह्रदय-पाश में, नहीं सकोगे तोड़, सखे! - स्मृतियाँ
*
मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।
भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।। - साध
*
जब तक मैं मैं हूँ, तुम तुम हो, है जीवन में जीवन।
कोई नहीं छीन सकता, तुमको मुझसे मेरे धन॥
*
आओ मेरे हृदय-कुंज में निर्भय करो विहार।
सदा बंद रखूँगी मैं अपने अंतर का द्वार॥ - तुम
*
जब तिमिरावरण हटाकर, ऊषा की लाली आती।
मैं तुहिन बिंदु सी उनके, स्वागत-पथ पर बिछ जाती। -वेदना

सुभद्रा साहित्य में वात्सल्य सलिला

                          सुभद्रा जी का मातृत्व अपने बचपन और अपने बच्चों के बचपन का नीर-क्षीर सम्मिश्रण है। इन दोनों कालखंडों के पलों को वे बार-बार जीती हैं, और सुधियों के सुधारस से संजीवित होती हैं। कैशोर्य में कदम रखते ही सुभद्रा विवाहित हो कर प[रिय के भुजपाश में बँध गईं थीं। खुद को खोकर; प्रिय को पाते-पाते पाँच बच्चों और स्वतंत्रता सत्याग्रह की अँगुली थामे हुए वे तरुणाई का द्वार खटखटा रही थीं। जीवन की विविध जटिलताओं के बीच सुभद्रा जी बच्चों के बचपन में अपने बचपन को फिर-फिर जी रही थीं और सुधियों के सागर से संजीवनी पा रही थीं।  देखिए कुछ झलकियाँ -

शैशव के सुन्दर प्रभात का मैंने नव विकास देखा।
यौवन की मादक लाली में जीवन का हुलास देखा।
*
जग-झंझा-झकोर में आशा-लतिका का विलास देखा।
आकांक्षा, उत्साह, प्रेम का क्रम-क्रम से प्रकाश देखा।
*
यह मेरी गोदी की शोभा, सुख सोहाग की है लाली
शाही शान भिखारन की है, मनोकामना मतवाली
*
दीप-शिखा है अँधेरे की, घनी घटा की उजियाली
उषा है यह काल-भृंग की, है पतझर की हरियाली
*
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
*
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
*
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥ - मेरा नया बचपन
*
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।
*
सभा सभा का खेल आज हम, खेलेंगे जीजी आओ।
मैं गाँधी जी छोटे नेहरू, तुम सरोजिनी बन जाओ।
*
मेरा तो सब काम लंगोटी, गमछे से चल जायेगा।
छोटे भी खद्दर का कुर्ता, पेटी से ले आयेगा। -सभा का खेल

सुभद्रा काव्य में उद्दाम राष्ट्रीय भावधारा

                          तरुण सुभद्रा ने भारत-भारती को एक ही जाना था। उसके लिए हिंदी की सेवा भी भारत माता की सेवा थी। आज की कॉंवेंटी पीढ़ी को यह जानना चाहिए की जब देश में गिनी-चुनी आंग्ल शिक्षा संस्थाएं थीं तब सुभद्रा जी 'क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज प्रयाग' की मेधावी छात्र होते हुए, आंग्ल भाषा में काव्य रचना करने में समर्थ होते हुए भी हिंदी में काव्य रचना कर रही थीं। 

जिनको तुतला-तुतला करके शुरू किया था पहली बार।
जिस प्यारी भाषा में हमको प्राप्त हुआ है माँ का प्यार ।।

उस हिन्दू जन की गरीबिनी हिन्दी प्यारी हिन्दी का।
प्यारे भारतवर्ष -कृष्ण की उस प्यारी कालिन्दी का ।।

है उसका ही समारोह यह उसका ही उत्सव प्यारा।
मैं आश्चर्य-भरी आँखों से देख रही हूँ यह सारा ।।
*
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।    - झाँसी की रानी 
*
यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना। -जलियांवाला बाग़ में बसंत

गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का कैसा हो वसंत

मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥ - प्रभु तुम मेरे मन की जानो

तुम्हारे दुख की घड़ियाँ बनें दिलाने वाली हमें स्वराज्य।
हमारे हृदय बनें बलवान तुम्हारी त्याग मूर्ति में आज।

तुम्हारे देश-बंधु यदि कभी डरें, कायर हो पीछे हटें,
बंधु! दो बहनों को वरदान युद्ध में वे निर्भय मर मिटें।

आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ, स्वागत करती हूँ तेरा।
तुझे देखकर आज हो रहा, दूना प्रमुदित मन मेरा।

                          सारत: यह निर्विवाद है कि सुभद्रा जी एक साहित्य उनके जीवन-संघर्षों की अनकही गाथा कहता है। वे सत्य की आँखों में आँखें डालकर अपनी कलम चलाती हैं। यथार्थ की कुरुपता में भी सत्य-शिव-सुंदर की पाउस्थिति देख और दिखा सकने के लिए जो दिव्य दृष्टि चाहिए वह सुभद्रा जी में है। उनका स्त्री विमर्श कहीं और कभी पुरुष विरोधी नहीं होता, यह उनका वैशिष्ट्य है। विरूपता में सुरूपता की स्थापना करती सुभद्रा जी महीयसी की काल्पनिक छायावादी सौंदर्य सृष्टि का न तो अनुकरण करती हैं न विरोध। एक ही काल में पारस्परिक प्रगाढ़ स्नेह संबंध में गुँथी दोनों काव्य प्रतिभाएँ एक दूसरे की पूरक हैं। महीयसी एक बार मुक्ति की कामना से बौद्ध धर्म में दीक्षित होने गईं भी तो मोह भंग होते ही वापिस आ गईं और सुभद्रा जी तो स्वामी विवेकानंद की तरह मृत्योपरांत भी धरती और जीवन से जुड़े रहने की कामना करती रहीं। वह अपनी मृत्यु के बारे में कहती थीं कि "मेरे मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना नहीं है । मैं चाहती हूँ, मेरी एक समाधि हो, जिसके चारों और नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते रहें, स्त्रियाँ गाती रहें ओर कोलाहल होता रहे।" 
संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४ 
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शुक्रवार, 13 मई 2022

छंद सुखदा,छंद माली,छंद मधुमालती,छंद मनमोहन, छंद मनोरम, छंद मानव

छंद सलिला:

सुखदा छंद

*
छंद-लक्षण: जाति महारौद्र, प्रति चरण मात्रा २२ मात्रा, यति १२-१०, चरणांत गुरु (यगण, मगण, रगण, सगण)
लक्षण छंद:
सुखदा बारह-दस यति, मन की बात कहे
गुरु से करें पद-अंत, मंज़िल निकट रहे
उदाहरण:
१. नेता भ्रष्ट हुए जो / उनको धुनना है
जनसेवक जो सच्चे / उनको सुनना है
सोच-समझ जनप्रतिनिधि, हमको चुनना है
शुभ भविष्य के सपने, उज्ज्वल बुनना है
२. कदम-कदम बढ़ना है / मंज़िल पग चूमे
मिल सीढ़ी चढ़ना है, मन हँसकर झूमे
कभी नहीं डरना है / मिल मुश्किल जीतें
छंद-कलश छलकें / 'सलिल' नहीं रीतें
३. राजनीति सुना रही / स्वार्थ क राग है
देश को झुलसा रही, द्वेष की आग है
नेतागण मतलब की , रोटियाँ सेंकते
जनता का पीड़ा-दुःख / दल नहीं देखता
माली (राजीवगण) छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १८ मात्रा, यति ९ - ९
लक्षण छंद:
प्रति चरण मात्रा, अठारह रख लें
नौ-नौ पर रहे, यति यह परख लें
राजीव महके, परिंदा चहके
माली-भ्रमर सँग, तितली निरख लें
उदाहरण:
१. आ गयी होली, खेल हमजोली
भीगा दूं चोली, लजा मत भोली
भरी पिचकारी, यूँ न दे गारी,
फ़िज़ा है न्यारी, मान जा प्यारी
खा रही टोली, भांग की गोली
मार मत बोली,व्यंग्य में घोली
तू नहीं हारी, बिरज की नारी
हुलस मतवारी, डरे बनवारी
पोल क्यों खोली?, लगा ले रोली
प्रीती कब तोली, लग गले भोली
२. कर नमन हर को, वर उमा वर को
जीतकर डर को, ले उठा सर को
साध ले सुर को, छिपा ले गुर को
बचा ले घर को, दरीचे-दर को
३. सच को न तजिए, श्री राम भजिए
सदग्रन्थ पढ़िए, मत पंथ तजिए
पग को निरखिए, पथ भी परखिए
कोशिशें करिए, मंज़िलें वरिये
***
मधुमालती छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ७-७, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण) होता है.
लक्षण छंद:
मधुमालती आनंद दे
ऋषि साध सुर नव छंद दे
चरणांत गुरु लघु गुरु रहे
हर छंद नवउत्कर्ष दे।
उदाहरण:
१. माँ भारती वरदान दो
सत्-शिव-सरस हर गान दो
मन में नहीं अभिमान हो
घर-अग्र 'सलिल' मधु गान हो।
२. सोते बहुत अब तो जगो
खुद को नहीं खुद ही ठगो
कानून को तोड़ो नहीं-
अधिकार भी छोडो नहीं
***
मनमोहन छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ८-६, चरणांत लघु लघु लघु (नगण) होता है.
लक्षण छंद:
रासविहारी, कमलनयन
अष्ट-षष्ठ यति, छंद रतन
अंत धरे लघु तीन कदम
नतमस्तक बलि, मिटे भरम.
उदाहरण:
१. हे गोपालक!, हे गिरिधर!!
हे जसुदासुत!, हे नटवर!!
हरो मुरारी! कष्ट सकल
प्रभु! प्रयास हर करो सफल.
२. राधा-कृष्णा सखी प्रवर
पार्थ-सुदामा सखा सुघर
दो माँ-बाबा, सँग हलधर
लाड लड़ाते जी भरकर
३. कंकर-कंकर शंकर हर
पग-पग चलकर मंज़िल वर
बाधा-संकट से मर डर
नीलकंठ सम पियो ज़हर
***
मनोरम छंद
*
छंद-लक्षण: समपाद मात्रिक छंद, जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, चरणारंभ गुरु, चरणांत गुरु लघु लघु या लघु गुरु गुरु होता है.
लक्षण छंद:
हैं भुवन चौदह मनोरम
आदि गुरु हो तो मिले मग
हो हमेश अंत में अंत भय
लक्ष्य वर लो बढ़ाओ पग
उदाहरण:
१. साया भी साथ न देता
जाया भी साथ न देता
माया जब मन भरमाती
काया कब साथ निभाती
२. सत्य तज मत 'सलिल' भागो
कर्म कर फल तुम न माँगो
प्राप्य तुमको खुद मिलेगा
धर्म सच्चा समझ जागो
३. लो चलो अब तो बचाओ
देश को दल बेच खाते
नीति खो नेता सभी मिल
रिश्वतें ले जोड़ते धन
४. सांसदों तज मोह-माया
संसदीय परंपरा को
आज बदलो, लोक जोड़ो-
तंत्र को जन हेतु मोड़ो
***
मानव छंद
*
छंद-लक्षण: समपाद मात्रिक छंद, जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, चरणारंभ गुरु, चरणांत गुरु लघु लघु या लघु गुरु गुरु होता है.
लक्षण छंद:
हैं भुवन चौदह मनोरम
आदि गुरु हो तो मिले मग
हो हमेश अंत में अंत भय
लक्ष्य वर लो बढ़ाओ पग
उदाहरण:
१. साया भी साथ न देता
जाया भी साथ न देता
माया जब मन भरमाती
काया कब साथ निभाती
२. सत्य तज मत 'सलिल' भागो
कर्म कर फल तुम न माँगो
प्राप्य तुमको खुद मिलेगा
धर्म सच्चा समझ जागो
३. लो चलो अब तो बचाओ
देश को दल बेच खाते
नीति खो नेता सभी मिल
रिश्वतें ले जोड़ते धन
४. सांसदों तज मोह-माया
संसदीय परंपरा को
आज बदलो, लोक जोड़ो-
तंत्र को जन हेतु मोड़ो
१३-५-२०१४
***