कुल पेज दृश्य

शनिवार, 23 अप्रैल 2022

सॉनेट, चिंतन,पुस्तक दिवस,मुक्तिका,लघुकथा,गीत,भोजपुरी, कहावतें

सॉनेट
पृथ्वी दिवस
पृथ्वी दनुजों से थर्रायी
ऐसा हमें अतीत बताता
पृथ्वी अब भी है घबरायी
ऐसा वर्तमान बतलाता

क्या भविष्य बस यही कहेगा
धरती पर रहते थे इन्सां
या भविष्य ही नहीं रहेगा?
होगा एक न करे जो बयां

मात्र 'मैं' सही, शेष गलत हैं
मेरा कहा सभी जन मानें
अहंकार भय क्रोध द्वेष हैं
मूल नाश के कारण जानें

विश्व एक परिवार, एक घर
माने हँसे साध सब मिलकर
२३-४-२०२२
•••
चिंतन सलिला  ५
कब?
'कब' का महत्व क्या, क्यों, कैसे के क्रम में अन्य किसी से कम नहीं है।

'कब' क्या करना है यह ज्ञात हो तो किये गये का परिणाम मनोनुकूल होता है।

'कब' का महत्व कैकेयनंदिनी कैकशी भली-भाँति जानती थीं। यदि उन्होंने कोप कर वरदान राम राज्याभिषेक के

ठीक पहले न माँगकर किसी अन्य मय माँगे होते तो राम का चरित्र निखर ही न पाता, न ही दनुज राज का अंत नहीं होता।

'कब' न जानने के कारण ही हमारी संस्थाओं के कार्य, कार्यक्रम और निर्णय फलदायी नहीं हैं।

'कब' करना या न करना कैसे जानें?

याद रखें 'अग्रसोची सदा सुखी'। समय से पहले सोच-विचारकर यथासमय किया गया काम ही सुलझाया होता है।

'कब' का सही अनुमान कर वर्षा के पूर्व छत और छाते की मरम्मत, शीत के पहले गर्म कपड़ों की धुलाई और गर्मी के पहले कूलर-पंखों की देखभाल न हो तो परेशानी होगी ही।

'कब' क्या करना या न करना, यह जानना संस्था पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं के लिए बहुत जरूरी है।

यह न जानने के कारण ही संस्थाएँ अप्रासंगिक हो गई हैं और समाज उनसे दूर हो गया है।

संस्थाओं का गठन समाज के मगल और कमजोरों की सहायता के लिए किया जाता है। संस्था से इस उद्देश्य की पूर्ति न हो, वह केवल संपन्न वर्ग के मिलने, मौज करने का माध्यम बन जाए तो समाज उससे दूर हो जाता है।

कब किसके लिए क्या किस प्रकार करना है? यह न सोचा जाए तो संस्था वैयक्तिक यश, लाभ और स्वार्थ का जरिया बनकर मर जाती है।

'कब' की कसौटी पर खुद को और संस्था को कसकर देखिए।
२३-४-२०२२
संजीव, ९४२५१८३२४४

•••
पुस्तक दिवस (२३ अप्रैल) पर
मुक्तिका
*
मीत मेरी पुस्तकें हैं
प्रीत मेरी पुस्तकें हैं
हार ले ले आ जमाना
जीत मेरी पुस्तकें हैं
साँस लय है; आस रस है
गीत मेरी पुस्तकें हैं
जमातें लाईं मशालें
भीत मेरी पुस्तकें हैं
जग अनीत-कुरीत ले ले
रीत मेरी पुस्तकें हैं
२३-४-२०२०
***
विमर्श : चाहिए या चाहिये?
हिन्दी लेखन में हमेशा स्वरात्मक शब्दों को प्रधानता दी जाती है मतलब हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं।
चाहिए या चाहिये दोनों शब्दों के अर्थ एक ही हैं। लेखन की दृष्टि से कब क्या लिखना चाहिए उसका वर्णन निम्नलिखित है।
चाहिए - स्वरात्मक शब्द है अर्थात बोलने में 'ए' स्वर का प्रयोग हो रहा है। इसलिए लेखन की दृष्टि से चाहिए सही है।
चाहिये - यह श्रुतिमूलक है अर्थात सुनने में ए जैसा ही प्रतीत होता है इसलिए चाहिये लिखना सही नहीं है। क्योंकि हिन्दी भाषा में स्वर आधारित शब्द जिसमें आते हैं, लिखने में वही सही माने जाते हैं।
आए, गए, करिए, सुनिए, ऐसे कई शब्द हैं जिसमें ए का प्रयोग ही सही है।
***
लघुकथा
जाति
*
_ बाबा! जाति क्या होती है?
= क्यों पूछ रही हो?
_ अखबारों और दूरदर्शन पर दलों द्वारा जाति के आधार चुनाव में प्रत्याशी खड़े किए जाने और नेताओं द्वारा जातिवाद को बुरा बताए जाने से भ्रमित पोती ने पूछा।
= बिटिया! तुम्हारे मित्र तुम्हारी तरह पढ़-लिख रहे बच्चे हैं या अनपढ़ और बूढ़े?
_ मैं क्यों अनपढ़ को मित्र बनाऊँगी? पोती तुनककर बोली।
= इसमें क्या बुराई है? किसी अनपढ़ की मित्र बनकर उसे पढ़ने-बढ़ने में मदद करो तो अच्छा ही है लेकिन अभी यह समझ लो कि तुम्हारे मित्रों में एक ही शाला में पढ़ रहे मित्र एक जाति के हुए, तुम्हारे बालमित्र जो अन्यत्र पढ़ रहे हैं अन्य जाति के हुए, तुम्हारे साथ नृत्य सीख रहे मित्र भिन्न जाति के हुए।
_ अरे! यह तो किसी समानता के आधार पर चयनित संवर्ग हुआ। जाति तो जन्म से होती है न?
= एक ही बात है। संस्कृत की 'जा' धातु का अर्थ होता है एक स्थान से अन्य स्थान पर जाना। जो नवजात गर्भ से संसार में जाता है वह जातक, जन्म देनेवाली जच्चा, जन्म देने की क्रिया जातकर्म, जन्म दिया अर्थात जाया....
_ तभी जगजननी दुर्गा का एक नाम जाया है।
= शाबाश! तुम सही समझीं। बुद्ध द्वारा विविध योनियों में जन्म या अवतार लेने की कहानियाँ जातक कथाएँ हैं।
_ यह तो ठीक है लेकिन मैं...
= तुम समान आचार-विचार का पालन कर रहे परिवारों के समूह और उनमें जन्म लेनेवाले बच्चों को जाति कह रही हो। यह भी एक अर्थ है।
_ लेकिन चुनाव के समय ही जाति की बात अधिक क्यों होती है?
= इसलिए कि समान सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों में जुड़ाव होता है तथा वे किसी परिस्थिति में समान व्यवहार करते हैं। चुनाव जीतने के लिए मत संख्या अधिक होना जरूरी है। इसलिए दल अधिक मतदाताओं वाली जाति का उम्मीदवार खड़ा करते हैं।
_ तब तो गुण और योग्यता के कोई अर्थ ही नहीं रहा?
= गुण और योग्यता को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुने जाएँ तो?
_ समझ गई, दल धनबल, बाहुबल और संख्याबल को स्थान पर शिक्षा, योग्यता, सच्चरित्रता और सेवा भावना को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुनें तो ही अच्छे जनप्रतिनिधि, अच्छी सरकार और अच्छी नीतियाँ बनेंगी।
= तुम तो सयानी हो गईं हो बिटिया! अब यह भी देखना कि तुम्हारे मित्रों की भी हो यही जाति।
***
लघुकथा
नोटा
*
वे नोटा के कटु आलोचक हैं। कोई नोटा का चर्चा करे तो वे लड़ने लगते। एकांगी सोच के कारण उन्हें और अन्य राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं के केवल अपनी बात कहने से मतलब था, आते भाषण देते और आगे बढ़ जाते।
मतदाताओं की परेशानी और राय से किसी को कोई मतलब नहीं था। चुनाव के पूर्व ग्रामवासी एकत्र हुए और मतदान के बहिष्कार का निर्णय लिया और एक भी मतदाता घर से नहीं निकला।
दूरदर्शन पर यह समाचार सुन काश, ग्रामवासी नोटा का संवैधानिक अधिकार जानकर प्रयोग करते तो व्यवस्था के प्रति विरोध व्यक्त करने के साथ ही संवैधानिक दायित्व का पालन कर सकते थे।
दलों के वैचारिक बँधुआ मजदूर संवैधानिक प्रतिबद्धता के बाद भी अपने अयोग्य ठहराए जाने के भय से मतदाताओं को नहीं बताना चाहते कि उनका अधिकार है नोटा।
२३-४-२०१९
***
गीत
*
देहरी बैठे दीप लिए दो
तन-मन अकुलाए.
संदेहों की बिजली चमकी,
नैना भर आए.
*
मस्तक तिलक लगाकर भेजा, सीमा पर तुमको.
गए न जाकर भी, साँसों में बसे हुए तुम तो.
प्यासों का क्या, सिसक-सिसककर चुप रह, रो लेंगी.
आसों ने हठ ठाना देहरी-द्वार न छोड़ेंगी.
दीपशिखा स्थिर आलापों सी,
मुखड़ा चमकाए.
मुखड़ा बिना अन्तरा कैसे
कौन गुनगुनाए?
*
मौन व्रती हैं पायल-चूड़ी, ऋषि श्रृंगारी सी.
चित्त वृत्तियाँ आहुति देती, हो अग्यारी सी.
रमा हुआ मन उसी एक में जिस बिन सार नहीं.
दुर्वासा ले आ, शकुंतला का झट प्यार यहीं.
माथे की बिंदी रवि सी
नथ शशि पर बलि जाए.
*
नीरव में आहट की चाहत, मौन अधर पाले.
गजरा ले आ जा निर्मोही, कजरा यश गा ले.
अधर अधर पर धर, न अधर में आशाएँ झूलें.
प्रणय पखेरू भर उड़ान, झट नील गगन छू लें.
ओ मनबसिया! वीर सिपहिया!!
याद बहुत आए.
घर-सरहद पर वामा
यामा कुलदीपक लाए.
२३-४-२०१८
***
कहावत सलिला:
भोजपुरी कहावतें:
*
भोजपुरी कहावतें दी जा रही हैं. पाठकों से अनुरोध है कि अपने-अपने अंचल में प्रचलित लोक भाषाओँ, बोलियों की कहावतें भावार्थ सहित यहाँ दें ताकि अन्य जन उनसे परिचित हो सकें. .
१. पोखरा खनाचे जिन मगर के डेरा.
२. कोढ़िया डरावे थूक से.
३. ढेर जोगी मठ के इजार होले.
४. गरीब के मेहरारू सभ के भौजाई.
५. अँखिया पथरा गइल.
***
मुक्तिका :
*
राजनीति धैर्य निज खोती नहीं.
भावनाओं की फसल बोती नहीं..
*
स्वार्थ के सौदे नगद होते यहाँ.
दोस्ती या दुश्मनी होती नहीं..
*
रुलाती है विरोधी को सियासत
हारकर भी खुद कभी रोती नहीं..
*
सुन्दरी सत्ता की है सबकी प्रिया.
त्याग-सेवा-श्रम का सगोती नहीं..
*
दाग-धब्बों की नहीं है फ़िक्र कुछ.
यह मलिन चादर 'सलिल' धोती नहीं..
२३-४-२०१०
*

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

कृष्ण कला, कृष्ण प्रज्ञा

कृष्ण प्रज्ञा की भाषा नीति

०१.  स्वर-व्यंजन निम्न अनुसार होंगें-
       (अ) स्वर - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अनुस्वार- अं विसर्ग: अ:। 

      (आ ) व्यंजन - क, ख, ग, घ, ङ (क़, ख़, ग़), च, छ, ज, झ, ञ (ज़, झ़), ट, ठ, ड, ढ, ण (ड़, ढ़), त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, (फ़),          य, र, ल, व, श, ष, स, ह। 

      (इ) संयुक्त वर्ण- क्ष, त्र, ज्ञ, श्र, क्र, प्र, ब्र, स्र, ह्र, ख्र आदि। संयुक्त वर्ण (अ) खड़ी पाईवाले व्यंजन - ख्यात, लग्न, विघ्न, कच्चा, छज्जा, नगण्य, कुत्ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास, प्यास, अब्बा, सभ्य, रम्य, अय्याश, उल्लेख, व्यास, श्लोक, राष्ट्रीय, स्वीकृति, यक्ष्मा, त्र्यंबक। (आ) अन्य व्यंजन - संयुक्त, पक्का, दफ्तर, वाङ्मय, लट्टू, बुड्ढा, विद्या, ब्रह्मा,प्रकार, धर्म, श्री, श्रृंगार, विद्वान, चिट्ठी, बुद्धि, विद्या, चंचल, अंक, वृद्ध; द्वैत आदि।

      संस्कृत भाषा के मूल श्लोकों को उद्धृत करते समय मूल अंश में प्रयुक्त वर्ण, संयुक्ताक्षर तथा हिंदी वर्णमाला में जो वर्ण शामिल नहीं हैं, वे यथावत लिखे जाएँ। पाली, ब्राह्मी, प्रकृत, कैथी, शारदा आदि लिपियों के उद्धरण मूल उच्चारण के अनुसार देवनागरी में लिखे जाएँ।     

०२. कृष्ण प्रज्ञा की मुख्य भाषा आधुनिक (खड़ी) हिंदी तथा लिपि देवनागरी है। संस्कृत, भारतीय भाषाओँ-बोलिओं, आंचलिक बोलिओं           तथा विदेशी भाषा-बोलिओं के उद्धरण यथास्थान दिए जा सकते हैं। अहिन्दी भाषाओँ के उद्धरण देते समय मूल उच्चारण देवनागरी            लिपि में तथा हिंदी अर्थ दिया जाना चाहिए। 

०३. लेखक उद्धरणों की शुद्धता तथा प्रामाणिकता हेतु जिम्मेदार होंगे। प्रयुक्त उद्धरणों के संदर्भ आरोही (बढ़ते हुए) क्रम में लेख के अंत में देंगे। पृष्ठ डिजाइनर हर पृष्ठ पर मुद्रित सामग्री संबंधी उद्धरणों के संदर्भ उसी पृष्ठ पर पाद टिप्पणी के रूप में देंगे। 

०४. रचनाओं में तत्सम-तद्भव शब्दों का प्रयोग स्वीकार्य है। 

०५. रचनाओं में केवल यूनिकोड या यूनिकोड समर्थित फॉण्ट का उपयोग करें जिसे कोकिला फॉण्ट में परिवर्तित कर मुद्रित किया जायेगा। 

०६. कृष्णप्रज्ञा में हिंदी संस्करण में देवनागरी अंकों तथा अंग्रेजी संस्करण में अंग्रेजी अंकों का प्रयोग किया जाए। 

०७. हिंदी में पारंपरिक रूप से नुक्ता का प्रयोग नहीं किया जाता है। लेखक अपनी भाषा-शैली में चाहे तो नुक्ता का प्रयोग यथास्थान कर सकता है।   

०८. कारक चिह्न (परसर्ग) - 

(अ) हिंदी के कारक : कर्ता - ने, कर्म - को, करण - से; द्वारा, संप्रदान - को; के लिए, अपादान - से (पृथक होना), संबंध - का; के; की; ना, नी ने, रा, री, रे, अधिकरण - में; पर, संबोधन - हे; अहो, अरे, अजी आदि हैं। 

(आ) संज्ञा शब्दों में कारक प्रतिपादक से अलग लिखें। 

(इ) सर्वनाम शब्दों में करक को प्रतिपादक के साथ मिलाकर लिखें।

(ई) सर्वनाम के साथ दो कारक एक साथ हों तो पहला कारक मिलाकर तथा दूसरा अलग लिखा जाए। सर्वनाम और कारक के बीच निपात हों तो कारक को पृथक लिखें।

०९. संयुक्त क्रिया पद - 

सभी अंगीभूत क्रियाएँ अलग-अलग लिखें। 

१०. योजक चिह्न (हाइफ़न -) - इसका प्रयोग स्पष्टता के लिए किया जाता है। 

(अ) द्वंद्व समास में पदों के बीच में योजक चिह्न हो। उदाहरण :-  शिव-पार्वती, लिखना-पढ़ना आदि। 

(आ) सा, से, सी के पूर्व योजक चिह्न हो। जैसे :- तुम-सा, उस-सी, कलम से आदि। 

(इ) तत्पुरुष समास में योजक चिह्न का प्रयोग केवल वहीं हो जहाँ उसके बिना भ्रम की संभावना हो, अन्यथा नहीं। जैसे भू-तत्व = पृथ्वी तत्व, भूतत्व = भूत होने का भाव या लक्षण आदि। 

(ई) कठिन संधियों से बचने के लिए भी योजक  प्रयोग किया जा सकता है। द्वयक्षर के स्थान पर  द्वि-अक्षर, त्र्यंबक के स्थान पर त्रि-अंबक। इससे अहिन्दीभाषियों के लिए समझना आसान होगा।  

११. अव्यय -

(अ) 'तक', 'साथ' आदि अव्यय हमेशा अलग लिखें। जैसे :-वहाँ तक, उसके साथ। 

(आ) जब अव्यय के आगे परसर्ग (कारक) आए तब भी अव्यय अलग ही लिखा जाए। अब से, सदा के लिए, मुझे जाने तो दो, बीघा भर जमीन, बात भी नहीं बनी आदि। 

(इ) सब पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि समास होने पर सकल पद एक माना जाता है। यथा :- 'दस रूपए मात्र , मात्र कुछ रुपए आदि। 

१२. सम्मानसूचक अव्यय 

(अ) सम्मानात्मक अव्यय पृथक लिखें। यथा :- श्री चित्रगुप्त जी, पूज्य स्वामी विवेकानंद आदि। 

(आ) श्री संज्ञा का भाग हो तो अलग नहीं लिखें।  जैसे :- श्रीगोपाल श्रीवास्तव। 

(इ) सभी पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय जोड़कर लिखें। उदाहरण :- प्रतिदिन, प्रतिशत, नित्यप्रति, मानवमात्र, निमित्तमात्र, यथासमय, यथोचित, यथाशक्ति आदि।        

१३. अनुस्वार (शिरोबिंदु/बिंदी)

(अ)  अनुस्वार व्यंजन है। 

(आ) संस्कृत शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग अन्य वर्णीय वर्णों (य से ह तक) से पहले रहेगा। यथा :- यंत्र, रंचमात्र, लंब, वंश, शंका, संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, संक्षेप, संतोष, हंपी, अंश, कंस, सिंह आदि। 

(इ) संयुक्त वर्ण में पाँचवे अक्षर ('ङ्', ञ्, ण, न, म) के बाद सवर्णीय वर्ण हो तो अनुस्वार का प्रयोग करें। यथा :- कंगाल, खंगार, गंगा, घंटा, चंचु, छंद, जंजाल, झंझट, टंकर, ठंडा, डंडी, तंदूर, थंब, दंश, धंधा, नंद, पंच, फंदा, बंधु, भंते, मंदिर आदि। 

(ई) पाँचवे अक्षर के बाद अन्य वर्ग का वर्ण आए तो पांचवा अक्षर अनुस्वार के रूप में नहीं बदलेगा। जैसे :- वाङ्मय, अन्य, उन्मुख, चिन्मय, जन्मेजय, तन्मय आदि। 

(उ) पाँचवा वर्ण साथ-साथ आए तो अनुस्वार में नहीं बदलेगा। जैसे :- अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि। 

(ऊ) अन्य भाषाओँ (उर्दू, अंग्रेजी आदि) से लिए गए शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को दूर करने के लिए नासिक्य (न, म) व्यंजन पूरा लिखें। जैसे :- लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि। 

१४. अनुनासिक (चंद्रबिंदु) 

(अ) अनुनासिक स्वर का नासिक्य विकार है। यह, व्यंजन नहीं,स्वरों का ध्वनि गुण है। अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में मुँह और नाक से वायु प्रवाह होता है। जैसे :- अँ, आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ आदि।

(आ) अनुस्वार और अनुनासिक के गलत प्रयोग से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। जैसे :- हंस = पक्षी, हँस - क्रिया, आंगन 

(इ) जहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का प्रयोग भ्रम न उत्पन्न करे वहाँ निषेध नहीं है। जैसे :- में, मैं, नहीं, आदि में अनुनासिक के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग। 

१५. विसर्ग 

(अ) तत्सम रूप में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों में विसर्ग का प्रयोग यथास्थान किया जाए। जैसे :- दु:खानुभूति।

(आ) तत्सम शब्दों के अंत में विसर्ग का प्रयोग अवश्य हो। यथा :- अत:. पुन:, स्वत:, प्राय:, मूलत:, अंतत:, क्रमश: आदि। 

(इ) विसर्ग के स्थान पर उसके उच्चरित रूप 'ह' का प्रयोग कतई न किया जाए।  

(ई) दुस्साहस, निस्स्वार्थ तथा निश्शब्द का नहीं, दु:साहस, नि:स्वार्थ तथा नि:शब्द का प्रयोग करें। 

(उ) निस्तेज, निर्वाचन, निश्छल लिखें। नि:तेज, नि:वचन,नि:चल न लिखें। 

(ऊ) अंत:करण, अंत:पुर, दु:स्वप्न, नि:संतान, प्रात:काल विसर्ग सहित ही लिखें। 

(ए) तद्भव / देशी शब्दों में विसर्ग का प्रयोग न करें। छः नहीं छह लिखें। 

(ऐ) प्रायद्वीप, समाप्तप्राय आदि में विसर्ग नहीं है। 

(ओ) विसर्ग को वर्ण के साथ चिपकाकर लिखा जाए जबकि उपविराम (कोलन) चिन्ह शब्द से कुछ दूरी पर हो। अत:, जैसे :- आदि। 

१६. हल् चिह्न ( ् )

(अ) व्यंजन के नीचे लगा हल् चिह्न बताता है कि वह व्यंजन स्वर रहित है। हल् चिह्न लगा शब्द 'हलंत' शब्द है। जैसे :- जगत्। 

(आ) संयुक्ताक्षर बनाने में हल् चिह्न का प्रयोग आवश्यक है। यथा :- बुड्ढा, विद्वान आदि। 

(इ) तत्सम शब्दों का प्रयोग हलन्त रूपों के साथ हो। प्राक्, वाक्, सत्, भगवन्, साक्षात्, जगत्, तेजस्, विद्युत्, राजन् आदि। महान, विद्वान आदि में हल् चिह्न न लगाएँ। 

१७. स्वन परिवर्तन 

संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी ज्यों की त्यों रखें। 'ब्रह्मा' को ब्रम्हा, चिह्न को चिन्ह न लिखें। अर्ध, तत्त्व आदि स्वीकार्य हैं। 

१८. 'ऐ' तथा 'औ' का प्रयोग 

(अ) 'ै' तथा ' ौ' का प्रयोग दो तरह से (अ) मूल स्वरों की तरह - 'है', 'और' आदि में तथा सन्ध्यक्षरों के रूप में 'गवैया', कौवा' आदि में किया जा सकता है। इन्हें 'गवय्या', 'कव्वा' आदि न लिखें। 

(आ) अहिन्दी शब्दों 'अय्यर', 'नय्यर', 'रामय्या' को 'ऐयर', 'नैयर', 'रामैया' न लिखें। 'अव्वल', 'कव्वाली' आदि प्रचलित शब्द यथावत प्रयोग किए जा सकते हैं। 

(अ) संस्कृत शब्द 'शय्या' को 'शैया' या 'शइया' न लिखें। 

१९. पूर्वकालिक कृदंत 

(अ) पूर्वकालिक कृदंत क्रिया से मिलाकर लिखें। जैसे :- आकर, सुलाकर, दिखलाकर आदि। 

(आ) कर + कर = 'करके', करा + कर = 'कराके' होगा।

२०. 'वाला' प्रत्यय 

(अ) क्रिया रूप में अलग लिखें।  जैसे :- करने वाला, बोलने वाला आदि। 

(आ) योजक प्रत्यय के रूप में एक साथ लिखें। यथा :- दिलवाला, टोपीवाला, दूधवाला आदि। 

(इ) निर्देशक शब्द के रूप में 'वाला' अलग से लिखें। जैसे :- अच्छी वाली बात, कल वाली कहानी, यह वाला गीत आदि। 

२१. श्रुतिमूलक 'य', 'व्' 

(अ) विकल्प रूप में प्रयोग न किया जाए। जैसे :- 'किए', 'नई', 'हुआ' आदि के स्थान पर 'किये', 'नयी', 'हुवा' आदि का प्रयोग न करें। 

(आ) जहाँ 'य' शब्द का मूल तत्व हो वहाँ उसे न बदलें। जैसे :- 'स्थायी', 'अव्ययीभाव', 'दायित्व' आदि को 'स्थाई', 'अव्यईभाव', 'दाइत्व' आदि न लिखें। 

अहिन्दी-विदेशी ध्वनियाँ 

(अ) अरबी-फ़ारसी (उर्दू) शब्द - 

(क) हिंदी का अभिन्न अंग बन चुके अरबी-फ़ारसी शब्द बिना नुक्ते के लिखें। जैसे :- 'कलम', 'किला', 'दाग' लिखें, 'क़लम', 'क़िला', 'दाग़' न लिखें। 

(ख) जहाँ शब्द को मूल भाषा के अनुसार लिखना आवश्यक हो वहाँ हिंदी रूप में यथास्थान नुक्ता (बिंदु) लगाएँ। जैसे- 'खाना', 'राज', 'फन' के स्थान पर 'ख़ाना', 'राज़', 'फ़न' आदि लिखें। 

(आ) अंग्रेजी शब्द 

(क) जिन अंग्रेजी शब्दों में अर्ध विवृत 'ओ' ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध हिंदी रूप के लिए 'ा ' (आ की मात्रा) के ऊपर अर्धचंद्र लगाएँ। जैसे :- हॉल, मॉल, चॉल, डॉल, टॉकीज, मॉम आदि। 

(ख) अंग्रेजी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण मूल उच्चारण के अधिक से अधिक निकट हो। 

(इ) अन्य विदेशी भाषाओँ के शब्द 

चीनी, जापानी, जर्मन आदि भाषाओँ के शब्दों को देवनागरी में लिखते समय उनके उच्चारण साम्य पर ध्यान दें। 'बीजिंग' को 'पीकिंग' न लिखें।        

   


         


   


      



             



  

***
कृष्ण विद्याएँ - कलाएँ 
भगवान् श्रीकृष्ण की ६४ विद्याएँ एवं कलाएँ निम्न हैं-
१ - गीतं 
२ - वाद्यं 
३ - नृत्यं 
४ - आलेख्यं
५ - विशेषकच्छेद्यं 
६ - तण्डुलकुसुमवलि विकाराः 
७ - पुष्पास्तरणं 
८ दशनवसनागरागः 
९ - मणिभूमिकाकर्म 
१० - शयनरचनं 
११ - उदकवाद्यं 
१२ - उदकाघातः 
१३ - चित्राश्च योगाः 
१४ - माल्यग्रथन विकल्पाः 
१५ - शेखरकापीडयोजनं 
१६ - नेपथ्यप्रयोगाः 
१७ - कर्णपत्त्र भङ्गाः 
१८ - गन्धयुक्तिः 
१९ - भूषणयोजनं 
२० - ऐन्द्रजालाः 
२१ - कौचुमाराश्च 
२२ -  हस्तलाघवं 
२३ - विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया 
२४ - पानकरसरागासवयोजनं 
२५ - सूचीवानकर्माणि 
२६ - सूत्रक्रीडा 
२७ - वीणाडमरुकवाद्यानि 
२८ - प्रहेलिका 
२९ - प्रतिमाला 
३० - दुर्वाचकयोगाः
३१ - पुस्तकवाचनं 
३२ - नाटकाख्यायिकादर्शनं 
३३ - काव्यसमस्यापूरणं 
३४ - पट्टिकावानवेत्रविकल्पाः 
३५ - तक्षकर्माणि 
३६ - तक्षणं 
३७ -  वास्तुविद्या 
३८ - रूप्यपरीक्षा 
३९ - धातुवादः 
४० - मणिरागाकरज्ञानं 
४१ - वृक्षायुर्वेदयोगाः 
४२ - मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः 
४३ - शुकसारिकाप्रलापनं 
४४ - उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलं 
४५ - अक्षरमुष्तिकाकथनम् 
४६ - म्लेच्छितविकल्पा: 
४७ - देशभाषाविज्ञानं 
४८ - पुष्पशकटिका 
४९ - निमित्तज्ञानं 
५० - यन्त्रमातृका
५१ - धारणमातृका 
५२ - सम्पाठ्यं 
५३ - मानसी काव्यक्रिया 
५४ - अभिधानकोशः 
५५ - छन्दोज्ञानं
५६ - क्रियाकल्पः 
५७ - छलितकयोगाः 
५८ - वस्त्रगोपनानि 
५९ - द्यूतविशेषः 
६० - आकर्षक्रीडा 
६१ - बालक्रीडनकानि 
६२ - वैनयिकीनां 
६३ - वैजयिकीनां 
६४ - व्यायामिकीनां 
६५ - विद्यानां ज्ञानं इति चतुःषष्टिरङ्गविद्या. कामसूत्रावयविन्यः. ॥कामसूत्र १.३.१५ ॥
६४ कलाएँ 
१ - नृत्य – नाचना
२ - वाद्य- तरह-तरह के बाजे बजाना
३ - गायन विद्या – गायकी।
४ - नाट्य – तरह-तरह के हाव-भाव व अभिनय
५ - इंद्रजाल- जादूगरी
६ - नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना
७ - सुगंधित चीजें- इत्र, तेल आदि बनाना
८ - फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना
९ - बेताल आदि को वश में रखने की विद्या
१० - बच्चों के खेल
११ - विजय प्राप्त कराने वाली विद्या
१२ - मन्त्रविद्या
१३ - शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना
१४ - रत्नों को अलग-अलग प्रकार के आकारों में काटना
१५ - कई प्रकार के मातृका यन्त्र बनाना
१६ - सांकेतिक भाषा बनाना
१७ - जल को बांधना।
१८ - बेल-बूटे बनाना
१९ - चावल और फूलों से पूजा के उपहार की रचना करना। (देव पूजन या अन्य शुभ मौकों पर कई रंगों से रंगे चावल, जौ आदि चीजों और फूलों को तरह-तरह से सजाना)
२० - फूलों की सेज बनाना।
२१ - तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना – इस कला के जरिए तोता-मैना की तरह बोलना या उनको बोल सिखाए जाते हैं।
२२ - वृक्षों की चिकित्सा
२३ - भेड़, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति
२४ - उच्चाटन की विधि
२५ - घर आदि बनाने की कारीगरी
२६ - गलीचे, दरी आदि बनाना
२७ - बढ़ई की कारीगरी
२८ - पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना यानी आसन, कुर्सी, पलंग आदि को बेंत आदि चीजों से बनाना।
२९ - तरह-तरह खाने की चीजें बनाना यानी कई तरह सब्जी, रस, मीठे पकवान, कड़ी आदि बनाने की कला।
३० - हाथ की फूर्ती के काम
३१ - चाहे जैसा वेष धारण कर लेना
३२ - तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना
३३ - द्यू्त क्रीड़ा
३४ - समस्त छन्दों का ज्ञान
३५ - वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या
३६ - दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण
३७ - कपड़े और गहने बनाना
३८ - हार-माला आदि बनाना
३९ - विचित्र सिद्धियां दिखलाना यानी ऐसे मंत्रों का प्रयोग या फिर जड़ी-बुटियों को मिलाकर ऐसी चीजें या औषधि बनाना जिससे शत्रु कमजोर हो या नुकसान उठाए।
४० - कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना – स्त्रियों की चोटी पर सजाने के लिए गहनों का रूप देकर फूलों को गूंथना।
४१ - कठपुतली बनाना, नाचना
४२ - प्रतिमा आदि बनाना
४३ - पहेलियां बूझना
४४ - सूई का काम यानी कपड़ों की सिलाई, रफू, कसीदाकारी व मोजे, बनियान या कच्छे बुनना।
४५  – बालों की सफाई का कौशल
४६ - मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना
४७ - कई देशों की भाषा का ज्ञान
४८  - मलेच्छ-काव्यों का समझ लेना – ऐसे संकेतों को लिखने व समझने की कला जो उसे जानने वाला ही समझ सके।
४९  - सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा
५०  - सोना-चांदी आदि बना लेना
५१  - मणियों के रंग को पहचानना
५२ - खानों की पहचान
५३ - चित्रकारी
५४ - दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना
५५ - शय्या-रचना
५६ - मणियों की फर्श बनाना यानी घर के फर्श के कुछ हिस्से में मोती, रत्नों से जड़ना।
५७ - कूटनीति
५८ - ग्रंथों को पढ़ाने की चातुराई
५९ - नई-नई बातें निकालना
६० - समस्यापूर्ति करना
६१ - समस्त कोशों का ज्ञान
६२ - मन में कटक रचना करना यानी किसी श्लोक आदि में छूटे पद या चरण को मन से पूरा करना।
६३ -छल से काम निकालना
६४ - कानों के पत्तों की रचना करना यानी शंख, हाथीदांत सहित कई तरह के कान के गहने तैयार करना।
सच तो यह है भगवान श्री कृष्ण परमात्मा है यह ६४ कलाएँ क्या वह तो ईश्वर हैं सम्पूर्ण हैं, सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापी हैं, पालनहारी और बहुत दयालु हैं।

कृष्ण-प्रज्ञा

प्रतिष्ठा में-
माननीय श्री / सुश्री/श्रीमती ....................................................
.............................................................................................
.............................................................................................

सविनय निवेदन है कि-

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका के प्रवेशांक को अपने आशीर्वचन से सिंचित कर इसके अंकुरण, पल्लवन में सहायक हों। कृष्ण-राधा भावधारा की वैश्विक पत्रिका कृष्ण प्रज्ञा का प्रवेशांक आपके अमृतमय सचित्र संदेश से समृद्ध होकर सुहृद पाठकों के ह्रदयों में रसानंद का संचार करेगा।  

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका का प्रकाशन आनंदकंद श्रीकृष्ण एवं श्री राधा के लीला-प्रसंगों, भक्ति-धारा, लोक-कल्याण, दर्शन-चिंतन, जीवन मूल्य, रीति-नीति तथा त्याग-बलिदान आदि पर नवोन्मेषित दृष्टिपात हेतु वैश्विक धरातल पर आरंभ किया जा रहा है। 

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका में देश-विदेश के कवि, लेखक, समीक्षक, चिंतक, दार्शनिक, चित्रकार, लोकसेवक, राजनेता आदि अपनी श्रेष्ठ सृजन सामर्थ्य के माध्यम से पाठकों-श्रोताओं को कृष्ण-चिंतन धारा में अवगाहन कराएँगे। 

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका के हर पृष्ठ और हर रचना में नवता, ऋजुता, मौलिकता, चिंतनपरकता तथा सृजनत्मकता प्रधान स्वर होगा ताकि पाठक की मानसिक तनाव से मुक्ति और  रसानंद से युक्ति हो सके। 

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका का अध्ययन मात्र पर्याप्त नहीं होगा, रचनाओं में अन्तर्निहित सकारात्मक विचार मानव मन को नव स्फूर्ति, प्रेरणा तथा उत्साह देकर नव सृजन हेतु प्रेरित करेंगे। 

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका किसी राजनैतिक दल / विचारधारा विशेष के समीप या दूर नहीं है। यह विशुद्ध लीलावतार कृष्ण-राधा के अवतरण, संघर्ष, अवदान तथा भविष्य निर्माण की आधार भूमि होने की संभावना पर केंद्रित है। 

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका में लेखन हेतु सस्नेह आमंत्रण है उन सभी को जिन्हें वेणु के स्वर भाते हैं, मयूर पंख के रंग लुभाते हैं, गोवत्स भाते हैं, नृत्य-गान लुभाते हैं, जो सतत दृढ़ संकल्प कर बाधाओं पर जय पाते हैं, नवाशा के अंकुर उपजाते हैं और सफलता का श्रेय सबको देकर लोक मंगलमयी रास रचाते हैं। 

आपके अमूल्य सहयोग की प्रत्याशा में 

 संपादक मंडल  

सॉनेट,चिंतन,कैसे?,मनरंजन,कुंडलिया,श्री श्री,दोहा,मुक्तक

सॉनेट
मौसम
मौसम करवट बदल रहा है
इसका साथ निभाएँ कैसे?
इसको गले लगाएँ कैसे?
दहक रहा है, पिघल रहा है

बेगाना मन बहल रहा है
रोज आग बरसाता सूरज
धरती को धमकाता सूरज
वीरानापन टहल रहा है

संयम बेबस फिसल रहा है
है मुगालता सम्हल रहा है
यह मलबा भी महल रहा है

व्यर्थ न अपना शीश धुनो
कोरे सपने नहीं बुनो
मौसम की सिसकियाँ सुनो
२२-४-२०२२
•••
सॉनेट
महाशक्ति
महाशक्ति हूँ; दुनिया माने
जिससे रूठूँ; उसे मिटा दूँ
शत्रु शांति का; दुनिया जाने
चाहे जिसको मार उठा दूँ

मौतों का सौदागर निर्मम
गोरी चमड़ी; मन है काला
फैलाता डर दहशत मातम
लज्जित यम; मरघट की ज्वाला

नर पिशाच खूनी हत्यारा
मिटा जिंदगी खुश होता हूँ
बारूदी विष खाद मिलाकर
बीज मिसाइल के बोता हूँ

सुना नाश के रहा तराने
महाशक्ति हूँ दुनिया माने
२२-४-२०२२
•••
चिंतन ४
कैसे?
'कैसे' का विचार तभी होता है इससे पहले 'क्यों' और 'क्या' का निर्णय ले लिया गया हो।

'क्यों' करना है?

इस सवाल का जवाब कार्य का औचित्य प्रतिपादित करता है। अपनी गतिविधि से हम पाना क्या चाहते हैं?

'क्या' करना है?

इस प्रश्न का उत्तर परिवर्तन लाने की योजनाओं और प्रयासों की दिशा, गति, मंज़िल, संसाधन और सहयोगी निर्धारित करता है।

'कैसे'

सब तालों की चाबी यही है।

चमन में अमन कैसे हो?

अविनय (अहंकार) के काल में विनय (सहिष्णुता) से सहयोग कैसे मिले?

दुर्बोध हो रहे सामाजिक समीकरण सुबोध कैसे हों?

अंतर्राष्ट्रीय, वैश्विक और ब्रह्मांडीय संस्थाओं और बरसों से पदों को पकड़े पुराने चेहरों से बदलाव और बेहतरी की उम्मीद कैसे हो?

नई पीढ़ी की समस्याओं के आकलन और उनके समाधान की दिशा में सामाजिक संस्थाओं की भूमिका कितनी और कैसे हो?

नई पीढ़ी सामाजिक संस्थाओं, कार्यक्रमों और नीतियों से कैसे जुड़े?

कैसे? कैसे? कैसे?

इस यक्ष प्रश्न का उत्तर तलाशने का श्रीगणेश कैसे हो?
२२•४•२०२२
संजीव, ९४२५१ ८३२४४
•••
मनरंजन -
आर्य भट्ट ने शून्य की खोज ६ वीं सदी में की तो लगभग ५००० वर्ष पूर्व रामायण में रावण के दस सर की गणना और त्रेता में सौ कौरवों की गिनती कैसे की गयी जबकि उस समय लोग शून्य (जीरो) को जानते ही नही थे।
*
आर्यभट्ट ने ही (शून्य / जीरो) की खोज ६ वीं सदी में की, यह एक सत्य है। आर्यभट्ट ने 0(शून्य, जीरो )की खोज *अंकों मे* की थी, *शब्दों* नहीं। उससे पहले 0 (अंक को) शब्दों में शून्य कहा जाता था। हिन्दू धर्म ग्रंथों जैसे शिव पुराण,स्कन्द पुराण आदि में आकाश को *शून्य* कहा गया है। यहाँ शून्य का अर्थ अनंत है । *रामायण व महाभारत* काल में गिनती अंकों में नहीं शब्दो में होती थी, वह भी *संस्कृत* में।
१ = प्रथम, २ = द्वितीय, ३ = तृतीय, ४ = चतुर्थ, ५ = पंचम, ६ = षष्ठं, ७ = सप्तम, ८ = अष्टम, ९= नवंम, १० = दशम आदि।
दशम में *दस* तो आ गया, लेकिन अंक का ० नहीं।
आया, ‍‍रावण को दशानन, दसकंधर, दसशीश, दसग्रीव, दशभुज कहा जाता है !!
*दशानन मतलव दश+आनन =दश सिरवाला।
त्रेता में *संस्कृत* में *कौरवो* की संख्या सौ *शत* शब्दों में बतायी गयी, अंकों में नहीं।
*शत्* संस्कृत शब्द है जिसका हिन्दी में अर्थ सौ (१००) है। *शत = सौ*
रोमन में १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ०, के स्थान पर i, ii, iii, iv, v, vi, vii, viii, ix, x आदि लिखा-पढ़ा जाता है किंतु शून्य नहीं आता।आप भी रोमन में एक से लेकर सौ की गिनती पढ़ लिख सकते है !!
आपको 0 या 00 लिखने की जरूरत भी नहीं पड़ती है।
तब गिनती को *शब्दो में* लिखा जाता था !!
उस समय अंकों का ज्ञान नहीं, था। जैसे गीता,रामायण में अध्याय १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, को प्रथम अध्याय, द्वितीय अध्याय, पंचम अध्याय,दशम अध्याय... आदि लिखा-पढ़ा जाका था।
दशम अध्याय ' मतलब दशवाँ पाठ (10th lesson) होता है !!
इसमे *दश* शब्द तो आ गया !! लेकिन इस दश मे *अंको का 0* (शून्य, जीरो)" का प्रयोग नही हुआ !!
आर्यभट्ट ने शून्य के लिये आंकिक प्रतीक "०" का अन्वेषण किया जो हमारे आभामंड, पृथ्वी के परिपथ या सूर्य के आभामंडल का लघ्वाकार है।
***
कुंडलिया
*
नारी को नर पूजते, नारी नर की भक्त
एक दूसरे के बिना दोनों रहें अशक्त
दोनों रहें अशक्त, मिलें तो रचना करते
उनसा बनने भू पर, ईश्वर आप उतरते
यह दीपक वह ज्योत, पुजारिन और पुजारी
मन मंदिर में मौन, विराजे नर अरु नारी
२२-४-२०२०
***
श्री श्री चिंतन दोहा मंथन
इंद्रियाग्नि:
२४-७-१९९५, माँट्रियल आश्रम, कनाडा
*
जीवन-इंद्रिय अग्नि हैं, जो डालें हो दग्ध।
दूषित करती शुद्ध भी, अग्नि मुक्ति-निर्बंध।।
*
अग्नि जले; उत्सव मने, अग्नि जले हो शोक।
अग्नि तुम्हीं जल-जलाते, या देते आलोक।।
*
खुद जल; जग रौशन करें, होते संत कपूर।
प्रेमिल ऊष्मा बिखेरें, जीव-मित्र भरपूर।।
*
निम्न अग्नि तम-धूम्र दे, मध्यम धुआँ-उजास।
उच्च अग्नि में ऊष्णता, सह प्रकाश का वास।।
*
करें इंद्रियाँ बुराई, तिमिर-धुआँ हो खूब।
संयम दे प्रकृति बदल, जा सुख में तू डूब।।
*
करें इंद्रियाँ भलाई, फैला कीर्ति-सुवास।
जहाँ रहें सत्-जन वहाँ, सब दिश रहे उजास।।
१२-४-२०१८
***
मुक्तक:
*
नव संवत्सर मंगलमय हो.
हर दिन सूरज नया उदय हो.
सदा आप पर ईश सदय हों-
जग-जीवन में 'सलिल' विजय हो.
*
दिल चुराकर आप दिलवर बन गए.
दिल गँवाकर हम दीवाने बन गए.
दिल कुचलनेवाले दिल की क्यों सुनें?
थामकर दिल वे सयाने बन गए..
*
पीर पराई हो सगी, निज सुख भी हो गैर.
जिसको उसकी हमेशा, 'सलिल' रहेगी खैर..
सबसे करले मित्रता, बाँट सभी को स्नेह.
'सलिल' कभी मत किसी के, प्रति हो मन में बैर..
*
मन मंदिर में जो बसा, उसको भी पहचान.
जग कहता भगवान पर वह भी है इंसान..
जो खुद सब में देखता है ईश्वर का अंश-
दाना है वह ही 'सलिल' शेष सभी नादान..
*
'संबंधों के अनुबंधों में ही जीवन का सार है.
राधा से, मीरां से पूछो, सार भाव-व्यापार है..
साया छोड़े साथ, गिला क्यों?,उसका यही स्वभाव है.
मानव वह जो हर रिश्ते से करता'सलिल'निभाव है.'
२२-४-२०१०
***

गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

दोहा ग़ज़ल अंगिका, सॉनेट

सॉनेट
जागरण
जागरण का समय जागो
बहुत सोये अब न सोना।
भुज भरे आलस्य त्यागो
नवाशा के बीज बोना।।

नमन कर रख कदम भू पर
फेफड़ों में पवन भर ले।
आचमन कर सलिल का फिर
गगन-रवि को नमन कर ले।।

मुड़ न पीछे, देख आगे
स्वप्न कुछ साकार कर ले।
दैव भी वरदान माँगे
जगत का उद्धार कर दे।।

भगत के बस में रहे वह
ईश जिसको जग रहा कह।।
२१-४-२०२२
•••
दोहा ग़ज़ल (अंगिका):
(अंगिका बिहार के अंग जनपद की भाषा, हिन्दी का एक लोक भाषिक रूप)

काल बुलैले केकरs, होतै कौन हलाल?
मौन अराधे दैव कै, ऐतै प्रातः काल..

मौज मनैतै रात-दिन, होलै की कंगाल.
साथ न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?.

एक-एक के खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नीन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
***

बुधवार, 20 अप्रैल 2022

चौपाई चर्चा

चौपाई चर्चा
*
भारत में शायद ही कोई हिन्दीभाषी होगा जिसे चौपाई छंद की जानकारी न हो। रामचरित मानस में प्रयुक्त मुख्य छंद चौपाई ही है। शिव चालीसा, हनुमान चालीसा आदि धार्मिक रचनाओं में चौपाई का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है किन्तु इनमें प्राय: बोलियों  (अवधी, बुन्देली, बृज, भोजपुरी आदि ) का प्रयोग किया गया है। 

रचना विधान-

यह ६४ मात्रिक छंद है। चौपाई के चार चरण (पाए) होने के कारण इसे चौपाई नाम मिला है. यह एक सममात्रिक द्विपदिक चतुश्चरणिक छंद है। इसके चार चरणों में मात्राओं की संख्या निश्चित तथा समान १६ - १६ होना अनिवार्य है। प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी अंतिम मात्राएँ समान (दोनों में लघु-लघु या दोनों में गुरु) होती हैं किन्तु गुरु लघु नहीं होती। । चौपाई के प्रत्येक चरण में १६ तथा प्रत्येक पंक्ति में ३२ मात्राएँ होती हैं।  चौपाई के चारों चरणों की समान मात्राएँ हों तो नाद सौंदर्य में वृद्धि होती है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। चौपाई के पद के दो चरण विषय की दृष्टि से आपस में जुड़े होते हैं किन्तु हर पंक्ति अपने में स्वतंत्र हो सकती है। चौपाई के पठन या गायन के समय हर चरण के बाद अल्प विराम लिया जाता है जिसे यति कहते हैं।अत:, किसी चरण का अंतिम शब्द अगले चरण में नहीं जाना चाहिए अथवा दो चरणों की संधि में शब्द युग्म इस तरह न हो कि आधा शब्द एक चरण में और आधा शब्द दूसरे चरण में आए। चौपाी के चरणान्त में गुरु-लघु मात्राएँ वर्जित हैं अर्थात चरण के अंत में जगण (ISI) एवं तगण (SSI) नहीं होने चाहिए किन्तु नगण वर्जित नहीं है। चौपाई के चरणान्त में गुरु गुरु, लघु लघु गुरु, गुरु लघु लघु या लघु लघु लघु लघु ही होता है। 

मात्रा बाँट - चौपाई में चार चौकल हों तो उसे पादाकुलक कहा जाता है। द्विक्ल या चौकल के बाद सम मात्रिक ​कल द्विपद या चौकल रखा जाता है। विषम मात्रिक कल त्रिकल आदि होने पर पुन: विषम मात्रिक कल लेकर उन्हें सममात्रिक कर लिया जाता है। विषम कल के तुरंत बाद सम कल नहीं रखा जाता।

उदाहरण:
​ ​
१. जय गिरिजापति दीनदयाला | -प्रथम चरण
१ १ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
सदा करत संतत प्रतिपाला || -द्वितीय चरण
१ २ १ १ १ २ १ १ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
भाल चंद्रमा सोहत नीके | - तृतीय चरण
२ १ २ १ २ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
कानन कुंडल नाग फनीके || -चतुर्थ चरण  (शिव चालीसा से) 
२ ११    २ ११  २ १   १२  २ 

​२. ​ ज१ य१ ह१ नु१ मा२ न१ ज्ञा२ न१ गु१ न१ सा२ ग१ र१ = १६ मात्रा
​ ​    ज१ य१ क१ पी२ स१ ति१ हुं१ लो२ क१ उ१ जा२ ग१ र१ = १६ मात्रा
​ ​    रा२ म१ दू२ त१ अ१ तु१ लि१ त१ ब१ ल१ धा२ मा२ = १६ मात्रा
​    ​ अं२ ज१ नि१ पु२ त्र१ प१ व१ न१ सु१ त१ ना२ मा२ = १६ मात्रा    - (हनुमान चालीसा से)


 ३. ​ कितने अच्छे लगते हो तुम। बिना जगाये जगते हो तुम
      नहीं किसी को ठगते हो तुम ​सदा प्रेम में पगते हो तुम
      दाना-चुग्गा मंगते हो तुम। चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम
      आलस कैसे तजते हो तुम? क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
      चिड़िया माँ पा नचते हो तुम। बिल्ली से डर बचते हो तुम
      क्या माला भी जपते हो तुम? शीत लगे तो कँपते हो तुम?
      सुना न मैंने हँसते हो तुम । चूजे भाई! रुचते हो तुम
​ (चौपाई छन्द का प्रयोग कर 'चूजे' विषय पर मुक्तिका (हिंदी गजल) में बाल गीत - रचनाकार संजीव वर्मा 'सलिल')

४ .​भुवन भास्कर बहुत दुलारा। मुख मंडल है प्यारा-प्यारा।।
​ ​   सुबह-सुबह जब जगते हो तुम। कितने अच्छे लगते हो तुम।। - रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

५ . हर युग के इतिहास ने कहा भारत का ध्वज उच्च ही रहा
     सोने की चिड़िया कहलाया सदा लुटेरों के मन भाया।। -छोटू भाई चतुर्वेदी

६ .मुझको जग में लानेवाले। दुनिया अजब दिखानेवाले
    उँगली थाम चलानेवाले। अच्छा बुरा बतानेवाले। शेखर चतुर्वेदी

७ . श्याम वर्ण, माथे पर टोपी। नाचत रुन-झुन रुन-झुन गोपी
     हरित वस्त्र आभूषण पूरा। ज्यों लड्डू पर छिटका बूरा। मृत्युंजय
८ . निर्निमेष तुमको निहारती। विरह –निशा तुमको पुकारती
     मेरी प्रणय –कथा है कोरी। तुम चन्दा, मैं एक चकोरी। मयंक अवस्थी
९. मौसम के हाथों दुत्कारे। पतझड़ के कष्टों के मारे
    सुमन हृदय के जब मुरझाये। तुम वसंत बनकर प्रिय आये। रविकांत पाण्डे
१० . जितना मुझको तरसाओगे। उतना निकट मुझे पाओगे
       तुम में 'मैं', मुझमें 'तुम', जानो मुझसे 'तुम', तुमसे 'मैं', मानो। -​ राणा प्रताप सिंह
११. एक दिवस आँगन में मेरे उतरे दो कलहंस सबेरे
      कितने सुन्दर कितने भोले सारे आँगन में वो डोले - शेषधर तिवारी

​१२ . नन्हें मुन्हें हाथों से जब । छूते हो मेरा तन मन तब॥
       मुझको बेसुध करते हो तुम। कितने अच्छे लगते हो तुम। धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'

***