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रविवार, 27 मार्च 2022

अरविन्द घोष, सॉनेट, लेख

अरविन्द घोष












सॉनेट 
महर्षि अरविंद 
अमित प्रतिभा पुंज वंदन।
विरागी का राग-गायन।
कभी सावन, कभी फागुन।।
युग लगाता भाल चंदन।।

क्रांतिनायक, शांतिधारक।
आप ही अपने विधायक।
कहा हर जन हो विनायक।।
मौन साधक, भ्रांति मारक।।

विश्वचेता, स्वार्थजेता।
आत्म उन्नति के प्रणेता।
सर्व जागृति पूत नेता।।

ध्यान धारण चिरंतन कर।
शांति मन की प्रभंजन कर।
पुजे मन को निरंजन कर।।
२७-३-२०२२
•••

श्री अरबिंदो का जीवन युवाकाल से ही उतार चढ़ाव से भरा रहा है। बंगाल विभाजन के बाद श्री अरबिंदो शिक्षा छोड़ कर स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी के रूप में लग गए। कुछ सालों बाद वह कलकत्ता छोड़ पॉन्डिचेरी बस गए जहाँ उन्होंने एक आश्रम का निर्माण किया।  जिसका नेतृत्व मीरा अल्फासा से अपने मृत्यु २४ नवम्बर १९२६ तक किया jinhen माँ के नाम से पुकारा जाता था। श्री अरबिंदो का जीवन वेद , उपनिषद और ग्रंथों को पढ़ने और उनके अभ्यास करने में गुजरा। श्री अरबिंदो ने क्रांतिकारी जीवन त्याग शारीरिक,मानसिक और आत्मिक द्रिष्टी से योग पर अभ्यास किया और दिव्य शक्ति को प्राप्त किया। श्री अरबिंदो का शैक्षिक जीवन भी रहा है जब वे बड़ौदा के एक राजकीय विद्यालय में उपप्रधानाचार्य रह चुके थे। श्री अरबिंदो ने अपनी प्रार्थना में यह माँगा कि – “मैं तो केवल ऐसी शक्ति माँगता हूँ जिससे इस राष्ट्र का उत्थान कर सकूँ, केवल यही चाहता हूँ कि मुझे उन लोगों के लिये जीवित रहने और काम करने दिया जाये जिन्हें मैं प्यार करता हूँ तथा जिनके लिए मेरी प्रार्थना है कि मैं अपना जीवन लगा सकूँ|” उनके अनुसार समग्र योग का लक्ष्य है आध्यात्मिक सिद्धि और अनुभव प्राप्त करना साथ ही साथ सारी सामाजिक समस्यायों से छुटकारा पाना। राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक बल है जो सदैव विद्यमान रहती है और इसमें किसी प्रकार का कोलाहल नहीं होता। श्री अरबिंदो के अनुसार जीवन एक अखंड प्रक्रिया है क्यूंकि यही एक माध्यम है जिससे मानव जाति सम्पूर्ण रूप से सत्य और चेतना का अभ्यास कर दिव्य शक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।

अरबिंद कृष्णधन घोष या श्री अरबिंदो एक महान योगी और गुरु होने के साथ साथ गुरु और दार्शनिक भी थे। ईनका जन्म १५ अगस्त १८७२ को कलकत्ता पश्चिम बंगाल में हुआ था। युवा-अवस्था में ही इन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के साथ देश की आज़ादी में हिस्सा लिया। समय ढलते ये योगी बन गए और इन्होंने पांडिचेरी में खुद का एक आश्रम स्थापित किया। वेद, उपनिषद तथा ग्रंथों का पूर्ण ज्ञान होने के कारण इन्होंने योग साधना पर मौलिक ग्रंथ लिखे। श्री अरबिंदो के जीवन का सही प्रभाव विश्वभर के दर्शन शास्त्र पर पड़ रहा है। अलीपुर सेंट्रल जेल से मुक्त होने के बाद श्री अरबिंदो का जीवन ज्यादातर योग और ध्यान में गुजरा।

श्री अरबिंदो के पिता कृष्णधुन घोष और माँ स्वर्णलता और भाई बारीन्द्र कुमार घोष तथा मनमोहन घोष थे। उनके पिताजी बंगाल के रंगपुर में सहायक सर्जन थे और उन्हें अंग्रेजों की संस्कृति काफी प्रभावित करती थी इसलिए उन्होंने उनके बच्चो को इंग्लिश स्कूल में डाल दिया था। वे चाहते थे कि उनके बच्चे क्रिश्चियन धर्म के बारे में भी बहुत कुछ जान सकें। घोष चाहते थे कि वे उच्च शिक्षा ग्रहण कर उच्च सरकारी पद प्राप्त करें। जब अरविंद घोष पाँच साल के थे, तो उन्हें पढ़ने के लिए दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में भेजा गया। यह अंग्रेज सरकार के संस्कृति का मुख्य केंद्र माना जाता था। तत्पश्चात उन्होंने ७ वर्ष की अल्पायु में ही श्री अरबिंदो को पढ़ने इंग्लैंड भेज दिया। इंग्लैंड में अरबिन्दों घोष ने अपनी पढाई की शुरुवात सैंट पौल्स स्कूल (1884) से की और छात्रवृत्ति मिलने के बाद में उन्होंने कैम्ब्रिज के किंग्स कॉलेज (१८९०) में पढाई पूरी की। १८ वर्ष के होते ही श्री अरबिंदो ने ICS की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। १८ साल की आयु में इन्हें कैंब्रिज में प्रवेश मिल गया। अरविंद घोष ना केवल आध्यात्मिक प्रकृति के धनी थे बल्कि उनकी उच्च साहित्यिक क्षमता उनके माँ की शैली की थी। इसके साथ ही साथ उन्हें अंग्रेज़ी, फ्रेंच, ग्रीक, जर्मन और इटालियन जैसे कई भाषाओं में निपुणता थी। सभी परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी वे घुड़सवारी के परीक्षा में विफल रहे जिसके कारण उन्हें भारतीय सिविल सेवा में प्रवेश नहीं मिला।

सन् १८९३ में श्री अरबिंदो भारत लौट आए और बड़ौदा के एक राजकीय विद्यालय में ७५० रुपये वेतन पर उपप्रधानाचार्य नियुक्त किए गए। बड़ौदा के राजा द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया। १८९३ से १९०६ तक उन्होंने संस्कृत, बंगाली साहित्य, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान का विस्तार से अध्ययन किया। स्वदेश आने पर उनके विचारों से प्रभावित होकर गायकवाड़ नरेश ने उन्हें बड़ौदा में अपनी निजी सचिव के पद पर नियुक्त किया। यहीं से वे कोलकाता आए और फिर महर्षि अरविंद आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। अरबिन्दो घोष के परदादा ब्राह्मो समाज जैसी धार्मिक सुधारना आन्दोलन में काफी सक्रिय रहते थे। उनसे प्रेरित होकर ही अरबिन्दो घोष सामाजिक सुधारना लाना चाहते थे। २८ साल की उम्र में साल१९०१ में अरबिन्दों घोष ने भूपाल चन्द्र बोस की लड़की मृणालिनी से विवाह किया था। लेकिन दिसंबर १९१८ में इन्फ्लुएंजा के संक्रमण से मृणालिनी की मृत्यु हो गयी थी।

उनके भाई बारिन ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेंद्रनाथ टैगोर जैसी क्रांतिकारियों से मिलवाया। कुछ सालों तक भारत में रहने के बाद में अरबिन्दो घोष को एहसास हुआ कि अंग्रेजों ने भारतीय संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की है और इसलिए धीरे धीरे वह राजनीति में रुचि लेने लगे थे। उन्होंने शुरू से ही भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की मांग पर जोर दिया था। इसके बाद वे १९०२ में अहमदाबाद के कांग्रेस सत्र में बाल गंगाधर तिलक से मिले और बाल गंगाधर से प्रभावित होकर स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ गए। वर्ष १९०६ में बंग-भग आंदोलन के दौरान महर्षि ने बड़ौदा से कलकत्ता की तरफ कदम बढ़ाए और इसी दौरान उन्होंने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।

नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने 'वंदे मातरम्' साप्ताहिक के सहसंपादन के रूप से अपना काम प्रारंभ किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते हुए जोरदार आलोचना की। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिखने पर उन पर मुकदमा दर्ज किया गया, लेकिन वे छूट गए। १९०५ में हुए बंगाल बिभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से इनका नाम जोड़ा गया। १९०५ मे व्हाईसरॉय लॉर्ड कर्झन ने बंगाल का विभाजन किया। पूारे देश मे बंगाल के विभाजन के खिलाफ आंदोलन शुरु हुए। पूरा राष्ट्र इस विभाजन के खिलाफ उठ खडा हुआ। ऐसे समय में अरबिंद जैसे क्रांतिकारक का चैन से बैठना नामुमकिन था। बंगाल का विभाजन होने के बाद वह सन १९०६ में कोलकाता आ गए थे। ऊपर से अरबिन्दो घोष असहकार और शांत तरीके से अंग्रेज सरकार का विरोध करते थे, लेकिन अंदर से वे क्रांतिकारी संघटना के साथ काम करते थे। बंगाल के अरबिंदो घोष कई क्रांतिकारियों के साथ में रहते थे और उन्होंने ही बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेन्द्रनाथ टैगोर को प्रेरित किया था।१९०६ में बंगाल विभाजन के बाद श्री अरबिंदो ने इस्तीफा दे दिया और देश की आज़ादी के लिए आंदोलनों में सक्रिय होने लगे।

साथ ही कई सारी समितियों की स्थापना की थी जिसमें अनुशीलन समिति भी शामिल है। साल १९०६ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भी उन्होंने हिस्सा लिया था, दादाभाई नौरोजी इस अधिवेशन के अध्यक्ष थे। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के चार मुख्य उद्देश्यों- स्वराज, स्वदेश, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा की पूर्ति के लिए काम किया था। उन्होंने सन १९०७ में ‘वन्दे मातरम’ अखबार निकाला।सरकार के अन्याय पर ‘वंदे मातरम्’ मे सें उन्होंने जोरदार आलोचना की। ‘वंदे मातरम्’ मे ब्रिटिश के खिलाफ लिखने की वजह से उनके उपर मामला दर्ज किया गया लेकीन वो छुट गए। सन १९०७ में कांग्रेस मध्यम और चरमपंथी ऐसे दो गुटों में बट चूका थे। अरविन्द घोष चरमपंथी गुटों में शामिल थे और वह बाल गंगाधर तिलक का समर्थन करते थे। उसके बाद मे अरविन्द घोष पुणे, बरोदा बॉम्बे गए और वहापर उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए बहुत काम किया।

१९०८ मे खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी इन अनुशीलन समिति के दो युवकोंने किंग्जफोर्ड इस जुलमी जज को मार डालने की योजना बनाई। पर उसमे वो नाकाम रहे। खुदीराम बोस पुलिस के हाथों लगे। उन्हें फांसी दी गयी। पुलिस ने अनुशीलन समिति के सदस्यों को पकड़ना शुरु किया। अरविंद घोष को भी गिरफ्तार किया गया। १९०८-०९ में उन पर अलीपुर बमकांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला। अलीपुर बम केस श्री अरबिंदो के जीवन का अहम हिस्सा था। एक साल के लिए उन्हें अलीपुर सेंट्रल जेल के सेल में रखा गया जहाँ उन्होंने एक सपना देखा कि भगवान ने उन्हें एक दिव्य मिशन पर जाने का उपदेश दिया। इसके बाद  कहा जाता है कि उन्हें अलीपुर जेल में ही भगावन कृष्ण के दर्शन हुए।  यहाँ से उनका जीवन पूरी तरह बदला और वे साधना और तप करते, गीता पढ़ते और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करते। वह अपनी अवधि से जल्दी बरी हो गए थे। स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभाने के साथ साथ उन्होनें अंग्रेज़ी दैनिक ‘वंदे मातरम’ पत्रिका का प्रकाशन किया और निर्भय होकर लेख लिखें। 

रिहाई के बाद उन्होंने कई ध्यान किए और उनपर निरंतर अभ्यास करते रहें। सन् १९१० में श्री अरबिंदो कलकत्ता छोड़कर पांडिचेरी बस गए। वहाँ उन्होंने एक संस्था बनाई और एक आश्रम का निर्माण किया। जब वे जेल से बाहर आए, तो आंदोलन से नहीं जुड़े और १९१० में पुड्डचेरी चले गए और यहाँ उन्होंने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त कर काशवाहिनी नामक रचना की। १९२६ में अपनी आध्यात्मिक सहचरी मिर्रा अल्फस्सा (माता) की मदद से श्री अरबिन्दो आश्रम की स्थापना की।महर्षि अरविंद एक महान योगी और दार्शनिक थे। उन्होंने योग साधना पर कई मौलिक ग्रंथ लिखे। सन् १९१४ में श्री अरबिंदो ने आर्य नामक दार्शनिक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया। अगले ६ सालों में उन्होंने कई महत्वपूर्ण रचनाएँ की। कई शास्त्रों और वेदों का ज्ञान उन्होंने जेल में ही प्रारंभ कर दी थी। सन् १९२६ में श्री अरबिंदो सार्वजनिक जीवन में लीन हो गए।

द रेनेसां इन इंडिया – The Renesan in India, वार एंड सेल्फ डिटरमिनेसन – War and Self Determination, द ह्यूमन साइकिल – The Human Cycle, द आइडियल ऑफ़ ह्यूमन यूनिटी – The Ideal of Human Unity तथा द फ्यूचर पोएट्री – The Future Poetry, दिव्य जीवन, द मदर, लेटर्स आन् योगा, सावित्री, योग समन्वय, महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं।  कविता को समृद्ध बनाने में उन्होंने १९३० के दौरान महान योगदान दिया है। उन्होंने “सावित्री” नाम की एक बड़ी  २४००० पंक्तियों की कविता लिखी है और उनकी यह कविता अध्यात्म पर आधारित है। इन सब के साथ-साथ वे दर्शनशास्त्री, कवि, अनुवादक और वेद, उपनिषद और भगवत् गीता पर लिखने का भी काम करते थे।अरबिन्दो घोष को कविता, अध्यात्म और तत्त्वज्ञान में जो योगदान दिया उसके लिए उन्हें नोबेल का साहित्य पुरस्कार(१९४३) और नोबेल का शांति पुरस्कार(१९५०) के लिए भी नामित किया गया था। 

५ दिसंबर, १९५० को श्री अरबिन्दो घोष की मृत्यु हो गयी थी। निधन के चार दिन तक उनके पार्थिव शरीर में दिव्य आभा बनी रही, जिसकी वजह से उनका अतिम संस्कार नहीं किया गया और ९ दिसंबर १९५० को उन्हें आश्रम में ही समाधि दी गई।
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शनिवार, 26 मार्च 2022

जाग तुझको दूर जाना, महादेवी जी,

 https://youtu.be/Kfgt58O_p-4

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सॉनेट
पलाश
• 
रेवा तट पर तप रत योगी 
चट्टानों पर अचल पलाश 
लाल नेत्र कहते जग भोगी 
नित विराग यह रहा तलाश 

गिरि वन नदी मिटाता रोगी 
मानव करता खुद का नाश 
अन्य न इसके जैसा ढोंगी 
खुद को खुदी सुधारे काश 

हुई,  हो रही, दुर्गति होगी 
नोचें गीदड़-गीध न लाश 
मनु का मनु से युद्ध हुआ तो 
बिखरेंगे घर जैसे ताश 

क्रुद्ध बहुत पर है न हताश। 
बुद्ध खोजता नित्य पलाश।। 
२६-३-२०२२
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रामायणकालीन 'पाताल लोक'
प्राचीन हिंदू धर्म ग्रंथों की पौराणिक कथाओं में एक पाताल लोक का जिक्र बार-बार मिलता है, लेकिन सवाल उठता था कि क्या पाताल लोक पूरी तरह से काल्पनिक है या इसका को अस्तित्व भी है? रामायण की कथा के मुताबिक पवनपुत्र हनुमान पाताल लोक तक पहुंचे थे। भगवान राम के सबसे बड़े भक्त हनुमान ने अपने ईष्ट देव को अहिरावण के चंगुल से बचाने के लिए एक सुरंग से पाताल लोक पहुंचे थे।
इस कथा के मुताबिक पाताल लोक ठीक धरती के नीचे है। वहां तक पहुंचने के लिए 70 हजार योजन की गहराई पर जाना पड़ता है। अगर आज के वक्त में हम अपने देश में कहीं सुरंग खोदना चाहें तो ये सुरंग अमेरिका महाद्वीप के मैक्सिको, ब्राजील और होंडुरास जैसे देशों तक पहुंचेगी। हाल ही में वैज्ञानिकों ने मध्य अमेरिका महाद्वीप के होंडुरास में सियूदाद ब्लांका नाम के एक गुम प्राचीन शहर की खोज की है। वैज्ञानिकों ने इस शहर को आधुनिक लाइडार (LIDER) तकनीक से खोज निकाला है।
इस शहर को बहुत से जानकार वह पाताल लोक मान रहे हैं जहां राम भक्त हनुमान पहुंचे थे। दरअसल इस विश्वास की एक पुख्ता वजहें हैं। पहली, अगर भारत या श्रीलंका से कोई सुरंग खोदी जाएगी तो वह सीधे यहीं निकलेगी। दूसरी वजह यह है कि वक्त की हजारों साल पुरानी परतों में दफन सियुदाद ब्लांका में ठीक राम भक्त हनुमान के जैसे वानर देवता की मूर्तियां मिली हैं।
इतिहासकारों का कहना है कि प्राचीन शहर सियुदाद ब्लांका के लोग एक विशालकाय वानर देवता की मूर्ति की पूजा करते थे। लिहाजा यह संभावना तलाशी जा रही है कि कहीं हजारों साल प्राचीन सियूदाद ब्लांका का ही तो रामायण में जिक्र पाताल पुरी के तौर पर नहीं है। पूर्वोत्तर होंडुरास के घने वर्षा जंगलों के बीच मस्कीटिया नाम के इलाके में हजारों साल पहले एक गुप्त शहर सियूदाद ब्लांका था। यह भी कहा जाता है कि हजारों साल पहले इस प्राचीन शहर में एक फलती-फूलती सभ्यता सांस लेती थी, जो अचानक ही वक्त की गहराइयों में गुम हो गई।
अब तक की खुदाई में इस शहर के ऐसे कई अवशेष मिले हैं जो इशारा करते हैं कि सियूदाद के निवासी वानर देवता की पूजा करते थे। यहां सियूदाद के वानर देवता की घुटनों के बल बैठे मूर्ति को देखते ही राम भक्त हनुमान की याद आ जाती है।
घुटनों पर बैठे बजरंग बली की मूर्ति वाले मंदिर आपको हिंदुस्तान में जगह-जगह मिल जाएंगे। हनुमान जी के एक हाथ में उनका जाना-पहचाना हथियार गदा भी रहता है। दिलचस्प बात ये है कि प्राचीन शहर से मिली वानर-देवता की मूर्ति के हाथ में भी गदा जैसा हथियार नजर आता है।
मध्य अमेरिका के एक मुल्क में प्राचीन शहर की खोज के साथ सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि रामायण की कथा में ऐसे सूत्र बिखरे पड़े हैं जो कहते हैं कि भारत या श्रीलंका की जमीन के ठीक नीचे वह लोग रहते हैं जिसे पाताल पुरी कहा जाता था। पाताल पुरी का जिक्र रामायण के उस अध्याय में आता है, जब मायावी अहिरावण राम और लक्ष्मण का हरण कर उन्हें अपने माया लोक पाताल पुरी ले जाता है।
रामायण की कथा के अनुसार हनुमान जी को अहिरावण तक पहुंचने के लिए पातालपुरी के रक्षक मकरध्वज को परास्त करना पड़ा था जो ब्रह्मचारी हनुमान का ही पुत्र था। दरअसल, मकरध्वज एक मत्स्यकन्या से उत्पन्न हुए थे, जो लंकादहन के बाद समुद्र में आग बुझाते हनुमान जी के पसीना गिर जाने से गर्भवती हुई थी। रामकथा के मुताबिक अहिरावण वध के बाद भगवान राम ने वानर रूप वाले मकरध्वज को ही पातालपुरी का राजा बना दिया था, जिसे पाताल पुरी के लोग पूजने लगे थे।
यहां पर है रामायणकालीन 'पाताल लोक'
होंडुरास के गुप्त प्राचीन शहर के बारे में सबसे पहले ध्यान दिलाने वाले अमेरिकी खोजी थियोडोर मोर्डे ने दावा किया था कि स्थानीय लोगों ने उन्हें बताया था कि वहां के प्राचीन लोग वानर देवता की ही पूजा करते थे। उस वानर देवता की कहानी काफी हद तक मकरध्वज की कथा से मिलती-जुलती है। हालांकि अभी तक प्राचीन शहर सियूदाद ब्लांका और रामकथा में कोई सीधा रिश्ता नहीं मिला है।
लेकिन सुदूर घने वर्षा वनों में जमीन में दफन एक प्राचीन शहर अपने इतिहास के साथ सांस ले रहा है ये शायद दुनिया कभी नहीं जा पाती अगर अमेरिकी वैज्ञानिकों की टीम ने उसे तलाशने के लिए क्रांतिकारी तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया होता। LIDAR के नाम से जानी जाने वाली तकनीक ने जमीन के नीचे की 3-D मैपिंग से कैसे प्राचीन शहर को खोज निकाला। मध्य अमेरिकी देश होंडुरास में वानर देवता वाले प्राचीन शहर की खोज बरसों पुरानी है। होंडूरास में उस प्राचीन शहर की किवदंती सदियों से सुनाई जाती हैं जहां बजरंग बली जैसे वानर देवता की पूजा की जाती थी। ये कहानियां होंडूरास पर राज करने वाले पश्चिमी लोगों तक भी पहुंची।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद एक अमेरिकी पायलट ने होंडुरास के जंगलों में कुछ अवशेष देखने की बात की, लेकिन इसके बारे में पहली पुख्ता जानकारी अमेरिकी खोजकर्ता थियोडोर मोर्डे ने 1940 में दी। एक अमेरिकी मैगजीन में उसने लिखा कि उस प्राचीन शहर में वानर देवता की पूजा होती थी, लेकिन उसने शहर की जगह का खुलासा नहीं किया। बाद में रहस्यमय हालात में थियोडोर की मौत हो जाने से प्राचीन शहर की खोज अधूरी रह गई।
इसके करीब 70 साल बाद अब होंडुरास के घने जंगलों के बीच मस्कीटिया नाम के इलाके में प्राचीन शहर के निशान मिलने शुरू हुए हैं जो लाइडार तकनीक से संभव हुआ। अमेरिका के ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी और नेशनल सेंटर फॉर एयरबोर्न लेजर मैपिंग ने होंडुरास के जंगलों के ऊपर आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से प्राचीन शहर के निशान को खोज निकाला है।
लाइडार तकनीक की मदद से ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने होंडुरास के जंगलों के ऊपर से उड़ते हुए अरबों लेजर तरंगें जमीन पर फेंकीं। इससे जंगल के नीचे की जमीन का 3-डी डिजिटल नक्शा तैयार हो गया। थ्री-डी नक्शे से जो आंकड़े मिले उससे जमीन के नीचे प्राचीन शहर की मौजूदगी का पता चल गया। वैज्ञानिकों ने पाया की जंगलों की जमीन की गहराइयों में मानव निर्मित कई चीजें मौजूद हैं।
हालांकि लाइडार तकनीक से जंगल के नीचे प्राचीन शहर होने के निशान मिल गए हैं, लेकिन ये निशान किवदंतियों में जिक्र होने वाला सियूदाद ब्लांका के ही हैं, ये शायद कभी पता ना चले।
दरअसल, पर्यावरण के प्रति सजग होंडुरास जंगलों के बीच खुदाई की इजाजत नहीं देता है, ऐसे में सिर्फ ये अनुमान ही लगाया जा सकता है कि जंगलों में एक प्राचीन शहर दफन है, इस इलाके में बजरंगबली जैसी वानर देवता की कुछ मूर्तियां जरूर मिली हैं, जिससे ये कयास लगाए जाने लगे हैं कि कहीं किवदंतियों का ये शहर रामायण में जिक्र पाताल लोक ही तो नहीं है।
वर्ष 1940 में हुई इस जानकारी की पुष्टि एसएमएस (स्कूल ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज), लखनऊ के निदेशक व वैदिक विज्ञान केन्द्र के प्रभारी प्रो. डॉ. भरत राज सिंह ने की है। उन्होंने बताया कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद एक अमेरिकी पायलट ने होंडुरास के जंगलों में कुछ अवशेष देखे थे। उसकी पहली जानकारी अमेरिकी खोजकर्ता थियोडोर मोर्ड ने 1940 में दी थी।
3-डी नक्शे में जमीन के नीचे गहराइयों में मानव निर्मित कई वस्तुएं दिखाई दीं। इसमें हाथ में गदा जैसा हथियार लिए घुटनों के बल बैठी हुई है वानर मूर्ति भी दिखी है। हालांकि होंडुरास के जंगल की खुदाई पर प्रतिबंध के कारण इस स्थान की वास्तविक स्थिति का पता लग पाना मुश्किल है।
अमेरिकी इतिहासकार भी मानते हैं कि पूर्वोत्तर होंडुरास के घने जंगलों के बीच मस्कीटिया नाम के इलाके में हजारों साल पहले एक गुप्त शहर सियूदाद ब्लांका का अस्तित्व था। वहां के लोग एक विशालकाय वानर मूर्ति की पूजा करते थे। प्रो. भरत ने बताया कि बंगाली रामायण में पाताल लोक की दूरी 1000 योजन बताई गई है, जो लगभग 12,800 किलोमीटर है।
यह दूरी सुरंग के माध्यम से भारत व श्रीलंका की दूरी के बराबर है। रामायण में वर्णन है कि अहिरावण के चंगुल से भगवान राम व लक्ष्मण को छुड़ाने के लिए बजरंगबली को पातालपुरी के रक्षक मकरध्वज को परास्त करना पड़ा था। मकरध्वज बजरंगबली के ही पुत्र थे, लिहाजा उनका स्वरूप बजरगंबली जैसा ही था। अहिरावण के वध के बाद भगवान राम ने मकरध्वज को ही पातालपुरी का राजा बना दिया था।
***
कर्फ्यू वंदना
(रैप सौंग)
*
घर में घर कर
बाहर मत जा
बीबी जो दे
खुश होकर खा
ठेला-नुक्कड़
बिसरा भुख्खड़
बेमतलब की
बोल न बातें
हाँ में हाँ कर
पा सौगातें
ताँक-झाँक तज
भुला पड़ोसन
बीबी के संग
कर योगासन
चौबिस घंटे
तुझ पर भारी
काम न आए
प्यारे यारी
बन जा पप्पू
आग्याकारी
तभी बेअसर
हो बीमारी
बिसरा झप्पी
माँग न पप्पी
चूड़ी कंगन
करें न खनखन
कहे लिपिस्टिक
माँजो बर्तन
झाड़ू मारो
जरा ठीक से
पौंछा करना
बिना पीक के
कपड़े धोना
पर मत रोना
बाई न आई
तुम हो भाई
तुरुप के इक्के
बनकर छक्के
फल चाहे बिन
करो काम गिन
बीबी चालीसा
हँस पढ़ना
अपनी किस्मत
खुद ही गढ़ना
जब तक कहें न
किस मत करना
मिस को मिस कर
मन मत मरना
जान बचाना
जान बुलाना
मिल लड़ जाएँ
नैन झुकाना
कर फ्यू लेकिन
कई वार हैं
कर्फ्यू में
झुक रहो, सार है
बीबी बाबा बेबी की जय
बोल रहो घुस घर में निर्भय।।
***
नवदुर्गा पर्व पर विशेष:
श्री दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र
हिंदी काव्यानुवाद
*
शिव बोलेः ‘हे पद्ममुखी! मैं कहता नाम एक सौ आठ।
दुर्गा देवी हों प्रसन्न नित सुनकर जिनका सुमधुर पाठ।१।
ओम सती साघ्वी भवप्रीता भवमोचनी भवानी धन्य।
आर्या दुर्गा विजया आद्या शूलवती तीनाक्ष अनन्य।२।
पिनाकिनी चित्रा चंद्रघंटा, महातपा शुभरूपा आप्त।
अहं बुद्धि मन चित्त चेतना, चिता चिन्मया दर्शन प्राप्त।३।
सब मंत्रों में सत्ता जिनकी, सत्यानंद स्वरूपा दिव्य।
भाएँ भाव-भावना अनगिन, भव्य-अभव्य सदागति नव्य।४।
शंभुप्रिया सुरमाता चिंता, रत्नप्रिया हों सदा प्रसन्न।
विद्यामयी दक्षतनया हे!, दक्षयज्ञ ध्वंसा आसन्न।५।
देवि अपर्णा अनेकवर्णा पाटल वदना-वसना मोह।
अंबर पट परिधानधारिणी, मंजरि रंजनी विहॅंसें सोह।६।
अतिपराक्रमी निर्मम सुंदर, सुर-सुंदरियॉं भी हों मात।
मुनि मतंग पूजित मातंगी, वनदुर्गा दें दर्शन प्रात।७।
ब्राम्ही माहेशी कौमारी, ऐंद्री विष्णुमयी जगवंद्य।
चामुंडा वाराही लक्ष्मी, पुरुष आकृति धरें अनिंद्य।८।
उत्कर्षिणी निर्मला ज्ञानी, नित्या क्रिया बुद्धिदा श्रेष्ठ ।
बहुरूपा बहुप्रेमा मैया, सब वाहन वाहना सुज्येष्ठ।९।
शुंभ-निशुंभ हननकर्त्री हे!, महिषासुरमर्दिनी प्रणम्य।
मधु-कैटभ राक्षसद्वय मारे, चंड-मुंड वध किया सुरम्य।१०।
सब असुरों का नाश किया हॅंस, सभी दानवों का कर घात।
सब शास्त्रों की ज्ञाता सत्या, सब अस्त्रों को धारें मात।११।
अगणित शस्त्र लिये हाथों में, अस्त्र अनेक लिये साकार।
सुकुमारी कन्या किशोरवय, युवती यति जीवन-आधार।१२।
प्रौढ़ा नहीं किंतु हो प्रौढ़ा, वृद्धा मॉं कर शांति प्रदान।
महोदरी उन्मुक्त केशमय, घोररूपिणी बली महान।१३।
अग्नि-ज्वाल सम रौद्रमुखी छवि, कालरात्रि तापसी प्रणाम।
नारायणी भद्रकाली हे!, हरि-माया जलोदरी नाम।१४।
तुम्हीं कराली शिवदूती हो, परमेश्वरी अनंता द्रव्य।
हे सावित्री! कात्यायनी हे!!, प्रत्यक्षा विधिवादिनी श्रव्य।१५।
दुर्गानाम शताष्टक का जों, प्रति दिन करें सश्रद्धा पाठ।
देवि! न उनको कुछ असाध्य हो , सब लोकों में उनके ठाठ।१६।
मिले अन्न धन वामा सुत भी, हाथी-घोड़े बँधते द्वार।
सहज साध्य पुरुषार्थ चार हो, मिले मुक्ति होता उद्धार।१७।
करें कुमारी पूजन पहले, फिर सुरेश्वरी का कर ध्यान।
पराभक्ति सह पूजन कर फिर, अष्टोत्तर शत नाम ।१८।
पाठ करें नित सदय देव सब, होते पल-पल सदा सहाय।
राजा भी हों सेवक उसके, राज्य लक्ष्मी प् वह हर्षाय।१९।
गोरोचन, आलक्तक, कुंकुम, मधु, घी, पय, सिंदूर, कपूर।
मिला यंत्र लिख जो सुविज्ञ जन, पूजे हों शिव रूप जरूर।२०।
भौम अमावस अर्ध रात्रि में, चंद्र शतभिषा हो नक्षत्र।
स्तोत्र पढ़ें लिख मिले संपदा, परम न होती जो अन्यत्र।२१।
।।इति श्री विश्वसार तंत्रे दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र समाप्त।।
***
मुक्तिका
*
सुधियाँ तुम्हारी जब तहें
अमृत-कलश तब हम गहें
श्रम दीप मंज़िल ज्योति हो
कोशिश शलभ हम मत दहें
बन स्नेह सलिला बिन रुके
नफरत मिटा बहते रहें
लें चूम सुमुखि कपोल जब
संयम किले पल में ढहें
कर काम सब निष्काम हम
गीता न कहकर भी कहें
***
गीत
*
डरो नें कोरोना से गुइयाँ,
जा जमराज-डिठौना
अनाचार जो मानुस कर रै
दुराचार कर के बे मर रै
भार तनक घट रऔ धरती को
संग गहूँ के घुन सोइ पिस रै
भोग-रोग सें ग्रस्त करा रय
असमय अंतिम गौना
खरे बोल सुन खरे रओ रे!
परबत पै भी हरे रओ रे!
झूठी बात नें तनक बनाओ
अनुसासित रै जीबन पाओ
तन-मन ऊँसई साफ करो रे
जैसें करत भगौना
घर में घरकर रओ खुसी सें
एक-दूजे को सओ खुसी सें
गोड़-हांत-मूँ जब-तब धोओ
राम-राम कै, डटकर सोओ
बाकी काम सबई निबटा लो
करो नें अद्धा-पौना
***
मुक्तिका
*
अर्णव-अरुण का सम्मिलन
जिस पल हुआ वह खास है
श्री वास्तव में है वहीं
जहँ हर हृदय में हुलास है
श्रद्धा जगत जननी उमा
शंकारि शिव विश्वास है
सद्भाव सलिला है सुखद
मालिन्य बस संत्रास है
मिल गैर से गंभीर रह
अपनत्व में परिहास है
मिथिलेश तन नृप हो भले
मन जनक तो वनवास है
मीरा मनन राधा जतन
कान्हा सुकर्म प्रयास है
२६-३-२०२०
***
कृति सलिला:
हम जंगल के अमलतास : नवाशा प्रवाही नवगीत संकलन
[कृति विवरण: हम जंगल के अमलतास, नवगीत संग्रह, आचार्य भगवत दुबे, २००८, पृष्ठ १२०, १५० रु., आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेटयुक्त, प्रकाशक कादंबरी जबलपुर, संपर्क: २६७२ विमल स्मृति, समीप पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५]
*
विश्ववाणी हिंदी के समृद्ध वांग्मय को रसप्लावित करती नवगीतीय भावधारा के समर्थ-सशक्त हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुबे के नवगीत उनके व्यक्तित्व की तरह सहज, सरल, खुरदरे, प्राणवंत ततः जिजीविषाजयी हैं. इन नवगीतों का कथ्य सामाजिक विसंगतियों के मरुस्थल में मृग-मरीचिका की तरह आँखों में झूलते - टूटते स्वप्नों को पूरी बेबाकी से उद्घाटित तो करता है किन्तु हताश-निराश होकर आर्तनाद नहीं करता. ये नवगीत विधागत संकीर्ण मान्यताओं की अनदेखी कर, नवाशा का संचार करते हुए, अपने पद-चिन्हों से नव सृअन-पथ का अभिषेक करते हैं. संग्रह के प्रथम नवगीत 'ध्वजा नवगीत की' में आचार्य दुबे नवगीत के उन तत्वों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे नवगीत में आवश्यक मानते हैं:
नव प्रतीक, नव ताल, छंद नव लाये हैं
जन-जीवन के सारे चित्र बनाये हैं
की सरगम तैयार नये संगीत की
कसे उक्ति वैचित्र्य, चमत्कृत करते हैं
छोटी सी गागर में सागर भरते हैं
जहाँ मछलियाँ विचरण करें प्रतीत की
जो विरूपतायें समाज में दिखती हैं
गीत पंक्तियाँ उसी व्यथा को लिखती हैं
लीक छोड़ दी पारंपरिक अतीत की
अब फहराने लगी ध्वजा नवगीत की
सजग महाकाव्यकार, निपुण दोहाकार, प्रसिद्ध गजलकार, कुशल कहानीकार, विद्वान समीक्षक, सहृदय लोकगीतकार, मौलिक हाइकुकार आदि विविध रूपों में दुबे जी सतत सृजन कर चर्चित-सम्मानित हुए हैं. इन नवगीतों का वैशिष्ट्य आंचलिक जन-जीवन से अनुप्राणित होकर ग्राम्य जीवन के सहजानंद को शहरी जीवन के त्रासद वैभव पर वरीयता देते हुए मानव मूल्यों को शिखर पर स्थापित करना है. प्रो. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इन नवगीतों के संबंध में ठीक ही लिखते हैं: '...भाषा, छंद, लय, बिम्ब और प्रतीकों के समन्वित-सज्जित प्रयोग की कसौटी पर भी दुबे जी खरे उतरते हैं. उनके गीत थके-हरे और अवसाद-जर्जर मानव-मन को आस्था और विश्वास की लोकांतर यात्रा करने में पूर्णत: सफल हुए हैं. अलंकार लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रचुर प्रयोग ने गीतों में जो ताजगी और खुशबू भर दी है, वह श्लाघनीय है.'
निराला द्वारा 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' के आव्हान से नवगीत का प्रादुर्भाव मानने और स्व. राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा स्व. शम्भुनाथ सिंह द्वारा प्रतिष्ठापित नवगीत को उद्भव काल की मान्यताओं और सीमाओं में कैद रखने का आग्रह करनेवाले नवगीतकार यह विस्मृत कट देते हैं कि काव्य विधा पल-पल परिवर्तित होती सलिला सदृश्य किसी विशिष्ट भाव-भंगिमा में कैद की ही नहीं जा सकती. सतत बदलाव ही काव्य की प्राण शक्ति है. दुबे जी नवगीत में परिवर्तन के पक्षधर हैं: "पिंजरों में जंगल की / मैना मत पालिये / पाँव में हवाओं के / बेड़ी मत डालिए... अब तक हैं यायावर'
वृद्ध मेघ क्वांर के (मुखड़ा १२+११ x २, ३ अन्तरा १२+१२ x २ + १२+ ११), वक्त यह बहुरुपिया (मुखड़ा १४+१२ , १-३ अन्तरा १४+१२ x ३, २ अन्तरा १२+ १४ x २ अ= १४=१२), यातनाओं की सुई (मुखड़ा १९,२०,१९,१९, ३ अन्तरा १९ x ६), हम त्रिशंकु जैसे तारे हैं, नयन लाज के भी झुक जाते - पादाकुलक छंद(मुखड़ा १६x २, ३ अन्तरा १६x ६), स्वार्थी सब शिखरस्थ हुए- महाभागवत जाति (२६ मात्रीय), हवा हुई ज्वर ग्रस्त २५ या २६ मात्रा, मार्गदर्शन मनचलों का-यौगिक जाति (मुखड़ा १४ x ४, ३ अन्तरा २८ x २ ), आचरण आदर्श के बौने हुए- महापौराणिक जाति (मुखड़ा १९ x २, ३ अन्तरा १९ x ४), पसलियाँ बचीं (मुखड़ा १२+८, १०=१०, ३ अन्तरा २०, २१ या २२ मात्रिक ४ पंक्तियाँ), खर्राटे भर रहे पहरुए (मुखड़ा १६ x २+१०, ३ अन्तरा १४ x ३ + १६+ १०),समय क्रूर डाकू ददुआ (मुखड़ा १६+१४ x २, ३ अन्तरा १६ x ४ + १४), दिल्ली तक जाएँगी लपटें (मुखड़ा २६x २, ३ अन्तरा २६x २ + २६), ओछे गणवेश (मुखड़ा २१ x २, ३ अन्तरा २० x २ + १२+१२ या ९), बूढ़ा हुआ बसंत (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा १६ x २ + २६), ब्याज रहे भरते (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा २६ x २ + २६) आदि से स्पष्ट है कि दुबे जी को छंदों पर अधिकार प्राप्त है. वे छंद के मानक रूप के अतिरिक्त कथ्य की माँग पर परिवर्तित रूप का प्रयोग भी करते हैं. वे लय को साधते हैं, यति-स्थान को नहीं. इससे उन्हें शब्द-चयन तथा शब्द-प्रयोग में सुविधा तथा स्वतंत्रता मिल जाती है जिससे भाव की समुचित अभिव्यक्ति संभव हो पाती है. यथार्थवाद और प्रगतिवाद के खोखले नारों पर आधरित तथाकथित प्रगतिवादी कविता की नीरसता के व्यूह को अपने सरस नवगीतों से छिन्न-भिन्न करते हुए दुबे जी अपने नवगीतों को छद्म क्रांतिधर्मिता से बचाकर रचनात्मक अनुभूतियों और सृजनात्मकता की और उन्मुख कर पाते हैं: 'जुल्म का अनुवाद / ये टूटी पसलियाँ हैं / देखिये जिस ओर / आतंकी बिजलियाँ हैं / हो रहे तेजाब जैसे / वक्त के तेव ... युगीन विसंतियों के निराकरण के उपाय भी घातक हैं: 'उर्वरक डाले विषैले / मूक माटी में / उग रहे हथियार पीने / शांत घाटी में'... किन्तु कहीं भी हताशा-निराशा या अवसाद नहीं है. अगले ही पल नवगीत आव्हान करता है: 'रूढ़ि-अंधविश्वासों की ये काराएँ तोड़ें'...'भ्रम के खरपतवार / ज्ञान की खुरपी से गोड़ें'. युगीन विडंबनाओं के साथ समन्वय और नवनिर्माण का स्वर समन्वित कर दुबेजी नवगीत को उद्देश्यपरक बना देते हैं.
राजनैतिक विद्रूपता का जीवंत चित्रण देखें: 'चीरहरण हो जाया करते / शकुनी के पाँसों से / छली गयी है प्रजा हमेशा / सत्ता के झाँसों से / राजनीti में सम्मानित / होती करतूतें काली' प्रकृति का सानिंध्य चेतना और स्फूर्ति देता है. अतः, पर्यावरण की सुरक्षा हमारा दायित्व है:
कभी ग्रीष्म, पावस, शीतलता
कभी वसंत सुहाना
विपुल खनिज-फल-फूल अन्न
जल-वायु प्रकृति से पाना
पर्यावरण सुरक्षा करके
हों हम मुक्त ऋणों से
नकारात्मता में भी सकरात्मकता देख पाने की दृष्टि स्वागतेय है:
ग्रीष्म ने जब भी जलाये पाँव मेरे
पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है...
.....भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब
हार में भी जीत का निश्चय हुआ है.
प्रो. विद्यानंदन राजीव के अनुसार ये 'नवगीत वर्तमान जीवन के यथार्थ से न केवल रू-ब-रू होते हैं वरन सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करने की प्रहारक मुद्रा में दिखाई देते हैं.'
सामाजिक मर्यादा को क्षत-विक्षत करती स्थिति का चित्रण देखें: 'आबरू बेशर्म होकर / दे रही न्योते प्रणय के / हैं घिनौने चित्र ये / अंग्रेजियत से संविलय के / कर रही है यौन शिक्षा / मार्गदर्शन मनचलों का'
मौसमी परिवर्तनों पर दुबे जी के नवगीतों की मुद्रा अपनी मिसाल आप है: 'सूरज मार रहा किरणों के / कस-कस कर कोड़े / हवा हुई ज्वर ग्रस्त / देह पीली वृक्षों की / उलझी प्रश्नावली / नदी तट के यक्षों की / किन्तु युधिष्ठिर कृषक / धैर्य की वल्गा ना छोड़े.''
नवगीतकारों के सम्मुख नव छंद की समस्या प्राय: मुँह बाये रहती है. विवेच्य संग्रह के नवगीत पिन्गलीय विधानों का पालन करते हुए भी कथ्य की आवश्यकतानुसार गति-यति में परिवर्तन कर नवता की रक्षा कर पाते हैं.
'ध्वजा नवगीत की' शीर्षक नवगीत में २२-२२-२१ मात्रीय पंक्तियों के ६ अंतरे हैं. पहला समूह मुखड़े का कार्य कर रहा है, शेष समूह अंतरे के रूप में हैं. तृतीय पंक्ति में आनुप्रसिक तुकांतता का पालन किया गया है.
'हम जंगल के अमलतास' शीर्षक नवगीत पर कृति का नामकरण किया गया है. यह नवगीत महाभागवत जाति के गीतिका छंद में १४+१२ = २६ मात्रीय पंक्तियों में रचा गया है तथा पंक्त्यांत में लघु-गुरु का भी पालन है. मुखड़े में २ तथा अंतरों में ३-३ पंक्तियाँ हैं.
'जहाँ लोकरस रहते शहदीले' शीर्षक रचना महाभागवत जातीय छंद में है. मुखड़े तथा २ अंतरांत में गुरु-गुरु का पालन है, जबकि ३ रे अंतरे में एक गुरु है. यति में विविधता है: १६-१०, ११-१५, १४-१२.
'हार न मानी अच्छाई ने' शीर्षक गीत में प्रत्येक पंक्ति १६ मात्रीय है. मुखड़ा १६+१६=३२ मात्रिक है. अंतरे में ३२ मात्रिक २ (१६x४) समतुकांती पंक्तियाँ है. सवैया के समान मात्राएँ होने पर भी पंक्त्यांत में भगण न होने से यह सवैया गीत नहीं है.
'ममता का छप्पर' नवगीत महाभागवत जाति का है किन्तु यति में विविधता १६+१०, ११+१५, १५+११ आदि के कारण यह मिश्रित संकर छंद में है.
'बेड़ियाँ न डालिये' के अंतरे में १२+११=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ, पहले-तीसरे अंतरे में १२+१२=२४ मात्रिक २-२ पंक्तियाँ तथा दूसरे अंतरे में १०+१३=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ है. तीनों अंतरों के अंत में मुखड़े के सामान १२+१२ मात्रिक पंक्ति है. गीत में मात्रिक तथा यति की विविधता के बावजूद प्रवाह भंग नहीं है.
'नंगपन ऊँचे महल का शील है' शीर्षक गीत महापौराणिक जातीय छंद में है. अधिकांश पंक्तियों में ग्रंथि छंद के पिन्गलीय विधान (पंक्त्यांत लघु-गुरु) का पालन है किन्तु कहीं-कहीं अंत के गुरु को २ लघु में बदल लिया गया है तथापि लय भंग न हो इसका ध्यान रखा गया है.
इन नवगीतों में खड़ी हिंदी, देशज बुन्देली, यदा-कदा उर्दू व् अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो लालित्य में वृद्धि करता है. दुबे जी कथ्यानुसार प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग करते हैं. उनका मत है: 'इस नयी विधा ने काव्य पर कुटिलतापूर्वक लादे गए अतिबौद्धिक अछ्न्दिल बोझ को हल्का अवश्य किया है.' हम जंगल के अमलतास' एक महत्वपूर्ण नवगीत संग्रह है जो छान्दस वैविध्य और लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है.
***
कृति चर्चा :
नवगीत २०१३: रचनाधर्मिता का दस्तावेज
[कृति विवरण: नवगीत २०१३ (प्रतिनिधि नवगीत संकलन), संपादक डॉ. जगदीश व्योम, पूर्णिमा बर्मन, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, पृष्ठ १२ + ११२, मूल्य २४५ /, प्रकाशक एस. कुमार एंड कं. ३६१३ श्याम नगर, दरियागंज, दिल्ली २ ]
*
विश्व वाणी हिंदी के सरस साहित्य कोष की अनुपम निधि नवगीत के विकास हेतु संकल्पित-समर्पित अंतर्जालीय मंच अभिव्यक्ति विश्वं तथा जाल पत्रिका अनुभूति के अंतर्गत संचालित ‘नवगीत की पाठशाला’ ने नवगीतकारों को अभिव्यक्ति और मार्गदर्शन का अनूठा अवसर दिया है. इस मंच से जुड़े ८५ प्रतिनिधि नवगीतकारों के एक-एक प्रतिनिधि नवगीत का चयन नवगीत आंदोलन हेतु समर्पित डॉ. जगदीश व्योम तथा तथा पूर्णिमा बर्मन ने किया है.
इन नवगीतकारों में वर्णमाला क्रमानुसार सर्व श्री अजय गुप्त, अजय पाठक, अमित, अर्बुदा ओहरी, अवनीश सिंह चौहान, अशोक अंजुम, अशोक गीते, अश्वघोष, अश्विनी कुमार आलोक, ओम निश्चल, ओमप्रकाश तिवारी, ओमप्रकाश सिंह, कमला निखुर्पा, कमलेश कुमार दीवान, कल्पना रामानी, कुमार रवीन्द्र, कृष्ण शलभ, कृष्णानंद कृष्ण, कैलाश पचौरी, क्षेत्रपाल शर्मा, गिरिमोहन गुरु, गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, गीता पंडित, गौतम राजरिशी, चंद्रेश गुप्त, जयकृष्ण तुषार, जगदीश व्योम, जीवन शुक्ल, त्रिमोहन तरल, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, धर्मेन्द्र कुमार सिंह, नचिकेता, नवीन चतुर्वेदी, नियति वर्मा, निर्मल सिद्धू, निर्मला जोशी, नूतन व्यास, पूर्णिमा बर्मन, प्रभुदयाल श्रीवास्तव, प्रवीण पंडित, ब्रजनाथ श्रीवास्तव, भारतेंदु मिश्र, भावना सक्सेना, मनोज कुमार, विजेंद्र एस. विज, महेंद्र भटनागर, महेश सोनी, मानोशी, मीना अग्रवाल, यतीन्द्रनाथ राही, यश मालवीय, रचना श्रीवास्तव, रजनी भार्गव, रविशंकर मिश्र, राजेंद्र गौतम, राजेंद्र वर्मा, राणा प्रताप सिंह, राधेश्याम बंधु, रामकृष्ण द्विवेदी ‘मधुकर’, राममूर्ति सिंह अधीर, संगीता मनराल, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रावेन्द्र कुमार रवि, रूपचंद शास्त्री ‘मयंक’, विद्यानंदन राजीव, विमल कुमार हेडा, वीनस केसरी, शंभुशरण मंडल, शशि पाधा, शारदा मोंगा, शास्त्री नित्य गोपाल कटारे, शिवाकांत मिश्र ‘विद्रोही’, शेषधर तिवारी, श्यामबिहारी सक्सेना, श्याम सखा श्याम, श्यामनारायण मिश्र, श्रीकांत मिश्र ‘कांत’, संगीता स्वरूप, संजीव गौतम, संजीव वर्मा ‘सलिल’, सुभाष राय, सुरेश पंडा, हरिशंकर सक्सेना, हरिहर झा तथा हरीश निगम सम्मिलित हैं.
उक्त सूची से स्पष्ट है कि वरिष्ठ तथा कनिष्ठ, अधिक चर्चित तथा कम चर्चित, नवगीतकारों का यह संकलन ३ पीढ़ियों के चिंतन, अभिव्यक्ति, अवदान तथा गत ३ दशकों में नवगीत के कलेवर, भाषिक सामर्थ्य, बिम्ब-प्रतीकों में बदलाव, अलंकार चयन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण नवगीत के कथ्य में परिवर्तन के अध्ययन के लिये पर्याप्त सामग्री मुहैया कराता है. संग्रह का कागज, मुद्रण, बँधाई, आवरण आदि उत्तम है. नवगीतों में रूचि रखनेवाले साहित्यप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होंगे. नवगीत के कलेवर में सतत हो रहे शैल्पिक तथा भाषिक परिवर्तन का अध्ययन करना हो तो यह संकलन बहुत उपयोगी होगा. नवगीतकारों की पृष्ठभूमि की विविधता नगरीय / ग्रामीण अंचल, उच्च / मध्य / निम्न आर्थिक स्थिति, शिक्षिक विविधता, कार्यक्षेत्रीय विभिन्नता आदि नवगीत के विषय चयन, प्रयुक्त शब्दावली तथा कहाँ पर प्रभाव छोड़ती है. उल्लेखनीय है कि नवगीतकारों में सैनिक-अर्ध सैनिक बल, अधिवक्ता, चिकित्सक, बड़े व्यापारी, राजनेता आदि वर्गों से प्रतिनिधित्व लगभग शून्य है जबकि न्याय, अभियांत्रिकी, उच्च शिक्षा, चिकित्सा आदि वर्गों से नवगीतकार हैं.
शोध छात्रों के लिये इस संकलन में नवगीत की विकास यात्रा तथा परिवर्तन की झलक उपलब्ध है. नवगीतों का चयन सजगतापूर्वक किया गया है. किसी एक नवगीतकार के सकल सृजन अथवा उसके नवगीत संसार के भाव पक्ष या कला पक्ष को किसी एक नवगीत के अनुसार नहीं आँका जा सकता किन्तु विषय की परिचर्या (ट्रीटमेंट ऑफ़ सब्जेक्ट) की दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है. नवगीत चयन का आधार नवगीत की पाठशाला में प्रस्तुति होने के कारण सहभागियों के श्रेष्ठ नवगीत नहीं आ सके हैं. बेहतर होता यदि सहभागियों को एक प्रतिनिधि चुनने का अवसर दिया जाता और उसे पाठशाला में प्रस्तुत कर सम्मिलित किया जा सकता. हर नवगीत के साथ उसकी विशेषता या खूबी का संकेत नयी कलमों के लिये उपयोगी होता.
संग्रह में नवगीतकारों के चित्र, जन्म तिथि, डाक-पते, चलभाष क्रमांक, ई मेल तथा नवगीत संग्रहों के नाम दिये जा सकते तो इसकी उपयोगिता में वृद्धि होती. आदि में नवगीत के उद्भव से अब तक विकास, नवगीत के तत्व पर आलेख नई कलमों के मार्गदर्शनार्थ उपयोगी होते. परिशिष्ट में नवगीत पत्रिकाओं तथा अन्य संकलनों की सूची इसे सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में अधिक उपयोगी बनाती तथापि नवगीत पर केन्द्रित प्रथम प्रयास के नाते ‘नवगीत २०१३’ के संपादक द्वय का श्रम साधुवाद का पात्र है. नवगीत वर्तमान स्वरुप में भी यह संकलन हर नवगीत प्रेमी के संकलन में होनी चाहिए. नवगीत की पाठशाला का यह सारस्वत अनुष्ठान स्वागतेय तथा अपने उद्देश्य प्राप्ति में पूर्णरूपेण सफल है. नवगीत एक परिसंवाद के पश्चात अभिव्यक्ति विश्वं की यह बहु उपयोगी प्रस्तुति आगामी प्रकाशन के प्रति न केवल उत्सुकता जगाती है अपितु प्रतीक्षा हेतु प्रेरित भी करती है.
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पुस्तक सलिला:
हिरण सुगंधों के- आचार्य भगवत दुबे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पुस्तक परिचय: हिरण सुगंधों के, गीत-नवगीत संग्रह रचनाकार- आचार्य भागवत दुबे, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन ई २८ लाजपत नगर साहिबाबाद २०१००५, प्रथम संस्करण- २००४, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- १२१।
*
विविध विधाओं में गत ५ दशकों से सृजनरत वरिष्ठ रचनाधर्मी आचार्य भगवत दुबे रचित ‘हिरण सुगंधों के’ के नवगीत किताबी कपोल कल्पना मात्र न होकर डगर-डगर में जगर-मगर करते अपनों के सपनों, आशाओं-अपेक्षाओं, संघर्षों-पीडाओं के जीवंत दस्तावेज हैं। ये नवगीत सामान्य ग्राम्य जनों की मूल मनोवृत्ति का दर्पण मात्र नहीं हैं अपितु उसके श्रम-सीकर में अवगाहन कर, उसकी संस्कृति में रचे-बसे भावों के मूर्त रूप हैं। इन नवगीतों में ख्यात समीक्षक नामवर सिंह जी की मान्यता के विपरीत ‘निजी आत्माभिव्यक्ति मात्र’ नहीं है अपितु उससे वृहत्तर आयाम में सार्वजनिक और सार्वजनीन यथार्थपरक सामाजिक चेतना, सामूहिक संवाद तथा सर्वहित संपादन का भाव अन्तर्निहित है। इनके बारे में दुबे जी ठीक ही कहते हैं-
‘बिम्ब नये सन्दर्भ पुराने
मिथक साम्यगत लेकर
परंपरा से मुक्त
छान्दसिक इनका काव्य कलेवर
सघन सूक्ष्म अभिव्यक्ति दृष्टि
सारे परिदृश्य प्रतीत के
पुनः आंचलिक संबंधों से
हम जुड़ रहे अतीत के’
अतीत से जुड़कर वर्तमान में भविष्य को जोड़ते ये नवगीत रागात्मक, लयात्मक, संगीतात्मक, तथा चिन्तनात्मक भावभूमि से संपन्न हैं। डॉ. श्याम निर्मम के अनुसार: ‘इन नवगीतों में आज के मनुष्य की वेदना, उसका संघर्ष और जीवन की जद्दोजहद को भली-भाँति देखा जा सकता है। भाषा का नया मुहावरा, शिल्प की सहजता और नयी बुनावट, छंद का मनोहारी संसार इन गीतों में समाया है। आम आदमी का दुःख-दर्द, घर-परिवार की समस्याएँ, समकालीन विसंगतियाँ, थके-हारे मन का नैराश्य और संवेदनहीनता को दर्शाते ये नवगीत नवीन भंगिमाओं के साथ लोकधर्मी, बिम्बधर्मी और संवादधर्मी बन पड़े हैं।’
श्रम ढहाकर ही रहेगा / अब कुहासे का किला
झोपडी की अस्मिता को / छू न पाएँगे महल अब
पीठ पर श्रम की / न चाबुक के निशां / बन पाएँगे अब
बाँध को / स्वीकारना होगा / नहर का फैसला
*
चुटकुले, चालू चले / औ' गीत हम बुनते रहे
सींचते आँसू रहे / लतिकाओं, झाड़ों के लिए
तालियाँ पिटती रहीं / हिंसक दहाड़ों के लिए
मसखरी, अतिरंजना पर / शीश हम धुनते रहे
*
उच्छृंखल हो रही हवाएँ / मौसम भी बदचलन हुआ है
इठलाती फिरती हैं नभ पर / सँवर षोडशी नील घटाएँ
फहराती ज्यों खुली साड़ियाँ / सुर-धनु की रंगीं ध्वजाएँ
पावस ऋतु में पूर्ण सुसज्जित / रंगमंच सा गगन हुआ है
*
महाकाव्य, गीत, दोहा, कहानी, लघुकथा, गज़ल, आदि विविध विधाओं की अनेक कृतियों का सृजन कर राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके आचार्य दुबे अद्भुत बिम्बों, सशक्त लोक-प्रतीकों, जीवंत रूपकों, अछूती उपमाओं, सामान्य ग्राम्यजनों की आशाओं-अपेक्षाओं की रागात्मक अभिव्यक्ति पारंपरिक पृष्ठभूमि की आधारशिला पर इस तरह कर सके हैं कि मुहावरों का सटीक प्रयोग, लोकोक्तियों की अर्थवत्ता, अलंकारों का आकर्षण इन नवगीतों में उपस्थित सार्थकता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, बेधकता तथा रंजकता के पंचतत्वों के साथ समन्वित होकर इन्हें अर्थवत्ता दे सका है।
दबे पाँव सूर्य गया / पश्चिम की ओर
प्राची से प्रगट हुआ / चाँद नवकिशोर
*
भूखा पेट कनस्तर खाली / चूल्हा ठंडा रहा
अंगीठी सोयी मन मारे
*
सूखे कवित्त-ताल / मुरझाए पद्माकर
ग्रहण-ग्रस्त चंद
गीतों से निष्कासित / वासंती छंद
*
आम आदमी का दैनंदिन दुःख-सुख इन नवगीतों का उत्स और लक्ष्य है। दुबे जी के गृहनगर जबलपुर के समीप पतित पावनी नर्मदा पर बने बरगी बाँध के निर्माण से डूब में आयी जमीन गँवा चुके किसानों की व्यथा-कथा कहता नवगीत पारिस्थितिक विषमता व पीड़ा को शब्द देता है:
विस्थापन कर दिया बाँध ने
ढूँढें ठौर-ठिकाना
बिके ढोर-डंगर, घर-द्वारे
अब सब कुछ अनजाना
बाड़ी, खेत, बगीचा डूबे
काटा आम मिठौआ
उड़ने लगे उसी जंगल में
अब काले कौआ
दुबे जी ने भाष की विरासत को ग्रहण मात्र नहीं करते नयी पीढ़ी के लिए उसमें कुछ जोड़ते भे एहेन। अपनी अभिव्यक्ति के लिये उनहोंने आवश्यकतानुसार नव शब्द भी गढ़े हैं-
सीमा कभी न लाँघी हमने
मानवीय मरजादों की
भेंट चाहती है रणचंडी
शायद अब दनुजादों की
‘साहबजादा’ शब्द की तर्ज़ पर गढ़ा गया शब्द ‘दनुजादा’ अपना अर्थ आप ही बता देता है। ऐसे नव प्रयोगों से भाषा की अभिव्यक्ति ही नहीं शब्दकोष भी समृद्ध होता है।
दुबे जी नवगीतों में कथ्य के अनुरूप शब्द-चयन करते हैं- खुरपी से निन्वारे पौधे, मोची नाई कुम्हार बरेदी / बिछड़े बढ़ई बरौआ, बखरी के बिजार आवारा / जुते रहे भूखे हरवाहे आदि में देशजता, कविता की सरिता में / रेतीला पड़ा / शब्दोपल मार रहा, धरती ने पहिने / परिधान फिर ललाम, आयेगी क्या वन्य पथ से गीत गाती निर्झरा, ओस नहाये हैं दूर्वादल / नीहारों के मोती चुगते / किरण मराल दिवाकर आधी में परिनिष्ठित-संस्कारित शब्दावली, हलाकान कस्तूरी मृग, शीतल तासीर हमारी है, आदमखोर बकासुर की, हर मजहबी विवादों की यदि हवा ज़हरी हुई, किन्तु रिश्तों में सुरंगें हो गयीं में उर्दू लफ्जों के सटीक प्रयोग के साथ बोतलें बिकने लगीं, बैट्समैन मंत्री की हालत, जब तक फील्डर जागें, सौंपते दायित्व स्वीपर-नर्स को, आवभगत हो इंटरव्यू में, जीत रिजर्वेशन के बूते आदि में आवश्यकतानुसार अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग जिस सहजता से हुआ है, वह दुबेजी के सृजन सामर्थ्य का प्रमाण है।
गीतों के छांदस विधान की नींव पर आक्रामक युगबोधी तेवरपरक कथ्य की दीवारें, जन-आकांक्षाओं की दरार तथा जन-पीडाओं के वातायन के सहारे दुबे जी इन नवगीतों के भवन को निर्मित-अलंकृत करते हैं। इन नवगीतों में असंतोष की सुगबुगाहट तो है किन्तु विद्रोह की मशाल या हताशा का कोहरा कहीं नहीं है। प्रगतिशीलता की छद्म क्रन्तिपरक भ्रान्ति से सर्वथा मुक्त होते हुए भी ये नवगीत आम आदमी के लिये हितकरी परिवर्तन की चाह ही नहीं माँग भी पूरी दमदारी से करते हैं। शहरी विकास से क्षरित होती ग्राम्य संस्कृति की अभ्यर्थना करते ये नवगीत अपनी परिभाषा आप रचते हैं। महानगरों के वातानुकूलित कक्षों में प्रतिष्ठित तथाकथित पुरोधाओं द्वारा घोषित मानकों के विपरीत ये नवगीत छंद व् अलंकारों को नवगीत के विकास में बाधक नहीं साधक मानते हुए पौराणिक मिथकों के इंगित मात्र से कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिव्यक्त कर पाठक के चिंतन-मनन की आधारभूमि बनाते हैं। प्रख्यात नवगीतकार, समीक्षक श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार- ‘अनेक गीतकारों ने अपनी रचनाओं में लोक जीवन और लोक संस्कृति उतारने की कोशिश पहले भी की है तथापि मेरी जानकारी में जितनी प्रचुर और प्रभूत मात्रा में भगवत दुबे के गीत मिलते हैं उतने प्रमाणिक गीत अन्य दर्जनों गीतकारों ने मिलकर भी नहीं लिखे होंगे।’
"हिरण सुगंधों के" के नवगीत पर्यावरणीय प्रदूषण और सांस्कृतिक प्रदूषण से दुर्गंधित वातावरण को नवजीवन देकर सुरभित सामाजिक मर्यादाओं के सृजन की प्रेरणा देने में समर्थ हैं। नयी पीढ़ी इन नवगीतों का रसास्वादन कर ग्राम-नगर के मध्य सांस्कृतिक राजदूत बनने की चेतना पाकर अतीत की विरासत को भविष्य की थाती बनाने में समर्थ हो सकती है।
***
भोजपुरी दोहे:
नेह-छोह रखाब सदा
*
नेह-छोह राखब सदा, आपन मन के जोश.
सत्ता का बल पाइ त, 'सलिल; न छाँड़ब होश..
*
कइसे बिसरब नियति के, मन में लगल कचोट.
खरे-खरे पीछे रहल, आगे आइल खोट..
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जीए के सहरा गइल, आरच्छन के हाथ.
अनदेखी काबलियत कs, लख-हरि पीटल माथ..
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आस बन गइल सांस के, हाथ न पड़ल नकेल.
खाली बतिय जरत बा, बाकी बचल न तेल..
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दामन दोस्तन से बचा, दुसमन से मत भाग.
नहीं पराया आपना, मुला लगावल आग..
*
प्रेम बाग़ लहलहा के, क्षेम सबहिं के माँग.
सुरज सबहिं बर धूप दे, मुर्गा सब के बाँग..
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शीशा के जेकर मकां, ऊहै पाथर फेंक.
अपने घर खुद बार के, हाथ काय बर सेंक?.
२६-३-२०१८
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हास्य सलिला:
उमर क़ैद
*
नोटिस पाकर कचहरी पहुँचे चुप दम साध.
जज बोलीं: 'दिल चुराया, है चोरी अपराध..'
हाथ जोड़ उत्तर दिया, 'क्षमा करें सरकार!.
दिल देकर ही दिल लिया, किया महज व्यापार..'
'बेजा कब्जा कर बसे, दिल में छीना चैन.
रात स्वप्न में आ किया, बरबस ही बेचैन..
लाख़ करो इनकार तुम, हम मानें इकरार.
करो जुर्म स्वीकार- अब, बंद करो तकरार..'
'देख अदा लत लग गयी, किया न कोई गुनाह.
बैठ अदालत में भरें, हम दिल थामे आह..'
'नहीं जमानत मिलेगी, सात पड़ेंगे फंद.
उम्र क़ैद की अमानत, मिली- बोलती बंद..

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कुंडलिया
देह दुर्ग में विराजित, दुर्ग-ईश्वरी आत्म
तुम बिन कैसे अवतरित, हो भू पर परमात्म?
हो भू पर परमात्म, दुर्ग है तन का बन्धन
मन का बन्धन टूटे तो, मन करता क्रंदन
जाति वंश परिवार, हैं सुदृढ़ दुर्ग सदेह
रिश्ते-नातों अदिख, हैं दुर्ग घेरते देह
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सरिता शर्माती नहीं, हरे जगत की प्यास
बिन सरिता कैसे मिटे, असह्य तृषा का त्रास
असह्य तृषा का त्रास, हरे सरिता बिन बोले
वंदन-निंदा कुछ करिये, चुप रहे न तोले
'सलिल' साक्षी है, युग-प्राण बचाती भरिता
हरे जगत की प्यास नहीं शर्माती सरिता
२६-३-२०१७
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गीत : करे फैसला कौन?
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मन का भाव बुनावट में निखरा कढ़कर है
जो भीतर से जगा, कौन उससे बढ़कर है?
करे फैसला कौन?, कौन किससे बढ़कर है??
*
जगा जगा दुनिया को हारे खुद सोते ही रहे
गीत नर्मदा के गाये पर खुद ही नहीं बहे
अकथ कहानी चाह-आह की किससे कौन कहे
कर्म चदरिया बुने कबीरा गुपचुप बिना तहे
निज नज़रों में हर कोई सबसे चढ़कर है
जो भीतर से जगा, कौन उससे बढ़कर है?
करे फैसला कौन?, कौन किससे बढ़कर है??
*
निर्माता-निर्देशक भौंचक कितनी पीर सहे
पात्र पटकथा लिख मनमानी अपने हाथ गहे
मण्डी में मंदी, मानक के पल में मूल्य ढहे
सोच रहा निष्पक्ष भाव जो अपनी आग दहे
माटी माटी से माटी आयी गढ़कर है
जो भीतर से जगा, कौन उससे बढ़कर है?
करे फैसला कौन?, कौन किससे बढ़कर है??
२६-३-२०१४
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दोहा सलिला:
दोहा पिचकारी लिये
*
दोहा पिचकारी लिये,फेंक रहा है रंग.
बरजोरी कुंडलि करे, रोला कहे अभंग.. *
नैन मटक्का कर रहा, हाइकु होरी संग.
फागें ढोलक पीटती, झांझ-मंजीरा तंग.. *
नैन झुके, धड़कन बढ़ी, हुआ रंग बदरंग.
पनघट के गालों चढ़ा, खलिहानों का रंग.. *
चौपालों पर बह रही, प्रीत-प्यार की गंग.
सद्भावों की नर्मदा, बजा रही है चंग.. *
गले ईद से मिल रही, होली-पुलकित अंग.
क्रिसमस-दीवाली हुलस, नर्तित हैं निस्संग.. *
गुझिया मुँह मीठा करे, खाता जाये मलंग.
दाँत न खट्टे कर- कहे, दहीबड़े से भंग.. *
मटक-मटक मटका हुआ, जीवित हास्य प्रसंग.
मुग्ध, सुराही को तके, तन-मन हुए तुरंग.. *
बेलन से बोला पटा, लग रोटी के अंग.
आज लाज तज एक हैं, दोनों नंग-अनंग.. *
फुँकनी को छेड़े तवा, 'तू लग रही सुरंग'.
फुँकनी बोली: 'हाय रे! करिया लगे भुजंग'.. *
मादल-टिमकी में छिड़ी, महुआ पीने जंग.
'और-और' दोनों करें, एक-दूजे से मंग.. *
हाला-प्याला यों लगे, ज्यों तलवार-निहंग.
भावों के आवेश में, उड़ते गगन विहंग.. *
खटिया से नैना मिला, भरता माँग पलंग.
उसने बरजा तो कहे:, 'यही प्रीत का ढंग'.. *
भंग भवानी की कृपा, मच्छर हुआ मतंग.
पैर न धरती पर पड़ें, बेपर उड़े पतंग.. *
रंग पर चढ़ा अबीर या, है अबीर पर रंग.
बूझ न कोई पा रहा, सारी दुनिया दंग.. *
मतंग=हाथी, विहंग = पक्षी

२६-३-२०१३

***
दोहा
नेह-नर्मदा सनातन, 'सलिल' सच्चिदानंद.
अक्षर की आराधना, शाश्वत परमानंद..

मुक्तक
ममता को समता के पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
२६-३-२०१०
*

यीट्स,

Poems : William Butler Yeats

काव्यानुवाद : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

१. पतझर

हमें रहे प्रिय लंबे पत्तों पर है पतझर, २४
जौ की ढेरी में जा छिपे हुए चूहों पर;
पीले पत्ते रोवन तरु के; सर के ऊपर,
पीले-गीले पर्ण जंगली रसबेरी के।

प्रणय भंग की बेला में हैं खिन्न मना हम,
ओढ़े हुए उदासी अपनी आत्माएँ अब;
सहभागी हों, भुला न दे उमंग का मौसम,
अश्रु भरी नत तेरी भौंहों का चुम्बन कर।
२५-३-२०२२
*
 1. The Falling of the Leaves

Autumn is over the long leaves that love us,
And over the mice in the barley sheaves;
Yellow the leaves of the rowan above us,
And yellow the wet wild-strawberry leaves.

The hour of the waning of love has beset us,
And weary and worn are our sad souls now;
Let us part, ere the season of passion forget us,
With a kiss and a tear on thy drooping brow.
***

२. लोरी

झुकी हुई हैं परियाँ २२
तेरी शैया पर;
क्लांत भटकने से हैं 
वे मुरदों जैसी।

देव स्वर्ग में हँसें
देख इतना अच्छा।
तारक सत ऋषि संग हैं 
उसके आनंदित।

तुम्हें चूम कर आह भरूँ,
मैं अपने आप
सोच खलेगी कमी
बड़े होंगे जब तुम।
२५-३-२०२२
*
2. A Cradle Song

THE angels are stooping
Above your bed;
They weary of trooping
With the whimpering dead.

God's laughing in Heaven
To see you so good;
The Sailing Seven
Are gay with His mood.

I sigh that kiss you,
For I must own
That I shall miss you
When you have grown.
***

३. लबादा, नाव और जूते

'बनाते क्या कहो सुंदर और आभामय?'

'मैं बनाता लबादा दुःख का :
भला लगे देखना नज़रों में 
बसा हुआ है लबादा दुःख का, 
सब मनुष्यों की नज़र में'। 

'बनाते किससे हो पाल भर सको उड़ान?'

'मैं बनाता नाव दुःख के लिए:
सिंधु पर गतिमान निशि-दिन  
पार करे यायावर दुःख को 
पूरे दिन अरु रात।'

'बुन रहे क्या इस कपासी ऊन से?'

'मैं बुनता हूँ पादुका दुःख की:
ध्वनि बिना हल्की रहे पदचाप 
मनुष्यों के दुखित कानों में' 
अचानक अरु बहुत हल्की।'
२६-३-२०२२ 
***
3. The Cloak, The Boat And The Shoes

'What do you make so fair and bright?'

'I make the cloak of Sorrow:
O lovely to see in all men's sight
Shall be the cloak of Sorrow,
In all men's sight.'

'What do you build with sails for flight?'

'I build a boat for Sorrow:
O swift on the seas all day and night
Saileth the rover Sorrow,
All day and night.'

What do you weave with wool so white?'

'I weave the shoes of Sorrow:
Soundless shall be the footfall light
In all men's ears of Sorrow,
Sudden and light.'
***
४. सलिल-द्वीप में 

छुईमुई वह, छुईमुई वह,
छुईमुई मनबसिया मेरी,
आती है वह धुंधलके में 
अलग-थलग हो लुकती-छिपती।

वह रकाबियों में लाती है 
और सीध में रख जाती है 
एक द्वीप में सलिल बीच मैं 
उसके साथ बसूँ जाकर।  

वह आती ले मोमबत्तियाँ 
दमकाती कमरा परदामय 
शरमाती है बीच डगर में 
हो उदास शरमाती है;  

छुईमुई खरगोश सरीखी, 
नेक और शर्मीली है.
एक द्वीप में सलिल बीच, उड़  
उसके साथ बसूँ जाकर।
२६-३-२०२२ 
***

4. To an Isle in the Water

Shy one, shy one,
Shy one of my heart,
She moves in the firelight
Pensively apart.

She carries in the dishes,
And lays them in a row.
To an isle in the water
With her would I go.

She carries in the candles,
And lights the curtained room,
Shy in the doorway
And shy in the gloom;

And shy as a rabbit,
Helpful and shy.
To an isle in the water
With her would I fly.
२६-३-२०२२
 *
 
५. मछली 

यद्यपि तुम छिप जाती हो भाटे-बहाव में 
पीत ज्वार में, ढल जाता जब आप चंद्रमा,  
आनेवाले कल के सभी लोग जानेंगे 
मेरे जाल से भाग निकलने के बारे में, 
समझ न पाएँगे कैसे तुम लाँघ सकीं थीं 
नन्हीं रजत डोरियों पर से,
वे सोचेंगे तुम कठोर थीं; निर्दय भी थीं 
देंगे तुम्हें दोष, वे कड़वे शब्द कहेंगे।
२६-३-२०२२  
*
5. The Fish

Although you hide in the ebb and flow
Of the pale tide when the moon has set,
The people of coming days will know
About the casting out of my net,
And how you have leaped times out of mind
Over the little silver cords,
And think that you were hard and unkind,
And blame you with many bitter words.
२६-३-२०२२
***



रामाधीन पाताल

यहां पर है रामायणकालीन 'पाताल लोक'
 प्राचीन हिंदू धर्म ग्रंथों की पौराणिक कथाओं में एक पाताल लोक का जिक्र बार-बार मिलता है, लेकिन सवाल उठता था कि क्या पाताल लोक पूरी तरह से काल्पनिक है या इसका को अस्तित्व भी है? रामायण की कथा के मुताबिक पवनपुत्र हनुमान पाताल लोक तक पहुंचे थे। भगवान राम के सबसे बड़े भक्त हनुमान ने अपने ईष्ट देव को अहिरावण के चंगुल से बचाने के लिए एक सुरंग से पाताल लोक पहुंचे थे।
 इस कथा के मुताबिक पाताल लोक ठीक धरती के नीचे है। वहां तक पहुंचने के लिए 70 हजार योजन की गहराई पर जाना पड़ता है। अगर आज के वक्त में हम अपने देश में कहीं सुरंग खोदना चाहें तो ये सुरंग अमेरिका महाद्वीप के मैक्सिको, ब्राजील और होंडुरास जैसे देशों तक पहुंचेगी। हाल ही में वैज्ञानिकों ने मध्य अमेरिका महाद्वीप के होंडुरास में सियूदाद ब्लांका नाम के एक गुम प्राचीन शहर की खोज की है। वैज्ञानिकों ने इस शहर को आधुनिक लाइडार (LIDER) तकनीक से खोज निकाला है।
 इस शहर को बहुत से जानकार वह पाताल लोक मान रहे हैं जहां राम भक्त हनुमान पहुंचे थे। दरअसल इस विश्वास की एक पुख्ता वजहें हैं। पहली, अगर भारत या श्रीलंका से कोई सुरंग खोदी जाएगी तो वह सीधे यहीं निकलेगी। दूसरी वजह यह है कि वक्त की हजारों साल पुरानी परतों में दफन सियुदाद ब्लांका में ठीक राम भक्त हनुमान के जैसे वानर देवता की मूर्तियां मिली हैं।
 इतिहासकारों का कहना है कि प्राचीन शहर सियुदाद ब्लांका के लोग एक विशालकाय वानर देवता की मूर्ति की पूजा करते थे। लिहाजा यह संभावना तलाशी जा रही है कि कहीं हजारों साल प्राचीन सियूदाद ब्लांका का ही तो रामायण में जिक्र पाताल पुरी के तौर पर नहीं है। पूर्वोत्तर होंडुरास के घने वर्षा जंगलों के बीच मस्कीटिया नाम के इलाके में हजारों साल पहले एक गुप्त शहर सियूदाद ब्लांका था। यह भी कहा जाता है कि हजारों साल पहले इस प्राचीन शहर में एक फलती-फूलती सभ्यता सांस लेती थी, जो अचानक ही वक्त की गहराइयों में गुम हो गई।
 अब तक की खुदाई में इस शहर के ऐसे कई अवशेष मिले हैं जो इशारा करते हैं कि सियूदाद के निवासी वानर देवता की पूजा करते थे। यहां सियूदाद के वानर देवता की घुटनों के बल बैठे मूर्ति को देखते ही राम भक्त हनुमान की याद आ जाती है।
 घुटनों पर बैठे बजरंग बली की मूर्ति वाले मंदिर आपको हिंदुस्तान में जगह-जगह मिल जाएंगे। हनुमान जी के एक हाथ में उनका जाना-पहचाना हथियार गदा भी रहता है। दिलचस्प बात ये है कि प्राचीन शहर से मिली वानर-देवता की मूर्ति के हाथ में भी गदा जैसा हथियार नजर आता है।
मध्य अमेरिका के एक मुल्क में प्राचीन शहर की खोज के साथ सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि रामायण की कथा में ऐसे सूत्र बिखरे पड़े हैं जो कहते हैं कि भारत या श्रीलंका की जमीन के ठीक नीचे वह लोग रहते हैं जिसे पाताल पुरी कहा जाता था। पाताल पुरी का जिक्र रामायण के उस अध्याय में आता है, जब मायावी अहिरावण राम और लक्ष्मण का हरण कर उन्हें अपने माया लोक पाताल पुरी ले जाता है।
 रामायण की कथा के अनुसार हनुमान जी को अहिरावण तक पहुंचने के लिए पातालपुरी के रक्षक मकरध्वज को परास्त करना पड़ा था जो ब्रह्मचारी हनुमान का ही पुत्र था। दरअसल, मकरध्वज एक मत्स्यकन्या से उत्पन्न हुए थे, जो लंकादहन के बाद समुद्र में आग बुझाते हनुमान जी के पसीना गिर जाने से गर्भवती हुई थी। रामकथा के मुताबिक अहिरावण वध के बाद भगवान राम ने वानर रूप वाले मकरध्वज को ही पातालपुरी का राजा बना दिया था, जिसे पाताल पुरी के लोग पूजने लगे थे।
यहां पर है रामायणकालीन 'पाताल लोक'
होंडुरास के गुप्त प्राचीन शहर के बारे में सबसे पहले ध्यान दिलाने वाले अमेरिकी खोजी थियोडोर मोर्डे ने दावा किया था कि स्थानीय लोगों ने उन्हें बताया था कि वहां के प्राचीन लोग वानर देवता की ही पूजा करते थे। उस वानर देवता की कहानी काफी हद तक मकरध्वज की कथा से मिलती-जुलती है। हालांकि अभी तक प्राचीन शहर सियूदाद ब्लांका और रामकथा में कोई सीधा रिश्ता नहीं मिला है।
लेकिन सुदूर घने वर्षा वनों में जमीन में दफन एक प्राचीन शहर अपने इतिहास के साथ सांस ले रहा है ये शायद दुनिया कभी नहीं जा पाती अगर अमेरिकी वैज्ञानिकों की टीम ने उसे तलाशने के लिए क्रांतिकारी तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया होता। LIDAR के नाम से जानी जाने वाली तकनीक ने जमीन के नीचे की 3-D मैपिंग से कैसे प्राचीन शहर को खोज निकाला। मध्य अमेरिकी देश होंडुरास में वानर देवता वाले प्राचीन शहर की खोज बरसों पुरानी है। होंडूरास में उस प्राचीन शहर की किवदंती सदियों से सुनाई जाती हैं जहां बजरंग बली जैसे वानर देवता की पूजा की जाती थी। ये कहानियां होंडूरास पर राज करने वाले पश्चिमी लोगों तक भी पहुंची।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद एक अमेरिकी पायलट ने होंडुरास के जंगलों में कुछ अवशेष देखने की बात की, लेकिन इसके बारे में पहली पुख्ता जानकारी अमेरिकी खोजकर्ता थियोडोर मोर्डे ने 1940 में दी। एक अमेरिकी मैगजीन में उसने लिखा कि उस प्राचीन शहर में वानर देवता की पूजा होती थी, लेकिन उसने शहर की जगह का खुलासा नहीं किया। बाद में रहस्यमय हालात में थियोडोर की मौत हो जाने से प्राचीन शहर की खोज अधूरी रह गई।
इसके करीब 70 साल बाद अब होंडुरास के घने जंगलों के बीच मस्कीटिया नाम के इलाके में प्राचीन शहर के निशान मिलने शुरू हुए हैं जो लाइडार तकनीक से संभव हुआ। अमेरिका के ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी और नेशनल सेंटर फॉर एयरबोर्न लेजर मैपिंग ने होंडुरास के जंगलों के ऊपर आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से प्राचीन शहर के निशान को खोज निकाला है।
लाइडार तकनीक की मदद से ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने होंडुरास के जंगलों के ऊपर से उड़ते हुए अरबों लेजर तरंगें जमीन पर फेंकीं। इससे जंगल के नीचे की जमीन का 3-डी डिजिटल नक्शा तैयार हो गया। थ्री-डी नक्शे से जो आंकड़े मिले उससे जमीन के नीचे प्राचीन शहर की मौजूदगी का पता चल गया। वैज्ञानिकों ने पाया की जंगलों की जमीन की गहराइयों में मानव निर्मित कई चीजें मौजूद हैं।
हालांकि लाइडार तकनीक से जंगल के नीचे प्राचीन शहर होने के निशान मिल गए हैं, लेकिन ये निशान किवदंतियों में जिक्र होने वाला सियूदाद ब्लांका के ही हैं, ये शायद कभी पता ना चले।
दरअसल, पर्यावरण के प्रति सजग होंडुरास जंगलों के बीच खुदाई की इजाजत नहीं देता है, ऐसे में सिर्फ ये अनुमान ही लगाया जा सकता है कि जंगलों में एक प्राचीन शहर दफन है, इस इलाके में बजरंगबली जैसी वानर देवता की कुछ मूर्तियां जरूर मिली हैं, जिससे ये कयास लगाए जाने लगे हैं कि कहीं किवदंतियों का ये शहर रामायण में जिक्र पाताल लोक ही तो नहीं है।
वर्ष 1940 में हुई इस जानकारी की पुष्टि एसएमएस (स्कूल ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज), लखनऊ के निदेशक व वैदिक विज्ञान केन्द्र के प्रभारी प्रो. डॉ. भरत राज सिंह ने की है। उन्होंने बताया कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद एक अमेरिकी पायलट ने होंडुरास के जंगलों में कुछ अवशेष देखे थे। उसकी पहली जानकारी अमेरिकी खोजकर्ता थियोडोर मोर्ड ने 1940 में दी थी। 
3-डी नक्शे में जमीन के नीचे गहराइयों में मानव निर्मित कई वस्तुएं दिखाई दीं। इसमें हाथ में गदा जैसा हथियार लिए घुटनों के बल बैठी हुई है वानर मूर्ति भी दिखी है। हालांकि होंडुरास के जंगल की खुदाई पर प्रतिबंध के कारण इस स्थान की वास्तविक स्थिति का पता लग पाना मुश्किल है।
अमेरिकी इतिहासकार भी मानते हैं कि पूर्वोत्तर होंडुरास के घने जंगलों के बीच मस्कीटिया नाम के इलाके में हजारों साल पहले एक गुप्त शहर सियूदाद ब्लांका का अस्तित्व था। वहां के लोग एक विशालकाय वानर मूर्ति की पूजा करते थे। प्रो. भरत ने बताया कि बंगाली रामायण में पाताल लोक की दूरी 1000 योजन बताई गई है, जो लगभग 12,800 किलोमीटर है।
यह दूरी सुरंग के माध्यम से भारत व श्रीलंका की दूरी के बराबर है। रामायण में वर्णन है कि अहिरावण के चंगुल से भगवान राम व लक्ष्मण को छुड़ाने के लिए बजरंगबली को पातालपुरी के रक्षक मकरध्वज को परास्त करना पड़ा था। मकरध्वज बजरंगबली के ही पुत्र थे, लिहाजा उनका स्वरूप बजरगंबली जैसा ही था। अहिरावण के वध के बाद भगवान राम ने मकरध्वज को ही पातालपुरी का राजा बना दिया था।