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सोमवार, 25 अक्टूबर 2021

सुमित्र
















शतवर्षी जीवन जियें, अग्रज बंधु सुमित्र। 
अंकित अपने हृदय, पर अमिट आपका चित्र।। 
गायत्री सुमिरन करें, भाव भावना दिव्य। 
काम कामना पूर्ण हो, हर्ष मिले नित नव्य।।
श्वास-श्वास संजीव हो, सफल साधना पूर्ण। 
हर संकट बाधा मिटे, पल भर में हो चूर्ण।।    

नर्मदा तीरे उपनिषद वार्ता

 

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
नर्मदा तीरे उपनिषद वार्ता
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आगामी सोमवार १ नवंबर २०२१ से सायंकाल ४.३० बजे से उपनिषद वार्ता का शुभारंभ होगा। २४
उपनिषद का नाम वार्ता दिनाँक
ईशोपनिषद १५ नवंबर २०२१
केनोपनिषद पू. २२ नवंबर २०२१
केनोपनिषद उ. २९ नवंबर २०२१

कठोपनिषद ०६ दिसंबर २०२१
प्रश्नोपनिषद १३ दिसंबर २०२१
मुण्डकोपनिषद २० दिसंबर २०२१
माण्डूक्योपनिषद २७ दिसंबर २०२१
तैत्तिरीयोपनिषद ०३ जनवरी २०२१
ऐतरेयोपनिषद १० जनवरी २०२१
छान्दोग्योपनिषद १७ जनवरी २०२१
बृहदारण्योपनिषद २४ जनवरी २०२२
श्वेताश्वतरोपनिषद ३१ फरवरी २०२२
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संयोजक - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर
संचालन - सरला वर्मा, भोपाल

लेख : श्रीमद्भगवद्गीता में प्रबंधन सूत्र

लेख :
श्रीमद्भगवद्गीता में प्रबंधन सूत्र
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'



श्रीमद्भगवद्गीता मानव सभ्यता और विश्व वाङ्मय को भारत का अनुपम कालजयी उपहार है। गीता के आरम्भ में कुरुक्षेत्र की समरभूमि में पाण्डव-कौरव सेनाओं के मध्य खड़ा पराक्रमी अर्जुन रण हेतु उद्यत् सेनाओं में अपने रक्त सम्बन्धियों, पूज्य जनों तथा स्नेहीजनों को देखकर विषादग्रस्त हो जाता है। किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को कर्तव्य बोध कराने के लिये श्रीकृष्ण जो उपदेश देते हैं, वहीं श्रीमद्भग्वदगीता में संकलित है। इन उपदेशों में विभ्रम ग्रस्त मन को संतुलित करने के लिये मनोचिकसकीय तथा प्रबंधकीय उपाय अंतनिर्हित है।

वर्तमान दैनंदिन जीवन में प्रबंधन अपरिहार्य है। घर, विद्यालय, कार्यालय, दूकान, कारखाना, चिकित्सालय, शासन-प्रशासन या अन्यत्र कहीं हर स्थान पर प्रबंधन कला के सूत्र-सिद्धान्त व्यवहार में आते हैं। समय, सामग्री, तकनीक, श्रम, वित्त, यंत्र, उपकरण, नियोजन, प्राथमिकताएँ, नीतियों, अभ्यास तथा उत्पादन हर क्षेत्र में प्रबंधन अपरिहार्य हो जाता है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में मानवीय प्रयासों को सम्यक्, समुचित, व्यवस्थित रूप से किया जाना ही प्रबंधन है। किसी एक मनुष्य को अन्य मनुष्यों के साथ पारस्परिक सक्रिय अंतर्संबंध में संलग्न कर, बेहतर परिणाम पाना ही प्रबंधन कला है। किसी मनुष्य की कमजोरियों, दुर्बलताओं, अभावों या कमियों पर विजय पाकर अन्य लोगों के साथ संयुक्त प्रयास करने में सक्षम बनाना ही प्रबंधन कला है।

प्रबंधन कला से आशय मनुष्य के विचारों तथा कर्म, लक्ष्य तथा प्राप्ति योजना तथा क्रियान्वयन, उत्पादन तथा विपणन में साम्य स्थापित करना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु जमीनी भौतिक, तकनीकी या मानवीय त्रुटियों, कमियों अथवा विसंगतियों पर उपलब्ध न्यूनतम संसाधनों व प्रक्रियाओं का अधिकतम प्रयोग कर महत्तम परिणाम पाने की कला व विज्ञान ही प्रबंधन है।

प्रबंधन की न्यूनता, अव्यवस्था, भ्रम, बर्बादी, अपव्यय, विलंब ध्वंस तथा हताशा को जन्म देती है। सफल प्रबंधन हेतु मानव, धन, पदार्थ, उपकरण आदि संसाधनों का उपस्थित परिस्थितियों तथा वातावरण में सर्वोत्तम संभव उपयोग किया जाना अनिवार्य है। किसी प्रबंधन योजना में मनुष्य सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक होता है। अतः, मानव प्रबंधन को सर्वोत्तम रणनीति माना जाता है। प्रागैतिहासिक काल की आदिम अवस्था से रोबोट तथा कम्प्यूटर के वर्तमान काल तक किसी न किसी रूप में उपलब्ध संसाधनों का प्रबंधन हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। वसुधैव कुटुम्बकम् तथा विश्वैक नीड़म् के सिद्धान्तों को मूर्त होते देखते वर्तमान समय में प्रबंधन की विधियाँ अधिक जटिल हो गयी हैं। किसी समय सर्वोत्तम सिद्ध हुये नियम अब व्यर्थ हो गये हैं। इतने व्यापक परिवर्तनों तथा लम्बी समयावधि बीतने के बाद भी गीता के प्रबंधक सूत्रों की उपादेयता बढ़ रही है।
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रचनाकार परिचय:-

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम.ए., एल.एल.बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपने निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८, समयजयी साहित्यशिल्पी भागवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' आदि पुस्तकों, ८ पत्रिकाओं व १६ स्मारिकाओं का संपादन तथा २९ पुस्तकों में आमुख लेखन तथा ३५० पुस्तकों का समीक्षा लेखन किया है। आपके शोध लेख तथा पत्रिकाओं व अंतर्जाल पर ५ लेख मालाएँ प्रकाशित हुई हैं। आपकी रचनाओं का ४ भाषाओँ में अनुवाद हुआ है। 

आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० संस्थाओं ने शताधिक सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वी शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञान रत्न, अभियंता रत्न, सरस्वती रत्न, शारदा सुत, साहित्य शिरोमणि, साहित्य वारिधि, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, साहित्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, कायस्थ कीर्तिध्वज, वास्तु गौरव, कामता प्रसाद गुरु वर्तिका अलंकरण, कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर साहित्य सम्मान, युगपुरुष विवेकानंद सम्मान आदि।

आप मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में कार्यपालन यंत्री, संभागीय परियोजना यंत्री, सहायक महाप्रबंधक आदि पदों पर कार्य कर सेवा निवृत्त हुए हैं तथा हिंदी भाषा के छंदों, अलंकारों, रसों आदि पर शोधपरक लेखन हेतु समर्पित हैं.

संपर्क : समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com
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श्रीमद्भगवद्गीता में प्रबंधनसूत्रः

प्रबंधन के क्षेत्र में गीता का हर अध्याय महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करता है। अब तक जनसामान्य गीता को धार्मिक-अध्यात्मिक ग्रंथ तथा सन्यास वृत्ति उत्पन्न करने वाला मानकर उससे दूर रहता है। अधिकांश घरों में गीता है ही नहीं, अथवा यह अलमारी की शोभा बढ़ाती है- पढ़ी-सुनी-गुनी नहीं जाती। गीता का संस्कृत में होना और भारतीय शिक्षा प्रणाली में संस्कृत का नाममात्र के लिये होना भी गीता व अन्य संस्कृत ग्रंथों के कम लोकप्रिय होने का कारण है। शिक्षालयों से किताबी अध्ययन पूर्ण कर आजीविका तलाशते युवकों-युवतियों को अपने भविष्य के जीवन संग्राम, परिस्थितियों, चुनौतियों, सहायकों वांछित कौशल अथवा सफलता हेतु आवश्यक युक्तियों की कोई जानकारी नहीं होती। विद्यार्थी काल तक माता-पिता की छत्र-छाया में जिम्मेदारियों से मुक्तता युवाओं को जीवन पथ की कठिनाइयों से दूर रखती है किन्तु पाठ्यक्रम पूर्ण होते ही उनसे न केवल स्वावलम्बी बनने की अपितु अभिभावकों को सहायता देने और पारिवारिक-सामाजिक- व्यावसायिक दायित्व निभाने की अपेक्षा की जाती है।

व्यवसाय की चुनौतियों, अनुभव की कमी तथा दिनों दिन बढ़ती अपेक्षाओं के चक्रव्यूह में युवा का आत्मविश्वास डोलने लगता है और वह कुरुक्षेत्र के अर्जुन की तरह संशय, ऊहापोह और विषाद की उस मनः स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ से निकलकर आगे बढ़ने के कालजयी सूत्र श्रीकृष्ण द्वारा दिये गये हैं। इन सूत्रों की पौराणिक- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से कुछ हटकर वर्तमान परिवेश में व्याख्यायित किया जा सके तो गीता युवाओं के लिये Career building & Management का ग्रंथ सिद्ध होती है।

आरम्भ में ही कृष्ण श्लोक क्र. २/३ में ‘‘क्लैव्यं मा स्म गमः’’ अर्थात् 'कायरता और दुर्बलता का त्याग करो' कहकर श्रीकृष्ण, अर्जुन में अपनी और उसकी सामर्थ्य के प्रति आत्मविश्वास जगाते हैं। ‘‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं व्यक्लोतिष्ठ परंतप’’ यानी 'हृदय में व्याप्त तुच्छ दुर्बलता को त्यागे बिना सफलता के सोपानों पर पग रखना संभव नहीं है।' कहते हुए श्रीकृष्ण निश्चात्मक रूप से अर्जुन को उसके अनुराग का उपचार बताते हैं।

श्लोक २/७ में ‘‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नं’, 'मैं शिष्य की भाँति आपकी शरण में हूँ' कहता हुआ अर्जुन भावी संघर्ष में सफलता हेतु वांछित आवश्यक सूत्र ग्रहण करने की तत्परता दिखाता है। अध्ययनकाल में विद्यार्थी- शिक्षक सम्बन्ध औपचारिक होता है। सामान्यतः इसमें श्रद्धाजनित अनुकरण वृत्ति का अभाव होता है। आजीविका के क्षेत्र में पहले दिन से कार्य कुशलता तथा दक्षता दिखा पाना कठिन है। गीता के दो सूत्र ‘‘संशय छोड़ो’’ तथा ‘‘किसी योग्य की शरण में जाओ’’ मार्ग दिखाते हैं।

कार्यारम्भ करने पर प्रारम्भ में गलती, चूक और विलंब और उससे नाराजी मिलना या हानि होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में ‘‘गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंति पंडिताः’’-२/११ अर्थात् हर्ष-शोक से परे रहकर, लाभ-हानि के प्रति निरंतर तटस्थ भाव रखकर आगे बढ़ने का सूत्र उपयोगी है। ‘‘सम दुःख-सुख धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते‘‘ २/१५ अर्थात् असफलताजनित दुख या सफलताजनित को समभाव से ग्रहण करने पर ही अभीष्ट साफल्य की प्राप्ति संभव है।

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नो द्विजेत्प्राप्यचाप्रियम्
स्थिर बुद्धिसंमूढ़ो ब्रह्मचिद्बह्मणि स्थितः।।

"जो प्रिय (सफलता) प्राप्त कर प्रसन्न नहीं होता अथवा अप्रिय (असफलता) प्राप्त कर उद्विग्न (अशांत) नहीं होता वह स्थिरबुद्धि ईश्वर (जिसकी प्राप्ति अंतिम लक्ष्य है) में स्थिर कहा जाता है।"- कहकर कृष्ण एक अद्भुत प्रबंधन सूत्र उपलब्ध कराते हैं।

प्रबंधन के आरम्भ में परियोजना सम्बन्धी परिकल्पनाएँ और प्राप्ति सम्बन्धी आँकड़ों का अनुमान करना होता है। इनके सही-गलत होने पर ही परिणाम निर्भर करता है।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।२/१६ अर्थात् असत् (असंभव) की उपस्थिति तथा सत् (सत्य, संभव) की अनुपस्थिति संभव नहीं। यदि परियोजना की परिकल्पना में इसके विपरीत हो तो वह परियोजना विफल होगी ही। शासकीय कार्यों में इस ‘सतासत्’ का ध्यान न रखा जाने का दुष्परिणाम हम देखते ही हैं। वैयक्तिक जीवन में ‘सतासत्’ का संतुलन तथा पहचान अपरिहार्य है।

सुख-दुःखे समे कृत्वा, लाभालाभौ, जयाजयो
ततो युद्धाय युज्यस्व, तैवं पापं वाप्स्यसि।।

कर्मों का क्रम नष्ट नहीं होता। कर्मफल पुनः कर्म कराता है। धर्म (कर्मयोग) का अल्प प्रयोग भी बड़े पाप (हानि) भय से बचा लेता है। न्यूटन गति का नियम "Each and every action has equal and opposite reaction" गीता के इस श्लोक की भिन्न पृष्ठभूमि में पुनरुक्ति मात्र है। प्रबंधन करते समय यह श्लोक ध्यान में रहे तो हर क्रिया की समान तथा विपरीत प्रतिक्रिया व उसके प्रभाव का पूर्वानुमान कर बड़ी हानि से बचाव संभव है।

व्यवसायात्मिका बुद्धि रेकेह कुरुनंदन
बहुशाखा ह्यनंताश्च बुद्धयोत्यवसायिनम्।।२/४१

निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है और अनिश्चयात्मक बुद्धि अनेक होती हैं।’’ किसी भी कार्य योजना की तैयारी तथा कार्य संपादन के समय अनेक शंकाएँ, विकल्प आदि की उहापोह से मन जूझता है। निश्चयात्मक बुध्दि हो तो मन विचलित नहीं होता।

त्रैगुण्य विषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन
निद्वंदो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।२/४५

ज्ञानियों (वैज्ञानिकों) का विषय त्रिगुण (सत, रज, तम) प्रकृति है। तू इन गुणों की प्रकृति से ऊपर उठकर ज्ञानवान बन। प्रबंधन कला में अनेक विकल्पों में से किसी एक का चयन कर उसे संकल्प बनाना उसकी प्रकृति अर्थात् गुणावगुणों का अनुमान कर ज्ञानवान बने बिना कैसे मिलेगी?

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।।2/46।।

To action alone there has't a right.
Its first must remain out of thy sight.
Neither the fruit be the impulsed of thy action.
Nor be thou attached to the life of ideal in action.

सतही तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रबंधन का लक्ष्य सुनिश्चित परिणाम पाना है जबकि श्रीकृष्ण कर्म करने और फल की चिंता न करने को कह रहे हैं। अतः, ये एक दूसरे के विपरीत हैं किन्तु गहराई से सोचें तो ऐसा नहीं पायेंगे। श्लोक ४८ में सफलता-असफलता के लोभ-मय से मुक्त होकर समभाव से कर्म करने, श्लोक ४९ में केवल स्वहितकारक फल से किये कर्म को हीन (त्याज्य) मानने, श्लोक ५० में योगः कर्मसु कौशलं’’ कर्म में कुशलता (समभाव परक) ही योग है, कहने के बाद श्रीकृष्ण कर्मफल से निर्लिप्त रहने वाले मनीषियों को निश्चित बुद्धि योग और बंधन मुक्ति का सत्य बताते हैं।

इन श्लोकों की प्रबंध विज्ञान के संदर्भ में व्याख्या करें तो स्पष्ट होगा कि श्रीकृष्ण केवल फल प्राप्ति को नहीं सर्वकल्याण कर्मकुशलता को समत्व योग कहते हुये उसे इष्ट बतला रहे हैं। स्पष्ट है कि शत-प्रतिशत परिणामदायक कर्म भी त्याज्य है, यदि उससे सर्वहित न सधे। कर्म में कुशलता हो तथा सर्वहित सधता रहे तो परिणाम की चिंता अनावश्यक है। गीता की इस कसौटी पर प्रबंधन तथा उद्योग संचालन हो तो उद्योगपति, श्रमिक तथा आम उपभोक्ता सभी को समान हितकारी प्रबंधन ही साध्य होगा। तब उद्योगपति पूँजी का स्वामी नहीं, समाज और देश के लिये हितकारी न्यासी की तरह उनका भला करेगा। महात्मा गाँधी प्रणीत ट्रस्टीशिप सिद्धान्त का मूल गीता में ही है। ‘समत्वं योग उच्यते’ (२/४८) में श्री कृष्ण आसक्ति का त्यागकर सिद्धि-असिद्धि के प्रति समभाव की सीख देते हैं।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली बुद्धि का उपयोग केवल ‘स्वहित’ हेतु करने की शिक्षा देती है जबकि श्लोक ४९-५० में समत्वपरक बुद्धि की शरण ग्रहण करने तथा स्वहित हेतु कर्म के त्याग तथा श्लोक ५२-५३ में मोह रूपी दलदल को पारकर निश्चल बुद्धि योग प्राप्ति की प्रेरणा दी गयी है। स्वार्थपरक ऐन्द्रिक सुखों से संचालित होने पर बुद्धि का हरण हो जाता है। अतः, वैयक्तिक विषय भोग केा त्याज्य मानकर जब शेष जन शयन अर्थात विलास करते हों तब जागकर संयम साधना अभीष्ट है। ‘या निशा सर्वभूतानां तस्या जागर्ति संयमी’ (२/६९) एक बार स्थित प्रज्ञता, निर्विकारता प्राप्त होने पर भोग से भी शांति नाश नहीं होता। (२/६०) ‘‘निर्ममो निहंकारः स शांतिमधिगच्छति’’ (२/६१)आसक्ति और अहंकार के त्याग से ही शांति प्राप्ति होती है।

सारतः गीता के अनुसार बुद्धि एक उपकरण है। निश्चय अथवा निर्णय करने में समर्थ होने पर बुद्धि स्वहित का त्याग कर सर्वहित में निर्णय ले तो सर्वत्र शांति और उन्नति होगी ही। प्रबंधन की श्रेष्ठता मापने का मानदण्ड यही है। अध्याय ३ में कर्मयोग की व्याख्या करते हुये श्री कृष्ण नियत कर्म को करने (३/८), आसक्ति रहित होने (३/९), धर्मानुसार कर्माचरण की श्रेष्ठतम प्रतिपादित करते हैं। (३/३५)‘स्वधर्मों निधनं श्रेयः परधर्मों भयावहः।’ श्री कृष्ण का ‘धर्म’ अंग्रेजी का रिलीजन (सम्प्रदाय) नहीं कनजल (कर्तव्य) है। धर्म के अष्ठ लक्ष्य यज्ञ, अध्ययन, अध्यापन, दान-तप, सत्य, धैर्य, क्षमा व निर्लोभ वृत्ति है। समस्त कर्मों का लक्ष्य ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाचाय च दुष्कृताम्। अर्थात् सज्जनों का कल्याण तथा दुष्टों का विनाश है। प्रबंधन कला यह लक्ष्य पा सके तो और क्या चाहिये?

गीता में त्रिकर्म प्राकृत, नैमित्तिक तथा काम्य अथवा कर्म, अकर्म तथा विकर्म का सम्यक् विश्लेषण है जिसे प्रबंधन में करणीय तथा अकरणीय कहा जाता है। गाँधीवाद का साध्य-साधन की पवित्रता का सिद्धान्त भी गीता से ही उद्गमित है। गीता के अनुसार स्वहितकारक फल अर्थात् स्वार्थ की कामना से किया गया कर्म हेय तथा बंधन कारक है जबकि ऐसे फल की चिन्ता न कर सर्वहित में निष्काम भाव से किया गया कर्म मुक्तिकारक है। यह मानक पूंजीपति अपना लें तो जनकल्याण होगा ही।

प्रबंधन के क्षेत्र में व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी जाति, धर्म, क्षेत्र, शिक्षा या सम्पन्नता से नहीं होता। केवल और केवल योग्यता या कर्मकुशलता ही मूल्यांकन का आधार होता है। यह मानक भी गीता से ही आयातित है।

‘‘विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।’’

अर्थात् विद्या-विनय से युक्त व्यक्ति 'ब्राह्मण' और गाय, हाथी, कुत्ते और चण्डाल को समभाव से देखने वाला 'पण्डित' है। विडंबना यह कि योग्यता को परखने वाला जौहरी पण्डित होने के स्थान पर जन्मना जाति विशेष में जन्मे लोगों को अयोग्य होने पर भी पंडित कहा जाता है।

‘चातुर्चण्य मया स्रष्टम् गुण कर्म विभागशः’’ अर्थात् चारों वर्ण गुण-कर्म का विभाजन कर मेरे द्वारा बनाये गये हैं- कहकर कृष्ण वर्णों को जन्मना नहीं कर्मणा मानते हैं। प्रबंधन के क्षेत्र में व्यक्ति को उसका स्थान जन्म नहीं कर्म के आधार पर मिलता है। यह मानक आम आदमी के जीवन में लागू हो तो हर घर में चारों वर्णों के लोग मिलेंगे, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, जाति प्रथा, ऑनर किलिंग जैसी समस्यायें तत्काल समाप्त हो जायेंगीं।

श्लोक २९ अध्याय ६ के अनुसार 'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मिन। ईक्षते योग मुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः' अर्थात् योगमुक्त जीवात्मा सब प्राणियों को समान भाव से देखता है। सब सहयोगियों, सहभोगियों और उपभोक्ताओं को समभाव से देखने वाला प्रबंधक वेतन, कार्यस्थितियों, श्रमिक कल्याण, पर्यावरण और उत्पादन की गुणवत्ता में से किसी भी पक्ष की अनदेखी नहीं कर सकता। सब विद्यार्थियों के साथ समान व्यवहार न कर शिक्षक, आसमान मानकर ज्ञान दे या परीक्षा में मूल्याङ्कन करे तो कौन पसंद करेगा?

इसके पूर्व श्लोक 5 ‘‘उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानम वसादयेत्। आत्मैव हयात्मनो बन्धुर आत्मैव रिपुरात्मनः’’ में गीताकार मनुष्य को मनुष्य का मित्र और मनुष्य को ही मनुष्य का शत्रु बताते हुए स्वकल्याण की प्रेरणा देते हैं। कोई प्रबंधक अपने सहयोगियों का शत्रु बनकर तो अपना भला नहीं कर सकता। अतः, श्रीकृष्ण का संकेत यही है कि उत्तम प्रबंधकर्ता अपने सहयोगियों से सहयोगी-प्रबंधकों के मित्र बनकर सद्भावना से कार्य सम्पादित करें।

आज हम पर्यावरणीय प्रदूषण से परेशान हैं। माननीय प्रधानमंत्रीराष्ट्रीय स्वच्छता अभियान में हममें से हर एक की भागीदारी चाहते हैं। इसका मूल सूत्र गीता में ही है। अध्याय ७ श्लोक ४ - ७ में मुरलीधर, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश (पंचमहाभूत) मन, बुद्धि और अहंकार इन 8 प्रकार की अपरा (प्रत्यक्ष/समीप) तथा अन्य जीव भूतों (प्राणियों) की परा (अप्रत्यक्ष/दूर) प्रकृतियों का सृष्टिकर्ता खुद को बताते हैं। विचारणीय है कि गिरि का नाश करने से गिरिधर कैसे प्रसन्न हो सकते हैं? गोवंश की हत्या हो तो गोपाल की कृपा कैसे मिल सकती है? वन कर्तन होता रहे तो बनमाली कुपित कैसे न हों? केदारवन, केदार गिरि को नष्ट किया जाये तो केदारनाथ कुपित क्यों न हों? कर्म मानव का,दोष प्रकृति पर....... अब भी न चेते तो भविष्य भयावह होगा। इसी अध्याय में कृष्ण त्रिगुणात्मक (सत्व, रज, तम) माया से मोहित लोगों का आसुरी प्रकृति का बताते हैं। स्पष्ट है कि असुर, दानव या राक्षस कोई अन्य नहीं हम स्वयं हैं। हमें इस मोह को त्यागकर परमात्मतत्व की प्राप्ति हेतु पौरुष करना होगा। प्रकाश, ओंकार, शब्द, गंध, तेज और सृष्टि मूल कोई अन्य नहीं श्रीकृष्ण ही हैं। ‘आत्मा सो परमात्मा’ परमात्मा का अंश होने के कारण ये सब लक्षण हममें से प्रत्येक में हो। कोई प्रबंधक यह अकाट्य सत्य जैसे ही आत्मसात् कर अपने सहकर्मियों को समझा सकेगा, कर्मयोगी बनकर सर्वकल्याण के समत्व मार्ग पर चल सकेगा। अध्याय ८ श्लोक ४ में श्रीकृष्ण‘‘अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर’’ अर्थात् शरीर में परमात्म ही अधियज्ञ (यज्ञ करनेवाला / कर्म करनेवाला) है कहकर सिर्फ कौन्तेय को नहीं, हर जननी की हर संतति को सम्बोधित करते हैं। प्रबंधक अपने प्रतिष्ठान में खुद को परमात्मा और हर कर्मचारी/उपभोक्ता को अपनी संतति समझे तो पूंजीवादी शोषण समाप्त हो जायेगा।

प्रबंधकों के लिये एक महत् संकेत श्लोक १४ में है। ‘‘अनन्यचेताः सततं यो’’ सबमें परमात्मा की प्रतीति क्षण मात्र को हो तो पर्याप्त नहीं है। अभियंता हर निर्माण और श्रमिकों में, चिकित्सक हर रोगी में, अध्यापक को हर विद्यार्थी में, पण्डित को हर यजमान में, पुरुष को हर स्त्री में परमात्मा की प्रतीति सतत हो तो क्या होगा? सोचिए... क्या अब भी गीता को पूज्य ग्रंथ मानकर अपने से दूर रखेंगे या पाठ्य पुस्तक की तरह हर एक के हाथ में हर दिन देंगे ताकि उसे पढ़-समझकर आचरण में लाया जा सके?

नवम् अध्याय का श्री गणेश ही अर्जुन को वृत्ति से (पर दोष दर्शन) से दूर रखने से होता है। हम किसी की कमी दिखाने के लिये उसकी ओर तर्जनी उठाते हैं। यह तर्जनी उठते ही शेष ३ अंगुलियाँ मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा कहाँ होती है? वे ‘आत्म’ अर्थात स्वयं को इंगित कर खुद में 3 गुना अधिक दोष दर्शाती हैं। यहाँ प्रबन्धकों के लिये, अध्यापकों के लिये, अधिकारियों के लिये, प्रशासकों के लिये, उद्यमियों के लिये, गृह स्वामियों के लिये, गृहणियों के लिए अर्थात् हर एक के लिये संकेत है। जितने दोष सहयोगियों, सहभागियों, सहकर्मियों, अधीनस्थों में हैं, उनके प्रति ३ गुना जिम्मेदारी हमारी है।

अध्याय १० में श्रीकृष्ण स्वदोष दर्शन की अतिशयता से उत्पन्न आत्महीनता की प्रवृत्ति से प्रबंधक को बचाते हैं। वे श्लोक ४ - ५ में कहते हैं -

‘‘बुद्धिज्र्ञान संमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुखं भवोऽभावोभयं चाभयमेव च।’’

अहिंसा समता तुष्टिस्तयो दानं यशोऽयशः।
भवति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।’’

अर्थात बुद्धि, ज्ञान, मोहमुक्ति, क्षमा, सत्य, इंद्रिय व मन पर नियंत्रण, शांति, सुख-दुख, उत्पत्ति-मृत्यु भय तथा अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप (परिश्रम) दान, यश, अपयश आदि स्थितियों का कारक परमात्मा अर्थात् आत्मा अर्थात् प्रबंधन क्षेत्र का प्रबंधक ही है।

गीता में सर्वत्र समत्व योग अंतर्निहित है। ऊपरी दृष्टि से सभी के दोषों का पात्र होना और सब गुणों का कारण होना अंतर्विरोधी प्रतीत होता है किन्तु इन दोनों की स्थिति दिन-रात की तरह है, एक के बिना दूसरा नहीं। दीप के ऊपर प्रकाश और नीचे तमस होगा ही। हमें से प्रत्येक को बाती बनकर तम को जय कर प्रकाश का वाहक बनने का पथ गीता दिखाती है।

अध्याय ११ श्लोक ३३ में श्रीकृष्ण अर्जुन को निमित्त मात्र बताते हैं। प्रबंधक के लिये यह सूत्र आवश्यक है। आसंदी पर बैठकर किये गये कार्यों, लिये गये निर्णयों तथा प्राप्त उपलब्धियों के भार से आसंदी से उठते ही मुक्त होकर घर जाते ही एक-एक पत्र पारिवारिक सदस्यों को दें तो परिवारों का बिखराव खलेगा। होता यह है कि हम घर में कार्यालय और कार्यालय में घर का ध्यान कर दोनों जगह अपना श्रेष्ठ नहीं दे पाते। यह निमित्त भाव इस चक्रव्यूह को भेदने में समर्थ है। निमित्त भाव की पूर्णता निर्वेदता (श्लोक ५५) में है। यह अजातशत्रुत्व भाव बुद्ध, महावीर में दृष्टव्य है।
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४

नागार्जुन

बाबा नागार्जुन की एक सारगर्भित रचना 
उनको प्रणाम
*
उनको प्रणाम!
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम।
कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए!
उनको प्रणाम!
जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि-पार,
मन की मन में ही रही, स्वयं
हो गए उसी में निराकार!
उनको प्रणाम!
जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह-रह नव-नव उत्साह भरे,
पर कुछ ने ले ली हिम-समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे!
उनको प्रणाम
एकाकी और अकिंचन हो
जो भू-परिक्रमा को निकले,
हो गए पंगु, प्रति-पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले!
उनको प्रणाम
कृत-कृत नहीं जो हो पाए,
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल!
उनको प्रणाम!
थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ,
या जन्म-काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहाँत हुआ!
उनको प्रणाम
दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति-मंत?
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत!
उनको प्रणाम
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
उनको प्रणाम

बाल गीत : चिड़िया

बाल गीत :
चिड़िया
*
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
आनंदित हो
झूम रही है
हवा मंद बहती है
कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ
बन जाएँ जब वृक्ष
छाँह में
उनकी खेल रचाओ
तुम्हें सुनाऊँगी
मैं गाकर
लोरी, आल्हा, कजरी
कहना राधा से
बन कान्हा
'सखी रूठ मत सज री'
टीप रेस,
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली
हिल-मिल खेलें
तब किस्मत भी
आकर बने सहेली
नमन करो
भू को, माता को
जो यादें तहती है
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
***
२५-१०-२०१४ 

रविवार, 24 अक्टूबर 2021

कायस्थ स्वतंत्रता सेनानी
*
जबलपुर
०१. ब्योहार रघुवीर सिंह 
०२. राधिका प्रसाद वर्मा 
०३. ज्ञानचंद वर्मा 
०४. व्योहार राजेंद्र सिंह 
०५. नर्मदा प्रसाद खरे
०६. इंद्र बहादुर खरे 
०७. ज्वाला प्रसाद वर्मा 
०८. बद्रीप्रसाद श्रीवास्तव 
०९. शकुंतला खरे 
१०. डॉ. विनयरंजन सेन 
११. महेश प्रसाद निगम 
१२. स्वराज्य चंद्र वर्मा 
१३. शंभु प्रसाद श्रीवास्तव 
१४. बृजेन्द्र श्रीवास्तव 
१५. गणेश प्रसाद श्रीवास्तव (बड़े) 
१६. गणेश प्रसाद श्रीवास्तव (छोटे), हनुमानताल 
१७. जादूगर निगम की माँ 
१८. सुभाष चंद्र बोस 
१९. शरत चंद्र बोस 
२०. चोखेलाल वर्मा, सठिया कुआँ 
२१. छिकोड़ीलाल वर्मा, कांच घर 
२२. जानकीप्रसाद वर्मा 
२३. नानक चंद वर्मा 
२४. नारायण प्रसाद वर्मा, शुक्रवारी बजरिया 
२५. बृजबिहारी श्रीवास्तव 
२६. रामनारायण खरे, फूटाताल
२७. रामप्रसाद श्रीवास्तव, जोंसगंज  
२८.  विजेन्द्रनाथ श्रीवास्तव 
२९. शिवप्रसाद वर्मा 
३०. सुदर्शन कायस्थ, मिलौनीगंज 
३१.  

छिंदवाड़ा
बैजनाथ प्रसाद वर्मा,  
राधा रानी वर्मा 
जंग बहादुर वर्मा 

इंदौर 
गोवर्धन लाल वर्मा 
बाबूलाल वर्मा 
महेश वर्मा 
लालता प्रसाद वर्मा 
शिवनारायण श्रीवास्तव 
खरगोन 
मंशाराम वर्मा 
झाबुआ 
कृष्णबिहारी सक्सेना, पेटलावद 
उज्जैन 
गजानंद वर्मा 
बृजबिहारी 
रतलाम 
आशा दास 
चंद्र कुमार श्रीवास्तव 
रघुनाथ वर्मा 
रामचंद्र वर्मा 
हीरालाल निगम 
नीमच 
केशव प्रसाद विद्यार्थी 
ग्वालियर 
कामता प्रसाद सक्सेना चित्रगुप्त गंज 
श्रीमती क्रांति देवी 
गजाधर प्रसाद माथुर 
जगन्नाथ प्रसाद 
जगन्नाथ प्रसाद मिलिंद 
देवेंद्र नारायण वर्मा 
राजाराम माथुर 
विनोद बिहारी वर्मा 
वृन्दा सहाय 
सच्चिदानंद वर्मा 
मुरैना 
गुलाब चंद वर्मा 
मिजाजीलाल श्रीवास्तव लाड़ली प्रसाद कामठान 
शत्रुदमन श्रीवास्तव 
शिव नारायण जौहरी 
शंकर लाल प्रधान 
भिंड 
जुगल किशोर सक्सेना 
श्रीलाल श्रीवास्तव 
दतिया 
नारायण दास श्रीवास्तव 
रामचरण लाल वर्मा 
शिवपुरी 
अवध प्रसाद श्रीवास्तव 
गुना 
गौरीशंकर श्रीवास्तव 
धर्मस्वरुप सक्सेना 
 

बाल एकांकी : एक चवन्नी चाँदी की

बाल एकांकी :
एक चवन्नी चाँदी की
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पात्र परिचय :
रामरती - सात-आठ वर्षीय बालिका।
वीरेंद्र, महेंद्र, ऊषा, प्रभा, उमा आदि हम उम्र बच्चे। लड़के पेंट-कमीज, कुरता-पायजामा, लड़कियाँ फ्रॉक, शलवार-कुर्ती पहने हैं।
ज्वाला प्रसाद वर्मा - गठीके कद के प्रौढ़ व्यक्ति, मध्यम ऊँचाई, सूती धोती, खादी का कुरता, सूती कोट, गाँधी टोपी, पैरों में चप्पल, कंधे पर एक थैला जिसमें कुछ कागज और किताबें हैं।
शिव प्रसाद वर्मा - छोटा कद, युवा, क्लीन शेव, पैंट-कमीज, जूते पहने हुए।
छेदीलाल उसरेठे - पायजामा, कुरता, प्रौढ़, चमरौधा,उमेंठी हुई मूँछें।
गणेश प्रसाद श्रीवास्तव - तरुण, इकहरा शरीर, पायजामा-कमीज, लंबे बाल।
कन्हैया लाल पंडा - किशोर, हाफ पैंट, कमीज, जूते। 
*
सूत्रधार :
दर्शकों! वंदे भारत भारती। इतिहास के पन्ने पलटते हुए साक्षी बन रहे हैं एक घटना के और मिल रहे हैं उसका हिस्सा रहे कुछ गुमनाम लोगों से। जिस इमारत की भव्यता जग जाहिर हो, उसकी और उसके मालिक की तारीफ होती है किन्तु उसको बनाने में पसीना बहानेवालों का नाम गुमनाम रहा आता है। भारतीय स्वतंत्रता सत्याग्रहों में भी ऐसा ही हुआ। नेतृत्व कर रहे चंद नेताओं को प्रशस्ति और सत्ता में भागीदारी मिली किन्तु आंदोलनों में प्राण फूँकनेवाले सत्याग्रही, उनके परिवार जन आदि का योगदान अनदेखा ही रह गया। इस एकांकी में ऐसे ही कुछ सत्याग्रहियों और बच्चों से मिलने जा रहे हैं हम।
पर्दा उठता है
एक कमरा, एक ओर एक चारपाई पर एक चादर बिछी है, एक किनारे एक तकिया रखा है। एक मेज पर लोटा-गिलास, कलम-दावात, अखबार और कुछ कागज रखें हैं। खूँटी पर एक छड़ी और खादी का थैला टँगा है। ज्वाला प्रसाद बैठे हुए कुछ सोच रहे हैं। दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनकर पूछते हैं - 'कौन है भाई?'
शिव प्रसाद -'कक्का! मैं शिव प्रसाद' (कहते हुए एक युवक प्रवेश करता है।)
ज्वाला प्रसाद - 'आओ, भाई आओ। मैं तुम्हारी ही राह देख रहा हूँ, छेदीलाल और जमना भी आते ही होंगे। आज का अखबार देखा?'
शिव प्रसाद - 'नहीं कक्का! अभी नहीं देखा। क्या खबर है?'
ज्वाला प्रसाद - 'बापू ने २४ मई १९४२ के हरिजन में अंग्रेजों से भारत को बिना शर्त छोड़कर जाने की जो माँग की थी, उसे वर्धा में हुई कांग्रेस कार्यकारिणी बैठक में मंजूर कर लिया गया है। गाँधी जी ने 'करो या मरो' का नारा दिया है'
गणेश प्रसाद श्रीवास्तव, कन्हैया लाल पंडा आदि प्रवेश करते हैं।
शिव प्रसाद - 'अब क्या होगा?'
ज्वाला प्रसाद - 'होगा क्या? बंबई में सात अगस्त को कांग्रेस महासमिति ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' प्रस्ताव पारित कर आंदोलन की घोषणा कर दी है। ८ अगस्त की रात में ही बंबई में मौजूद सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया है। बंबई से लौटते समय हमारे गोविंददास जी तथा द्वारका प्रसाद मिश्र जी को रेल में ही गिरफ्तार कर लिया गया है। यह देखकर भाई हुकुमचंद नारद ने 'इंकलाब ज़िंदाबाद' का नारा लगाया तो उन्हें भी धर लिया गया।'
गणेश प्रसाद श्रीवास्तव - 'यह तो होना ही था। अब हमें भी सम्हल जाना चाहिए। यहाँ भी गिरफ्तारियाँ होंगी। हमारे पास जो भी कागजात और अन्य सामग्री है उसे तुरंत छिपाना होगा।' ज्वाला प्रसाद मेज पर रखे पर्चे उनको बाँटने लगते हैं। सभी अपने अपने थैलों में रखे पर्चे किताबें आदि रख लगते हैं।
बाहर कुछ बच्चों का शोर सुनाई देता है।
कन्हैया लाल पंडा - 'जे हल्ला कौन कर रओ आय?
छेदीलाल उसरेठे - 'बच्चे खेल रहे होंगे, भगा दो।'
कन्हैया लाल बाहर जाते हैं, नेपथ्य से आवाजें सुनाई देती हैं।
कन्हैया लाल - 'बच्चों! यहाँ हल्ला मत करो, कहीं और खेलो। अंदर आवाज सुनाई देती है तो बात नहीं कर पाते।'
रामरती - 'भैया! हमको मत भगाओ। हमको भी बताओ क्या हो रहा है? हम भी कुछ करना चाहते हैं।'
कन्हैया लाल - 'तुम बच्चे हो, बड़े हो जाओ तब कुछ करना।'
वीरेंद्र - 'क्यों बच्चे किसी काम नहीं आ सकते क्या?'
उमा - 'हम कुछ तो कर ही सकते हैं।'
महेंद्र - 'इंदिरा जी ने वानर सेना बनाई है न? बाबूजी बता रहे थे।'
ऊषा - 'हम हल्ला नहीं करेंगे।'
प्रभा - 'हमको कोई काम देकर तो देखो।'
कन्हैया लाल - 'तुम सब चुपचाप कन्नागोटी खेलो, मैं ज्वाला चच्चा से बात करता हूँ, कुछ काम होगा तो बताऊँगा।'
रामरती - 'ठीक है, हम शोर नहीं करेंगे। आप लोग अपना काम करो। हम यहाँ देखते रहेंगे। जैसे ही पुलिसवाले आते दिखेंगे, हम हल्ला करने लगेंगे।'
कन्हैया लाल - 'ठीक है।'
कन्हैया लाल कमरे में प्रवेश करता है। ज्वाला प्रसाद उसे बचे हुए पर्चे देते हैं।
ज्वाला प्रसाद - 'यह सुंदरलाल तहसीलदार का बाड़ा और सिमरिया वाली रानी की कोठी तो पहले से पुलिस की निगाह में है। भाई गणेश प्रसाद नायक ने बुलेटिन भेजे थे, आप सब इन्हें अपने-अपने क्षेत्र में बाँट दो। कोई भी अपने पास ज्यादा देर तक न रखे।'
शिव प्रसाद - 'देर-सबेर पुलिस हम सब तक पहुँच ही जाएगी, इसके पहले ही सारे बुलेटिन और पर्चे बाँट देना है।'
कन्हैया लाल पंडा - 'जमना भैया अब लौं नई आए? का मालूम कितै बिलम गए ?'
गणेश प्रसाद श्रीवास्तव - 'मैं बद्रीनाथ गुप्ता के घर से आ रहा हूँ। वे भी गिरफ्तारी की तैयारी से हैं। आज की रात भर मिल जाए हम लोगों को, सब कार्यकर्ता बुलेटिन और पर्चे पाते ही आगे बढ़ाते जाएँगे। सर फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।'
छेदीलाल उसरेठे - कदम कदम बढ़ाए जा ख़ुशी के गीत गाए जा, ये ज़िंदगी है कौम की तू कौम पे लुटाए जा। 
ज्वाला प्रसाद - 'कन्हैया लाल! तुम्हारी बालक सेना की क्या तैयारी है?'
कन्हैया लाल पंडा - 'हम तैयार हैं। बड़ों के कैद किये जाने के बाद हम महिलाओं के साथ मिलकर काम जारी रखेंगे। गलियों और नुक्कड़ों पर नारे लगाएँगे और पुलिस के आने के पहले ही घरों में घुस जाया करेंगे।'
तभी बाहर से बच्चों का शोर फिर सुनाई देता है।
'एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की।
'झंडा ऊँचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा'
'वंदे मातरम, वंदे मातरम।'
शिव प्रसाद झुंझलाते हुए - 'ये बच्चे ऐसे नहीं मानेंगे, मैं देखता हूँ...'
कन्हैया लाल उन्हें रोकते हुए- 'नाराज न हो। ये बच्चों का हल्ला नहीं, हमारे लिए अलार्म है, पुलिस आ रही है। बच्चों का हल्ला बाड़े के दरवाजे की तरफ से हो रहा है, इसका मतलब पुलिस उसी तरफ से आ रही है।'
ज्वाला प्रसाद - 'गणेश भैया मौलाना की कुलिया की तरफ से निकल जाओ। कन्हैया तुम पंडितों की गली में दौड़ जाओ। शिव प्रसाद तुम पन्ना नाऊ की टपरिया की बगल से छिपते हुए भागो। मैं यही रुकता हूँ। मेरे पास कोई कागजात न छोड़ना, सब लेते जाओ।'
सभी लोग एक-एक कर शीघ्रता से निकल जाते हैं।
'ऐ बच्चों! क्यों गड़बड़ कर रहे हो। भागो, अपने घरों में जाओ' एक सिपाही की रोबीली आवाज सुनाई देती है।
रामरती - 'चच्चा! हम बच्चे कहाँ जाएँ? घर में खेलो तो अम्मा भगाती हैं कि सर मत खाओ बाहर जाओ। बाहर आते तो आप भगाते हो तो फिर हम जाएँ तो जाएँ कहाँ?'
महेंद्र - 'बताइए न कहाँ खेलें हम बच्चे??
उमा - 'कल सड़क पर खेल रहे थे तो ज्वाला चच्चा ने डाँटा 'सड़क पर मत खेलो। रिक्शा, साइकिल से टकरा जाओगी।'
प्रभा - 'मंदिर पर पंडित जी नहीं खेलने देते।'
ऊषा - 'स्कूल में भी खेलने नहीं मिलता।'
वीरेंद्र - 'ये बड़े भी अजीब हैं, खुद तो खेलते नहीं और बच्चों को तंग करते हैं।'
रामरती - 'पुलिस चच्चा ! आप ही बताओ बिना खेले हम बच्चे कैसे रहें?'
प्रभा - 'आप जब बच्चे थे तो नहीं खेलते थे क्या?'
उमा - 'आप कहो तो हम आपके साथ थाना चलें वहीं खेल लेंगे।'
दूसरा सिपाही डपटते हुए - 'थाना कोई खेलने की जगह है? वहाँ मुजरिम रखे जाते हैं। तुम लोग कहीं और खेलो।
पहला सिपाही - 'बच्चो! एक बात बताओ यहाँ कोई गड़बड़ी तो नहीं है? कोई कॉँग्रेसवाले तो नहीं आए? पूरी बात बताओगे तो ईनाम मिलेगा।'
रामरती - 'नहीं नहीं, पुलिस चच्चा यहाँ कोई नहीं आता।हम बच्चे किसी को यहाँ आने ही नहीं देते, हमारा खेल ख़राब हो जाता है न?
दूसरा सिपाही - 'इन बच्चों से मत उलझो। चलो, ज्वाला प्रसाद के यहाँ चलो। वहीं जुड़ते हैं सारे बदमाश।'
रामरती- उच्च स्वर से 'जाओ पुलिस चच्चा, ज्वाला चच्चा इसी तरफ रहते हैं, बायें हाथ पे दूसरा मकान है।'
सिपाही आगे बढ़ते हैं, बच्चे फिर गाने लगते हैं 'एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की।'
सिपाही ज्वाला प्रसाद वर्मा के घर का दरवाजा खटखटाते हैं। कुछ देर बाद ज्वाला प्रसाद की आवाज सुनाई देती है - 'कौन है भाई? क्यों तंग करते हो? सोने भी नहीं देते।'
सिपाही फिर दरवाजा खटखटाते हैं। दरवाजा खुलता है, सिपाही झपट कर अंदर घुसते हैं, ज्वाला प्रसाद को धकेल कर एक तरफ करते हैं और तलाशी लेने लगते हैं। तलाशी में कुछ न मिलने पर खिसियाते हुए धमकाते हैं -
पहला सिपाही - 'कहाँ छिपाए हैं नायक जी के घर से आए बुलेटिन?'
दूसरा - 'तुम्हारे बाकी साथी कहाँ है?, क्या करनेवाले हो?
पहला - जुलूस और मीटिंग कहाँ है?
ज्वाला प्रसाद - 'जरा दम तो ले लो। मेरे पास कोई बुलेटिन वगैरा नहीं है। सिपाहियों के पीछे-पीछे बच्चे भी घुस आते हैं। सिपाही ज्वाला प्रसाद के साथ एक कमरे में जाते हैं तो बच्चे दूसरे कमरे में घुसकर एक थैला लेकर बाहर भाग आते हैं।
सिपाहियों को तलाशी में कुछ नहीं मिलता तो सर झुकाए घर से बाहर निकल आते हैं। फिर धमकाते हैं - 'कोई गड़बड़ करी तो तुरंत धर लिए जाओगे। सब नेता जेल में हैं। सठिया कुआँ वाले ब्योहार राजेंद्र सिंह अभी थोड़ी देर पहले कटनी से लौटे, हम उन्हें पकड़ने गए लेकिन वे हमारे पहुँचने से पहले ही गली के रास्ते कोतवाली पहुँच गए। डिप्टी कमिश्नर पैटरसन साहिब ने उनको भी तुरंत जेल भिजवा दिया।'
ज्वाला प्रसाद - 'भरोसा रखो हम कोई गड़बड़ी नहीं कर रहे हैं।'
सिपाही - 'भरोसा और तुम्हारा? १९३० में दमोह जेल में कैद काटने और जुरमाना भरने के बाद भी तुम कहाँ सुधरे? अपने छोटे-छोटे बच्चों का ख्याल तो रखते नहीं और जब देखो तब आंदोलनों में भाग लेते फिरते हो। धंधा नहीं करोगे तो इनको पालोगे कैसे? आज तो कुछ नहीं मिला, लेकिन हमारी नज़र है तुम पर, खबर भी थी की तुम्हीं को बुलेटिन भेजे गए हैं।
दूसरा सिपाही दरवाजे पर डंडा मारते हुए - 'सुधर जाओ, नहीं तो जेल में चक्की पीसोगे।'
सिपाही जाते हैं। ज्वाला प्रसाद उन्हें जाते देखते रहते हैं, दरवाजा बंद करने लगते है तो दूसरी और से रामरती दिखती है जो हाथ में वहीं थैला लिए है जो बच्चे उनके घर से छिपाकर ले आए थे। रामरती दूसरे बच्चों को थैला देकर पास आती है। कहती है- 'चच्चा! आज जमना कक्का नई आए थे। ये थैला उनई को देने है ना? आप फ़िक्र मत करो। हम बच्चे अपने स्कूल के बस्ते में किताबों के बीच मेंथोड़े-थोड़े परचे छिपाकर जमुना कक्का को दे देंगे। किसी को कछु पता नई चलने।
ज्वाला प्रसाद की आँखों में आँसू आ जाते हैं। वे रामरती को दुलारते हुए कहते हैं - 'अब तो अंग्रेजों को भारत से जाना ही पड़ेगा। जिस देश के बच्चे-बच्चे आजादी के सिपाही बन जाएँ, उसे गुलाम नहीं रखा जा सकता। फ़्रांस की जॉन ऑफ़ आर्क और नाना साहेब की बिटिया मैना देवी अब भारत के घर-घर में हैं। जाओ, बिटिया! सम्हाल के जाना।'
रामरती - चच्चा! हम जे गईं और जे आईं। चलो री वानर सेना, सब बच्चे अपना-अपना बस्ता लिए आते दिखते हैं। रामरती नारा लगाती है- 'एक चवन्नी चाँदी की,
'जय बोलो महात्मा गाँधी की।' कहते हुए ज्वालाप्रसाद दरवाजा बंद कर लेते हैं।
***
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किसी देश का इतिहास केवल बड़े ही नहीं बनाते, यथासमय बच्चे भी यथाशक्ति योगदान करते हैं किन्तु इतिहास लिखते समय केवल बड़ों का ही उल्लेख किया जाता है और बच्चों का अवदान बहुधा अनदेखा-अनलिखा रह जाता है। जॉन ऑफ़ आर्क (१४१२-३० मई १४३१) का नाम पूरी दुनिया में विख्यात है कि उसे मात्र १२ वर्ष की आयु से फ़्रांस से अंग्रेजों को खदेड़ने का सपना देखा और युद्ध हारती हुई सेना की बागडोर सम्हाल कर उसे विजय की राह पर ले गई। भारतीय स्वातंत्र्य समर में नाना साहेब की किशोरी बेटी मैना देवी के बलिदान की अमर गाथा आज की पीढ़ी नहीं जानती। महात्मा गाँधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता सत्याग्रह के दौर में केवल बड़ों ने नहीं अपितु किशोरों और बच्चों ने भी महती भूमिका का निर्वहन किया था। स्वतंत्रता सत्याग्रह के इतिहास के एक ऐसे ही अछूते पृष्ठ को अनावृत्त कर रहा है यह लेख।




सनातन सलिला नर्मदा तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर को तब यह विशेषण मिलता तो दूर देश ने आजादी की सांस भी नहीं ली थी, जब का यह प्रसंग है। शहर कोतवाली के पास अंग्रेजों ने सागर के राजा के अंत पश्चात् परिवार की विधवाओं को रहने का स्थान दिया था कि उन पर नज़र रखी जा सके। राजा सागर के बड़े के सामने ही था (अब भी भग्न रूप में है) सुन्दरलाला तहसीलदार का बाड़ा जो पन्ना के राजा के विश्वस्त थे और अंग्रेजों द्वारा विशेष सहायक के रूप में जबलपुर में लाए गए थे। उन्हें पूर्व के भोंसला राजाओं की टकसाल (जहाँ सिक्के ढलते थे) के स्थान पर बसाया गया। वे ज़ाहिर तौर पर अंग्रेजों के लिए काम करते और खुफिया तौर पर क्रांतिकारियों और राजा सागर परिवार के सहायक होते। कालांतर में इस बाड़े के मकान में किरायेदार के रूप में रहने आए नन्हें भैया सोनी। वे सोने-चाँदी के जेवर बनानेवाले कारीगर थे, निकट ही सराफा बाजार (अब भी है) में व्यापारियों की दुकानों से काम मिलता और उनका परिवार पलता। नन्हें भैया के चार बच्चे हुए पहली दो पुत्रियाँ कृष्णा और रामरती तथा बाद में दो पुत्र मणिशंकर और गौरी शंकर।


रामरती (१५-९-१९३५-२३-५-२००२) केवल सात वर्ष की थी, जब १९४२ का स्वतंत्रता सत्याग्रह आरंभ हुआ। माता-पिता की लाड़ली बिटिया, दो भाइयों की इकलौती बहिन रामरती दूसरी कक्षा की छात्रा थी। रामरती बाड़े के मैदान और दो शिवमंदिरों के समीप अन्य बच्चों के साथ चिड़ियों की तरह फुदकती-खेलती। बच्चे ऊँच-नीच का भेद नहीं जानते। मकान मालिक धर्मनारायण वर्मा वकील की बड़ी लड़की ऊषा, लड़का बीरु, और अन्य करायेदारों के बच्चे टीपरेस, कन्ना गोटी, खर्रा, खोखो खेलते। उन्हें सबसे अधिक ख़राब लगते थे ज्वाला चच्चा (ज्वाला प्रसाद वर्मा, स्वतंत्रता सत्याग्रही जिन्हें कारावास हुआ था) जो अपने कुछ साथियों के साथ आते। सबके सिरों पर सफ़ेद टोपी और सफेद ही कपड़े होते। वे आपस में अजीब अजीब बातें करते। आस-पास खेलते-खेलते रामरती को अंग्रेज, आजादी, सत्याग्रह, अत्याचार, तिरंगा आदि शब्द सुनाई दे जाते तो उसके मन में उत्सुकता जागती कि यह क्या है? वे लोग थैलों में पभुत से पर्चे लाते, फिर आपस में बाँट लेते और उपरायणगंज, दीक्षितपुरा, सिमरियावाली रानी की कोठी की गलियों में चलेजाते। कभी-कभी पुलिस के सिपाही भी बाड़े में आते, बड़ों को डाँटते, छोटों को भगा देते लेकिन उनके आने के पहले ही ज्वाला चच्चा की मित्र मंडली दबे पाँव गलियों में गुम हो जाती।




एक दिन खेलते-खेलते बाड़े में बने पुराने कुएँ की जगत पर उसने पढ़ा 'नानक चंद'। कौन था यह नानक चंद? अपनी माँ से पूछा तो डाँट पड़ी कि फालतू बातों से दूर रहो। एक दिन वह पड़ोस के बच्चों के बाड़े के साथ बाड़े के बड़े दरवाजे के पास साथ सड़क पर खेल रही थी क्योंकि ज्वाला चच्चा अपने मित्रों के साथ मंदिर के पीछे बातचीत कर रहे थे। रामरती की नजर सड़क की तरफ पड़ी तो उसे कुछ सिपाही आते दिखे, बाकी बच्चे तो खेल में मग्न थे पर रामरती को न जाने क्या सूझा, ज्वाला चच्चा से डाँट पड़ने का भय भूलकर वह मंदिर की ओर दौड़ पड़ी चिल्लाते हुए 'पुलिस आई', जैसे ही सत्याग्रहियों ने आवाज सुनी वे बाड़े के पिछवाड़े से मुसलमानों की गली में कूद कर भाग गए। पुलिस के जवान जब तक बड़े के अंदर घुसे, चिड़िया उड़ चुकी थी, उनके हाथ कुछ न लगा। आसपास के लोगों को धमकाते-गालियाँ बकते पूछताछ करते रहे पर किसी ने कुछ न बताया। खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे, आखिरकार चले गए।




उस दिन के बाद ज्वाला चच्चा और उनके साथी बच्चों को डाँटते नहीं थे। बच्चे खेलते रहते, वे लोग अपना काम करते रहते, कभी-कभी बच्चों के हाथ पर अधेला रख देते कि सेव-जलेबी खा लेना। रामरती उनके स्नेह की विशेष पात्र थी। एक दिन ज्वाला चच्चा पर्चों का थैला लिए आए लेकिन उनके दो साथ नहीं आए। वे परेशान थे कि उनके पर्चे कैसे उन तक जाएँ? रामरती देखती थी ज्वाला चच्चा के साथ रहनेवाले जमुना कक्का नहीं थे। जमुना कक्का उसके पिता के भी मित्र थे, कई बार दोनों साथ-साथ काम करते थे। रामरती पिता के साथ जमुना कक्का के घर भी हो आई थी। उसने ज्वाला चच्चा से पूछ लिया 'जमुना कक्का नई आए?' चच्चा ने घूर कर देखा तो वह डर गई पर हिम्मत कर फिर कहा 'हमें उनको घर मालून आय, परचा पौंचा दें?' अब चच्चा ने उस की तरफ ध्यान दिया और पूछा 'डर ना लगहै?, कैसे जइहो? पुलिस बारे भी तो हैं।'




'चच्चा तनकऊ फिकिर नें करो हम बस्ता में किताबों के बीच परचा छिपा लैहें और मनी भैया साथ दे आहें। हमने बाबू (पिता) के संगै उनको घर है।' चच्चा हिचकते रहे पर और कोई चारा न देख रामरती के बस्ते में पर्चे रख दिए। रामरती दे आई। चच्चा के साथी 'एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गांधी की' बोलकर घर-घर से चवन्नी माँगते। सुन सुन कर यह नारा बच्चों को भी याद हो गया। वे झंडा ऊँचा रहे हमारा, चलो दिल्ली, जय हिन्द जैसे नारे लगते और बड़ों की नकल कर जुलुस की तरह निकलते। पुलिस के सिपाही खिसियाकर भगाते और बच्चे झट से घरों में जा छिपते। सत्याग्रहियों और बच्चों में यह तालमेल चलता रहा, पुलिस के सिपाही खिसियाते रहे। एक दिन एक सिपाही ने रामरती की पीठ पर धौल जमा दी, वह औंधे मुँह गिरी तो घुटना और माथा चोटिल हो गया। माँ ने पूछा तो उसने कहा कि एक सांड दौड़ा आ रहा था, उससे बचने के लिए दौड़ी तो गिर पड़ी। इस घटना के बाद भी पर्चे पहुँचाने, चंदा इकठ्ठा करने, पुलिस की आवागमन से सत्याग्रहियों को खबरदार करने जैसे काम करती रही।




रामरती सातवीं कक्षा में थी जब सुना कि देश आज़ाद हो गया। खूब रौनक रही। रामरती 'पुअर बॉयस फंड' से वजीफा पाकर सेंट नॉर्बट स्कूल में पढ़ रही थे। उसके भाई मणि को उनके निस्संतान रेलवेकर्मी मामा नारायणदास अवध ने गोद ले लिया था। आठवीं कक्षा पास कर रामरती अपनी ननहाल राहतगढ़ (सागर) चली गई। मैट्रिक पास कर, ट्रेनिंग कर शिक्षिका हो गयी और प्राइवेट पढ़ती भी रही। कांग्रेस सेवादल के कैंप में उसकी मुलाकात अन्य कार्यकर्ता शंकरलाल कौशिक हुई जो बेगमगंज का निवासी था। वह भोपाल रियासत के कोंग्रेसी नेता शंकर दयाल शर्मा (कालांतर में भारत के राष्ट्रपति हुए) के निकट था। प्राइवेट बस में कंडक्टरी और पढ़ाई साथ-साथ करता। कांग्रेस की गतिविधियों और बस स्कूल जाते-आते समय उनकी मुलाकातें पहले आकर्षण और फिर प्रेम में बदल गई। दोनों के घरवालों ने जातिभेद के कारण विरोध किया। शंकरलाल की मेहनत और ईमानदारी के कारण वह शर्मा जी के घर के सदस्य की तरह हो गया था। शर्मा जी के आशीर्वाद से दोनों ने शादी कर ली। दोनों का जीवट और संघर्ष लाया। शंकर लाल डिप्लोमा पास कर बी एच ई एल भोपाल में सुपरवाइज़र हो गया। रामरती शासकीय शिक्षिका हो गई। दोनों के तीन बच्चे हुए। रामरती की कलात्मक अभिरुचि ने उसे गणतंत्र दिवस व स्वाधीनता झाँकियों को बनाने दिलाया। वह भोपाल और दिल्ली में पुरस्कृत हुई, पदोन्नत होकर प्राचार्य हो गई।




शंकरलाल, शर्मा जी के साथ आंदोलन में कारावास भी जा चुका था। स्वतंत्रता सत्याग्रहियों को सम्मान और लाभ मिलने के अनेक अवसर आए पर दोनों ने इंकार कर दिया की उन्होंने जो भी किया, देश के लिए किया, यह उनका कर्तव्य था और उन्हें कोई सम्मान या लाभ की लालच नहीं है। एक ओर सुविधाओं की लालच में लोग स्वतंत्रता सत्याग्रही होने के झूठे दावे कर रहे थे, दूसरी यह सच्चा सत्याग्रही दंपत्ति किसी लाभ को लेने से इंकार कर जीवन में संघर्ष कर रहा था। इस कारण दोनों का सम्मान बढ़ा। बच्चों के विवाह में शर्मा जी उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति होते हुए भी बच्चों को आशीर्वाद देने आए। उन्होंने अपने बच्चों के विवाह बिना किसी लेन-देन के किए। रामरती का बड़ा लड़का विजय वायुसेना में ग्रुपकैप्टन पद से सेवानिवृत्त होकर अहमदाबाद में है। छोटा लड़का विनय दिल्ली में उद्योगपति है और लड़की वंदना अपनी ससुराल में कोलकाता है।
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स्वतंत्रता सत्याग्रह में कायस्थों का योगदान
१. स्व.गणेश प्रसाद श्रीवास्तव
आत्मज स्व. शंभु प्रसाद श्रीवास्तव।
जन्म - १९११, जबलपुर।
शिक्षा - माध्यमिक।
वर्ष १९२३ से राजनैतिक गतिविधियाँ। १९३२ के आंदोलन में गिरफ्तार ६ माह कैद, २५/- अर्थदंड।
नेशनल बॉय स्काउट संस्था के संस्थापक सदस्य। १९३३ तथा १९३५ में राष्ट्रीय स्काउट प्रदर्शनी का सफल आयोजन किया।
१९३९ में कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी, जबलपुर में स्वयं सेवकों के प्लाटून कमांडर। सराहनीय प्रदर्शन कर प्रशंसा पाई।
महाकौशल युवक कांफ्रेंस को सफल बनाने हेतु अथक परिश्रम किया।
व्यक्तिगत सत्याग्रह १९४१ में ४ माह की सजा हुई।
'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन १९४२ में २ वर्ष तक नज़रबंद।
सत्याग्रही साथियों के बीच 'लाला जी' संबोधन से लोकप्रिय।
स्वस्थ्य बिगड़ने के बावजूद स्वतंत्रता संबंधी गतिविधियों में अंतिम सांस तक सक्रिय रहे।
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टीप - निधन तिधि अज्ञात, चित्र अप्राप्त। परिवार जनों की जानकारी हो तो उपलब्ध कराइए।








कायस्थ स्वतंत्रता सेनानी, कायस्थ सत्याग्रही

कायस्थ स्वतंत्रता सेनानी
स्वतंत्रता सत्याग्रह में कायस्थों का योगदान
(वर्णमाला क्रमानुसार) 
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छत्तीसगढ़ 

पंडित सुंदरलाल कायस्थ 

पंडित सुंदरलाल कायस्थ  (२६ सितम्बर सन १८८५ - ९ मई १९८१) भारत के पत्रकार, इतिहासकार तथा स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी थे। वे 'कर्मयोगी' नामक हिन्दी साप्ताहिक पत्र के सम्पादक थे। उनकी महान कृति 'भारत में अंग्रेज़ी राज' है।

पं. सुंदर लाल कायस्थ का जन्म गाँव खितौली (मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश ) के कायस्थ परिवार में  सितम्बर सन  को तोताराम के घर में हुआ था।  बचपन से ही देश को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े देख कर उनके दिल में भारत को आजादी दिलाने का जज्बा पैदा हुआ। वह कम आयु में ही परिवार को छोड़ प्रयाग चले गए आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। पं॰ सुंदरलाल कायस्थ एक सशस्त्र क्रांतिकारी के रूप में गदर पार्टी से बनारस में संबद्ध हुए थे। लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष, लोकमान्य तिलक  आदि के निकट संपर्क उनका हौसला बढ़ता गया और कलम से माध्यम से देशवासियों को आजाद भारत के सपने को साकार करने की हिम्मत दी। लाला हरदयाल के साथ पं॰ सुंदरलाल कायस्थ ने समस्त उत्तर भारत का दौरा किया था। १९१४ में शचींद्रनाथ सान्याल और पं॰ सुंदरलाल कायस्थ एक बम परीक्षण में गंभीर रूप से जख्मी हुए थे। वह लार्ड कर्जन की सभा में बम कांड करनेवालों में 'पंडित सोमेश्वरानंद' बन कर शामिल हुए थे, सन १९२१ से १९४२ के दौरान वह गाँधी जी के सत्याग्रह में भाग लेकर ८ बार जेल गए।

अपने अध्ययन एवं लेखन के दौरान पंडित गणेश शंकर की भेंट पंडित सुन्दरलाल कायस्थ जी से हुई। पंडित सुन्दर लाल ने ही पंडित गणेश शंकर को 'विद्यार्थी' उपनाम तथा हिंदी में लिखने की प्रेरणा दी । उनकी पुस्तक 'भारत में अंग्रेज़ी राज' के दो खंडों में सन १६६१ ई. से लेकर १८५७ ई. तक के भारत का इतिहास संकलित है। उनकी प्रखर लेखनी ने १९१४-१५ में भारत की सरजमीं पर गदर पार्टी के सशस्त्र क्रांति के प्रयास और भारत की आजादी के लिए गदर पार्टी के क्रांतिकारियों के अनुपम बलिदानों का सजीव वर्णन किया है जो १८ मार्च १९२८ को प्रकाशित होते ही २२  मार्च को अंग्रेज सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दी गई। यह अंग्रेजों की कूटनीति और काले कारनामों का खुला दस्तावेज है, जिसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए लेखक ने अंग्रेज अधिकारियों के स्वयं के लिखे डायरी के पन्नों का शब्दश: उद्धरण दिया है। पंडित सुंदरलाल पत्रकार, साहित्यकार, स्तंभकार के साथ ही साथ स्वतंत्रता सेनानी थे। वह कर्मयोगी एवं स्वराज्य हिंदी साप्ताहिक पत्र के संपादक भी रहे। उन्होंने ५० से अधिक पुस्तकों की रचना की। स्वाधीनता के उपरांत उन्होंने अपना जीवन सांप्रदायिक सदभाव को समर्पित कर दिया। वह अखिल भारतीय शांति परिषद् के अध्यक्ष एवं भारत-चीन मैत्री संघ के संस्थापक भी रहे। प्रधानमंत्री पं॰ जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें अनेक बार शांति मिशनों में विदेश भेजा। पं. सुंदरलाल की प्रमुख कृतियाँ भारत में अंग्रेज़ी राज, How India Lost Her Freedom, The Gita and the Quran, विश्व संघ की ओर तथा भारत चीन विवाद आदि हैं। 

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जबलपुर 
००१. स्व.गणेश प्रसाद श्रीवास्तव - जबलपुर 

जन्म - १९११, जबलपुर।
आत्मज स्व. शंभु प्रसाद श्रीवास्तव।
शिक्षा - माध्यमिक।
वर्ष १९२३ से राजनैतिक गतिविधियाँ। १९३२ के आंदोलन में गिरफ्तार ६ माह कैद, २५/- अर्थदंड।
नेशनल बॉय स्काउट संस्था के संस्थापक सदस्य। १९३३ तथा १९३५ में राष्ट्रीय स्काउट प्रदर्शनी का सफल आयोजन किया।
१९३९ में कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी, जबलपुर में स्वयं सेवकों के प्लाटून कमांडर। सराहनीय प्रदर्शन कर प्रशंसा पाई।
महाकौशल युवक कांफ्रेंस को सफल बनाने हेतु अथक परिश्रम किया।
व्यक्तिगत सत्याग्रह १९४१ में ४ माह की सजा हुई।
'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन १९४२ में २ वर्ष तक नज़रबंद।
सत्याग्रही साथियों के बीच 'लाला जी' संबोधन से लोकप्रिय।
स्वास्थ्य बिगड़ने के बावजूद स्वतंत्रता संबंधी गतिविधियों में अंतिम सांस तक सक्रिय रहे।
(संदर्भ - स्वतंत्रता संग्राम और जबलपुर नगर, रामेश्वर प्रसाद गुरु, पृष्ठ ९५) 
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नरसिंहपुर 
श्री लक्ष्मीप्रसाद सक्सेना - नरसिंहपुर 

'भारत छोड़ो' आंदोलन १९४२ की चिंगारी नरसिंहपुर में मशाल बन कर भभक उठी। श्री लक्ष्मीप्रसाद सक्सेना ने अपने पत्नी श्रीमती बइयोबाई  सक्सेना के साथ मिलकर क्रांतिकारियों के संदेश तथा उनके समर्थन में अपील के पर्चे हाथ से नकल कर प्रतियाँ तैयार कीं तथा आम लोगों में वितरण कर नगर की दीवारों पर चस्पा किया।१ / ७४ 







रतलाम 
श्रीमती दुर्गा देवी निगम - रतलाम  

स्वतंत्रता आंदोलन के तेजस्वी प्रणेता स्वामी ज्ञानानंद की प्रेरणा से १९२० में रतलाम में जिला कांग्रेस समिति तथा १९३१ में महिला सेवा दल की स्थापना हुई। रतलाम निवासी श्रीमती दुर्गा देवी निगम ने १९३१ में स्वतंत्रता सत्याग्रह में सक्रियता से भाग लिया। उन्होंने बापू के आह्वान पर पर्दा और घूँघट का त्याग किया। २३ मार्च १९३१ को लाहौर में स्वतंत्रता सेनानी  सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव को फाँसी दिए जाने का समाचार मिलते हो दुर्गा देवी ने महिलाओं को जाग्रत कर नगर में स्त्रियों-पुरुषों तथा विद्यार्थियों के विशाल जुलूस का देवचंद भाट के साथ सफल नेतृत्व किया तथा पूर्ण हड़ताल कराई। 'भगत सिंह-राजगुरु-सुखदेव ज़िंदाबाद', 'अन्याय नहीं चलेगा', 'नेताओं को रिहा करो' आदि गगनभेदी नारे लगते हुए जुलुस रानी के मंदिर के सामने पहुँचकर विशाल जनसभा में परिवर्तित हो गया। दुर्गा देवी, देव चंद तथा अन्य नेताओं ने उग्र भाषण दिए, पुलिस ने बिना चेतावनी दिए बेरहमी से भारी लाठी चार्ज किया। सैंकड़ों स्त्री-पुरुष, किशोर-युवा-वृद्ध घायल हुए। नृशंस प्रशासन ने सभा बंदी आदेश लागू कर दुर्गा देवी तथा अन्य १२-१३ महिलाओं तथा अनेक पुरुषों को गिरफ्तार  कर लिया,  घायलों की  चिकित्सा तक नहीं होने दी। पुलिस ने स्त्रियों और किशोरों तक को सार्वजनिक  रूप से हण्टरों से पीटा तथा गाली-गलौज की। जनाक्रोश की गंभीरता को देखते हुए रतलाम के महाराज ने जनता की कुछ माँगें माँग लीं। १   
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स्व. फूलमती देवी भटनागर - कटनी

कटनी निवासी फूलमती देवी भटनागर ने प्राथमिक शिक्षा के बाद से ही स्वतंत्रता सत्याग्रहों में भाग लेना आरंभ कर दिया तथा १९४२ के 'भारत छोड़ो' आंदोलन में ओजस्वी नेतृत्व किया। फलत:, जुलूसों में भाग लेने, नारेबाजी करने तथा सरकार का विरोध करने के जुर्म में इन्हें १६ दिन कारावास की सजा सुनाई गई।१ / ७१    

श्रीमती बईयोबाई सक्सेना - नरसिंहपुर 

'भारत छोड़ो' आंदोलन १९४२ की चिंगारी नरसिंहपुर में मशाल बन कर भभक उठी। श्रीमती बईयोबाई ने अपने पति श्री लक्ष्मीप्रसाद सक्सेना का हाथ बँटाते हुए क्रांतिकारियों के संदेश तथा उनके समर्थन में अपील के पर्चे हाथ से नकल कर प्रतियाँ तैयार कीं तथा आम लोगों में वितरण किया और नगर की दीवारों पर चस्पा किया।१ / ७४ 



महिला क्रांतिकारी / सत्याग्रही 

१९२१ के असहयोग आंदोलन में गाँधी ने स्वतंत्रता आंदोलनों में महिलाओं द्वारा सी मित भूमिका निभाने की अपेक्षा की ताकि वे सुरंक्षित रहें किंतु महिलाओं ने सामाजिक बंधनों और पारिवारिक प्रतिबंधों से जूझते हुए भी आजादी के हवन में समिधा समर्पित की। 


बंगाल 

बंगाली कायस्थ - अध्य, एच, इंद्र, कर, कुंडू, गुहा, गुहाठाकुरदा, घोष, चंदा, चंद्रा, चाकी, चौधरी/चौधुरी, डे, दत्त/दत्ता, दाम, दास, देब/देव, धर,  नंदी, नाग, नाथ, पालित, पुरकैत/पुरकायस्थ, बख्शी, बसु/बोस, बर्धन/वर्धन, बिस्वास/विश्वास, पाल, भद्र, मजुमदार, मित्र/ मित्रा, राय/रे, राहा, शील, सरकार, सिन्हा, सुर, सेन। 
 
श्रीमती वासन्ती देवी, उर्मिला देवी, सुकीर्ति देवी कोलकाता 
 
नवंबर १९२१ में प्रिंस ऑफ़ वेल्स के भारत आगमन पर १००० स्त्रियों ने देशबंधु चितरंजन दास की पत्नी वासंती देवी के नेतृत्व में प्रदर्शन किया। देशबंधु की बहिन उर्मिला देवी तथा भतीजी सिकीर्ति देवी ने उनका सहयोग किया।  


तेलंगाना 
हैदराबाद 
बी. सत्य नारायण रेड्डी


बी. सत्य नारायण रेड्डी (२१ अगस्त १९२७ - ६ अक्टूबर २०१२)  का जन्म अन्नाराम गाँव के कृषक परिवार में शादनगर (महबूबनगर जिला, तेलंगाना) में हुआ। उन्होंने हैदराबाद के निज़ाम कॉलेज में शिक्षा प्राप्त कर उस्मानिया विश्वविद्यालय से कानून में स्नातक किया। उन्होंने केवल १४ वर्ष की आयु में, १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। उन्हें गाँधी जी की गिरफ्तारी का विरोध कर रहे छात्रों के जुलूस का नेतृत्व करने के लिए गिरफ्तार किया गया। बाद में उन्होंने १९४७ में हैदराबाद पीपुल्स मूवमेंट में भाग लेकर निज़ाम के नियम के खिलाफ सत्याग्रह आंदोलन किया। उन्हें ६ माह की सजा देकर चंचलगुडा जेल में डाल दिया गया। जेल में उन्होंने 'पायम-ए-नव' साप्ताहिक का संपादन कर जेल के साथियों के बीच प्रसारित किया।

राजनीतिक कैरियर
आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया से प्रेरित होर रेड्डी समाजवादी आंदोलन का हिस्सा बने। वह विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में भी भागीदार थे । कांग्रेस से अलग रहकर, वह समाजवादी पार्टी, जनता पार्टी और लोकदल के साथ विभिन्न रूप से जुड़े रहे । जनता पार्टी के एक उम्मीदवार के रूप में उन्हें १९७८ में राज्यसभा के लिए चुना गया। १९८३ में वे तेलुगु देशम पार्टी में शामिल हो गए और १९८४ में राज्यसभा के लिए अपने उम्मीदवार के रूप में फिर से चुने गए। वे  उत्तर प्रदेश (१२-२-१९९० से २५-५-१९९३), ओडिशा (१-६-१९९३ से १७ जून १९९५) और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी रहे। १४ अगस्त १९९३ को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के समय वह उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे ।
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हिंदुस्तान, भारत

हिन्दुस्तान

नाम से ही देश की पहचान होना चाहिए
अपने देश का नाम हिंदुस्तान होना चाहिए

इंडिया, भारत, भारतवर्ष, ठीक हैं ये सभी
लेकिन शब्द से जगह का भान होना चाहिए

गर्व का अनुभव करें, लोग सुन कर के जिसे
देश वासी के हृदय में शान होना चाहिए

नाम से ही विश्व सारा राष्ट्र को पहचान ले
नाम से ही राष्ट्र का कुछ ज्ञान होना चाहिए

हिन्द है ये, निवासी, हिंदी हैं सब यहाँ के
हिंदी हैं हम वतन हिंदुस्तान होना चाहिए।।
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मैं भारत हूँ
विनीता श्रीवास्तव
सूरज बनकर सारे जग का तमस मिटाऐगा-
सूरज बनकर सारे जग का तमस मिटाएगा
विश्व गुरू भारत ही सबको राह दिखाएगा।।

महाशक्तियाँ नतमस्तक हैं, अनुसंधान हुए हैं घायल।
घुटने टेक दिए हैं जग ने, मृत्यु सामने खड़ी अमंगल।।
सन्नाटों का कवच चीरकर भारत जागेगा।

कदम -कदम पर अँधियारे के अजगर डेरा डाले छिपकर,
आओ दीप जलाएँ पथ में, तम को दूर भगाएँ मिलकर।
सत्य ,अहिंसा नैतिकता की गीता गाएगा

धर्म-जाति या वर्ग भेद को मानवता से परिष्कार कर
ज्ञान और ,विज्ञान ,सनातन संस्कृति,मर्यादा के बल पर
अपनी मंजिल पर उन्नति के ध्वज फहराएगा।
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डॉ. संतोष शुक्ला, ग्वालियर, म.प्र.

शिव शंकर का डमरू कहता मैं भारत हूँ। 
विष्णुजी का चक्र भी कहता मैं भारत हूँ।।
 
कान्हा की बंशी बज कहती मैं भारत हूँ। 
राम धनुष की टंकार कहती मैं भारत हूँ।।

हिमगिरि की चोटी भी कहती मैं भारत हूँ। 
नदियों की कल-कल कहती मैं भारत हूँ।।
   
झरनों की झर-झर कहती मैं भारत हूँ। 
पेड़ो की है सर-सर कहती मैं  भारत हूँ।।

खेतों की खड़ी फसल कहती मैं भारत हूँ।
प्रकृति की हर नसल कहती मैं भारत हूं।।

आम बौरा कर है बतलाता मैं भारत हूँ। 
सैनिक शहीद हो बतलाता मैं भारत हूं।।

भँवरों की गुन-गुन कहती मैं भारत हूँ। 
तितली की थिरकन कहती मैं भारत हूँ।। 

उत्ताल तरंगें सागर की कहें मैं भारत हूँ। 
मेघों की गर्जना भी कहती मैं भारत हूँ।।

कहे चमक चमक कर चपला मैं भारत हूँ।
दादुर की टर-टर कहती है मैं भारत हूँ।।

पृथ्वी का कण-कण है कहता मैं भारत हूँ।
पर्ण-पर्ण भी यही है कहता मैं भारत हूँ।।

सूर्य की रश्मि रश्मि कह रही मैं भारत हूँ। 
चंद्र-किरणें भी यही हैं कहती मैं भारत हूँ।
***