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सोमवार, 28 जून 2021

नदी घाटी विकास

जन का पैगाम - जन नायक के नाम

प्रिय नरेंद्र जी, उमा जी
सादर वन्दे मातरम
मुझे आपका ध्यान नदी घाटियों के दोषपूर्ण विकास की ओर आकृष्ट करना है.
मूलतः नदियां गहरी तथा किनारे ऊँचे पहाड़ियों की तरह और वनों से आच्छादित थे. कालिदास का नर्मदा तट वर्णन देखें। मानव ने जंगल काटकर किनारों की चट्टानें, पत्थर और रेत खोद लिये तो नदी का तक और किनारों का अंतर बहुत कम बचा. इससे भरनेवाले पानी की मात्रा और बहाव घाट गया, नदी में कचरा बहाने की क्षमता न रही, प्रदूषण फैलने लगा, जरा से बरसात में बाढ़ आने लगी, उपजाऊ मिट्टी बाह जाने से खेत में फसल घट गयी, गाँव तबाह हुए.
इस विभीषिका से निबटने हेतु कृपया, निम्न सुझावों पर विचार कर विकास कार्यक्रम में यथोचित परिवर्तन करने हेतु विचार करें:
१. नदी के तल को लगभग १० - १२ मीटर गहरा, बहाव की दिशा में ढाल देते हुए, ऊपर अधिक चौड़ा तथा नीचे तल में कम चौड़ा खोदा जाए.
२. खुदाई में निकली सामग्री से नदी तट से १-२ किलोमीटर दूर संपर्क मार्ग तथा किनारों को पक्का बनाया जाए ताकि वर्षा और बाढ़ में किनारे न बहें।
३. घाट तक आने के लिये सड़क की चौड़ाई छोड़कर शेष किनारों पर घने जंगल लगाए जाएँ जिन्हें घेरकर प्राकृतिक वातावरण में पशु-पक्षी रहें मनुष्य दूर से देख आनंदित हो सके।
४. गहरी हुई बड़ी नदियों में बड़ी नावों और छोटे जलयानों से यात्री और छोटी नदियों में नावों से यातायात और परिवहन बहुत सस्ता और सुलभ हो सकेगा। बहाव की दिशा में तो नदी ही अल्प ईंधन में पहुंचा देगी। सौर ऊर्जा चलित नावों से वर्ष में ८-९ माह पेट्रोल -डीज़ल की तुलना में लगभग एक बटे दस धुलाई व्यय होगा। प्राचीन भारत में जल संसाधन का प्रचुर प्रयोग होता था।
५. घाटों पर नदी धार से ३००-५०० मीटर दूर स्नानागार-स्नान कुण्ड तथा पूजनस्थल हों जहाँ जलपात्र या नल से नदी उपलब्ध हो। नदी के दर्शन करते हुए पूजन-तर्पण हो। प्रयुक्त दूषित जल व् अन्य सामग्री घाट पर बने लघु शोधन संयंत्र में उपचारित का शुद्ध जल में परिवर्तित की जाने के बाद नदी के तल में छोड़ा जाए। तथा नदी का प्रदुषण समाप्त होगा तथा जान सामान्य की आस्था भी बनी सकेगी। इस परिवर्तन के लिये संतों-पंडों तथा स्थानी जनों को पूर्व सहमत करने से जन विरोध नहीं होगा।
६. नदी के समीप हर शहर, गाँव, कस्बे, कारखाने, शिक्षा संस्थान, अस्पताल आदि में लघु जल-मल निस्तारण केंद्र हो। पूरे शहर के लिए एक वृहद जल-नल केंद्र मँहगा, जटिल तथा अव्यवहार्य है जबकि लघु ईकाइयां कम देखरेख में सुविधा से संचालित होने के साथ स्थानीय रोजगार भी सृजित करेंगी। इनके द्वारा उपचारित जल नदियों में छोड़ना सुरक्षित होगा।
७. एक राज्यों में बहने वाली नदियों पर विकास योजना केंद्र सरकार की देख-रेख और बजट से हो जबकि एक राज्य की सीमा में बह रही नदियों की योजनों की देखरेख और बजट राज्य सरकारें देखें।जिन स्थानों पर निवासी २५ प्रतिशत जन सहयोग दान करें उन्हें प्राथमिकता दी जाए। हिस्सों में स्थानीय जनों ने बाँध बनाकर या पहाड़ खोदकर बिना सरकारी सहायता के अपनी समस्या का निदान खोज लिया है और इनसे लगाव के कारण वे इनकी रक्षा व मरम्मत भी खुद करते है जबकि सरकारी मदद से बनी योजनाओं को आम जन ही लगाव न होने से हानि पहुंचाते हैं। इसलिए श्रमदान अवश्य हो। ७० के दशक में सरकारी विकास योजनाओं पर ५० प्रतिशत श्रमदान की शर्त थी, जो क्रमशः काम कर शून्य कर दी गयी तो आमजन लगाव ख़त्म हो जाने के कारण सामग्री की चोरी करने लगे और कमीशन माँगा जाने लगा।श्रमदान करनेवालों को रोजगार मिलेगा।
८. नर्मदा में गुजरात से जबलपुर तक, गंगा में बंगाल से हरिद्वार तक तथा राजस्थान, महाकौशल, बुंदेलखंड और बघेलखण्ड में छोटी नदियों से जल यातायात होने पर इन पिछड़े क्षेत्रों का कायाकल्प हो जाएगा।
९. इससे भूजल स्तर बढ़ेगा और सदियों के लिए पेय जल की समस्या हल हो जाएगी।भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी।
कृपया, इन बिन्दुओं पर गंभीरतापूर्वक विचारण कर, क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाये जाने हेतु निवेदन है।
संजीव वर्मा
एक नागरिक
२८-६-२०१४ 

रविवार, 27 जून 2021

महामाया छंद


मात्रिक लौकिक जातीय
वर्णिक प्रतिष्ठा जातीय
महामाया छंद
सूत्र - य ला।
*
सुनो मैया
पड़ूँ पैंया
बजा वीणा
हरो पीड़ा
महामाया
करो छैंया
तुम्हीं दाता
जगत्त्राता
उबारो माँ
थमा बैंया
मनाऊँ मैं
कहो कैसे
नहीं जानूँ
उठा कैंया
तुम्हारा था
तुम्हारा हूँ
न डूबे माँ
बचा नैया
भुलाओ ना
बुलाओ माँ
तुम्हें ही मैं
भजूँ मैया
***
२७-६-२०२०

मैथिली हाइकु, दोहे बूँदाबाँदी के

मैथिली हाइकु
स्नेह करब
हमर मंत्र अछि
गले लगबै
*
दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***
27.6.2018, salil.sanjiv@gmail.com
9179701766, 9425183244.

लघुकथा दुहरा चेहरा

लघुकथा
दुहरा चेहरा
*
- 'क्या कहूँ बहनजी, सच बोला नहीं जाता और झूठ कहना अच्छा नहीं लगता इसीलिये कहीं आना-जाना छोड़ दिया. आपके साथ तो हर २-४ दिन में गपशप होती रही है, और कुछ हो न हो मन का गुबार तो निकल जाता था. अब उस पर भी आपत्ति है.'
= 'आपत्ति? किसे?, आपको गलतफहमी हुई है. मेरे घर में किसी को आपत्ति नहीं है. आप जब चाहें पधारिये और निस्संकोच अपने मन की बात कर सकती हैं. ये रहें तो भी हम लोगों की बातों में न तो पड़ते हैं, न ध्यान देते हैं.'
- 'आपत्ति आपके नहीं मेरे घर में होती है. वह भी इनको या बेटे को नहीं बहूरानी को होती है.'
= 'क्यों उन्हें हमारे बीच में पड़ने की क्या जरूरत? वे तो आज तक कभी आई नहीं.'
-'आएगी भी नहीं. रोज बना-बनाया खाना चाहिए और सज-धज के निकल पड़ती है नेतागिरी के लिए. कहती है तुम जैसी स्त्रियाँ घर का सब काम सम्हालकर पुरुषों को सर पर चढ़ाती हैं. मुझे ही घर सम्हालना पड़ता है. सोचा था बहू आयेगी तो बुढ़ापा आराम से कटेगा लेकिन महारानी तो घर का काम करने को बेइज्जती समझती हैं. तुम्हारे चाचाजी बीमार रहते हैं, उनकी देख-भाल, समय पर दवाई और पथ्य, बेटे और पोते-पोती को ऑफिस और स्कूल जाने के पहले खाना और दोपहर का डब्बा देना. अब शरीर चलता नहीं. थक जाती हूँ.'
='आपकी उअमर नहीं है घर-भर का काम करने की. आप और चाचाजी आराम करें और घर की जिम्मेदारी बहु को सम्हालने दें. उन्हें जैसा ठीक लगे करें. आप टोंका-टाकी भर न करें. सबका काम करने का तरीका अलग-अलग होता है.'
-'तो रोकता कौन है? करें न अपने तरीके से. पिछले साल मैं भांजे की शादी में गयी थी तो तुम्हारे चाचाजी को समय पर खाना-चाय कुछ नहीं मिला. बाज़ार का खाकर तबियत बिगाड़ ली. मुश्किल से कुछ सम्हली है. मैंने कहा ध्यान रखना था तो बेटे से नमक-मिर्च लगाकर चुगली कर दी और सूटकेस उठाकर मायके जाने को तैयार ही गयी. बेटे ने कहा तो कुछ नहीं पर उसका उतरा हुआ मुँह देखकर मैं समझ गई, उस दिन से रसोई में घुसती ही नहीं. मुझे सुना कर अपनी सहेली से कह रही थी अब कुछ कहा तो बुड्ढे-बुढ़िया दोनों को थाने भिजवा दूँगी. दोनों टाइम नाश्ते-खाने के अलावा घर से कोई मतलब नहीं.'
पड़ोस में रहनेवाली मुँहबोली चाची को सहानुभूति जता, शांत किया और चाय-नाश्ता कराकर बिदा किया. घर में आयी तो चलभाष पर ऊँची आवाज में बात कर रही उनकी बहू की आवाज़ सुनायी पड़ी- ' माँ! तुम काम मत किया करो, भाभी से कराओ. उसका फर्ज है तुम्हारी सेवा करे....'
मैं विस्मित थी स्त्री हितों की दुहाई देनेवाली शख्सियत का दुहरा चेहरा देखकर.
२७-६-२०१७ 
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संपर्क- ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तक

मुक्तक
*
प्राण, पूजा कर रहा निष्प्राण की
इबादत कर कामना है त्राण की
वंदना की, प्रार्थना की उम्र भर-
अर्चना लेकिन न की संप्राण की
.
साधना की साध्य लेकिन दूर था
भावना बिन रूप ज्यों बेनूर था
कामना की यह मिले तो वह करूँ
जाप सुनता प्रभु न लेकिन सूर था
.
नाम ले सौदा किया बेनाम से
पाठ-पूजन भी कराया दाम से
याद जब भी किया उसको तो 'सलिल'
हो सुबह या शाम केवल काम से
.
इबादत में तू शिकायत कर रहा
इनायत में वह किफायत कर रहा
छिपाता तू सच, न उससे कुछ छिपा-
तू खुदी से खुद अदावत कर रहा
.
तुझे शिकवा वह न तेरी सुन रहा
है शिकायत उसे तू कुछ गुन रहा
है छिपाता ख्वाब जो तू बुन रहा-
हाय! माटी में लगा तू घुन रहा
.
तोड़ मंदिर, मन में ले मन्दिर बना
चीख मत, चुप रह अजानें सुन-सुना
छोड़ दे मठ, भूल गुरु-घंटाल भी
ध्यान उसका कर, न तू मौके भुना
.
बन्दा परवर वह, न तू बन्दा मगर
लग गरीबों के गले, कस ले कमर
कर्मफल देता सभी को वह सदा-
काम कर ऐसा दुआ में हो असर
२७-६-२०१७ 
***

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
जिसे बसाया छाँव में, छीन रहा वह ठाँव
आश्रय मिले न शहर में, शरण न देता गाँव
*
जो पैरों पर खड़े हैं, 'सलिल' उन्हीं की खैर
पैर फिसलते ही बनें, बंधु-मित्र भी गैर
*
सपने देखे तो नहीं, तुमने किया गुनाह
किये नहीं साकार सो, जीवन लगता भार
*
दाम लागने की कला, सीख किया व्यापार
नेह किया नीलाम जब, साँस हुई दुश्वार
*
माटी में मिल गए हैं, बड़े-बड़े रणवीर
किन्तु समझ पाए नहीं, वे माटी की पीर
*
नाम रख रहे आज वे, बुला-मनाकर पर्व
नाम रख रहे देख जन, अहं प्रदर्शन गर्व
*
हैं पत्थर के सनम भी, पानी-पानी आज
पानी शेष न आँख में, देख आ रही लाज
*
२७-६-२०१७

एक रचना

एक रचना:
संजीव
*
चारु चन्द्र राकेश रत्न की
किरण पड़े जब 'सलिल' धार पर
श्री प्रकाश पा जलतरंग सी
अनजाने कुछ रच-कह देती
कलकल-कुहूकुहू की वीणा
विजय-कुम्भ रस-लय-भावों सँग
कमल कुसुम नीरजा शरण जा
नेह नर्मदा नैया खेती
आ अमिताभ सूर्य ऊषा ले
विहँस खलिश को गले लगाकर
कंठ धार लेता महेश बन
हो निर्भीक सुरेन्द्र जगजयी
सीताराम बने सब सुख-दुःख
धीरज धर घनश्याम बरसकर
पाप-ताप की नाव डुबा दें
महिमा गाकर सद्भावों की
दें संतोष अचल गौतम यदि
हो आनंद-सिंधु यह जीवन
कविता प्रणव नाद हो पाये
हो संजीव सृष्टि सब तब ही.
*
२७-६-२०१५

गीता अध्याय ८ - ९

ॐ गीता अध्याय ८
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
अर्जुन कहे ब्रह्म-आत्मा क्या, कहें कर्म क्या पुरुषोत्तम?
भौतिक जग किसको कहते हैं?, क्या कहलाता देव कहें?१।
*
अधियज्ञ किस तरह कौन यहाँ, इस तन में मधुसूदन है?
अंत समय में कहें किस तरह, आत्म संयमी जान सके?२।
*
श्री हरि: 'अक्षर ब्रह्म दिव्य है, स्वभाव आत्मा है उसका।
जीव सृष्टि उत्पन्न करे जी, कर्म वही कहलाता है।३।
*
है अधिभूत भाव क्षर बदले, परमपुरुष अधिदैव यहाँ।
हूँ अधियज्ञ मात्र मैं जानो, देहधारियों में हे श्रेष्ठ!४।
*
अंत काल में मुझे याद कर, तजता है जो तन अपना।
वह मेरे स्वभाव को पाता, नहीं तनिक संदेह यहाँ।५।
*
जिसको भी कर याद भाव में, तजे अंत में तन को जो।
उसको ही पता कुन्तीसुत!, सदा भाव को याद करे।६।
*
इसीलिए सब कालों में कर, मुझको याद समररत हो।
मुझमें शरणागत हो मन-मति, मुझे मिले संदेह नहीं।७।
*
कर अभ्यास ध्यान-मन-मति से, किंचित विचलित हुए बिना।
जो वह पाता परम पुरुष को, पार्थ सतत चिंतन करता।८।
*
कवि प्राचीन नियंता अणुतर, लघुतर सदा सोचता जो।
सबका पालक अचिन्त्य रूपी, रवि सम तम से परे रहे।९।
*
मृत्यु समय मन अचल भक्तिमय, योगशक्ति से निश्चय ही।
भृकुटि-मध्य प्राणों को स्थिरकर, परम पुरुष दिव्य पाए।१०।
*
जो अक्षर वेदज्ञ कह करें, प्रवेश जिसमें यति सन्यासी।
इच्छुक ब्रह्मचर्य अभ्यासें, वह तुमसे पद सार कहूँ।११।
*
सब द्वारों को वश में करके, मन को हृद में रुद्ध करे।
सिर में स्थिर कर आत्म-प्राण को, करे योग में स्थित खुदको।१२।
*
ॐ एकाक्षर ब्रह्म बोलकर, मुझे सतत जो याद करे।
तजते हुए देह जो पाता, परम सद्गति निश्चय ही।१३।
*
अनन्यचेता सदैव जो भी, मुझे सुमिरता है नियमित।
उसे मैं सुलभ सदा पार्थ! हूँ, नियमित युक्त भक्त को भी।१४।
*
मुझको पा फिर जन्म दुखों के, आलय भंगुर में नहिं हो।
कभी न पाते महान आत्मन, सिद्धि-परमगति पाए हुए।१५।
*
ब्रह्मलोक तक सब लोकों से, फिर वापिस आते अर्जुन!
मुझको पाकर किंतु कुंतिसुत!, जन्म न फिर से होता है।१६।
*
एक हजार युगों तक दिन जो, ब्रह्मा का वे जान रहे।
रात युग सहस बाद खत्म हो, वे दिन-रात जानते हैं।१७।
*
हो अव्यक्त से व्यक्त जीव सब, प्रगटें दिन के होने पर।
रात्रि नष्ट हों उनमें से जो, हैं अव्यक्त कहा जाता।१८।
*
जीव समूह वही फिर फिर लें जन्म, नष्ट भी हो जाते।
रात्रि आगमन पर हो बेबस, पार्थ! प्रकट हों जब दिन हो।१९।
*
परम भाव अव्यक्त से अलग, है अव्यक्त सनातन जो।
वह जो जीव नष्ट हों तो भी, नष्ट नहीं होती।२०।
*
कहें अव्यक्त और अविनाशी, जिसको वह गंतव्य परम।
जिसको पाकर कभी न लौटें, वह है धाम परम मेरा।२१।
*
परम पुरुष से बड़ा न कोई, मिले भक्ति से जो अविचल।
जिसके अंदर सकल जगत यह, दिखता जो भी व्याप्त रहे।२२।
*
काल न जिसमें वापिस लौटे, जिसमें वापिस हो योगी।
कर प्रयाण पाते हैं जिसको, वही काल कहता भारत!२३।
*
अग्नि ज्योति दिन शुक्ल पक्ष छः, रवि जब उत्तर दिशा रहे।
वहाँ प्राण तज ब्रह्म लोक को, जाते लोग ब्रह्मज्ञानी।२४।
*
धूम्र रात्रि या कृष्ण पक्ष जब, छः महीने रवि दक्षिण हो।
चंद्र लोक जा प्रकाश; योगी पाता फिर वह वापिस हो।२५।
*
हैं प्रकाश तम मार्ग गमन के, जग से वेदों के मत में।
गया एक से नहीं लौटता, अन्य गया फिर लौटे फिर से।२६।
*
कभी न दोनों मार्ग जानकर, योगी मोहग्रस्त होता।
इसीलिए हर समय योग में, योग युक्त हो हे अर्जुन!।२७।
*
वेद पढ़े कर यज्ञ तपस्या, दान पुण्य फल पाकर जो।
लाँघे वे सब; जाने योगी, परम धाम को पाए वो।२८।
*
ॐ गीता अध्याय ९
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हरि बोले 'अति गुप्त कह रहा, तुम्हें न जो ईर्ष्यालु है।
सभी ज्ञान-विज्ञान जानकर, जिसे मुक्त होगे भव से।१।
*
है अतिगुप्त राजविद्या यह, यही शुद्धतम उत्तम है।
समझा गया आत्म अनुभव से, धर्म सुखद अविनाशी है।२।
*
श्रद्धाहीन धर्म के प्रति, नर हे अरिहंता! सच जानो।
बिन पाए मुझको वापिस हों, मर्त्य जगत में पथ से ही।३।
*
मुझसे व्याप्त जगत यह सारा, दृश्य-अदृश्य रूप द्वारा।
मुझमें सभी जीव हैं लेकिन, मैं उनमें हूँ स्थित न कहीं।४।
*
कभी न मुझमें स्थित है सब जग, देखो मेरा योगैश्वर्य।
जीवों का पालक न भूत में, स्वात्मा भूत स्रोत हूँ मैं।५।
*
जैसे नभ में वायु सदा ही, प्रवहित है सर्वत्र महान।
वैसे ही सब प्राणी मुझमें, रहते समझो इसी प्रकार।६।
*
सब प्राणी कौन्तेय प्रकृति में, करते हैं प्रवेश मेरी।
कल्प अंत में, फिर उन सबको कल्प आदि में रचता मैं।७।
*
प्रकृति में अपनी प्रवेश कर, बार बार पैदा करता।
सकल विराट जगत पूरा है, अवश प्रकृति के ही वश में।८।
*
नहीं कभी भी मुझे कर्म वे, सकते बाँध धनंजय हे!
उदासीन आसक्ति रहित मैं, रहता हूँ उन कर्मों में।९।
*
मेरे ही कारण प्रकृति यह, प्रगटे जड़-जंगम के सँग।
इस कारण से हे कुन्तीसुत!, जग परिवर्तित होता है।१०।
*
करते हैं उपहास मूढ़जन, नर तन आश्रित कह मुझको।
दिव्य भाव बिन जाने मेरा, है कण-कण का स्वामी जो।११।
*
निष्फल आशा-कारण-ज्ञान भी, उनका मोहग्रसित हैं जो।
त्याज्य राक्षसी-आसुरी प्रकृति मोहक, शरण गहे हैं वे।१२।
*
महापुरुष लेकिन कुंतीसुत!, दैवी प्रकृति शरण रहते।
भजते अविचल मन से, जानें सृष्टि मूल अविनाशी मैं।१३।
*
सतत कीर्तन करते मेरा, आखिर में संकल्प सहित।
करते नमन मुझे सभक्ति वे, नित जुड़कर पूजा करते।१४।
*
ज्ञान यज्ञ द्वारा भी निश्चय, अन्य यज्ञ कर पूज रहे।
मुझे द्वैत-एकांत भाव से, बहु प्रकार से जग-मुख कह।१५।
*
मैं कर्मकांड; मैं यज्ञ, स्वधा मैं, मैं ही तो औषधि भी हूँ।
मंत्र हूँ मैं निश्चय ही घृत मैं, पावक आहुति भी हूँ मैं।१६।
*
पिता मैं इस जगत का हूँ, माता-धाता तथा पितामह।
हूँ वेद पावन ॐ ऋक् मैं, साम यजु भी सुनिश्चित हूँ।१७।
*
हूँ लक्ष्य भर्ता ईश साक्षी, मैं आवास शरण भी हूँ।
हूँ सृष्टि मैं; मैं ही प्रलय, भूमि आश्रय बीज अव्यय हूँ ।१८।
*
मैं देता हूँ ताप; बरसता, रोक-भेजता भी हूँ मैं।
अमृतत्व या मृत्यु; मुझ ही में सत अरु असत बसे अर्जुन!१९।
*
वेदज्ञ-सोमपानी यज्ञी, पूत-पाप पूज सुरलोक।
हेतु प्रार्थना कर पाते हैं, भोग-आनंद देवता सम।२०।
*
भोग स्वर्ग को पुण्य क्षीण हों, मृत्यु लोक में फिर आते।
वेदत्रयी-धर्म पालक जन, जा-आ इन्द्रिय सुख पाते।२१।
*
हो अनन्य चिंतन कर मुझको, जो जन पूजा करते हैं।
उन भक्तिलीन लोगों का मैं, योग-क्षेम खुद करता हूँ।२२।
*
जो भी अन्य सुरों की करते, पूजा श्रद्धा-भक्ति सहित।
वे भी पूज रहे मुझको ही, कुंतीसुत! विधि गलत भले।२३।
*
मैं ही सकल यज्ञ कर्मों का, भोक्ता अरु स्वामी भी हूँ।
नहीं जानते मुझको सचमुच, जो नीचे गिरते हैं वे।२४।
*
जाते सुर समीप सुरपूजक, पितृ समीप पितृपूजक।
मिलें भूत से भूत-भक्त जा, मेरे भक्त मुझे पाते।२५।
*
पत्र पुष्प फल जल जो कोई, मुझे भक्ति से देता है।
वह मैं भक्ति-भाव से अर्पित, लेता शुद्ध-आत्मी से।२६।
*
जो करते हो या खाते हो, जो देते हो दान कहीं।
जो तप करते कुन्तीपुत्र वह, सब मुझको ही अर्पणकर।२७।
*
शुभ अरु अशुभ फलों के द्वारा, मुक्त कर्म बंधन से हो।
सन्यास योग युक्तात्मा हो, हो मुक्त मुझे पाओगे।२८।
*
सम भावी मैं सब जीवों प्रति, कोई नहीं द्वेष्य या प्रिय।
जो भजते हैं मुझे भक्ति से, मुझमें वे हैं; उनमें मैं।२९।
*
दुर आचारी भी यदि भजता, मुझे अनन्य भाव से तो।
साधु मानने योग्य मनुज वह, सम्यक संकल्पी है वो।३०।
*
शीघ्र बने वह धर्म परायण, शाश्वत शांति प्राप्त करता।
हे कुन्तीसुत! करो घोषणा, भक्त न कभी नष्ट होता।३१।
*
मेरी पार्थ शरण गहते जो, चाहे पापयोनि से हों।
वनिता वैश्य शूद्र व्यक्ति भी, जाते परम लोक को हैं।३२।
*
क्या फिर ब्राह्मण धर्मात्मा या, भक्त राज-ऋषि भी हो तो।
नाशवान दुखमय यह जग पा, प्रेम-भक्ति मेरी कर ले।३३।
*
नित मेरा चिंतन कर होओ, भक्त-उपासक नमन करो।
मुझको निश्चय ही पाओगे, लीन आत्म मुझमें यदि हो।३४।
*

शनिवार, 26 जून 2021

समीक्षा, क्षणिका, अविनाश ब्योहार

पुस्तक सलिला:
'अंधी पीले कुत्ते खाएँ' खोट दिखाती हैं क्षणिकाएँ
समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(पुस्तक विवरण: 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' क्षणिका संग्रह, अविनाश ब्यौहार, प्रथम संस्करण २०१७, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १३७, मूल्य १००/-, प्रज्ञा प्रकाशन २४ जगदीशपुरम्, रायबरेली, कवि संपर्क: ८६,रॉयल एस्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, जबलपुर, चलभाष: ९८२६७९५३७२, ९५८४०५२३४१।)
*
सुरवाणी संस्कृत से विरासत में काव्य-परंपरा ग्रहण कर विश्ववाणी हिंदी उसे सतत समृद्ध कर रही है। हिंदी व्यंग्य काव्य विधा की जड़ें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोक-भाषाओं के लोक-काव्य में हैं। व्यंग्य चुटकी काटने से लेकर तिलमिला देने तक का कार्य कुछ शब्दों में कर देता है। गागर में सागर भरने की तरह दुष्कर क्षणिका विधा में पाठक-मन को बाँध लेने की सामर्थ्य है। नवोदित कवि अविनाश ब्यौहार की यह कृति 'पूत के पाँव पालने में दिखते हैं' कहावत को चरितार्थ करती है। कृति का शीर्षक उन सामाजिक कुरीतियों को लक्ष्य करता है जो नेत्रहीना द्वारा पीसे गए को कुत्ते द्वारा खाए जाने की तरह निष्फल और व्यर्थ हैं।
बुद्धिजीवी कायस्थ परिवार में जन्मे और उच्च न्यायालय में कार्यरत कवि में औचित्य-विचार सामर्थ्य होना स्वाभाविक है। अविनाश पारिस्थितिक वैषम्य को 'सर्वजनहिताय' के निकष पर कसते हैं, भले ही 'सर्वजनसुखाय' से उन्हें परहेज नहीं है किंतु निज-हित या वर्ग-हित उनका इष्ट नहीं है। उनकी क्षणिकाएँ व्यवस्था के नाराज होने का खतरा उठाकर भी; अनुभूति को अभिव्यक्त करती हैं। भ्रष्टाचार, आरक्षण, मँहगाई, राजनीति, अंग प्रदर्शन, दहेज, सामाजिक कुरीतियाँ, चुनाव, न्याय प्रणाली, चिकित्सा, पत्रकारिता, बिजली, आदि का आम आदमी के दैनंदिन जीवन पर पड़ता दुष्प्रभाव अविनाश की चिंता का कारण है। उनके अनुसार 'आजकल/लोगों की / दिमागी हालत / कमजोर पड़ / गई है / शायद इसीलिए / क्षणिकाओं की / माँग बढ़ / गई है।' विनम्र असहमति व्यक्त करना है कि क्षणिका रचना, पढ़ना और समझना कमजोर नहीं सजग दिमाग से संभव होता है। क्षणिका, दोहा, हाइकु, माहिया, लघुकथा जैसी लघ्वाकारी लेखन-विधाओं की लोकप्रियता का कारण पाठक का समयाभाव हो सकता है।अविनाश की क्षणिकाएँ सामयिक, सटीक, प्रभावी तथा पठनीय-मननीय हैं। उनकी भाषा प्रवाहपूर्ण, प्रसाद गुण संपन्न, सहज तथा सटीक है किंतु अनुर्वर और अनुनासिक की गल्तियाँ खीर में कंकर की तरह खटकती हैं। 'हँस' क्रिया और 'हंस' पक्षी में उच्चारण भेद और एक के स्थान पर दूसरे के प्रयोग से अर्थ का अनर्थ होने के प्रति सजगता आवश्यक है चूँकि पुस्तक में प्रकाशित को पाठक सही मानकर प्रयोग करता है।
इन क्षणिकाओं का वैशिष्ट्य मुहावरे का सटीक प्रयोग है। इससे भाषा जीवंत, प्रवाहपूर्ण, सहज ग्राह्य तथा 'कम में अधिक' कह सकी है। 'पक्ष हो /या विपक्ष / दोनों एक / थैली के / चट्टे-बट्टे हैं। / जीते तो / आँधी के आम / हारे तो / अंगूर खट्टे हैं।' यहाँ कवि दो प्रचलित मुहावरे का प्रयोग करने के साथ 'आँधी के आम' एक नए मुहावरे की रचना करता है। इस कृति में कुछ और नए मुहावरे रच-प्रयोगकर कवि ने भाषा की श्रीवृद्धि की है। यह प्रवृत्ति स्वागतेय है।
'चित्रगुप्त ने यम-सभा से / दे दिया स्तीफा / क्योंकि उन्हें मुँह / चिढ़ा रहा था / आतंक का खलीफा।' पंगु सिद्ध हो रही व्यवस्था पर कटाक्ष है। 'मैं अदालत / गया तो / मैंने ऐसा / किया फील / कि / झूठे मुकदमों / की पैरवी / बड़ी ईमानदारी / से करते / हैं वकील।' यहाँ तीखा व्यंग्य दृष्टव्य है। अंग्रेजी शब्द 'फील' का प्रयोग सहज है, खटकता नहीं किंतु 'ईमानदारी' के साथ 'बड़ी' विशेषण खटकता है। ईमानदारी कम-अधिक तो हो सकती है, छोटी-बड़ी नहीं।
अविनाश ने अपनी पहली कृति से अपनी पैठ की अनुभूति कराई है, इसलिए उनसे 'और अच्छे' की आशा है।
*
समीक्षक संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 401 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001,
चलभाष: 7999559618/ 9425183244, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

हाइकु गीत

हाइकु गीत:
आँख का पानी
संजीव 'सलिल'
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...
*

मुक्तक

मुक्तक:
*
दर्द हों मेहमां तो हँसकर मेजबानी कीजिए
मेहमानी का मजा कुछ ग़मों को भी दीजिए
बेजुबां हो बेजुबानों से करें कुछ गुफ्तगू
जिंदगी की बंदगी का मजा हँसकर लीजिए
***
दाना देते परीक्षा, नादां बाँटे ज्ञान
रट्टू तोते आ रहे, अव्वल हैं अनजान
समझ-बूझ की है कमी, सिर्फ किताबी लोग
चला रहे हैं देश को, मनमर्जी भगवान
***
गौ माता के नाम पर, लड़-मरते इंसान
गौ बेबस हो देखती, आप बहुत हैरान
शरण घोलकर पी गया, भूल गया तहजीब
पूत आप ही लूटते भारत माँ की आन
***

दोहा

दोहा सलिला
*
मीरा मत आ दौड़कर, ये तो हैं कोविंद
भूल भई तूने इन्हें, समझ लिया गोविन्द
*
लाल कृष्ण पीछे हुए, सम्मुख है अब राम
मीरा-यादव दुखी हैं, भला करेंगे राम
*
जो जनता के वक्ष पर दले स्वार्थ की दाल
वही दलित कलिकाल में, बनता वही भुआल
*
हिंदी घरवाली सुघड़, हुई उपेक्षित मीत
अंग्रेजी बन पड़ोसन, लुभा रही मन रीत
*
चाँद-चाँदनी नभ मकां, तारे पुत्र हजार
हम दो, दो हों हमारे, भूले बंटाढार
*
काम और आराम में, ताल-मेल ले सीख
जो वह ही मंजिल वारे, सबसे आगे दीख
*
अधकचरा मस्तिष्क ही, लेता शब्द उधार
निज भाषा को भूलकर, परभाषा से प्यार
*
मन तक जो पहुँचा सके, अंतर्मन की बात
'सलिल' सफल साहित्य वह, जिसमें हों ज़ज्बात
*
हिंदी-उर्दू सहोदरी, अंग्रेजी है मीत
राम-राम करते रहे, घुसे न घर में रीत
*
घुसी वजह बेवजह में, बिना वजह क्यों बोल?
नामुमकिन मुमकिन लिए, होता डाँवाडोल
*
खुदी बेखुदी हो सके, खुद के हों दीदार
खुदा न रहता दूर तब, नफरत बनती प्यार
*
दोहा सलिला
*
खेत ख़त्म कर बना लें, सडक शहर सरकार
खेती करने चाँद पर, जाओ कहे दरबार
*
पल-पल पल जीता रहा, पल-पल मर पल मौन
पल-पल मानव पूछता, पालक से तू कौन?
*
प्रथम रश्मि रवि की हँसी, लपक धरा को चूम
धरा-पुत्र सोता रहा, सुख न उसे मालूम
*
दल के दलदल में फँसा, नेता देता ज्ञान
जन की छाती पर दले, दाल- स्वार्थ की खान
*
खेल रही है सियासत, दलित-दलित का खेल
भूल सिया-सत छल रही, देश रहा चुप झेल
*
एक द्विपदी:
मैं सपनों में नहीं जी रहा, सपने मुझमें जीते हैं
कोशिश की बोतल में मदिरा, संघर्षों की पीते हैं.
*

गीत

गीत 
संजीव
*
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*

रचना - प्रति रचना राकेश खण्डेलवाल

रचना - प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-संजीव 'सलिल'
*
रचना-
जिन कर्जों को चुका न पायें उनके रोज तकाजे आते
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी
हमने चाहा था मेघों के
उच्छवासों से जी बहलाना
इन्द्रधनुष बाँहों में भरकर
तुम तक सजल छन्द पहुँचाना
वनफूलोळ की छवियों वाली
मोहक खुश्बू को संवार कर
होठों पर शबनम की सरगम
आंखों में गंधों की छाया
किन्तु तूलिका नहीं दे सकी हमें कोई भी स्वप्न सिन्दूरी
रही मांहती रह रह सांसें अपने जीने की मजदूरी
सीपी रिक्त रही आंसू की
बून्दें तिरती रहीं अभागन
खिया रहा कठिन प्रश्नों में
कुंठित होकर मन का सर्पण
कुछ अस्तित्व नकारे जिनका
बोध आज डँसता है हमको
गज़लों में गहरा हो जाता
अनायास स्वर किसी विरह का
जितनी चाही थी समीपता उतनी और बढ़ी है दूरी
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी
नहीं सफ़ल जो हुये उन्हीं की
सूची में लिखलो हम को भी
पर की कब स्वीकार पराजय ?
क्या कुछ हो जाता मन को भी
बुझे बुझे संकल्प सँजोये
कटी फ़टी निष्ठायें लेकर
जितना बढ़े, उगे उतने की
संशय के बदरंग कुहासे
किसी प्रतीक्षा को दुलराते, भोग रहे ज़िन्दगी अधूरी
और मांगती रहती सांसें अपने जीने की मजदूरी.
***
प्रतिरचना-
हम कर्ज़ों को लेकर जीते, खाते-पीते क़र्ज़ जरूरी
रँग लाएगी फाकामस्ती, सोच रहे हैं हम मगरूरी
जिन कर्जों को चुका न पायें, उनके रोज तकाजे आते
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
मेघदूत से जी बहलाता,
अलकापुरी न यक्ष जा सका
इंद्रधनुष के रंग उड़ गए,
वन-गिरि बिन कब मेघ आ सका?
ऐ सी में उच्छ्वासों से जी,
बहलाते हम खुद को छलते
सजल छन्द को सुननेवाले,
मानव-मानस खोज न मिलते
मदिर साथ की मोहक खुशबू, सपनों की सरगम सन्तूरी
आँखों में गंधों की छाया, बिसरे श्रृद्धा-भाव-सबूरी
अर्पण आत्म-समर्पण बन जब, तर्पण का व्यापार बन गया
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
घड़ियाली आँसू गंगा बन,
नेह-नर्मदा मलिन कर रहे
साबरमती किनारेवाले,
काशी-सत्तापीठ वर रहे
क्षिप्रा-कुंभ नहाने जाते,
नीर नर्मदा का ही पाते
ग़ज़ल लिख रहे हैं मनमानी
व्यर्थ 'गीतिका' उसे बताते
तोड़-मरोड़ें छन्द-भंग कर, भले न दे पिंगल मंजूरी
आभासी दुनिया के रिश्ते, जिए पिए हों ज्यों अंगूरी
तजे वर्ण-मात्रा पिंगल जब, अनबूझी कविताएँ रचकर
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
मानपत्र खुद ही लिख लाये
माला श्रीफल शाल ख़रीदे
मंच-भोज की करी व्यवस्था
लोग पढ़ रहे ढेर कसीदे
कालिदास कहते जो उनको
अकल-अजीर्ण हुआ है गर तो
फर्क न कुछ, हम सेल्फी लेते
फाड़-फाड़कर अपने दीदे
वस्त्र पहन लेते लाखों का, कहते सच्ची यही फकीरी
पंजा-झाड़ू छोड़ स्वच्छ्ता, चुनते तिनके सिर्फ शरीरी
जनसेवक-जनप्रतिनिधि जनगण, को बंधुआ मजदूर बनाये
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
*****

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
*
गये जब से दिल्ली भटकने लगे हैं.
मिलीं कुर्सियाँ तो बहकने लगे हैं
कहाँ क्या लिखेंगे न ये राम जाने
न पूछो पढ़ा क्या बिचकने लगे हैं
रियायत का खाना खिला-खा रहे हैं
न मँहगाई जानें मटकने लगे हैं
बने शेर घर में पिटे हर कहीं वे
कभी जीत जाएँ तरसने लगे हैं
भगोड़ों के साथी न छोड़ेंगे सत्ता
न चूकेंगे मौका महकने लगे हैं
न भूली है जनता इमरजेंसी को
जो पूछा तो गुपचुप सटकने लगे हैं
किये पाप कितने कहाँ और किसने
किसे याद? सोचें चहकने लगे हैं
चुनावी है यारी हसीं खूब मंज़र
कि काँटे भी पल्लू झटकने लगे हैं
न संध्या न वंदन न पूजा न अर्चन
'सलिल' सूट पहने सरसने लगे हैं.
***

शुद्ध ध्वनि छंद


छंद सलिला:
शुद्ध ध्वनि छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १८-८-८-६, पदांत गुरु
लक्षण छंद:
लाक्षणिक छंद है / शुद्धध्वनि पद / अंत करे गुरु / यश भी दे
यति रहे अठारह / आठ आठ छह, / विरुद गाइए / साहस ले
चौकल में जगण न / है वर्जित- करि/ए प्रयोग जब / मन चाहे
कह-सुन वक्ता-श्रो/ता हर्षित, सम / शब्द-गंग-रस / अवगाहे
उदाहरण:
१. बज उठे नगाड़े / गज चिंघाड़े / अंबर फाड़े / भोर हुआ
खुर पटकें घोड़े / बरबस दौड़े / संयम छोड़े / शोर हुआ
गरजे सेनानी / बल अभिमानी / मातु भवानी / जय रेवा
ले धनुष-बाण सज / बड़ा देव भज / सैनिक बोले / जय देवा
कर तिलक भाल पर / चूड़ी खनकीं / अँखियाँ छलकीं / वचन लिया
'सिर अरि का लेना / अपना देना / लजे न माँ का / दूध पिया'
''सौं मातु नरमदा / काली मैया / यवन मुंड की / माल चढ़ा
लोहू सें भर दौं / खप्पर तोरा / पिये जोगनी / शौर्य बढ़ा''
सज सैन्य चल पडी / शोधकर घड़ी / भेरी-घंटे / शंख बजे
दिल कँपे मुगल के / धड़-धड़ धड़के / टँगिया सम्मुख / प्राण तजे
गोटा जमाल था / घुला ताल में / पानी पी अति/सार हुआ
पेड़ों पर टँगे / धनुर्धारी मा/रें जीवन दु/श्वार हुआ
वीरनारायण अ/धार सिंह ने / मुगलों को दी / धूल चटा
रानी के घातक / वारों से था / मुग़ल सैन्य का / मान घटा
रूमी, कैथा भो/ज, बखीला, पं/डित मान मुबा/रक खां लें
डाकित, अर्जुनबै/स, शम्स, जगदे/व, महारख सँग / अरि-जानें
पर्वत से पत्थर / लुढ़काये कित/ने हो घायल / कुचल मरे-
था नत मस्तक लख / रण विक्रम, जय / स्वप्न टूटते / हुए लगे
बम बम भोले, जय / शिव शंकर, हर / हर नरमदा ल/गा नारा
ले जान हथेली / पर गोंडों ने / मुगलों को बढ़/-चढ़ मारा
आसफ खां हक्का / बक्का, छक्का / छूटा याद हु/ई मक्का
सैनिक चिल्लाते / हाय हाय अब / मरना है बिल/कुल पक्का
हो गयी साँझ निज / हार जान रण / छोड़ शिविर में / जान बचा
छिप गया: तोपखा/ना बुलवा, हो / सुबह चले फिर / दाँव नया
रानी बोलीं "हम/ला कर सारी / रात शत्रु को / पीटेंगे
सरदार न माने / रात करें आ/राम, सुबह रण / जीतेंगे
बस यहीं हो गयी / चूक बदनसिंह / ने शराब थी / पिलवाई
गद्दार भेदिया / देश द्रोह कर / रहा न किन्तु श/रम आई
सेनानी अलसा / जगे देर से / दुश्मन तोपों / ने घेरा
रानी ने बाजी / उलट देख सो/चा वन-पर्वत / हो डेरा
बारहा गाँव से / आगे बढ़कर / पार करें न/र्रइ नाला
नागा पर्वत पर / मुग़ल न लड़ पा/येंगे गोंड़ ब/नें ज्वाला
सब भेद बताकर / आसफ खां को / बदनसिंह था / हर्षाया
दुर्भाग्य घटाएँ / काली बनकर / आसमान पर / था छाया
डोभी समीप तट / बंध तोड़ मुग/लों ने पानी / दिया बहा
विधि का विधान पा/नी बरसा, कर / सकें पार सं/भव न रहा
हाथी-घोड़ों ने / निज सैनिक कुच/ले, घबरा रण / छोड़ दिया
मुगलों ने तोपों / से गोले बर/सा गोंडों को / घेर लिया
सैनिक घबराये / पर रानी सर/दारों सँग लड़/कर पीछे
कोशिश में थीं पल/टें बाजी, गिरि / पर चढ़ सकें, स/मर जीतें
रानी के शौर्य-पराक्रम ने दुश्मन का दिल दहलाया था
जा निकट बदन ने / रानी पर छिप / घातक तीर च/लाया था
तत्क्षण रानी ने / खींच तीर फें/का, जाना मु/श्किल बचना
नारायण रूमी / भोज बच्छ को / चौरा भेज, चु/ना मरना
बोलीं अधार से / 'वार करो, लो / प्राण, न दुश्मन / छू पाये'
चाहें अधार लें / उन्हें बचा, तब / तक थे शत्रु नि/कट आये
रानी ने भोंक कृ/पाण कहा: 'चौरा जाओ' फिर प्राण तजा
लड़ दूल्हा-बग्घ श/हीद हुए, सर/मन रानी को / देख गिरा
भौंचक आसफखाँ / शीश झुका, जय / पाकर भी थी / हार मिली
जनमाता दुर्गा/वती अमर, घर/-घर में पुजतीं / ज्यों देवी
पढ़ शौर्य कथा अब / भी जनगण, रा/नी को पूजा / करता है
जनहितकारी शा/सन खातिर नित / याद उन्हें ही / करता है
बारहा गाँव में / रानी सरमन /बग्घ दूल्ह के / कूर बना
ले कंकर एक र/खे हर जन, चुप / वीर जनों को / शीश नवा
हैं गाँव-गाँव में / रानी की प्रति/माएँ, हैं ता/लाब बने
शालाओं को भी , नाम मिला, उन/का- देखें ब/च्चे सपने
नव भारत की नि/र्माण प्रेरणा / बनी आज भी / हैं रानी
रानी दुर्गावति / हुईं अमर, जन / गण पूजे कह / कल्याणी
नर्मदासुता, चं/देल-गोंड की / कीर्ति अमर, दे/वी मैया
जय-जय गाएंगे / सदियों तक कवि/, पाकर कीर्ति क/था-छैंया
*********
टिप्पणी: २४ जून १५६४ रानी दुर्गावती शहादत दिवस, कूर = समाधि,
दूरदर्शन पर दिखाई जा रही अकबर की छद्म महानता की पोल रानी की संघर्ष कथा खोलती है.
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
chhand, shuddh dhvani chhand, acharya sanjiv verma 'salil', durgawti, adhar sinh
chhand salila: shuddh dhvani chhand -sanjiv



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आल्हा/वीर/मात्रिक सवैया छंद

छंद सलिला:
आल्हा/वीर/मात्रिक सवैया छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति , अर्ध सम मात्रिक छंद, प्रति चरण मात्रा ३१ मात्रा, यति १६ -१५, पदांत गुरु गुरु, विषम पद की सोलहवी मात्रा गुरु (ऽ) तथा सम पद की पंद्रहवीं मात्रा लघु (।),
लक्षण छंद:
आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य..
अलंकार अतिशयता करता बना राई को 'सलिल' पहाड़.
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..
उदाहरण:
१. बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
*
२. कर में ले तलवार घुमातीं, दुर्गावती करें संहार.
यवन भागकर जान बचाते गिर-पड़ करते हाहाकार.
सरमन उठा सूँढ से फेंके, पग-तल कुचले मुगल-पठान.
आसफ खां के छक्के छूटे, तोपें लाओ बचे तब जान.
३. एक-एक ने दस-दस मारे, हुआ कारगिल खूं से लाल
आये कहाँ से कौन विचारे, पाक शिविर में था भूचाल
या अल्ला! कर रहम बचा जां, छूटे हाथों से हथियार
कैसे-कौन निशाना साधे, तजें मोर्चा हो बेज़ार
__________
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कमंद, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)



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बुंदेली के नीके बोल

१. बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
*





हाइकु

हाइकु गीत:
आँख का पानी
संजीव 'सलिल'
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...
*

शुक्रवार, 25 जून 2021

रामरती कौशल

संस्मरण
बाल सत्याग्रही रामरती कौशल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
किसी देश का इतिहास केवल बड़े ही नहीं बनाते, यथासमय बच्चे भी यथाशक्ति योगदान करते हैं किन्तु इतिहास लिखते समय केवल बड़ों का ही उल्लेख किया जाता है और बच्चों का अवदान बहुधा अनदेखा-अनलिखा रह जाता है। जॉन ऑफ़ आर्क (१४१२-३० मई १४३१) का नाम पूरी दुनिया में विख्यात है कि उसे मात्र १२ वर्ष की आयु से फ़्रांस से अंग्रेजों को खदेड़ने का सपना देखा और युद्ध हारती हुई सेना की बागडोर सम्हाल कर उसे विजय की राह पर ले गई। भारतीय स्वातंत्र्य समर में नाना साहेब की किशोरी बेटी मैना देवी के बलिदान की अमर गाथा आज की पीढ़ी नहीं जानती। महात्मा गाँधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता सत्याग्रह के दौर में केवल बड़ों ने नहीं अपितु किशोरों और बच्चों ने भी महती भूमिका का निर्वहन किया था। स्वतंत्रता सत्याग्रह के इतिहास के एक ऐसे ही अछूते पृष्ठ को अनावृत्त कर रहा है यह लेख।


सनातन सलिला नर्मदा तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर को तब यह विशेषण मिलता तो दूर देश ने आजादी की सांस भी नहीं ली थी, जब का यह प्रसंग है। शहर कोतवाली के पास अंग्रेजों ने सागर के राजा के अंत पश्चात् परिवार की विधवाओं को रहने का स्थान दिया था कि उन पर नज़र रखी जा सके। राजा सागर के बड़े के सामने ही था (अब भी भग्न रूप में है) सुन्दरलाला तहसीलदार का बाड़ा जो पन्ना के राजा के विश्वस्त थे और अंग्रेजों द्वारा विशेष सहायक के रूप में जबलपुर में लाए गए थे। उन्हें पूर्व के भोंसला राजाओं की टकसाल (जहाँ सिक्के ढलते थे) के स्थान पर बसाया गया। वे ज़ाहिर तौर पर अंग्रेजों के लिए काम करते और खुफिया तौर पर क्रांतिकारियों और राजा सागर परिवार के सहायक होते। कालांतर में इस बाड़े के मकान में किरायेदार के रूप में रहने आए नन्हें भैया सोनी। वे सोने-चाँदी के जेवर बनानेवाले कारीगर थे, निकट ही सराफा बाजार (अब भी है) में व्यापारियों की दुकानों से काम मिलता और उनका परिवार पलता। नन्हें भैया के चार बच्चे हुए पहली दो पुत्रियाँ कृष्णा और रामरती तथा बाद में दो पुत्र मणिशंकर और गौरी शंकर।

रामरती (१५-९-१९३५-२३-५-२००२) केवल सात वर्ष की थी, जब १९४२ का स्वतंत्रता सत्याग्रह आरंभ हुआ। माता-पिता की लाड़ली बिटिया, दो भाइयों की इकलौती बहिन रामरती दूसरी कक्षा की छात्रा थी। रामरती बाड़े के मैदान और दो शिवमंदिरों के समीप अन्य बच्चों के साथ चिड़ियों की तरह फुदकती-खेलती। बच्चे ऊँच-नीच का भेद नहीं जानते। मकान मालिक धर्मनारायण वर्मा वकील की बड़ी लड़की ऊषा, लड़का बीरु, और अन्य करायेदारों के बच्चे टीपरेस, कन्ना गोटी, खर्रा, खोखो खेलते। उन्हें सबसे अधिक ख़राब लगते थे ज्वाला चच्चा (ज्वाला प्रसाद वर्मा, स्वतंत्रता सत्याग्रही जिन्हें कारावास हुआ था) जो अपने कुछ साथियों के साथ आते। सबके सिरों पर सफ़ेद टोपी और सफेद ही कपड़े होते। वे आपस में अजीब अजीब बातें करते। आस-पास खेलते-खेलते रामरती को अंग्रेज, आजादी, सत्याग्रह, अत्याचार, तिरंगा आदि शब्द सुनाई दे जाते तो उसके मन में उत्सुकता जागती कि यह क्या है? वे लोग थैलों में पभुत से पर्चे लाते, फिर आपस में बाँट लेते और उपरायणगंज, दीक्षितपुरा, सिमरियावाली रानी की कोठी की गलियों में चलेजाते। कभी-कभी पुलिस के सिपाही भी बाड़े में आते, बड़ों को डाँटते, छोटों को भगा देते लेकिन उनके आने के पहले ही ज्वाला चच्चा की मित्र मंडली दबे पाँव गलियों में गुम हो जाती।


एक दिन खेलते-खेलते बाड़े में बने पुराने कुएँ की जगत पर उसने पढ़ा 'नानक चंद'। कौन था यह नानक चंद? अपनी माँ से पूछा तो डाँट पड़ी कि फालतू बातों से दूर रहो। एक दिन वह पड़ोस के बच्चों के बाड़े के साथ बाड़े के बड़े दरवाजे के पास साथ सड़क पर खेल रही थी क्योंकि ज्वाला चच्चा अपने मित्रों के साथ मंदिर के पीछे बातचीत कर रहे थे। रामरती की नजर सड़क की तरफ पड़ी तो उसे कुछ सिपाही आते दिखे, बाकी बच्चे तो खेल में मग्न थे पर रामरती को न जाने क्या सूझा, ज्वाला चच्चा से डाँट पड़ने का भय भूलकर वह मंदिर की ओर दौड़ पड़ी चिल्लाते हुए 'पुलिस आई', जैसे ही सत्याग्रहियों ने आवाज सुनी वे बाड़े के पिछवाड़े से मुसलमानों की गली में कूद कर भाग गए। पुलिस के जवान जब तक बड़े के अंदर घुसे, चिड़िया उड़ चुकी थी, उनके हाथ कुछ न लगा। आसपास के लोगों को धमकाते-गालियाँ बकते पूछताछ करते रहे पर किसी ने कुछ न बताया। खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे, आखिरकार चले गए।


उस दिन के बाद ज्वाला चच्चा और उनके साथी बच्चों को डाँटते नहीं थे। बच्चे खेलते रहते, वे लोग अपना काम करते रहते, कभी-कभी बच्चों के हाथ पर अधेला रख देते कि सेव-जलेबी खा लेना। रामरती उनके स्नेह की विशेष पात्र थी। एक दिन ज्वाला चच्चा पर्चों का थैला लिए आए लेकिन उनके दो साथ नहीं आए। वे परेशान थे कि उनके पर्चे कैसे उन तक जाएँ? रामरती देखती थी ज्वाला चच्चा के साथ रहनेवाले जमुना कक्का नहीं थे। जमुना कक्का उसके पिता के भी मित्र थे, कई बार दोनों साथ-साथ काम करते थे। रामरती पिता के साथ जमुना कक्का के घर भी हो आई थी। उसने ज्वाला चच्चा से पूछ लिया 'जमुना कक्का नई आए?' चच्चा ने घूर कर देखा तो वह डर गई पर हिम्मत कर फिर कहा 'हमें उनको घर मालून आय, परचा पौंचा दें?' अब चच्चा ने उस की तरफ ध्यान दिया और पूछा 'डर ना लगहै?, कैसे जइहो? पुलिस बारे भी तो हैं।'


'चच्चा तनकऊ फिकिर नें करो हम बस्ता में किताबों के बीच परचा छिपा लैहें और मनी भैया साथ दे आहें। हमने बाबू (पिता) के संगै उनको घर है।' चच्चा हिचकते रहे पर और कोई चारा न देख रामरती के बस्ते में पर्चे रख दिए। रामरती दे आई। चच्चा के साथी 'एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गांधी की' बोलकर घर-घर से चवन्नी माँगते। सुन सुन कर यह नारा बच्चों को भी याद हो गया। वे झंडा ऊँचा रहे हमारा, चलो दिल्ली, जय हिन्द जैसे नारे लगते और बड़ों की नकल कर जुलुस की तरह निकलते। पुलिस के सिपाही खिसियाकर भगाते और बच्चे झट से घरों में जा छिपते। सत्याग्रहियों और बच्चों में यह तालमेल चलता रहा, पुलिस के सिपाही खिसियाते रहे। एक दिन एक सिपाही ने रामरती की पीठ पर धौल जमा दी, वह औंधे मुँह गिरी तो घुटना और माथा चोटिल हो गया। माँ ने पूछा तो उसने कहा कि एक सांड दौड़ा आ रहा था, उससे बचने के लिए दौड़ी तो गिर पड़ी। इस घटना के बाद भी पर्चे पहुँचाने, चंदा इकठ्ठा करने, पुलिस की आवागमन से सत्याग्रहियों को खबरदार करने जैसे काम करती रही।


रामरती सातवीं कक्षा में थी जब सुना कि देश आज़ाद हो गया। खूब रौनक रही। रामरती 'पुअर बॉयस फंड' से वजीफा पाकर सेंट नॉर्बट स्कूल में पढ़ रही थे। उसके भाई मणि को उनके निस्संतान रेलवेकर्मी मामा नारायणदास अवध ने गोद ले लिया था। आठवीं कक्षा पास कर रामरती अपनी ननहाल राहतगढ़ (सागर) चली गई। मैट्रिक पास कर, ट्रेनिंग कर शिक्षिका हो गयी और प्राइवेट पढ़ती भी रही। कांग्रेस सेवादल के कैंप में उसकी मुलाकात अन्य कार्यकर्ता शंकरलाल कौशिक हुई जो बेगमगंज का निवासी था। वह भोपाल रियासत के कोंग्रेसी नेता शंकर दयाल शर्मा (कालांतर में भारत के राष्ट्रपति हुए) के निकट था। प्राइवेट बस में कंडक्टरी और पढ़ाई साथ-साथ करता। कांग्रेस की गतिविधियों और बस स्कूल जाते-आते समय उनकी मुलाकातें पहले आकर्षण और फिर प्रेम में बदल गई। दोनों के घरवालों ने जातिभेद के कारण विरोध किया। शंकरलाल की मेहनत और ईमानदारी के कारण वह शर्मा जी के घर के सदस्य की तरह हो गया था। शर्मा जी के आशीर्वाद से दोनों ने शादी कर ली। दोनों का जीवट और संघर्ष लाया। शंकर लाल डिप्लोमा पास कर बी एच ई एल भोपाल में सुपरवाइज़र हो गया। रामरती शासकीय शिक्षिका हो गई। दोनों के तीन बच्चे हुए। रामरती की कलात्मक अभिरुचि ने उसे गणतंत्र दिवस व स्वाधीनता झाँकियों को बनाने दिलाया। वह भोपाल और दिल्ली में पुरस्कृत हुई, पदोन्नत होकर प्राचार्य हो गई।


शंकरलाल, शर्मा जी के साथ आंदोलन में कारावास भी जा चुका था। स्वतंत्रता सत्याग्रहियों को सम्मान और लाभ मिलने के अनेक अवसर आए पर दोनों ने इंकार कर दिया की उन्होंने जो भी किया, देश के लिए किया, यह उनका कर्तव्य था और उन्हें कोई सम्मान या लाभ की लालच नहीं है। एक ओर सुविधाओं की लालच में लोग स्वतंत्रता सत्याग्रही होने के झूठे दावे कर रहे थे, दूसरी यह सच्चा सत्याग्रही दंपत्ति किसी लाभ को लेने से इंकार कर जीवन में संघर्ष कर रहा था। इस कारण दोनों का सम्मान बढ़ा। बच्चों के विवाह में शर्मा जी उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति होते हुए भी बच्चों को आशीर्वाद देने आए। उन्होंने अपने बच्चों के विवाह बिना किसी लेन-देन के किए। रामरती का बड़ा लड़का विजय वायुसेना में ग्रुपकैप्टन पद से सेवानिवृत्त होकर अहमदाबाद में है। छोटा लड़का विनय दिल्ली में उद्योगपति है और लड़की वंदना अपनी ससुराल में कोलकाता है।
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