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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

लघुकथा भवानी

लघुकथा
भवानी
*
वह महाविद्यालय में अध्ययन कर रही थी। अवकाश में दादा-दादी से मिलने गाँव आई तो देखा जंगल काटकर, खेती नष्ट कर ठेकेदार रेत खुदाई करवा रहा है। वे वृक्ष जिनकी छाँह में उसने गुड़ियों को ब्याह रचाए थे, कन्नागोटी, पिट्टू और टीप रेस खेले थे, नौ दुर्गा व्रत के बाद कन्या भोज किया था और सदियों की शादी के बाद रो-रोकर उन्हें बिदा किया था अब कटनेवाले थे। इन्हीं झाड़ों की छाँह में पंचायत बैठती थी, गर्मी के दिनों में चारपाइयाँ बिछतीं तो सावन में झूल डल जाते थे।
हर चेहरे पर छाई मुर्दनी उसके मन को अशांत किए थी। रात भर सो नहीं सकी वह, सोचता रही यह कैसा लोकतंत्र और विकास है जिसके लिए लोक की छाती पर तंत्र दाल दल रहा है। कुछ तो करना है पर कब, कैसे?
सवेरे ऊगते सूरज की किरणों के साथ वह कर चुकी थी निर्णय। झटपट महिलाओं-बच्चों को एकत्र किया और रणनीति बनाकर हर वृक्ष के निकट कुछ बच्चे एकत्र हो गए। वृक्ष कटने के पूर्व ही नारियाँ और बच्चे उनसे लिपट जाते। ठेकेदार के दुर्गेश ने बल प्रयोग करने का प्रयास किया तो अब तक चुप रहे पुरुष वर्ग
का खून खौल उठा। वे लाठियाँ लेकर निकल आए।
उसने जैसे-तैसे उन्हें रोका और उन्हें बाकी वृक्षों की रक्षा हेतु भेज दिया। खबर फैला अखबारनवीस और टी. वी. चैनल के नुमाइंदों ने समाचार प्रसारित कर दिया।
एक जग-हितकारी याचिका की सुनवाई को बाद न्यायालय ने परियोजना पर स्थगन लगा गिया। जनतंत्र में जनमत की जीत हुई।
उसने विकास के नाम पर किए जा रहे विनाश का रथ रोक दिया था और जनगण ने उसे दे दिया था एक नया नाम भवानी।
***
संवस
३०-४-२०१९
७९९९५५९६१८

मुक्तिका साधना छंद

मुक्तिका
छंद: साधना छंद
विधान: पंचमात्रिक, पदांत गुरु।
गण सूत्र: रगण
*
एक दो
मूक हो
भक्त हो?
वोट दो
मन नहीं?
नोट लो
दोष ही
'कोट' हो
हँस छिपा
खोट को
विमत को
सोंट दो
बात हर
चोट हो

* 

शराब दुकान और महिला

शराब दूकान दो खबरें : ३०-४-२०१०

शराब की दूकानों का ठेका लेने महिलाओं के हजारों आवेदन. आपकी राय ?
*
मधुशाला को मधुबाला ने निशा निमंत्रण भेजा है.
पीनेवालों समाचार क्या तुमने देख सहेजा है?
दूना नशा मिलेगा तुमको आँखों से औ' प्याले से.
कैसे सम्हल सकेगा बोलो इतना नशा सम्हाले से?
३०-४-२०१०
*
खबर २०१७
शराब की दुकानों के विरोध में महिलाओं द्वारा हमला
*
शासक बदला, शासन बदला, जनता बदली जागी है
साकी ने हाथों में थमाई है मशाल, खुद आगी है
मधुशाला के मादक भागे, मंदिर में जा गहो शरण
'तीन तलाकी' सम्हलो, 'खुला' ही तुम लुच्चों की चावी है
***

मुक्तिका

मुक्तिका: ग़ज़ल
muktika/gazal
संजीव वर्मा 'सलिल'
sanjiv verma 'salil'
*
निर्जीव को संजीव बनाने की बात कर
हारे हुओं को जंग जिताने की बात कर
nirjeev ko sanjeev banane ki baat kar
hare huon ko jang jitane ki baat kar
'भू माफिये'! भूचाल कहे: 'मत जमीं दबा
जो जोड़ ली है उसको लुटाने की बात कर'
'bhoo mafiye' bhoochal kahe: mat jameen daba
jo jod li hai usko lutane kee baat kar
'आँखें मिलायें' मौत से कहती है ज़िंदगी
आ मारने के बाद जिलाने की बात कर
aankhen milayen maut se kahtee hai zindagi
'aa, marne ke baad jilaane ki baat kar'
तूने गिराये हैं मकां बाकी हैं हौसले
काँटों के बीच फूल खिलाने की बात कर
toone giraye hain makan, baki hain hausale
kaanon ke beech fool khilane kee baat kar
हे नाथ पशुपति! रूठ मत तू नीलकंठ है
हमसे ज़हर को अमिय बनाने की बात कर
he nath pashupati! rooth mat too neelkanth hai
hmse zar ko amiy banane kee baat kar
पत्थर से कलेजे में रहे स्नेह 'सलिल' भी
आ वेदना से गंग बहाने की बात कर
patthar se kaleje men rahe sneh salil bhee
aa vedana se gng bahane kee baat kar
नेपाल पालता रहा विश्वास हमेशा
चल इस धरा पे स्वर्ग बसाने की बात कर
nepaal palta raha vishwas hamesha
chal is dhara pe swarg basane kee baat kar
***
३०-४-२०१५

गीत

गीत:
समय की करवटों के साथ
संजीव
*
गले सच को लगा लूँ मैँ समय की करवटों के साथ
झुकाया, ना झुकाऊँगा असत के सामने मैं माथ...
*
करूँ मतदान तज मत-दान बदलूँगा समय-धारा
व्यवस्था से असहमत है, न जनगण किंतु है हारा
न मत दूँगा किसी को यदि नहीं है योग्य कोई भी-
न दलदल दलों का है साध्य, हमको देश है प्यारा
गिरहकट, चोर, डाकू, मवाली दल बनाकर आये
मिया मिट्ठू न जनगण को तनिक भी कभी भी भाये
चुनें सज्जन चरित्री व्यक्ति जो घपला प्रथा छोड़ें
प्रशासन को कसें, उद्यम-दिशा को जमीं से जोड़ें
विदेशी ताकतों से ले न कर्जे, पसारे मत हाथ.…
*
लगा चौपाल में संसद, बनाओ नीति जनहित क़ी
तजो सुविधाएँ-भत्ते, सादगी से रहो, चाहत की
धनी का धन घटे, निर्धन न भूखा कोई सोएगा-
पुलिस सेवक बने जन की, न अफसर अनय बोएगा
सुनें जज पंच बन फ़रियाद, दें निर्णय न देरी हो
वकीली फ़ीस में घर बेच ना दुनिया अँधेरी हो
मिले श्रम को प्रतिष्ठा, योग्यता ही पा सके अवसर
न मँहगाई गगनचुंबी, न जनता मात्र चेरी हो
न अबसे तंत्र होगा लोक का स्वामी, न जन का नाथ…
*
३०-४-२०१४

बुंदेली कहानी कचोंट डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव

बुंदेली कहानी
कचोंट
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव
*
सत्तनारान तिबारीजी बराण्डा में बैठे मिसराजी के घर की तरपीं देख रअे ते और उनें कल्ल की खुसयाली सिनेमा की रील घाईं दिखा रईं तीं। मिसराजी के इंजीनियर लड़का रघबंस को ब्याओ आपीसर कालोनी के अवस्थी तैसीलदार की बिटिया के संगें तै हो गओ तो। कल्ल ओली-मुंदरी के लयं लड़का के ममआओरे-ददयाओरे सब कहुँ सें नाते-रिस्तेदारों को आबो-जाबो लगो रओ। बे ओंरें तिबारीजी खों भी आंगें करकें समद्याने लै गअे ते। लहंगा-फरिया में सजी मोड़ी पूजा पुतरिया सी लग रई ती। जी जुड़ा गओ। आज मिसराजी कें सूनर मची ती। खबास ने बंदनबार बाँदे हते, सो बेई उतरत दुफैरी की ब्यार में झरझरा रअे ते।
इत्ते में भरभरा कें एक मोटर-साइकल मिसराजी के घर के सामनें रुकी। मिसराजी अपनी दिल्लान में बाहर खों निकर कें आय, के, को आय ? तबई्र एक लड़किनी जीन्स-सर्ट-जूतों में उतरी और एक हांत में चाबी घुमात भई मिसराजी के पाँव-से परबे खों तनक-मनक झुकी और कहन लगी - ‘पापाजी, रघुवंश है ?’ मिसराजी तो ऐंसे हक्के-बक्के रै गअे के उनको बकइ नैं फूटो। मों बांयं, आँखें फाड़ें बिन्नो बाई खों देखत रै गये। इत्ते में रघबंस खुदई कमीज की बटनें लगात भीतर सें निकरे और बोले - ‘पापा, मैं पूजा के साथ जा रहा हूँ। हम बाहर ही खा लेंगे। लौटने में देर होगी।’ मिसराजी तो जैंसई पत्थर की मूरत से ठांड़े हते, ऊँसई ठांडे़ के ठांड़े रै गय। मोटरसाइकल हबा हो गई। तब लौं मिसराइन घुंघटा सम्हारत बाहरै आ गईं - काय, को हतो ? अब मिसराजी की सुर्त लौटी - अरे, कोउ नईं, तुम तो भीतरै चलो। कहकैं मिसराइन खों ढकेलत-से भीतरैं लोआ लै गअे। तिबारी जी चीन्ह गअे के जा तो बई कन्या हती, जीके सगुन-सात के लयं गअे हते। तिबारी जी जमाने को चलन देखकैं मनइं मन मुस्कान लगे। नांय-मांय देखो, कोउ नैं हतौ कै बतया लेते। आज की मरयादा तो देखो। कैंसी बेह्याई है ? फिर कुजाने का खेयाल आ गओ के तिलबिला-से गअे। उनकें सामनें सत्तर साल पैलें की बातें घूम गईं। आज भलेंईं तिबारीजी को भरौ-पूरौ परिबार हतो, बेटा-बेटी-नाती-पोता हते, उनईं की सूद पै चलबे बारीं गोरी-नारी तिबारन हतीं, मनां बा कचोंट आज लौं कसकत ती।
सत्तनारान तिबारी जी को पैलो ब्याओ हो गओ तो, जब बे हते पन्दरा साल के। दसमीं में पड़त ते। आजी की जिद्द हती, जीके मारें; मनों दद्दा ने कड़क कें कै दइ ती कै हमाये सत्तू पुरोहितयाई नैं करहैं। जब लौं बकालत की पड़ाई नैं कर लैंहैं, बहू कौ मों नैं देखहैं। आज ब्याओ भलेंईं कल्लो, मनों गौनौ हूहै, जब सही समौ आहै। सो, ब्याओ तो हो गओ। खूब ढपला बजे, खूब पंगतें भईं। मनों बहू की बिदा नैं कराई गई। सत्तू तिबारी मेटरिक करकें गंजबसौदा सें इन्दौर चले गअे और कमरा लें कें कालेज की पड़ाई में लग गअे। उनके संग के और भी हते दो चार गाँव-खेड़े के लड़का, जिनके ब्याओ हो गअे हते, कइअक तो बाप सुंदां बन गअे हते। सत्तू तो बहू की मायाजाल में नैं परे ते, मनो समजदार तो हो गय ते। कभउँ-कभउँ सोच जरूर लेबें कै कैंसो रूप-सरूप हुइये देबासबारी को, हमाय लयं का सोचत हुइये, अब तो चाय स्यानी हो गई हुइये।
खबर परी कै देबास बारी खूबइ बीमार है और इन्दौर की बड़ी अस्पताल में भरती है। अब जौन भी आय, चाय देबास सें, चाय गंजबसौदा सें, सत्तू केइ कमरा पै ठैरै। सत्तू सुनत रैबें के तबीअत दिन पै दिन गिरतइ जा रइ है, सेबा-सम्हार सब बिरथां जा रइ है। सत्तू फड़फड़ायं कै हमइ देख आबें, मनों कौनउ नें उनसें नईं कई, कै तुमइ चलो। दद्दा आय, कक्का आय, बड़े भैया आय मनों आहाँ। जे सकोच में रय आय और महिना-दो महिना में सुनी कै डाकटरों ने सबखां लौटार दओ। फिर महीना खाँड़ में देबास सें जा भी खबर आ गई कै दुलहन नईं रई। जे गतको-सो खाकैं रै गअे।
एइ बात की कचोंट आज तलक रै गई कै जीखौं अरधांगनी बनाओ, फेरे डारे, सात-पाँच बचन कहे-सुने, ऊ ब्याहता को हम मों तक नैं देख पाय। बा सुइ पति के दरसनों खों तरसत चली गई और हम पोंचे लौं नईं, नैं दो बोल बोल पाय। हम सांगरे मरयादइ पालत रै गअे। ईसें तो आजइ को जमानो अच्छो है। संग-साथ क बचन तो निभा रय। हमें तो बस, बारा-तेरा साल की बहू को हांत छूबो याद रै गओ जिन्दगी-भर के लयं, जब पानीग्रहन में देबास बारी को हाथ छुओ तो।,,,,,,और बोइ आज लौं कचोंट रओ।
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बुंदेली कहानी स्वयंसिद्धा डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव

बुंदेली कहानी
स्वयंसिद्धा
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव
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पंडत कपिलनरायन मिसरा कोंरजा में संसकिरित बिद्यालय के अध्यापक हते। सूदो सरल गउ सुभाव। सदा सरबदा पान की लाली सें रचौ, हँसत मुस्कात मुँह। एकइ बिटिया, निरमला, देखबे दिखाबे में और बोलचाल में बिलकुल ‘निर्मला’। मिसराजी मोड़ी के मताई-दद्दा दोइ। मिसराजी की पहली ब्याहीं तो गौना होकें आईं आईं हतीं, कै मोतीझिरा बब्बा लै गए और दूसरी निरमला की माता एक बालक खों जनम देत में ओइ के संगे सिधार गईं तीं। ईके बाद तीसरी बार हल्दी चढ़वाबे सें नाहीं कर दई मिसराजी ने।
निरमला ब्याह जोग भईं, तो बताबे बारे ने खजरा के पंडत अजुद्धा परसाद पुरोहित के इतै बात चलाबे की सलाय दइ। जानत ते मिसराजी उनें। अपनेइं गाँव में नईं, बीस कोस तक के गांवों में बड़ो मान हतो पुरोहिज्जी को। जे बखत तिरपुण्ड लगाएं गैल में निकर परैं, सो आबे-जाबे बारे नोहर-नोहर के ‘पाय लागौं पंडज्जी’ कहत भए किनारे ठांड़े हो जाएं। बे पंचों में भी सामिल हते। देख भर लेबें कौनउ अन्नाय, दलांक परैं। मों बन्द कर देबैं सबके। चाय कौनउ नेता आए, चाय कौनउ आफीसर, बिना पुरोहिज्जी की मत लयं बात नइं बढ़ सकै।
ऊँचो ग्यान हतो उनको। जित्ते पोथी-पत्तर पढ़े ते, उत्तइ बेद-पुरान। मनों, बोलत ते बुंदेली। जब मौज में आ जायं, तो खूब सैरा-तैया, ईसुरी की फागें छेड़ देबैं। कहैं कै अपनी बुंदेली में बीररस के गीत फबत हैं और सिंगार रस के भी। बुंदेली के हिज्जे में जोन ऊपर बुंदी लगी है, बइ है सिंगार के लयं। मिसराजी ने पुरोहिज्जी खों सागर जिले के ‘बुंदेलखण्डी समारोह’ में देखो हतो। मंच पै जब उनें माला-आला डर गई, तो ठांड़े होकें पैलें उनने संचालकों खोंइ दो सुना दईं। अरे, बातें बुंदेलखंड की करबे आए हो, मनों बता रय हो खड़ी बोली में। बुंदेली कौ उद्धार चाहत हो, तो बोल-चाल में लाओ। जित्ती मिठास और जित्तो अपनोपन ई बोली में मिलहै, कहुँ नें मिलहै। किताब में लिख देबै सें बोली कौ रस नइ समज में आत। हर बोली बोलबे कौ अलग ढंग होत है। अलग भांस होत है हर भासा की, अलग लटका। कब ‘अे’ कहनें है, कब ‘अै’, कब ‘ओ’ कब ‘औ’। जा बात बिना बोलें, नइंर् समजाइ जा सकत। फिर नैं कहियो के नई पीढ़ी सीख नईं रइ, अरे तुम सिखाओ तो। और नइं तो तुमाय जे सब समारोह बेकार हैं। उनके हते तीन लड़का- राधाबल्लभ, स्यामबल्लभ और रमाबल्लभ। राधाबल्लभ के ब्याह के बाद
स्यामबल्लभ के लयं संबंध आन लगे ते। मजे की बात एेंसी भई; कै पुरोहिज्जी खों कोंरजइ बुलाओ गऔ भागवत बांचबे। बे भागवत भी बांचत हते और रामान भी। चाए किसन भगवान को द्वारकापिरस्तान होय, चाय सीतामैया की अग्निपरिच्छा, सुनबे बारों के अंसुआ ढरकन लगें। सत्तनारान की कथा तो ऐंसी, कै लगै मानों लीलाबती कलाबती अपनी महतारी-बिटियें होयं।
मिसराजी प्रबचन के बाद पुरोहिज्जी खों अपने घरै लै गए। घर की देख-संभार तौ निरमलइ करत ती। घिनौची तो, बासन तो, उन्ना-लत्ता तो, सब नीचट मांज-चमका कें, धो-धोधा कैं रखत ती। छुइ की ढिग सुंदा उम्दा गोबर से लिपौ आंगन देखकें पुरोहिज्जी की आत्मा पिरसन्न हो गई। दोइ पंडत बैठकें बतयान लगे कै बालमीकी की रामान और तुलसी की रामान में का-कित्तो फरक है। मौका देखकें मिसराजी बात छेडबे की बिचारइ रय ते; कै ओइ समै निरमला छुइ-गेरु सें जगमग तुलसी-चौरा में दिया बारबे आई। दीपक के उजयारे में बिन्नाबाई को मुँह चंदा-सो दमक उठौ। पुरोहिज्जी ने ‘संध्याबन्दन’ में हांत जोरे और निरमला खों अपने घर की बहू बनाबे को निस्चै कर लओ। कुंडलीमिलान के चक्कर में सोनचिरैया सी कन्या नें हांत से निकर जाय, सो कुंडली की बातइ नइं करी और पंचांग देखकें निरमला सें स्यामबल्लभ को ब्याओ करा दओ।
मंजले स्यामबल्लभ खों पुरोहिज्जी ने अपनो चेला बनाकें अपनेइ पास रक्खौ हतौ। एकदम गोरौ रंग, ऊँचो माथो, घुंघरारे बाल और बड़ी-बड़ी आँखें। गोल-मटोल धरे ते, जैंसे मताइ ने खूब माखन-मिसरी खबाइ होय। जब पुरोहिज्जी भागवत सुनांय, तो स्यामबल्लभ बीच-बीच में तान छेड़ देबैं। मीठो गरो, नइ-नइ रागें।
हरमुनियां पै ऐंसे-ऐंसे लहरा छेड़ें कै लगै करेजौ निकर परहै। सोइ रामान में एक सें एक धुनों में चौपाइएं। जब नारज्जी बन्दर बन गए, तो अलग लै-राग-ताल, कै पेट में हँसी कुलबुलान लगै और जब राम बनबास खों निकरन लगे, तो अलग कै रुहाइ छूट जाए।
बड़े राधाबल्लभ ने धुप्पल में रेलबइ को फारम भर दऔ और नौकरी पा गए। अपने बाल-बच्चा समेट कें, पेटी दबाकें निकर गए भुसावल। एकाद साल बाद लौटे, तो हुलिया बदल गई हती, बोली बदल गई हती। सो कछु नईं। मनों जब पुरोहिज्जी ने सुनी के बे खात-खोआत हैं, बस बिगर गए। बात जादई बढ़ गई, पिता ने चार जनों के सामनें थुक्का-फजीहत कर दई, सो राधाबल्लभ ने घरइ आबो छोड़ दओ।
छोटे रमाबल्लभ की अंगरेजी की समज ठीक हती, सो उनइं खों जमीन-जायदाद, खेती-बाड़ी, ढोर-जनावर, अनाज-पानी, कोर्ट-कचैरी की जिम्मेदारी दइ गई। रमाबल्लभ भी राजी हते, कायसें के ई बहाने, कछु रुपैया-पैसा उनके हांत में रैन लगौ तो।
निरमला खों तो सास के दरसनइ नईं मिले। बउ तो तीनइ चार दिनां के बुखार में चट्ट-पट्ट हो गईं तीं। बड़ी बहू घर की मालकन हती। मनों, जब बे बाहरी हो गईं, तो एइ ने हुसियारी सें घर सम्हार लओ। सुघर तौ हती; ऊपर सें भगवान नैं रूप ऐंसो दओ तो कै सेंदुर भरी मांग, लाल बड़ी टिबकी, सुन्ने के झुमकी, नाक की पुंगरिया, चुड़ियों भरे हांत, पांवों में झमझमात तोड़ल-बिछिया और सूदे पल्ले को घुंघटा देखकें लगै कै बैभोलच्छमी माता की खास किरपा ऐइ पै परी है। पुरोहिज्जी ने बहुओं खों खूब चाँदी-सोना चढ़ाओ हतौ।
छोटे रमाबल्लभ की बहू सुसमा सो निरमला केइ पीछें-पीछें लगी रहै और छोटी बहन घाईं दबी रहै। ओकी तीसरी जचकी निरमला नेंइं संभारीं, हरीरा सें, लड़ुअन सें, घी-हल्दी सें, मालिस-सिंकाई सें, कहूं कमी नैं रैन दइ। हाली-फूली निरमला ने खुदइ चरुआ चढ़ा लओ, खुदइ छठमाता पूज लइं, खुदइ सतिया बना लय, खुदइ दस्टौन, कुआपुजाइ, मातापूजा, झूला, पसनी सब कर लओ। कच्छु नैं छोड़ो। अपने दोइ लड़कों, माधवकान्त और केसवकान्त खों बिठार दओ कै पीले और गुलाबी झिलमिल कागज के चौखुट्टे टुकड़ों में दो-दो बड़े बतासा ध्ा रत जावें और धागा बांध कें पुड़ियें बनावें। निरमला ने खूब बुलौआ करे, बतासा बांटे, न्यौछावरें करीं। ढुलकिया तो ऐंसी ठनकी के चार गांव सुनाइ दइ -‘मोरी ढोलक लाल गुलाल, चतुर गावनहारी।’ एक सें एक हंसी-मजाक कीं, खुसयाली कीं, दुनियांदारी कीं, नेग-दस्तूर कीं जच्चा, सोहर, बधाईं। दाइ-खबासन सब खुस। निरमला-सुसमा दोइ के पैले जापे तो जिठानी ने जस-तस निबटा लय ते। एक बे तो फूहड़ हतीं, दूसरें भण्डारे की चाबी धोती के छुड्डा सें छूट नै सकत ती। मनों निरमला की देखादेखी सुसमा ने भी कभउँ उनकी सिकायत नें करी। बड़ी सबर बारी कहाईं। तबइ तो पुरोहिज्जी के घर में लच्छमी बरसत ती।
पुरोहिज्जी निरमला खों इत्ते मुकते काम एक संगे निबटात देख कें मनइ-मन सोचन लगें कै जा बहू तो अस्टभुजाधारी दुरगामैया को औतार है - नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः। गांव-बस्ती में भी खूब जस हो गओ निरमला को। कहूं सुहागलें होयं, कहूं सात सुहागलों के हातों ब्याओ के बरी-पापर बनन लगें, बर-बधू खों हल्दी-तेल चढ़न लगै, तो सगुन-सात के कामों में निरमला को हांत सबसे पहले लगवाओ जाए। एक तो बाम्हनों के घर कीं, फिर उनके गुन-ढंग लच्छमी से।
मनों का सब दिन एकइ से रहत हैं ? बिधि को बिधान। पुरोहिज्जी मों-अंधेरें खेतों की तरप जात हते। एक दिन लौटे नइं। निरमला खों फिकर मच गई। इत्ते बखत तक तो उनके इस्नान-ध्यान, पाठ-पूजा, आरती-परसाद सब हो जात तो, आज कितै अटक गए ? स्याम, रमा, माधव, केसव सब दौर परे। देखत का हैं के खेत की मेंड़ पे ओंधे मों डरे हैं, बदन नीलो पर गओ है, मुँह सें फसूकर निकर रओ है। तब लौं गांव के और आदमी भी उतइं पोंच गए। समज गए कै नागराज डस गए। पूरे दिन गुनिया, झरैया, फुंकैया सब लगे रहे कै नागदेवता आएं और अपनौ जहर लौटार लयं। गांव भर में चूल्हो नइं जरौ उदिना। सब हाहाकार करें, मनों आहाँं; कुजाने कौन से बिल में बिला गओ बो नांग। संझा लौं एक जनो तहसील सें डाक्टर खों बुला लै आओ, मनों ऊने आतइं इसारा कर दओ कै अब देर हो गई।
पुरोहिज्जी के जाबे सें अंधयारो सो छा गओ। पूजा-रचा, उपास-तिरास, जग्ग-हबन को बो आनन्द खतम हो गओ। सबने स्यामबल्लभ खोंइ समजाओ कै बेइ पुरोहताई संभारें। निरमला नें बाम्हनों के नेम-धरम और घर की मान-मर्जादा की बातें समजाईं। सो उनने बांध लई हिम्मत। अब बेइ पूजन-पुजन लगे। निरमला को नाम पर गओ, पंडतान बाई।
निरमला पंडतान को पूरो खेयाल ए बात पै रहत हतो कै ओके लड़का का पढ़ रय, का लिख रय, किते जात हैं, कौन के संगे खेलत-फिरत हैं, बड़ों के सांमने कैंसो आचरन करत हैं। तनक इतै उतै होयं, तो साम दाम दंड भेद सब बिध से रस्ता पे लै आय। निरमला ने अपने पिता के घर में सीखे नर्मदाष्टक, गोविन्दाष्टक, शिवताण्डवस्तोत्र, दुर्गाकवच, रामरक्षास्तोत्र, गीता के इस्लोक सबइ कछु बिल्लकुल किताब घाईं मुखाग्र करवा दय लड़कों खों। बड़े तेज हते बालक। स्यामबल्लभ ने बच्चों की कभउँ सुर्त नैं लइ। अपनी बन-ठन, तिलक-चन्दन मेंइं घंटाक निकार देबैं। नैं लड़कों खो उनसें मतलब, नैं उनें लड़कों सें। हाँ घर लौटें, सो जरूर लड़कों में आरती-दच्छना की चिल्लर गिनबे की होड़ लग जाए। निरमला भोग के फल-मिठाई संभार कें रख लेबै और सबखों परस कें ख्वा देबै। ओके मन में अपने लड़कों और सुसमा के बाल-बच्चों में भेद नैं हतो।
होत-होत, कहुँ सें साधुओं कौ एक दल गाँव में आ गऔ। गांवबारों नै खूब आव-भगत करी, प्रबचन सुने, दान-दच्छना दइ। खूब धूनी रमत ती। स्यामबल्लभ उनके संगे बैठें, तो बड़ो अच्छौ लगै। मंडली खों हती गांजा-चरस की लत। सो बइ लत लगा दइ स्यामबल्लभ खों। अब बे सग्गे लगन लगे और घर-संसार मोहमाया। निरमला ने ताड़ लओ, मनों स्यामबल्लभ नें घरबारी की बात नैं सुनीं। हटकत-हटकत उनइं के महन्त के सामनें भभूत लपेट कें गंगाजली उठा लइ और हो गए साधू। गाँव बारों ने खूब जैकारो करौ। धन्न-धन्न मच गई। गतकौ सो लगौ निरमला खों। कछू नैं समज परौ। तकदीर खों कोस कें रै गई। साधुओं कौ दल स्यामबल्लभानन्द महाराज खों लैकें आंगें निकर गओ। गांव में निरमला कौ मान और बढ़ गओ। जा कौ पति साधु-सन्त हो जाए, तो बा भी सन्तां से कम नइं। ठकरान, ललयान, बबयान, मिसरान सब पाँव परन लगीं। मनों निरमला के मन पै का बीत रइ हती ? लड़काबारे छोटे-छोटे, कमैया छोडकें चलौ गओ। कछू दिनां तो धरे-धराय सें काम चलत रहौ, मनों बैठ के खाओ तौ कुबेर कौ धन सुइ ओंछ जाय। एक-एक करकें चीजें-बसत बिकन लगीं। आठ-दस बासन भी निकार दय। उतै रमाकान्त ने पटवारी सें मिलीभगत करकें जमीन और घर अपने नाम करवा लओ। कोइ हतौ नइं देखबे बारौ, सो कर लइ मनमरजी। कहबै खों तो निरमला और बच्चों की मूड़ पै छत्त नैं रइ ती, मनों सुसमा अड़ गई कै जिज्जी एइ घर में रैहें, भलें तुम और जो चाहे मनमानी कर लो।
चलो, एक कुठरिया तौ मिल गई, मनों खरचा-पानी कैंसें चलत ? रमाबल्लभ ने पूंछो भी नइं और पूंछते तो का इत्ते छल-कपट के बाद निरमला उनको एसान लेती ? लड़का बोले, माइ! अब हम इस्कूल नैं जैहैं।
बस, निरमला पंडतान की इत्ते दिनों की भड़ास निकर परी - काय, तौ का बाप घाईं भभूत चुपर कें साधू बन जैहौ ? दुआर-दुआर जाकें मांगे की खैहौ ? दूसरों के दया पै पलहौ ? अरे हौ, सो तुमइं भांग में डूबे रइयो, गांजा-चरस के सुट्टा लगइयो, गैरहोस होकें परे रइयो, कै जनता समजे महात्माजी समादी में हैं। झूंठो छल, झूंठो पिरपंच। अपने आलसीपने खों, निकम्मेपने खों धरम को नाम दै दऔ; सो मुफत की खा रय और गर्रा रय।
सब ठठकरम, सब ढकोसला। साधुओं की जमात में भगत हैं, भगतनें हैं, कमी कौन बात की उनें ? नें बे देस के काम आ रय, नें समाज के, नें परिबार के। अपनौ पेट भर रय और जनता खों उल्लू बना रय। ऊँसइ बेअकल बे भक्त, अंधरया कें कौनउ खों भी पूजन लगत हैं। और सच्ची पूंछो तो, कइयक तो अपनी उल्टी-सूदी कमाई लुकाबे के लानें धरम को खाता खोल लेत हैं और धरमात्मा कहान लगत हैं।
कान खोल कें सुन लो, माधोकान्त और केसोकान्त! तुमें जनम देबै बारो तो अपनी जिम्मेबारियों सें भग गओ कै उनकी औलाद खों हम पालैं, कायसें के हमाए पेट सें निकरे हो। मनों बे हमें कम नैं समजें। अबे समै खराब है, सो चलन दो। कल्ल खों हम अपने हीरा-से लड़कों खों एैसो बना दैहें के फिर पुरोहिज्जी की इज्जत इ घर में लौट्याये। अपन मेहनत मजूरी कर लैहें, बेटा। मनों, लाल हमाय ! तुम दोइ जनें पढ़बो लिखबो नें छोड़ियो। तुम दोइ जनों खों अपने नाना की सूद पकर कें सिक्छक बनने है।’ निरमला दोइ कुल को मान बढ़ाबो चहत ती।
निरमला ने ठाकुरों के घरों में दोइ बखत की रोटी को काम पकर लओ। कभउँ सेठों के घरों के पापर बेल देबै। हलवाइयों के समोसा बनवा देबै। कहुँ पे बुलाओ जाय, तो तीज-त्यौहार के पकवान बनवा देबै।
कभउँ घरइ में गुजिया, पपरिया बनाकें बेंच देबै। कहूँ बीनबे-पीसबे, छानबे-फटकबे खों चली जाय। एक घड़ी की फुरसत नइं, आराम नइं। बस, मन में संकल्प कर लओ हतो कै लड़कों खों मास्टर बनानै है और बो भी कालेज को। गर्मियों में माधोकान्त और केसोकान्त लग जायं मालगुजार साहब खों पंखा डुलाबे के काम में। मालगुजारी तौ नें रही हती, मनों ठाठ बेइ। उनें बिजली के पंखा की हवा तेज लगत ती। अपनी बैठक की छत्त सें एक बल्ली में दो थान कपड़ा को पंखा झुलवाएं हते, ओइ खों पूरे-पूरे दिन रस्सी सें डुलाने परत हतो। जित्ते पैसा मिलें, सो माधव केसव किताब-कापियों के लानें अलग धर लेबैं। इतै-उतै की उसार कर देबैं, सो बो पैसा अलग मिल जाय। बाकी दिनों में बनिया की अनाज-गल्ले की दुकान पे लग जायं। इस्कूल के लयं सात-सात कोस को पैदल आबो-जाबो अलग। उनकी मताइ हती उनकी गुरु। जैंसी कहै, सो बे राम लछमन मानत जायं। दोइ भइयों ने महतारी की लाज रक्खी। माधव कान्त पुरोहित दसमीं के बोर्ड में और केशव कान्त पुरोहित आठमीं के बोर्ड में प्रथम स्रेनी में आ गए। मैडल मिले। कलेक्टर ने खुद बुलवा कें उनकी इस्कालरशिप बँधवा दइ। पेपरों में नाम छपो, फोटो निकरी। सब कहैं, साधु महात्मा की संतान है। काय नें नाम करहैं ?
स्यामबल्लभ महाराज को पुन्न-परताप है के ऐंसे नोंने लड़का भए। सुई के छेद सें निकर जायं, इत्तो साफ-सुथरौ चाल-चलन। धन्य हैं स्यामबल्लभ! निरमला जब सुनै कै पूरी बाहबाही तौ स्यामबल्लभ खों दइ जा रइ है, सो आग लग जाए ओ के बदन में। हम जो हाड़ घिसत रय, सो कछु नइं ? सीत गरमी बरसात नैं देखी, सो कछु नइं? गहना-गुरिया बेंच डारे, सो कछु नइं। दो कपड़ों में जिन्दगी काट रय, सो कछु नइं ? भूंके रह कें खरचा चलाओ हमनें, पेट काटो हमनें, लालटेन में गुजारा करौ हमनें, और नाम हो रओ उनको ! जित्तो सोचै, उत्तोइ जी कलपै। स्यामबल्लभ के नाम सें चेंहेक जाय। नफरत भर गई। का दुनियां है, औरतों की गत-गंगा होत रैहै, बोलबाला आदमियों को हूहै।
कहत कछु नैं हती। अपने पति की का बुराई करनै ? संस्कार इजाजत नइं देत ते। मन मार कैं रह जाय। इज्जत जित्ती ढंकी-मुंदी रहै, अच्छी। देखत-देखत लड़का कालेज पोंच गए। उतै भी अब्बल। सौ में सें सौ के लिघां नम्बर। कालेज को नाम पूरे प्रदेस में हो गओ। कालेज बारों ने सब फीसें माफ कर दइं। कालेज पधार कें मुख्यमंत्री ने घोसना कर दई कै इन होनहार छात्रों की ऊँची सें ऊँची पढ़ाई कौ खरचा सरकार उठैहै। उनने खुद निरमला पंडतान को स्वागत करौ -
‘हम इन स्वयंसिद्धा महिला श्रीमती निर्मला देवी पुरोहित का अभिनन्दन करते हैं, जिन्होंने नाना कष्टों को उठाकर अपने पुत्रों को योग्य विद्यार्थी एवं योग्य नागरिक बनाने का संकल्प लिया है।’ अब निरमला के कानों में बेर-बेर गूँजै, ‘स्वयंसिद्धा’ और मन के तार झनझना जायं। देबीमैया के सामने हांत जोड़ै, हे भगवती! तुमाइ किरपा नै होती, तो मैं अबला का कर लेती ?
एंसइ में एक दिना सिपाही ने आकें खबर दइ कै ‘स्यामबल्लभानन्द खों कतल के जुर्म में फांसी होबे बारी है। नसे की झोंक में रुपैयों के ऊपर सें अपनेइ साथी से लठा-लठी कर लई हती। इनने ऐंसो घनघना कें लट्ठ हन दओ ओकी मूड़ पे, कै बो तुरतइं बिल्ट गओ। उनने अपने घर को पतो जोइ दओ है। आप औरें उनकी ल्हास लै सकत हो।’ निरमला ने आव देखो नैं ताव। दस्खत करकें चिट्ठी तो लै लइ, मनों फाड़ कें मेंक दइ और कह दइ - ‘हम नइं जानत, कौन स्यामबल्लभानन्द ?’
दो-तीन दिना बाद माधवकान्त ने महतारी कौ सूनो माथो देखकें टोक दओ - ‘काय माइ, आज बूंदा नइं लगाओ ?’ निरमला सकपका गई, मनो कर्री आवाज में बोली - ‘बेटा, सपरत-खोरत में निकर-निकर जात है। अब रहन तो दो। को लगाय ?’
साभार- जिजीविषा कहानी संग्रह
-इति-
*************

रासलीला

रासलीला :
*
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.
झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.
कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.
अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.
नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.
खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.
कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.
सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.
चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.
अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.
भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.
कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?
पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?
कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?
क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?
कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाये.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाये.
जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?
ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?
थाप में आलाप कब देता सुनायी?
हर किसी में आप वह देता दिखायी?
अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?
कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?
कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?
कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.
भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?
द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?
कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?
अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.
नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.
आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.
अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् में दिगंत जैसे था समाया.
कंकरों में शंकरों का वास देखा.
और रज में आज बृज ने हास देखा.
मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.
रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.
रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.
रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.
रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.
रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.
रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..
रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.
राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.
'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्रीबांकेबिहारी.
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गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

भगवान स्वरूप 'सरस'

नवगीतकार भगवान स्वरूप 'सरस'
१९३३ उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में जन्मे भगवान स्वरूप सरस जी ने नवगीतकार के रूप में शालीनता से अपनी उपस्थिति दर्ज की और डॉ शंभुनाथ सिंह जी के सम्पादन में नवगीत दशक १ का हिस्सा भी बने । जीवन के कटु यथार्थ से सामना करते हुए उनका व्यक्तिगत जीवन काफी संघर्षमय रहा। भगवान स्वरूप सरस जी अपने समय के चर्चित पत्र पत्रिकाओं में संपादन में समय समय पर छपते रहे किन्तु अपने समकालीनों द्वारा बराबर उपेक्षित बने रहे ।
शलभ श्रीराम जी से उन्हें समय -समय पर प्रोत्साहन भी मिलता रहा । वह अपने सृजन के प्रकाशन को लेकर बेहद उदासीन रहे, उनके नजदीकी एक दो मित्रों के प्रयास से उनके गीतों की पाण्डुलिपि तैयार हुई । दैनिक 'देशबंधु' के संपादक ललित सुरजन जी के अथक प्रयासों से यह पांडुलिपि 'एक चेहरा आग का' नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित हुई ।
नवगीत के शिल्प पर खरे इन नवगीतों में कवि ने छन्द के पुराने ढाँचे को न सिर्फ तोड़ा बल्कि छन्द के नवीन प्रयोग किये स्वयं का डिक्शन भी गढ़ा ।
व्यवस्था पर कटाक्ष करते गीत 'आग से मत खेल बेटे ' में उस समय की तस्वीर पेश करते हैं जो आज भी उतनी ही बल्कि अधिक प्रासंगिक है ....
मत अलग कर दूध -पानी
भेद मत कर गीत हो या मर्सिया
पृष्ठ पूरे उन्हें दे
जिनके लिए हैं
पकड़ अपना हाशिया।
नहींsss रोटीsss नहींsss
चाँद तारे और सूरज माँग
काठ के ये खिलौने भी
मिल गये हैं
भाग से ।
आज उनके कुछ गीतों से जुड़कर वागर्थ उनके कृतित्व को श्रद्धापूर्वक स्मरण करता है ....
प्रस्तुति
~ ।। वागर्थ ।। ~
सम्पादक मण्डल
________________________________________________
(१)
आग से मत खेल
------------------------
आग से मत खेल बेटे
आग से
हिल रही पूरी इमारत
सीढ़ियाँ टूटी हुईं
मत चढ़
खोल बस्ता खोल गिनती रट
पहाड़े पढ़
मत दिखा उभरी पसलियाँ
बैठ झुक कर बैठ
दर्द भी गा
राग से
मत अलग कर दूध -पानी
भेद मत कर गीत हो या मर्सिया
पृष्ठ पूरे उन्हें दे
जिनके लिए हैं
पकड़ अपना हाशिया।
नहींsss रोटीsss नहींsss
चाँद तारे और सूरज माँग
काठ के ये खिलौने भी
मिल गये हैं
भाग से
(२)
आदमी
----------
खींच कर
परछाइयों के दायरे
आइनों पर घूमता है आदमी।
अथ--
फफूँदी पावरोटी
केतली-भर चाय।
इति--
घुने रिश्ते उदासी
भीड़ में असहाय।
साँप-सा
हर आदमी को
सूँघता है आदमी।
उगा आधा सूर्य आधा चाँद
हिस्सों में बँटा आकाश।
एक चेहरा आग का है
दूसरे से झर रहा है
राख का इतिहास।
आँधियों में
मोमबत्ती की तरह
ख़ुद को जलाता-फूँकता है आदमी।
(३)
और ऊँचे
-------------
और ऊँचे
और ऊँचे हो गये हैं
घर दलालों के।
कौन उत्तर दे सवालों के
कौन बोले
हमीं केवल हमीं थे
उस सड़क पर
संग्राम के पहले सिपाही।
वक़्त पर बेवक़्त पर हमको
बिछाती-ओढ़ती थी बादशाही
अब हमीं
नेपथ्य से भी दूर
धकियाये गये हैं
बज रहे हैं मंच पर
घुँघरू छिनालों के
खौलते जलकुण्ड में डूबी
किसी की श्लोक-सी सुबहें
किसी की ग़ज़ल -सी शामें
जन्म से अंधी मकड़ियाँ
इंद्रधनुषी जाल बुनती हैं
समय की उँगलियाँ थामे
हाथ बदले हैं
नकाबों में ढँके
चेहरे वही हैं
बंध ढीले पड़ गये
ठंडी मशालों के
कौन उत्तर दे सवालों के
(४)
जब-जब भी भीतर होता हूँ
----------------------------------
जब-जब भी भीतर होता हूँ
आँखें बन्द किये
लगता, जैसे
जलते हुए सवालों-
पर लेटा हूँ ज़हर पिये।
दबे हुए अहसास
सुलग उठते हैं सिरहाने।
प्रतिबन्धों के फन्दे
कसते जाते पैंताने।
लगता, जैसे
कुचली हुई देह पर कोई
चला गया हो लोहे के पहिये।
(५)
तुम्हारे इस नगर में
------------------------
क्या किया आकर
तुम्हारे इस नगर में
हादसे-सा उगा दिन
काँपे इमारत-दर-इमारत
हाशियों-से खिंचे जीने
चीखते सैलाब में
धँस कर अकेली
थाहती है ज़िन्दगी
पल-क्षण-महीने
बाँह से जुड़ती न कोई बाँह
जैसे, आगये हों हम
किसी बंदी शिविर में
क्या किया आकर
तुम्हारे इस नगर में
रोशनी के इंद्रधनुषों
पर लटकते
प्लास्टिक के फ्यूज़ चेहरे
धुंधलकों में
चरमराती गंध के आखेट
हिचकियों पर हाँफते
संगीत ठहरे
सभ्यता रंगीन दस्ताने पहन
धकिया गयी मासूमियत
को चीरघर में
क्या किया आकर
तुम्हारे इस नगर में
(६)
अन्यथा हुआ
------------------
अन्यथा हुआ
सोचा सब अन्यथा हुआ
व्यर्थ हुए हम तुम
तुम हम
आज तक किया गया सफर
कोरी चर्चाओं में बीता
आंख से उतारकर मशाल
भोगा कुछ स्वार्थ
कुछ सुभीता
बंजर विद्रोहों की भूमिका लिखी बंधा नहीं बांधे मौसम
ऐसे भी लगता है बेहतर होगा चौतरफा बन्द रखूं द्वार
जो कभी न आवाजें दे
मानूं बस उसका आभार
सड़क का समुद्र लांघ लूं
खिड़की पर खड़े खड़े
गुमसुम!
मोड़ों पर जमी हुई रक्त की नदी में रुक-रुक कर चलती है
कागज की नाव
बियाबान में ठहरीं अजगर यात्राएं जल्दी मरुघाटी से पूछ रहीं
दूसरा पड़ाव
अलगाना पुलों को तटों से
एक यही काम रहा हरदम!
(७)
दिन पहाड़ से
-------------------
दिन पहाड़ -से
कल तक तिल थे
आज ताड़ -से
कितनी तेज धूप तो पहले
कभी नहीं थी
गर्द बहुत पहले भी थी
पर इतनी गहरी
जमी नहीं थी
ऐसा क्या हो गया कि
घर आंगन चौराहा
अपने ,सपने
सब उजाड़ से
जीवन एक ग़ज़ल था
अन्धा कुआं रह गया
टूटे सभी रदीफ काफिये
गया तरन्नुम
धुआं रह गया
आंख चुराकर
फागुन के सम्बन्धों वाली
हवा सो गई
जड़ किवाड़ से
~ भगवान स्वरूप 'सरस '
________________________________________________
परिचय
-----------
जन्म- जुलाई १९३३ को ग्राम -लाखनमऊ, जिला-मैनपुरी (उ.प्र.)
शिक्षा- आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक
कार्यक्षेत्र-
दैनिक जीवन में भगवान स्वरुप श्रीवास्तव के नाम से १९५४ से ५९ तक अध्यापन। पुनः कई नौकरियों के बाद म.प्र. शासन ग्रामीण विकास अभिकरण में सेवा निवृत्त होने तक कार्यरत। लेखन १९५० से अपने अंतिम समय तक। नवगीत दशक - एक के प्रमुख कवि।
प्रकाशित कृतियाँ --
गीत संग्रह- माटी की परतें, एक चेहरा आग का।
छंदमुक्त संग्रह- डैनों से झाँकता सूरज
निधन --१२ मार्च १९८५ को रायपुर, म.प्र.
साभार - वागर्थ 

नवगीत

नवगीत 
*
चार आना भर उपज है,
आठ आना भर कर्ज
बारा आना मुसीबत,
कौन मिटाए मर्ज?
*
छिनी दिहाड़ी,
पेट है खाली कम अनुदान
शीश उठा कैसे जिएँ?
भीख न दो बिन मान
मेहनत कर खाना जुटे
निभा सकें हम फर्ज
*
रेल न बस, परबस भए
रेंग जा रहे गाँव
पीने को पानी नहीं
नहीं मूँड़ पर छाँव
बच्चे-बूढ़े परेशां
नहीं किसी को गर्ज
*
डंडे फटकारे पुलिस
मानो हम हैं चोर
साथ न दे परदेस में
कोई नगद न और
किस पर मुश्किल के लिए
करें मुकदमा दर्ज
***
संजीव
२९-४-२०२०

गीत

गीत
आज के इस दौर में भी
संजीव
*
आज के इस दौर में भी समर्पण अध्याय हम
साधना संजीव होती किस तरह पर्याय हम
मन सतत बहता रहा है नर्मदा के घाट पर
तन तुम्हें तहता रहा है श्वास की हर बाट पर
जब भरी निश्वास; साहस शांति आशा ने दिया
सदा करता राज बहादुर; हुए सदुपाय हम
आपदा पहली नहीं कोविद; अनेकों झेलकर
लिखी मन्वन्तर कथाएँ अगिन लड़-भिड़ मेलकर
साक्ष्य तुहिना-कण कहें हर कली झरकर फिर खिले
हौसला धरकर; मुसीबत हर मिटाने धाय हम
ओम पुष्पा व्योम में, हनुमान सूरज की किरण
वरण कर को विद यहाँ? खोजें करें भारत भ्रमण
सूर सुषमा कृष्ण मोहन की सके बिन नयन लख
खिल गया राजीव पूनम में विनत मुस्काय हम
महामारी पूजते हम तुम्हें; माता शीतला
मिटा निर्बल मंदमति, मेटो मलिनता बन बला
श्लोक दुर्गा शती, चौपाई लिए मानस मुदित
काय को रोना?, न कोरोना हुए निरुपाय हम
गीत गूँजेंगे मिलन के, सृजन के निश-दिन सुनो
जहाँ थे हम बहुत आगे बढ़ेंगे, तुम सिर धुनो
बुनो सपने मीत मिल, अरि शीघ्र माटी में मिलो
सात पग धर, सात जन्मों संग पा हर्षाय हम
***
२९-४-२०२०

भक्ति गीत

भक्ति गीत
संजीव
*
नटखट गोपाल श्याम जसुमति का लाला
*
बरज रही बिरज मही जाओ मत तजकर
टेर रहीं धेनु दुलराओ भुज भरकर
माखन की मटकी लो गोरस का प्याला
*
जमुना की लहरें-तट, झूमते करील
कुंजों में राधिका, नयन गह्वर झील
वेणु का निनाद; कदंब ऊँचा रखवाला
*
रास का हुलास, फोड़ मटकी खो जाना
मीठी मुसकान मधुर मन में बो जाना
बाबा का लाड़, मोह मैया ने पाला
***
२९-४-२०२०

मुक्तक, मुक्तिका


मुक्तक 
सीता की जयकार से खुश हों राजा राम
जय न उमा की यदि करें झट शंकर हों वाम
अर्णव में अवगाह कर अरुण सुसज्जित पूर्व
चला कर्मपथ पर अडिग उषा रश्मि कर थाम
*
अपनी धरा अपना गगन, हम नवा सिर करते नमन
रवि तिमिर हर उजयार दे, भू भारती को कर चमन
जनगण करे सब काम मिल, आलस्य-स्वार्थ न साथ हो
श्रम-स्वेद की जयकार कर, कम हो न किंचित भी लगन
मुक्तिका
शीतल पवन बह कह रहा, आ मनुज प्राणायाम कर
पंछी करे कलरव मधुर उड़, उठ न अब आराम कर
धरकर धरा पर चरण बाँहों में उठा ले आसमां
सूरज तनय पहचान खुद को जगत में कुछ नाम कर
पूछता कोविद यहाँ को विद? सभी हित काम कर
द्वेष-स्वार्थों में उलझ मत जिंदगी बदनाम कर
बहुत सोया जाग जा अब, टेरता है समय सुन
स्वेद सीकर में नहाकर हँस सुबह को शाम कर
उषा अगवानी करेगी, तम मिटाकर नामवर
भेंट भुजभर हँसे संध्या, रुक थक न चुक न विरामकर
निशा आँचल में सुलाये सुनहरे सपने दिखा
एक दिन तो 'संजीव' सारे काम तू निष्काम कर
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संजीव
२९-४-२०२०
९४२५१८३२४४

वीरांगना नँगेली

स्मरण

वीरांगना नँगेली भारत की एक ऐसी स्वाभिमानिनी नारी थी जिसने उस समय की कर्मठ स्त्रियों को अपने उरोज न ढकने देने की अपमानजनक कुप्रथा के विरुद्ध आवाज उठाकर उसका साहसिक प्रतिकार किया और अपना उरोज कंचुकी से ढका। प्रतिक्रिया स्वरूप इस पर लगाये गए उरोज-कर के बदले उसने अपने उरोज ही काट कर दे दिए ऐसे में अत्यधिक रक्तस्राव से उसकी मृत्यु हो गई लेकिन उसका यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया और त्रावणकोर केरल की वह कुप्रथा सदैव के लिए ही बंद हो गई। उसके अदम्य साहस व लोक कल्याण की भावना को शत शत नमन है। आज दक्षिण भारत की स्त्रियां उसके इस बलिदान के कारण ही सम्मान से जी पा सही हैं। उस वीरांगना के स्वाभिमान को शत-शत नमन।

छंद रूपमाला
'स्वाभिमानिनी नँगेली'
नारियों का मान हो इस, भावना से युक्त।
काटकर अपने उरोजों को, हुई करमुक्त।
वीर पुत्री थी नँगेली, क्यों सहे अन्याय।
था किया प्रतिकार ऐसा, बन्द अब अध्याय।
--इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

सुमित्र जी के जिजीविषाजयी व्यंग्य दोहे

सृजन चर्चा
सुमित्र जी के जिजीविषाजयी व्यंग्य दोहे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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सनातन सलिल नर्मदा का अंचल सनातन काल से सृजनधर्मियों का साधना क्षेत्र रहा है. सम-सामयिक साहित्य सर्जकों में अग्रगण्य डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' विविध विधाओं में अपने श्रेष्ठ सृजन से सर्वत्र सतत समादृत हो रहे हैं।
दोहा हिंदी साहित्य कोष का दैदीप्यमान रत्न है। कथ्य की संक्षिप्तता, शब्दों की सटीकता, कहन की लयबद्धता , बिम्बों-प्रतीकों की मर्मस्पर्शिता तथा भाषा की लोक-ग्राह्यता के पञ्चतत्वी निकष पर खरे दोहे रचना सुमित्र जी के लिए सहज-साध्य है। सामयिकता, विसंगतियों का संकेतन, विडंबनाऑं पर प्रहार, जनाक्रोश की अभिव्यक्ति और परोक्षतः ही सही पारिस्थितिक वैषम्य निदान की प्रेरणा व्यंग्य विधा के पाँच सोपान हैं। सुमित्र की दशरथी कलम ''विगतं वा अगं यस्य'' की कसौटी पर खरे उतारनेवाले व्यंग्य दोहे रचकर अपनी सामर्थ्य का लोहा मनवाती है।
''आएगा, वह आयेगा, राह देखती नित्य / कहाँ न्याय का सिंहासन, कहाँ विक्रमादित्य'' कहकर दोहाकार आम आदमी की आशावादिता और उसकी निष्फलता दोनों को पूरी शिद्दत से बयां करता है।
समाज में येन-केन-प्रकारेण धनार्जन कर स्वयं को सकल संवैधानिक प्रावधानों से ऊपर समझनेवाले नव धनाढ्य वर्ग की भोगवादी मनोवृत्ति पर तीक्ष्ण कटाक्ष करते हुए निम्न दोहे में दोहाकार 'रसलीन' शब्द का सार्थक प्रयोग करता है- ''दिन को राहत बाँटकर, रात हुई रसलीन / जिस्म गरम करता रहा, बँगले का कालीन'' ।
राजनीति का ध्येय जनकल्याण से बदलकर पद-प्राप्ति और आत्म कल्याण होने की विडम्बना पर सुमित्र का कवि-ह्रदय व्यथित होकर कहता है-
नीतिहीन नेतृत्व है, नीतिबद्ध वक्तव्य।
चूहों से बिल्ली कहे, गलत नहीं मंतव्य।।
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सेवा की संकल्पना, है अतीत की बात।
फोटो माला नोट है, नेता की औकात।।
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शैक्षणिक संस्थाओं में व्याप्त अव्यवस्था पर व्यंग्य दोहा सीधे मन को छूता है-
पैर रखा है द्वार पर, पल्ला थामे पीठ।
कोलाहल का कोर्स है, मन का विद्यापीठ।।
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पात्रता का विचार किये बिना पुरस्कार चर्चित होने की यशैषणा की निरर्थकता पर सुमित्र दोहा को कोड़े की तरह फटकारते हैं-
अकादमी से पुरस्कृत, गजट छपी तस्वीर।
सम्मानित यों कब हुए, तुलसी सूर कबीर।।
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अति समृद्धि और अति सम्पन्नता के दो पाटों के बीच पिसते आम जन की मनस्थिति सुमित्र की अपनी है-
सपने में रोटी दिखे, लिखे भूख तब छंद।
स्वप्न-भूख का परस्पर, हो जाए अनुबंध।।
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आँखों के आकाश में, अन्तःपुर आँसू बसें, नदी आग की, यादों की कंदील, तृष्णा कैसे मृग बनी, दरस-परस छवि-भंगिमा, मन का मौन मजूर, मौसम की गाली सुनें, संयम की सीमा कहाँ, संयम ने सौगंध ली, आँसू की औकात क्या, प्रेम-प्यास में फर्क, सागर से सरगोशियाँ, जैसे शब्द-प्रयोग और बिम्ब-प्रतीक दोहाकार की भाषिक सामर्थ्य की बानगी बनने के साथ-साथ नव दोहकारों के लिए सृजन का सबक भी हैं।
सुमित्र के सार्थक, सशक्त व्यंग्य दोहों को समर्पित हैं कुछ दोहे-
पंक्ति-पंक्ति शब्दित 'सलिल', विडम्बना के चित्र।
संगुम्फित युग-विसंगति, दोहा हुआ सुमित्र।।
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लय भाषा रस भाव छवि, बिम्ब-प्रतीक विधान।
है दोहा की खासियत, कम में अधिक बखान।।
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सलिल-धार की लहर सम, द्रुत संक्षिप्त सटीक।
मर्म छुए दोहा कहे, सत्य हिचक बिन नीक।।
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व्यंग्य पहन दोहा हुआ, छंदों का सरताज।
बन सुमित्र हृद-व्यथा का, कहता त्याग अकाज।।
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२९-४-२०१९ 
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
094251 83244


नया छंद

नया छंद - नाम सुझाएँ 
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विधान
मापनी- २१२ २११ १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२।
२३ वार्णिक, ३२ मात्रिक छंद।
गण सूत्र- रभजजजजजलग।
मात्रिक यति- ८-८-८-८, पदांत ११२।
वार्णिक यति- ५-६-६-६, पदांत सगण।
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उदाहरण
हो गयी भोर, मतदान करों, मत-दान करो, सुविचार करो।
हो रहा शोर, उठ आप बढ़ो, दल-धर्म भुला, अपवाद बनो।।
है सही कौन, बस सोच यही, चुन काम करे, न प्रचार वरे।
जो नहीं गैर, अपना लगता, झट आप चुनें, नव स्वप्न बुनें।।
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हो महावीर, सबसे बढ़िया, पर काम नहीं, करता यदि तो।
भूलिए आज, उसको न चुनें, पछता मत दे, मत आज उसे।।
जो रहे साथ, उसको चुनिए, कब क्या करता, यह भी गुनिए।
तोड़ता नित्य, अनुशासन जो, उसको हरवा, मन की सुनिए।।
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नर्मदा तीर, जनतंत्र उठे, नव राह बने, फिर देश बढ़े।
जागिए मीत, हम हाथ मिला, कर कार्य सभी, निज भाग्य गढ़ें।।
मुश्किलें रोक, सकतीं पथ क्या?, पग साथ रखें, हम हाथ मिला।
माँगिए खैर, सबकी रब से, खुद की खुद हो, करना न गिला।।
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संवस
२९-४-२०१९
७९९९५५९६१८
[छंद कोष से ]