कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

लघुकथा नोटा

लघुकथा
नोटा
*
वे नोटा के कटु आलोचक हैं। कोई नोटा का चर्चा करे तो वे लड़ने लगते। एकांगी सोच के कारण उन्हें और अन्य राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं के केवल अपनी बात कहने से मतलब था, आते भाषण देते और आगे बढ़ जाते।
मतदाताओं की परेशानी और राय से किसी को कोई मतलब नहीं था। चुनाव के पूर्व ग्रामवासी एकत्र हुए और मतदान के बहिष्कार का निर्णय लिया और एक भी मतदाता घर से नहीं निकला।
दूरदर्शन पर यह समाचार सुन काश, ग्रामवासी नोटा का संवैधानिक अधिकार जानकर प्रयोग करते तो व्यवस्था के प्रति विरोध व्यक्त करने के साथ ही संवैधानिक दायित्व का पालन कर सकते थे।
दलों के वैचारिक बँधुआ मजदूर संवैधानिक प्रतिबद्धता के बाद भी अपने अयोग्य ठहराए जाने के भय से मतदाताओं को नहीं बताना चाहते कि उनका अधिकार है नोटा।
*
संवस
२३-४-२०१९

षट्पदी, बुक डे

एक षट्पदी
*
'बुक डे'










राह रोक कर हैं खड़े, 'बुक' ले पुलिस जवान
वाहन रोकें 'बुक' करें, छोड़ें ले चालान
छोड़ें ले चालान, कहें 'बुक' पूरी भरना
छूट न पाए एक, न नरमी तनिक बरतना
कारण पूछा- कहें, आज 'बुक डे' है भैया
अगर हो सके रोज, नचें कर ता-ता थैया
***

सखी छंद, गंग छंद


छंद बहर का मूल है: १०
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SSI SS / SISS SISS
सूत्र: रतगग।
आठ वार्णिक अनुष्टुप जातीय छंद।
चौदह मात्रिक मानव जातीय सखी छंद।
बहर: फ़ाइलातुं फ़ाइलातुं ।
*
आप बोलें या न बोलें
सत्य खोलें या न खोलें
*
फैसला है आपका ही
प्यार के हो लें, न हो लें
*
कीजिए भी काम थोड़ा
नौकरी पा के, न डोलें
*
दूर हो विद्वेष सारा
स्नेह थोड़ा आप घोलें
*
तोड़ दें बंदूक-फेंकें
नैं आँसू से भिगो लें
*
बंद हो रस्मे-हलाला
औरतें भी सांस ले लें
*
काट डाले वृक्ष लाखों
हाथ पौधा एक ले लें
***
२३.४.२०१७
***

छंद बहर का मूल है: ११
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SS
सूत्र: रगग।
पाँच वार्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय छंद।
नौ मात्रिक आंक जातीय गंग छंद।
बहर: फ़ाइलातुं फ़े ।
*
भावनाएँ हैं
कामनाएँ हैं
*
आदमी है तो
वासनाएँ हैं
*
हों हरे वीरां
योजनाएँ हैं
*
त्याग की बेला
दाएँ-बाएँ हैं
*
आप ही पालीं
आपदाएँ हैं
*
आदमी जिंदा
वज्ह माएँ हैं
*
औरतें ही तो
वंदिताएँ हैं
***
२३.४.२०१७
***

नवगीत

नवगीत
संजीव
.
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
.
फाँसी लगा किसान ने
खबर बनाई खूब.
पत्रकार-नेता गये
चर्चाओं में डूब.
जानेवाला गया है
उनको तनिक न रंज
क्षुद्र स्वार्थ हित कर रहे
जो औरों पर तंज.
ले किसान से सेठ को
दे जमीन सरकार
क्यों नादिर सा कर रही
जन पर अत्याचार?
बिना शुबह बाँस तना
जन का हथियार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
.
भूमि गँवाकर डूब में
गाँव हुआ असहाय.
चिंता तनिक न शहर को
टंसुए श्रमिक बहाय.
वनवासी से वन छिना
विवश उठे हथियार
आतंकी कह भूनतीं
बंदूकें हर बार.
'ससुरों की ठठरी बँधे'
कोसे बाँस उदास
पछुआ चुप पछता रही
कोयल चुप है खाँस
करता पर कहता नहीं
बाँस कभी उपकार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
**
२३-४-२०१५

मुक्तक

 मुक्तक:

संजीव
.
आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
*
२३-४-२०१५

कविता

कविता:
अपनी बात:
संजीव
.
पल दो पल का दर्द यहाँ है
पल दो पल की खुशियाँ है
आभासी जीवन जीते हम
नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया
वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता पीता सोता है जग
हाथ अंत में मलता है
खता हमारी इतनी ही है
हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर
गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना
श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी
साथ रास कब आता है
नोक-झोक, खींचा-तानी ही
मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी
जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा
सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें
न रोएँ हमको तो मुस्काना है
*
२३-४-२०१५

द्विपदी, मुक्तिका

द्विपदी
*
सबको एक नजर से कैसे देखूँ ?
आँख भगवान् ने दो-दो दी हैं .
*
२३-४-२०१७ 
मुक्तिका:
संजीव
.
चल रहे पर अचल हम हैं
गीत भी हैं, गजल हम है
आप चाहें कहें मुक्तक
नकल हम हैं, असल हम हैं.
हैं सनातन, चिर पुरातन
सत्य कहते नवल हम हैं
कभी हैं बंजर अहल्या
कभी बढ़ती फसल हम हैं
मन-मलिनता दूर करती
काव्य सलिला धवल हम हैं
जो न सुधरी आज तक वो
आदमी की नसल हम हैं
गिर पड़े तो यह न सोचो
उठ न सकते निबल हम हैं
ठान लें तो नियति बदलें
धरा के सुत सबल हम हैं
कह रही संजीव दुनिया
जानती है सलिल हम हैं.
२३-४-२०१५
***

लोरी

लोरी
*
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
सपनों में आएँगे कान्हा दुआरे
'चल खेल खेलें' तुझको पुकारें
माखन चटा, तुझको मिसरी खिलाएं
जसुदा बलैयाँ लें तेरी गुड़िया
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
साथी बनेंगे तेरे ये तारे
छिप-छिप शरारत करते हैं सारे
कोयल सुनाएगी मीठी सी लोरी
सुंदर मिलेगी सपनों की दुनिया
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
२०-१०-२०१६ 

भोजपुरी कहावतें

कहावत सलिला: १
कहावतें किसी भाषा की जान होती हैं.
कहावतें कम शब्दों में अधिक भाव व्यक्त करती हैं.
कहावतों के गूढार्थ तथा निहितार्थ भी होते हैं.
आप अपने अंचल में प्रचलित कहावतें अर्थ सहित प्रस्तुत करें.
भोजपुरी कहावतें:
*
१. अबरा के मेहर गाँव के भौजी.
२. अबरा के भईंस बिआले कs टोला.
३. अपने मुँह मियाँ मीठू बा.
४. अपने दिल से जानी पराया दिल के हाल.
५. मुर्गा न बोली त बिहाने न होई.
६. पोखरा खनाचे जिन मगर के डेरा.
७. कोढ़िया डरावे थूक से.
८. ढेर जोगी मठ के इजार होले.
९. गरीब के मेहरारू सभ के भौजाई.
१०. अँखिया पथरा गइल.
*

मुक्तिका

मुक्तिका :
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
राजनीति ठठाती रोती नहीं.
भावनाओं की फसल बोती नहीं..
*
स्वार्थ के सौदे नगद होते यहाँ.
दोस्ती या दुश्मनी होती नहीं..
*
रुलाती है विरोधी को सियासत
सुधारों की फसल यह बोती नहीं..
*
सुन्दरी सत्ता की है सबकी प्रिया.
त्याग-सेवा-श्रम का सगोती नहीं..
*
दाग-धब्बों की नहीं है फ़िक्र कुछ.
यह मलिन चादर 'सलिल' धोती नहीं..
*
२३-४-२०१० 

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

रामकथा : राम यजमान - रावण आचार्य

विमर्श :
रामकथा : राम यजमान - रावण आचार्य
भारत के अनेक स्थानों की तरह लंका में भी श्री लंका रावण को खलनायक नहीं एक विद्वान पंडित अजेय योद्धा, प्रतिभा संपन्न, वैभवशाली एवं समृद्धिवान सम्राट माना जाता है।
श्री राम ने समुद्र पर सेतु निर्माण के बाद लंका विजय की कामना से विश्वेश्वर महादेव के लिंग विग्रह स्थापना के अनुष्ठान हेतु वेदज्ञ ब्राह्मण और शैव रावण को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने का विचार किया क्योंकि रावण के सदृश्य शिवभक्त, कर्मकांड का जानकार और विद्वान् अन्य नहीं था। रावण को आमंत्रित करने के लिए जामवंत को रावण के पास भेजा गया।रावण ने उनका बहुत सम्मान ( अपने दादा महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई वशिष्ठ के यजमान के दूत होने के कारण) किया तथा पूछा कि क्या वे लंका विजय हेतु यह अनुष्ठान करना चाहते हैं? जामवंत ने कहा, बिल्कुल ठीक, उनकी शिव जी के प्रति आस्था है, उनकी इच्छा है कि आप आचार्य पद स्वीकार कर अनुष्ठान संपन्न कराएँ। आपसे अधिक उपयुक्त शिव भक्त आचार्य अन्य कोई नहीं।
रावण ने विचार किया कि वह अपने आराध्य देव के विग्रह की स्थापना को अस्वीकार नहीं करेगा। जीवन में पहली बार किसी ने ब्राह्मण माना है और आचार्य योग्य जाना, वह भी वशिष्ठ जी के यजमान ने। अत: रावण ने जामवंत को स्वीकृति देते हुए कहा कि यजमान उचित अधिकारी हैं, अनुष्ठान हेतु आवश्यक सामग्री का संग्रह करें ।
इसके बाद वनवासी राम के पास आवश्यक पूजा सामग्री का अभाव जानते हुए अपने सेवकों को भी सामग्री संग्रह में सहयोग करने का निर्देश दिया। इतना हे इन्हीं रावण ने अशोक वाटिका पहुँचकर सीता जी को सब समाचार देते हुए अनुष्ठान हेतु साथ चलने को कहा। विदित हो बिना अर्धांगिनी गृहस्थ का पूजा-अनुष्ठान अपूर्ण रहता है।आचार्य का दायित्व होता है कि यजमान का अनुष्ठान हर संभव पूर्ण कराए। इसलिएरावण ने कहा कि विमान आने पर उसमें बैठ जाना और स्मरण रहे वहाँ भी तुम मेरे अधीन रहोगी, पूजा संपन्न होने के बाद वापस लौटने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना। सीता जी ने भी इसे स्वामी श्री राम का कार्य समझकर विरोध न कर मौन रखा और स्वामी तथा स्वयं का आचार्य मानकर हाथ जोड़कर सिर झुका दिया, रावण ने भी सौभाग्यवती भव कह कर आशीर्वाद दिया।
रावण के सेतु बंध पहुँचने पर राम ने स्वागत करते हुए प्रणाम किया तो रावण ने आशीर्वाद देते हुए कहा "दीर्घायु भव, विजयी भव"। इसपर वहाँ सुग्रीव, विभीषण आदि आश्चर्यचकित रह गए। रावणाचार्य ने भूमि शोधन के उपरांत राम से कहा, यजमान! अर्धांगिनी कहाँ है उन्हें यथास्थान दें। राम जी ने मना करते हुए कहा आचार्य कोई उपाय करें ।रावण ने कहा यदि तुम अविवाहित, परित्यक्त या संन्यासी होते अकेले अनुष्ठान कर सकते थे, परंतु अभी संभव नहीं।
एक उपाय यह है कि अनुष्ठान के बाद आचार्य सभी पूजा साधन-उपकरण अपने साथ वापस ले जाते हैं, यदि स्वीकार हो तो यजमान की पत्नी विराजमान है, विमान से बुला लो। राम जी ने इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार करते हुए रावणाचार्य को प्रणाम किया।" अर्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्धयजमान" कह कर रावणाचार्य ने कलश स्थापित कर विधिपूर्वक अनुष्ठान कराया। बालू का लिंगविग्रह (हनुमान जी के कैलाश से लिंगविग्रह लाने में बिलंब होने के कारण) बनवाकर शुभ मूहूर्त मे ही स्थापना संपन्न हुई।
अब रावण ने अपनी दक्षिणा की माँग की तो सभी उपस्थित लोग चौकें, रावण के शब्दों में "घबरायें नहीं यजमान, स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति तो नहीं हो सकती"। आचार्य जानते हैं कि यजमान की स्थिति वर्तमान में वनवासी की है। राम ने फिर भी आचार्य की दक्षिणा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की ।रावण ने कहा "मृत्यु के समय आचार्य के समक्ष हो यजमान" और राम जी प्रतिज्ञा पूर्ण करते हुए रावण के मृत्यु शैय्या ग्रहण करने पर सामने उपस्थित रहे।

राधे माधव

 

प्रात नमन
*
मन में लिये उमंग पधारें राधे माधव
रचना सुमन विहँस स्वीकारें राधे माधव
राह दिखाएँ मातु शारदा सीख सकें कुछ
सीखें जिससे नहीं बिसारें राधे माधव
हों बसंत मंजरी सदृश पाठक रचनाएँ
दिन-दिन लेखन अधिक सुधारें राधे-माधव
तम घिर जाए तो न तनिक भी हैरां हों हम
दीपक बन दुनिया उजियारें राधे-माधव
जीतेंगे कोविंद न कोविद जीत सकेगा
जीवन की जय-जय उच्चारें राधे-माधव
***
प्राची ऊषा सूर्य मुदित राधे माधव
मलय समीरण अमल विमल राधे माधव
पंछी कलरव करते; कोयल कूक रही
गौरैया फिर फुदक रही राधे माधव
बैठ मुँडेरे कागा टेर रहा पाहुन
बनकर तुम ही आ जाओ राधे माधव
सुना बजाते बाँसुरिया; सुन पायें हम
सँग-सँग रास रचा जाओ राधे माधव
मन मंदिर में मौन न मूरत बन रहना
माखन मिसरी लुटा जाओ राधे माधव
*
संजीव
२१-४-२०२०

दोहा सलिला,

दोहा सलिला
नियति रखे क्या; क्या पता, बनें नहीं अवरोध
जो दे देने दें उसे, रहिए आप अबोध
*
माँगे तो आते नहीं , होकर बाध्य विचार
मन को रखिए मुक्त तो, आते पा आधार
*
सोशल माध्यम में रहें, नहीं हमेशा व्यस्त
आते नहीं विचार यदि, आप रहें संत्रस्त
*
एक भूमिका ख़त्म कर, साफ़ कीजिए स्लेट
तभी दूसरी लिख सकें,समय न करता वेट
*
रूचि है लोगों में मगर, प्रोत्साहन दें नित्य
आप करें खुद तो नहीं, मिटे कला के कृत्य
*
विश्व संस्कृति के लगें, मेले हो आनंद
जीवन को हम कला से, समझें गाकर छंद
*
भ्रमर करे गुंजार मिल, करें रश्मि में स्नान
मन में खिलते सुमन शत, सलिल प्रवाहित भान
*
हैं विराट हम अनुभूति से, हुए ईश में लीन
अचल रहें सुन सकेंगे, प्रभु की चुप रह बीन
*
२०-४-२०२०

आर्य भट्ट, अंक मनरंजन

अंक मनरंजन -
आर्य भट्ट ने शून्य की खोज ६ वीं सदी में की तो लगभग ५००० वर्ष पूर्व रामायण में रावण के दस सर की गणना और त्रेता में सौ कौरवों की गिनती कैसे की गयी जबकि उस समय लोग शून्य (जीरो) को जानते ही नही थे।
*
आर्यभट्ट ने ही (शून्य / जीरो) की खोज ६ वीं सदी में की, यह एक सत्य है। आर्यभट्ट ने 0(शून्य, जीरो )की खोज *अंकों मे* की थी, *शब्दों* नहीं। उससे पहले 0 (अंक को) शब्दों में शून्य कहा जाता था। हिन्दू धर्म ग्रंथों जैसे शिव पुराण,स्कन्द पुराण आदि में आकाश को *शून्य* कहा गया है। यहाँ शून्य का अर्थ अनंत है । *रामायण व महाभारत* काल में गिनती अंकों में नहीं शब्दो में होती थी, वह भी *संस्कृत* में।
१ = प्रथम, २ = द्वितीय, ३ = तृतीय, ४ = चतुर्थ, ५ = पंचम, ६ = षष्ठं, ७ = सप्तम, ८ = अष्टम, ९= नवंम, १० = दशम आदि।
दशम में *दस* तो आ गया, लेकिन अंक का ० नहीं।
आया, ‍‍रावण को दशानन, दसकंधर, दसशीश, दसग्रीव, दशभुज कहा जाता है !!
*दशानन मतलव दश+आनन =दश सिरवाला।
त्रेता में *संस्कृत* में *कौरवो* की संख्या सौ *शत* शब्दों में बतायी गयी, अंकों में नहीं।
*शत्* संस्कृत शब्द है जिसका हिन्दी में अर्थ सौ (१००) है। *शत = सौ*
रोमन में १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ०, के स्थान पर i, ii, iii, iv, v, vi, vii, viii, ix, x आदि लिखा-पढ़ा जाता है किंतु शून्य नहीं आता।आप भी रोमन में एक से लेकर सौ की गिनती पढ़ लिख सकते है !!
आपको 0 या 00 लिखने की जरूरत भी नहीं पड़ती है।
तब गिनती को *शब्दो में* लिखा जाता था !!
उस समय अंकों का ज्ञान नहीं, था। जैसे गीता,रामायण में अध्याय १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, को प्रथम अध्याय, द्वितीय अध्याय, पंचम अध्याय,दशम अध्याय... आदि लिखा-पढ़ा जाका था।
दशम अध्याय ' मतलब दशवाँ पाठ (10th lesson) होता है !!
इसमे *दश* शब्द तो आ गया !! लेकिन इस दश मे *अंको का 0* (शून्य, जीरो)" का प्रयोग नही हुआ !!
आर्यभट्ट ने शून्य के लिये आंकिक प्रतीक "०" का अन्वेषण किया जो हमारे आभामंड, पृथ्वी के परिपथ या सूर्य के आभामंडल का लघ्वाकार है।
*

कुंडलिया

कुंडलिया
*
नारी को नर पूजते, नारी नर की भक्त
एक दूसरे के बिना दोनों रहें अशक्त
दोनों रहें अशक्त, मिलें तो रचना करते
उनसा बनने भू पर, ईश्वर आप उतरते
यह दीपक वह ज्योत, पुजारिन और पुजारी
मन मंदिर में मौन, विराजे नर अरु नारी
***
२२-४-२०२०

दोहा

दोहा-दोहा राम
*
भीतर-बाहर राम हैं, सोच न तू परिणाम
भला करे तू और का, भला करेंगे राम
*
विश्व मित्र के मित्र भी, होते परम विशिष्ट
युगों-युगों तक मनुज कुल, सीख मूल्य हो शिष्ट
*
राम-नाम है मरा में, जिया राम का नाम
सिया राम का नाम है, राम सिया का नाम
*
उलटा-सीधा कम-अधिक, नीचा-ऊँच विकार
कम न अधिक हैं राम-सिय, पूर्णकाम अविकार
*
मन मारुतसुत हो सके, सुमिर-सुमिर सिय-राम
तन हनुमत जैसा बने, हो न सके विधि वाम
*
मुनि सुतीक्ष्ण मति सुमति हो, तन हो जनक विदेह
धन सेवक हनुमंत सा, सिया-राम का गेह
*
शबरी श्रम निष्ठा लगन, सत्प्रयास अविराम
पग पखर कर कवि सलिल, चल पथ पर पा राम
*
हो मतंग तेरी कलम, स्याही बन प्रभु राम
श्वास शब्द में समाहित, गुंजित हो निष्काम
*
अत्रि व्यक्ति की उच्चता, अनुसुइया तारल्य
ज्ञान किताबी भंग शर, कर्मठ राम प्रणम्य
*
निबल सरलता अहल्या, सिया सबल निष्पाप
गौतम संयम-नियम हैं, इंद्र शक्तिमय पाप
*
नियम समर्थन लोक का, पा बन जाते शक्ति
सत्ता दण्डित हो झुके, हो सत-प्रति अनुरक्ति
*
जनगण से मिल जूझते, अगर नहीं मतिमान.
आत्मदाह करते मनुज, दनुज करें अभिमान.
*
भंग करें धनु शर-रहित, संकुच-विहँस रघुनाथ.
भंग न धनु-शर-संग हो, सलिल उठे तब माथ.
२२-४-२०१७
*

बुंदेली कहानी

बुंदेली कहानी
मस्त रओ मस्ती में
*
मुतके दिना की बात है। कहूँ दूर-दराज एक गाँव में एक ठो धुनका हतो।
का कई ? धुनका का होत है, नई मालुम?
कैंसें मालूम हुउहै? तुम औरें तो बजार सें बनें-बनायें गद्दा, तकिया ले लेत हो।
मनो पुराने समै में जे गद्दा-तकिया कारखानों में नें बनत हते।
किसान खेत में कपास के पौधे लगात ते।
बे बड़े होंय तो बिनमें बोंड़ी निकरत हतीं।
फेर बोंड़ी खिलत तीं तो फूल बनत तीं।
बिनमें सें बगुला के पर घाईं सुफेद-सुफेद कपास झाँकत ती।
तब खेतान की सोभा बहुतई नीकी हो जात ती।
का बताएँ, जैसे आसमान मा तारे बगर जात हैं अमावास की रात में, बिलकुल ऊंसई।
घरवाली मुतियन को हार पैंने हो और हार टूट जाए तो बगरते भए मोती जैसें लगत हैं, ऊंसई।
जा बी कै सकत हों जब घरवाली खुस हो खें खिलखिला देय तो मोतिन कैसें दांत झिलमिलात हैं, ऊंसई।
नें मानो तो कबू कौनऊ समै हमरे लिंगे चलियो जब खेत मा कपास हो।
देख खें खुदई मान जैहो के हम गलत नईं कहत हते।
तो जा कपास खेत सें चुन लई जात ती।
मेहरारू इकट्ठी होखें रुई चुनत जाबें और गीत सोई गात जात तीं।
बे पुरानी धुतिया फाड़ खें एक छोर कान्धा के ऊपर सें और दूसर छोर कान्धा के नीचें से निकार कर गठिया लेत तीं।
ऐंसे में पीठ पे थैलिया घाईं बन जात ती।
बे दोऊ हातन सें रुई चुनत जात तीं और पीठ पे थैलिया में रखत जात तीं।
हरे-हरे खेतन में लाल-पीरी धुतियाँ में मेहरारुओं के संगे सुफेद-सुफेद कपास बहुतई सुहात ती।
बाड़ी में रंग-बिरंगे फूलन घाईं नीकी-नीकी।
बिन खों हेर खें तबियत सोई खिल जात ती।
तुम पूछत ते धुनका को कहात ते?
जे रुई इकट्ठी कर खें जुलाहे खों दै दई जात ती।
जुलाहा धुनक-धुनक खें रुई से बिनौला निकार देत तो।
अब तुम औरें पूछिहो जा बिनौला का होत है?
जाई तो मुसकिल है तुम औरों के सँग।
कैत हो अंग्रेजी इस्कूल जात हो।
जातई भरे हो, कें कच्छू लिखत-पढ़त हो।
ऐंसी कैंसी पढ़ाई के तुमें कछू पतई नईया।
चलो, बता देत हैं, बिनौला कैत हैं रुई के बीजा खों।
बिनौला करिया-करिया, गोल-गोल होत है।
बिनौला ढोर-बछेरन खों खबाओ जात है।
गैया-भैंसिया बिनोरा खा खें मुताको दूद देत हैं, सो बी एकदम्म गाढ़ा-गाढ़ा।
हाँ तो का कहत हते?... हाँ याद आ गओ धुनका
रुई सें बिनौला निकार खें धुनका ओ खें धुनक-धुनक खें एक सार करत तो।
फेर दरजी सें पलंगा खे नाप को खोल सिला खें, जमीन पे बिछा देत तो।
जे खोल के ऊपर रुई बिछाई जात ती।
पीछे सें धीरे-धीरे एक कोंने से खोल पलटा दौ जात तो।
आखर में रुई पूरे खोल कें अंदर बिछ जात ती।
फिर बड़े-बड़े सूजा में मोटा तागा पिरो खें थोड़ी-थोड़ी दूर पै टाँके लगाए जात ते।
टंकाई खें बाद गद्दा भौत गुलगुला हो जात तो।
तुम सहरबारे का जानो ऐंसें गद्दा पे लोट-पॉपोट होबे में कित्तो मजा आउत है?
हाँ तो, हम कैत हते कि गाँव में धुनका रैत तो।
बा धुनका बहुतई ज्यादा मिहनती और खुसमिजाज हतो।
काम सें काम, नईं तो राम-राम।
ना तीन में, ना तेरा में। ना लगाबे में, ना बुझाबे में।
गाँव के लोग बाकी खूब प्रसंसा करत ते।
मनो कछू निठल्ले, मुस्टंडे बासे खूबई खिझात ते।
काय के बिन्खे बऊ - दद्दा धुनिया ना नांव लै-लै के ठुबैना देत ते।
कछू सीखो बा धुनिया सें, कैसो सुबे सें संझा लौ जुतो रैत है अपनें काम में।
जे मुस्टंडे कोसिस कर-कर हार गए मनो धुनिया खों ओ के काम सें नई डिंगा पाए।
आखिर में बे सब धुनिया खों 'चिट्टा कुक्कड़' कह खें चिढ़ान लगे।
का भओ? धुनिया अपने काम में भिड़ो रैत तो।
रुई धुनकत-धुनकत, रुई के रेसे ओके पूरे बदन पे जमत जात ते।
संझा लौ बा धुनिया भूत घाईं चित्तो सुफेद दिखन लगत तो।
रुई निकारत समाई ओखे तांत से मुर्गे की कुकड़ कूँ घाईं आवाज निकारत हती।
कछू दिना तो धुनिया नेब चिढ़ाबेबारों को हडकाबे की कोसिस करी।
मनो बा समज गओ के जे सब ऑखों ध्यान काम सें हटाबें की जुगत है।
सो ओनें इन औरन पे ध्यान देना बंद कर दौ।
ओ हे हमेसा खुस देख कें लोग-बाग़ पूछत हते के बाकी कुसी को राज का आय?
पैले तो बो सुन खें भी अनसुना कर देत तो।
कौनऊ भौत पीछे पारो तो कए तुमई कओ मैं काए काजे दुःख करों?
राम की सौं मो खों कछू कमी नईया।
दो टैम रोटी, पहनबे-रहबे खों कपरा और छत।
करबे को काम और लेबे को को राम नाम।
एक दिना कोऊ परदेसी उतई सें निकरो।
बा कपड़ा-लत्ता सें अमीर दिखत तो मनो खूबी दुखी हतो।
कौनऊ नें उसें धुनिया के बारे में कै दई।
बा नें आव देखो नें ताव धुनिया कें पास डेरा जमा दओ।
भैया! आज तो अपनी खुसी का राज बाताये का परी।
मरता का न करता? दुनिया कैन लगो एक दिना मोरी तांत का धनुस टूट गओ।
मैं जंगल में एक झाड खों काटन लगो के लडकिया सें तांत बना लैहों।
तबई कछू आवाज सुनाई दई 'मतई काटो'।
इतै-उतै देखो कौनऊ नें हतो।
सोची भरम हो गाओ, फिर कुल्हाड़ी हाथ में लै लई।
जैसेई कुल्हाड़ी चलाई फिर आवाज़ आई।
तब समझ परी के जे तो वृच्छ देवता कछू कै रए हैं।
ध्यान सें सुनी बे कैत ते मोए मत काट, मोए मात काट।
मैंने कई महाराज नै काटों तो घर भर खों पेट कैसें भरहों।
बे बोले मो सें कछू बरदान ले लेओ।
मोए तो कछू ने सूझी के का ले लेऊँ?
तुरतई बता दई के मोहे कछू नें सुझात।
बिननें कई कौनऊ बात नैया, घरबारी सें पूछ आ।
मैं चल परो, रस्ते में एक परोसी मिल गओ।
काए, का हो गओ? ऐंसी हदबद में किते भागो जा रओ।
मो सें झूठ कैत नें बनी सो सच्ची बात बता दई।
बाने मो सें कई जा राज-पाट माँग ले।
मनो घरवारी नें राज-पाट काजे मनाही कर दई।
बा बोली राज-पाट मिल जैहे तो तैं चला लेहे का?
तोहे तो रुई धुननें के सिवाय कछू काम नई आत।
ऐसो कर दुगानो काम हो खें दुगनो धन आये ऐसो बर माँग।
मोखों घरवारी की बात जाँच गई।
मैंने वृच्छ देवता सें कई तो बिनने मेरे चार हात कर दए।
मैं खुस होखें घर आओ तो बाल-बच्चन नें मोहे भूत समज लओ।
पुरा-परोसी सबी देख खें डरान लगे।
मोहे जो देखे बई किवार लगा ले।
मैं भौतई दुखी हतो, इतै-उतै बागत रओ, मनो कोई नें पानी को नई पूछो।
तब मोखों समज परी के जिनगानी में खुसी सबसे बरी चीज है।
खुसी नें हो तो धन-दौलत को कोनऊ मानें नईयाँ।
बस मैनें तुरतई वृच्छ देवता की सरन लई। १०१
बिनखें हाथ जोरे देवता किरपा करो, चार हात बापस कर लेओ।
मोए कछू ने चाईए, मैं पुराणी तांत के मरम्मत कर लेंहों।
आसिरबाद दो राजी-खुसी से जिनगानी बीत जाए।
वृच्छ देबता ने मोसें दो हात बापस ले लए।
कई जा तोहे कौनऊ चीज की कमी न हुईहै।
कौनऊ सें ईर्ष्या नें करियो, अपनें काम सें काम रखियो।
तबई सें महाराज मैं जित्तो कमात हूँ, उत्तई में खुस रहत हूँ।
कौनऊ सें कबऊ कछू नई मांगू।
कौऊ खें कछू तकलीफ नई देऊँ।
कौनऊ खें ज्यादा मिल जाए तो ऊ तरफी से आँख फेर लेत हूँ।
आप जी चाहो सो समझ लेओ, मैं वृच्छ देवता से मिले मन्त्र को कबऊँ नई भूलो।
आप भी समज लेओ और अपना लेओ 'मस्त रओ मस्ती में '
***

शिव-ताण्डव-स्तोत्र

'शिव-ताण्डव-स्तोत्र' का पद्यानुवाद
स्व. बजरंग लाल जोशी
**
('शिव तांडव स्तोत्र' असत्य के प्रतिनिधि के रूप, हर दशहरे पर जिसके पुतले जलाए जाते हैं, उस रामायण के प्रतिनायक, महान शिवभक्त, लंकापति रावण के व्यक्तित्व का एक दूसरा, अल्पज्ञात किन्तु पांडित्यपूर्ण पक्ष प्रस्तुत करता है । रावण के इस स्तोत्र का कवि ने सन १९४२ में मूल छंद 'पंचचामर' में ही अनुवाद किया था जिससे संस्कृत न जानने वाले भक्त भी इसे समझ सकें और गाकर काव्य और भक्ति का वही आनंद प्राप्त कर सकें जो मूल स्तोत्र को गाने में आता है ।)
जटा विशाल में बहे तरंग गंग की अहा ।
लसै महान शीश पे हिले सुरम्य ज्यों लता ।
प्रशस्त-भाल में जले कराल ज्वाल है सदा ।
उसी मृगांक-मौलि में बढ़े सुभक्ति सर्वदा ॥१॥
विलास हाव-भाव जो करे नगेन्द्र की सुता ।
उसी असीम मोद से तुम्हार चित्त है भरा ।
दयार्द्र-दृष्टि से करे अनेक दूर आपदा ।
उसी दिगम्बरेश में लहें विनोद सर्वदा ॥२॥
जटास्थ सर्प की मणी प्रकाश पीत फेंक के ।
रही लगाय कुंकुमादिशांगना मुखाब्ज में ।
किए गजेन्द्र चरम का सुवस्त्र उत्तरीय वे ।
महान विश्वरक्षक प्रमोद चित्त में भरे ॥३॥
पुरान्दरादि के झुके प्रसून युक्त शीश से ।
गिरी हुई पराग से तुम्हार पाँव हैं सजे ।
बँधी जटा विशाल सर्पराज के शरीर से ।
वही मयंक-मौलि दें अपार सम्पदा हमें ॥४॥
ललाट चक्षु-ज्वाल से किया विदग्ध काम है ।
त्रिदेव में सुश्रेष्ठ विश्वनाथ को प्रणाम है ।
ललाम भाल है सजा निशीथ-नाथ रेख से ।
कपाल-पाणि धूर्जटी अनन्त भूति दें हमें ॥५॥
विशाल भाल चक्षु में जले प्रचंड ज्वाल जो ।
उसी महान आग से किया विदग्ध काम को ।
लिखे विचित्र चित्र जो उमा-कुचाग्र भाग में ।
बढ़े सदा रुची उसी त्रिनेत्र चित्रकार में ॥६॥
घिरी नवीन मेघ से अमावसी विभावरी ।
निशीथ कालिमा वही तुम्हार कंठ में सजी ।
जटा तरंग गंग है, गजेन्द्र चरम अंग है ।
विभूति दें हमें धरें ललाट जो मयंक हैं ॥७॥
खिले हुए सुरम्य नील कंज की सुनीलिमा ।
अहो, विराज कंठ में दिखा रही महाछटा ।
भजो उसी मखारि को, पुरारि को स्मरारि को ।
भवारि अन्तकारि को, गजारि अंधकारि को ॥८॥
अनेक सौख्य से भरे कला-कदम्ब-पुष्प के ।
मधु-प्रवाह पान से प्रमत्त चंचरीक जो ।
हते गजान्धकादि जो, दहे पुरस्मरादि जो ।
हरे विपत्ति, मृत्यु जो भजो उसी मखारि को ॥९॥
जटास्थ सर्प फेंक के विषाक्त ज्वाल व्योम में ।
विशालभाल-ज्वाल की करालता बढ़ा रहे ।
मृदंग की सुताल पे प्रचंड नृत्य जो करे ।
विजै हमें सदा वही महन नृत्यकार दें ॥१०॥
शिला पलंग और मौक्तिकावली भुजंग में ।
सुरत्न-धूलि-खंड और मित्र वा सपत्न में ।
सुलोचना व घास में प्रजा धराधिराज में ।
अभेद मान के कदा भजूँ सुयोगिराज मैं ॥११॥
पवित्र गंग तीर पे बना कुटीर रम्य मैं ।
बसूँ कुबुद्धि छोड़ के, विनम्र हाथ जोड़ के ।
विरक्त होय नारि से निमग्न ध्यान में सदा ।
नमः शिवाय मन्त्र को जपूँ बनूँ सुखी कदा ॥१२॥
निशाचरेंद्र ने रची अतीव उत्तमा स्तुति ।
इसे पढ़े, गुने, कहे पवित्रता लहे अति ।
गुरू महेश में बढ़े सुभक्ति हो न दुर्गति ।
करे प्रसन्न जीव को सुध्यान शम्भु का अति ॥१३॥
लंकेश की रचित जो इस प्रार्थना को ।
पूजा समाप्त करके रति से पढ़े तो ।
लक्ष्मी गजाश्व रथ धान्य धनादि ताँ को ।
देते महेश भज रे 'बजरंग' वाँ को ॥१४॥
वाक्य पुष्प पूजा करी अरपन चरन तुम्हार ।
हो प्रसन्न त्रिपुरारि अब करो इसे स्वीकार ॥१५॥

मुक्तक

मुक्तक
अर्थ डे है, अर्थ दें तो अर्थ का कुछ अर्थ हो.
जेब खाली ही रहे तो काटना भी व्यर्थ हो
जेब काटे अगर दर्जी तो न मर्जी पूछता
जेबकतरा जेब काटे बिन सजा न अनर्थ हो
***
२२-४-२०१७

त्रिपदियाँ

अभिनव प्रयोग
त्रिपदियाँ
(सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय छंद, पदांत गुरु)
*
तन्मय जिसमें रहें आप वो
मूरत मन-मंदिर में भी हो
तीन तलाक न दे पाएंगे।
*
नहीं एक के अगर हुए तो
दूजी-तीजी के क्या होंगे?
खाली हाथ सदा पाएंगे।
*
बीत गए हैं दिन फतवों के
साथ समय के नहीं चले तो
आप अकेले पड़ जाएंगे।
*
२२-४-२०१७