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रविवार, 11 अप्रैल 2021

क्षणिका गीध

क्षणिका
गीध
*
जब स्वार्थसाधन और
उदरपोषण तक
रह जाए
नाक की सीध
तब समझ लो
आदमी
नहीं रह गया है आदमी
बन गया है
गीध।
***
११-४-२०२०

मुक्तक

 मुक्तक लोक/ शब्द लोक / विलोम शब्द मुक्तक समारोह-200 /प्रदत्त विलोम शब्द -कीर्ति -अपकीर्ति

समारोह अध्यक्ष श्री वसंत कुमार शर्मा जी
श्री उमा प्रसाद लोधी जी
आदरणीय शुक्ल जी
*
क्या करेंगे कीर्ति लेकर यदि न सत्ता मिल सकी।
दुश्मनों की कील भी हमसे नहीं यदि हिल सकी।।
पेट भर दे याकि तन ही ढँक सकेगी कीर्ति क्या?
कीर्ति पाकर हौसले की कली ही कब खिल सकी?
*
लाख दो अपकीर्ति मुझको, मैं न जुमला छोड़ता।
वक्ष छप्पन इंच का ले, दुम दबा मुँह मोड़ता।।
चीन पकिस्तान क्या नेपाल भी देता झुका-
निज प्रशंसा में 'सलिल' नभ से सितारे तोड़ता।।
*

कीलक स्तोत्र


श्री दुर्गा शप्तसती कीलक स्तोत्र
*
ॐ मंत्र कीलक शिव ऋषि ने, छंद अनुष्टुप में रच गाया।
प्रमुदित देव महाशारद ने, श्री जगदंबा हेतु रचाया।।
सप्तशती के पाठ-जाप सँग, हो विनियोग मिले फल उत्तम।
ॐ चण्डिका देवी नमन शत, मारकण्डे' ऋषि ने गुंजाया।।
*
देह विशुद्ध ज्ञान है जिनकी, तीनों वेद नेत्र हैं जिनके।
उन शिव जी का शत-शत वंदन, मुकुट शीश पर अर्ध चन्द्र है।१।
*
मन्त्र-सिद्धि में बाधा कीलक, अभिकीलन कर करें निवारण।
कुशल-क्षेम हित सप्तशती को, जान करें नित जप-पारायण।२।
*
अन्य मंत्र-जाप से भी होता, उच्चाटन-कल्याण किंतु जो
देवी पूजन सप्तशती से, करते देवी उन्हें सिद्ध हो।३।
*
अन्य मंत्र स्तोत्रौषधि की, उन्हें नहीं कुछ आवश्यकता है।
बिना अन्य जप, मंत्र-यंत्र के, सब अभिचारक कर्म सिद्ध हों।४।
*
अन्य मंत्र भी फलदायी पर, भक्त-मनों में रहे न शंका।
सप्तशती ही नियत समय में, उत्तम फल दे बजता डंका।५।
*
महादेव ने सप्तशती को गुप्त किया, थे पुण्य अनश्वर।
अन्य मंत्र-जप-पुण्य मिटे पर, सप्तशती के फल थे अक्षर।६।
*
अन्य स्तोत्र का जपकर्ता भी, करे पाठ यदि सप्तशती का।
हो उसका कल्याण सर्वदा, किंचितमात्र न इसमें शंका।७।
*
कृष्ण-पक्ष की चौथ-अष्टमी, पूज भगवती कर सब अर्पण।
करें प्रार्थना ले प्रसाद अन्यथा विफल जप बिना समर्पण।८।
*
निष्कीलन, स्तोत्र पाठ कर उच्च स्वरों में सिद्धि मिले हर।
देव-गण, गंधर्व हो सके भक्त, न उसको हो कोंचित डर।९।
*
हो न सके अपमृत्यु कभी भी, जग में विचरण करे अभय हो।
अंत समय में देह त्यागकर, मुक्ति वरण करता ही है वो।१०।
*
कीलन-निष्कीलन जाने बिन, स्तोत्र-पाठ से हो अनिष्ट भी।
ग्यानी जन कीलन-निष्कीलन, जान पाठ करते विधिवत ही।११।
*
नारीगण सौभाग्य पा रहीं, जो वह देवी का प्रसाद है।
नित्य स्तोत्र का पाठ करे जो पाती रहे प्रसाद सर्वदा।१२।
*
पाठ मंद स्वर में करते जो, पाते फल-परिणाम स्वल्प ही।
पूर्ण सिद्धि-फल मिलता तब ही, सस्वर पाठ करें जब खुद ही।१३।
*
दें प्रसाद-सौभाग्य सम्पदा, सुख-सरोगी, मोक्ष जगदंबा।
अरि नाशें जो उनकी स्तुति, क्यों न करें नित पूजें अंबा।१४।
३१-३--२०१७
***

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
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गौड़-तुच्छ कोई नहीं, कहीं न नीचा-हीन
निम्न-निकृष्ट किसे कहें, प्रभु-कृति कैसे दीन?
*
मिले 'मरा' में 'राम' भी, डाकू में भी संत
ऊँच-नीच माया-भरम, तज दे तनिक न तंत
*
अधमाधम भी तर गए, कर प्रयास है सत्य
'सलिल' हताशा पाल मात, अपना नहीं असत्य
*
जिसको हरि से प्रेम है, उससे हरि को प्रेम,
हरिजन नहीं अछूत है, करे सफाई-क्षेम
*
दीपक के नीचे नहीं, अगर अँधेरा मीत
उजियारा ऊपर नहीं, यही जगत की रीत
*
रात न श्यामा हो अगर, उषा न हो रतनार
वाम रहे वामा तभी, रुचे मिलन-तकरार
*
विरह बिना कैसे मिले, मिलने का आनंद
छन्दहीन रचना बिना, कैसे भाये छंद?
*
बसे अशुभ में शुभ सदा, शुभ में अशुभ विलीन
अशरण शरण मिले 'सलिल', हो अदीन जब दीन
*
मृग-तृष्णा निज श्रेष्ठता, भ्रम है पर का दैन्य
नत पांडव होते जयी, कुरु मरते खो सैन्य
*
नर-वानर को हीन कह, असुरों को कह श्रेष्ठ
मिटा दशानन आप ही, अहं हमेशा नेष्ट
*
दुर्योधन को श्रेष्ठता-भाव हुआ अभिशाप
धर्मराज की दीनता, कौन सकेगा नाप?
*
११-४-२०१७ 

यमकीय दोहा

एक यमकीय दोहा
*  
​संगसार वे कर रहे, होकर निष्ठुर क्रूर
संग सार हम गह रहे, बरस रहा है नूर
*
भाया छाया जो न क्यों, छाया उसकी साथ?
माया माया ताज गयी, मायापति के साथ
*
शुक्ला-श्यामा एक हैं, मात्र दृष्टि है भिन्न
जो अभिन्नता जानता, तनिक न होता खिन्न
११-४-२०१७

मिथिलेश कुमारी मिश्र -बलराम अग्रवाल

उदात्त प्रेम की सहज कथालेखिका—डॉ॰ मिथिलेश कुमारी मिश्र 
बलराम अग्रवाल
*
1 दिसम्बर 1953 को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिलान्तर्गत खद्दीपुर गढ़िया के ग्राम प्रधान श्रीयुत् रामगोपाल मिश्र जी के घर में जन्मी डॉ॰ मिथिलेश कुमारी मिश्र बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की निदेशक तथा वहाँ से प्रकाशित ‘परिषद पत्रिका’ की सम्पादक रहीं। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी में साधिकार लेखन किया। उनके भतीजे श्रीयुत् महेश मिश्र ने उनके कुछेक प्रकाशित ग्रंथों की सूची उनके निधन की सूचना के साथ उपलब्ध करायी थी, जो कतिपय संशोधन के साथ निम्न प्रकार है—
उपन्यास—सुजान, वैरागिन, लवंगी, अंजना, कबीर, अस्थिदान, शीला भट्टारिका (हिन्दी), जिगीषा (संस्कृत) ।

शोकाकुल महेश जी द्वारा प्रदत्त सूची का अधूरी रहना स्वाभाविक है। उसे सन् 2000 में प्रकाशित डॉ॰ मिश्र के प्रथम हिन्दी लघुकथा संग्रह ‘अंधेरे के विरुद्ध’ में दिए गए परिचय के अनुरूप सुधारने की कोशिश कर रहा हूँ। उसकी ‘दो बातें अपने पाठकों से’ शीर्षक भूमिका में उन्होंने लिखा है—‘मैंने अनेक उपन्यास लिखे हैं जिनमें चार प्रकाशित हो चुके हैं दो प्रकाशक के यहाँ हैं’। बहुत सम्भव है कि सन् 2000 के बाद भी उन्होंने एक-दो उपन्यास और लिखे हों। अत: महेश जी को स्वयं भी अपनी सूची दुरुस्त करनी चाहिए। उन्हें यह सूची इसलिए भी दुरुस्त करनी चाहिए क्योंकि ‘लघुकथाएँ’ शीर्षान्तर्गत उअन्की सूची में न तो ‘अंधेरे के विरुद्ध’ का अंकन है और न ही उनके संस्कृत लघुकथा संग्रह ‘लघ्वी’ का, जिसके 1992-93 में प्रकाशित होने का जिक्र उन्होंने अपनी ऊपर सन्दर्भित भूमिका में किया है।
नाटक—कीचक वध, धनन्जय विजय (हिन्दी), आम्रपाली, दशमस्त्वमसि, तुलसीदास (संस्कृत) तथा इण्डिया तथा द योगी (अंग्रेजी)।
महाकाव्य—देवयानी, दाक्षायणी।
खण्डकाव्य—साकेत सेविका, श्रद्धांजलि।
संस्कृत काव्य संग्रह— सुभाषित सुमनाञ्जलि, व्यास शतकम्, काव्यायनी।
लघुकथा—लघ्वी (संस्कृत), ‘अंधेरे के विरुद्ध’, 101 लघुकथाएँ (हिन्दी)
कहानी—छँटता कोहरा (महिलाओं की कहानियाँ), आधुनिका
गीत संग्रह—कामायनी (संस्कृत), चाँदी के चन्द्रमा
इनके अलावा, महेश जी के कथनानुसार, उनके द्वारा अनूदित और सम्पादित भी अनेक ग्रन्थ हैं। उनके अनुसार डॉ॰ मिश्र की कुल किताबों की संख्या 42 है। अनेक साहित्यिक संस्थाओं से वे सम्मानित व पुरस्कृत होती रहीं। अनेक संस्थाओं की सम्मानित सदस्य, सचिव, उपाध्यक्ष आदि रहीं। अनेक मानद उपाधियों से विभूषित रहीं।
देहावसान : 10 अप्रैल 2017 को पटना में।
पारिवारिक सम्पर्क सूत्र : ‘वाणी वाटिका’, सैदपुर, पटना-800 004 (बिहार)
मोबाइल : 094302 12579 दूरभाष : 0612-2663504


यहाँ उनके प्रथम हिन्दी लघुकथा संग्रह ‘अंधेरे के विरुद्ध’ से उद्धृत हैं तीन लघुकथाएँ
वहम
सोमा बाबू की पत्नी पार्वती की नींद जैसे ही खुली, अपने पति को वैसे ही बैठे पाया जैसे रात उनके सोने के समय बैठे थे। यह देखकर वह चौंक उठी और उसने पूछा, “आप सोये नहीं? पूरी रात ऐसे ही…!”
“नींद नहीं आयी।”
“क्यों?”
“गर्मी बहुत थी और ऊपर से मच्छरों का प्रकोप!”
“पंखा क्यों नहीं चला लिया?”
“कैसे चलाता… पंखा चलाते ही तुम काँपने लगती थीं!”
“क्यों, मुझे क्या हुआ था?”
“रात तुम्हें बुखार बहुत अधिक था। तुम होश में थी ही कहाँ? तुम्हारा चेहरा मुरझा-सा गया था। तुम्हीं बताओ, ऐसे में मैं भला पंखा कैसे चलाता… कैसे सोता! पूरी रात यही देखता रहा कि जाने कब मेरी जरूरत पड़ जाए।”
“आपको मेरी इतनी चिन्ता है!”
“क्यों न हो? आखिर तुम मेरी पत्नी हो।”
यह वाक्य सुनकर वह चुप हो गयी और सोचने लगी—वह रितेन्द्र बाबू, जो इनके मित्र हैं, झूठे हैं… मक्कार हैं। रोज-रोज आकर कहते थे कि इनका इस लड़की के साथ… उस औरत के साथ…। छि:! इस व्यक्ति का अगर कहीं कोई चक्कर होता तो क्या मेरे लिए यों… मेरी भी क्या मति मारी गयी थी, जो इन पर शक कर बैठी।
“क्या भई! एकाएक चुप क्यों हो गयीं? क्या तबियत फिर कुछ… ”
“नहीं, मुझे कुछ भी तो नहीं है… आप यों ही वहम करते हैं… जाइए, आप भी सो जाइए!”
सोमा बाबू ने पत्नी की ओर प्यार से देखा। उन्हें सन्तोष हुआ—पत्नी का चेहरा खिलने लगा था।


मौन का सच
वह आया और चुपचाप मेरे समक्ष बैठ गया। मैं जो कुछ पूछती गयी, वह यन्त्रवत् उसका ऑब्जेक्टिव टाइप से उत्तर देता गया। मैंने जो कार्य करने को कहा, वह करता गया। न कोई गिला, न कोई शिकवा। मैं बार-बार उसकी ओर देखती, वह गम्भीर बना रहा। मेरे मन में बेचैनी होने लगी। बेचैनी परेशानी की सीमा तक पहुँच गयी। मैंने पूछा, “तुम कुछ बोलते क्यों नहीं हो?”
“मैंने तुम्हारी किस बात का उत्तर नहीं दिया?”
“तुम सहज नहीं लग रहे हो।”
“ऐसी तो कोई बात नहीं है।”
“मुझसे कोई शिकायत हो… या कोई भूल हो गयी हो, तो मन में मत रखो, कह डालो। मैं कतई बुरा नहीं मानूँगी।”
“कुछ हो तब न!”
“मेरी कसम… कोई बात नहीं है?”
वह तिलमिला उठा, “तुम कसम मत दिया करो। मैं झूठ नहीं बोल सकता।”
“तो फिर कहो—तुम्हारे मौन का कारण क्या है?”
“मैंने जब भी तुम्हारे स्वास्थ्य के विषय में जानना चाहा, तुमने सदैव यही कहा—ठीक हूँ… कोई बात नहीं है। मगर कल, जब तुम अपने लेखपाल से लोन लेने के सम्बन्ध में तथा अपने ऑपरेशन कराने के विषय में बता रही थीं, तो मुझे दुख हुआ। तुमने मुझे क्यों नहीं बताया?”
“मैं तो स्वयं अपनी बीमारी से परेशान हूँ… तुम्हें भी परेशान कर देती!”
“क्यों नहीं!… इसका अर्थ यह हुआ कि मेरा तुम पर… ।” इतना सुनते ही मैं भावुकता की चरमसीमा पर पहुँच गयी और मैंने उसके मुँह पर हाथ रख दिया। उसने मेरा हाथ चूम लिया। अब मैं अपने आँसुओं को नहीं रोक सकी। अत: रुँधे स्वर में ही कहा, “देखो, तुम मौन मत हुआ करो!”


अन्धी भावुकता
अपने कार्यालय में बैठी मैं कुछ सोच रही थी कि सत्येन सामने आकर बैठ गया। आज उसने ‘हलो-हाय’ कुछ नहीं कहा। मैंने मौन तोड़ने हेतु कहा, “क्या बात सत्येन! कुछ बोलोगे नहीं? चुप क्यों हो?”
वह फिर भी कुछ नहीं बोला। पहले तो मैंने सोचा कि शायद वह क्रोध में है। मगर आज उसकी आँखों में क्रोध नहीं, अजब-सी बेचैनी थी, जिससे शायद वह उबरने की चेष्टा कर रहा था।
“सत्येन, कुछ बोलो। शिकायत भी हो तो कहो तो सही!”
“मैं इतनी देर से तुम्हें ढूढ़ता फिर रहा हूँ! तुम कहाँ चली गयी थीं?” इस प्रश्न के साथ ही, मैंने देखा—उसकी आँखें भर आई थीं।
“नहीं सत्येन, नहीं… ऐसे नहीं! मैं तो यहीं थी।”
“फिर झूठ!”
“नहीं सत्येन! झूठ नहीं… मैं जरा भण्डार में चली गयी थी। मैं सरकारी नौकर हूँ न?”
“तुम्हारे चपरासी ने तो कहा था कि तुम पिछले कई घंटों से नहीं हो! शायद आज आओ ही नहीं।”
“तुम्हें समय देकर मैं न आऊँ, ऐसा ईश्वर के चाहने के बाद ही सम्भव है। अन्यथा… ”
मैंने देखा—अब धीरे-धीरे उसकी आँखों में खुशी की चमक लौट रही थी। मैंने कहा, “मगर तुम परेशान क्यों हो गये?”
“लो, पूछती हो मैं परेशान क्यों हो गया था! अरी पगली, मेरे मन में कोई ऐसी भी आशंका थी जो इस घंटे भर में मेरे दिलो-दिमाग को हिलाकर न चली गयी हो?…”
“सत्येन! यदि मैं मर गयी तो?”
“देखो मणि! ऐसी अशुभ बातें न बोला करो। जब तक मैं जिन्दा हूँ, ईश्वर की कृपा से तुम मर नहीं सकतीं। तुम्हारे बिना मैं क्या करुँगा इस दुनिया में?”
उसकी इस बात ने मेरी आंखें भी भावुकता से भर दीं। अपने आँसुओं को छिपाने की कोशिश में मैं पकड़ ली गयी। उसने कहा, “मणि! नहीं… नहीं तो देखो, मैं भी… ”
अब मैं शान्त, चुपचाप उसका चेहरा, उसकी आँखें पढ़ने लगी थी जिनमें प्यार का समुद्र लहरा रहा था। मगर, मैं इस पागल को कैसे समझाऊँ कि उसे कुछ भी नहीं दे सकती। मेरे पास उसके लिए है ही क्या! मैं तो स्वयं रीता हूँ। अगर उसे साफ कह दूँगी तो जाने वह अपने आपको क्या कर ले! अन्धी भावुकता में उसे मेरी मांग का सिन्दूर भी दिखाई नहीं देता!!—सोचते-सोचते मेरी आँखें पुन: भर आई थीं। मुझे एकाएक ख्याल आया कि यह घर नहीं, कार्यालय है। अत: मैं सतर्क होकर मेज पर पड़ी फाइलों को इधर-उधर करने लगी और न चाहते हुए भी मैंने कहा, “सत्येन! मुझे कुछ काम निबटाने हैं… फिर किसी दिन आना।”
मैंने देखा कि वह कितने भारी कदमों से लौट रहा है। मेरी आँखें पुन: डबडबा गईं।

क्षणिका : नेता

क्षणिका :
नेता 
संजीव
*
नेता!
तुम सभ्य तो हुए नहीं,
मनुज बनना तुम्हें नहीं भाया।
एक बात पूछूँ?, उत्तर दोगे??
लड़ना कहाँ से सीखा?
भागना कहाँ से आया??
***
११-४-२०१४

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

आओ यदि रघुवीर

 आओ यदि रघुवीर

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गले न मिलना भरत से, आओ यदि रघुवीर
धर लेगी योगी पुलिस, मिले जेल में पीर
कोरोना कलिकाल में, प्रबल- करें वनवास
कुटिया में सिय सँग रहें, ले अधरों पर हास
शूर्पणखा की काटकर, नाक धोइए हाथ
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, तीर मारकर नाथ
भरत न आएँ अवध में, रहिए नंदीग्राम
सेनेटाइज शत्रुघन, करें- न विधि हो वाम
कैकई क्वारंटाइनी, कितने करतीं लेख
रातों जगें सुमंत्र खुद, रहे व्यवस्था देख
कोसल्या चाहें कुसल, पूज सुमित्रा साथ
मना रहीं कुलदेव को, कर जोड़े नत माथ
देवि उर्मिला मांडवी, पढ़ा रहीं हैं पाठ
साफ-सफाई सब रखें, खास उम्र यदि साठ
श्रुतिकीरति जी देखतीं, परिचर्या हो ठीक
अवधपुरी में सुदृढ़ हो, अनुशासन की लीक
तट के वट नीचे डटे, केवट देखें राह
हर तब्लीगी पुलिस को, सौंप पा रहे वाह
मिला घूमता जो पिटा, सुनी नहीं फरियाद
सख्ती से आदेश निज, मनवा रहे निषाद
निकट न आते, दूर रह वानर तोड़ें फ्रूट
राजाज्ञा सुग्रीव की, मिलकर करो न लूट
रात-रात भर जागकर, करें सुषेण इलाज
कोरोना से विभीषण, ग्रस्त विपद में ताज
भक्त न प्रभु के निकट हों, रोकें खुद हनुमान
मास्क लगाए नाक पर, बैठे दयानिधान
कौन जानकी जान की, कहो करे परवाह?
लव-कुश विश्वामित्र ऋषि, करते फ़िक्र अथाह
वध न अवध में हो सके, कोरोना यह मान
घुसा मगर आदित्य ने, सुखा निकली जान
*
१०-४-२०२०
संजीव, ९४२५१८३२४४

मुक्तिका

मुक्तिका
*
श्रीधर वंदन
अक्षत चंदन
हों शत वर्षी
लें
अभिनंदन

छंद गीत ही
हैं नंदनवन
हे रस-लयपति
लो
अभिनंदन

कोरोना को
धुन दो दन दन
जन्मदिन की अनंत शुभकामना

हिंदी गज़ल छंद : हरिगीतिका

हिंदी गज़ल
छंद : हरिगीतिका
मापनी : ११२१२
बह्र : मुतफाइलुं
*
जब भी मिलो
खुश हो खिलो
हम भी चलें
तुम भी चलो
जब भोर हो
उगती चलो
जब साँझ हो
ढलती चलो
छवि नैन में
छिपती चलो
मत मौन हो
कहती चलो
*
संजीव
१०-४-२०२०
९४२५१८३२४४

घनाक्षरी या कवित्त

घनाक्षरी या कवित्त
*
सघन संगुफन भाव का, अक्षर अक्षर व्याप्त.
मन को छूते चतुष्पद, रच घनाक्षरी आप्त..
अष्ट अक्षरी त्रै चरण, चौथे अक्षर सात .
लघु-गुरु मात्रा से करें, अंत हमेशा भ्रात..
*
चतुष्पदी मुक्तक छंद घनाक्षरी या छप्पय के पदों में वर्ण-संख्या निश्चित होती हैं किंतु छंद के पद वर्ण-क्रम या मात्रा-गणना से मुक्त होते हैं। किसी अन्य वर्णिक छंद की तरह इसके गण (वर्णों का नियत समुच्चय) व्यवस्थित नहीं होते अर्थात पदों में गणों की आवृत्तियाँ नहीं होतीं।वर्ण-क्रम मुक्तता घनाक्षरी छंद का वैशिष्ट्य है। वाचन में प्रवाहभंग या लयभंग से बचने के लिये सम कलों वाले शब्दों के बाद सम कल के शब्द तथा विषम कलों के शब्द के बाद विषम कलों के शब्द समायोजित किये जाते हैं। वर्ण-गणना में व्यंजन या व्यंजन के साथ संयुक्त स्वर अर्थात संयुक्ताक्षर एक वर्ण माना जाता है।
हिंदी के मुक्तक छंदों में घनाक्षरी सर्वाधिक लोकप्रिय, सरस और प्रभावी छंदों में से एक है। घनाक्षरी की पंक्तियों में वर्ण-संख्या निश्चित (३१, ३२, या ३३) होती है किन्तु मात्रा गणना नहीं की जाती। अतः, घनाक्षरी की पंक्तियाँ समान वर्णिक किन्तु विविध मात्रिक पदभार की होती हैं जिन्हें पढ़ते समय कभी लघु का दीर्घवत् उच्चारण और कभी दीर्घ का लघुवत् उच्चारण करना पड़ सकता है। इससे घनाक्षरी में लालित्य और बाधा दोनों हो सकती हैं। वर्णिक छंदों में गण नियम प्रभावी नहीं होते। इसलिए घनाक्षरीकार को लय और शब्द-प्रवाह के प्रति अधिक सजग होना होता है। समान पदभार के शब्द, समान उच्चार के शब्द, आनुप्रासिक शब्द आदि के प्रयोग से घनाक्षरी का लावण्य निखरता है। वर्ण गणना करते समय लघु वर्ण, दीर्घ वर्ण तथा संयुक्ताक्षरों को एक ही गिना जाता है अर्थात अर्ध ध्वनि की गणना नहीं की जाती है।
१ वर्ण = न, व, या, हाँ आदि.
२ वर्ण = कल, प्राण, आप्त, ईर्ष्या, योग्य, मूर्त, वैश्य आदि.
३ वर्ण = सजल,प्रवक्ता, आभासी, वायव्य, प्रवक्ता आदि.
४ वर्ण = ऊर्जस्वित, अधिवक्ता, अधिशासी आदि.
५ वर्ण = पर्यावरण आदि.
६ वर्ण = वातानुकूलित आदि.
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
घनाक्षरी के ९ प्रकार होते हैं;
१. मनहर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु अथवा लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण।
२. जनहरण: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु शेष सब वर्ण लघु।
३. कलाधर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण ।
४. रूप: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
५. जलहरण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
६. डमरू: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत बंधन नहीं, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
७. कृपाण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण, प्रथम ३ चरणों में समान अंतर तुकांतता, ८-८-८-८ वर्ण।
८. विजया: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
९. देव: कुल वर्ण संख्या ३३. समान पदभार, समतुकांत, पदांत ३ लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-९ वर्ण।
उदाहरण-
०१. शस्य-श्यामला सघन, रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद पोर-पोर घाव बन रोम-रोम रीसते हैं, हूकती है आह से
यहाँ 'शस्य' (२ वर्ण, ३ मात्रा = २१ ), के बाद 'श्यामला' (३ वर्ण, ५ मात्रा, रगण = २१२ = ३ + २) है। अतः 'शस्य' के त्रिकल, के ठीक बाद श्याम का त्रिकल सटीक व्यवस्था कर वाचन में लयभंग नहीं होने देता। ऐसी मात्रा-व्यवस्था घनाक्षरी के सभी पदों में आवश्यक है। घनाक्षरी छन्द के कुल नौ भेदों में मुख्य चार १. मनहरण, २. जलहरण, ३. रूप तथा ४. देव घनाक्षरी हैं।
मनहरण घनाक्षरी- चार पदों के इस छंद के प्रत्येक पद में कुल वर्ण-संख्या ३१ तथा पदांत में गुरु अनिवार्य है। लघु-गुरु का कोई क्रम नियत नहीं है किंतु पदान्त लघु-गुरु हो तो लय सुगम हो जाती है। हर पद में चार चरण होते हैं। हर चरण में वर्ण-संख्या ८, ८, ८, ७ की यति के अनुसार होती है। पदांत में मगण (मातारा, गुरु-गुरु-गुरु, ऽऽऽ, २ २ २) वर्जित है।
अपवाद स्वरूप किसी चरण में वर्ण-व्यवस्था ८, ७, ९, ७ हो किंतु शब्द-कल का निर्वहन सहज हो अर्थात वाचन या गायन में लय-भंग न हो छन्द निर्दोष माना जाता है। सुविधा के लिये ३१ वर्ण की पद-यति १६-१५, १५, १६, १७-१४, १४-१७,१५-१६, १६-१५ या अन्य भी हो सकती है यदि लय बाधित न हो।
उदाहरण-
०२. हम कृतघ्न पुत्र हैं या दानवी प्रभाव है, स्वार्थ औ' प्रमाद में ज्यों लिप्त हैं वो क्या कहें? यति १६-१५
ममत्व की हो गोद या सुरम्यता कारुण्य की, नकारते रहे सदा मूढ़ता को क्या कहें?? यति १६-१५
यहां लय भंग नहीं है किन्तु शब्द-क्रम में यत्किंचित परिवर्तन भी लय भंग का हेतु बन जाता है।
'ममत्व की हो गोद या' को 'या गोद ममत्व की हो' अथवा 'गॉड या ममत्व की हो' किया जाय तो चरण में समान वर्ण होने के बावज़ूद लयभंगता स्पष्ट है। तथा पद-प्रवाह सहज रहें.
उदाहरण-
- सौरभ पांडेय
०१. शस्य-श्यामला सघन, रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद पोर-पोर घाव बन रोम-रोम रीसते हैं, हूकती है आह से
जो कपिल की आग के विरुद्ध सौम्य थी बही अस्त-पस्त-लस्त आज दानवी उछाह से
उत्स है जो सभ्यता व उच्च संस्कार की वो सुरनदी की धार आज रिक्त है प्रवाह से - इकड़ियाँ जेबी से
०२. नीतियाँ बनीं यहाँ कि तंत्र जो चला रहा वो श्रेष्ठ भी दिखे भले परन्तु लोक-छात्र हो
तंत्र की कमान जन-जनार्दनों के हाथ हो, त्याग दे वो राजनीति जो लगे कुपात्र हो
भूमि-जन-संविधान, विन्दु हैं ये देशमान, संप्रभू विचार में न ह्रास लेश मात्र हो
किन्तु सत्य है यही सुधार हो सतत यहाँ, ताकि राष्ट्र का समर्थ शुभ्र सौम्य गात्र हो
- संजीव 'सलिल'
०३. फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान, दीप बाल अंधकार, ज़िन्दगी का हरता।
नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो, जीतता सुधीर वीर, पीर पीर सहता।।
'सलिल'-प्रवाह पैठ, आगे बढ़ नहीं बैठ, सागर है दूर पूर, दूरी हो निकटता।
आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ, हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।
०४. गीत-ग़ज़ल गाइये / डूबकर सुनाइए / त्रुटि नहीं छिपाइये / सीखिये-सिखाइए
शिल्प-नियम सीखिए / कथ्य समझ रीझिए / भाव भरे शब्द चुन / लय भी बनाइए
बिम्ब नव सजाइये / प्रतीक भी लगाइये / अलंकार कुछ नये / प्रेम से सजाइए
वचन-लिंग, क्रिया रूप / दोष न हों देखकर / आप गुनगुनाइए / वाह-वाह पाइए
.
०५. कौन किसका है सगा? / किसने ना दिया दगा? / फिर भी प्रेम से पगा / जग हमें दुलारता
जो चला वही गिरा / उठ हँसा पुन: बढ़ा / आदि-अंत सादि-सांत / कौन छिप पुकारता?
रात बनी प्रात नित / प्रात बने रात फिर / दोपहर कथा कहे / साँझ नभ निहारता
काल-चक्र कब रुका? / सत्य कहो कब झुका? /मेहनती नहीं चुका / धरांगन बुहारता
.
०६. न चाहतें, न राहतें / न फैसले, न फासले / दर्द-हर्ष मिल सहें / साथ-साथ हाथ हों
न मित्रता, न शत्रुता / न वायदे, न कायदे / कर्म-धर्म नित करें / उठे हुए माथ हों
न दायरे, न दूरियाँ / रहें न मजबूरियाँ / फूल-शूल, धूप-छाँव / नेह नर्मदा बनें
गिर-उठें, बढ़े चलें / काल से विहँस लड़ें / दंभ-द्वेष-छल मिटें / कोशिशें कथा बुनें
०७. चाहते रहे जो हम / अन्य सब करें वही / हँस तजें जो भी चाह / उनके दिलों में रही
मोह वासना है यह / परार्थ साधना नहीं / नेत्र हैं मगर मुँदे / अग्नि इसलिए दही
मुक्त हैं मगर बँधे / कंठ हैं मगर रुँधे / पग बढ़े मगर रुके / सर उठे मगर झुके
जिद्द हमने ठान ली / जीत मन ने मान ली / हार छिपी देखकर / येन-केन जय गही
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
*
कल :
कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है कि, श्याम घन मंडल मे दामिनी की धारा है ।
भामिनी के अंक में कलाधर की कोर है कि, राहु के कबंध पै कराल केतु तारा है ।
शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है कि, तेज ने तिमिर के हिये मे तीर मारा है ।
काली पाटियों के बीच मोहनी की माँग है कि, ढ़ाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है ।
काले केशों के बीच सुन्दरी की माँग की शोभा का वर्णन करते हुए कवि ने ८ उपमाएँ दी हैं.-
१. काजल के पर्वत पर दीपक की बाती.
२. काले मेघों में बिजली की चमक.
३. नारी की गोद में बाल-चन्द्र.
४. राहु के काँधे पर केतु तारा.
५. कसौटी के पत्थर पर सोने की रेखा.
६. काले बालों के बीच मन को मोहने वाली स्त्री की माँग.
७. अँधेरे के कलेजे में उजाले का तीर.
८. ढाल पर कामदेव की दो धारवाली तलवार.
कबंध=धड़. राहु काला है और केतु तारा स्वर्णिम, कसौटी के काले पत्थर पर रेखा खींचकर सोने को पहचाना जाता है. ढाल पर खाँडे की चमकती धार. यह सब केश-राशि के बीच माँग की दमकती रेखा का वर्णन है.

गीत: नदी मर रही है

गीत:
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
नदी माँ हमारी, भुलाया है हमने
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
१२.३.२०१८

नवगीत

नवगीत 
*
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
*
तरस गए हम स्वर्ण पदक को
एक नहीं मिल पाया
किससे-कितना रोना रोयें
कोई काम न आया
हम सा निपुण न कोई जग में
आत्म प्रशंसा करने में
काम बंद कर, संसद ठप कर
अपनी जेबें भरने में
तीनों पदक हमीं पाएंगे
यदि हो धुप्पलबाजी भी
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
*
दारू के ठेके दे-देकर
मद्य-निषेध कर रहे हम
दूरदर्शनी बहस निरर्थक
मन में ज़हर भर रहे हम
रीति-नीति-सच हमें न भाता
मनमानी के हामी हैं
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
भ्रष्टाचारी नामी हैं
हों ब्रम्हांडजयी केवल हम
यदि हो जुमलेबाजी भी
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
*
बीबी-बहू-बेटियाँ, बेटे
अपने मंत्री-अफसर हों
कोई हो सरकार, मरें जन
अपने उज्जवल अवसर हों
आम आदमी दबा करों से
धनिकों के ऋण माफ़ करें
करें देर-अंधेर, नहीं पर
न्यायालय इन्साफ करें
लोकतंत्र का दम निकले
ऐसी कुछ हो घपलेबाजी भी
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
*
१०-४-२०१७ 

मुक्तक

मुक्तक
प्रश्न उत्तर माँगते हैं, घूरती चुप्पी
बनें मुन्ना भाई लें-दें प्यार से झप्पी
और इस पर भी अगर मन हो न पाए शांत
गाल पर शिशु के लगा दें प्यार से पप्पी
*
१०-४-२०१७

समीक्षा व्यंग्य संग्रह सुदर्शन सोनी

पुस्तक चर्चा-
'महँगाई का शुक्ल पक्ष'-सामयिक विसंगतियों की शल्यक्रिया
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक विवरण- महँगाई का शुक्ल पक्ष, व्यंग्य लेख संग्रह, सुदर्शन कुमार सोनी, ISBN ९७८-९३-८५९४२-११-२, प्रथम संस्करण २०१६, आकार- २०.५ सेमी X १४ सेमी, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, लेमिनेटेड, पृष्ठ १४४, मूल्य १२०/-,बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, ९८२६० १८०८७, व्यंग्यकार संपर्क- डी ३७ चार इमली, भोपाल, ४६२०१६, चलभाष ९४२५६३४८५२, sudarshanksoniyahoo.co.in ] 
*
विवेच्य कृति एक व्यंग्य संग्रह है। संस्कृत भाषा का शब्द ‘व्यंग्य’ शब्द ‘अज्ज’ धातु में ‘वि’ उपसर्ग और ‘ण्यत्’ प्रत्यय के लगाने से बनता है। यह व्यंजना शब्द शक्ति से संबंधित है तथा ‘व्यंग्यार्थ’ के रूप में प्रयोग किया जाता है। आम बोलचाल में व्यंग्य को ‘ताना’ या ‘चुटकी’ कहा जाता है जिसका अर्थ है “चुभती हुई बात जिसका कोई गूढ़ अर्थ हो।” आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार “व्यंग्य कथन की एक ऐसी शैली है जहाँ बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठे।” व्यंग्य सोद्देश्य, तीखा व तेज-तर्रार कथन है जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है। कथन की एक शैली के रूप में जन्मा व्यंग्य क्रमश: साहित्य की ऊर्जस्वित विधा के रूप में विक्सित हो रहा है।
आज़ादी के बाद आमजन का रामराज की परिकल्पना से शासन-प्रशासन की व्यवस्था में मनोवांछित परिवर्तन न पाकर मोह-भंग हुआ। राजनैतिक-सामाजिक विद्रूपताओं ने व्यंग्य शैली को विधा का रूप धारण करने के लिए उर्वर जमीन प्रदान की है। व्यंग्य ‘जो गलत है’ उस पर तल्ख चोट कर ‘जो सही होना चाहिए’ उस सत्य ओर इशारा भी करता है। इसलिए व्यंग्य आमें साहित्य की केन्द्रीय विधा बनने की पूरी संभावना सन्निहित है। आधुनिक हिंदी साहित्य का व्यंग्य अंग्रेजी की 'सैटायर' विधा से प्रेरित है जिसमें व्यवस्था का मजान उदय जाता है। व्यंग्य में उपहास, कटाक्ष, मजाक, लुत्फ़, आलोचना तथा यत्किंचित निंदा का समावेश होता है।
इस पृष्ठ भूमि में सुदर्शन कुमार सोनी के व्यंग्य लेख संग्रह 'मँहगाई का शुक्ल पक्ष' को पढ़ना सैम सामयिक विसंगतियों से साक्षात् करने की तरह है। उनके व्यंग्य लेख न तो परसाई जी के व्यंग्य की तरह तिलमिलाते हैं, न शरद जोशी के व्यंग्य की तरह गुदगुदाते हैं, न लतीफ़ घोंघी के व्यंग्य लेखों की तरह गुदगुदाते हैं। सनातन सलिल नर्मदा तट स्थित संस्कारधानी जबलपुर में जन्में सुदर्शन जी प्रशासनिक अधिकारी हैं, अत: उनकी भाषा में गाम्भीर्य, अभिव्यक्ति में संतुलन, आक्रोश में मर्यादा तथा असहमति में संयम होना स्वाभाविक है। विवेच्य कृति के पूर्व उनके ३ कहानी संग्रह नजरिया, यथार्थ, जिजीविषा तथा एक व्यंग्य संग्रह 'घोटालेबाज़ न होने का गम' छप चुके हैं।
इस संग्रह में बैंडवालों से माफी की फरियाद, अनोखा मर्ज़, देश में इस समय दो ही काम बयान हो रहे हैं, सबके पेट पर लात, कुछ घट रहा है तो कुछ बढ़ रहा है, इट्स रेनिंग डिक्शनरीज एंड ग्रामर बुक्स, मँहगाई का शुक्ल पक्ष, चिर यौवनता की धनी, आज अफसर बहुत खुश है, आम और ख़ास, आवश्यकता नहीं उचक्कापन ही आविष्कार की जननी है, आई एम वोटिंग फॉर यू, धूमकेतु समस्या, सबसे ज्यादा असरकारी इंसान नहीं उसके रचे शब्द हैं, लाइन में लगे रहो, हाय मैंने उपवास रखा, नींद दिवस, समस्या कभी खत्म नहीं होती, सरकार के लिए कहाँ स्कोप है?, मीटिंग अधिकारी, देश का रोजनामचा, झाड़ू के दिन जैसे सबके फिरे, ये ही मेरे आदर्श हैं, फूलवालों की सैर, इन्सान नहीं परियोजनाएं अमर होती हैं, उदासी का सेलिब्रेशन, महिला सशक्तिकरण के सही पैमाने, नेता का पियक्कड़ से चुनावी मौसम में आमना-सामना, भरे पेट का चिंतन खालीपेट का चिंतन, पलटे पेटवाला आदमी, खूब जतन कर लिये नहीं हो पाया, मानसून व पत्नी की तुलना, अनोखी घुड़दौड़, रत्नगर्भा अभियान, पेड़ कटाई, बेचारे ये कुत्ते घुमानेवाले, जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन, इंसान की पूंछ होती तो क्या होता?, इन्सान के इंजिन व ऑटोमोबाइल के हार्ट का परिसंवाद, धांसू अंतिम यात्रा की चाहत, 'अच्छे दिन आने वाले हैं' पर पीएच डी, आक्रोश ज़ोन तथा इन्सान तू सच में बहुरूपिया है शीर्षक ४३ व्यंग्य लेख सम्मिलित हैं।
प्रस्तुत संग्रह से देश के सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में व्याप्त अराजकता के साथ-साथ हिंदी के भाषिक लिखित-वाचिक रूप में व्याप्त अराजकता का भी साक्षात् हो जाता है। व्यंग्यकार सुशिक्षित, अनुभवी और समृद्ध शब्द-भण्डार के धनी हैं। साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन मात्र नहीं होता, वह भाषा के स्वरूप को संस्कारित भी करता है। नई पीढ़ी पुरानी पुस्तकों से ही भाषा को ग्रहण करती है। यह सर्वमान्य तथ्य है की किसी भाषा के श्रेष्ठ साहित्य में अन्य भाषा के शब्द आवश्यक होने पर ही लिये जाते हैं। विवेच्य कृति में हिंदी, संस्कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्दों का उदारतापूर्वक और बहुधा उपयुक्त प्रयोग हुआ है। अप्रतिम, उत्तरार्ध, शाश्वत, अदृश्य, गरिष्ठ, अपसंस्कृति, वयस्कता जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, नून तलक, बावला, सयाना आदि देशज शब्द, खास, रिश्तों, खत्म, माशूक, अय्याश, खुराफाती, जंजीर जैसे उर्दू शब्द और क्रिकेट, एस एम एस, डोक्टर, इलेक्ट्रोनिक, डॉलर, सोफ्टवेयर जैसे अंग्रेजी शब्दों के समुचित प्रयोग से लेखों की भाषा जीवंत और सहज हुई है किन्तु ऐसे अंग्रेजी शब्द जिनके सरल, सहज और प्रचलित हिंदी शब्द उपलब्ध और जानकारी में हैं उनका प्रयोग न कर अंग्रेजी शब्द को ठूँसा जाना खीर में कंकर की प्रतीति कराता है। ऐसे शताधिक शब्दों में से कुछ इंटरेस्ट (रूचि), लेंग्थ (लंबाई), ड्रेस (पोशाक), क्वालिटी (गुणवत्ता), क्वांटिटी (मात्रा), प्लाट (भूखंड), साइज (परिमाप), लिस्ट (सूची), पैरेंट (अभिभावक), चैप्टर (अध्याय), करेंसी (मुद्रा), इमोशनल (भावनात्मक) आदि हैं। इससे भाषा प्रदूषित होती है।
कोढ़ में खाज यह कि मुद्रण-त्रुटि ने भी जाने-अनजाने शब्दों को विरूपित कर दिया है। महँगाई (बृहत हिंदी कोश, पृष्ठ ८७८) शब्द के दो रूप महंगाई तथा मंहगाई मुद्रित हुए हैं किन्तु दोनों ही गलत हैं। गजब यह कि 'मंह' का मतलब 'मुंह' बता दिग गया है। यह भाषा विज्ञानं के किस नियम से संभव है? यदि वह सन्दर्भ दे दिया जाता तो मुझ पाठक का ज्ञान बढ़ पाता। अनुस्वार तथा अनुनासिक के प्रयोग में भी स्वच्छन्दता बरती गयी है। 'ढ' और 'ढ़' के मुद्रण की त्रुटि ने 'मेंढक' को 'मेंढ़क' बना दिया। 'लड़ाई' के स्थान पर 'लड़ी', 'ढूँढना' के स्थान पर 'ढूंढ़ने' जैसी मुद्रण त्रुटी सम्भवत:शीघ्रता के कारण हुई हो क्योंकि प्रकाशक की अन्य पुस्तकें पथ्य त्रुटियों से मुक्त हैं। व्यंग्यकार का भाषा कौशल 'आम के आम गुठली के दाम', 'नाक-भौं सिकोड़ना' आदि मुहावरों तथा 'आवश्यकता अविष्कार की जननी है' जैसे सूक्ति वाक्यों के प्रयोग में निखरा है। 'लोकलीकरण' जैसे नये शब्द का प्रयोग लेखक की सामर्थ्य दर्शाता है। ऐसे प्रयोगों से भाषा समृद्ध होती है।
व्यंग्य लेखों के विषय सामयिक, चिन्तन सार्थक तथा भाषा शैली सहज ग्राह्य है। 'व्यंजना' शक्ति का अधिकाधिक प्रयोग भाषा के मारक प्रभाव में वृद्धि करेगा। पाठकों के बीच यह संग्रह लोकप्रिय होगा।
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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com

बंकिम चंद्र

बंकिम चंद्र के साहित्य में विविधता झलकती है
गुड्डो दादी 
*
'वंदे मातरम' के रचयिता बांग्ला लेखक बंकिमचंद्र चटर्जी को न केवल देशभक्ति का अलख जगाने वाले उपन्यास 'आनंदमठ' के लेखक के रूप में जाना जाता है बल्कि उन्हें कई रोमांटिक उपन्यासों की रचना के लिए भी ख्याति प्राप्त है। बंकिमचंद्र चटर्जी की पहचान बांग्ला कवि उपन्यासकार लेखक और पत्रकार के रूप में है। चटर्जी का जन्म 26 जून 1838 को एक रूढ़िवादी परिवार में हुआ था जबकि आठ अप्रैल 1894 को उनका निधन हो गया था।
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक मोहम्मद काजिम ने बताया कि बंकिमचंद्र को बंगाल के प्रारंभिक उपन्यासकार के रूप में ख्याति प्राप्त है। उनकी रचनाओं में समाज की विविधता झलकती है। इस बांग्ला रचनाकार के बारे में कहा जाता है कि माइकल मधुसूदन ने जो योगदान बांग्ला काव्य में दिया वैसा ही योगदान चटर्जी ने बांग्ला फिक्शन के लिए दिया है। प्रो. काजिम ने बताया कि चटर्जी एक बेहतर कथाकार और रोमानी रचनाओं के सृजक भी थे। वह रास्ता बनाने वालों में से थे। इससे पहले किसी भी बांग्ला लेखक ने उनकी तरह ख्याति अर्जित नहीं की थी।
बंकिमचंद्र के उपन्यासों का भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया। उनकी प्रथम प्रकाशित कथा-कृति राजमोहन्स वाइफ थी। इसकी रचना अंग्रेजी में की गई थी। बांग्ला में प्रकाशित उनकी प्रथम रचना दुर्गेश नंदिनी (1865) थी जो एक रूमानी रचना है। उनकी अगली रचना का नाम कपालकुंडला (1866) है। इसे उनकी सबसे अधिक रूमानी रचनाओं में से एक माना जाता है। उन्होंने 1872 में मासिक पत्रिका बंगदर्शन का भी प्रकाशन किया। अपनी इस पत्रिका में उन्होंने विषवृक्ष (1873) उपन्यास का क्रमिक रूप से प्रकाशन किया।
कृष्णकंटक विल में चटर्जी ने कुछ कल्पना का इस्तेमाल किया है और इसे पाश्चात्य उपन्यास के करीब माना जाता है। चटर्जी की एकमात्र रचना जिसे ऐतिहासिक फिक्शन माना जा सकता है वह राजसिम्हा (1881) है। आनंदमठ राजनीतिक उपन्यास है। इस उपन्यास में उत्तर बंगाल में 1773 के संन्यासी विद्रोह का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में देशभक्ति की भावना है। बंकिमचंद्र की इस रचना ने देश को वंदे मातरम गीत दिया जो आगे चलकर राष्ट्रगीत बना। चटर्जी का आखिरी उपन्यास सीताराम (1886) है। इसमें मुस्लिम सत्ता के प्रति एक हिंदू शासक का विरोध दर्शाया गया है।

नवगीत:करना होगा

नवगीत:करना होगा...
*
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
देखे दोष,
दिखाए भी हैं.
लांछन लगे,
लगाये भी है.
गिरे-उठे
भरमाये भी हैं.
खुद से खुद
शरमाये भी हैं..
परिवर्तन-पथ
वरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
दीपक तले
पले अँधियारा.
किन्तु न तम की
हो पौ बारा.
डूब-डूबकर
उगता सूरज.
मिट-मिट फिर
होता उजियारा.
जीना है तो
मरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***

नवगीत: आओ! तम से लड़ें

नवगीत:
आओ! तम से लड़ें...
संजीव 'सलिल'
*
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
माटी माता,
कोख दीप है.
मेहनत मुक्ता
कोख सीप है.
गुरु कुम्हार है,
शिष्य कोशिशें-
आशा खून
खौलता रग में.
आओ! रचते रहें
गीत फिर गायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
आखर ढाई
पढ़े न अब तक.
अपना-गैर न
भूला अब तक.
इसीलिये तम
रहा घेरता,
काल-चक्र भी
रहा घेरता.
आओ! खिलते रहें
फूल बन, छायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***

नवगीत:करो बुवाई

नवगीत:करो बुवाई...
*
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*

नवगीत चलो! कुछ गायें

नवगीत:
चलो! कुछ गायें...
संजीव 'सलिल'
*
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
माना अँधियारा गहरा है.
माना पग-पग पर पहरा है.
माना पसर चुका सहरा है.
माना जल ठहरा-ठहरा है.
माना चेहरे पर चेहरा है.
माना शासन भी बहरा है.
दोषी कौन?...
न शीश झुकायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
सच कौआ गा रहा फाग है.
सच अमृत पी रहा नाग है.
सच हिमकर में लगी आग है.
सच कोयल-घर पला काग है.
सच चादर में लगा दाग है.
सच काँटों से भरा बाग़ है.
निष्क्रिय क्यों?
परिवर्तन लायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
१०-४-२०१०