मुक्तिका
हिंदी ग़ज़ल इसने पढ़ी
फूहड़ हज़ल उसने गढ़ी
बेबात ही हर बात क्यों
सच बोल संसद में बढ़ी?
कुछ दूर तुम, कुछ दूर हम
यूँ बेल नफरत की चढ़ी
डालो पकौड़ी प्रेम की
स्वादिष्ट हो जीवन-कढ़ी
दे फतह ठाकुर श्वास को
हँस आस ठकुराइन गढ़ी
कोशिश मनाती जीत को
माने न जालिम नकचढ़ी
***
संजीव
६-३-२०२०
९४२५१८३२४४
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शनिवार, 6 मार्च 2021
हिंदी ग़ज़ल
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मुक्तिका,
हिंदी ग़ज़ल
हास्य मुक्तिका होली में नायिका
हास्य मुक्तिका
होली में नायिका
*
*
फागुन में सावन सी बारिश नशीली है
नायिका को ढाँक-दिखा चोली भी रंगीली है
लाल लाल गाल या टमाटर की जैली है
लाल लाल गाल या टमाटर की जैली है
नायिका की नाक पीली लगे ज्यों पकौड़ी है
काली भौंह तान ताक नैन बान मार रही
नायक को खोज रही आँख सपनीली है
हाथ में गुलाल लाल ले झपट लपटती
साँवरे की बावरी की हुई ठोड़ी नीली है
श्वेत केश श्याम हुए, छैला बदनाम हुए
साठवाली लग रही, सोलह की छोरी है
छेड़ रही सखी संग, नायक हुआ है तंग
दाँव-पेंच दिखा, रिझा खिजा, बनी भोली है





श्वेत केश श्याम हुए, छैला बदनाम हुए
साठवाली लग रही, सोलह की छोरी है
छेड़ रही सखी संग, नायक हुआ है तंग
दाँव-पेंच दिखा, रिझा खिजा, बनी भोली है





समीक्षा प्यास के हिरन, बंधु
प्यास के हिरन : नवगीत की ज्योतित किरण
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण:प्यास के हिरन, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, वर्ष १९९८, पृष्ठ ९४, मूल्य ४०/-, प्रकाशक पराग दिल्ली, नवगीतकार संपर्क:९८६८४४४६६६, rsbandhu2 @gmail.com]
मानवीय सभ्यता के विकास के साथ ध्वनियों की पहचान, इनमें अन्तर्निहित संवेदनाएँ. इनकी पुनर्प्रस्तुति, इनके विविध संयोजन और उनके अर्थ, संवेदनाओं को व्यक्त करते शब्द, शब्द समुच्चयों के आरोह-अवरोह और उनसे अभिव्यक्त होती भावनायें, छलकती सरसता क्रमशः लोकगीतों का रूप लेती गयी. सुशिक्षित अभिजात्य वर्ग में रचनाओं के विधान निश्चित करने की चेतना ने गीतों और गीतों में छांदस अनुशासन, बिम्ब, प्रतीकों और शब्दावली परिवर्तन की चाह के द्वार पर आ खड़ी हुई है.
नवगीतों और छंदानुशासन को सामान कुशलता से साध सकने की रूचि, सामर्थ्य और कौशल जिन हस्ताक्षरों में है उनमें से एक हैं राधेश्याम बंधु जी. बंधु जी का नवगीत संकलन प्यास के हिरन के नवगीत मंचीय दबावों में अधिकाधिक व्यावसायिक होती जाती काव्याभिव्यक्ति के कुहासे में सांस्कारिक सोद्देश्य रचित नवगीतों की अलख जगाता है. नवगीतों को लोक की अभिव्यक्ति का माध्यम माननेवालों में बंधु जी अग्रणी हैं. वे भाषिक और पिन्गलीय विरासत को अति उदारवाद से दूषित करने को श्रेयस्कर नहीं मानते और पारंपरिक मान्यताओं को नष्ट करने के स्थान पर देश-कालानुरूप अपरिहार्य परिवर्तन कर लोकोपयोगी और लोकरंजनीय बनाने के पथ पर गतिमान हैं.
बंधु जी के नवगीतों में शब्द-अर्थ की प्रतीति के साथ लय की समन्विति और नादजनित आल्हाद की उपस्थिति और नियति-प्रकृति के साथ अभिन्न होती लोकभावनाओं की अभिव्यक्ति का मणिकांचन सम्मिलन है. ख्यात समीक्षक डॉ. गंगा प्रसाद विमल के अनुसार’ बंधु जी में बडबोलापन नहीं है. उनमें रूपक और उपमाओं के जो नये प्रयोग मिलते हैं उनसे एक विचित्र व्यंग्य उभरता है. वह व्यंग्य जहाँ स्थानिक संबंधों पर प्रहार करता है वहीं वह सम्पूर्ण व्यवस्था की विद्रूपता पर भी बेख़ौफ़ प्रहार करता है. बंधु जी पेशेवर विद्रिही नहीं हैं, वे विसंगत के प्रति अपनी असहमति को धारदार बनानेवाले ऐसे विद्रोही हैं जिसकी चिंता सिर्फ आदमी है और वह आदमी निरंतर युद्धरत है.’
प्यास के हिरन (२३ नवगीत), रिश्तों के समीकरण (२७ नवगीत) तथा जंग जारी है (७ नवगीत) शीर्षक त्रिखंदों में विभक्त यह नवगीत संकलन लोक की असंतुष्टि, निर्वाह करते रहने की प्रवृत्ति और अंततः परिवर्तन हेतु संघर्ष की चाह और जिजीविषा का दस्तावेज है. ये गीति रचनाएँ न तो थोथे आदर्श का जय घोष करती है, न आदर्शहीन वर्तमान के सम्मुख नतमस्तक होती हैं, ये बदलाव की अंधी चाह की मृगतृष्णा में आत्माहुति भी नहीं देतीं अपितु दुर्गन्ध से जूझती अगरुबत्ती की तरह क्रमशः सुलगकर अभीष्ट को इस तरह पाना चाहती हैं कि अवांछित विनाश को टालकर सकल ऊर्जा नवनिर्माण हेतु उपयोग की जा सके.
बाजों की / बस्ती में, धैर्य का कपोत फँसा / गली-गली अट्टहास, कर रहे बहेलिये, आदमकद / टूटन से, रोज इस तरह जुड़े / सतही समझौतों के प्यार के लिए जिए, उत्तर तो / बहरे हैं, बातूनी प्रश्न, / उँगली पर ठहर गये, पर्वत से दिन, गुजरा / बंजारे सा एक वर्ष और, चंदा तो बाँहों में / बँध गया, किन्तु लुटा धरती का व्याकरण, यह घायल सा मौन / सत्य की पाँखें नोच रहा है, आदि-आदि पंक्तियों में गीतकार पारिस्थितिक वैषम्य और विडम्बनाओं के शब्द चित्र अंकित करता है.
साधों के / कन्धों पर लादकर विराम / कब तक तम पियें, नये सूरज के नाम?, ओढ़ेंगे / कब तक हम, अखबारी छाँव?, आश्वासन किस तरह जिए?, चीर हरणवाले / चौराहों पर, मूक हुआ क्यों युग का आचरण?, आश्वासन किस तरह जिए? / नगरों ने गाँव डंस लिये, कल की मुस्कान हेतु / आज की उदासी का नाम ताक न लें?, मैंने तो अर्पण के / सूर्य ही उगाये नित / जाने क्यों द्विविधा की अँधियारी घिर आती, हम उजाले की फसल कैसे उगाये?, अपना ही खलिहान न देता / क्यों मुट्ठी भर धान, जैसी अभिव्यक्तियाँ जन-मन में उमड़ते उन प्रश्नों को सामने लाती हैं जो वैषम्य के विरोध की मशाल बनकर सुलगते ही नहीं शांत मन को सुलगाकर जन असंतोष का दावानल बनाते हैं.
जो अभी तक / मौन थे वे शब्द बोलेंगे / हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे, धूप बनकर / धुंध में भी साथ दो तो / ज़िन्दगी का व्याकरण कुछ सरल हो जाए, बाबा की अनपढ़ / बखरी में शब्दों का सूरज ला देंगे, अनब्याहे फासले / ममता की फसलों से पाटते चलो, परिचय की / शाखों पर, संशय की अमरबेल मत पालो, मैं विश्वासों को चन्दन कर लूँगा आदि में जन-मन की आशा-आकांक्षा, सपने तथा विश्वास की अभिव्यक्ति है. यह विश्वास ही जनगण को सर्वनाशी विद्रोह से रोककर रचनात्मक परिवर्तन की ओर उन्मुख करता है. क्रांति की भ्रान्ति पालकर जीती प्रगतिवादी कविता के सर्वथा विपरीत नवगीत की यह भावमुद्रा लोक की, लोक के द्वारा, लोक के लिये सक्षम व्यवस्था का आव्हान करती है.
बंधु जी के नवगीत सरस श्रृंगार-सलिला में अवगाहन करते हुए मनोरम अभिव्यक्तियों से पाठक का मन मोहने में समर्थ हैं. यादों के / महुआ वन, तन-मन में महक उठे / आओ! हम बाँहों में, गीत-गीत हो जायें, तुम महकते द्वीप की मुस्कान / हम भटकते प्यार के जलयान / क्यों न हम-तुम मिल, छुअन के छंद लिख डालें? क्यों न आदिम गंध से, अनुबंध लिख डालें, आओ, हँ-तुम मिल / प्यार के गुणकों से / रिश्तों के समीकरण, हल कर लें, दालानों की / हँसी खनकती, बाजूबंद हुई / आँगन की अठखेली बोली, नुपुर छंद हुई, चम्पई इशारों से / लिख-लिख अनुबंध / एक गंध सौंप गयी, सौ-सौ सौगंध, खिड़की में / मौलश्री, फूलों का दीप धरे / कमरे का खालीपन, गंध-गीत से भरे, नयनों में / इन्द्रधनुष, अधरोंपर शाम / किसके स्वागत में ये मौसमी प्रणाम? जैसी मादक-मदिर अभिव्यक्तियाँ किसके मन को न मोह लेंगी?
बंधु जी का वैशिष्ट्य सहज-सरल भाषा और सटीक शब्दों का प्रयोग है. वे न तो संस्कृतनिष्ठता को आराध्य मानते हैं, न भदेसी शब्दों को ठूँसते हैं, न ही उर्दू या अंग्रेजी के शब्दों की भरमार कर अपनी विद्वता की धाक जमाते हैं. इस प्रवृत्ति के सर्वथा विपरीत बंधु जी नवगीत के कथ्य को उसके अनुकूल शब्द ही नहीं बिम्ब और प्रतीक भी चुनने देते हैं. उनकी उपमाएँ और रूपक अनूठेपन का बना खोजते हुए अस्वाभाविक नहीं होते. धूप-धिया, चितवन की चिट्ठी, याद की मुंडेरी, शतरंजी शब्द, वासंती सरगम, कुहरे की ओढ़नी, रश्मि का प्रेमपत्र आदि कोमल-कान्त अभिव्यक्तियाँ नवगीत को पारंपरिक वीरासा से अलग-थलग कर प्रगतिवादी कविता से जोड़ने के इच्छुक चंद जनों को भले ही नाक-भौं चढ़ाने के लिये विवश कर दे अधिकाँश सुधि पाठक तो झूम-झूम कर बार-बार इनका आनंद लेंगे.
नवगीत लेखन में प्रवेश कर रहे मित्रों के लिए यह नवगीत संग्रह पाठ्य पुस्तक की तरह है. हिंदी गीत लेखन में उस्ताद परंपरा का अभाव है, ऐसे संग्रह एक सीमा तक उस अभाव की पूर्ति करने में समर्थ हैं.
रिश्तों के इन्द्रधनुष, शब्द पत्थर की तरह आदमी की भीड़ में शीर्षक ३ मुक्तिकाएँ (हिंदी गज़लें) तथा आदमी शीर्षक एकमात्र मुक्तक की उपस्थिति चौंकाती है. इसने संग्रह की शोभा नहीं बढ़ती. तमसा के तट पर, मेरा सत्य हिमालय पर नवगीत अन्य सम्मिलित नवगीतों की सामान्य लीक से हटकर हैं. सारतः यह नवगीत संग्रह बंधु जी की सृजन-सामर्थ्य का जीवंत दस्तावेज होने के साथ-साथ आम पाठक के लिये रस की गागर भी है. ***
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बंधु,
समीक्षा प्यास के हिरन
नवगीत के नये प्रतिमान
नवगीत के नये प्रतिमान : अनंत आकाश अनवरत उड़ान
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[कृति विवरण: नवगीत के नये प्रतिमान, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी जेकेट युक्त, वर्ष २०१२, पृष्ठ ४६४, मूल्य ५००/-, प्रकाशक कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, नवगीतकार संपर्क ९८६८४४४६६६, rsbandhu2@gmail.com]
समकालिक हिंदी काव्य के केंद्र में आ चुका नवगीत अपनी विकास यात्रा के नव पड़ावों की ओर पग रखते हुए नव छंद संयोजन से लोक धुनों और लोक गीतों की ओर कदम बढ़ा रहा है. बटोही, कजरी, आल्हा. पंथी आदि सहोदरों से गले मिलकर सहज उल्लास के स्वर गुंजाने लगा है. छायावाद की अमूर्तता और साम्यवादी प्रगतिवाद के भटकाव से निकलकर नवगीत जन-मन की व्यथा, जन-जीवन की छवि तथा जनाशाओं का उल्लास लोक में चिरकाल से व्याप्त शब्दों, धुनों, गीतों में ढालकर व्यक्त करने की ओर प्रयाण कर चुका है. विशिष्ट शब्दावली, छंद पंक्तियों में गति-यति स्थलों पर पंक्ति परिवर्तन कर नव छंद रचने के व्यामोह से मुक्त होकर नवगीत अब अपनी अस्मिता की खोज में अपनी जमीन में जमी जड़ों की ओर जा रहा है जो निराला की दिशा थी.
नवगीत को हिंदी समालोचना के दिग्गजों द्वारा अनदेखा किया जाने के बावजूद वह जनवाणी बनकर उनके कानों में प्रविष्ट हो गया है. फलतः, नवगीत के मूल्यांकन के गंभीर प्रयास हो रहे हैं. नवगीत की नवता-परीक्षण के प्रतिमानों के अन्वेषण का दुरूह कार्य सहजता से करने का पौरुष दिखाया है श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार राधेश्याम बंधु ने. नवगीत के नये प्रतिमानों पर चर्चा करता सम्पादकीय खंड आलोचना और सौन्दर्य बोध, वस्तुवादी वर्गीय चेतना और उसका यथार्थवाद, प्रयोगवाद और लोकधर्मी प्रयोग, इतिहासबोध: उद्भव और विकास, लोकचेतना और चुनौतियाँ, नये रूप और वस्तु की प्रासंगिकता, छंद और लय की प्रयोजनशीलता, मूल्यान्वेषण की दृष्टि और उसका समष्टिवाद, वैज्ञानिक और वैश्विक युगबोध, सामाजिक चेतना और जनसंवादधर्मिता, वैचारिक प्रतिबद्धता और जनचेतना तथा जियो और जीने दो आदि बिन्दुओं पर केन्द्रित है. यह खंड कृतिकार के गहन और व्यापक अध्ययन-मनन से उपजे विचारों के मंथन से निसृत विचार-मुक्ताओं से समृद्ध-संपन्न है.
परिचर्चा खंड में डॉ. नामवर सिंह, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ. नित्यानंद तिवारी, डॉ. मैनेजर पाण्डेय, डॉ. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह, डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, डॉ. विमल, रामकुमार कृषक जैसे विद्वज्जनों ने हिचकते-ठिठकते हुए ही सही नवगीत के विविध पक्षों का विचारण किया है. यह खंड अधिक विस्तार पा सकता तो शोधार्थियों को अधिक संतुष्ट कर पाता. वर्तमान रूप में भी यह उन बिन्दुओं को समाविष्ट किये है जिनपर भविष्य में प्रासाद निर्मित किये का सकते हैं.
sसमीक्षात्मक आलेख खंड के अंतर्गत डॉ. शिव कुमार मिश्र ने नवगीत पर भूमंडलीकरण के प्रभाव और वर्तमान की चुनौतियाँ, डॉ. श्री राम परिहार ने नवगीत की नयी वस्तु और उसका नया रूप, डॉ. प्रेमशंकर ने लोकचेतना और उसका युगबोध, डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी ने गीत प्रगीत और नयी कविता का सच्चा उत्तराधिकारी नवगीत, डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ ने सामाजिक चेतना और चुनौतियाँ, डॉ. भारतेंदु मिश्र ने आलोचना की असंगतियाँ, डॉ. सुरेश उजाला ने विकास में लघु पत्रिकाओं का योगदान, डॉ. वशिष्ठ अनूप ने नईम के लोकधर्मी नवगीत, महेंद्र नेह ने रमेश रंजक के अवदान, लालसालाल तरंग ने कुछ नवगीत संग्रहों, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ ने गीत-नवगीत की तुलनात्मक रचनाशीलता तथा डॉ. राजेन्द्र गौतम ने नवगीत के जनोन्मुखी परिदृश्य पर उपयोगी आलेख प्रस्तुत किये हैं.
विराsसत खंड में निराला जी, माखनलाल जी, नागार्जुन जी, अज्ञेय जी, केदारनाथ अग्रवाल जी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी, धर्मवीर भारती जी, देवेन्द्र कुमार, नईम, डॉ. शंभुनाथ सिंह, रमेश रंजक तथा वीरेंद्र मिश्र का समावेश है. यह खंड नवगीत के विकास और विविधता का परिचायक है.
’नवगीत के हस्ताक्षर’ तथा ‘नवगीत के कुछ और हस्ताक्षर’ खंड में लेखक ने ७० तथा ६० नवगीतकारों को बिना किसी पूर्वाग्रह के उन प्रमुख नवगीतकारों को सम्मिलित किया है जिनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ उसके पढ़ने में आ सकीं. ऐसे खण्डों में नाम जोड़ने की गुंजाइश हमेशा बनी रह सकती है. इसके पूरक खंड भी हो सकते हैं और पुस्तक के अगले संस्करण में संवर्धन भी किया जा सकता है.
बंधु जी नवगीत विधा से लम्बे समय से जुड़े हैं. वे नवगीत विधा के उत्स, विकास, वस्तुनिष्ठता, अवरोधों, अवहेलना, संघर्षों तथा प्रमाणिकता से सुपरिचित हैं. फलत: नवगीत के विविध पक्षों का आकलन कर संतुलित विवेचन, विविध आयामों का सम्यक समायोजन कर सके हैं. सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उनका निष्पक्ष और निर्वैर्य होना. व्यक्तिगत चर्चा में भी वे इस कृति और इसमें सम्मिलित अथवा बारंबार प्रयास के बाद भी असम्मिलित हस्ताक्षरों के अवदान के मूल्यांकन प्रति समभावी रहे हैं. इस सारस्वत अनुष्ठान में जो महानुभाव सम्मिलित नहीं हुए वे महाभागी हैं अथवा नहीं स्वयं सोचें और भविष्य में ऐसे गंभीर प्रयासों के सहयोगी हों तो नवगीत और सकल साहित्य के लिये हितकर होगा.
डॉ. शिवकुमार मिश्र ने ठीक ही कहा है: ‘डॉ. राधेश्याम बंधु का यह प्रयास नवगीत को उसके समूचे विकासक्रम, उसकी मूल्यवत्ता और उसकी संभावनाओं के साथ समझने की दिशा में एक स्तुत्य प्रयास माना जायेगा.’ कृतिकार जानकारी और संपर्क के आभाव में कृति में सम्मिलित न किये जा सके अनेक हस्ताक्षरों को जड़ते हुए इसका अगला खंड प्रकाशित करा सकें तो शोधार्थियों का बहुत भला होगा.
‘नवगीत के नये प्रतिमान’ समकालिक नवगीतकारों के एक-एक गीत तो आमने लाता है किन्तु उनके अवदान, वैशिष्ट्य अथवा न्यूनताओं का संकेतन नहीं करता. सम्भवत: यह लेखक का उद्देश्य भी नहीं है. यह एक सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह उपयोगी है. इसकी उपयोगिता में और अधिक वृद्धि होती यदि परिशिष्ट में अब तक प्रकाशित प्रमुख नवगीत संग्रहों तथा नवगीत पर केन्द्रित समलोचकीय पुस्तकों के रचनाकारों, प्रकाशन वर्ष, प्रकाशक आदि तथा नवगीतों पर हुए शोधकार्य, शोधकर्ता, वर्ष तथा विश्वविद्यालय की जानकारी दी जा सकती.
ग्रन्थ का मुद्रण स्पष्ट, आवरण आकर्षक, बँधाई मजबूत और मूल्य सामग्री की प्रचुरता और गुणवत्ता के अनुपात में अल्प है. पाठ्यशुद्धि की ओर सजगता ने त्रुटियों के लिये स्थान लगभग नहीं छोड़ा है.
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बंधु,
समीक्षा नवगीत के नये प्रतिमान
अहीर छंद
छंद सलिला:
अहीर छंद
संजीव
* लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु लघु (जगण)
लक्षण छंद:
चाहे रांझ अहीर, बाला पाये हीर
लघु गुरु लघु चरणांत, संग रहे हो शांत
पूजें ग्यारह रूद्र, कोशिश लँघे समुद्र
जल-थल-नभ में घूम, लक्ष्य सके पद चूम
उदाहरण:
१. सुर नर संत फ़क़ीर, कहें न कौन अहीर?
आत्म-ग्वाल तज धेनु, मन प्रयास हो वेणु
प्रकृति-पुरुष सम संग, रचे सृष्टि कर दंग
ग्यारह हों जब एक, मानो जगा विवेक
२. करो संग मिल काम, तब ही होगा नाम
भले विधाता वाम, रखना साहस थाम
सुबह दोपहर शाम, रचना छंद ललाम
कर्म करें निष्काम, सहज गहें परिणाम
३. पूजें ग्यारह रूद्र, मन में रखकर भक्ति
जनगण-शक्ति समुद्र, दे अनंत अनुरक्ति
लघु-गुरु-लघु रह शांत, रच दें छंद अहीर
रखता ऊंचा मअ खाली हाथ फ़क़ीर
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
-------------
अहीर छंद
संजीव
* लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु लघु (जगण)
लक्षण छंद:
चाहे रांझ अहीर, बाला पाये हीर
लघु गुरु लघु चरणांत, संग रहे हो शांत
पूजें ग्यारह रूद्र, कोशिश लँघे समुद्र
जल-थल-नभ में घूम, लक्ष्य सके पद चूम
उदाहरण:
१. सुर नर संत फ़क़ीर, कहें न कौन अहीर?
आत्म-ग्वाल तज धेनु, मन प्रयास हो वेणु
प्रकृति-पुरुष सम संग, रचे सृष्टि कर दंग
ग्यारह हों जब एक, मानो जगा विवेक
२. करो संग मिल काम, तब ही होगा नाम
भले विधाता वाम, रखना साहस थाम
सुबह दोपहर शाम, रचना छंद ललाम
कर्म करें निष्काम, सहज गहें परिणाम
३. पूजें ग्यारह रूद्र, मन में रखकर भक्ति
जनगण-शक्ति समुद्र, दे अनंत अनुरक्ति
लघु-गुरु-लघु रह शांत, रच दें छंद अहीर
रखता ऊंचा मअ खाली हाथ फ़क़ीर
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
-------------
मुक्तक
मुक्तक
संजीव
*
नया हो या पुराना कुछ सुहाना ढूँढता हूँ मैं
कहीं भी हो ख़ुशी का ही खज़ाना ढूँढता हूँ मैं
निगाहों को न भटकाओ कहा था शिष्य से गुरुने-
मिलाऊँ जिससे हँस नज़रें निशाना ढूँढता हूँ मैं
*
चुना जबसे गया मौके भुनाना सीखता हूँ मैं
देखकर आईना खुद पर हमेशा रीझता हूँ मैं
ये संसद है अखाडा चाहो तो मण्डी इसे मानो-
गले मिलता कभी मैं, कभी लड़ खम ठोंकता हूँ मैं
*
खड़ा मैदान में मारा शतक या शून्य पर आउट
पकड़ लूँ कठिन, छोड़ूँ सरल यारों कैच हो शाउट
तेजकर गेंद घपलों की, घोटालों की करी गुगली
ये नूरा कुश्ती है प्यारे न नोटों से नज़र फिसली
*
६-३-२०१४
संजीव
*
नया हो या पुराना कुछ सुहाना ढूँढता हूँ मैं
कहीं भी हो ख़ुशी का ही खज़ाना ढूँढता हूँ मैं
निगाहों को न भटकाओ कहा था शिष्य से गुरुने-
मिलाऊँ जिससे हँस नज़रें निशाना ढूँढता हूँ मैं
*
चुना जबसे गया मौके भुनाना सीखता हूँ मैं
देखकर आईना खुद पर हमेशा रीझता हूँ मैं
ये संसद है अखाडा चाहो तो मण्डी इसे मानो-
गले मिलता कभी मैं, कभी लड़ खम ठोंकता हूँ मैं
*
खड़ा मैदान में मारा शतक या शून्य पर आउट
पकड़ लूँ कठिन, छोड़ूँ सरल यारों कैच हो शाउट
तेजकर गेंद घपलों की, घोटालों की करी गुगली
ये नूरा कुश्ती है प्यारे न नोटों से नज़र फिसली
*
६-३-२०१४
गीत बसंत
गीत :
किस तरह आये बसंत?...
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गयी डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चरायें?
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाये.
तकें सियासत चुप मुँह बाये.
खुद से खुद ही हैं शरमाये.
जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.
खुशी बिदा हो गयी'सलिल'चुप
किस तरह लाये बसंत?...
*
किस तरह आये बसंत?...
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गयी डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चरायें?
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाये.
तकें सियासत चुप मुँह बाये.
खुद से खुद ही हैं शरमाये.
जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.
खुशी बिदा हो गयी'सलिल'चुप
किस तरह लाये बसंत?...
*
६-३-२०१०
मोटूरि सत्यनारायण
उत्तर-दक्षिण भाषा-सेतु के वास्तुकार : मोटूरि सत्यनारायण
डॉ. अमरनाथ
*
आजादी के आन्दोलन के दौरान गाँधी जी के साथ हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित करने का जिन लोगों ने सपना देखा और उसके लिए आजीवन निष्ठा के साथ संघर्ष किया उनमें मोटूरि सत्यनारायण (2.2.1902-6.3.1995) का नाम पहली पंक्ति में लिया जा सकता है. वे भारतीय हिंदी आंदोलन के एक ऐसे अपराजेय सेनानी और योजनाकार थे जिन्होंने मन, वचन और कर्म से हिन्दी के अखिल भारतीय स्वरूप को मजबूत आधार प्रदान करने के लिए जीवन भर संघर्ष किया. महात्मा गाँधी के अनन्य अनुयायी मोटूरि सत्यनारायण उत्तर से दक्षिण तक हिन्दी भाषा के सेतु थे. उन्होंने गाँधी जी का संदेश गाँव-गाँव एवं घर-घर तक पहुँचाया और हिन्दी को राष्ट्रीयता की संवाहिका और भारतीय भाषाओं के एकीकरण की मजबूत कड़ी मानकर उसके प्रचार-प्रसार में न केवल अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया बल्कि इसके लिए जेल भी गए.
उन्होंने ‘हिन्दी प्रचारक’ (1926-1936),’हिन्दी प्रचार समाचार’ (1938-1961) तथा ‘दक्षिण भारत’ (1947-1961) जैसी पत्रिकाओं का कुशल संपादन किया. केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा, भारतीय संस्कृति संगम, दिल्ली, तेलगु भाषा समिति, हैदराबाद, हिंदी विकास समिति, मद्रास एवं हिंदुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा जैसी संस्थाओं की स्थापना का श्रेय भी उन्हें है.
मोटूरि सत्यनारायण का जन्म दक्षिण भारत के आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के दोण्डापाडु नामक गाँव में हुआ था. प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्होंने नेशनल कॉलेज माचिलिपट्टनम से अंग्रेजी, तेलुगू और हिन्दी की शिक्षा प्राप्त की और गाँधी जी के विचारों से प्रभावित होकर दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा में स्वयंसेवक बन गए. धीरे- धीरे उन्होंने अपनी प्रतिभा और कार्य क्षमता से वहाँ जगह बना ली और वे सभा के सचिव बने और फिर प्रधान सचिव नियुक्त हुए. इसके बाद का अपना पूरा जीवन उन्होंने आजादी की लड़ाई और हिन्दी की प्रतिष्ठा को समर्पित कर दिया.
महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चलाए गए सत्याग्रह तथा 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में उन्होंने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था. उन दिनों हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना स्वाधीनता-आन्दोलन का ही अविभाज्य हिस्सा था. गाँधी जी ने हिन्दी आन्दोलन को आजादी के आन्दोलन से जोड़ दिया था. आन्दोलन में भाग लेने के कारण ही मोटूरि सत्यनारायण को बन्दी बनाया गया था. उन्होंने जेल में रहते हुए भी हिन्दी के प्रचार का कार्य जारी रखा. जेल से मुक्त होने पर उन्होंने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक योजनाएँ बनाईं. इन योजनाओं में केन्द्रीय हिन्दी शिक्षण मंडल की योजना भी थी.
मोटूरि जी कई भाषाओं के ज्ञाता थे. वे अपनी मातृभाषा तेलुगु के साथ तमिल, अंग्रेजी, उर्दू, हिंदी तथा मराठी में समान दक्षता रखते थे. राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक दूर-दृष्टि के साथ उनके बहुभाषा ज्ञान ने उनकी भाषा-दृष्टि को सर्वग्राही और समावेशी बनाया. वे समस्त भारतीय भाषाओं के विकास के पक्षधर थे. उनके द्वारा स्थापित केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निर्माण के पीछे महात्मा गाँधी की प्रेरणा काम कर रही थी. इसके पूर्व गाँधी जी की प्रेरणा से ही मद्रास में स्थापित दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा में वे महत्वपूर्ण योगदान दे रहे थे. वे हिन्दीतर राज्यों में सेवारत हिन्दी शिक्षकों को हिन्दी भाषा के सहज वातावरण में रखकर उन्हें हिन्दी भाषा, हिन्दी साहित्य एवं हिन्दी शिक्षण का विशेष प्रशिक्षण प्रदान करने की आवश्यकता का अनुभव कर रहे थे. उनका मत था कि भाषा सार्वजनिक समाज की वस्तु है. इसलिए इसका विकास भी सामाजिक विकास के साथ-साथ ही चलते रहना चाहिए. केंद्रीय हिदी संस्थान को वे भाषायी प्रयोजनीयता के केन्द्र के रूप में विकसित करना चाह रहे थे. वे प्रयोजनमूलक हिंदी आंदोलन के जन्मदाता थे और उन्होंने संस्थान के माध्यम से इस आंदोलन को संचालित किया.
मोटूरि जी को यह भी चिन्ता थी कि हिन्दी कहीं सिर्फ साहित्य की भाषा बनकर न रह जाए. उसे जीवन के विविध प्रकार्यों की अभिव्यक्ति में समर्थ होना चाहिए. उन्होंने कहा कि भारत एक बहुभाषी देश है. हमारे देश की प्रत्येक भाषा दूसरी भाषा जितनी ही महत्वपूर्ण है, अतएव उन्हें राष्ट्रीय भाषाओं की मान्यता दी गई है. भारतीय राष्ट्रीयता को चाहिए कि वह अपने आपको इस बहुभाषीयता के लिए तैयार करे. उनकी दृष्टि में हिन्दी को देश के लिए किए जाने वाले विशिष्ट प्रकार्यों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनना है और खुद को उसके अनुरूप ढलना और उसके लिए तैयार होना है. केन्द्रीय हिन्दी संस्थान की स्थापना के पीछे उनकी यही परिकल्पना थी.
अपने उद्देश्य को साकार करने के लिए मोटूरि जी ने 1951 में आगरा में ‘अखिल भारतीय हिंदी परिषद्’ नामक एक हिंदी शिक्षक-प्रशिक्षण संस्था का आरंभ किया. उनके निर्देशन में इस परिषद् ने एक हिन्दी विद्यालय शुरू किया. संविधान सभा के अध्यक्ष एवं भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद परिषद के अध्यक्ष थे. श्री रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर तथा लोकसभा के तत्कालीन स्पीकर श्री मावलंकर परिषद् के उपाध्यक्ष थे. प्रसिद्ध उद्योगपति श्री कमलनयन बजाज परिषद् के कोषाध्यक्ष थे और मोटूरि सत्यनारायण इसके सचिव. सन् 1958 में इस संस्था का नाम ‘‘अखिल भारतीय हिन्दी महाविद्यालय, आगरा' रखा गया और इसके कार्य- क्षेत्र का विस्तार हुआ. मोटूरि सत्यनारायण के प्रयास से इस संस्था को अपने समय के अनेक विख्यात हिंदी विद्वानों, मनीषियों और शिक्षाविदों का सान्निध्य मिला. 1960 में केंद्र सरकार ने केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल का गठन करके इसके संचालन का दायित्व अपने हाथ में ले लिया. मोटूरि सत्यनारायण इसके प्रथम अध्यक्ष बनाए गए. 1975 से 1979 तक वे दूसरी बार संस्थान के अध्यक्ष रहे. मंडल का प्रमुख उद्देश्य भारत के संविधान की धारा 351 की मूल भावना के अनुरूप अखिल भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के शिक्षण-प्रशिक्षण, शैक्षणिक अनुसंधान, बहुआयामी विकास और प्रचार-प्रसार से जुड़े कार्यों का संचालन करना निश्चित किया गया और इसका नामकरण केंद्रीय हिंदी संस्थान के रूप में किया गया. इस तरह आज का केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा वास्तव में डॉ. मोटूरि सत्यनारायण के सपनों का ही मूर्तिमान रूप है.
‘केंद्रीय हिंदी संस्थान’ और ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से मोटूरि सत्यनारायण ने हिंदी प्रचार-प्रसार एवं विकास कार्य को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान किया. हिन्दी के प्रचार-प्रसार के साथ उसके व्यावहारिक रूप को मजबूत बनाने के लिए वे सदा लगे रहे क्योंकि उन्हें पता था हिन्दी का व्यावहारिक पक्ष ही उसे अहिन्दी भाषी जनता को आकर्षित कर सकता है.
मोटूरि सत्यनारायण एक साथ कई मोर्चों पर काम करते रहे. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के प्रधान मंत्रित्व के पद को संभालते हुए उन्होंने तेलुगु भाषा समिति, हैदराबाद, भारतीय संस्कृति संगम, दिल्ली, हिन्दी विकास समिति, मद्रास, हिन्दुस्तानी प्रचार समिति, वर्धा आदि की भी स्थापना की और उनका सफलता पूर्वक मार्गदर्शन भी किया. मोटूरि सत्यनारायण एक प्रतिष्ठित विद्वान थे. उन्होंने हिन्दी विकास समिति, मद्रास द्वारा प्रकाशित होने वाले ‘समाज विज्ञान विश्वकोश’ का कुशल संपादन किया तथा अपनी मातृभाषा तेलुगू में भी एक विश्वकोश का संपादन किया. उन्होंने हिन्दी विकास समिति की ओर से ‘विश्व विज्ञान संहिता’ नामक ग्रंथ का भी प्रकाशन किया. प्रयोजनमूलक हिन्दी की उनकी संकल्पना से न केवल केन्द्रीय हिन्दी संस्थान को अपने शैक्षिक कार्यक्रमों में बदलाव के लिए प्रेरणा मिली अपितु बाद में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को भी इससे मार्गदर्शन प्राप्त हुआ.
स्वाधीनता के बाद मोटूरि सत्यानारायण 1950-52 तक अंतरिम संसद के सदस्य थे और भारत के संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के भाषा अनुभाग के भी सदस्य थे. भाषा अनुभाग के सदस्य के रूप में उन्होंने हिन्दी को संघ की राजभाषा बनाने के लिए बहुत प्रयत्न किया और इसमें उन्हें सफलता भी मिली. उन्होंने भारतीय संविधान सभा के महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में भी ख्याति अर्जित की. राज्यसभा के मनोनीत सदस्य के रूप में वे पहली बार अप्रैल 1954 में राज्य सभा पहुँचे थे और दो कार्यकाल तक अर्थात अपैल 1966 तक लगातार सदस्य के रूप में कार्य किया. भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के द्वारा हिन्दी का स्तर बढाने के लिए गठित समिति के सभापति के रूप में उन्होंनें 1955 से 1957 तक पूरी निष्ठा के साथ दायित्व निभाया.
मोटूरि सत्यनारायण ने भारत में हिन्दी और अंग्रेजी की स्थिति और महत्व के संदर्भ मे कहा था कि सभ्य समाज में जूते और टोपी दोनों की प्रतिष्ठा देखी जाती है. जूतों का दाम साधारणतया टोपी से ज्यादा ही होता है. दैनिक जीवन में जूतों की अनिवार्यता भी सर्वत्र देखी जाती है. पर इससे टोपी की मान-मर्यादा में कोई फर्क नहीं पड़ता है. कोई भूल कर भी सिर पर जूता नहीं पहनता है, जो ऐसा करता है पागल माना जाता है. हिन्दी हमारी गाँधी टोपी के समान है, तो अँग्रेजी जूता है.
इस तरह मोटूरि सत्यनारायण दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार आन्दोलन के संगठक, गाँधी के जीवन मूल्यों के प्रतीक, हिन्दी को राजभाषा घोषित कराने तथा हिन्दी के राजभाषा के स्वरूप का निर्धारण कराने वाले सदस्यों में दक्षिण के सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक थे. उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री एवं पद्मभूषण से सम्मानित किया. हम मोटूरि सत्यनारायण की पुण्यतिथि पर उनके द्वारा हिन्दी और देश के हित के लिए किए गए महान कार्यों का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.
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( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)
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मोटूरि सत्यनारायण
गणपति भजन
ॐ
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
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शुक्रवार, 5 मार्च 2021
समीक्षा आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ के गीत- नवगीत संग्रह डाॅ. रमेश चंद्र खरे
समीक्षा-
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ के गीत- नवगीत संग्रह
‘काल है संक्रांति का’तथा‘सड़क पर’ -ं
डाॅ. रमेश चंद्र खरे, दमोह
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व्यक्ति की दबी प्रकृति और रुचि प्राप्त आजीविका में भी अंततः अपना मार्ग खोज ही लेती है। सिविल इंजीनियर संजीव वर्मा भी ‘लोक
निर्माण’ के व्यस्त जीवन में दो-दो कला स्नातकोत्तर होकर ‘सलिल’ सम साहित्य-सेवा में घुल-मिल गए। आपकी साहित्यिक अभियांत्रिक यात्रा अपनी आजीविका से ताल-मेल बिठाते हुए, भूकंप में सुरक्षित भवन निर्माण तकनीक की समुचित जानकारी के साथ ‘भूकंप में जीना सीखें’ लोकोपयोगी लघु कृति के साथ प्रारंभ हुई और १९७७ में ‘कलम के देव’ के गुणानुवाद से भक्ति गीत के रूप में आगे बढ़ी। ‘समन्वय प्रकाशन अभियान’ जबलपुर के माध्यम से आपने लंबी यात्रा तय की और सन् २००० में अखिल भारतीय स्तर पर ११ राज्यों के ७४ कवियों का सचित्र परिचय सहित ३३२ पृष्ठों का वृहत काव्य संकलन- ‘तिनका तिनका नीड़’ संपादित कर प्रकाशित किया। २००१ मे ही व्यवस्था की खामियों को उजागर करने का खतरा उठाते हुए (९ करोड़ की प्रस्तावित लागत पर ५२ करोड. के म.प्र. विधान सभा भवन के उद्घाटन पर) स्वतंत्र संवेदनशील चिंतन का काव्य संकलन ‘लोकतंत्र का मकबरा’ प्रकाशित हुआ।
२००३ में आया आपका मुक्त छंद के नवगीतों का ‘मेरे गीत’ संकलन। परिस्थिति की प्रतिकूलता में अनुकूलन को तत्पर कवि की जिजीविषा
की अपराजित स्वीकारोक्ति। वह मात्र स्वप्नजीवी नहीं, मानव मूल्यों का आशावादी सजग प्रहरी है। प्रकाश दूत ‘दीपक’ और श्रमजीवी विपन्न वर्ग का प्रतीक ‘नींव का पत्थर’ उनके आदर्श हैं। कवि कटाक्ष के व्यंग्य को मारक हथियार बनाता है। विडंबना है आज उच्च शासन, प्रशासन, समाज, व्यापारी, अधिकारी, न्यायालय सब इस मानसिकता में एक दूसरे के बाप हैं’। लोकतंत्र की बदहाली पर वह विक्षुब्ध है - ‘राजनीति का सांप
लोकतंत्र के मेंढक को
बेशर्मी से खा रहा है
भोली-भाली जनता को
यही मन भा रहा है
जो समझदार है
वह पछता रहा है
लेकिन कोई भी बदलाव
नहीं ला पा रहा है।’
कवि की जागरूकता समाज के संचेतन रूप में उसका श्याम प़क्ष उजागर कर, परिवर्तन हेतु प्रेरित करने में भी है- ‘ईमानदार की जेब / हमेशा खाली क्यों ? / मतदाताओं की अनदेखी / नेताओं की लूट’ और विस्मय! ‘जिन भ्रष्टों के ‘हाथों में जिसकी चाबी/वही हैं लोकतंत्र का संदूक’।
वह इसका निदान समाज की कर्तव्यशीलता में पाता हैं-ं ‘लहलहाती फसल/अधिकारों की माँगते हैं/कर्तव्यों की खाद/तनिक नहीं डालते है।’
डाॅ. गार्गीशरण मिश्रं के अनुसार- ‘ सलिल का कवि हमें निरंतर पतित यथार्थ से, उत्थित आदर्श की ओर ले जाने हेतु प्रयत्नशील ही नहीं, संकल्पवान भी है... निष्पक्षता और निस्संगता उनकी कलम की नोंक पर विराजकर, उनके सृजन को पठनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी बना देती है।’ मैं तो कहूँगा ‘दोंनों स्थितियों में विचलन कठिन कठिनाई है/आदमी बनना, अपने आप से लड़ाई है’
सघन भावात्मकता और तरल लयात्मकता का आंतरिक विस्फोट हीे गीत है। आज गीत के कथ्य और शिल्प में समसामयिक परिवर्तन हो रहे हैं। आधुनिक यांत्रिक जीवन और उसके मोहभंग पर आंचलिकता से भी जुड़ा है वह, जिसे कुछ लोग ‘नवगीत’ की संज्ञा देते हैं। पर कहा गया है- ‘ केवल शाब्दिक छोंक-बघार से कोई गीत, ‘नवगीत’ नहीं हो जाता, चिंतन के तेवर भी होने चाहिए।’ कविवर सलिल जी का ६५
‘गीत-नवगीत’ के मिश्रण का नया संकलन २०१६ में ‘काल है संक्रांति का’ /(तुम मत थको सूरज!) के नाम से आया है। इसका कथ्य भी
पूर्व-पश्चिम, प्रचीन-नवीन, संस्कृति-सभ्यता के अंतर्द्वंद की किंकर्तव्यविमूढ़ता व्यक्त करता है- ‘प्राच्य पर पाश्चात्य का चढ़ गया है
रंग/कौन किसको संभाले, पी रखी मद की भंग.....मनुज करनी देखकर है, खुद नियति भी दंग/तिमिर को लड़़ जीतना /तुम मत चुको सूरज’।
याद आती है धर्मवीर भारती की पंक्तियाँ ‘अभी तो पड़ी है धरा अधबनी/सृजन की थकन भूल जा देवता’। यह क्रांति नहीं, ‘संक्रांति काल है’- क्रांति के पूर्व दो युगों के बीच का ‘ट्रांसिट पीरियड’जो अपनी विसंगतियों,विद्रूपताओं में व्यंग्य का भरपूर अवसर देता है-
‘प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर’
(गवर्मेंट फार- एफओआर नहीं,
एफएआर- द पीपुल) और
‘तज सिद्धांत, बना सरकार
कुसीै पा लो, ऐश रहे’।
आगे भी ऐसी विडंबनाओं के कई तेवर हैं-
‘खासों में खास’ -
‘सब दुनिया में कर अँधियारा
वह खरीद लेता उजियारा’
और ‘बग्घी बैठा/बन सामंती समाजवादी’। कवि प्रशासनिक भ्रष्टाचार और श्रेय लूट की भुक्तभोगी पीड़ा से भी कराहता है-
‘अगले जनम
उपयंत्री न कीजो’।
कथित ‘नवगीतों’- ‘अधर पर’,‘मिली दहाड़ी’,‘अंध श्रद्धा’,‘राम बचाए’,‘लोकतंत्र का पंछी’,‘दिशा न दर्शन’ आदि के बारे में कहा गया है कि अपने गुण-धर्म में नव होते हुए भी गीत को कोई विषेशण जरूरी नहीं है। वे मूल ‘गीत’ में ही श्रेष्ठ हैं। आज छंद की ओर लौटती कविता के कई प्रयोग हो रहे हैं- मुक्त छंद, पर छंद मुक्त नहीं।
सलिलजी ने ईसुरी की बुंदेली चौकड़िया, आल्हा छंद, पंजाबी और सोहर लोक गीत भी रूपांतरित किए हैं और हरिगीतिका, दोहा, सोरठा भी। छंद विधान में मात्रिक करुणाकर छंद और वर्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय नायक छंद जैसे कई प्रयोग करने में वे व्यस्त हैं।‘ ‘नर्मदा’ सहित्यिक सांस्कृतिक पत्रिका संपादन-प्रकाशन के बाद, आज कल इलेक्ट्रॉनिक ‘वाट्स एप’ पर ‘टू मीडिया सलिल विशेषांक’ पत्रिका में चर्चित, वे पिंगल, ‘भाषा-व्याकरण’ के विविध अंगों के निरूपण में शोधरत प्रयोगधर्मी हैं। बहरहाल भाव और विचारों का सम्यक संगम, ‘सलिल- काव्य सरिता, संवेदनशीलता और आक्रोश लिए कवि की वाग्विदग्धता का प्रमाण है।
अभी भी लगता है जैसे ‘संक्रांति काल’ समाप्त नहीं हुआ। पूर्व संग्रह के अनुपूरक सा, नये गीत नवगीत- व्यस्त, त्रस्त जनजीवन के सार्वजनिक प्रतीक के रूप में ‘सड़क पर’ सामने आया है। इस संग्रह की अंतिम नौ कविताएँ इसी ‘सड़क पर’ संचालित सतत जिंदगी, अप्रिय ‘दुरंगी चालों वाली छलती सियासत’ के ‘सड़क पर पसरे सियासी नजारे वाले गंदे हृदय सफेदपोश, चारित्रिक दूषण और प्रदूषण, अतिक्रमण, जन्म-मरण उसके बहुरंगी दुख दर्द, विसंगति पर उसका पछतावा, भीड़तंत्र की स्वच्छंद धींगा-मस्ती के विवादित दंगे, असुरक्षा, बेइज्जती, अस्वच्छता, राजपुरुषों के उत्थान-पतन सबकी साक्षी ‘सड़क’ का जैसे मानवीकरण एक धारावाहिक यथार्थवादी फिल्म की तरह विद्रूप कच्चा चिट्ठा है, इसीलिय यह संग्रह का शीर्षक भी है। धूमिल की ‘संसद से सड़़क तक’ भी लोकतंत्र की अंतर्द्व्न्द गाथा है।
कवि प्रारंभ में कुछ प्रकृति और पर्यावरण के सुदर चित्र- मनभावन सावन, मेघ बजे, ओढ़ कुहासे की चादर, पर्वत पछताया, कैसी होली ?, रंग हुआ बदरंग’, उल्लास में भी विषाद की छाया देखते हुए चिंतित है- ‘मानव तो करता है निश-दिन मनमानी/प्रकृति से छेड़छाड़ घातक नादानी।’ और फिर वह अपने मूल कथ्य को व्यंग्य में उतार लाता है। व्यंग्य, वास्तव में अन्योक्ति से व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता है। उसका जन्म ही विडंबना से होता है- ‘ऐसा तो नहीं होना चाहिए था, ऐसा क्यों हुआ’ ? इस पर संवेदनशील कवि (जन) मन आक्रोशित होता है और तदनुरूप उसकी भाषा और मुहावरे कभी कटूक्ति भी अपनाते हुए बदलते हैं । अपनी मातृभाषा से परहेजी- ‘आंखें रहते भी हैं सूर/ फेंक अमिय नित विष घोलें।’
समाज असंस्कारों से दुर्भावग्रस्त हुआ है। पारिवारिक स्वार्थी शहरीपन, सरल गाँवों में घुस आया है- ‘बढ़े सियासत के बबूल सूखा हैं चंपा सद्भावों का’ जहाँ-ं ‘बहू सो रही ए.सी. में/ खटती बऊ दुपहरिया में’..विसंगति देखिए- शासन ने आदेश दिया है/मरुतल खातिर नावों का’ और- ‘मेहनतकश के हाथ हमेशा रहते हैं क्यों खाली खाली?/मोटी तोदों के महलों में/क्यों बसंत लाता खुशहाली? ऊँची कुर्सी वाले पाते/अपने मुॅह में सदा बताशा’ ! जलाभाव, गरीबी, भूख, जंगल कटने की समस्या-‘सर्प दर्प का झूल रहा है डर लगता हैं पोल खोलते।’ वह स्वार्थी राजनीति के व्यवसाय पर व्यंग्य करता है-
जब तक कुर्सी तब तक ठाठ...सत्ताभोग करा बेगारी/सगा न कोई यहाँ किसी का/ स्वार्थ साधने करते यारी/फूँको नैतिकता, ले काठ’।
राजनीति अब राज्यनीति नहीं, त्याज्य ‘नीति’ है, जो अवमूल्यित है। साधारण विवाद- हल में भी षड्यंत्र की बू आती है- ‘आप राजनीति कर रहे हैं’। अब वह सेवा साधना नहीं- ‘बेच खरीदो रोज देश को/साध्य मान लो भोग ऐश को/वादों का क्या किया, भुलाया/लूट दबाओ स्वर्ण कैश को/-झूठ आचरण सच का पाठ’। यही अनीति भ्रष्टाचार, घोटालों की जड़ है। कटु यथार्थ- ख्ंडन मारक है- ‘कौन कहता है कि मँहगाई अधिक है?/बहुत सस्ता बिक रहा इंसान है/जहाँ जाओगे सहज ही देख लोगे/बिक रहा बेदाम ही इ्रंसान है आज की अपसंस्कृति और विकृति को देखकर कवि को ध्वंसोन्मुख प्रकृति ही नहीं,सहज मानव प्रकृति की विद्रूपता याद आती है- ‘कुटिलता वरेण्य हुई/त्याज्य सहज बोली’।
आज ‘अंधा युग’(धर्मवीर भारती) नहीं, ‘बहरा युग’ है- सब दिखाई देता है, पर ‘त्राहिमाम, त्राहिमाम’ की आर्त ध्वनि भर सुनाई नहीं देती। एक भ्रम निवारण- द्वापर में कौेरव कुल नष्ट नहीं हुआ- ‘वंष वृक्ष कट गया किंतु जड़़/शेष रह गई है अब भी।’ कवि का रूपक सार्थक है- ‘आंखों पर पट्टी बाँधे न्याय’, ‘मंत्रालय, सचिवालय में शकुनि’, ‘दुःशासन खाकी वर्दी में’, द्रौपदी अब भी लुटती ‘निर्भया’-सी, ‘प्रतिभा की नीलामी’ ‘स्वार्थों के कैदी गुरु की तरह बेकाम शिक्षा’ और दूषित, भ्रष्ट धर्म- 'सभी युगांतर में अर्थांतर है। प्रचलित शब्दार्थों का विचलन ही व्यंग्य होता है। लोक और तंत्र में स्थाई द्वंद्व है।
कवि नकारात्मक ही नहीं, सकारात्मक दृष्टिकोण भी रखता है - ‘खुद अपना मूल्याङ्कन कर लो’- ‘अँधेरे और उजाले को जोड़़ने वाला कोई पुल आपने बनाया क्या ? श्रम सीकर और स्नेह सलिल के अभाव में क्या कोई फूल आपका आभारी है ?- ‘स्नेह साधना करी सलिल कब/दीन-हीन में दिखे कभी रब ?’ और सहज ही याद आती हैं कविवर भवानी प्रसाद तिवारी के गीतांजलि के काव्यानुवाद की पंक्तियां- ‘दिखता है प्रभु कहीं?/यहाँ नहीं/वहाँ नहीं/फिर कहाँ ? अरे वहम जहाँ पर दीन/ जोतता कड़ी जमीन/वसन हीन/तन मलीन.....।’ यही मन मंथन है। गीत संग्रह के कथ्य और शिल्प के विषय में विद्वान समीक्षक श्री राजेन्द्र वर्मा (लखनऊ) ने अपनी लंबी भूमिका में पर्याप्त प्रकाश डाला है।
अब शेष क्या ? गीत और नवगीत के बीच कोई विभाजक लक्षमण रेखा नहीं खींची गई है। कई कवि तो गीत की पंक्ति को तोड़कर, चार की छोटी- बड़ी आठ बनाकर, बगैर इसके व्याकरण को समझे, इस शिविर में शामिल हो जाते हैं।
अतः, किसी खेमेबाजी में न पड़कर ये सुंदर भाव-विचाारात्मक ६२ ‘नये गीत’ ( वास्तव में ६०, ३० और ८१ तथा ६२ और ७५ में पुनरावृत्ति
है) अपने कहन में नयी जमीन तोड़ते हैं। बहुत से बुंदेलखंडी देशज शब्दों- ‘खिझिया, जिमाए, गुजरिया, डुकरो, डुकरिया, बऊ-दद्दा, हकाल, ठाँसेगा, सुस्ता, मुस्का, टपरिया, सौं, हेरते, पेरते, सुआ, बाँचेगा, गत, कलपते, कुलिया, दुत्कार के प्रयोग से आंचलिकता ने इन गीतों की लोकरंजना बढ़ाई है। प्रकारांतर से यह जागरण गीत मेँ- ‘बहुत -झुकाया अब तक तूने/अब तो अपना भाल उठा’- लोक मंगल भी है। अ.
भा. स्तर पर फिर १५-१५ कवियों के १००-१०० दोहों के नये ३ संकलनों का सभूमिका संपादन-प्रकाशन भी आपकी विशिष्ट उपलब्धि
है। वैयाकरणिक भाई ‘सलिल’ इस दिशा में सैद्धांतिक और व्यावहारिक काव्य साधना में बधाई के पात्र हैं।
***
चिप्पियाँ Labels:
काल है संक्रांति का,
रमेश चंद्र खरे,
सड़क पर,
समीक्षा
गोपी छंद - हिंदी आरती
छंद - " गोपी " ( सम मात्रिक )
शिल्प विधान: मात्रा भार - १५, आदि में त्रिकल अंत में गुरु/वाचिक अनिवार्य (अंत में २२ श्रेष्ठ)। आरम्भ में त्रिकल के बाद समकल, बीच में त्रिकल हो तो समकल बनाने के लिएएक और त्रिकल आवश्यक। यह श़ृंगार छंद की प्रजाति (उपजाति नहीं ) का है। आरम्भ और मध्य की लय मेल खाती है।
उदाहरण:
१. आरती कुन्ज बिहारी की।
कि गिरधर कृष्ण मुरारी की।।
२. नीर नैनन मा भरि लाए।
पवनसुत अबहूँ ना आए।।
३. हमें निज हिन्द देश प्यारा ।
सदा जीवन जिस पर वारा।।
सिखाती हल्दी की घाटी ।
राष्ट्र की पूजनीय माटी ।। -राकेश मिश्र
४. हमारी यदि कोई माने।
प्यार को ही ईश्वर जाने।
भले हो दुनियाँ की दलदल।
निकल जायेगा अनजाने।। -रामप्रकाश भारद्वाज
हिंदी आरती
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
शिल्प विधान: मात्रा भार - १५, आदि में त्रिकल अंत में गुरु/वाचिक अनिवार्य (अंत में २२ श्रेष्ठ)। आरम्भ में त्रिकल के बाद समकल, बीच में त्रिकल हो तो समकल बनाने के लिएएक और त्रिकल आवश्यक। यह श़ृंगार छंद की प्रजाति (उपजाति नहीं ) का है। आरम्भ और मध्य की लय मेल खाती है।
उदाहरण:
१. आरती कुन्ज बिहारी की।
कि गिरधर कृष्ण मुरारी की।।
२. नीर नैनन मा भरि लाए।
पवनसुत अबहूँ ना आए।।
३. हमें निज हिन्द देश प्यारा ।
सदा जीवन जिस पर वारा।।
सिखाती हल्दी की घाटी ।
राष्ट्र की पूजनीय माटी ।। -राकेश मिश्र
४. हमारी यदि कोई माने।
प्यार को ही ईश्वर जाने।
भले हो दुनियाँ की दलदल।
निकल जायेगा अनजाने।। -रामप्रकाश भारद्वाज
हिंदी आरती
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारती भाषा प्यारी की।
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
वर्ण हिंदी के अति सोहें,
शब्द मानव मन को मोहें।
काव्य रचना सुडौल सुन्दर
वाक्य लेते सबका मन हर।
छंद-सुमनों की क्यारी की
आरती हिंदी न्यारी की।।
*
रखे ग्यारह-तेरह दोहा,
सुमात्रा-लय ने मन मोहा।
न भूलें गति-यति बंधन को-
न छोड़ें मुक्तक लेखन को।
छंद संख्या अति भारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
विश्व की भाषा है हिंदी,
हिंद की आशा है हिंदी।
करोड़ों जिव्हाओं-आसीन
न कोई सकता इसको छीन।
ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की
आरती हिन्दी न्यारी की।।
*
५-३-२०१८
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आरती हिंदी,
गोपी छंद,
छंद गोपी,
हिंदी आरती
दोहा सलिला - बसंत
दोहा सलिला - बसंत
*
खिली मंजरी देखकर, झूमा मस्त बसंत
फगुआ के रंग खिल गए, देख विमोहित संत
*
दोहा-पुष्पा सुरभि से, दोहा दुनिया मस्त
दोस्त न हो दोहा अगर, रहे हौसला पस्त
*
जब से ईर्ष्या बढ़ हुई, है आपस की जंग
तब से होली हो गयी, है सचमुच बदरंग
*
दोहे की महिमा बड़ी, जो पढ़ता हो लीन
सारी दुनिया सामने, उसके दिखती दीन
*
लता सुमन से भेंटकर, है संपन्न प्रसन्न
सुमन लता से मिल गले, देखे प्रभु आसन्न
*
भक्ति निरुपमा चाहती, अर्पित करना आत्म
कुछ न चाह, क्या दूँ इसे, सोच रहे परमात्म
*
५-३-२०१८
वक्त आदमखोर: सामयिक वैषम्य का दस्तावेज़
चर्चाकार: आचार्य संजीव
.
[कृति विवरण: वक्त आदमखोर, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, १९९८, पृष्ठ १२६, नवगीत १०१, १५०/-, अस्मिता प्रकाशन, इलाहाबाद]
साहित्य का लक्ष्य सबका हित साधन ही होता है, विशेषकर दीन-हीन-कमजोर व्यक्ति का हित। यह लक्ष्य विसंगतियों, शोषण और अंतर्विरोधों के रहते कैसे प्राप्त हो सकता है? कोई भी तंत्र, प्रणाली, व्यवस्था, व्यक्ति समूह या दल प्रकृति के नियमानुसार दोषों के विरोध में जन्मता, बढ़ता, दोषों को मिटाता तथा अंत में स्वयं दोषग्रस्त होकर नष्ट होता है। साहित्यकार शब्द ब्रम्ह का आराधक होता है, उसकी पारदर्शी दृष्टि अन्यों से पहले सत्य की अनुभूति करती है। उसका अंतःकरण इस अभिव्यक्ति को सृजन के माध्यम से उद्घाटित कर ब्रम्ह के अंश आम जनों तक पहुँचाने के लिये बेचैन होता है। सत्यानुभूति को ब्रम्हांश आम जनों तक पहुँचाकर साहित्यकार व्यव्ष्ठ में उपजी गये सामाजिक रोगों की शल्यक्रिया करने में उत्प्रेरक का काम करता है।
विख्यात नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना अपनी कृति ‘वक्त आदमखोर’ के माध्यम से समाज की नब्ज़ पर अँगुली रखकर तमाम विसंगतियों को देख-समझ, अभिव्यक्तकर उसके निराकरण का पथ संधानने की प्रेरणा देते हैं। श्री पारसनाथ गोवर्धन का यह आकलन पूरी तरह सही है: ‘इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूते शब्द विन्यास, मौलिक उद्भावनाएँ, यथार्थवादी प्रतीक, अनछुए बिम्बों का संयोजन, मुहावरेदारी तथा देशज शब्दों का संस्कारित प्रयोग उन्हें अन्य रचनाकारों से पृथक पहचान देने में समर्थ है।
नवगीतों में प्रगतिवादी कविता के कथ्य को छांदस शिल्प के साथ अभिव्यक्त कर सहग ग्राह्य बनाने के उद्देश्य को लेकर नवगीत रच रहे नवगीतकारों में मधुर अष्ठाना का सानी नहीं है। स्वास्थ्य विभाग में सेवारत रहे मधुकर जी स्वस्थ्य समाज की चाह करें, विसंगतियों को पहचानने और उनका निराकरण करने की कामना से अपने नवगीतों के केंद्र में वैषम्य को रखें यह स्वाभाविक है। उनके अपने शब्दों में ‘मानवीय संवेदनाओं के प्रत्येक आयाम में विशत वातावरण से ह्त्प्रह्ब, व्यथित चेतना के विस्फोट ने कविताओं का आकार ग्रहण कर लिया.... भाषा का कलेवर, शब्द-विन्यास, शिल्प-शैली तथा भावनाओं की गंभीरता से निर्मित होता है... इसीलिए चुस्त-दुरुस्त भाषा, कसे एवं गठे शब्द-विन्यास, पूर्व में अप्रयुक्त, अनगढ़-अप्रचलित सार्थक शब्दों का प्रयोग एवं देश-kaalkaalकाल-परिस्थिति के अनुकूल आंचलिक एवं स्थानीय प्रभावों को मुखरित करने की कोशिश को मैंने प्रस्तुत गीतों में प्राथमिकता देकर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।’
मधुकर जी की भाषा हिंदी-उर्दू-देशज मिश्रित है। ‘तन है वीरान खँडहर / मन ही इस्पात का नगर, मजबूरी आम हो गयी / जिंदगी हराम हो गयी, कदम-कदम क्रासों का सिलसिला / चूर-चूर मंसूबों का किला, प्यासे दिन हैं भूखी रातें / उम्र कटी फर्जी मुस्काते, टुकड़े-टुकड़े अपने राम रह गये / संज्ञाएँ गयीं सर्वनाम रह गये, जीवन भर जो रिश्ते ढोये हैं / कदम-कदम पर कांटे बोये हैं, प्याली में सुबह ढली, थाली में दोपहर / बुझी-बुझी आँखों में डूबे शामो-सहर, जीवन यों तो ठहर गया है / एक और दिन गुजर गया है, तर्कों पर लाद जबर्दस्तियाँ / भूल गयीं दीवारें हस्तियाँ आदि पंक्तियाँ pathakको आत्म अनुभूत प्रतीत होती हैं। इन नवगीतों में कहीं भी आभिजात्यता को ओढ़ने या संभ्रांतता को साध्य बताने की कोशिश नहीं है। मधुकर जी को भाषिक टटकापन तलाशकर आरोपित नहीं करना पड़ता। उन्हें सहज-साध्य मुहावरेदार शब्दावली के भाव-प्रवाह में संस्कृतनिष्ठ, देशज, ग्राम्य और उर्दू मिश्रित शब्द अपने आप नर्मदा के सलिला-प्रवाह में उगते-बहते कमल दल और कमल पत्रों की तरह साथ-साथ अपनी जगह बनाकर सुशोभित होते जाते हैं। निर्मम फाँस गड़ी मुँहजोरी / तिरस्कार गढ़ गया अघोरी, जंगली विधान की बपौती / परिचय प्रतिमान कहीं उड़ गये / भकुआई भीड़ है खड़ी, टुटपुंजिया मिन्नतें तमाम / फंदों में झूलें अविराम, चेहरों को बाँचते खड़े / दर्पण खुद टूटने लगे आदि पंक्तियों में दैनंदिन आम जीवन में प्रयुक्त होते शब्दों का सघन संगुफन द्रष्टव्य है। भाषी शुद्धता के आग्रही भले ही इन्हें पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें किन्तु नवगीत का पाठक इनमें अपने परिवेश को मुखर होता पाकर आनंदित होता है। अंग्रेजी भाषा से शिक्षित शहरी नयी पीढ़ी के लिए इनमें कई शब्द अपरिचित होंगे किन्तु उन्हें शब्द भण्डार बढ़ाने का सुनहरा अवसर इन गीतों से मिलेगा, आम के आम गुठलियों के दाम...
मधुकर जी इन नवगीतों में सामयिक युगबोधजनित संवेदनाओं, पारिस्थितिक वैषम्य प्रतिबिंबित करती अनुभूतियों, तंत्रजनित विरोधाभासी प्रवृत्तियों तथा सतत ध्वस्त होते मानव-मूल्यों से उत्पन्न तनाव को केंद्र में रखकर अपने चतुर्दिक घटते अशुभ को पहचानकर उद्घाटित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। उनकी इस प्रवृत्ति पर आनंद-मंगल, शुभ, उत्सव, पर्व आदि की अनदेखी और उपेक्षा करने का आरोप लगाया जा सकता है किन्तु इन समसामयिक विद्रूपताओं की उपस्थिति और प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। घर में अपनों के साथ उत्सव मनाकर आनंदमग्न होने के स्थान पर किसी अपरिचित की आँखों के अश्रु पोछने का प्रयास अनुकरणीय ही हो सकता है।
मधुकर जी के इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूता शब्द चयन, मौलिक सोच, यथार्थवादी प्रतीक, अछूता बिम्ब संयोजन, देशज-परिनिष्ठित शब्द प्रयोग, म्हावारों और कहावतों की तरह सरस लच्छेदार शब्दावली, सहज भाव मुद्रा, स्पष्ट वैषम्य चित्रण तथा तटस्थ-निरपेक्ष अभिव्यक्ति उनकी पहचान स्थापित करती है। नवगीत की प्रथम कृति में ही मधुकर जी परिपक्व नवगीतकार की तरह प्रस्तुत हुए हैं। उन्हें विधा के विधान, शिल्प, परिसीमाओं, पहुच, प्रभाव तथा वैशिष्ट्य की पूर्ण जानकारी है। उनकी शब्द-सामर्थ्य, रूपक गढ़न-क्षमता, नवोपमायें खोजन एकी सूक्ष्म दृष्टि, अनुभूत और अनानुभूत दोनों को समान अंतरंगता से अभिव्यक्त कर सकने की कुशलता एनी नवगीतकारों से अलग करती है। अपने प्रथम नवगीत संग्रह से ही वे नवगीत की दोष-अन्वेषणी प्रवृत्ति को पहचान कर उसका उपयोग लोक-हित के लिए करने के प्रति सचेष्ट प्रतीत होते हैं।
मधुकर जी muktikगजल (muktikamuktikaमुक्तिका) तथा लोकभाषा में काव्य रचना में निपुण हैं। स्वाभाविक है कि गजलgazal में मतला (आरम्भिका) लेखन का अभ्यास उनके नवगीतों में मुखड़ों तथा अंतरों को अधिकतर द्विपंक्तीय रखने के रूप में द्रष्टव्य है। अंतरों की पंक्तियाँ लम्बी होने पर उन्हें चार चरणों में विभक्त किया गया है। अंतरांत में स्थाई या टेक के रूप में कहीं-कहीं २-२ पंक्तियाँ का प्रयोग किया गया है।
मधुकर जी की कहाँ की बानगी के तौर पर एक नवगीत देखें:
पत्थर पर खींचते लकीरें
बीत रहे दिन धीरे-धीरे
चेहरे पर चेहरे, शंकाओं की बातें
शीतल सन्दर्भों में दहक रही रातें
धारदार पल अंतर चीरें
आँखों में तैरतीं अजनबी कुंठायें
नंगे तारों पर फिर जिंदगी बिठायें
अधरों पर अनगूंजी पीरें
बार-बार सूरज की लेकर कुर्बानी
सुधियों की डोर कटी, डूबी नादानी
स्याह हैं चमकती तस्वीरें
एक सौ एक नवगीतों की यह माला रस वैविध्य की दृष्टि से निराश करती है। मधुकर जी लिखते हैं: ‘ इंद्रढनुष में सातों सरगम लहरायें / लहरों पर गंध तिरे पाले छितरायें’ (चुभो न जहरीले डंक) किन्तु संग्रह के अधिकाँश नवगीत डंक दंशित प्रतीत होते हैं। मधुकर जी के साथ इस नवगीत कुञ्ज में विचरते समय कलियों-कुसुमों के पराग की अभिलाषा दुराशा सिद्ध होने पर भी गुलाब से लेकर नागफनी और बबूलों के शूलों की चुभन की प्रतीति और उस चुभन से मुक्त होकर फूलों की कोमलता का स्पर्श पाने की अनकही चाह pathak को बांधे रखती है। नवगीत की यथार्थवादी भावधारा का प्रतिनिधित्व करति यह कृति पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है।
===
दोहा होली
होली के दोहे
*
होली का हर रंग दे, खुशियाँ कीर्ति समृद्धि.
मनोकामना पूर्ण हों, सद्भावों की वृद्धि..
स्वजनों-परिजन को मिले, हम सब का शुभ-स्नेह.
ज्यों की त्यों चादर रखें, हम हो सकें विदेह..
प्रकृति का मिलकर करें, हम मानव श्रृंगार.
दस दिश नवल बहार हो, कहीं न हो अंगार..
स्नेह-सौख्य-सद्भाव के, खूब लगायें रंग.
'सलिल' नहीं नफरत करे, जीवन को बदरंग..
जला होलिका को करें, पूजें हम इस रात.
रंग-गुलाल से खेलते, खुश हो देख प्रभात..
भाषा बोलें स्नेह की, जोड़ें मन के तार.
यही विरासत सनातन, सबको बाटें प्यार..
शब्दों का क्या? भाव ही, होते 'सलिल' प्रधान.
जो होली पर प्यार दे, सचमुच बहुत महान..\*
*
होली का हर रंग दे, खुशियाँ कीर्ति समृद्धि.
मनोकामना पूर्ण हों, सद्भावों की वृद्धि..
स्वजनों-परिजन को मिले, हम सब का शुभ-स्नेह.
ज्यों की त्यों चादर रखें, हम हो सकें विदेह..
प्रकृति का मिलकर करें, हम मानव श्रृंगार.
दस दिश नवल बहार हो, कहीं न हो अंगार..
स्नेह-सौख्य-सद्भाव के, खूब लगायें रंग.
'सलिल' नहीं नफरत करे, जीवन को बदरंग..
जला होलिका को करें, पूजें हम इस रात.
रंग-गुलाल से खेलते, खुश हो देख प्रभात..
भाषा बोलें स्नेह की, जोड़ें मन के तार.
यही विरासत सनातन, सबको बाटें प्यार..
शब्दों का क्या? भाव ही, होते 'सलिल' प्रधान.
जो होली पर प्यार दे, सचमुच बहुत महान..\*
५-३-२०१५
समीक्षा नवगीत २०१३ डॉ. जगदीश व्योम
नवगीत २०१३: रचनाधर्मिता का दस्तावेज
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: नवगीत २०१३ (प्रतिनिधि नवगीत संकलन), संपादक डॉ. जगदीश व्योम, पूर्णिमा बर्मन, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, पृष्ठ १२ + ११२, मूल्य २४५ /, प्रकाशक एस. कुमार एंड कं. ३६१३ श्याम नगर, दरियागंज, दिल्ली २ ]
विश्व वाणी हिंदी के सरस साहित्य कोष की अनुपम निधि नवगीत के विकास हेतु संकल्पित-समर्पित अंतर्जालीय मंच अभिव्यक्ति विश्वं तथा जाल पत्रिका अनुभूति के अंतर्गत संचालित ‘नवगीत की पाठशाला’ ने नवगीतकारों को अभिव्यक्ति और मार्गदर्शन का अनूठा अवसर दिया है. इस मंच से जुड़े ८५ प्रतिनिधि नवगीतकारों के एक-एक प्रतिनिधि नवगीत का चयन नवगीत आंदोलन हेतु समर्पित डॉ. जगदीश व्योम तथा तथा पूर्णिमा बर्मन ने किया है.
इन नवगीतकारों में वर्णमाला क्रमानुसार सर्व श्री अजय गुप्त, अजय पाठक, अमित, अर्बुदा ओहरी, अवनीश सिंह चौहान, अशोक अंजुम, अशोक गीते, अश्वघोष, अश्विनी कुमार अलोक, ओम निश्चल, ओमप्रकाश तिवारी, ओमप्रकश सिंह, कमला निखुर्पा, कमलेश कुमार दीवान, कल्पना रमणी, कुमार रविन्द्र, कृष्ण शलभ, कृष्णानंद कृष्ण, कैलाश पचौरी, क्षेत्रपाल शर्मा, गिरिमोहन गुरु, गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, गीता पंडित, गौतम राजरिशी, चंद्रेश गुप्त, जयकृष्ण तुषार, स्ग्दिश व्योम, जीवन शुक्ल, त्रिमोहन तरल, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, धर्मेन्द्र कुमार सिंह, नचिकेता, नवीन चतुर्वेदी, नियति वर्मा, निर्मल सिद्धू, निर्मला जोशी, नूतन व्यास, पूर्णिमा बर्मन, प्रभुदयाल श्रीवास्तव, प्रवीण पंडित, ब्रजनाथ श्रीवास्तव, भारतेंदु मिश्र, भावना सक्सेना, मनोज कुमार, विजेंद्र एस. विज, महेंद्र भटनागर, महेश सोनी, मानोशी, मीणा अग्रवाल, यतीन्द्रनाथ रही, यश मालवीय, रचना श्रीवास्तव, रजनी भार्गव, रविशंकर मिश्र, राजेंद्र गौतम, राजेंद्र वर्मा, राणा प्रताप सिंह, राधेश्याम बंधु, रामकृष्ण द्विवेदी ‘मधुकर’, राममूर्ति सिंह अधीर, संगीता मनराल, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रवीन्द्र कुमार रवि, रूपचंद शास्त्री ‘मयंक’, विद्यानंदन राजीव, विमल कुमार हेडा, वीनस केसरी, शंभुशरण मंडल, शशि पाधा, शारदा मोंगा, शास्त्री नित्य गोपाल कटारे, सिवाकांत मिश्र ‘विद्रोही’, शेषधर तिवारी, श्यामबिहारी सक्सेना, श्याम सखा श्याम, श्यामनारायण मिश्र, श्रीकांत मिश्र ‘कांत’, संगीता स्वरुप, संजीव गौतम, संजीव वर्मा ‘सलिलl’, सुभाष राय, सुरेश पंडा, हरिशंकर सक्सेना, हरिहर झा, हरीश निगम हैं.
उक्त सूची से स्पष्ट है कि वरिष्ठ तथा कनिष्ठ, अधिक चर्चित तथा कम चर्चित, नवगीतकारों का यह संकलन ३ पीढ़ियों के चिंतन, अभिव्यक्ति, अवदान तथा गत ३ दशकों में नवगीत के कलेवर, भाषिक सामर्थ्य, बिम्ब-प्रतीकों में बदलाव, अलंकार चयन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण नवगीत के कथ्य में परिवर्तन के अध्ययन के लिये पर्याप्त सामग्री मुहैया कराता है. संग्रह का कागज, मुद्रण, बँधाई, आवरण आदि उत्तम है. नवगीतों में रूचि रखनेवाले साहित्यप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होंगे.
शोध छात्रों के लिये इस संकलन में नवगीत की विकास यात्रा तथा परिवर्तन की झलक उपलब्ध है. नवगीतों का चयन सजगतापूर्वक किया गया है. किसी एक नवगीतकार के सकल सृजन अथवा उसके नवगीत संसार के भाव पक्ष या कला पक्ष को किसी एक नवगीत के अनुसार नहीं आँका जा सकता किन्तु विषय की परिचर्या (ट्रीटमेंट ऑफ़ सब्जेक्ट) की दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है. नवगीत चयन का आधार नवगीत की पाठशाला में प्रस्तुति होने के कारण सहभागियों के श्रेष्ठ नवगीत नहीं आ सके हैं. बेहतर होता यदि सहभागियों को एक प्रतिनिधि चुनने का अवसर दिया जाता और उसे पाठशाला में प्रस्तुत कर सम्मिलित किया जा सकता. हर नवगीत के साथ उसकी विशेषता या खूबी का संकेत नयी कलमों के लिये उपयोगी होता.
संग्रह में नवगीतकारों के चित्र, जन्म तिथि, डाक-पते, चलभाष क्रमांक, ई मेल तथा नवगीत संग्रहों के नाम दिये जा सकते तो इसकी उपयोगिता में वृद्धि होती. आदि में नवगीत के उद्भव से अब तक विकास, नवगीत के तत्व पर आलेख नई कलमों के मार्गदर्शनार्थ उपयोगी होते. परिशिष्ट में नवगीत पत्रिकाओं तथा अन्य संकलनों की सूची इसे सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में अधिक उपयोगी बनाती तथापि नवगीत पर केन्द्रित प्रथम प्रयास के नाते ‘नवगीत २०१३’ के संपादक द्वय का श्रम साधुवाद का पात्र है. नवगीत वर्तमान स्वरुप में भी यह संकलन हर नवगीत प्रेमी के संकलन में होनी चाहिए. नवगीत की पाठशाला का यह सारस्वत अनुष्ठान स्वागतेय तथा अपने उद्देश्य प्राप्ति में पूर्णरूपेण सफल है. नवगीत एक परिसंवाद के पश्चात अभिव्यक्ति विश्वं की यह बहु उपयोगी प्रस्तुति आगामी प्रकाशन के प्रति न केवल उत्सुकता जगाती है अपितु प्रतीक्षा हेतु प्रेरित भी करती है.
***
५-३-२०१५
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समीक्षा नवगीत २०१३ डॉ. जगदीश व्योम
समीक्षा नवगीत एक परिसंवाद निर्मल शुक्ल
नवगीत को परखता हुआ “नवगीत एक परिसंवाद”
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: नवगीत:एक परिसंवाद, संपादक निर्मल शुक्ल, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जेकेटयुक्त, पृष्ठ ११०, मूल्य २००/-, प्रकाशक विश्व पुस्तक प्रकाशन, ३०४ ए, बी, जी ६, पश्चिम विहार, नई दिल्ली ६३]
साहित्य समाज का दर्पण मात्र नहीं होता, वह समाज का प्रेरक और निर्माता भी होता है. काव्य मनुष्य के अंतर्मन से नि:स्रत ही नहीं होता, उसे प्रभावित भी करता है. नवगीत नव गति, नव लय, नव ताल, नव छंद से प्रारंभ कर नव संवाद, नव भावबोध, नव युगबोध नव अर्थबोध, नव अभिव्यक्ति ताक पहुँच चुका है. नवगीत अब बौद्धिक भद्र लोक से विस्तृत होकर सामान्य जन तक पैठ चुका है. युगीन सत्यों, विसंगतियों, विडंबनाओं, आशाओं, अरमानों तथा अपेक्षाओं से आँखें मिलाता नवगीत समाज के स्वर से स्वर मिलाकर दिशा दर्शन भी कर पा रहा है. अपने छः दशकीय सृजन-काल में नवगीत ने सतही विस्तार के साथ-साथ अटल गहराइयों तथा गगनचुम्बी ऊँचाइयों को भी स्पर्श किया है.
‘नवगीत : एक परिसंवाद’ नवगीत रचना के विविध पक्षों को उद्घाटित करते १४ सुचिंतित आलेखों का सर्वोपयोगी संकलन है. संपादक निर्मल शुक्ल ने भूमिका में ठीक ही कहा है: ‘नवगीत का सृजन एक संवेदनशील रचनाधर्मिता है, रागात्मकता है, गेयता है, एक सम्प्रेषणीयता के लिए शंखनाद है, यह बात और है कि इन साठ वर्षों के अंतराल में हर प्रकार से संपन्न होते हुए भी गीत-नवगीत को अपनी विरासत सौंपने के लिये हिंदी साहित्य के इतिहास के पन्नों पर आज भी एक स्थान नहीं मिल सका है.’ विवेच्य कृति नवगीत के अस्तित्व व औचित्य को प्रमाणित करते हुए उसकी भूमिका, अवदान और भावी-परिदृश्य पर प्रकाश डालती है.
उत्सव धर्मिता का विस्तृत संसार: पूर्णिमा बर्मन, नवगीत कितना सशक्त कितना अशक्त; वीरेंद्र आस्तिक, नवगीतों में राजनीति और व्यवस्था: विनय भदौरिया, नवगीत में महानगरीय बोध: शैलेन्द्र शर्मा, आज का नवगीत समय से संवाद करने में सक्षम है: निर्मल शुक्ल, नवगीत और नई पीढ़ी: योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, हिंदी गीत: कथ्य और तथ्य अवनीश सिंह चौहान, नवगीत के प्रतिमान: शीलेन्द्र सिंह चौहान, गीत का प्रांजल तत्व है नवगीत: आनंद कुमार गौरव, समकालीन नवगीत की अवधारणा और उसके विविध आयाम: ओमप्रकाश सिंह, और उसकी चुनौतियाँ: मधुकर अष्ठाना, नवगीत में लोकतत्व की उपस्थिति: जगदीश व्योम, नवगीत में लोक की भाषा का प्रयोग: श्याम श्रीवास्तव, नवगीत में भारतीय संस्कृति: सत्येन्द्र, ये सभी आलेख पूर्व पोषित अवधारणाओं की पुनर्प्रस्तुति न कर अपनी बात अपने ढंग से, अपने तथ्यों के आधार पर न केवल कहते हैं, अब तक बनी धारणाओं और मान्यताओं का परीक्षण कर नवमूल्य स्थापना का पथ भी प्रशस्त करते हैं.
ख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ठीक ही आकलित करते हैं: ‘परम्परावादी गीतकार अपनी निजता में ही डूबा हुआ होता है, वहीं नवगीत का कवि बोध और समग्रता में गीत के संसार को विस्तार देता है. नवगीत भारतीय सन्दर्भ में ओनी जड़ों की तलाश और पहचान है. उसमें परंपरा और वैज्ञानिक आधुनिकता का संफुफां उसे समकालीन बनाता है. नवगीत कवि कठमुल्ला नहीं है, और न उसका विश्वास किसी बाड़े-बंदी में है. वह काव्यत्व का पक्षधर है. इसलिए आज के कविता विरोधी समय में, कविता के अस्तित्व की लड़ाई के अग्रिम मोर्चे पर खड़ा दिखता है. समकालीन जीवन में मनुष्य विरोधी स्थितियों के खिलाफ कारगर हस्तक्षेप का नाम है नवगीत.’’
नवगीत : एक परिसंवाद में दोहराव के खतरे के प्रति चेतावनी देती पूर्णिमा बर्मन कहती हैं: “हमारा स्नायु तंत्र ही गीतमय है, इसे रसानुभूति के लिये जो लय और ताल चाहिए वह छंद से ही मिलती है... नवगीत में एक ओर उत्सवधर्मिता का विस्तृत संसार है और दूसरी ओर जनमानस की पीड़ा का गहरा संवेदन है.” वीरेंद्र आस्तिक के अनुसार “नवगीत का अति यथार्थवादी, अतिप्रयोगवादी रुझान खोजपूर्ण मौलिकता से कतराता गया है.” विनय भदौरिया के अनुसार: ‘वस्तुतः नवगीत राजनीति और व्यवस्था के समस्त सन्दर्भों को ग्रहण कर नए शिल्प विधान में टटके बिम्बों एवं प्रतीकों को प्रयोगकर सहज भाषा में सम्प्रेषणीयता के साथ अभिव्यक्त कर रहा है.” शैलेन्द्र शर्मा की दृष्टि में “वर्तमान समय में समाज में घट रही प्रत्येक घटना की अनुगूँज नवगीतों में स्पष्ट दिखाई देती है.” निर्मल शुक्ल के अनुसार “आज का नवगीत समय से सीधा संवाद कर रहा है और साहित्य तथा समाज को महत्वपूर्ण आयाम दे रहा है, पूरी शिद्दत के साथ, पूरे होशोहवास में.”
नए नवगीतकारों के लेखन के प्रति संदेह रखनेवालों को उत्तर देते योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ के मत में: “नयी पीढ़ी की गीति रचनाओं के सामयिक बनने में किसी प्रकार की कोई शंका की गुन्जाइश नहीं है.” अवनीश सिंह चौहान छंदानुशासन, लय तथा काव्यत्व के सन्दर्भ में कहते हैं: “गीत सही मायने में गीत तभी कहलायेगा जब उसमें छंदानुशासन, अंतर्वस्तु की एकरूपता, भावप्रवणता, गेयता एवं सहजता के साथ समकालीनता, वैचारिक पुष्टता और यथार्थ को समावेशित किया गया हो.” शीलेन्द्र सिंह चौहान के अनुसार “नवगीत की सौंदर्य चेतना यथार्थमूलक है.” आनंद कुमार ‘गौरव’ के मत में “नवगीत की प्रासंगिकता ही जन-संवाद्य है.” ओमप्रकाश सिंह अतीत और वर्तमान के मध्य सेतु के रूप में मूल्यांकित करते हैं. मधुकर अष्ठाना अपरिपक्व नवगीत लेखन के प्रति चिंतित हैं: “गुरु-शिष्य परंपरा के भाव में नवगीत के विकास पर भी ग्रहण लग रहा है.” जगदीश व्योम नवगीत और लोकगीत के अंतर्संबंध को स्वीकारते हैं: “नवगीतों में जब लोक तत्वों का अभाव होता है तो उनकी उम्र बहुत कम हो जाती है.” श्याम श्रीवास्तव के मत में “लोकभाषा का माधुर्य, उससे उपजी सम्प्रेषणीयता रचना को पाठक से जोड़ती है.” सत्येन्द्र तिवारी का उत्स भारतीय संस्कृति में पाते हैं.
सारत: नवगीत:एक परिसंवाद पठनीय ही नहीं मननीय भी है. इसमें उल्लिखित विविध पक्षों से परिचित होकर नवगीतकार बेहतर रचनाकर्म करने में सक्षम हो सकता है. नवगीत को ६ दशक पूर्व के मापदंडों में बाँधने के आग्रही नवगीतकारों को में लोकतत्व, लोकभाषा, लोक शब्दों और लोक में अंतर्व्याप्त छंदों की उपयोगिता का महत्त्व पहचानकर केवल बुद्धिविलासत्मक नवगीतों की रचना से बचना होगा. ऐसे प्रयास आगे भी किये जाएँ तो नवगीत ही नहीं समालोचनात्मक साहित्य भी समृद्ध होगा.
***
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समीक्षा नवगीत एक परिसंवाद निर्मल शुक्ल
दोहा सलिला अंगरेजी में खाँसते
दोहा सलिला
अंगरेजी में खाँसते...
संजीव 'सलिल'
*
अंगरेजी में खाँसते, समझें खुद को श्रेष्ठ.
हिंदी की अवहेलना, समझ न पायें नेष्ठ..
*
टेबल याने सारणी, टेबल माने मेज.
बैड बुरा माने 'सलिल', या समझें हम सेज..
*
जिलाधीश लगता कठिन, सरल कलेक्टर शब्द.
भारतीय अंग्रेज की, सोच करे बेशब्द..
*
नोट लिखें या गिन रखें, कौन बताये मीत?
हिन्दी को मत भूलिए, गा अंगरेजी गीत..
*
जीते जी माँ ममी हैं, और पिता हैं डैड.
जिस भाषा में श्रेष्ठ वह, कहना सचमुच सैड..
*
चचा फूफा मौसिया, खो बैठे पहचान.
अंकल बनकर गैर हैं, गुमी स्नेह की खान..
*
गुरु शिक्षक थे पूज्य पर, टीचर हैं लाचार.
शिष्य फटीचर कह रहे, कैसे हो उद्धार?.
*
शिशु किशोर होते युवा, गति-मति कर संयुक्त.
किड होता एडल्ट हो, एडल्ट्री से युक्त..
*
कॉपी पर कॉपी करें, शब्द एक दो अर्थ.
यदि हिंदी का दोष तो अंगरेजी भी व्यर्थ..
*
टाई याने बाँधना, टाई कंठ लंगोट.
लायर झूठा है 'सलिल', लायर एडवोकेट..
*
टैंक अगर टंकी 'सलिल', तो कैसे युद्धास्त्र?
बालक समझ न पा रहा, अंगरेजी का शास्त्र..
*
प्लांट कारखाना हुआ, पौधा भी है प्लांट.
कैन नॉट को कह रहे, अंगरेजीदां कांट..
*
खप्पर, छप्पर, टीन, छत, छाँह रूफ कहलाय.
जिस भाषा में व्यर्थ क्यों, उस पर हम बलि जांय..
*
लिख कुछ पढ़ते और कुछ, समझ और ही अर्थ.
अंगरेजी उपयोग से, करते अर्थ-अनर्थ..
*
हीन न हिन्दी को कहें, भाषा श्रेष्ठ विशिष्ट.
अंगरेजी को श्रेष्ठ कह, बनिए नहीं अशिष्ट..
*
५-३-२०१४
अंगरेजी में खाँसते...
संजीव 'सलिल'
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अंगरेजी में खाँसते, समझें खुद को श्रेष्ठ.
हिंदी की अवहेलना, समझ न पायें नेष्ठ..
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टेबल याने सारणी, टेबल माने मेज.
बैड बुरा माने 'सलिल', या समझें हम सेज..
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जिलाधीश लगता कठिन, सरल कलेक्टर शब्द.
भारतीय अंग्रेज की, सोच करे बेशब्द..
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नोट लिखें या गिन रखें, कौन बताये मीत?
हिन्दी को मत भूलिए, गा अंगरेजी गीत..
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जीते जी माँ ममी हैं, और पिता हैं डैड.
जिस भाषा में श्रेष्ठ वह, कहना सचमुच सैड..
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चचा फूफा मौसिया, खो बैठे पहचान.
अंकल बनकर गैर हैं, गुमी स्नेह की खान..
*
गुरु शिक्षक थे पूज्य पर, टीचर हैं लाचार.
शिष्य फटीचर कह रहे, कैसे हो उद्धार?.
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शिशु किशोर होते युवा, गति-मति कर संयुक्त.
किड होता एडल्ट हो, एडल्ट्री से युक्त..
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कॉपी पर कॉपी करें, शब्द एक दो अर्थ.
यदि हिंदी का दोष तो अंगरेजी भी व्यर्थ..
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टाई याने बाँधना, टाई कंठ लंगोट.
लायर झूठा है 'सलिल', लायर एडवोकेट..
*
टैंक अगर टंकी 'सलिल', तो कैसे युद्धास्त्र?
बालक समझ न पा रहा, अंगरेजी का शास्त्र..
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प्लांट कारखाना हुआ, पौधा भी है प्लांट.
कैन नॉट को कह रहे, अंगरेजीदां कांट..
*
खप्पर, छप्पर, टीन, छत, छाँह रूफ कहलाय.
जिस भाषा में व्यर्थ क्यों, उस पर हम बलि जांय..
*
लिख कुछ पढ़ते और कुछ, समझ और ही अर्थ.
अंगरेजी उपयोग से, करते अर्थ-अनर्थ..
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हीन न हिन्दी को कहें, भाषा श्रेष्ठ विशिष्ट.
अंगरेजी को श्रेष्ठ कह, बनिए नहीं अशिष्ट..
*
५-३-२०१४
चिप्पियाँ Labels:
दोहा सलिला अंग्रेजी पर
नवगीत आँखें रहते
नवगीत
आँखें रहते
संजीव 'सलिल'
*
आँखें रहते सूर हो गए,
जब हम खुद से दूर हो गए.
खुद से खुद की भेंट हुई तो-
जग-जीवन के नूर हो गए...
*
सबलों के आगे झुकते सब.
रब के आगे झुकता है नब.
वहम अहम् का मिटा सकें तो-
मोह न पाते दुनिया के ढब.
जब यह सत्य समझ में आया-
भ्रम-मरीचिका दूर हो गए...
*
सुख में दुनिया लगी सगी है.
दुःख में तनिक न प्रेम पगी है.
खुली आँख तो रहो सुरक्षित-
बंद आँख तो ठगा-ठगी है.
दिल पर लगी चोट तब जाना-
'सलिल' सस्वर सन्तूर हो गए...
*
संजीव 'सलिल'
*
आँखें रहते सूर हो गए,
जब हम खुद से दूर हो गए.
खुद से खुद की भेंट हुई तो-
जग-जीवन के नूर हो गए...
*
सबलों के आगे झुकते सब.
रब के आगे झुकता है नब.
वहम अहम् का मिटा सकें तो-
मोह न पाते दुनिया के ढब.
जब यह सत्य समझ में आया-
भ्रम-मरीचिका दूर हो गए...
*
सुख में दुनिया लगी सगी है.
दुःख में तनिक न प्रेम पगी है.
खुली आँख तो रहो सुरक्षित-
बंद आँख तो ठगा-ठगी है.
दिल पर लगी चोट तब जाना-
'सलिल' सस्वर सन्तूर हो गए...
*
५-३-२०१०
पुरोवाक् रूहानी इत्र सुनीता सिंह
पुरोवाक्
रूहानी इत्र - आत्मनुभूतियों से संपृक्त कविताएँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मानव ने जब से बोलना सीखा, वह अपनी अनुभूतियों को इस तरह अभिव्यक्त करने का प्रयास करता रहा कि वे न केवल अन्यों तक संप्रेषित हों अपितु उसे और उन्हें दीर्घकाल तक स्मरण रहें। इस प्रयास ने भाषिक प्रवाह संपन्न कविता को जन्म दिया। कविता में कहा गया कथ्य गद्य की तुलना में सुबोध और सहज ग्राह्य होता है। इसीलिये माताएँ शिशुओं को लोरी पहले सुनाती हैं, कहानी बाद में। अबोध शिशु न तो भाषा जानता है न शब्द और उनके अर्थ तथापि माँ के चेहरे के भाव और अधरों से नि:सृत शब्दों को सुनकर भाव हृदयंगम कर लेता है और क्रमश: शब्दों और अर्थ से परिचित होकर बिना सीखे भाषा सीख लेता है।
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'वाक्यम् रसात्मकं काव्यम्' अर्थात रसमय वाक्य ही कविता है। पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं, 'रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' यानि सुंदर अर्थ को प्रकट करनेवाली रचना ही काव्य है। पंडित अंबिकादत्त व्यास का मत है, 'लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः काव्यानाम् यातु' यानि लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है। आचार्य भामह के मत में "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्" अर्थात कविता शब्द और अर्थ का उचित मेल" है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ''जब कवि 'भावनाओं के प्रसव' से गुजरते हैं, तो कविताएँ प्रस्फुटित होती हैंं।'' महाकवि जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है।
मेरे विचार में कवि द्वारा अनुभूत सत्य की शब्द द्वारा सार्थक-संक्षिप्त लयबद्ध अभिव्यक्ति कविता है। कविता का गुण गेयता मात्र नहीं अपितु वैचारिक संप्रेषणीयता भी है। कविता देश, काल, परिस्थितियों, विषय तथा कवि के अनुसार रूप-रंग आकार-प्रकार धारण कर जन-मन-रंजन करती है। शाने-अवध लखनऊ निवासी सुनीता सिंह काव्य जगत के लिए अब नया नाम नहीं है। सुनीता जी ने कई पुस्तकें लिखी हैं जो सम्मानित व् पुरस्कृत हुई हैं। जटिल प्रशासनिक दायित्व का वाहन करने के साथ-साथ मातृभाषा के साहित्य-कोष को रचना-रत्नों से समृद्ध करने की उनकी जिजीविषा निस्संदेह अनुकरणीय है। 'रूहानी इत्र' कवयित्री सुनीता की छंद मुक्त कविताओं का पठनीय संग्रह है। इन कविताओं में कवयित्री अपनी 'रूह' (आत्मा) के संस्कारों को शब्दों का बना पहनकर कविता-रूप में पाठक पंचायत से साक्षात् करा रही है। जिस तरह विशाल उद्यान में बनी क्यारियों में पुष्पित अगणित फूलों से इत्र की कुछ बूँदें प्राप्त होती हैं उसी तरह आत्मा के अगिन संस्कारों में से कुछ मस्तिष्क द्वारा अनुभूत किये जाकर काव्य रचनाओं में ढल पाते हैं। ऐसी काव्य रचनाओं को प्रस्तुत करना और पढ़ कर उनका रस ग्रहण करना महत्वपूर्ण है। इसीलिए तुलसीदास 'श्रोता-बकता ज्ञाननिधि' कहते हैं। 'रूहानी इत्र' के संदर्भ में इसे 'पाठक कवि हैं ज्ञाननिधि' कर लीजिए।
'रूहानी इत्र' के संदर्भ में सुनीता जी कहती हैं-
'जब मैं सागर की अतल गहराइयों में उतर जाती हूँ
तब कुछ यादों की परछाइयों से मुलाकात होती है।
चाहतों से, बेबसी का, रकीब का रिश्ता
कुछ जलजलों की रूह को सौगात होती है।
जो चीर कर तम का घेरा निकलते हैं
उन्हें मिटाने की, किसकी औकात होती है?
जिस खुशबू से रूह भीगती हो,
झूमती हो, महकती हो
उस इत्र में आखिर कुछ तो बात होती है।
'रूहानी इत्र' का असर भी 'रूहानी' होना लाजमी है-
बगिया में शजर लहराता है,
रूहानी असर गहराता है।
शब बीत गई लेकर जुल्मत
अब तो ये सहर जगराता है।
कहते हैं - 'लीक तोड़ तीनों चलें शायर सिंह सपूत' कवयित्री सुनीता शायर, सिंह और सपूत (पुत्र पुत्रियाँ हैं समान अब) तीनों हैं तो उन्हें लीक तोड़ना और अपनी राह खुद बनाना ही चाहिए। वे 'संगत की पंगत' में रहकर रहती और न रहकर भी रहती हैं। यह उनके पद का दायित्व है कि वे हर किसी को अपनी लगें पर अपने विरोधी की न लगें अर्थात सभी के लिए तटस्थ और निस्संग रहें। उनमें बसी कवयित्री इस स्थिति को यूँ बयां करती है-
संगत का असर तो दिखता है,
पर सीरत नहीं बदलती।
फूल काँटों को मासूम नहीं बना पाते।
और काँटे भी सुगंध पाते।
फूल की खुशबू तो हवा में
काँटों के लिए भी है।
काँटे की चुभन और शूल
फूल को भी घायल कर देती है।
सुनीता जी को बहुधा बिना समुचित आधार के हो रही जुगलबंदियों को देखने के मौके मिलते हैं। उनका अधिकारी भले ही ऐसी मौकापरस्त जुगलबंदियों पर कुछ न कह मौन रह जाए, उनका कवि मन मौन नहीं रह पाता। दुष्यंत कुमार द्वारा दी गई 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो / ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं' की विरासत समेटे-सहेजे सुनीता अपने ही अंदाज़ में बात इस तरह कहती हैं कि 'कह' भी दी जाए और 'अनकही' भी रह जाए और फिर वे कह सकें 'समझनेवाले समझ गए हैं, ना समझे जो अनाड़ी है'-
मैं हैरान थी, आँसू और मुस्कान की
खिलखिलाती जुगलबंदी पर
कि तभी मन ने आवाज़ दी
मेरे साथ अपने भीतर चलो।
अंतस की गहराई में खारा सागर
हिलोरें ले रहा था
और बंदिशों के उथले टापू
पूरी सेना लिए मौजूद थे।
दोनों एक दूसरे को
अनदेखा नहीं कर सकते थे
आँख और होंठ दोनों की बेबसी में
वे अपने को व्यक्त करते थे।
एक और परिस्थिति का शब्द चित्र देखें-
जब महाज्ञान का
क्रूरता से गठजोड़ होता है
तो अतिशय बुद्धिमत्ता जन्मती है।
फिर समझदारी का लोप हो जाता है।
पारिस्थितिक चक्रव्यूह को देखते हुए भी न देखने की कर्तव्यबद्धता अधिकारी को मान्य हो सकती है, कवी किसी बंधन को नहीं मानता। वह अपना आक्रोश यूँ बयान करता है -
मन कहता है
एक कैंची आविष्कार करूँ
जहाँ गाँठ हो, उसे कतर डालूँ।
यह आक्रोश एक और शक्ल अख्तियार करता है -
खुश्बू क्या मोगरे की मिल्कियत है?
चलो मैं नहीं मानती।
मेरी बात सुनकर
गुलाब की भीनी सुगंध
चंपा, चमेली, जूही की सुवास
जो अभी तक अपने-अपने को
श्रेष्ठ बता रही थीं
मिलकर गठबंधन कर लिया।
मेरे विरुद्ध एक नया मोर्चा खोल दिया।
'दधीचि के अस्त्र' कविता में कवयित्री सुनीता एक और परिदृश्य को रूपक के माध्यम से उपस्थित करती हैं-
झंझावातों के मुश्किल युद्ध में
पीड़ा, वेदना, दुःख और उदासी
देवी-देवता जैसे बनने की
स्वयंम्भू कोशिश करते हैं।
अंतस के दधीचि के पास आते हैं
अस्थियों का दान माँगते हैं
और दया-निधान पाने पर
ब्रेनवाश करने का कोई प्रयास नहीं छोड़ते।
पर वो नहीं जानते
अब अंतस के उस दधीचि के पास
अस्थियों के अतिरिक्त, बहुत से नव निर्मित
आयुध और अस्त्र-शस्त्र हैं
और एक सबसे बड़ा अस्त्र
बिल्कुल मौन हो जाना है।
अनूठे बिंब-प्रतीकों से संपन्न इन कविताओं में शब्द अपने शब्द कोशीय अर्थों में कुछ और कहते हैं और निहितार्थ में कुछ और कहते हैं बशर्ते आपमें सुनने-समझने की ताब हो।
अलग मिजाज की कविता है 'तुहिन कण' जो मुझे बहुत अच्छी लगी, शायद इसलिए भी कि मेरी बिटिया का नाम 'तुहिना' है -
गुनगुनी धूप के माथे पर
तुहिन कण लगा देते हैं तिलक।
ज्ञात है कि उम्र कम है
जानते लेकिन न गम है।
आरंभ से ले अंत तक
झूमकर गाते मगन हैं।
बस वही मन की दशा अब
श्वास रहने तक न हारे।
मन बना प्रतिबिम्ब सा
अब साँझ हो या फिर सकारे।
सुनीता जी की कुछ काव्य पंक्तियाँ सूक्तियों की तरह 'गागर में सागर' भर देती है -
जब शब्द मौन हो जाते
निःशब्द मनन हो जाता - मौन
*
ख़ामोशी
वाकई खामोश होती है क्या? - ख़ामोशी
*
अंतरिक्ष बोलता है
अगर सुन सको तो। - अंतरिक्ष बोलता है
*
तिम्हरा होना ही पर्याप्त नहीं, बात तो
तुम अपने होने का अर्थ तलाश सको - तुम्हारा होना
*
हम बदले तो जग बदलेगा, मानवता की जय होगी - परिवर्तन
*
कवयित्री सुनीता की सृजन यात्रा को निरंतर आगे जाते देखना सुखद है। सुनीता भाषाई विरासत को जी-जान से सहेजे हुए हैं। वे हिंदी या हिंदुस्तानी में भावों को पिरोती हैं। बिना किसी पूर्वाग्रह या दुराग्रह के कविता के कथ्य के अनुरूप संस्कृतनिष्ठ हिंदी, फ़ारसी-मिश्रित हिंदी देशज शब्दों से सजी ग्रामीण हिंदी तीनों रूप उन्हें सहज साध्य हैं। 'रूहानी इत्र' की ये कविताएँ पूर्व रचनाओं से अधिक परिपक्व होना कवयित्री सुनीता के उज्जवल भविष्य सुनिश्चित करता है।
***
संपर्क आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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पुरोवाक् रूहानी इत्र,
सुनीता सिंह
मुक्तिका
मुक्तिका
*
कौन किसका हुआ जमाने में?
ज़िंदगी गई आजमाने में।।
बात आई समझ सलिल इतनी
दिल्लगी है न दिल लगाने में।।
चैन बाजार में नहीं मिलती
चैन मिलती है गुसलखाने में।।
रैन भर जाग थक रहा खुसरो
पी थका है उसे सुलाने में।।
जान पाया हूँ बाद अरसे के
क्या मजा है खुदी मिटाने में।।
*
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