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मंगलवार, 21 जुलाई 2020

दोहा शतक इंद्र बहादुर श्रीवास्तव


दोहा शतक
इंद्र बहादुर श्रीवास्तव
*
जन्म: १४.५.१९४७, ग्राम डेलहा, मैहर, सतना मध्य प्रदेश।
आत्मज: स्व. जानकी बाई-स्व. अवधेश प्रसाद श्रीवास्तव।
जीवन संगिनी: स्व. कमलेश श्रीवास्तव।
काव्य गुरु: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।
शिक्षा: डिप्लोमा मैकेनिकल अभियांत्रिकी।
लेखन विधा: दोहा, हास्य कविताएँ।
संप्रति: सेवानिवृत्त राजपत्रित अधिकारी, वाहन निर्माणी जबलपुर।
संपर्क: ४१६, स्वागतम चौक, जयप्रकाश नगर, अधारताल, जबलपुर ४८२००४।
दूरभाष: ०७६१ ४०३७१११, चलभाष: ९१ ९३२ ९६६४२७२, ईमेल: ibshrivastava01@gmail.com ।
*
इंद्रबहादुर श्रीवास्तव जी व्यवसाय से अभियंता होते हुए भी अभिरुचि से हास्य कवि हैं। अभियंता होने के कारण उन्हें हर कार्य समझ-बूझकर करने का अभ्यास है। दोहा शतक मंजूषा में सहभागिता हेतु अत्यल्प समय में दोहा के विधान का अभ्यास कर उसमें अपनी मूल विधा हास्य को पिरोने में वे सफल रहे हैं। निम्न दोहा इसकी बानगी है:
पिता पुत्र से पूछते, 'खुश हो बीबी संग'?
नमक छिड़कते जले पर, खुद का उतरा रंग।।
पारिवारिक जीवन की एक और झलक इस दोहे में झलक रही है:
देख गैर के मर्द को, मुसकातीं कर जोड़।
अपना आया सामने, गुर्रातीं मुख मोड़।।
सरसरी दृष्टि से देखने पर परिंदों के लिए कहा गया यह दोहा मानव-व्यवहार के लिए भी प्रासंगिक है:
चें-चें, टें-टे कर रहे, हुए न एक विचार।
किसी शिकारी के लिए, हैं वे सुलभ शिकार।।
इंद्र जी में साहित्यिक दोहे रचने की सामर्थ्य का परिचय देता निम्नलिखित दोहा अनुप्रास, भ्रांतिमान, उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकार से समृद्ध हुआ है:
देख नीर में बिंब निज, चाँद हुआ हैरान।
कौन दूसरा आ गया, जुड़वाँ बंधु समान।।
दोहा-रचना में संक्षिप्तता, सम्प्रेषणीयता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता तथा मर्म बेधकता के गुणों को यथावश्यक स्थान देने के प्रति सचेष्ट इंद्र जी का निम्न दोहा 'कम में अधिक' कहता है।
जन मत; पर मत; विज्ञ मत, शास्त्र मतों की खान।
मन मत सर्वोपरि रखें, साथ रहे निज ज्ञान।।
इंद्र जी के कई दोहे नीति दोहों की तरह सरल-सहज किन्तु उपयोगी हैं। रण हेतु उत्सुक कोई योद्धा जिस तरह शस्त्रागार में विविध शस्त्र रखता है, इंद्र जी उसी तरह विविध रसों के दोहे रचने के लिए सक्रिय हैं। इंद्र जी का शब्द भण्डार, शब्द चयन और व्यंजनात्मक समझ उन्हें अन्यों से भिन्न बनाती है। दोहालोक में इंद्र जी के दोहे अपनी भिन्न भाव-भंगिमा से रोतों को हँसाने में भी सक्षम हैं।
*
चरण-कमल में शत नमन, लंबोदर गणराज।
दोहा-दोहा समर्पित, रिद्धि-सिद्धि-सरताज।।
*
हे देवों के देव! जय, शंकर भोले नाथ।
चरणों में नत इंद्र है, करिए नाथ सनाथ।।
*
नाग-माल पहने गले, बैल नांदिया साथ।
करें वास कैलाश में, डमरू ले प्रभु हाथ।।
*
मुरली-धुन जबसे सुनी, मन है भाव-विभोर।
कहाँ छिपा है साँवरे, नटखट नंदकिशोर।।
*
मन व्याकुल किसके लिए, तरस रस रहे हैं नैन।
मन बसिया तू है कहाँ, ग्वाल-बाल बेचैन।।
*
गुरु-चरणों में शत नमन, नित प्रति बारंबार।
करिए गुरु-आशीष से, शंका-संकट पार।।
*
गुरु की महिमा का नहीं, कोई पारावार।
दोनों हाथ पसार लें, ज्ञान अमित भण्डार।।
*
छत्र-छाँव में पिता की, खुश रहता परिवार।
माँ की ममता अहर्निश, देती प्यार-दुलार।।
*
जिसके मस्तक पर रहे, पूज्य पिता का हाथ।
उसके सब दुःख दूर हों, सुख रहते हैं साथ।।
*
साया माता-पिता का, दैव न करना दूर।
हर मुश्किल आसान हो, उन्नति हो भरपूर।।
*
मात-पिता का जो रखे, बिना कहे खुद ध्यान।
उसकी सब मन-कामना, पूर्ण करें भगवान्।।
*
गर्मी के दिन आ गए, रंग दिखाए धूप।
बाहर जाता घूमने, जो हो श्याम स्वरूप।।
*
गर्म हवाएँ बह रहीं, आकुल-व्याकुल लोग।
धूप सही जाती नहीं, हुई घमोरी रोग।।
*
गर्म थपेड़े लग रहे, बुरा हुआ है हाल।
गोरी के मेक'अप बिना, गाल गुलाबी लाल।।
*
प्यास बुझाने के लिए, जीव-जंतु इंसान।
हैरां पानी के बिना, सूना सकल जहान।।
*
तड़पें पशु; पक्षी विकल, तड़प रहे इंसान।
जीना पानी के बिना, कैसे हो भगवान्।।
*
भानु तरेरे आँख जब, कर विकराल स्वरूप।
परेशान सब ग्रीष्म से, क्या गरीब क्या भूप।।
*
गर्मी का पारा चढ़ा, सबका दिल बेचैन।
व्याकुल मन बेमन तके, कब दिन हो कब रैन।।
*
धूप दिखाती रूप निज, तेजस्वी-विकराल।
जग-जीवन संत्रस्त हो, सूखें नदिया-ताल।।
*
अंतर्मन की व्यथा का, कैसे करें बखान?
सूखी फसलें बिन पके, चिंतित हुए किसान।।
*
तपे धूप जब जेठ में, कोई करे न काम।
घर-अंदर सर छिपाकर, करें न पा आराम।।
*
धूप तापते ठण्ड में, बैठे रहते लोग।
भानु-किरण की ताप से, दूर भगाते रोग।।
*
बीबी बात न मानती, कोई नहीं इलाज।
कहें किसी से आप मत, रहें छिपाए राज।।
*
पिता पुत्र से पूछते, खुश हो बीबी संग?
नमक छिड़कते जले पर, खुद का उतरा रंग।।
*
दिखी कभी क्या ख्वाब में, मैं मुन्नू के बाप?
सदा बचाते प्रेत से, हनुमत दिखीं न आप।।
*
देख गैर के मर्द को, मुसकातीं कर जोड़।
अपना आया सामने, गुर्रातीं मुख मोड़।।
*
संस्कार अच्छे अगर, अपनाएँ माँ-बाप।
नेक कर्म करने लगें, बच्चे अपने आप।।
*
रवि-किरणों की लालिमा, ज्यों छाई चहुँ ओर।
उड़ें परिंदे आप ही, कलरव कर हर भोर।।
*
दान चुगने के लिए, मन में अति उत्साह।
नीड़ बनाने की नहीं, खोज रहे क्यों राह?
*
चें-चें, टें-टे कर रहे, हुए न एक विचार।
किसी शिकारी के लिए, हैं वे सुलभ शिकार।।
*
बड़े परिंदे नीड़ के, हैं तो पालनहार।
उदर भरण के वास्ते, खोज रहे आधार।।
*
दीपावली मना रहे , हो पुलकित सब लोग।
घी के दिए जला रहे, मिटे तिमिर भय रोग।।
*
फोड़ पटाखे मत करो, शोर न दूषित वायु।
कलुषित पर्यावरण कर, घटा रहे निज आयु।।
*
सीमा पर तैनात जो, रहें सुबह से शाम।
पहला दीपक जला दें, हम मिल उनके नाम।।
*
टी. व्ही. जब से आ गया, ऐसा हुआ कमाल।
खुद को अपना ही नहीं, मिल पाता है हाल।।
*
छोटे-बड़े शिकार हो, चिपके भूले काम।
थककर आये किंतु हैं, व्यस्त न कर आराम।।
*
बच्चे टी. व्ही.देखकर, आँखें करें खराब।
'होमवर्क' को भूलकर, चश्मिश हुए जनाब।।
*
खाते टी. व्ही. देखकर, पिज्जा लोलीपोप।
कहना सुनें न बड़ों का, परेशान माँ-बाप।।
*
अहो भाग्य है खुल गए, तन-पिंजरे के द्वार।
मन-पंछी चल उड़ चलें, नीलाम्बर के पार।।
*
नील गगन में उड़ मिले, पंछी को आनंद।
बंदिश लगे उड़ान पर, पिंजरा नहीं पसंद।।
*
हे प्रभु! दिखलाना नहीं, मुझको ऐसा काल।
पर कतरे उड़ने न दे, कोई पिंजरे-डाल।।
*
साजन तेरे नाम की, हिना रचाई हाथ।
राह देखते झुक रहा, आ जा! मेरा माथ।।
*
फीका मेंहदी के बिना, नारी का श्रृंगार।
लगा महावर पाँव में, बैठी बाट निहार।।
*
हिंसा से बढ़कर नहीं, है कोई अपराध।
मात्र अहिंसा ही हरे, सबके मन की व्याध।।
*
मन, वचनों या कर्म से, मत देना संताप।
सके अहिंसा ही मिटा, कलुषित मन के पाप।।
*
देख नीर में बिंब निज, चाँद हुआ हैरान।
कौन दूसरा आ गया, जुड़वाँ बंधु समान।।
*
चंद्र-चंद्रिका साथ हों, लगे सुहानी रात।
मन-द्वारा खटका रही, पिया मिलन की बात।।
*
सूरज की किरणें उगीं, ऊषा ले चित-चोर।
बीरबहूटी देखकर, मन है भाव विभोर।।
*
तन पर कपड़े अधूरे, मन में अमित उमंग।
खेल-खेल में बचपना, देता जीवन रंग।।
*
बचपन के बीते हुए, दिन आते जब याद।
भूल बुढ़ापा मन कहे, हो जा फिर आज़ाद।।
*
जन मत; पर मत; विज्ञ मत, शास्त्र मतों की खान।
मन मत सर्वोपरि रखें, साथ रहे निज ज्ञान।।
*
चलें सदा सदमार्ग पर, नहीं भटकिए राह।
नर ही नारायण बने, यदि सच्ची हो चाह।।
*
जिनमें बसते दिव्य गुण, करें श्रेष्ठ व्यवहार।
निज-पर, छोटे-बड़ों से, मर्यादा-अनुसार।।
*
शब्द-बाण मत मारिए, करें नहीं अपमान।
कटु वचनों से दूर हो, होंठों की मुस्कान।।
*
सद्गति होती ही नहीं, बिना योग, गुरु-ज्ञान।
मुक्ति मिलेगी युक्ति से, बनिए कर्म-प्रधान।।
*
कुलदीपक कहते उसे, जो है घर का लाल।
लाड़-प्यार से सीख दें, ले घर-द्वार सम्हाल।।
*
बेटा-बेटी रत्न हैं, जीवन के अनमोल।
बोली वही सीखिए, दे मिसरी सी घोल।।
*
बेटा-बेटी बढ़ाते, दो-दो कुल की शान।
किसी एक पर मत करें, आप निछावर जान।।
*
करें बड़ा माता-पिता, मिल अपनी संतान।
बूढ़ें हो तो सम्हाले, संतति रहे निहाल।।
*
रक्षा करते वतन की, जो देकर बलिदान।
हम उनके परिवार को, अपनाकर दें मान।।
*
हर दिन दीवाली मना, तनिक सुमीर लो राम।
अहंकार लंका जला, मोह दशानन मार।।
*
अभिनंदन नव वर्ष का, करें लुटाकर प्यार।
आँसू पोछें किसी के, पाए दीन दुलार।।
*
हुरियारे करते फिरें, होली में हुडदंग।
जोश सयानों में अधिक, देख युवा हैं दंग।।
*
फगुआ में फगुआ रहे, करते फिरें धमाल।
माथ अबीरी हो रहा, गाल गुलाबी लाल।।
*
भीगी चूनर देखकर, लगी जिया में आग।
नैन शराबी हो रहे, कंठ सुनाए फाग।।
*
तेज बढ़ा आदित्य का, रौब दिखाती धूप।
चेहरा उतरा हुआ है, संझा सूरज-रूप।।
*
माँ शारद की कृपा बिन, ज्यों सूना साहित्य।
त्यों अँधियारा हो जगत, जब डूबे आदित्य।।
*
आँख मूँदकर सो रहा, शासन होकर मौन।
देते जान किसान की, व्यथा सुने कब-कौन?
*
खेती करते रात-दिन, लगा-लगाकर जान।
भूखे गोली खा रहे, पालनहार किसान।।
*
बेबस घिरे अशांति में, लोग रहे हैं भाग।
धधक रही हर दिशा में, अब नफरत की आग।।
*
लोकतंत्र दम तोड़ता, मचती चीख-पुकार।
नेता दावे कर रहे, कहीं-नहीं उपचार।।
*
मोबाइल घातक नशा, कर देता लाचार।
इंटरनेट न मिले तो, युवा हुए बीमार।।
*
मित्र फेसबुक पर बना, पहली-पहली बार।
हक्का-बक्का कवि हुआ, गले पड़ गई नार।
*
छैल-छबीली सुंदरी, नैना लगें कटार।
बोली: 'मैं आ रही हूँ, छोड़ दिया घर-बार'।।
*
शादी कर लें हम चलो, हो जीवन-भर साथ।
महबूबा-महबूबा बन, आओ, थामो हाथ।।
*
कवि को रास न आ सका, यह नाता नापाक।
बोला: 'मैंने रात ही, किया आपको ब्लोक'।।
*
बीबी बोली: 'मैं तुम्हें, प्यार करूँ घनघोर।
दिल मेरा चोरी किया, क्राइम है यह घोर'।।
*
कवि बोला: 'लूटा मुझे, तुमने क्राइम खास'।
दोनों ने पाई सजा, आजीवन कारावास।।
*
कुर्सी पाकर तन गए, घूरें आँख तरेर।
बिल्ली अब तक जो रहे, हाय! हो गए शेर।।
*
एक साथ मिल-बैठकर, नेता दाँत निपोर।
झट भत्ते बढ़वा; लड़ें, हैं जन-धन के चोर।।
*
नूर कुश्ती कर रहे, टी. व्ही. पर दिन-रात।
कुत्ते कहते: 'बेहतर, इनसे अपनी जात'।।
*
चीर हरें सिद्धांत का, लगा-लगा कर दाँव।
काम पड़े तो पड़ रहे, गधे गधों के पाँव।।
*
खेल रहे हैं दल सभी, राजनीति का खेल।
बाहर तो टकराव है, पर भीतर है मेल।।
*
मुश्किल से हो पा रहा, अब जीवन निर्वाह।
मँहगाई आकाश छू, बढ़ा रही है चाह।।
*
दिन दूने चौगुन बढ़े, नित अपराध-गुनाह।
दूषित है परिवेश अब, मिले न खोजे राह।।
*
करे परिश्रम रात-दिन, बेचारा मजदूर।
दो रोटी के वास्ते, फिर भी है मजबूर।।
*
नहीं अदब के दिन रहे, संस्कार भी सुप्त।
आपस में टकराव है, भाईचारा लुप्त।।
*
संस्कार हो गए हैं, अब चिट्ठी गुमनाम।
घर-घर में अखबार सम, मिलते खोटे काम।।
*
कहाँ दूत श्री राम के, महावीर जी खास?
खुद हैं ऊपर गढ़ी में, इनका तंबू वास।।
*
वृक्ष कटे तो हो गए, जैसे विधुर पहाड़।
चट्टानें खुद तप रहीं, पथिक न पाता आड़।।
*
व्याकुल पक्षीगण हुए, मिलती कहीं न ठौर।
अकुलाकर बतिया रहे, चलें कहीं अब और।।
*
पर्यावरण सुधार पर, करे न कोई गौर।
कोंक्रीटी वन उग रहे, आया कैसा दौर?
*
बनें नासमझ समझकर, दाना भी नादान।
वृक्ष काटकर कर रहे, अपना ही नुकसान।।
*
पेड़ लगाओगे अगर, पुण्य रहेगा साथ।
अंत समय वर्ना रहे, तेरे खाली हाथ।।
*
तरु देते छाया सघन, जीवन हो खुशहाल।
शुद्ध हवा तन को मिले, बीमारी दे टाल।।
*
हरियाली दस दिश रहे, मन के मिटें विकार।
वर्षा की बौछार हो जीवन का आधार।।
*
भवन तानते जा रहे, पेड़ों को कर नष्ट।
बिना पेड़ हो आप ही, सारा दृष्ट अदृष्ट।।
*
नहीं दिखेंगे यदि कहीं, हरे-भरे वन-बाग़।
मिल पायेगी फिर नहीं, सुनने कोयल-राग।।
*
निज स्वार्थों का ध्यान रख, करते हैं जो काम।
पौधारोपण का कभी, लेते हैं वे नाम।।
*
अंतर्मन की व्यथा का, कैसे करें बखान?
सूखी फसलें देखकर, जीते मरे किसान।।
*

भारतीय महिला क्रिकेट दल को नमन

भारतीय महिला क्रिकेट दल को नमन  
*
गेंदबाज चकरा गए,
भूले सारे दाँव.
पंख उगे हैं गेंद के,
या ऊगे हैं पाँव.
या ऊगे हैं पाँव
विकेटकीपर को भूली.
आँख मिचौली खेल,
भीड़ के हाथों झूली.
हरमन से कर प्रीत,
शोट खेल में छा गए.
भूले सारे दाँव,
गेंदबाज चकरा गए.

*
खेलो हर स्ट्रोक तुम, पीटो हँस हर गेंद.
गेंदबाज भयभीत हो, लगा न पाए सेंध.

*
दस हजार का लक्ष्य ले, खेलो धरकर धीर.
खेल नायिका पा सको, नया नाम रन वीर.

*
राज मिताली राज का, तूफानी रफ़्तार.
राज कर रही विकेट पर, दौड़ दौड़ हर बार.

*
अंग्रेजी का मोह तज, कर हिन्दी में बात.
राज दिलों पर राज का, यह मीताली राज.

*
कर किताब से मित्रता, रह तनाव से दूर.
शान्त चित्त खेलो क्रिकेट, मिले वाह भरपूर.

*
चौकों से यारी करो, छक्कों से हो प्यार.
शतक साथ डेटिग करो, मीताली सौ बार.

*
जा विदेश में बोलिए, हिन्दी तब हो गर्व.
क्या बोला सुन समझ लें, भारतीय हम सर्व.

*
हरमन पर हर मन फिदा, खूब दिखाया खेल.
कंगारू पीले पड़े, पल में निकला तेल.
*
चौकों-छक्कों की करी, लगातार बरसात.
हक्का बक्का रह गए, कंगारू खा मात.
*
सरहद सारी सुरक्षित, दुश्मन फौज फ़रार.
पता पड़ गया आ रही, हरमन करने वार.
*
हरमन ने की दनादन, चोट, चोट पर चोट.
दीवाली की बम लडी, ज्यों करती विस्फ़ोट.
*
२१-७-२०१७ 

मुक्तिका

मुक्तिका
*
कल दिया था, आज लेता मैं सहारा
चल रहा हूँ, नहीं अब तक तनिक हारा
सांस जब तक, आस तब तक रहे बाकी
जाऊँगा हँस, ईश ने जब भी पुकारा
देह निर्बल पर सबल मन, हौसला है
चल पड़ा हूँ, लक्ष्य भूलूँ? ना गवारा
पाँव हैं कमजोर तो बल हाथ का ले
थाम छड़ियाँ खड़ा पैरों पर दुबारा
साथ दे जो मुसीबत में वही अपना
दूर बैठा गैर, चुप देखे नज़ारा
मैं नहीं निर्जीव, हूँ संजीव जिसने
अवसरों को खोजकर फिर-फिर गुहारा
शक्ति हो तब संग जब कोशिश करें खुद
सफलता हो धन्य जब मुझको निहारा
*

संजीव के बचपन में आखिर क्या हुआ ऐसा वीडियो में जाने।

दोहा - सोरठा गीत पानी की प्राचीर

दोहा - सोरठा गीत
पानी की प्राचीर
*
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।
पीर, बाढ़ - सूखा जनित
हर, कर दे बे-पीर।।
*
रखें बावड़ी साफ़,
गहरा कर हर कूप को।
उन्हें न करिये माफ़,
जो जल-स्रोत मिटा रहे।।
चेतें, प्रकृति का कहीं,
कहर न हो, चुक धीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
सकें मछलियाँ नाच,
पोखर - ताल भरे रहें।
प्रणय पत्रिका बाँच,
दादुर कजरी गा सकें।।
मेघदूत हर गाँव को,
दे बारिश का नीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
पर्वत - खेत - पठार पर
हरियाली हो खूब।
पवन बजाए ढोलकें,
हँसी - ख़ुशी में डूब।।
चीर अशिक्षा - वक्ष दे ,
जन शिक्षा का तीर।
आओ मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
***
२०-७-२०१६
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सोरठा - दोहा गीत संबंधों की नाव

सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।
नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।
घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।
गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
***
२०-७-२०१६

द्विपदियाँ और दोहे


द्विपदियाँ और दोहे 
*
बसा लो दिल में, दिल में बस जाओ 
फिर भुला दो तो कोई बात नहीं
*
खुद्कुशी अश्क की कहते हो जिसे
वो आँसुओं का पुनर्जन्म हुआ
*
अल्पना कल्पना की हो ऐसी
द्वार जीवन का जरा सज जाये.
*
गौर गुरु! मीत की बातों पे करो

दिल किसी का दुखाना ठीक नहीं
*
श्री वास्तव में हो वहीं, जहाँ रहे श्रम साथ 

जीवन में ऊँचा रखे, श्रम ही हरदम माथ
*
खरे खरा व्यवहार कर, लेते हैं मन जीत 

जो इन्सान न हो खरे, उनसे करें न प्रीत.
*
गौर करें मन में नहीं, 'सलिल' तनिक हो मैल

 कोल्हू खीन्चे द्वेष का, इन्सां बनकर बैल
*
काया की माया नहीं जिसको पाती मोह, 

वही सही कायस्थ है, करे गलत से द्रोह.
*
२१-७-२०१४ 

सोमवार, 20 जुलाई 2020

दोहा दुनिया

दोहा दुनिया
वातायन से देखकर, चाँद-चाँदनी सँग
दोनों मुखड़ों पर चढ़ा, प्रिय विछोह का रंग
*
कांत-कांति कांता मुदित, चाँद-चाँदनी देख
साथ हाथ में हाथ ले, कर सपनों का लेख

*

नवगीत - फ़िक्र मत करो

नवगीत -
फ़िक्र मत करो
*
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
सूरज डूबा उगते-उगते
क्षुब्ध उषा को ठगते-ठगते
अचल धरा हो चंचल धँसती
लुटी दुपहरी बचते-फँसते
सिंदूरी संध्या है श्यामा
रजनी को
चंदा छलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
गिरि-चट्टानें दरक रही हैं
उथली नदियाँ सिसक रही हैं
घायल पेड़-पत्तियाँ रोते
गुमसुम चिड़ियाँ हिचक रही हैं
पशु को खा
मानव पलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
मनमर्जी कानून हुआ है
विधि-नियमों का खून हुआ है
रीति-प्रथाएँ विवश बलात्कृत
तीन-पाँच दो दून हुआ है
हाथ तोड़ पग
कर मलता है
***
१८. १२. २०१५

गीत नवगीत महोत्सव २०१५

यादें न जाएँ:
नवगीत महोत्सव २०१५ लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना:
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आए हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाए हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोएँ-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसाएँ
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पाएँ
मतभेदों को विहँस पचाएँ
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*

नवगीत: नौटंकियाँ

नवगीत:
नौटंकियाँ
*
नित नयी नौटंकियाँ
हो रहीं मंचित
*
पटखनी खाई
हुए चित
दाँव चूके
दिन दहाड़े।
छिन गयी कुर्सी
बहुत गम
पढ़ें उलटे
मिल पहाड़े।
अब कहो कैसे
जियें हम?
बीफ तजकर
खायें चारा?
बना तो सकते
नहीं कुछ
बन सके जो
वह बिगाडें।
न्याय-संटी पड़ी
पर सुधरे न दंभित
*
'सहनशीली
हो नहीं
तुम' दागते
आरोप भारी।
भगतसिंह, आज़ाद को
कब सहा तुमने?
स्वार्थ साधे
चला आरी।
बाँट-रौंदों
नीति अपना
सवर्णों को
कर उपेक्षित-
लगाया आपात
बापू को
भुलाया
ढोंगधारी।
वाममार्गी नाग से
थे रहे दंशित
*
सह सके
सुभाष को क्या?
क्यों छिपाया
सच बताओ?
शास्त्री जी के
निधन को
जाँच बिन
तत्क्षण जलाओ।
कामराजी योजना
जो असहमत
उनको हटाओ।
सिक्ख-हत्या,
पंडितों के पलायन
को भी पचाओ।
सह रहे क्यों नहीं जनगण ने
किया जब तुम्हें दंडित?
*

२०-७-२०१८ 

काव्यानुवाद सावन गगने घोर घनघटा

काव्यानुवाद  सावन गगने घोर घनघटा
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएँ और बरसें जिससे तन-मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इंद्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना? आईए, आज एक सुंदर गीत सुनकर आनंद लें जिसे रचा है भानु सिंह ने। अरे! आप भानुसिंह को नहीं जानते? अब जान लीजिए, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी 'प्रेम कवितायेँ' भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.

बांगला गीत
*
सावन गगने घोर घन घटा; निशीथ यामिनी रे!
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब; अबला कामिनी रे!!
उन्मद पवने जमुना तर्जित; घन-घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित; थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम; बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले; निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।

कह रे सजनी! ये दुर्योगे; कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत; सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे; टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम; बाँध ह चंपक माले।
गहन रैन में न जाओ, बाला! नवल किशोर क' पास
गरजे घन-घन बहु डरपाव;ब कहे 'भानु' तव दास।

हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाए; आधी रतिया रे!
बाग़ डगर किस विधि जाएगी?; निर्बल गुइयाँ रे!!
मत्त हवा यमुना फुँफकारे; गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि; मग-वृक्ष लोटते; थर-थर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेज तरु; घोर अंध-तरु व्यूह

सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर; कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले; 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे; लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट-चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत; तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है: देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं: हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बाँसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
***

मुक्तक

मुक्तक:
आँखों से बरसात हो, अधर झराते फूल
मन मुकुलित हो जूही सम, विरह चुभे ज्यों शूल
तस्वीरों को देखकर, फेर रहे तस्बीह
ऊपर वाला कब कहे: 'ठंडा-ठंडा कूल'
***

माँ की सुधियाँ पुरवाई सी

माँ के प्रति प्रणतांजलि:
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.
दोहा गीत गजल कुण्डलिनी, मुक्तक छप्पय रूबाई सी..
मन को हुलसित-पुलकित करतीं, यादें 'सलिल' डुबातीं दुख में-
होरी गारी बन्ना बन्नी, सोहर चैती शहनाई सी..
*
मानस पट पर अंकित नित नव छवियाँ ऊषा अरुणाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी..
प्यार हौसला थपकी घुड़की, आशीर्वाद दिलासा देतीं-
नश्वर जगती पर अविनश्वर विधि-विधना की परछांई सी..
*
उँगली पकड़ सहारा देती, गिरा उठा गोदी में लेती.
चोट मुझे तो दर्द उसे हो, सुखी देखकर मुस्का देती.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी-
'सलिल' अभागा माँ बिन रोता, श्वास -श्वास है रुसवाई सी..
*
जन्म-जन्म तुमको माँ पाऊँ, तब हो क्षति की भरपाई सी.
दूर हुईं जबसे माँ तबसे घेरे रहती तन्हाई सी.
अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*
कौशल्या सी ममता तुममें, पर मैं राम नहीं बन पाया.
लाड़ दिया जसुदा सा लेकिन, नहीं कृष्ण की मुझमें छाया.
मूढ़ अधम मुझको दामन में लिए रहीं तुम निधि पाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
.
आप मानें या न मानें, सत्य हूँ किस्सा नहीं हूँ
कौन कह सकता है, हूँ इस सरीखा, उस सा नहीं हूँ
मुझे भी मालुम नहीं है, क्या बता सकता है कोई
पूछता हूँ आजिजी से, कहें मैं किस सा नहीं हूँ
साफगोई ने अदावत का दिया है दंड हरदम
फिर भी मुझको फख्र है, मैं छल रहा घिस्सा नहीं हूँ
हाथ थामो या न थामो, फैसला-मर्जी तुम्हारी
कस नहीं सकता गले में, आदमी- रस्सा नहीं हूँ
अधर पर तिल समझ मुझको, दूर अपने से न करना
हनु न रवि को निगल लेना, हाथ में गस्सा नहीं हूँ
निकट हो या दूर हो तुम, नूर हो तुम हूर हो तुम
पर बहुत मगरूर हो तुम, सच कहा गुस्सा नहीं हूँ
खामियाँ कम, खूबियाँ ज्यादा, तुम्हें तब तक दिखेंगी
मान जब तक यह न लोगे, तुम्हारा हिस्सा नहीं हूँ
२०-७-२०१८ 

नवगीत खों-खों करते बादल बब्बा

नवगीत:
संजीव
.
खों-खों करते
बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रोको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आये घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
....

२०-७-२०१८ 

समीक्षा घाट पर ठहराव कहाँ लघुकथा

कृति चर्चा :
घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: घाट पर ठहराव कहाँ, लघुकथा संग्रह, कांता रॉय, ISBN ९७८-८१-८६८१०-३१-५ पृष्ठ १२४, २००/-पुस्तकालय संस्करण, १५०/- जन संस्करण, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द पेपर जैकेट सहित, समय साक्ष्य प्रकाशन, १५ फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, रचनाकार संपर्क:९५७५४६५१४७ )
***
'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' सतसइया के दोनों के संदर्भ में कही गयी इस अर्धाली में 'छोटे' को 'छोटी' कर दें तो यह लघुकथा के सन्दर्भ में सौ टंच खरी हो जाती है। लघुकथा के शिल्प और कथ्य के मानकों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। भाषा और साहित्य जड़ता से जितना दूर और चेतना के जितने निकट हो उतना ही सजीव, व्यापक और प्रभावी होता है। पद्य के दोहा और शे'र को छोड़ दें तो नवगीत और मुक्तिका की सी आकारगत लघुता में कथ्य के असीम आकाश को अन्तर्निहित कर सम्प्रेषित करने की अप्रतिम सामर्थ्य लघुकथा की स्वभावगत विशेषता है। लघु कथा की 'गागर में सागर' जैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्य ने न केवल पाठक जुटाये हैं अपितु पाठकों के मन में पैठकर उन्हें लघुकथाकार भी बनाया है। विवेच्य कृति नव लघुकथाकारों की बगिया में अपनी सृजन-सुरभि बिखेर रही काँता रॉय जी का प्रथम लघुकथा संग्रह है. 'जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला ....' बच्चन जी की इन पंक्तियों को जीती लेखिका को जैसे हो वक़्त मिला वह 'मूषक' (माउस) को थामकर सामाजिक शल्यों की चीरफ़ाड़ी करने में जुट गयी, फलत: ११० लघुकथाओं का पठनीय संग्रह हमारे हाथों में है। संतोष यह कि कृति प्रकाशन को लक्ष्य नहीं पड़ाव मात्र मानकर कांताजी निरंतर लघुकथा सृजन में संलग्न हैं।

'घाट पर ठहराव कहाँ' की लघुकथाओं के विषय दैनंदिन जीवन से उठाये गये हैं। लाड़ली बिटिया, संकोची नवोढ़ा, ममतामयी माँ, संघर्षशील युवती और परिपक्व नारी के रूप में जिया-भोया-सँवारा जीवन ही इन लघुकथाओं का उत्स है। इनके विषय या कथ्य आकाशकुसुमी नहीं, धरा-जाये हैं। लेखिका के अनुसार 'मैंने हमेशा वही लिखा जो मैंने महसूस किया, बनावटी संविदाओं से मुझे सदा ही परहेज रहा है।' डॉ. मालती बसंत के अनुसार 'कांता रॉय के श्वास-श्वास में, रोम-रोम में लघुकथा है।'
कोई विस्मय नहीं कि अधिकाँश लघुकथाओं का केंद्र नारी है। 'पारो की वेदना' में प्रेमी का छल, 'व्यथित संगम' में संतानहीनता का मिथ्या आरोप, 'ममता की अस्मिता' में नारी-अस्मिता की चेतना, 'दरकती दीवारें चरित्र की' में धन हेतु समर्पण, 'घाट पर ठहराव में' जवान प्रवाह में छूटे का दुःख, 'रीती दीवार' में सगोत्री प्रेमियों की व्यथ-कथा, 'गरीबी का फोड़ा' में बेटे की असफलता -जनित दुःख, 'रुतबा' मंत्रालय का में झूठी शान का खोखलापन, 'अनपेक्षित' में गोरेपन का अंधमोह, 'गले की हड्डी' में समधी के कुत्सित इरादों से युक्तिपूर्वक छुटकारा, 'श्राद्ध' में अस्पतालों की लोलुपता, 'पतित' में बदले की आग, 'राहत' में पति की बीमारी में शांति की तलाश, 'झमेला' में दुर्घटना-पश्चात पुलिस सूचना, 'दास्तान-ए-कामयाबी' में संघर्ष पश्चात सफलता,' डिस्टेंट रिलेशनशिप' में नेट के संबंध, 'सुनहरी शाम' में अतीत की यादों में भटकता मन, 'जादू का शो' में मंचीय अश्लीलता, 'मिट्टी की गंध' में नगर प्रवास की व्यथा, 'मुख्य अतिथि' में समय की पाबंदी, 'आदर्श और मिसाल' में वर पक्ष का पाखंड,महिला पार्ष में अयोग्य उम्मीदवार,धर्म के ठेकेदा में मजहबी उन्माद की आग में ध्वस्त प्रेमी,एकलव् में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुरु-शिष्य द्वन्द अर्थात जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त विसंगतियाँ शब्दित हुई हैं।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 5 लोग, Kanta Roy सहित, मुस्कुराते लोगकांता जी की विशेषता जीवन को समग्र में देखना है। छद्म नारी हित रक्षकों के विपरीत उनकी लघुकथाएँ पुरुष मात्र को अपराधी मान सूली पर चढ़ाने की मांग नहीं करतीं। वे लघुकथाओं को अस्त्र बनकर पीड़ित के पक्ष में लिखती हैं, वह स्त्री है या पुरुष, बालक या वृद्ध यह गौड़ है। 'सरपंची' लघुकथा पूरे देश में राजनीति को व्यापार बना रही प्रवृत्ति का संकेत करती है। 'तख्तापलट' में वैज्ञानिक प्रगति पर कटाक्ष है। 'आतंकवादी घर के' लघुकथा स्त्री प्रगति में बाधक पुरुष वृत्ति को केंद्र में लाती है। 'मेरा वतन' में सम्प्रदायिकता से उपजी शर्म का संकेत है। 'गठबंधन' लघुकथा महाकल मंदिर की पृष्भूमि में सांसारिकता के व्यामोह में ग्रस्त सन्यासिनी पर केंद्रित है। 'मैं भक्ति के अतिरेक में डूब ही पाई थी कि ……मैं उस श्वेतांबरी के गठबंधन पर विचार करने लगा' यह लिंग परिवर्तन कब और कैसे हो गया, कौन बताये?
'प्रतिभा', 'दोस्ती', 'नेतागिरी', 'व्रती', 'जीवन संकल्प', 'उम्रदराज', 'सुई', 'सहयात्री', 'रिश्ता', 'कब तक का रिश्ता', 'कश्मकश', पनाह', 'पनाह', 'अनुकंपा', 'नमक', 'फैशन की रसोई' आदि नारी जीवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं तो 'विरासत', 'पार्क', 'रिपोर्ट', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पुनर्जन्म', 'मनरेगा','सत्य अभी मारा नहीं'. इधर का उधर' आदि में सामाजिक पाखंडों पर प्रहार है. कांता जी कहीं-कहें बहुत जल्दबाजी में कथ्य को उभरने में चूक जाती हैं। 'कलम हमारी धार हमारी', 'हार का डर', 'आधुनिक लेखिका', 'नेकी साहित्य की' आदि में साहित्य जगत की पड़ताल की गयी है।
कांता जी की लेखन शैली सरस, प्रवाहमयी, प्रसाद गुण संपन्न है। भाषिक समृद्धि ने उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य को धार दी है। वे हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ संस्कृतनिष्ठ और देशज शब्दों का यथास्थान प्रयोग कर अपनी बात बखूबी कह पाती हैं। स्नेहिल, स्वप्न, स्वयंसिद्धा, उत्तल, विभक्त, उंकुके, तन्द्रा, निष्प्राण जैसे संस्कृत शब्द, सौंधी, गयेला, अपुन, खाप, बुरबक, बतिया, बंटाधार, खोटी आदि देशज शब्द, जुदाई, ख़ामोशी, इत्तेफ़ाक़, परवरिश, अपाहिज, अहसास, सैलाब, मशगूल, दास्तां. मेहरबानी, नवाज़े, निशानियाँ, अय्याश, इश्तिहार, खुशबू, शिद्दत, आगोश, शगूफा लबरेज, हसरत, कशिश, वक्र, वजूद, बंदोबस्त जैसे उर्दू शब्द, रिमोट, ओन, बॉडी, किडनी, लोग ऑफ, पैडल बोट, बोट क्लब, टेस्ट ड्राइव, मैजिक शो, मैडम ड्रेसिंग टेबल, कंप्यूटर, मिसेज, इंटरनेट, ऑडिशन, कास्टिंग काउच जैसे अंग्रेजी शब्द काँता जी ने बखूबी उपयोग किये हैं। अंग्रेजी के जिन शब्दों के सरल और सटीक पर्याय प्रचलित हैं उन्हें उपयोग न कर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाना अनावश्यक प्रतीत होता है। ऐसे शब्दों में डिस्टेंस (दूरी), मेसेज (संदेश), ( बंद, निकट), कस्टमर (ग्राहक), कनेक्शन (संबंध, जुड़ाव), अड्वान्स (अग्रिम), मैनेजमेंट (प्रबंधन), ग्रुप (समूह, झुण्ड), रॉयल (शाही), प्रिंसिपल (प्राचार्य) आदि हैं।
उर्दू शब्द ज़ज़्बा (भावना) का बहुवचन ज़ज़्बात (भावनाएँ) है, 'ज़ज़्बातों' (पृष्ठ ३८) का प्रयोग उतना ही गलत है जितना सर्वश्रेष्ठ या बेस्टेस्ट। 'रेल की रेलमपेल' में (पृष्ठ ४७) भी गलत प्रयोग है।बच्चों की रेलमपेल अर्थात बच्चों की भीड़, रेल = पटरी, ट्रेन = रेलगाड़ी, रेल की रेलमपेल = पटरियों की भीड़ इस अर्थ की कोई प्रासंगिकता सनरभित लघुकथा 'भारतीय रेल' में नहीं है। अपवादों को छोड़कर समूचे लघुकथा संकलन में भाषिक पकड़ बनी हुई है। कांता जी लघुकथा के मानकों से सुपरिचित हैं। संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, बेधकता, मर्मस्पर्शिता, विसंगति निर्देश आदि सहबी तत्वों का उचित समायोजन कांता जी कर सकी हैं। नवोदित लघु कथाकारों की भीड़ में उनका सृजन अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता है। प्रथम में उनकी लेखनी की परिपक्वता प्रशंसनीय है। आशा है वे लघुकथा विधा को नव आयामित करने में समर्थ होंगी।
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

समीक्षा काल है संक्रांति का आचार्य भगवत दुबे

पुस्तक चर्चा-
फ़ोटो का कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है.संक्रांतिकाल की साक्षी कवितायें
आचार्य भगवत दुबे
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]

कविता को परखने की कोई सर्वमान्य कसौटी तो है नहीं जिस पर कविता को परखा जा सके। कविता के सही मूल्याङ्कन की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों और तैयार पैमानों को लेकर किसी कृति में प्रवेश करते हैं और अपने पूर्वाग्रही झुकाव के अनुरूप अपना निर्णय दे देते हैं। अतः, ऐसे भ्रामक नतीजे हमें कृतिकार की भावना से सामंजस्य स्थापित नहीं करने देते। कविता को कविता की तरह ही पढ़ना अभी अधिकांश पाठकों को नहीं आता है। इसलिए श्री दिनकर सोनवलकर ने कहा था कि 'कविता निश्चय ही किसी कवि के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किसी व्यक्ति का चेहरा किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता, इसलिए प्रत्येक कवी की कविता से हमें कवी की आत्मा को तलाशने का यथासम्भव यत्न करना चाहिए, तभी हम कृति के साथ न्याय कर सकेंगे।' शायद इसीलिए हिंदी के उद्भट विद्वान डॉ. रामप्रसाद मिश्र जब अपनी पुस्तक किसी को समीक्षार्थ भेंट करते थे तो वे 'समीक्षार्थ' न लिखकर 'न्यायार्थ' लिखा करते थे।
रचनाकार का मस्तिष्क और ह्रदय, अपने आसपास फैले सृष्टि-विस्तार और उसके क्रिया-व्यापारों को अपने सोच एवं दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। बाह्य वातावरण का मन पर सुखात्मक अथवा पीड़ात्मक प्रभाव पड़ता है। उससे कभी संवेद नात्मक शिराएँ पुलकित हो उठती हैं अथवा तड़प उठती हैं। स्थूल सृष्टि और मानवीय भाव-जगत तथा उसकी अनुभूति एक नये चेतन संसार की सृष्टि कर उसके साथ संलाप का सेतु निर्मित कर, कल्पना लोक में विचरण करते हुए कभी लयबद्ध निनाद करता है तो कभी शुष्क, नीरस खुरदुरेपन की प्रतीति से तिलमिला उठता है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका 'दिव्य नर्मदा' के यशस्वी संपादक रहे हैं जिसमें वे समय के साथ चलते हुए १९९४ से अंतरजाल पर अपने चिट्ठे (ब्लॉग) के रूप में निरन्तर प्रकाशित करते हुए अब तक ४००० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुके हैं। अन्य अंतर्जालीय मंचों (वेब साइटों) पर भी उनकी लगभग इतनी ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वे देश के विविध प्रांतों में भव्य कार्यक्रम आयोजित कर 'अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण' के माध्यम से हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों के उत्तम कृतित्व को वर्षों तक विविध अलंकरणों से अलंकृत करने, सत्साहित्य प्रकाशित करने तथा पर्यावरण सुधर, आपदा निवारण व् शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्राप्त अभियान संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष हैं। इंजीनियर्स फॉर्म (भारत) के महामंत्री के अभियंता वर्ग को राष्ट्रीय-सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत कर उनकी पीड़ा को समाज के सम्मुख उद्घाटित कर सलिल जी ने सथक संवाद-सेतु बनाया है। वे विश्व हिंदी परिषद जबलपुर के संयोजक भी हैं। अभिव्यक्ति विश्वम दुबई द्वारा आपके प्रथम नवगीत संग्रह 'सड़क पर...' की पाण्डुलिपि को 'नवांकुर अलंकरण २०१६' (१२०००/- नगद) से अलङ्कृत किया गया है। अब तक आपकी चार कृतियाँ कलम के देव (भक्तिगीत), लोकतंत्र का मक़बरा तथा मीत मेरे (काव्य संग्रह) तथा भूकम्प ले साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सलिल जी छन्द शास्त्र के ज्ञाता हैं। दोहा छन्द, अलंकार, लघुकथा, नवगीत तथा अन्य साहित्यिक विषयों के साथ अभियांत्रिकी-तकनीकी विषयों पर आपने अनेक शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं। आपको अनेक सहयोगी संकलनों, स्मारिकाओं तथा पत्रिकाओं के संपादन हेतु साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा ने 'संपादक रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने संस्कृत स्त्रोतों के सारगर्भित हिंदी काव्यानुवाद पर 'वाग्विदाम्बर सम्मान' से सलिल जी को सम्मानित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सलिल जी साहित्य के सुचर्चित हस्ताक्षर हैं। 'काल है संक्रांति का' आपकी पाँचवी प्रकाशित कृति है जिसमें आपने दोहा, सोरठा, मुक्तक, चौकड़िया, हरिगीतिका, आल्हा अदि छन्दों का आश्रय लेकर गीति रचनाओं का सृजन किया है।
भगवन चित्रगुप्त, वाग्देवी माँ सरस्वती तथा पुरखों के स्तवन एवं अपनी बहनों (रक्त संबंधी व् मुँहबोली) के रपति गीतात्मक समर्पण से प्रारम्भ इस कृति में संक्रांतिकाल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए चेतावनी व् सावधानियों के सन्देश अन्तर्निहित है।
'सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे वंशी मादल
लूट-छिप माल दो
जगो, उठो।'

उठो सूरज, जागो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे?, छुएँ सूरज, हे साल नये आदि शीर्षक नवगीतों में जागरण का सन्देश मुखर है। 'सूरज बबुआ' नामक बाल-नवगीत में प्रकृति उपादानों से तादात्म्य स्थापित करते हुए गीतकार सलिल जी ने पारिवारिक रिश्तों के अच्छे रूपक बाँधे हैं-
'सूरज बबुआ!
चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी।
बहिम उषा को गिर दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ीं।
धूप बुआ ने लपक उठाया
पछुआ लायी
बस्ते फूल।'

गत वर्ष के अनुभवों के आधार पर 'में हिचक' नामक नवगीत में देश की सियासी गतिविधियों को देखते हुए कवि  ने आशा-प्रत्याशा, शंका-कुशंका को भी रेखांकित किया है।
'नये साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पाएगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटाई
तो क्या
घटनाक्रम होगा?'

पाठक-मन को रिझाते ये गीत-नवगीत देश में व्याप्त गंभीर समस्याओं, बेईमानी, दोगलापन, गरीबी, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, उग्रवाद एवं आतंक जैसी विकराल विद्रूपताओं को बहुत शिद्दत के साथ उजागर करते हुए गम्भीरता की ओर अग्रसर होते हैं।
बुंदेली लोकशैली का पुट देते हुए कवि ने देश में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, विषमताओं एवं अन्याय को व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है।
मिलती काय ने ऊँचीबारी
कुर्सी हमखों गुईंया
पैला लेऊँ कमिसन भारी
बेंच खदानें सारी
पाँछू घपले-घोटालों सों
रकम बिदेस भिजा री

समीक्ष्य कृति में 'अच्छे दिन आने वाले' नारे एवं स्वच्छता अभियान को सटीक काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। 'दरक न पायेन दीवारें नामक नवगीत में सत्ता एवं विपक्ष के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेष्ट करते हुए कवि ने मनुष्यता को बचाये रखने की आशावादी अपील की है।
कवी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान के युगबोधी यथार्थ को ही उजागर नहीं किया है अपितु अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सुदृढ़ आस्था का परिचय भी दिया है। अतः, यह विश्वास किया जा सकता है कि कविवर सलिल जी की यह कृति 'काल है संक्रांति का' सारस्वत सराहना प्राप्त करेगी।
आचार्य भगवत दुबे
महामंत्री कादंबरी
पिसनहारी मढ़िया के निकट
जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५

स्व.नीरज के प्रति

स्व.नीरज के प्रति
सलिल 
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 5 लोग, Gurmit Bedi सहित, सूट
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कंठ विराजीं शारदा, वाचिक शक्ति अनंत।
शब्द-ब्रम्ह के दूत हे!, गीति काव्य कवि-कंत।।
गीति काव्य कवि-कंत, भाव लय रस के साधक।
चित्र गुप्त साकार, किए हिंदी-आराधक।।
इंसां को इंसान, बनाने ही की कविता।
करे तुम्हारा मान, रक्त-नत होकर सविता।।
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नीर नर्मदा-धार सा, निर्मल पावन काव्य।
नीरज कवि लें जन्म, फिर हिंदी-हित संभाव्य।
हिंदी हित संभाव्य, कारवां फिर-फिर गुजरे।
गंगो-जमनी मूल्य, काव्य में सँवरे-निखरे।।
दिल की कविता सुने, कहे दिल हुआ प्यार सा।
नीरज काव्य महान, बहा नर्मदा-धार सा।।
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ऊपरवाला सुन पायेगा जब जी चाहे मीठे गीत
समझ सकेंगे चित्रगुप्त भी मानव मन में पलती प्रीत
सारस्वत दरबार सजेगा कवि नीरज को पाकर बीच-
मनुज सभ्यता के सुर सुनने बैठें सुर, नीरज की जीत.
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गीत
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है।
नेह-नर्मदा काव्य नहाकर, व्याकुल मनुज तरा करता है।।
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नीरज है हर एक कारवां, जो रोतों को मुस्कानें दे।

पीर-गरल पी; अमिय लुटाए, गूँगे कंठों को तानें दे।।
हों बदनाम भले ही आँसू, बहे दर्द का दर्द देखकर।
भरती रहीं आह गजलें भी, रोज सियासत सर्द देखकर।।
जैसी की तैसी निज चादर, शब्द-सारथी ही धरता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
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"ओ हर सुबह जगानेवाले!" नीरज युग का यह न अंत है।
"ओ हर शाम सुलानेवाले!", गीतकार हर शब्द-संत है।।
"सारा जग बंजारा होता", नीरज से कवि अगर न आते।
"साधो! हम चौसर की गोटी", सत्य सनातन कौन सुनाते?
"जग तेरी बलिहारी प्यारे", कह कुरीती से वह लड़ता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
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'रीती गागर का क्या होगा?", क्यों गोपाल दास से पूछे?
"मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ", खाली जेब; हाथ ले छूछे।।
"सारा जग मधुबन लगता है", "हर मौसम सुख का मौसम है"।
"मेरा श्याम सकारे मेरी हुंडी" ले भागा क्या कम है?
"इसीलिए तो नगर-नगर बदनाम" गीत-माला जपता है।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
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[टीप: ".." नीरज जी के गीतों से उद्धृत अंश]
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

दोहा मुक्तिका

दोहा दुनिया 
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तिमिर न हो तो रुचेगा, किसको कहो प्रकाश.
पाता तभी महत्त्व जब, तोड़े तम के पाश..
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गुरुघंटालों से रहें, सजग- न थामें बाँह
गुरु हो गुरु-गंभीर तो, गहिए बढ़कर छाँह
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दोहा मुक्तिका
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भ्रम-शंका को मिटाकर, जो दिखलाये राह
उसको ही गुरु मानकर, करिये राय-सलाह
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हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
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करें न गुरु की सीख की, शिष्य अगर परवाह
गुरु क्यों अपना मानकर, हरे चित्त की दाह?
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सुबह शिष्य- संध्या बने, जो गुरु वे नरनाह
अपने ही गुरु से करें, स्वार्थ-सिद्धि हित डाह
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उषा गीत, दुपहर ग़ज़ल, संध्या छंद अथाह
व्यंग्य-लघुकथा रात में, रचते बेपरवाह
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एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
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नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
२०-६-२०१६