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रविवार, 4 अगस्त 2019

कृति चर्चा: ''पाखी खोले पंख'' श्रीधर प्रसाद द्विवेदी

कृति चर्चा: 
''पाखी खोले पंख'' : गुंजित दोहा शंख 
[कृति विवरण: पाखी खोले शंख, दोहा संकलन, श्रीधर प्रसाद द्विवेदी, प्रथम संस्करण, २०१७, आकार २२ से.मी. x १४ से.मी., पृष्ठ १०४, मूल्य ३००/-, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, प्रगतिशील प्रकाशन दिल्ली, दोहाकार संपर्क अमरावती। गायत्री मंदिर रोड, सुदना, पलामू, ८२२१०२ झारखंड, चलभाष ९४३१५५४४२८, ९९३९२३३९९३, ०७३५२९१८०४४, ईमेल sp.dwivedi7@gmail.com]
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दोहा चेतन छंद है, जीवन का पर्याय
दोहा में ही छिपा है, रसानंद-अध्याय 
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रस लय भाव प्रतीक हैं, दोहा के पुरुषार्थ 
अमिधा व्यंजन लक्षणा, प्रगट करें निहितार्थ 
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कत्था कथ्य समान है, चूना अर्थ सदृश्य  
शब्द सुपारी भाव है, पान मान सादृश्य 
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अलंकार-त्रै शक्तियाँ, इलायची-गुलकंद
जल गुलाब का बिम्ब है, रसानंद दे छंद 
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श्री-श्रीधर नित अधर धर, पान करें गुणगान 
चिंता हर हर जीव की, करते तुरत निदान 
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दोहा गति-यति संतुलन,  नर-नारी का मेल 
पंक्ति-चरण मग-पग सदृश, रचना विधि का खेल 
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कवि पाखी पर खोलकर, भरता भाव उड़ान 
पूर्व करे प्रभु वंदना, दोहा भजन समान  
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अन्तस् कलुष मिटाइए, हरिए तमस अशेष। 
उर भासित होता रहे, अक्षर ब्रम्ह विशेष।।                 पृष्ठ २१  
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दोहानुज है सोरठा, चित-पट सा संबंध 
विषम बने सम, सम-विषम, है अटूट अनुबंध 
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बरबस आते ध्यान, किया निमीलित नैन जब। 
हरि करते कल्याण, वापस आता श्वास तब।।           पृष्ठ २४ 
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दोहा पर दोहा रचे, परिभाषा दी ठीक  
उल्लाला-छप्पय  सिखा, भली बनाई लीक 
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उस प्रवाह में शब्द जो, आ जाएँ 'अनयास'।               पृष्ठ २७ 
शब्द विरूपित हो नहीं, तब ही सफल प्रयास 
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ऋतु-मौसम पर रचे हैं, दोहे सरस  विशेष      
रूप प्रकृति का समाहित, इनमें हुआ अशेष 
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शरद रुपहली चाँदनी, अवनि प्रफुल्लित गात। 
खिली कुमुदिनी ताल में, गगन मगन मुस्कात।।      पृष्ठ २९ 
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दिवा-निशा कर एक सा, आया शिशिर कमाल। 
बूढ़े-बच्चे, विहग, पशु, भये विकल बेहाल।।              पृष्ठ २१   
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मन फागुन फागुन हुआ, आँखें सावन मास।
नमक छिड़कते जले पर, कहें लोग मधुमास।।          पृष्ठ ३१

शरद-घाम का सम्मिलन, कुपित बनाता पित्त। 
झरते सुमन पलाश वन, सेमल व्याकुल चित्त।।       पृष्ठ ३३ 

बादल सूरज खेलते,  आँख-मिचौली खेल। 
पहुँची नहीं पड़ाव तक, आसमान की रेल।।               पृष्ठ ३५ 
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बरस रहा सावन सरस्, साजन भीगे द्वार। 
घर आगतपतिका सरस, भीतर छुटा फुहार।।            पृष्ठ ३६
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उपमा रूपक यमक की,  जहँ-तहँ छटा विशेष 
रसिक चित्त को मोहता, अनुप्रास अरु श्लेष 
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जेठ सुबह सूरज उगा, पूर्ण कला के साथ। 
ज्यों बारह आदित्य मिल, निकले नभ के माथ।।       पृष्ठ ३९    
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मटर 'मसुर' कटने लगे, रवि 'उष्मा' सा तप्त             पृष्ठ ४३ / ४५ 
शब्द विरूपित यदि न हों, अर्थ करें विज्ञप्त 
*
कवि-कौशल है मुहावरे, बन दोहा का अंग 
वृद्धि करें चारुत्व की, अगिन बिखेरें रंग 
*
उनकी दृष्टि कपोल पर, इनकी कंचुकि कोर। 
'नयन हुए दो-चार' जब, बँधे प्रेम की डोर।।                 पृष्ठ ४६ 

'आँखों-आँखों कट गई', करवट लेते रैन।
कान भोर से खा रही, कर्कश कोकिल बैन।।                पृष्ठ ४७  २४ 
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बना घुमौआ चटपटा, अद्भुत रहता स्वाद। 
'मुँह में पानी आ गया', जब भी आती याद।।               पृष्ठ ४९

दल का भेद रहा नहीं, लक्ष्य सभी का एक। 
'बहते जल में हाथ धो', 'अपनी रोटी सेंक'।।                पृष्ठ ५४ 
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बाबा व्यापारी हुए, बेचें आटा-तेल। 
कोतवाल सैंया बना, खूब जमेगा खेल।।                     पृष्ठ ७७ 

कई देश पर मर मिटे, हिन्दू-तुर्क न भेद। 
कई स्वदेशी खा यहाँ, पत्तल-करते छेद।।                  पृष्ठ ७४

अरे! पवन 'कहँ से मिला', यह सौरभ सौगात।             पृष्ठ ४७ 
शब्द लिंग के दोष दो, सहज मिट सकें भ्रात।। 
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'अरे पवन पाई कहाँ, यह सौरभ सौगात' 
कर त्रुटि कर लें दूर तो, बाधा कहीं न तात  
*
झूमर कजरी की कहीं, सुनी न मीठी बोल।                  पृष्ठ ४८ 
लिंग दोष दृष्टव्य है, देखें किंचित झोल 
*
'झूमर-कजरी का कहीं, सुना न मीठा बोल         
पता नहीं खोया कहाँ, शादीवाला ढोल 
*
पर्यावरण बिगड़ गया, जीव हो गए लुप्त 
श्रीधर को चिंता बहुत, मनुज रहा क्यों सुप्त?
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पता नहीं किस राह से, गिद्ध गए सुर-धाम। 
बिगड़ा अब पर्यावरण, गौरैया गुमनाम।।                 पृष्ठ ५८  
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पौधा रोपें  तरु बना, रक्षा करिए मीत 
पंछी आ कलरव करें, सुनें मधुर संगीत
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आँगन में तुलसी लगा, बाहर पीपल-नीम। 
स्वच्छ वायु मिलती रहे, घर से दूर हकीम।।            पृष्ठ ५८ 
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देख विसंगति आज की, कवि कहता युग-सत्य
नाकाबिल अफसर बनें, काबिल बनते भृत्य 
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कौआ काजू चुग रहा, चना-चबेना हंस। 
टीका उसे नसीब हो, जो राजा का वंश।।                    पृष्ठ ६१ / ३६ 
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मानव बदले आचरण, स्वार्थ साध हो दूर 
कवि-मन आहत हो कहे, आँखें रहते सूर 
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खेला खाया साथ में, था लँगोटिया यार। 
अब दर्शन दुर्लभ हुआ, लेकर गया उधार।।               पृष्ठ ६४ 
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'पर सब कहाँ प्रत्यक्ष हैँ, मीडिया पैना दर्भ                 पृष्ठ ७०/६१ 
चौदह बारह कलाएँ, कहते हैं संदर्भ 
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अलंकार की छवि-छटा, करे चारुता-वृद्धि 
रूपक उपमा यमक से, हो सौंदर्य समृद्धि 
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पानी देने में हुई, बेपानी सरकार। 
बिन पानी होने लगे, जीव-जंतु लाचार।।                   पृष्ठ ७९ 
*
चुन-चुन लाए शाख से, माली विविध प्रसून।              पृष्ठ ७७  
बहु अर्थी है श्लेष ज्यों, मोती मानुस चून 
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आँख खुले सब मिल करें, साथ विसंगति दूर   
कवि की इतनी चाह है, शीश न बैठे धूर 
*
अमिधा कवि को प्रिय अधिक, सरस-सहज हो कथ्य  
पाठक-श्रोता समझ ले, अर्थ न चूके तथ्य 
*
दर्शन दोहों में निहित, सहित लोक आचार 
पढ़ सुन समझे जो इन्हें, करे श्रेष्ठ व्यवहार 
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युग विसंगति-चित्र हैं, शब्द-शब्द साकार 
जैसे दर्पण में दिखे, सारा सच साकार 
*
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ श्रीधर लिखें, दोहे आत्म उड़ेल 
मिले साथ परमात्म  भी, डीप-ज्योति का खेल 
***
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
विश्व वाणी हिंदी संस्थान,  
४०१ विजय अपार्टमेंट नेपियर टाउन जबलपुर  ४८२००१ 
चलभाष: ९४२५१ ८३२४४। ईमेल salil.sanjiv@gmail.com

शनिवार, 3 अगस्त 2019

राष्ट्रीय शिक्षा नीति

विमर्श
माननीय मानव संसाधन विकास मंत्री,
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
नई दिल्ली – 110001 
विषय: राष्ट्रीय शिक्षा नीति
मान्यवर! 
           वंदे मातरम। 
० १. प्रकृति गर्भ से ही जीव को शिक्षित करना प्रारम्भ कर देती है। माता प्रथम गुरु होती है अत:,   माँ द्वारा उपयोग की जाती भाषा जातक की मातृभाषा होती जिसके शब्दों और उनके साथ जुडी संवेदना को शिशु गर्भ से ही पहचानने लगता है। विश्व के सभी शिक्षा-शास्त्री और मनोवैज्ञानिक एकमत हैं कि शिशु का शिक्षण मातृ भाषा में होना चाहिए। दुर्योगवश भारत में राजनैतिक स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद अंग्रेजभक्त नेता, दल और प्रशासनिक अधिकारी सत्ता पर आ गए और मातृभाषा तथा राजभाषा उपेक्षित होकर पूर्व संप्रभुओं की आंग्ल भाषा शिक्षा पर थोप दी गयी। वर्तमान में सबसे पहली प्राथमिकता शिक्षा के माध्यम के रूप में पहला स्थान मातृभाषा फिर राज भाषा हिंदी को देना ही हो सकता है। अंग्रेजी का भाषिक आतंक यदि अब भी बना रहा तो वह भविष्य के लिए घातक और त्रासद होगा।

 ०२. शिक्षा की दो प्रणालियाँ शैशव से ही समाज को विभक्त कर देती हैं। अत:, निजी शिक्षण व्यवस्था को हतोत्साहित कर क्रमश; समाप्त किया जाए। राष्ट्रीय एकात्मकता के लिये भाषा, धर्म, क्षेत्र, लिंग या अभिभावक की आर्थिक स्थिति कुछ भी हो हर शिशु को एक समान शिक्षा प्राथमिक स्तर पर दी जाना अपरिहार्य है। इस स्तर पर मातृ भाषा, राजभाषा, गणित, सामान्य विज्ञान (प्रकृति, पर्यावरण, भौतिकी, रसायन आदि), सामान्य समाज शास्त्र (संविधान प्रदत्त अधिकारों व् कर्तव्यों की जानकारी, भारत की सभ्यता, संस्कृति, सर्व धर्म समभाव, राष्ट्रीयता, मानवता, वैश्विकता आदि), मनोरंजन (साहित्य, संगीत, नृत्य, खेल, योग, व्यायाम आदि), सामाजिक सहभागिता व समानता (परिवार, विद्यालय, ग्राम, नगर, राष्ट्र, विश्व के प्रति कर्तव्य) को केंद्र में रखकर दी जाए। बच्चे में शैशव से ही उत्तरदायित्व व् लैंगिक समानता का भाव विकसित हो तो बड़े होने पर उसका आचरण अनुशासित होगा और अनेक समस्याएँ जन्म ही न लेंगीं। 

०३. माध्यमिक शिक्षा का केंद्र बच्चे के प्रतिभा, रूचि, योग्यता, आवश्यकता और संसाधनों का आकलन कर उसे शिक्षा ग्रहण करने के क्षेत्र विशेष का चयन करने के लिए किया जाना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा के विषयों में कुछ अधिक ज्ञान देने के साथ-साथ शारीरिक-मानसिक सबलता बढ़े तथा अभीष्ट दिशा का निर्धारण इसी स्तर पर हो तो कैशोर्य समाप्त होने तक बच्चे में उत्तरदायित्व के प्रति जागरूकता व् उत्सुकता होगी, साथ ही सामने एक लक्ष्य भी होगा। जिस बच्चे में किसी खेल विशेष की प्रतिभा हो उसे उस खेल विशेष का नियमित तथा विशिष्ट प्रशिक्षण उपलब्ध करा सकनेवाली संस्था में प्रवेश दे कर अन्य विषय पढ़ाए जाए। इसी तरह संगीत, कला, साहित्य, समाजसेवा, विज्ञान आदि की प्रतिभा पहचान कर स्वभाषा में शिक्षण दिया जाए। हर विद्यालय में स्काउट / गाइड हो ताकि बच्चों में चारित्रिक गुणों का विकास हो।  

०४. उच्चतर माध्यमिक स्तर पर हर बच्चे की प्रतिभा के अनुरूप क्षेत्र में उसे विशेष शिक्षण मिले। इस स्तर पर यह भी पहचान जाए कि किस विद्यार्थी में उच्च शिक्षा ग्रहण करने की पात्रता और चाहत है तथा कौन आजीविका अर्जन को प्राथमिकता देता है? जिन विद्यार्थियों में व्यावहारिक समझ अधिक और किताबी ज्ञान में रूचि कम हो उन्हें रोजगारपरक शिक्षा हेतु पॉलिटेक्निक और आई. आई. टी. में भेजा जाए जबकि किताबी ज्ञान में अधिक रूचि रखनेवाले विद्यार्थी स्नातक शिक्षा हेतु आगे जाएँ। हर विद्यार्थी में चारित्रिक विकास के लिए स्काउट / गाइड अनिवार्य हो।  

०५. विद्यार्थी स्नातक पाठ्यक्रम हेतु खुद विषय न चुने अपितु मनोवैज्ञानिक परीक्षण कर उसकी सामर्थ्य और उसमें छिपी सम्भावना का पूर्वानुमान कर उसे दिशा-दर्शन देकर उसके लिये सर्वाधिक उपयुक्त विषय, उस विषय के योग्यतम शिक्षक जिस संस्थान में हों वहाँ उसे प्रवेश दिया जाए। हर विद्यार्थी को एन. सी. सी. लेना अनिवार्य हो ताकि उसमें आत्मरक्षण, अनुशासन तथा चारित्रिक गुण विकसित हों।  आपदा अथवा संकट काल में वह अपनी और अन्यों की रक्षा करने के प्रति सजग हो।  

०६. शालेय शिक्षा की अंतिम परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर ही स्नातक कक्षाओं में प्रवेश हो। सभी चयन परीक्षाएँ तत्काल बंद कर दी जाएँ तो इन के आयोजन में व्यर्थ खर्च होनेवाली विशाल धनराशि, स्टेशनरी, कार्य घंटे, इनके आयोजन में हो रहा भ्रष्टाचार (उदाहरण व्यापम, बिहार का फर्जीवाड़ा आदि) अपने आप समाप्त हो जायेगा तथा अभिभावक को पैसों की दम पर अयोग्य को बढ़ाने का अवसर न मिलेगा। इससे शालेय स्तर पर गंभीरता से पढ़ने और अनुशासित रहने की प्रवृत्ति भी होगी।

०७. स्नातक स्तर पर विषय का अद्यतन ज्ञान देने के साथ-साथ विद्यार्थी की शोध क्षमता का आकलन हो। जिनकी रुचि व्यवसाय में हों वे इसी स्तर पर संबंधित विषय के प्रबंधन, कानूनों, बाज़ार, अवसरों और सामग्रियों आदि पर केंद्रित डिप्लोमा कर व्यवसाय में आ सकेंगे। इससे उच्च शिक्षा स्तर पर अयोग्य विद्यार्थियों की भीड़ कम होगी और योग्य विद्यार्थियों पर अधिक ध्यान दिया जा सकेगा।

०८. स्नातकोत्तर कक्षाओं में वही विद्यार्थी प्रवेश पायें जिन्हें शिक्षण अथवा शोध कार्य में रूचि हो। प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक, स्तर तक अध्यापन हेतु स्नातक शिक्षा तथा अध्यापन शास्त्र में विशेष शिक्षा आवश्यक हो। स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन हेतु शोध उपाधि अपरिहार्य हो। 

०९ शोध निदेशक बनने हेतु शोध उपाधि के साथ पाँच वर्षीय अध्यापन अनुभव अनिवार्य हो जिसमें ७५% विद्यार्थी उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण हुए हों।  

१०. तकनीकी (अभियांत्रिकी / चिकित्सा / कृषि ) शिक्षा- इन क्षेत्रों में उच्चतर माध्यमिक परीक्षा में प्राप्तांकों के आधार पर विद्यार्थी को प्रवेश दिया जाय। प्रतियोगिता परीक्षाएँ समाप्त की जाएँ ताकि विशाल धनराशि, लेखा सामग्री एवं ऊर्जा का अपव्यय और भ्रष्टाचार समाप्त हो। विद्यार्थियों को उपलब्ध स्थान के अनुसार  मनपसन्द शाखा तथा स्थान समाप्त होने पर उपलब्ध शाखा में प्रवेश लेना होगा। निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को शासन ने रियायती दर पर बहुमूल्य भूमि और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई हैं। इनके प्रबंधक प्राध्यापकों को न्यूनतम से काम पारिश्रमिक देकर उनका शोषण कर रहे हैं।  कम वेतन के कारण विषय के विद्वान् शिक्षक यहाँ नहीं हैं। औसत अंक लेकर उत्तीर्ण हुआ विषय का पूरा ज्ञान नहीं रखता तो वह विद्यार्थी को पूरा विषय कैसे पढ़ा सकता है? फलत: सा; दर साल अभियांत्रिकी उपाधिधारकों का स्तर निचे गिर रहा है। माननीय प्रधानमंत्री जी इस सन्दर्भ में कई बार चिंता व्यक्त कर चुके हैं। जिन निजी शैक्षणिक संस्थाओं के विद्यालय / महाविद्यालय घाटे में बताये जा रहे हैं उनसे शासन मूल कीमत देकर भूमि तथा वर्तमान मूल्यांकन के आधार पर भवन वापिस लेकर वहाँ अभियांत्रिकी या अन्य विषयों के शिक्षण संस्थान चलाए या भवनों का कार्यालय आदि के लिए उपयोग कर ले।   

१ १. तकनीकी शिक्षा का स्तर उठाने के लिये सभी परीक्षाएँ ऑन लाइन हों। प्रश्नों की संख्या अधिक रखी जाए ताकि नकल करना या प्रश्नोत्तरी किताबों से पढ़ने की प्रवृत्ति घटे और विषय की मुख्य पाठ्यपुस्तक से पूरी तरह पढ़े बिना उत्तीर्ण होना संभव न रहे। किसी विषय में शिक्षा प्राप्त युवा उसी क्षेत्र में सेवा या व्यापार कार्य करें। किसी पद के लिए निर्धारित से काम या अधिक योग्यता के उम्मीदवार विचारणीय न हों क्यों कि ऐसा न होने पर सामान योग्यताधारकों को समान अवसर के नैसर्गिक सिद्धांत का पालन नहीं हो पाता।  

१२. प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारी तकनीकी क्षेत्र के कार्यों का प्रबंधन, मार्गदर्शन और नियंत्रण करते हैं इसलिए इन पदों के लिए तकनीकी शिक्षाधारी ही सुपात्र हैं। तकनीकी शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्बंधित विषय से जुड़े अथवा कार्यक्षेत्र में प्रयुक्त होनेवाले कानूनों, प्रबंधन शास्त्र, लेखा शास्त्र तथा प्रशासन कला से जुड़े प्रश्न पत्र जोड़े जाएँ ताकि तकनीकी स्नातक कार्य क्षेत्र में इनसे जुडी जिम्मेदारियों को सुचारू रूप से वहन कर सकें। तकनीकी उपाधि के समान्तर प्रबंधन और प्रशासन की उपाधि का अध्ययन कराया जा सकें तो ५ वर्ष की समयावधि में दो उपाधिधार युवक को अवसर प्राप्ति अधिक होगी।  

१३. शासकीय कार्य विभागों में ठेकेदारी हेतु अभियांत्रिकी में स्नातक होना अनिवार्य हो ताकि गैर तकनीकी ठरकेदारों से कार्य की गुणवत्ता न गिरे।

१४. अभियांत्रिकी पाठ्यक्रमों में मानक संहिताओं को सम्मिलित किया जाए। नेशनल बिल्डिंग कोड आदि विद्यार्थियों को रियायती मूल्य पर अनिवार्यत: दिए जाएँ।

१५. अभियंताओं की सर्वोच्च संस्थाओं इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इन्डियन जियोटेक्निकल सोसायटी, इंडियन अर्थक्वैक सोसायटी आदि की मदद से पाठ्यक्रमों का पुनर्निर्धारण हो।  पूरे देश में एक समान पाठ्यक्रम हो। 

१६. इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स के केंद्रों में सदस्य अनुभवी अभियंता होते हैं उनके कौशल और ज्ञान का उपयोग शासकीय योजनाओं के प्रस्ताव बनाने, कार्यों के पर्यवेक्षण, मूल्यांकन, संधारण आदि में किया जा सकता है। सेवानिवृत्त अभियंताओं की योग्यता का लाभ देश और समाज के लिये लिया जा सकता है। 

१७. प्राकृतिक आपदाओं तथा संकट काल का सामना करने  विशेष प्रविधियों की आवश्यकता होती है।  ऐसे समय में हर नागरिक की भूमिका महत्वपूर्ण तथा अन्यों की जीवन बचने में महत्वपूर्ण होती है। सभी पाठ्यक्रमों में आपदा प्रबंधन  तथा सामान्य स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी सामग्री जोड़ी जाए। 

१८. सभी पाठ्यक्रमों में शिक्षा का माध्यम हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ हों। अंग्रेजी की भूमिका क्रमश: समाप्त की जाए। 

मुझे आशा ही  विश्वास है की सुझावों पर विचार कर समुचित निर्णय लिए जायेंगे। इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का सहयोग कर प्रसन्नता होगी।    
                                                                                         एक नागरिक 
                                                       अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल'
                                                                  अधिवक्ता उच्च न्यायालय मध्य प्रदेश 
समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट,  नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
salil.sanjiv@gmail.com -चलभाष ९४२५१८३२४४

व्यंग्य लेखांश : ‘भगत की गत’ हरिशंकर परसाई

व्यंग्य लेखांश :
‘भगत की गत’ 
हरिशंकर परसाई जी 
*
...एक भगत ने मरने के बाद भगवान के पास जाकर स्वर्ग की डिमांड की, फिर क्या हुआ ......
प्रभु ने कहा- तुमने ऐसा क्या किया है, जो तुम्हें स्वर्ग मिले?
भगतजी को इस प्रश्न से चोट लगी। जिसके लिए इतना किया, वही पूछता है कि तुमने ऐसा क्या किया! भगवान पर क्रोध करने से क्या फायदा- यह सोचकर भगतजी गुस्सा पी गये। दीनभव से बोले- मैं रोज आपका भजन करता रहा।
भगवान ने पूछा- लेकिन लाउड-स्पीकर क्यों लगाते थे?
भगतजी सहज भव से बोले- उधर सभी लाउड-स्पीकर लगाते हैं। सिनेमावाले, मिठाईवाले, काजल बेचने वाले- सभी उसका उपयोग करते हैं, तो मैंने भी कर लिया।
भगवान ने कहा- वे तो अपनी चीज का विज्ञापन करते हैं। तुम क्या मेरा विज्ञापन करते थे? मैं क्या कोई बिकाऊ माल हूं।
भगतजी सन्न रह गये। सोचा, भगवान होकर कैसी बातें करते हैं।
भगवान ने पूछा- मुझे तुम अन्तर्यामी मानते हो न?
भगतजी बोले- जी हां!
भगवान ने कहा- फिर अन्तर्यामी को सुनाने के लिए लाउड-स्पीकर क्यों लगाते थे? क्या मैं बहरा हूं? यहां सब देवता मेरी हंसी उड़ाते हैं। मेरी पत्नी मजाक करती है कि यह भगत तुम्हें बहरा समझता है।
भगतजी जवाब नहीं दे सके।
भगवान को और गुस्सा आया। वे कहने लगे- तुमने कई साल तक सारे मुहल्ले के लोगों को तंग किया। तुम्हारे कोलाहल के मारे वे न काम कर सकते थे, न चैन से बैठ सकते थे और न सो सकते थे। उनमें से आधे तो मुझसे घृणा करने लगे हैं। सोचते हैं, अगर भगवान न होता तो यह भगत इतना हल्ला न मचाता। तुमने मुझे कितना बदनाम किया है!
भगत ने साहस बटोरकर कहा- भगवान आपका नाम लोंगों के कानों में जाता था, यह तो उनके लिए अच्छा ही था। उन्हें अनायास पुण्य मिल जाता था।
भगवान को भगत की मूर्खता पर तरस आया। बोले- पता नहीं यह परंपरा कैसे चली कि भक्त का मूर्ख होना जरूरी है। और किसने तुमसे कहा कि मैं चापलूसी पसंद करता हूं? तुम क्या यह समझते हो कि तुम मेरी स्तुति करोगे तो मैं किसी बेवकूफ अफसर की तरह खुश हो जाऊंगा? मैं इतना बेवकूफ नहीं हूं भगतजी कि तुम जैसे मूर्ख मुझे चला लें। मैं चापलूसी से खुश नहीं होता कर्म देखता हूं।
***
टीप: वे भगवान् अवश्य कर्मदेव चित्रगुप्त रहे होंगे.

लघुकथा

लघुकथा :
सोई आत्मा 
*
मदरसे जाने से मना करने पर उसे रोज डाँट पड़ती। एक दिन डरते-डरते उसने पिता को हक़ीक़त बता ही दी कि उस्ताद अकेले में.....
वालिद गुस्से में जाने को हुए तो वालिदा ने टोंका गुस्से में कुछ ऐसा-वैसा क़दम न उठा लेना उसकी पहुँच ऊपर तक है।
फ़िक्र न करो, मैं नज़दीक छिपा रहूँगा और आज जैसे ही उस्ताद किसी बच्चे के साथ गलत हरकत करेगा उसकी वीडियो फिल्म बनाकर पुलिस ठाणे और अखबार नवीस के साथ उस्ताद की बीबी और बेटी को भी भेज दूँगा।
सब मिलकर उस्ताद की खाट खड़ी करेंगे तो जाग जायेगी उसकी सोई आत्मा।
****

लघुकथा
बीज का अंकुर
*
चौकीदार के बेटे ने सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। समाचार पाकर कमिश्नर साहब रुआंसे हो आये। मन की बात छिपा न सके और पत्नी से बोले बीज का अंकुर बीज जैसा क्यों नहीं होता?
अंकुर तो बीज जैसा ही होता है पर जरूरत सेज्यादा खाद-पानी रोज दिया जाए तो सड़ जाता है बीज का अंकुर। 
***


मुक्तक

मुक्तक 
*
दीपिका दे साथ तो हो अमावस में भी दिवाली।
माहेश्वरी महेश को भज आप होती उमा-काली।।
नित सृजन कर सृष्टि का सज्जित करे, पल-पल सँवारे

जो उसे नत शिर नमन, लौ बार उसके लिए ताली।।

*
हो गए हैं धन्य हम तो आपका दीदार कर 
थे अधूरे आपके बिन पूर्ण हैं दिल हार कर 
दे दिया दिल आपको, दिल आपसे है ले लिया
जी गए हैं आप पर खुद को 'सलिल' हम वार कर 

बह्रर 2122-2122-2122-212
*
बोलिये भी, मौन रहकर दूर कब शिकवे हुए
तोलिये भी, बात कह-सुन आप-मैं अपने हुए
मैं सही हूँ, तू गलत है, यह नज़रिया ही गलत
जो दिलों को जोड़ दें, वो ही सही नपने हुए

बह्रर 2122-2122-2122-212
*****
salil.sanjiv@gmail.com

लेख: नागपंचमी

लेख :
नागको नमन : 
संजीव 
*
नागपंचमी आयी और गयी... वन विभागकर्मियों और पुलिसवालोंने वन्य जीव रक्षाके नामपर सपेरों को पकड़ा, आजीविका कमानेसे वंचित किया और वसूले बिना तो छोड़ा नहीं होगा। उनकी चांदी हो गयी.
पारम्परिक पेशेसे वंचित किये गए ये सपेरे अब आजीविका कहाँसे कमाएंगे? वे शिक्षित-प्रशिक्षित तो हैं नहीं, खेती या उद्योग भी नहीं हैं. अतः, उन्हें अपराध करनेकी राह पर ला खड़ा करनेका कार्य शासन-प्रशासन और तथाकथित जीवरक्षणके पक्षधरताओंने किया है.
जिस देशमें पूज्य गाय, उपयोगी बैल, भैंस, बकरी आदिका निर्दयतापूर्वक कत्ल कर उनका मांस लटकाने, बेचने और खाने पर प्रतिबंध नहीं है वहाँ जहरीले और प्रतिवर्ष लगभग ५०,००० मृत्युओंका कारण बननेवाले साँपोंको मात्र एक दिन पूजनेपर दुग्धपानसे उनकी मृत्युकी बात तिलको ताड़ बनाकर कही गयी. दूरदर्शनी चैनलों पर विशेषज्ञ और पत्रकार टी.आर.पी. के चक्करमें तथाकथित विशेषज्ञों और पंडितों के साथ बैठकर घंटों निरर्थक बहसें करते रहे. इस चर्चाओंमें सर्प पूजाके मूल आर्य और नाग सभ्यताओंके सम्मिलनकी कोई बात नहीं की गयी. आदिवासियों और शहरवासियों के बीच सांस्कृतिक सेतुके रूपमें नाग की भूमिका, चूहोंके विनाश में नागके उपयोगिता, जन-मन से नागके प्रति भय कम कर नागको बचाने में नागपंचमी जैसे पर्वोंकी उपयोगिता को एकतरफा नकार दिया गया.
संयोगवश इसी समय दूरदर्शन पर महाभारत श्रृंखला में पांडवों द्वारा नागों की भूमि छीनने, फलतः नागों द्वारा विद्रोह, नागराजा द्वारा दुर्योधन का साथ देने जैसे प्रसंग दर्शाये गये किन्तु इन तथाकथित विद्वानों और पत्रकारों ने नागपंचमी, नागप्रजाजनों (सपेरों - आदिवासियों) के साथ विकास के नाम पर अब तक हुए अत्याचार की और नहीं गया तो उसके प्रतिकार की बात कैसे करते?
इस प्रसंग में एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह भी है कि इस देशमें बुद्धिजीवी माने जानेवाले कायस्थ समाज ने भी यह भुला दिया कि नागराजा वासुकि की कन्या उनके मूलपुरुष चित्रगुप्त जी की पत्नी हैं तथा चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों के विवाह भी नाग कन्याओं से ही हुए हैं जिनसे कायस्थों की उत्पत्ति हुई. इस पौराणिक कथा का वर्ष में कई बार पाठ करने के बाद भी कायस्थ आदिवासी समाज से अपने ननिहाल होने के संबंध को याद नहीं रख सके. फलतः। खुद राजसत्ता गंवाकर आमजन हो गए और आदिवासी भी शिक्षित हुआ. इस दृष्टि से देखें तो नागपंचमी कायस्थ समाज का भी महापर्व है और नाग पूजन उनकी अपनी परमरा है जहां विष को भी अमृत में बदलकर उपयोगी बनाने की सामर्थ्य पैदा की जाती है.
शिवभक्तों और शैव संतों को भी नागपंचमी पर्व की कोई उपयोगिता नज़र नहीं आयी.
यह पर्व मल्ल विद्या साधकों का महापर्व है लेकिन तमाम अखाड़े मौन हैं बावजूद इस सत्य के कि विश्व स्तरीय क्रीड़ा प्रतियोगिताएं में मल्लों की दम पर ही भारत सर उठाकर खड़ा हो पाता है. वैलेंटाइन जैसे विदेशी पर्व के समर्थक इससे दूर हैं यह तो समझा जा सकता है किन्तु वेलेंटाइन का विरोध करनेवाले समूह कहाँ हैं? वे नागपंचमी को यवा शौर्य-पराक्रम का महापर्व क्यों नहीं बना देते जबकि उन्हीं के समर्थक राजनैतिक दल राज्यों और केंद्र में सत्ता पर काबिज हैं?
महाराष्ट्र से अन्य राज्यवासियों को बाहर करनेके प्रति उत्सुक नेता और दल नागपंचमई को महाराष्ट्र की मल्लखम्ब विधा का महापर्व क्यों कहीं बनाते? क्यों नहीं यह खेल भी विश्व प्रतियोगिताओं में शामिल कराया जाए और भारत के खाते में कुछ और पदक आएं?
अंत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि जिन सपेरों को अनावश्यक और अपराधी कहा जा रहा है, उनके नागरिक अधिकार की रक्षा कर उन्हें पारम्परिक पेशे से वंचित करने के स्थान पर उनके ज्ञान और सामर्थ्य का उपयोग कर हर शहर में सर्प संरक्षण केंद्र खोले जाए जहाँ सर्प पालन कर औषधि निर्माण हेतु सर्प विष का व्यावसायिक उत्पादन हो. सपेरों को यहाँ रोजगार मिले, वे दर-दर भटकने के बजाय सम्मनित नागरिक का जीवन जियें। सर्प विष से बचाव के उनके पारम्परिक ज्ञान मन्त्रों और जड़ी-बूटियों पर शोध हो.
क्या माननीय नरेंद्र मोदी जी इस और ध्यान देंगे?
*****
salil.sanjiv@gmail.com

नवगीत - बारिश

नवगीत 
*
बारिश तो अब भी होती है 
लेकिन बच्चे नहीं खेलते. 
*
नाव बनाना 
कौन सिखाये?
बहे जा रहे समय नदी में.
समय न मिलता रिक्त सदी में.
काम न कोई
किसी के आये.
अपना संकट आप झेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
डेंगू से भय-
भीत सभी हैं.
नहीं भरोसा शेष रहा है.
कोई न अपना सगा रहा है.
चेहरे सबके
पीत अभी हैं.
कितने पापड विवश बेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
उतर गया
चेहरे का पानी
दो से दो न सम्हाले जाते
कुत्ते-गाय न रोटी पाते
कहीं न बाकी
दादी-नानी.
चूहे भूखे दंड पेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा 

दोहा दुनिया

दोहा दुनिया 
*
मटक-मटक जो फिर रहे, अटक रहे हर ठौर। 
सटके; फटक न सफलता, अटकें; करिए गौर।।

*
कृष्णा-कृष्णा सब करें, कृष्ण हँस रहे देख 
द्रुपदसुता का नाम ले, क्यों मेरा उल्लेख?

*
कंकर भी शंकर बने, कर विराट का संग
रंग नहीं बदरंग हो, अगर करो सत्संग

*
प्राण गए तो देह के, अंग दीजिए दान.
जो मरते जी सकेंगे, ऐसे कुछ इंसान.

*
दिल के दिल में क्या छिपा, बेदिल से मत बोल 
संग न सँगदिल का करो, रह जाएगी झोल

*
सही करो तो गलत क्यों, समझें-मानें लोग? 
गलत करो तो सही, कह; बढ़ा रहे हैं रोग.

*
सजे अधर पर जब हँसी, धन्य हो गयी आप 
पैमाना कोई नहीं, जो खुशियाँ ले नाप

*
अर्थ न रहे अनर्थ में, अर्थ बिना सब व्यर्थ 
समझ न पाया किस तरह, समझा सकता अर्थ.
*
लिखा बिन लिखे आज कुछ, पढ़ा बिन पढ़े आज 
केर-बेर के संग से, सधे न साधे काज




गुरुवार, 1 अगस्त 2019

लेख: "वैदेहीश विलास" में पुरुषायित

शोध  लेख 
राम कथा पर आधारित उड़िया काव्य कृति 'बैदेहीश विलास" में पुरुषायित 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
राम कथा भारत की सभी भाषाओँ हुए विश्व की अन्य अनेक भाषाओँ में कही गयी गई। सामान्यत: राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में वर्णित किया गया है। तुलसी ने "कंकण किंकिण नूपुर धुनि सुनि" जैसी आलंकारिक किन्तु संयमत अभिव्यक्ति तक खुद को सीमित रखा है। कविराज वीरवर उपेंद्र भंज (सन्‌ 1665 ई. से 1725 ई.) रचित "बिंश छंद" में सामान्य से हटकर सीता जी के अप्रतिम सौंदर्य का श्री राम के मुख से वर्णन कराया गया है। 

एक दिन सीता जी ने कहा की विधाता की किसी विचित्र विधि है कि शिव से अलकापुरी छुड़वाकर शमशान में बसा दिया, विष्णु जी से रत्न जड़ित पलंग ले कर सांप पर सुला दिया और हमसे राज्य छुड़वा कर वन भिजवा दिया। जो विधाता ऐसी अविधि (अनुचित कार्य करते हैं) उन्हें विधि (ब्रम्हा) कैसे कहा जा सकता है।  श्री राम ने लावण्य निधि सीता को अपनी गोद में बैठाकर समझाया  'वे अविधि नहीं विधि ही करते हैं। शिव जी पार्वती  विष्णु जी लक्ष्मी  एकांत में केलि क्रीड़ा कर सकें इसीलिये ब्रम्हा जी ने उन्हें श्मशान हुए क्षीर सागर में वास कराया। हम दोनों को निर्जन वन में इसीलिये भिजवा दिया। रसिक पुरुष और रसिका स्त्री के लिए एकांत से बढ़कर और क्या है? ऐ रतपण्डिते! उन्होंने हमारे लिए क्या कम किया है? अयोध्या की सुख-सुविधाओं  की तुलना में वन के प्राकृतिक सौंदर्य, वनवासियों के स्नेह हुए पंछियों के कलरव को श्रेष्ठ बता हुए राम ने कहा- 

बांधबि ऐथिरे देखायाउ  नाहिं नाचीबार नृत्यकारी 
बेणी नासामणि रमणीमणिरे नचा  अनुग्रह करि 
बिहंति नर्तन नर्तकबरहिं अछिनर्तकबरही   
बोलि चतुरी नासापुड़ा फुलाइ शिरश्चालि देइ रही 

"बांधवी वहाँ नर्तक थे, यहाँ नहीं हैं इसलिए अपनी नथ तथा वेणी को नचाओ।" 

"यहाँ नर्तक नृत्य करते हैं तो यहाँ भी नर्तक (मयूर) नृत्य करते हैं।" कहते हुए सीता जी ने नथ तथा वेणी को न घमकार जोर से श्वास लेकर सर हिलाकर श्री राम का आज्ञा पालन कर दिया। श्री राम ने कहा- 

"ऐ सुंदरी! तुमने मेरा मनोभाव समझकर जिस अभिप्राय से नाथ-वेणी नाचने को कहा था, वह इंगित से कर दिया। (संकेत रमण के समय नथ-वेणी स्थान-च्युत हो जाती हैं। अर्थत तुम रमण हेतु सहमत हो) तब सीता ने पश्चिम में सूर्य और लताओं को देखकर इंगित किया कि सूर्यास्त के पश्चात् लता वन में मनोरथ पूर्ण होगा। प्रसन्न होकर राम ने सीता के विविध अंगों के सौंदर्य की प्रशंसा करते हुए उनकी बाहुवल्लरी का हार पहनने और स्वयंभू शिव द्वय की पूजा (संकेत स्वयंभू अर्थात अपने आप विकसित कुच द्वय का श्रृंगार) करने की कामना की। श्री राम ने सीता जी को लक्ष्मी, रति तथा रंभा आदि से अधिक सुन्दर बताते हुए उनकी मंदोदरी (मंद उदरी) तथा धनुष से अधिक लचीली पतली कमर की प्रशंसा की। सीता ने सविनय उन्हें अपना स्वामी कहा।  

बोलाबोलि हेउँ स्नेह वचन से विचित्र रजनी मिलि 
बिरचाइला  से रमणीरतने यतने पुरुषकेलि 
बाजिला रसना बाद्य मरदल मध्ये ब्रम्हशिरि देइ 
बीणा नाद हुँ हुँ कृत जात वशे कंठ नारद कराइ  

इस प्रेमपूर्ण वार्ता के बीच रात्रि हो गयी और रमणीरत्न सीता ने स्वयं को विपरीत रति हेतु प्रस्तुत किया। उस क्रिया ने उन्हें ब्रम्हानंद की अनुभूति कराई। सीता की करधन बजने लगी और कंठ से नारद के वीणा के तारों की झंकार की तरह  हुँ हुँ की ध्वनि निकलने लगी। 

बिचलित रंभा उर्वशी रामा ये चंचल शेष अंशुक 
बृत्र अंतकपरे तहिं संतक काटिले भोले रसिक 
बिभावरी अंत कले नित्यकृत्य चित्रकूट केलि शेष 
बिंशपदे छांद उपइंद्र वीरवर रचिबारे तोश 

जिस तरह स्वर्ग में नृत्यरत उर्वशी रंभा आदि के वस्त्र हट जाते हैं, उसी तरह विपरीत रति रत सीता के वस्त्र हट गए। जिस तरह वृत्त ने अंत करनेवाले इंद्र पर चिन्ह लगा दिए थे उसी तरह रस विव्हल राम ने सीता के सयानों पर नख से चिन्ह अंकित कर दिए। रात्रि के अंत के साथ चित्रकूट केलि क्रीड़ा का समापन हुआ। प्रभु ने नित्य कर्म किये। वीरवर उपेंद्र भंज को बीस पदों में यह प्रसंग रचकर संतोष हुआ। यहाँ कवि ने सीता-राम की पुरुषायित क्रीड़ा के माध्यम से ब्रम्ह (राम) का माया (सीता) के अधीन होना इंगित किया है। 

विराध वध कर गोमती, कावेरी, नर्मदा, रेवा, बेतवा, फल्गु, भागा आदि नदियों के किनारे वनों में राम-सीता उसी तरह विहार करते रहे जैसे क्षीर सागर में करते थे। अगस्त्य आश्रम के ऋषि राम के सौंदर्य पर आसक्त होकर स्त्री होने की कामना करने लगे तो राम ने वर दिया इस जन्म में केवल सीता ही उनकी पत्नी हैं। अगले जन्म में वे बृज की गोपियाँ बनेंकर कृष्ण के साथ केलि सुख पा सकेंगे। सूर्पनखा प्रसंग में कवि ने फिर विपरीत रति  का चित्रण किया है।  

बिहि बिधि मदन कंदर्प करिण  
बर कान्त पति मोर हुअन्ते पुण 
बासर दिवस निशि लव करंति 
बिधूनन रति करि मति तोषंति 

शूर्पणखा ने सोचा विधाता ने कंदर्प से उसके मद न (मदन  = काम के लोप = संतुष्टि) हेतु इसका निर्माण किया है। यह मेरा पति होता तो मैं विपरीत रति मन को संतुष्ट करते हुए दिन-रात को मुहूर्त (पल) के समान बिता देती। सीता को देखकर शूर्पणखा ने सोचा जिसे यह उत्तम रमणीरत्न प्राप्त है वह मुझे क्यों स्वीकार करेगा? जिस तरह भौंरा सुगन्धित मालती पुष्प के साथ-साथ निर्गन्ध बासा पुष्प का भी रसपान कर लेता है वैसे ही ये भी अनुरक्त होकर मुझे गोद में धारण करेंगे और रतिबंध संयोग सुख देंगे। वह तरु की आड़ से निकल नर नासिका नाक फुला कर नथ हिलाते है, जांघ का वस्त्र हट जाने देती है, रतिप्रवीणा नायिका की तरह युवा मनों को बाँध लेना चाहती है। वह राम से उनके वन आगमन का कारण जानकर कहती है कि वह भुजबंध, आठ प्रकार के आलिंगनों, चौंसठ प्रकार के काम कलाओं, चक्रबंध तथा विपरीत रतिबंध में निपुण हूँ। 

बशीभूत होइ तव शोभाकुं चाही 
बसि बाकु तुम्भ कोले आसिछि मुहिं 
वन्धन करि भुझरे जाणइ स्वत:
बन्धरे ये चक्र सुख पुरुषायित 

राम-लक्ष्मण को न मोह पाने पर सीता वध के लिए तत्पर सूर्पनखा की नाक-कान कटने पर वह रावण को सीता हरण हेतु भेजती है। स्वर्ण मृग प्रसंग के बाद राम सीता को आश्रम में न पाकर विलाप करते हैं -
बिरहोत्कंठिता सार नागरी रतन
बिचारि त थान्ता नब नब भाबमान
बचन के मुँ ताहारि। बंधने कबरी आणि आसिछि चऊँरी   
बासकसज्जा हुए पाशुं गला क्षणे 
बेष सारि शय्या करि निरेखे प्रांगणे 
बिप्र लब्धा होइ घन। बिकास कुसुमकाले तेजि कोलिस्थान। 
बार-बार अभिसार  मो पाशे पंडिता 
बिपरीत मागिबारे हुई खंडिता 
बिधि प्रोषितभर्तृका। बांधवीकु करिबाकु करुअछि दका। 
वह नारी रत्न सीता विरहोत्कंठिता नयोक्ताओं में श्रेष्ठ हैं। मेरे विरह में वियोगिनी होकर वह तरह-तरह नए-नए भाव अपने मन में ले आती है। मैं उनके एक बार कहते ही कवरी बंधन के लिए चौरी ले आया हूँ। फिर वह मुझसे विमुख क्यों हुई? 
मेरे निकट से जाते ही मेरी प्रिया सीता वासकसज्जा नायिका बन जाती है, वह सुसज्जित होकर सेज सजाकर आँगन में खड़ी होकर मेरी राह जोहती है। प्रिय सीता पुष्पवती होने के समय  केलिस्थान त्यागती है मानो विप्रलब्धा मानिनी नायिका हो। आज वह अवस्था नहीं है, फिर वह दिखाई क्यों नहीं दे रही है?
मेरी प्रिय अभिसारिका नायिका की तरह बार-बार मेरे निकट आने में निपुण  पंडिता है। जब मैं विपरीत रति चाहता तब वह खंडिता नायिका बनती, क्रोध दिखाकर मेरे अनुरोध का खंडन करती। आज तो मैंने विपरीत रति नहीं माँगी फिर उसका यह व्यवहार क्यों हुआ? मुझे विधाता से अपनी प्रिया के प्रोषितभर्तृका होने का संदेह हमेशा रहा है, क्या आज ऐसा ही हुआ है? 
राम विविध प्रकार से सीता के साज-श्रृंगार, मन-मनुहार, उनकी देह की गंध को याद कर विलम्ब से आने हेतु क्षमा प्रार्थना करते हुए, उनसे न छिपने का अनुरोध करते हुए कहते हैं कि मैं चुन-चुन कर पुष्प लाया हूँ, मृग चर्म पर बैठो, तुम्हारे केशों में इन्हें सजा दूँ। 
बहिछु शंका चउँरी देइ मोर हस्त
बदाइबे रचिबाकु कि पुरुषायित  
बोळीबाकु नाहिं नाहिं । बोइला बचन आन होइछि मो काहिं। 
ऐ प्रिये! क्या तुम यह सोच कर भय कर रही हो कि चौंरी को हाथ में देकर तुम्हें विपरीत रति के लिए कहूँगा। नहीं नहीं मैं विपरीत रति हेतु नहीं कहूँगा। तुम जानती हो कि मेरा कहा अन्यथा नहीं होता। 


इस कृति की विशेषता राम-सीता के अभिसार पलों का चित्रण, सीता का पुरुषायत में निपुण होने पर भी संकोच करना, लजाना, शूर्पकहना द्वारा राम-लक्ष्मण के साथ पुरुषायित की कामना करना और सीताहरण के बाद विलाप करते राम द्वारा सीता के पुरुषायित को याद कर, उनके संकोच को देखते हुए पुरुषायित न चाहने का वायदा करना है। संभवत: अन्य किसी ग्रन्थ में इतने घटनाक्रमों में इतनी बार पुरुषायित का उल्लेख न हो। कृति का वैशिष्ट्य हर पंक्ति का 'ब' अक्षर से आरंभ होना भी है। रामचरित मानस से हटकर कवि ने मौलिक चिंतन जनित कथा और घटनाओं से कृति को पठनीय बनाया है।
***
ओड़िया साहित्य के महान्‌ कवि उपेंद्र भंज सन्‌ 1665 ई. से 1725 ई. तक जीवित रहे। उन्हें 'कवि सम्राट' कहा जाता है। उनके पिता का नाम नीलकंठ और दादा का नाम भंज था। दो साल राज्य करने के बाद नीलकंठ अपने भाई घनभंज के द्वारा राज्य से निकाल दिए गए। नीलकंठ के जीवन का अंतिम भाग नयागढ़ में व्यतीत हुआ था। उपेंद्र भंज के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने नयागढ़ के निवासकाल में 'ओड्गाँव' के मंदिर में विराजित देवता श्रीरघुनाथ को 'रामतारक' मंत्रों से प्रसन्न किया था और उनके ही प्रसाद से उन्होंने कवित्वशक्ति प्राप्त की थी। संस्कृत भाषा में न्याय, वेदांत, दर्शन, साहित्य तथा राजनीति आदि सीखने के साथ ही उन्होंने व्याकरण और अलंकारशास्त्र का गंभीर अध्ययन किया था। नयागढ़ के राजा लड़केश्वर मांधाता ने उन्हें 'वीरवर' उपाधि से भूषित किया था। पहले उन्होंने बाणपुर के राजा की कन्या के साथ विवाह किया था, किंतु थोड़े ही दिनों बाद उनके मर जाने के कारण नयागढ़ के राजा की बहन को उन्होंने पत्नी रूप में ग्रहण किया। उनका दांपत्य जीवन पूर्ण रूप से अशांत रहा। उनके जीवनकाल में ही द्वितीय पत्नी की भी मृत्यु हो गई। कवि स्वयं 40 वर्ष की आयु में नि:संतान अवस्था में मरे। पेंद्र भंज रीतियुग के कवि हैं। वे लगभग पचास काव्यग्रंथों के निर्माता हैं। इनमें से 20 ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। उनके लिखित काव्यों में लावण्यवती, कोटिब्रह्माडसंदुरी और वैदेहीशविलास सुप्रसिद्ध हैं। उड़िया साहित्य में रामचंद्र छोटराय से लेकर यदुमाणि तक 200 वर्ष पर्यंत जिस रीतियुग का प्राधान्य रहा उपेंद्र भंज उसी के सर्वाग्रगण्य कवि माने जाते हैं। उनकी रचनाओं में महाकाव्य, पौराणिक तथा काल्पनिक काव्य, संगीत, अलंकार और चित्रकाव्य अंतर्भुक्त हैं। उनके काव्यों में वर्णित विवाहोत्सव, रणसज्जा, मंत्रणा तथा विभिन्न त्यौहारों की विधियाँ आदि उत्कल की बहुत सी विशेषताएँ मालूम पड़ती हैं। उनकी रचनाशैली नैषध की सी है जिसमें उपमा, रूपकादि अलंकारों का प्राधान्य है। अक्षरनियम और शब्दपांडित्य से उनकी रचना दुर्बोध लगती है। उनके काव्यों में नारी-रूप-वर्णन में बहुत सी जगहों पर अश्लीलता दिखाई पड़ती है। परंतु वह उस समय प्रचलित विधि के अनुसार है। उस समय के काव्यों में श्रृंगार का ही प्राचुर्य रहता था। दीनकृष्ण, भूपति पंडित और लोकनाथ विद्याधर आदि विशिष्ट कविगण उपेंद्र के समकालीन थे। उन सब कवियों ने राजा दिव्यसिंह के काल में ख्याति प्राप्त की थी। उपेंद्र के परवर्ती जिन कवियों ने उनकी रचनाशैली का अनुसरण किया उनमें अभिमन्यु, कविसूर्य बलदेव और यदुमणि प्रभृति माने जाते हैं। आधुनिक कवि राधानाथ और गंगाधर ने भी बहुत हद तक उनकी वर्णनशैली अपनाई।
उड़िया साहित्य में उपेंद्र एक प्रमुख संस्कारक थे। संस्कृतज्ञ पंडितों के साथ प्रतियोगिता में उतरकर उन्होंने बहुत से आलंकारिक काव्यों की भी रचना की। धर्म और साहित्य के बीच एक सीमा निर्धारित करके उन्होंने धर्म से सदैव साहित्य को अलग रखा। उनकी रचनाओं में ऐसे बहुत से देवताओं का वर्णन मिलता है पर प्रभु जगन्नाथ का सबसे विशेष स्थान है। वैदेहीशविलास उनका सबसे बड़ा काव्य है जिसमें प्रत्येक पंक्ति का प्रथम अक्षर 'व' ही है। इसी प्रकार 'सुभद्रा परिणय' और 'कला कउतुक' काव्यों की प्रत्येक पंक्ति यथाक्रम 'स' और 'क' से प्रारंभ हुई है। उनके रसपंचक काव्य में साहित्यिक रस, दोष और गुणों का विवेचन किया गया है। अवनारसतरंग एक ऐसा काव्य है जिसमें किसी भी स्थान पर मात्रा का प्रयोग नहीं हुआ है। शब्दप्रयोग के इस चमत्कार के अतिरिक्त उनकी इस रचना में और कोई मौलिकता नहीं है। उनके काव्यों में वर्णन की एकरूपता का प्राधान्य है। पात्र पात्रियों का जन्म, शास्त्राध्ययन, यौवनागम, प्रेम, मिलन और विरह सभी काव्यों में प्राय: एक से हैं। उनके कल्पनाप्रधान काव्यों में वैदेहीशविलास सर्वश्रेष्ठ है :
उन्होंने 'चौपदीभूषण', 'चौपदीचंद्र', प्रभृत्ति कई संगीतग्रंथ भी लिखे हैं, जो उड़ीसा प्रांत में बड़े जनप्रिय हैं। उनकी संगीत पुस्तकों में आदिरस और अलंकारों का प्राचुर्य हैं। कवि की कई पुस्तकें मद्रास, आंध्र, उत्कल और कलकत्ता विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में गृहीत हैं। वैदेहीशविलास, कोटिब्रह्मांडसुंदरी, लावण्यवती, प्रेमसुधानिधि, अवनारसतरंग, कला कउतुक, गीताभिधान, छंतमंजरी, बजारबोली, बजारबोली, चउपदी हारावली, छांद भूषण, रसपंचक, रामलीलामृत, चौपदीचंद्र, सुभद्रापरिणय, चित्रकाव्य बंधोदय, दशपोइ, यमकराज चउतिशा और पंचशायक प्रभृति उनकी कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
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http://www.dwarkadheeshvastu.com/001-Epics-PDF/Vaidehish-Vilas-Oriya/004-Vaidehish-Vilas-Oriya.pdf

समीक्षा ; सुधियों की देहरी पर

समीक्षा ;
सुधियों की देहरी पर - दोहों की अँजुरी 
समीक्षाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: सुधियों की देहरी पर, दोहा संग्रह, तारकेश्वरी तरु 'सुधि', प्रथम संस्करण २०१९, आई.एस.बी.एन. ९७८९३८८४७१४८०, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ९५, मूल्य २००/-, अयन प्रकाशन दिल्ली,दोहाकार संपर्क : ९८२९३८९४२६, ईमेल tarkeshvariy@gmail.com]
*
दोहा के उद्यान में, मुकुलित पुष्प अशेष 
तारकेश्वरी तरु 'सुधि', परिमल लिए विशेष 
*
प्रथम सुमन अंजुरी लिए, आई पूजन ईश 
गुणिजन दें आशीष हों, इस पर सदय सतीश  
*
दोहा द्विपदी दूहरा, छंद पुरातन ख़ास 
जीवन की हर छवि-छटा, बिम्बित लेकर हास 
*
तेरह-ग्यारह कल बिना, दोहा बने न मीत
गुरु-लघु रखें पदांत हो, लय की हरदम जीत 
*
लिए व्यंजना बन सके, दोहा सबका मित्र 
'सलिल' लक्षणा खींच दे, शब्द-शब्द में चित्र 
*
शब्द शक्ति की कर सके, दोहा हँस जयकार 
अलंकार सज्जित छटा, मोहक जग बलिहार 
*
'सुधि' गृहणी शिक्षिका भी, भार्या-माता साथ 
कलम लिए दोहा रचे, जाने कितने हाथ 
*
एक समय बहु काम कर, बता रही निज शक्ति 
छंद-राज दोहा रुचे, अनुपम है अनुरक्ति 
*
सुर वंदन की प्रथा का, किया विनत निर्वाह 
गणपति-शारद मातु का, शुभाशीष ले चाह  
*
करे विसंगति उजागर, सुधरे तनिक समाज 
पाखंडों का हो नहीं, मानव-मन पर राज
*
"अंदर से कुछ और हैं, बाहर से कुछ और।  
  किस पर करें यकीन अब, अजब आज का दौर।।" पृष्ठ १७ 
*
नातों में बाकी नहीं, अपनापन-विश्वास 
सत्य न 'तरु' को सुहाता, मन पाता है त्रास
"आता कोई भी नहीं, बुरे वक़्त में पास।  
 रंग दिखाएँ लोग वे, जो बनते हैं खास।।"    पृष्ठ २० 
*
'तरु' को अपने देश पर, है सचमुच अभिमान 
दोहा साक्षी दे रहा, कर-कर महिमा-गान 
*
उन्नत भाषा सनाकृति, मूल्य सोच परिवेश।  
इनसे ही है विश्व गुरु अपना भारत देश।।    पृष्ठ २२ 
*
अलंकार संपन्नता दोहों का वैशिष्ट्य 
रूपक उपमा कथ्य से, कर पाते नैकट्य 
*
उपवन में विचरण करे, मन-हिरणा उन्मुक्त।  
ख्वाहिश बनी बहेलिया, करती माया मुक्त।। पृष्ठ २३ 
*
समता नहीं समाज में, क्यों? अनबूझ सवाल 
सबको सम अवसर मिलें, होंगे दूर बवाल 
*
ऊँच-नीच औ' जन्म पर, क्यों टिक गया विवाद। 
करिए मन-मस्तिष्क को समता से आबाद।।  पृष्ठ २४ 
*
कन्या भ्रूण न हननिए, वह जग जननी जान 
दोहा दे संदेश यह, कहे कर कन्या का मान 
*
करो न हत्या गर्भ में, बेटी तेरा वंश। 
रखना है अस्तित्व में उसे किसी का वंश।। पृष्ठ २७   
*
त्रुटि हो उसे सुधारिए, छिपा न करिए भूल 
रोगों का उपचार हो, सार्थक यही उसूल 
*
करती हूँ मैं गलतियाँ, होती मुझसे भूल। 
गिरकर उठ जाना सदा मेरा रहा उसूल।। पृष्ठ २८
*
साँस न जब तक टूटती, सीखें सबक सदैव 
खुद को ज्ञानी समझना, करिए दूर कुटैव 
*
किसी मोड़ पर तुम नहीं, करो सीखना बंद।    
जीवन को परवाज़ ही, देता ज्ञान स्वछंद ।। पृष्ठ ३०  
*
पंछी चूजे पालते, बढ़ होते वे दूर 
मनुज न चाहे दूर हों, सहते हो मजबूर 
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खून-पसीना एक कर, बच्चे किए जवान। 
बसे मगर परदेस में, घर करके वीरान ।। पृष्ठ ३३    
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घर की रौनक बेटियाँ, वे घर का सम्मान। 
उन्हें कलंकित मत करो, 'देना' सीखो मान।। पृष्ठ ३५ 
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'देना' सीखो मान या, 'करना' सीखो मान?
जो 'देते' हो 'दूर' वह, 'करते' 'पास' निदान 
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गली-गली में खोलकर, अंग्रेजी स्कूल । पृष्ठ ३५ 
नौ मात्रिक दूजा चरण, फिर न करें यह भूल
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कर्म आपका आपको, दे जाए सम्मान। 
ऐसे क्रिया कलाप से, खींचो सबका ध्यान।। पृष्ठ २६
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सम्मानित है 'आप' पर, 'खींचो' आज्ञायुक्त। 
मेल न कर्ता-क्रिया में, शब्द चुनें उपयुक्त।।
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आनेवाले वक़्त का, उसे न था कुछ भान। 
जल में उत्तरी नाव फिर, लड़ी संग तूफ़ान ।। पृष्ठ १९ 
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'नाव' नहीं 'नाविक' लड़े, यहाँ तथ्य का दोष 
'चेतन' लड़ता 'जड़' नहीं, लें सुधार बिन रोष 
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अब बेटी के वास्ते, हुआ जागरूक देश।          पृष्ठ १७ 
कल बारह-बारह यहाँ, गलती यहाँ विशेष 
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खुद को करो समर्थ यह, है उपयुक्त निदान        
बनें बेटियाँ शक्तिमय, भारत की पहचान 
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चलो ध्यान से बेटियों, कदम-कदम पर गिद्ध। 
तुम भी रखकर हौसला, करो स्वयं को सिद्ध ।। पृष्ठ ३६ 
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'कर्म योग' का उचित है, देना शुभ संदेश 
'भाग्य वाद' की जय कहें, क्यों हम साम्य न लेश 
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जिसका जितना है लिखा, देंगे दीनानाथ।       पृष्ठ ४० 
सत्य यही तो कर्म क्यों, कभी करेगा हाथ?
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जिस घर भी पैदा हुई, खुशियाँ बसीं अपार। 
बेटी से ही सृष्टि को, मिलता है विस्तार।।       पृष्ठ ४०    
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अर्ध सत्य ही है यहाँ, बेटे से भी वंश 
बढ़ता- संतति में रहे, मात-पिता का अंश 
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बेटी से सपने जुड़े, वो है मेरी जान। 
जुडी उसे से भावना, वही सुखों की खान ।।     पृष्ठ ६६ 
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अतिरेकी है सोच यह, एकाकी है कथ्य 
बेटे-बेटी सम लगें, मात-पिता को- तथ्य          
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रगड़-रगड़ कर धो लिए, तन के वस्त्र मलीन। 
मन का कैसे साफ़ हो, गंदा जो कालीन ।। पृष्ठ ८० 
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बात सही तन-मन रखें, दोनों ही हम साफ़ 
वरना कभी करें नहीं, प्रभु जी हमको माफ़ 
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शब्द न कोई भी रहे, दोहे में बिन अर्थ 
तब सार्थकता बढ़े हो, दोहाकार समर्थ 
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भाषा शैली सहज है, शब्द चयन अनुकूल 
पहली कृति में क्षम्य हैं, यत्र-तत्र कुछ भूल 
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'तरु' में है संभावना, दोहा ज्यों हो सिद्ध 
अधिक सारगर्भित बने, भाव रहें आबिद्ध     
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दोहा-'तरु' में खिल सकें, सुरभित पुष्प अनेक 
'सलिल' सींच दें 'सुधि' सहित, रख 'संजीव' विवेक 
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'तारकेश्वरी' ने किया, सार्थक सृजन प्रयास 
बहुत बधाई है उन्हें, सिद्धि बहुत है पास 
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अगला दोहा संकलन, शीघ्र छपे आशीष 
दोहा-संसद मिल कहे, दोहाकार मनीष  ४९ 
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होती है मुश्किल बहुत, कहना सच्ची बात। 
बुरी बनूँ सच बोलकर, लेकिन करूँ न घात।। ।। पृष्ठ ९५ 
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यही समीक्षक-धर्म है, यथाशक्ति निर्वाह 
करे 'सलिल' मत रूठ 'सुधि', बहुत ढेर सी 'वाह' 
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समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष: ७९९९५५९६१८ 
ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com 
मुक्तिका:
संजीव 
*
याद जिसकी भुलाना मुश्किल है 
याद उसको न आना मुश्किल है
.
मौत औरों को देना है आसां
मौत को झेल पाना मुश्किल है
.
खुद को कहता रहा मसीहा जो
उसका इंसान होना मुश्किल है
.
तुमने बोले हैं झूठ सौ-सौ पर
एक सच बोल सकना मुश्किल है
.
अपने अधिकार चाहते हैं सभी
गैर को हक़ दिलाना मुश्किल है
***
मुक्तिका:
संजीव
*
कैसा लगता काल बताओ?
तनिक मौत को गले लगाओ
.
मारा है बहुतों को तड़पा
तड़प-तड़पकर मारे जाओ
.
सलमानों के अरमानों की
चिता आप ही आप जलाओ
.
समय न माफ़ करेगा तुमको
काम देश के अगर न आओ
.
दहशतगर्दों तज बंदूकें
चलो खेत में फसल उगाओ
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३१-७-२०१५
salil.sanjiv@gmail.com
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