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मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

कविता

कविता:
अपनी बात:
संजीव 
.
पल दो पल का दर्द यहाँ है 
पल दो पल की खुशियाँ है
आभासी जीवन जीते हम
नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया
वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता पीता सोता है जग
हाथ अंत में मलता है
खता हमारी इतनी ही है
हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर
गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना
श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी
साथ रास कब आता है
नोक-झोक, खींचा-तानी ही
मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी
जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा
सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें
न रोएँ हमको तो मुस्काना है
*
२३-४-२०१५

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
.
चल रहे पर अचल हम हैं
गीत भी हैं, गजल हम है
आप चाहें कहें मुक्तक
नकल हम हैं, असल हम हैं.
हैं सनातन, चिर पुरातन
सत्य कहते नवल हम हैं
कभी हैं बंजर अहल्या
कभी बढ़ती फसल हम हैं
मन-मलिनता दूर करती
काव्य सलिला धवल हम हैं
जो न सुधरी आज तक वो
आदमी की नसल हम हैं
गिर पड़े तो यह न सोचो
उठ न सकते निबल हम हैं
ठान लें तो नियति बदलें
धरा के सुत सबल हम हैं
कह रही संजीव दुनिया
जानती है सलिल हम हैं.
२३-४-२०१५
***

बाल काव्य लोरी

बाल काव्य 
लोरी 
*
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया 
*
सपनों में आएँगे कान्हा दुआरे 
'चल खेल खेलें' तुझको पुकारें
माखन चटाएँ, मिसरी खिलाएँ
जसुदा बलैयाँ लें तेरी गुड़िया
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
साथी बनेंगे तेरे ये तारे
छिप-छिप शरारत करते हैं सारे
कोयल सुनाएगी मीठी सी लोरी
सुंदर मिलेगी सपनों की दुनिया
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*

दोहा / द्विपदी

द्विपदी 
*
सबको एक नजर से कैसे देखूँ ?
आँखें भगवान् ने दो-दो दी हैं 

*
उनको एक नजर से ज्योंही देखा 
आँख मारी? कहा और पीट दिया 
*

दोहा

अपनी छवि पर मुग्ध हो, सैल्फी लेते लोग 
लगा दिया चलभाष ने, आत्म मोह का रोग
*

भोजपुरी कहावतें

कहावत सलिला:
भोजपुरी कहावतें:
*
कहावतें किसी भाषा की जान होती हैं.
कहावतें कम शब्दों में अधिक भाव व्यक्त करती हैं.
कहावतों के गूढार्थ तथा निहितार्थ भी होते हैं.

१. अबरा के मेहर गाँव के भौजी.
२. अबरा के भईंस बिआले कs टोला.
३. अपने मुँह मियाँ मीठू बा.
४. अपने दिल से जानी पराया दिल के हाल.
५. मुर्गा न बोली त बिहाने न होई.
२३.४.२०१०
*

भोजपुरी कहावतें

कहावत सलिला:
भोजपुरी कहावतें:
*
भोजपुरी कहावतें दी जा रही हैं. पाठकों से अनुरोध है कि अपने-अपने अंचल में प्रचलित लोक भाषाओँ, बोलियों की कहावतें भावार्थ सहित यहाँ दें ताकि अन्य जन उनसे परिचित हो सकें. .

१. पोखरा खनाचे जिन मगर के डेरा.
२. कोढ़िया डरावे थूक से.
३. ढेर जोगी मठ के इजार होले.
४. गरीब के मेहरारू सभ के भौजाई.
५. अँखिया पथरा गइल.
२३.४.२०१०
*

मुक्तिका

मुक्तिका :
संजीव 'सलिल' 
*
राजनीति धैर्य निज खोती नहीं. 
भावनाओं की फसल बोती नहीं..
*
स्वार्थ के सौदे नगद होते यहाँ.
दोस्ती या दुश्मनी होती नहीं..
*
रुलाती है विरोधी को सियासत
हारकर भी खुद कभी रोती नहीं..
*
सुन्दरी सत्ता की है सबकी प्रिया.
त्याग-सेवा-श्रम का सगोती नहीं..
*
दाग-धब्बों की नहीं है फ़िक्र कुछ.
यह मलिन चादर 'सलिल' धोती नहीं..
*

२३.४.२०१० 

लघुकथा जाति

लघुकथा 
जाति
*
_ बाबा! जाति क्या होती है? 
= क्यों पूछ रही हो? 
_ अखबारों और दूरदर्शन पर दलों द्वारा जाति के आधार चुनाव में प्रत्याशी खड़े किए जाने और नेताओं द्वारा जातिवाद को बुरा बताए जाने से भ्रमित पोती ने पूछा।
= बिटिया! तुम्हारे मित्र तुम्हारी तरह पढ़-लिख रहे बच्चे हैं या अनपढ़ और बूढ़े?
_ मैं क्यों अनपढ़ को मित्र बनाऊँगी? पोती तुनककर बोली।
= इसमें क्या बुराई है? किसी अनपढ़ की मित्र बनकर उसे पढ़ने-बढ़ने में मदद करो तो अच्छा ही है लेकिन अभी यह समझ लो कि तुम्हारे मित्रों में एक ही शाला में पढ़ रहे मित्र एक जाति के हुए, तुम्हारे बालमित्र जो अन्यत्र पढ़ रहे हैं अन्य जाति के हुए, तुम्हारे साथ नृत्य सीख रहे मित्र भिन्न जाति के हुए।
_ अरे! यह तो किसी समानता के आधार पर चयनित संवर्ग हुआ। जाति तो जन्म से होती है न?
= एक ही बात है। संस्कृत की 'जा' धातु का अर्थ होता है एक स्थान से अन्य स्थान पर जाना। जो नवजात गर्भ से संसार में जाता है वह जातक, जन्म देनेवाली जच्चा, जन्म देने की क्रिया जातकर्म, जन्म दिया अर्थात जाया....
_ तभी जगजननी दुर्गा का एक नाम जाया है।
= शाबाश! तुम सही समझीं। बुद्ध द्वारा विविध योनियों में जन्म या अवतार लेने की कहानियाँ जातक कथाएँ हैं।
_ यह तो ठीक है लेकिन मैं...
= तुम समान आचार-विचार का पालन कर रहे परिवारों के समूह और उनमें जन्म लेनेवाले बच्चों को जाति कह रही हो। यह भी एक अर्थ है।
_ लेकिन चुनाव के समय ही जाति की बात अधिक क्यों होती है?
= इसलिए कि समान सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों में जुड़ाव होता है तथा वे किसी परिस्थिति में समान व्यवहार करते हैं। चुनाव जीतने के लिए मत संख्या अधिक होना जरूरी है। इसलिए दल अधिक मतदाताओं वाली जाति का उम्मीदवार खड़ा करते हैं।
_ तब तो गुण और योग्यता के कोई अर्थ ही नहीं रहा?
= गुण और योग्यता को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुने जाएँ तो?
_ समझ गई, दल धनबल, बाहुबल और संख्याबल को स्थान पर शिक्षा, योग्यता, सच्चरित्रता और सेवा भावना को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुनें तो ही अच्छे जनप्रतिनिधि, अच्छी सरकार और अच्छी नीतियाँ बनेंगी।
= तुम तो सयानी हो गईं हो बिटिया! अब यह भी देखना कि तुम्हारे मित्रों की भी हो यही जाति।
***
संवस
२३-४-२०१९

लघुकथा नोटा

लघुकथा
नोटा 
*
वे नोटा के कटु आलोचक हैं। कोई नोटा का चर्चा करे तो वे लड़ने लगते। एकांगी सोच के कारण उन्हें और अन्य राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं के केवल अपनी बात कहने से मतलब था, आते भाषण देते और आगे बढ़ जाते।
मतदाताओं की परेशानी और राय से किसी को कोई मतलब नहीं था। चुनाव के पूर्व ग्रामवासी एकत्र हुए और मतदान के बहिष्कार का निर्णय लिया और एक भी मतदाता घर से नहीं निकला।
दूरदर्शन पर यह समाचार सुन काश, ग्रामवासी नोटा का संवैधानिक अधिकार जानकर प्रयोग करते तो व्यवस्था के प्रति विरोध व्यक्त करने के साथ ही संवैधानिक दायित्व का पालन कर सकते थे।
दलों के वैचारिक बँधुआ मजदूर संवैधानिक प्रतिबद्धता के बाद भी अपने अयोग्य ठहराए जाने के भय से मतदाताओं को नहीं बताना चाहते कि उनका अधिकार है नोटा।
*
संवस
२३-४-२०१९

सोमवार, 22 अप्रैल 2019

गीत

एक रचना
शीश उठा शीशम हँसे
*
शीश उठा शीशम हँसे,
बन मतदाता आम
खटिया खासों की खड़ी
हुआ विधाता वाम
*
धरती बनी अलाव
सूरज आग उगल रहा
नेता कर अलगाव
जन-आकांक्षा रौंदता
मुद्दों से भटकाव
जन-शिव जहर निगल रहा
द्वेषों पर अटकाव
गरिमा नित्य कुचल रहा

जनहित की खा कसम
कहें सुबह को शाम
शीश उठा शीशम हँसे
लोकतंत्र नाकाम
*
तनिक न आती शर्म
शौर्य भुनाते सैन्य का
शर्मिंदा है धर्म
सुनकर हनुमत दलित हैं
अपराधी दुष्कर्म
कर प्रत्याशी बन रहे
बेहद मोटा चर्म
झूठ बोलकर तन रहे

वादे कर जुमला बता
कहें किया है काम
नोटा चुन शीशम कहे
भाग्य तुम्हारा वाम
*

कला त्रयोदशी छंद

छंद सलिला 
२९ मात्रिक महायौगिक जातीय कला त्रयोदशी छंद 
*
विधान : 
प्रति पद प्रथम / विषम चरण १६ कला (मात्रा)
प्रति पद  द्वितीय / सम चरण १३ कला 
नामकरण संकेत: कला १६,   त्रयोदशी तिथि १३ 
यति  १६ -  १३ पर, पदांत गुरु । 
*
लक्षण छंद: 
कला कलाधर से गहता जो, शंकर प्रिय तिथि साथी।   
सोलह-तेरह पर यति सज्जित, फागुन भंग सुहाती।। 
उदाहरण :
शिव आभूषण शशि रति-पति हँस, कला सोलहों धारता। 
त्रयोदशी पर व्रत कर  चंदा,  बाधा-संकट टारता।।
तारापति रजनीश न भूले, शिव सम देव न अन्य है। 
कालकूट का ताप हर रहा, शिव सेवा कर धन्य है।। 
***

समीक्षा सकारात्मक सूक्तियाँ हीरो वाधवानी

विश्ववाणी हिंदी संस्थान
अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४
---------------
कृति चर्चा:
सकारात्मक अर्थपूर्ण सूक्तियाँ : नवाशा का सूर्य उगाती कृति
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति परिचय: सकारात्मक अर्थपूर्ण सूक्तियाँ, सूक्ति संकलन, हीरो वाधवानी, प्रथम संस्करण, २०१७, आई एस बी एन ९७८९३८७६२२१११, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १६८, मूल्य ३००/-, अयन प्रकाशन दिल्ली, लेखक संपर्क- wadhwanihiro@yahoo.com ]
*
साहित्य वही है जिसमें सबका हित समाहित हो। यदि पर अपना हर कार्य परखा जाए कोई विवाद, द्वेष, झगड़ा आदि ही न हो। सब विवादों का मूल कारन एक ही है कि हम चाहते की सब हमारे मनोनुकूल कार्य करें किन्तु हम खुद किसी अन्य के मन का कार्य नहीं करते। 'तू-तू मैं-मैं घर में हो या बाहर', उसकी जड़ एक ही होती है कि 'मैं' और 'तू' मिलकर 'हम' नहीं हो पाते। नीर-क्षीर की तरह मिलकर समरस हो सकें तो सब टकराव आरंभ होने के पूर्व ही अपने आप समाप्त हो।
'मैं'-'तू' यदि 'हम' हो सकें, 'तू-तू-मैं-मैं' छोड़।
'मैं'-'तू' 'तू'-'मैं' 'हम' बनें, नाहक करें न होड़।।

इस जीवन सूत्र को साकार करने के लिए भाई हीरो वाधवानी ने संक्षिप्त विचार-मणियों को माला रूप में गूंथते हुए यह पुस्तक तैयार की है। यह पुस्तक सांसारिक परिस्थितियों से तालमेल बैठा पाने में असमर्थ, खुद को किसी योग्य न समझ रहे दिग्भ्रमित मनुष्यों में नवशा का संचार कर सकने की क्षमता रखती है। निराशा के महासागर में डूबकर खुद को कुछ भी कर पाने में असमर्थ मनुष्यों को यह कृति अवश्य पढ़नी चाहिए। 'इंसान दिन में सौ बार से भी अधिक बार मुस्कुरा सकता है पर आँसू बीस बार भी नहीं बहा सकता।', 'दुःख का कारण? बुरे विचार और अभद्र कार्य।', 'मिल-जुलकर रहने वालों के घर में रोज त्यौहार होता है।', 'वाद्य यंत्रों को बजानेवाला उन्हें जीवित कर जुबान देता है।', 'समुद्र चाहे कितना भी बड़ा हो वह माता-पिता के प्यार और आशीर्वाद से बड़ा नहीं हो सकता। ' जैसी सूक्तियाँ सामान्य पाठक को नई जीवन दृष्टि दे सकती हैं।

आधुनिक जीवन शैली अधिकाधिक आरामतलब होने की प्रवृत्ति पैदा कर रहे हैं। फलत:, बच्चे और किशोर आलसी होकर अनेक रोगों के शिकार हो रहे हैं। हीरो जी कहते हैं- 'अधिक परिश्रम से शरीर मजबूत होता है, गलता, घिसता और टूटता नहीं।' एक अन्य सूक्ति है 'सप्ताह भर बाहर सवेरे उठने का मतलब है उपहार में एक दिन अधिक पाना।'

हम सब किसी न किसी आदत या लत के शिकार होते हैं- 'बुरी आदतें अपराधी की तरह होती हैं, नियम और कानून तोड़ती हैं।', 'आदतें शेर से गीदड़ जैसे कार्य करती हैं।' पढ़कर कुटैव से मुक्ति पाई जा सकती है।'

सूक्तियों का सरल, सहज और बोधगम्य हिंदी में होना उनकी उपयोगिता में वृद्धि करता है। हीरो वाधवानी जी के इस समाजोपयोगी कार्य की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। मेरा एक सुझाव है कि कृति को रोचक बनाने के लिए सूक्तियों को गद्य में रखने के साथ-साथ उनका पद्यान्तरण (दोहा, सोरठा आदि) भी साथ ही दिया जाए। इससे सूक्तियों की स्मरणीयता बढ़ेगी। ऐसी जीवन सूक्त विद्यालयों, सभागारों, उद्यानों, रास्तों के किनारे की दीवारों आदि पर लिखी जाएँ तो सामाजिक जीवन और मानवीय आचरण में सुधार ला सकती हैं।
***
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com

रविवार, 21 अप्रैल 2019

सूचनाएँ

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​इकाई स्थापना आमंत्रण
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पाठक पंचायत
प्रत्येक इकाई को हर माह संस्थान द्वारा चयनित एक पुस्तक निशुल्क (अधिक प्रतियां ५०% छूट पर) भेजी जाएगी। संस्थान के सदस्य इसे पढ़कर उस पर चर्चा करेंगे तथा प्रतिवेदन / समीक्षा केंद्रीय कार्यालय को भेजेंगे।
------------------------- 'सार्थक लघुकथाएँ' २०१८ -----------------------
चयनित लघुकथाकारों की २-२ प्रतिनिधि लघु कथाएँ २ पृष्ठों पर चित्र, पते सहित सहयोगाधार पर प्रकाशित की जा रही हैं। संकलन पेपरबैक होगा। आवरण बहुरंगी, मुद्रण अच्छा होगा। सहभागिता के इच्छुक लघुकथाकार ४ लघुकथाएँ, चित्र, पता, चलभाष, ईमेल व सहमति ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com या roy. kanta@gmail.com पर अविलंब भेजें। यथोचित संपादन हेतु सहमत सहभागी रचनाएँ स्वीकृत होने के बाद मात्र ३००/- सहभागिता निधि पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में अथवा बैंक ऑफ़ इण्डिया, राइट टाउन शाखा जबलपुर IFSC- BKDN ०८११११९, लेखा क्रमांक १११९१०००२२४७ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com तथा roy.kanta@gmail.com पर ईमेल करें। अब तक सम्मिलित लघुकथाकार अरुण अर्णव खरे, अरुण शर्मा, अर्चना मिश्र, अर्विना गहलोत, अविनाश ब्योहार, अशोक मनवानी, आशीष दलाल, इंद्रबहादुर श्रीवास्तव, उपमा शर्मा, ऊषा भदौरिया, ओमप्रकाश क्षत्रिय, कालीपद प्रसाद, घनश्याम मैथिल'अमृत', चंद्रा सायता, चंद्रेश छ्तलानी, चितरंजन मित्तल, ज्योति शर्मा, नीना छिब्बर, नेहा नाहटा जैन, पंकज जोशी, पदम गोधा, पवन जैन, प्रदीप कुमार शर्मा, प्रभात दुबे, प्रीति प्रवीण खरे, प्रेरणा गुप्ता, मार्टिन जॉन, बसंत शर्मा, मालती महावर बसंत, मिथिलेश बड़गैया, मिन्नी मिश्रा, मुक्ता अरोरा, मुज़फ़्फ़र इक़बाल सिद्दीकी, मौसमी परिहार, मृणाल आशुतोष, राजकुमार निजात, रुपाली भारद्वाज, रूपेंद्र राज, रेणु गुप्ता, वंदना गुप्ता, वंदना सहाय, वर्षा ढोबले, विनोद कुमार दवे, विभा रश्मि, शोभित वर्मा, संजय पठाडे़ 'शेष’, सदानंद कवीश्वर, सरिता बघेला, सविता मिश्रा, सीमा भाटिया, सुनीता यादव, सुनीता मिश्रा, सुमन त्रिपाठी, सुरेश तन्मय, संपादन: संजीव वर्मा 'सलिल' - कांता राय। सम्पादक संपर्क ९४२५१८३२४४ या ९५७५४६५१४७। अतिरिक्त प्रतियाँ ५०% रियायत पर डाक व्यय निशुल्क सुविधा सहित मिलेंगी।
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भारतीय भाषा काव्य संकलन २०१९
युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच और विश्ववाणी हिंदी संस्थान शीघ्र ही भारतीय भाषा-बोलियों में समन्वय और सद्भाव की वृद्धि के लिए एक काव्य संकलन प्रकाशित कर रहे हैं। सहभागिता हेतु इच्छुक कवि अपनी श्रेष्ठ दस रचनाएँ अपने चित्र, व्यक्तिगत परिचय (नाम, जन्म तिथि, शिक्षा, साहित्यिक गुरु, लेखन विधाएँ, प्रकाशित कृतियाँ, उपलब्धि, पता, दूरभाष, चलभाष, ईमेल) यथा शीघ्र प्रेषित करें।सहभागिता निधि १५००/- सभी देशज बोलियों (भोजपुरी, अवधी, ब्रज, हरियाणवी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेलखण्डी, मालवी, निमाड़ी, मारवाड़ी, हाड़ौती, मेवाड़ी, मैथिली, कन्नौजी, बैंसवाड़ी, अंगिका, बज्जिका आदि) में लिखी रचनाएँ आमंत्रित हैं। अन्य प्रांतीय भाषाओँ की रचनाएँ देवनागरी लिपि में हिंदीअनुवाद सहित भेजें। हर सहभागी को ८ पृष्ठ दिए जाएँगे।
दोहा शतक मंजूषा
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान तथा आचार्य संजीव 'सलिल' व डॉ. साधना वर्मा के संपादन में दोहा शतक मंजूषा के ३ भाग दोहा-दोहा नर्मदा, दोहा सलिला निर्मला तथा दोहा दीप्त दिनेश का प्रकाशन कर सहयोगियों को भेजा जा चुका है। ८००/- मूल्य की ३ पुस्तकें (५००० से अधिक दोहे, दोहा-लेखन विधान, २५ भाषाओँ में दोहे तथा बहुमूल्य शोध-सामग्री) ५०% छूट पर पैकिंग-डाक व्यय निशुल्क सहित उपलब्ध हैं। इस कड़ी के भाग ४ "दोहा है आशा-किरण" में सहभागिता हेतु यथोचित संपादन हेतु सहमत दोहाकारों से १२० दोहे (चयनित १०० दोहे छपेंगे), चित्र, संक्षिप्त परिचय (जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक आदि) ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com पर आमंत्रित हैं। सहभागिता निधि ३०००/- उक्तानुसार भेजें। प्रत्येक सहभागी को गत ३ संकलनों की एक-एक प्रति तथा भाग ४ की ८ प्रतियाँ कुल ११ पुस्तकें दी जाएँगी। भाग ४ के संभावित सहभागी- सर्व श्री/श्रीमती विनीता श्रीवास्तव, इंजी. सुरेंद्र सिंह पवार, इंजी. देवेंद्र गोंटिया, संतोष शुक्ल ग्वालियर, मेधा नारायण लखनऊ, लता यादव कैलिफोर्निया, सुमन श्रीवास्तव, पूजा अनिल स्पेन, सविता तिवारी मारीशस, डॉ. रमन चेन्नई, त्रिलोचना कौर आदि हैं। नव दोहाकारों को दोहा लेखन विधान, मात्रा गणना नियम व मार्गदर्शन उपलब्ध है।
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प्रतिनिधि नवगीत : २०१८
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में 'प्रतिनिधि नवगीत: २०१८'' शीर्षक से प्रकाशनाधीन संकलन हेतु इच्छुक नवगीतकारों से एक पृष्ठीय ८ नवगीत चित्र, संक्षिप्त परिचय (जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक) सहभागिता निधि ३०००/- सहित आमंत्रित है। यथोचित सम्पादन हेतु सहमत सहभागी ३०००/- सहभागिता निधि पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में अथवा बैंक ऑफ़ इण्डिया, राइट टाउन शाखा जबलपुर IFSC- BKDN ०८११११९, लेखा क्रमांक १११९१०००२२४७ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com या roy.kanta@gmail.com पर ईमेल करें। । प्रत्येक सहभागी को ११ प्रतियाँ निशुल्क उपलब्ध कराई जाएँगी जिनका विक्रय या अन्य उपयोग करने हेतु वे स्वतंत्र होंगे। ग्रन्थ में नवगीत विषयक शोधपरक उपयोगी सूचनाएँ और सामग्री संकलित की जाएगी। देशज बोलिओं व हिंदीतर भारतीय भाषाओँ के नवगीत हिंदी अनुवाद सहित भेजें।
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शांति-राज स्व-पुस्तकालय योजना
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में नई पीढ़ी के मन में हिंदी के प्रति प्रेम तथा भारतीय संस्कारों के प्रति लगाव तभी हो सकता है जब वे बचपन से सत्साहित्य पढ़ें। इस उद्देश्य से पारिवारिक पुस्तकालय योजना आरम्भ की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत निम्न में से ५००/- से अधिक की पुस्तकें मँगाने पर मूल्य में ४०% छूट, पैकिंग व डाक व्यय निशुल्क की सुविधा उपलब्ध है। राशि अग्रिम पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में अथवा बैंक ऑफ़ इण्डिया, राइट टाउन शाखा जबलपुर IFSC- BKDN ०८११११९, लेखा क्रमांक १११९१०००२२४७ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com या roy.kanta@gmail.com पर ईमेल करें। इस योजना में पुस्तक सम्मिलित करने हेतु salil.sanjiv@gmail.com या ७९९९५५९६१८/९४२५१८३२४४ पर संपर्क करें।
पुस्तक सूची-
०१. मीत मेरे कविताएँ -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' १५०/-
०२. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत संग्रह -आचार्य संजीव 'सलिल' १५०/-
०३. कुरुक्षेत्र गाथा खंड काव्य -स्व. डी.पी.खरे -आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
०४. पहला कदम काव्य संग्रह -डॉ. अनूप निगम १००/-
०५. कदाचित काव्य संग्रह -स्व. सुभाष पांडे १२०/-
०६. Off And On -English Gazals -Dr. Anil Jain ८०/-
०७. यदा-कदा -उक्त का हिंदी काव्यानुवाद- डॉ. बाबू जोसफ-स्टीव विंसेंट
०८. Contemporary Hindi Poetry - B.P. Mishra 'Niyaz' ३००/-
०९. महामात्य महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' ३५०/-
१०. कालजयी महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' २२५/-
११. सूतपुत्र महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' १२५/-
१२. अंतर संवाद कहानियाँ -रजनी सक्सेना २००/-
१३. दोहा-दोहा नर्मदा दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१४. दोहा सलिला निर्मला दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१५. दोहा दिव्य दिनेश दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा ३००/-
१६. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
१७. The Second Thought - English Poetry - Dr .Anil Jain​ १५०/-
१८. प्रतिनिधि लघुकथाएँ -सं. सलिल-संजीव सलिल-कांता रॉय प्रकाशनाधीन
१९. सार्थक लघुकथाएँ -सं. संजीव सलिल-कांता रॉय प्रकाशनाधीन
२०. दोहा है आशा-किरण दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा प्रकाशनाधीन
***

मुक्तक, द्विपदी

द्विपदी 
*
तितलियाँ खुद-ब-खुद चूमेंगी हमें 
चल महकते फूल बनें, खिल जाएँ
मुक्तक
*
दर्पण में जिसको देखा वह बिम्ब मात्र था 
और उजाले में केवल साया पाया. 
जब-जब बाहर देखा तो पाया मैं हूँ. 
जब-कब भीतर झाँका तो उसको पाया

*
दर्पण में जिसको देखा वह बिम्ब मात्र था
और उजाले में केवल साया पाया.
जब-जब बाहर देखा तो पाया मैं हूँ. 
जब-कब भीतर झाँका तो उसको पाया

*

२१.४.२०१७ 

अंगिका दोहे

दोहे का रंग, अंगिका के संग: 
(अंगिका बिहार के अंग जनपद की भाषा, हिन्दी का एक लोक भाषिक रूप)
*
काल बुलैले केकरs, होतै कौन हलाल? 
मौन अराधे दैव कै, ऐतै प्रातः काल..
*
मौज मनैतै रात-दिन, होलै की कंगाल.
साथ न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?.
*
एक-एक के खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नीन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
*
कौन हमर रक्षा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सभ्भई हवै दलाल..
*
धूल झोंक दें आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित के नाटक रचैं, नेता निगलें माल..
***
२१-४-२०१०

हेमंत छंद

छंद सलिला:
हेमंत छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), यति बंधन नहीं।
लक्षण छंद:
बीस-बीस दिनों सूर्य दिख नहीं रहा
बदन कँपे गुरु लघु गुरु दिख नहीं रहा
यति भाये गति मन को लग रही सजा
ओढ़ ली रजाई तो आ गया मजा
उदाहरण:
१. रंग से रँग रही झूमकर होलिका
छिप रही गुटककर भांग की गोलिका
आयी ऐसी हँसी रुकती ही नहीं
कौन कैसे कहे क्या गलत, क्या सही?
२. देख ऋतुराज को आम बौरा गया
रूठ गौरा गयीं काल बौरा गया
काम निष्काम का काम कैसे करे?
प्रीत को यादकर भीत दौरा गया
३.नाद अनहद हुआ, घोर रव था भरा
ध्वनि तरंगों से बना कण था खरा
कण से कण मिल नये कण बन छा गये
भार-द्रव्यमान पा नव कथा गा गये
सृष्टि रचना हुई, काल-दिशाएँ बनीं
एक डमरू बजा, एक बाँसुरी बजी
नभ-धरा मध्य थी वायु सनसनाती
सूर्य-चंदा सजे, चाँदनी लुभाती
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
२१-४-२०१४

नवगीत क्यों भय खाते?

नवगीत:
संजीव 
.
बदलावों से क्यों भय खाते?
क्यों न 
हाथ, दिल, नजर मिलाते??
.
पल-पल रही बदलती दुनिया
दादी हो जाती है मुनिया
सात दशक पहले का तेवर
हो न प्राण से प्यारा जेवर
जैसा भी है सैंया प्यारा
अधिक दुलारा क्यों हो देवर?
दे वर शारद! नित्य नया रच
भले अप्रिय हो लेकिन कह सच
तव चरणों पर पुष्प चढ़ाऊँ
बात सरलतम कर कह जाऊँ
अलगावों के राग न भाते
क्यों न
साथ मिल फाग सुनाते?
.
भाषा-गीत न जड़ हो सकता
दस्तरखान न फड़ हो सकता
नद-प्रवाह में नयी लहरिया
आती-जाती सास-बहुरिया
दिखें एक से चंदा-तारे
रहें बदलते सूरज-धरती
धरती कब गठरी में बाँधे
धूप-चाँदनी, धरकर काँधे?
ठहरा पवन कभी क्या बोलो?
तुम ठहरावों को क्यों तोलो?
भटकावों को क्यों दुलराते?
क्यों न
कलेवर नव दे जाते?
.
जितने मुँह हैं उतनी बातें
जितने दिन हैं, उतनी रातें
एक रंग में रँगी सृष्टि कब?
सिर्फ तिमिर ही लखे दृष्टि जब
तब जलते दीपक बुझ जाते
ढाई आखर मन भरमाते
भर माते कैसे दे झोली
दिल छूती जब रहे न बोली
सिर्फ दिमागों की बातें कब
जन को भाती हैं घातें कब?
अटकावों को क्यों अपनाते?
क्यों न
पथिक नव पथ अपनाते?
***
२१.४.२०१५

बाला / रामवत छंद

ॐ 
छंद बहर का मूल है: ८ 
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SIS SIS S / SIS SIS SISS 
सूत्र: रररग।
दस वार्णिक पंक्ति जातीय बाला छंद।
सत्रह मात्रिक महासंस्कारी जातीय रामवत छंद।
बहर: फ़ाइलुं फ़ाइलुं फ़ाइलुं फ़े / फ़ाइलुं फ़ाइलुं फ़ाइलातुं ।
*
आप हैं जो, वही तो नहीं हैं
दीखते है वही जो नहीं हैं
*
खोजते हैं खुदी को जहाँ पे
जानते हैं वहाँ तो नहीं हैं
*
जो न बोला वही बोलते हैं
बोलते, बोलते जो नहीं हैं
*
माल को तौलते ही रहे जो
आत्म को तौलते वो नहीं
*
देश शेष क्या? पूछते हैं
देश में शेष क्या जो नहीं हैं
*
आद्म्मी देवता क्या बनेगा?
आदमी आदमी ही नहीं है
*
जोश में होश को खो न देना
देश में जोश हो, क्यों नहीं है?
***
SIS SIS SISS
आपका नूर है आसमानी
गायकी आपकी शादमानी
*
आपका ही रहा बोलबाला
लोच है, सोज़ है रातरानी
*
आसमां छू रहीं भावनाएँ
भ्रांत हों ही नहीं वासनाएँ
*
खूब हालात ने आजमाया
आज हालात को आजमाएँ
*
कोशिशों को मिली कामयाबी
कोशिशें ही सदा काम आएँ
*
आदमी के नहीं पास आएँ
हैं विषैले न वे काट खाएँ
***
२१.४.२०१७
***

नवगीत: इन्द्रप्रस्थ में

एक दोहा
*
हम तो हिंदी के हामी हैं, फूल मिले या धूल
अंग्रेजी को 'सलिल' चुभेंगे, बनकर शूल बबूल
*
नवगीत:
इन्द्रप्रस्थ में
.
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
कृष्णार्जुन
रणनीति बदल नित
करते हक्का-बक्का.
दुर्योधन-राधेय
मचलकर
लगा रहे हैं छक्का.
शकुनी की
घातक गुगली पर
उड़े तीन स्टंप.
अम्पायर धृतराष्ट्र
कहे 'नो बाल'
लगाकर जंप.
गांधारी ने
स्लिप पर लपका
अपनों का ही कैच.
कर्ण
सूर्य से आँख फेरकर
खोज रहा है छाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
द्रोणाचार्य
पितामह के सँग
कृष्ण कर रहे फिक्सिंग.
अर्जुन -एकलव्य
आरक्षण
माँग रहे कर मिक्सिंग.
कुंती
द्रुपदसुता लगवातीं
निज घर में ही आग.
राधा-रुक्मिणी
को मन भाये
खूब कालिया नाग.
हलधर को
आरक्षण देकर
कंस सराहे भाग.
गूँज रही है
यमुना तट पर
अब कौओं की काँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
मठ, मस्जिद,
गिरिजा में होता
श्रृद्धा-शोषण खूब.
लंगड़ा चढ़े
हिमालय कैसे
रूप-रंग में डूब.
बोतल नयी
पुरानी मदिरा
गंगाजल का नाम.
करो आचमन
अम्पायर को
मिला गुप्त पैगाम.
घुली कूप में
भाँग रहे फिर
कैसे किसको होश.
शहर
छिप रहा आकर
खुद से हार-हार कर गाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.

२१.४.२०१७ 

बुंदेली कहानी समझदारी

बुंदेली कहानी
समझदारी
*
आज-काल की नईं, बात भौर दिनन की है।
अपने जा बुंदेलखंड में चन्देलन की तूती बोलत हती।
सकल परजा भाई-चारे कें संगै सुख-चैन सें रैत ती।
सेर और बुकरियाँ एकई घाट पै पानी पियत ते।
राजा की मरजी के बगैर नें तो पत्ता फरकत तो, नें चिरइया पर फड़फड़ाउत ती।
सो ऊ राजा कें एक बिटिया हती।
बिटिया का?, कौनऊ हूर की परी घाईं, भौतऊ खूबसूरत।
बा की खूबसूरती को कह सकत आय?
जैसे पूरनमासी में चाँद, दीवारी में दिया जोत की सी, जैंसे दूद में झाग।
ऐंसी खिलंदड जैसे नर्मदा और ऊजरी जैंसे गंगा।
जब कभूं राजकुँवरि दरबार में जात तीं तौ दरबार जगमगान लगत तो।
राजकुँवरि के रूप और गुनन कें बखान सें सकल परजा को सर उठ जात तो।
एक सें बढ़के एक राजा, जागीरदार अउर जमींदार उनसें रिश्ते काजे ललचात रैत ते।
मनो राजकुँवरि कौनऊ के ढिंगे आँख उठा के भी नें हेरत ती।
जब कभऊं राजदरबार में कछू बोलत ती तो मनो बीना कें तार झनझना जाउत ते।
राजा के मूं लगे दरबारन नें एक दिना हिम्मत जुटा कहें राजा साब सें कई।
"महाराज जू! बिटिया रानी सयानी भई जात हैं।
उनके ब्याह-काज कें लाने बात करो चाही।
समय जात देर नईं लगत, बात-चीत भओ चहिए।''
दरबारन की बातें कान में परतई राजकुँवरि के गालन पे टमाटर घाईं लाली छा गई।
राजकुँवरि के नैन नीचे झुक गए हते।
राजा साहब ने जा देख कें अनुमान कर लओ कि दरबारी ठीकई कै रए।
राजकुँवरि ने परदे की ओट सें कई -''दद्दा जू! हुसियार राजा कहें अपनेँ वफादार दरबारन की बात सुनों चाही।''
राजा साब नें अचरज के साथ राजकुँवरि की तरफ हेर खें कई ''हम सोई ऐंसई सोचत रए। ''
''दद्दा जू! मनो ब्याह काजे हमरी एक शर्त है।
हम बा शर्त पूरी करबे बारे सें ब्याह करो चाहत हैं।"
अब तो महाराज जू और दरबारां सबईं खों जैसे साँप सूंघ गओ।
बेटी जू के मूं सें सरत को नाम सुनतई राजा साब और दरबारी सब भौंचक्के रए गए।
कोई ने सोची नईं हती के राजकुँवरि ऐसो कछू बोल सकत ती।
सबरे जाने सोच में पर गए कि राजकुँवरि कछू ऐसो-वैसो नें कै दें।
कहूँ उनकी कई पूरी नें कर पाए तो का हुईहै?
राजकुँवरि नें सबखों चुप्पी लगाए देख खें आपई कई।
"आप औरन खों परेसान होबे की कौनऊ जरूरत नईआ।''
अब राजा साब ने बेटी जू सें कई- "बेटी जू! अपुन अपुनी सरत बताओ तें हम सब अपुन की सरत पूरी करबे में कछू कोर-कसार नें उठा रखबी।"
अब बेटी जु ने संकुचाते-संकुचाते अपनी सरत बताबे खातिर हिम्मत जुटाई और बोलीं-
"दद्दा जू! हम ऐसें वर सें ब्याह करो चाहत हैं जो चाहे गरीब हो या अमीर, गोरो होय चाए कारो, पढ़ो-लिखो होय चाए अनपढ़, लंगड़ो होय चाए लूलो पै बो बैठ खें उठ्बो नें जानत होय।"
बेटी जू सें ऐंसी अनोखी सरत सुन खें दरबारन खों दिमाग चकरा गओ।
आप राजा साब सोई कछू नें समझ पा रए थे।
मनो राजा साब राजकुँवरि की समझदारी के कायल हते।
सबई दारबारन खों सोच-बिचार में डूबो देख राजा जू नें तुरतई राज घराने कें पुरोहित खें बुला लाबे काजे एक चिठिया ले कें खबास खें भेज दओ।
पंडज्जी और खबास खों आओ देख कें महाराज जू नें एक चिट्ठी दे कें आदेस दओ-
"तुम दोउ जनें देस-बिदेस घूम-घूम खें जा मुनादी कराओ और कौनऊ ऐसे खों पता लगैयों जो बैठ खें उठाबो नें जानत होए।"
तुमें जिते ऐसो कौनऊ जोग बार मिले जो बैठ खें उठ्बो नेब जानत होय, उतई बेटी जू का ब्याह तय कर अइयो।
उतई बेटू जु के ब्याओ काजे फलदान को नारियल धर अइयो।
राजा साब की आज्ञा सुनकें पंडज्जी और खबास दोई जनें देसन-देसन कें राजन लौ गए।
बे हर जगू बिन्तवारी करत गए मनो निरासा हाथ लगत गई।
बे जगूं-जगूं कैत गए "जून राजकुंवर बैठ खें उठ्बो नें जानत होय ओई के संगे अपनी राजकुंवरि का फलदान करबे काजे आये हैं।"
बे जिते-जिते गए, उतई नाहीं को जवाब मिलत गओ।
कहूँ-कहूँ राजा लोग कयें 'जे कैसी अजब सर्त सुनात हो?
राजकुंवरि खें ब्याओ करने हैं कि नई?
पंडज्जी और खबास घूमत-घूमत थक गए।
महीनों पे महीने निकारत गए मनो बात नई बनीं।
सर्त पूरी करबे बारो कौनौ राजकुमार नें मिलो।
आखिरकार बिननें थक-हार कर बापिस होबे को फैसला करो।
आखिरी कोसिस करबे बार बे आखिरी रजा के ढींगे गए।
इतै बी सर्त सुन कें राजदर्बाराब और राजा ने हथियार दार दै।
दोऊ झनें लौटन लगे तबई राजकुमार बाहर सें दरबार में पधारे।
उनने पूरी बात जानबे के बाद रजा साब सें अरज करी-
" महाराज जू! आज लॉन अपने दरबार सें कौनऊ मान्गाबे बारो खली हात नई गओ है।
पुरखों को जस माटी में मिलाए से का फायदा?
अपने देस जाके और रस्ते में जे दोनों जगू-जगू अपन अपजस कहत जैहें।
ऐसें बचबे को एकई तरीको है।
आप जू इन औरन की बात रख लेओ।
आपकी अनुमत होय तो मैं इन राजकुमारी की सर्त पूरी करे के बाद ब्याओ कर सकत।"
जा सुन खें महाराज जू और दरबारी पैले तो संकुचाये कि बे ओरन कछू राह नई निकार पाए।
कम अनुभवी राजकुमार नें रास्ता खोज लओ।
अपनें राजकुमार की होसियारी पे भरोसा करखें महाराज जू नें कई-
" कुंवर जू! अपनी बात पे भरोसा कर खें हम फलदान रख लेंत हैं, मनो हमाओ सर नें झुकइयो।
काये कि सर्त पूरी नें भई तो राजकुमारी मुस्किल में पड़ जैहें।
राज कुमार ने कई "आप हमाओ भरोसा करकें फलदान ले लेओ मगर हमरी सोई एक सर्त है।
अब सबरे दरबारी, रजा, पंडज्जी और खबास चकराए।
अब लौ एकई सर्त पूरीनें हो रई हती, अब एक और सर्त का चक्कर कैसे सुलझेगो?
महाराज नें पूछी तो राजकुमार नें सर्त बताई।
महाराज आप जेई कागज़ पे एक संदेस लिख कें पठा दें।
हमाई सरत है कि राजकुमारी की सरत पूरी करबे के काजे हमाओ राजकुमार तैयार है।
मनो अकेले बे ऊ राजकुमारी सें ब्याओ कर्हें जो परके टरबो नें जानत होय।'
जो राजकुमारी खों जे सर्त स्वीकार होय तो बो अपनी हामी के संगे अपने पिताजू सें फलदान पठा देवें।
राजकुँवर सें हामी भरवाखें पंडज्जी और खवास दोउ जनों ने जान की खैर मनाई।
बे दोनों सारदा मैया की जय कर अपने राज खों लौट चले।
राजा के लिंगा लौट खें पुरोहित नें पूरो हालचाल बताओ।
पुरोहित नें कई "महाराज! हम दोउ जनें कहूँ रुकें बिना दिन-रात दौरतई रए।
पैले एक तरफ सें आगे बढ़े हते।
हौले-हौले देस-बिदेस कें सबई राजा जनों के दरबार में जात गए।
मनो अकेलीं बेटी जू की सर्त पूरी करे काजे कौनऊ राजकुमार नें हामी नई भरी।
हर जगूं सुरु-सुरु में भौत उत्साह सें न्योटा लऔ जात।
मनो सर्त की बात सामने आतेई बिनकों सांप सूंघ जात तो।
आखर में हम दोऊ निरास हो खें अपने परोसी राजा कने गए।
बिनने हुलास सें स्वागत-सत्कार करो।
जैसेई सर्त की बात भई सबकें मूं उतर गए।
राजा और दरबारी तो चुप्पै रए गए।
हम औरन नें सोचीं के खाली हात वापिस होबे के सिवाय कौनौ चारो नईयाँ।
मनो बुजुर्ग ठीकई कै गए हैं मन सोची कबहूँ नई, प्रभु सोची तत्काल।
हमाई बिदाई होते नें होते राजकुंवर जू दरबार में पधार गए।
कुँवर जू ने सारी बात ध्यान सें सुनी, कछू देर सोचो और सर्त के लाने हामी भर दई।
मनों अपनी तरफ सें एक सर्त और धर दई।
एं कौन सी सर्त? कैसी सर्त? महाराज जू नें हडबडा खें पूछी।
बतात हैं महाराज! बा सर्त बी बड़ी बिचित्र है।
कुँवर नें कई के बें ऐसी स्त्री सें ब्याओ करहें जोन पर खें टरबो नईं जानत होय।
नें मानो तो अपुन जू जा कागज़ खों बांच लेओ।
जा कागज में सब कछू लिखा दओ है कुँवर नें।
जा सर्त जान खें महाराज और दरबानी परेसान हते।
कौनौ खें समझ मीन कौनऊ रास्ता नें सूझो।
महाराज ने राजकुँवरी खें बुला भेजो।
बे अपनी सखियाँ खें संगे अमराई में हतीं।
महाराज जू को संदेसा मिलो तो तुरतई दरबार कें लाने चल परीं।
राजकुँवरी ने जुहार कर अपनी जगह पे पधार गईं।
महाराज नें कौनौ भूमिका बनाए बिना पंडज्जी सें कई के बा कागज़ बांच देओ।
पंडत नें राजा कें हुकुम का पालन कर्खें बा कागज़ झट सें बांच दओ।
बामें लिखी सर्त सुन खें राजकुँवरी हौले सें मुसक्या दईं और सरम सें सर झुका लओ।
जा देख खें सबई की जान में जान आई।
महाराज नें पूछी तो राजकुँवरी नें धीरे सें कै दई के बे जा सर्त पूरी कर सकत हैं।
फिर का हती, बिटिया रानी की हामी सुनतई पंडत नें तुरतई रजा जी सें कई 'अब बिलम्ब केहि कारज कीजे ?'
रजा जू पंडत खों मतलब समझ गए और बोले- श्री गनेस जू का ध्यान कर खें मुहूर्त बताओ।
पंडज्जी तो ए ई औसर की तलास में हते।
बिनने झट से पोथा-पत्तर निकारो और मुहूरत बता दओ।
राजा नें महारानी खें बुलाबा भेजो और उन रजामंदी सें संदेश निमंत्रण पत्रिका लिखा दई।
पत्रिका में लिखो हतो के आप जू अपने राजकुंवर की बारात लें खें अमुक तिथि खों पधारें।
कवास खें आदेस दओ के जा पत्रिका राजा साब जू खें धिंगे पौन्चाओ।
खवास तो ऐई मौके की टाक माँ हतो।
जानत तो दोऊ जगू मोटी बखसीस मिलहै।
पत्रिका पहुँचतई दोऊ राजन के महलन में ब्याओ की तैयारियां सुरु हो गईं।
लिपाई-पुताई, चौक पुराई, गाने-बजाने, आबे-जाबे औए मेहमानन के सोर-सराबे से चहल-पहल हो गई।
दसों दिसा में भोर सें साँझ लौ मंगाल गान गूंजन लगे।
जैसेंई ब्याओ की तिथि आई बैसेई राजा जू अपने कुँवर साब खों दुल्हा बना खें पूरे फ़ौज-फांटे के संगे चल परे। समधी की राज में बिनकी खूबई आवभगत भई।
जनवासे में बरात की अगवानी की गई।
बेंड़नी खों नाच देखबे के खातिर लोग उमड़ परे।
बरातियों खों पेट भर जलपान और भोजन कराओ गओ।
जहाँ-तहाँ सहनाई और ढोल-बतासे बजट हते।
बरात की अगवानी भई, पलक पांवड़े बिछा दए गए।
सजी-धजी नारियाँ स्वागत गीत गुंजात तीं।
नाऊ और खवास बरातियन की मालिस करत हते।
ज्योनार कें समै कोकिलकंठों से ज्योनार गीत और गारी सुन-सुन खें बराती खूबई मजा लेत ते।
बरात उठी तो बाकी सोभा कही नें जात ती।
हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल सब अपनी मस्ती में मस्त हते।
ढोल, मंजीरा, ताशा, बिगुल, शहनाई के सँग नाच-गाना की धूम हती।
मंडवा तरे भांवरन की तैयारी होन लगी।
मंडवा तरे राजकुमारी, राजकुमार दूल्हा-दुलहन के काजे रखे पटा पे बिराजे।
दोउ राजा जू, रानीजू, नजीकी रिस्तेदार दास-दासियाँ, पंडज्जी और खवास सबै आस-पास बैठे हते।
बन्ना-बन्नी गीत गूंजत हते।
चारों तरफी हल्ला-गुल्ला, चहल-पहल, उत्साह हतो।
अब जैसेईं तीं भांवरें पड़ चुकीं, बैसेई कन्या पक्ष को पुरोहित खड़ो हो गओ।
वर पक्ष के पंडज्जी सें बोलो 'नेंक रुक जाओ पंडज्जी!
अपुन दोऊ जनन खों मालुम है कै ब्याओ होबे के काजे कछू शर्तें हतीं।
पैले उनका खुलासा हो जावे, तब आगे की भाँवरें पारी जैहें।
फिर बानें कुँवर जू सें कई "कुँवर जू! पैले अपुन बतावें के बेटी जू नें कौन सी सर्त रखी हती?
अपुन जा सोई बताएँ के बा सर्त कब-कैंसें पूरी कर सकत?"
जा बात सुनतेई दुल्हा बने राजकुमार झट सें खड़े हो गए।
बे बोले स्यानन कें बीच में जादा बोलबो ठीक नईयाँ।
अपनी अकल के माफिक मैं जा समझो के राजकुमारी जी ने सर्त रखी हती के बै ऐसो बर चाउत हैं जो बैठ कें उठबो नें जानत होय।
जा सर्त में राजकुमारी जू की जा इच्छा छिपी हती के उनको बर जानकार, अकलमंद, कुल-सीलवान, सुन्दर, औए बलसाली भओ चाही।
ई इच्छा का कारन जे है के कौनऊ सभा में, कौनऊ मुकाबले में ओ खों कौउ हरा नें सकें।
बिद्वान सें बिद्वान जन हों चाए ताकतवर लोग कौनऊ बाखों हरा खें उठा नें पावे।
सबै जगा बाकी जीत को डंका पिटो चाही।
ओके जीतबे से राजकुमारी जू को सर हमेसा ऊँचो रहेगो।
राजकुमारी अपने वर के कारन नीचो नई देखो चाहें।
बे जब चाहे, जैसे चाहें आजमा सकत आंय। "
दूल्हा राजा के चुप होतई पंडज्जी ने राजकुमारी से पूछो- 'काय बिटिया जू! तुमाई सर्त जोई हती के कछू और हती?"
जा सुन कें राजकुमारी नें हामी में सर हिला दओ।
मंडवा कें नीचे बैठे सबई जनें राजकुमार की अकाल की तारीफ कर कें वाह, वाह कै उठे।
जा के बाद राजकुमार को पुरोहित खडो हो गओ।
पुरोहित नें खड़े हो खें कही 'हमाए राजकुमार ने भी एक सर्त रखी हती।
अब राजकुमारी जू बताबें के बा सर्त का हती और बे कैसे पूरी कर सकत हैं?'
ई पै राजकुमारी लाज और संकोच सें गड़ सी गईं, मनो धीरे से सिमट-संकुच कें खड़ी भईं।
कौनऊ और चारा नें रहबे से बिन्ने जमीन को ताकत भए मंडवा के नीचे बैठे बड़ों-बुजुर्गों से अपने बात रखे के काजे आज्ञा माँगी।
आज्ञा मिलबे पर धीमी लेकिन साफ़ आवाज़ में कई 'राजकुँवर की सर्त जा हती के बें ऐसी स्त्री सें ब्याओ करो चाहत हैं जौन पर खें टरबो नईं जानत होय।'
हम सर्त से जा समझें के राजकुमार नम्र और चतुर पत्नी चाहत हैं।
ऐंसी पत्नी जो घरब के सब काम-काज जानत होय।
ऐंसी पत्नी जो कामचोर और आलसी नें होय।
जो घर के सब बड़ों को अपने रूप, गुण, सील और काम-काज सें प्रसन्न रख सके।
ऐसो नें होय के जब दोउ जनें परबे खों जांय तो कछू छूटो काम याद आने से उठनें परे।
ऐसो भी ने होय कि बड़ो-बूढ़ों परबे या उठबे के बाद कौनौ बात की सिकायत करे और घर में कलह हो।
राजकुमार ऐंसी सुघड़ घरबारी चाहत हैं जो कमरा में आ कें परे तो कौनऊ कारन सें उठबो नें जानें।
राजकुमार जब - जैसे चाहें परीक्छा ले लें।
दुल्हन के चुप होतई पुरोहित ने राजकुमार से पूछो- 'काय कुँवर जू! तुमाई सर्त जोई हती के कछू और हती?"
जा सुन कें राजकुमार नें अपनी रजामंदी जता दई।
मंडवा कें नीचे बैठे सबई लोग-लुगाई और सगे-संबंधी ताली बजाओं लगै।
राजकुंवरी और राजकुमार की समझदारी नें सबई खों मन मोह लओ हतो।
पंडज्जी और पुरोहित नें दोऊ पक्षों के सर्त पूरी होबे की मुनादी कर दई।
राजकुँवर मंद-मंद मुसक्या रए हते।
राजकुमारी अपने गोर नाज़ुक पैर के अंगूठे सें गोबर लिपा अँगना कुरेदत हतीं।
उनकें गोरे गालन पे लाली सोभायमान हती।
पंडज्जी और पुरोहित जी ने अगली भांवर परानी सुरु कर दई।
सब जनें भौत खुस भये कि दुल्हा-दुल्हन एक-दूसरे के मनमाफिक आंय।
सबसे ज्यादा खुसी जे बात की हती के दोऊ के मन में धन-संपत्ति और दहेज को लोभ ना हतो।
दोऊ जनें गुन और सील को अधिक महत्व देखें संतोस और एक-दूसरे की पसंद को ख्याल रख कें जीवन गुजारन चाहत ते।
सब जनों ने भांवर पूरी होबे पर दूल्हा-दुल्हिन और उनके बऊ-दद्दा खों खूब मुबारकबाद दई।
इस ब्याव के पैले सबई जन घबरात हते कि "बैठ कें उठबो नें जानन बारो" वर और "पर खें टरबो नईं जानन बारी बहू" कहाँ सें आहें?
असल में कौनऊ इन शर्तों का मतलबई नें समझ पाओ हतो।
आखिर में जब सब राज खुल गओ तो सबनें चैन की सांस लई।
इनसे समझदार मोंड़ा-मोंडी हर घर में होंय जो धन की जगू गुन खों चाहें।
तबई देस और समाज को उद्धार हुइहै।
राजकुमारी और राजकुमार को भए सदियाँ गुजर गईं मनों आज तक होत हैं चर्चे उनकी समझदारी के।
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