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सोमवार, 28 जनवरी 2019

समीक्षा: सड़क पर -अमरेंद्र नारायण


पुस्तक चर्चा-

'सड़क पर'- आशा और कर्मठता का संदेश

अमरेंद्र नारायण
भूतपूर्व महासचिव
एशिया पैसिफिक कम्युनिटी बैंकाक
*
[कृति विवरण: सड़क पर, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा सलिल, प्रथम संस्करण २०१८, आकार १३.५ से.मी. x २१.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८ ]
*

'सड़क पर' अपने परिवेश के प्रति सजग-सतर्क प्रसिद्ध कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी रचित सहज संवेदना की अभिव्यक्ति है। सलिल जी भावुक, संवेदनशील कवि तो हैं हीं, एक अभियंता होने के नाते वे व्यावहारिक दृष्टि भी रखते हैं।
सलिल जी ने पुस्तक के आरंभ में माता-पिता को अपनी श्रद्धा अर्पित करते हुए लिखा है:

दीपक-बाती,

श्वास-आस तुम

पैर-कदम सम,

थिर प्रयास तुम

तुमसे हारी सब बाधाएँ

श्रम-सीकर,

मन का हुलास तुम

गयी देह, हैं

यादें प्यारी।

श्रद्धा, कृतज्ञता और कर्मठता की यही भावनाएँ विभिन्न कविताओं में लक्षित होती हैं। साथ-ही-साथ इन रचनाओं में आशावादिता है और कर्मठता का आह्वान भी-

आज नया इतिहास लिखें हम

अब तक जो बीता सो बीता

अब न आस-घट होगा रीता

अब न साध्य हो स्वार्थ-सुभीता

अब न कभी लांछित हो सीता

भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब

हया-लाज-परिहास लिखें हम

आज नया इतिहास लिखें हम।

पुस्तक में सड़क पर शीर्षक से ही ९ कवितायेँ संकलित है जो जीवन के विभिन्न रंगों को चित्रित करती हैं।

सड़क प्रगति और यात्रा का माध्यम तो है, पर सड़क पर तेज गति से चलने वाली गाड़ियाँ, पैदल चलने वालों को किनारे धकेल देती हैं और अपनी सहगामिनी गाड़ियों की प्रतिस्पर्धा में यातायात अवरुद्ध भी कर देती हैं।

प्रगति -वाहिनी सड़क विषमता का पोषण करती रही है। कवि का अंतर्मन इस कुव्यवस्था के विरोध में कह उठता है:

रही सड़क पर

अब तक चुप्पी

पर अब सच कहना ही होगा।

लेकिन कवि के अंतर में आशा का दीपक प्रज्वलित है:

कशिश कोशिशों की

सड़क पर मिलेगी

कली मिह्नतों की

सड़क पर खिलेगी

पर कवि कहता है कि आखिरकार, सड़क तो सबकी है-

सड़क पर शर्म है,

सड़क बेशरम है

सड़क छिप सिसकती

सड़क पर क्षरण है!

इन कविताओं में प्रेरणा का संदेश है और आत्म-परीक्षण का आग्रह भी।

यही आत्म-परीक्षण तो हमें अध्यात्म के आलोक-पथ की ओर ले जाता है-

आँखें रहते सूर हो गए

जब हम खुद से दूर हो गए।

खुद से खुद की भेंट हुई तो

जग-जीवन के नूर हो गए।

'सड़क पर' की कवितायेँ पाठक को आनंद तो देती ही हैं,उसे कुछ सोचने के साथ-साथ कुछ करने की भी प्रेरणा देती हैं। इस संकलन की कविताएँ पाठक की भाव -भूमि पर गहरा प्रभाव डालती हैं!

सलिल जी की इस आशावादिता को नमन।
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समीक्षक संपर्क: १०५५ रिज रोड, दक्षिण सिविल लाइंस जबलपुर ४८२००१, अनुडाक: amarnar@gmail.com




बुधवार, 23 जनवरी 2019

navgeet mili dihadi

नवगीत:
संजीव
*
मिली दिहाडी
चल बाजार
चावल-दाल किलो भर ले-ले
दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया-मिर्ची ताजी
तेल पाव भर फ़ल्ली का
सिंदूर एक पुडिया दे
दे अमरूद पांच का, बेटी की
न सहूं नाराजी
खाली जेब पसीना चूता
अब मत रुक रे!
मन बेजार
निमक-प्याज भी ले लऊँ तन्नक
पत्ती चैयावाली
खाली पाकिट हफ्ते भर को
फिर छाई कंगाली
चूड़ी-बिंदी दिल न पाया
रूठ न मो सें प्यारी
अगली बेर पहलऊँ लेऊँ
अब तो दे मुस्का री!
चमरौधे की बात भूल जा
सहले चुभते
कंकर-खार

navgeet ug rahe

नवगीत: 
संजीव 

उग रहे या ढल रहे तुम 
कान्त प्रतिपल रहे सूरज 
.
हम मनुज हैं अंश तेरे
तिमिर रहता सदा घेरे
आस दीपक जला कर हम
पूजते हैं उठ सवेरे
पालते या पल रहे तुम
भ्रांत होते नहीं सूरज
.
अनवरत विस्फोट होता
गगन-सागर चरण धोता
कैंसर झेलो ग्रहण का
कीमियो नव आस बोता
रश्मियों की कलम ले
नवगीत रचते मिले सूरज
.
कै मरे कब गिने तुमने?
बिम्ब के प्रतिबिम्ब गढ़ने
कैमरे में कैद होते
हास का मधुमास वरने
हौसले तुमने दिये शत
ऊगने फिर ढले सूरज
.

muktika aap manen

मुक्तिका
.
आप मानें या न मानें, सत्य हूँ किस्सा नहीं हूँ
कौन कह सकता है, हूँ इस सरीखा, उस सा नहीं हूँ
मुझे भी मालुम नहीं है, क्या बता सकता है कोई
पूछता हूँ आजिजी से, कहें मैं किस सा नहीं हूँ
साफगोई ने अदावत का दिया है दंड हरदम
फिर भी मुझको फख्र है, मैं छल रहा घिस्सा नहीं हूँ
हाथ थामो या न थामो, फैसला-मर्जी तुम्हारी
कस नहीं सकता गले में, आदमी- रस्सा नहीं हूँ
अधर पर तिल समझ मुझको, दूर अपने से न करना
हनु न रवि को निगल लेना, हाथ में गस्सा नहीं हूँ
निकट हो या दूर हो तुम, नूर हो तुम हूर हो तुम
पर बहुत मगरूर हो तुम, सच कहा गुस्सा नहीं हूँ
खामियाँ कम, खूबियाँ ज्यादा, तुम्हें तब तक दिखेंगी
मान जब तक यह न लोगे, तुम्हारा हिस्सा नहीं हूँ
.

navgeet baja bansuree

नवगीत: बजा बाँसुरी - 
*
बजा बाँसुरी
झूम-झूम मन...
*
जंगल-जंगल
गमक रहा है.
महुआ फूला
महक रहा है.
बौराया है
आम दशहरी-
पिक कूकी, चित
चहक रहा है.
डगर-डगर पर
छाया फागुन...
*
पियराई सरसों
जवान है.
मनसिज ताने
शर-कमान है.
दिनकर छेड़े
उषा लजाई-
प्रेम-साक्षी
चुप मचान है.
बैरन पायल
करती गायन...
*
रतिपति बिन रति
कैसी दुर्गति?
कौन फ़िराये
बौरा की मति?
दूर करें विघ्नेश
विघ्न सब-
ऋतुपति की हो
हे हर! सद्गति.
गौरा माँगें वर
मन भावन...
************

doha gazal basant

बासंती दोहा ग़ज़ल (मुक्तिका)
संजीव 'सलिल'
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..
नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..
ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..
घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..
***********************************

बासंती मुक्तक

मुक्तक 
*
श्वास-श्वास आस-आस झूमता बसन्त हो 
मन्ज़िलों को पग तले चूमता बसन्त हो 
भू-गगन हुए मगन दिग-दिगन्त देखकर 
लिए प्रसन्नता अनंत घूमता बसन्त हो
*
साथ-साथ थाम हाथ ख्वाब में बसन्त हो
अँगना में, सड़कों पर, बाग़ में बसन्त हो
तन-मन को रँग दे बासंती रंग में विहँस
राग में, विराग में, सुहाग में बसन्त हो
*
अपना हो, सपना हो, नपना बसन्त हो
पूजा हो, माला को जपना बसन्त हो
मन-मन्दिर, गिरिजा, गुरुद्वारा बसन्त हो
जुम्बिश खा अधरों का हँसना बसन्त हो
*
अक्षर में, शब्दों में, बसता बसन्त हो
छंदों में, बन्दों में हँसता बसन्त हो
विरहा में नागिन सा डँसता बसन्त हो
साजन बन बाँहों में कसता बसन्त हो
*
मुश्किल से जीतेंगे कहता बसन्त हो
किंचित ना रीतेंगे कहता बसन्त हो
पत्थर को पिघलाकर मोम सदृश कर देंगे
हम न अभी बीतेंगे कहता बसन्त हो
*
सत्यजित न हारेगा कहता बसन्त है
कांता सम पीर मौन सहता बसंत है
कैंसर के काँटों को पल में देगा उखाड़
नर्मदा निनादित हो बहता बसन्त है
*
मन में लड्डू फूटते आया आज बसंत
गजल कह रही ले मजा लाया आज बसंत
मिली प्रेरणा शाल को बोली तजूं न साथ
सलिल साधना कर सतत छाया आज बसंत
*
वंदना है, प्रार्थना है, अर्चना बसंत है
साधना-आराधना है, सर्जना बसंत है
कामना है, भावना है, वायदा है, कायदा है
मत इसे जुमला कहो उपासना बसंत है
*

muktak

मुक्तक 
*
देश है पहले सियासत बाद में। 
शत्रु मारें; हो इनायत बाद में।।
बगावत को कुचल दें हम साथ मिल-
वार्ता की हो रवायत बाद में।।
*
जगह दहशत के लिये कुछ है नहीं।
जगह वहशत के लिए कुछ है नहीं।।
पत्थरों को मिले उत्तर गनों से -
जगह रहमत के लिए कुछ है नहीं।।
*
सैनिकों को टोंकना अपराध है।
फ़ौज के पग रोकना अपराध है।।
पठारों को फूल मत दें शूल दें-
देश से विद्रोह भी अपराध है।।
*

मुक्तिका: रात

मुक्तिका:
रात
संजीव
( तैथिक जातीय पुनीत छंद ४-४-४-३, चरणान्त sssl)

चुपके-चुपके आयी रात
सुबह-शाम को भायी रात
झरना नदिया लहरें धार
घाट किनारे काई रात
शरतचंद्र की पूनो है
'मावस की परछाईं रात
आसमान की कंठ लंगोट
चाहे कह लो टाई रात                                                                                                                                                                    पर्वत जंगल धरती तंग                                                                                                                                                                      कोहरा-पाला लाई रात
वर चंदा तारे बारात
हँस करती कुडमाई रात
दिन है हल्ला-गुल्ला-शोर
गुमसुम चुप तनहाई रात

नवगीत सड़क पर

नवगीत
सड़क पर
*
सड़क पर
सिसकती-घिसटती 
हैं साँसें।
*
इज्जत की इज्जत
यहाँ कौन करता?
हल्ले के हाथों
सिसक मौन मरता।
झुठला दे सच,
अफसरी झूठ धाँसे।
जबरा यहाँ जो
वही जीतता है।
सच का घड़ा तो
सदा रीतता है।
शरीफों को लुच्चे
यहाँ रोज ठाँसें।
*
सौदा मतों का
बलवा कराता।
मज़हबपरस्तों
को, फतवा डरता।
सतत लोक को तंत्र
देता है झाँसे।
*
यहाँ गूँजते हैं
जुलूसों के नारे।
सपनों की कोशिश
नज़र हँस उतारे।
भोली को छलिए
बिछ जाल फाँसें।
*
विरासत यही तो
महाभारती है।
सत्ता ही सत को
रही तारती है
राजा के साथी
हुए हाय! पाँसे।
*
२०.१.२०१८

गीत

गीतः 
सुग्गा बोलो 
जय सिया राम...
सन्जीव
*
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
*
काने कौए कुर्सी को
पकड़ सयाने बन बैठे
भूल गये रुकना-झुकना
देख आईना हँस एँठे
खिसकी पाँव तले धरती
नाम हुआ बेहद बदनाम...
*
मोहन ने फिर व्यूह रचा
किया पार्थ ने शर-सन्धान
कौरव हुए धराशायी
जनगण सिद्‍ध हुआ मतिमान
खुश मत हो, सच याद रखो
जन-हित बिन होगे गुमनाम...
*
हर चूल्हे में आग जले
गौ-भिक्षुक रोटी पाये
सांझ-सकारे गली-गली
दाता की जय-जय गाये
मौका पाये काबलियत
मेहनत पाये अपना दाम...
*
१३-७-२०१४

दोहा मुक्तिका

दोहा मुक्तिका
*
हर संध्या संजीव हो, स्वप्नमयी हो रात।
आँख मिलाकर ज़िंदगी, करे प्रात से बात।।
*
मंजूषा मन की रहे, स्नेह-सलिल भरपूर।
द्वेष न कर पाए कभी, सजग रहें आघात।।
*
ऋतु बसंत की आ रही, झूम मंजरी शाख।
मधुरिम गीत सुना रही, दे कोयल को मात।।
*
जब-जब मन उन्मन हुआ, तुम ही आईं याद।
सफल साधना दे गई, सपनों की सौगात।।
*
तन्मय होकर रूप को, आराधा दिन-रैन।
तन तनहा ही रह गया. चुप अंतर्मन तात।।
*
संजीव
२३.१.२०१९

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

गीत: सबरी माला

एक रचना 
सबरीमाला 
*
सबरीमाला केंद्र है, 
जनगण के विश्वास का। 
नर-नारी के साम्य का,
ईश्वर के अहसास का
*
जो पतितों को तारता,
उससे दूर न कोई रहे-
आयु-रंग प्रतिबंध न हो,
हर जन हरिजन व्यथा कहे।।
अन्धकार में देवालय
स्रोत अनंताभास का
*
बना-बदलता परंपरा,
मानव जड़ता ठीक नहीं।
लिंग-भेद हो पूजा में,
सत्य ठीक यह लीक नहीं।
राजनीति ही कारन है,
मानव के संत्रास का
*
पोंगापंथी दूर करें,
एक समान सभी संतान।
अन्धी श्रद्धा त्याज्य सखे!
समता ईश्वर का वरदान।।
आरक्षण कारण बनता
सदा विरोधाभास का
***
२०-१-२०१९
संजीव, ७९९९५५९६१८

मुक्तक

मुक्तक
*
देश है पहले सियासत बाद में।
शत्रु मारें; हो इनायत बाद में।।
बगावत को कुचल दें हम साथ मिल-
वार्ता की हो रवायत बाद में।।
*
जगह दहशत के लिये कुछ है नहीं।
जगह वहशत के लिए कुछ है नहीं।।
पत्थरों को मिले उत्तर गनों से -
जगह रहमत के लिए कुछ है नहीं।।
*
सैनिकों को टोंकना अपराध है।
फ़ौज के पग रोकना अपराध है।।
पठारों को फूल मत दें शूल दें-
देश से विद्रोह भी अपराध है।।
*
२२.१.२०१९

समीक्षा: सड़क पर -संतोष शुक्ल

पुस्तक चर्चा
*
''सडक़ पर'' नवगीत संग्रह, गीतकार-आचार्य संजीव वर्मा ' सलिल '
संतोष शुक्ल
*

आचार्य संजीव वर्मा ' सलिल ' जी का नाम नवीन छंदों के निर्माण तथा उनपर गहनता से कये गए कार्यों के लिए प्रबुद्ध जगत में बड़े गौरव से लिया जाता है। माँ भारती के वरदपुत्र आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल 'जी को अथस्रोतञान का भण्डार मानो उन्हें विरासत में मिला हो। स्वयं आचार्य सलिल जी अपनी बुआश्री महादेवी वर्मा और अपनी माँ कवियत्री शांति देवी को साहित्य और भाषा के प्रति अटूट स्नेह का प्रेरणा श्रोत मानते हैं। जिनकी रग-रग में संस्कारों के बीज बचपन से ही अंकुरित, प्रस्फुटित और पल्लवित हुए हों उनकी प्रतिभा का आकलन करना सरल काम नहीं।

सलिल जी आभासी जगत में भी अपनी निरंतर साहित्यिक उपलब्धियों से साहित्य प्रमियों को लाभान्वित कर रहे हैं। अभियंता और अधिवक्ता होते हुए भी हिंदी की कोई भी विधा नहीं है जिस पर आचार्य जी ने गहनता से कार्य न किया हो। रस, अलंकार और छंद का गहन ज्ञान उनकी कृतियों में स्पष्ट दिखाई देता है। विषय वस्तु की दृष्टि से कोई विषय उनकी लेखनी से बचा नहीं है। रचनाओं पर उनकी पकड़ गहरी है। हर क्षेत्र का अनुभव उसी रूप में बोलता है जिससे पाठक और श्रोता उसी परिवेश में पहुंच जाता है। हिन्दी के साथ साथ बुन्देली, पचेली, भोजपुरी, ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी तथा अंग्रेजी भाषा में भी आपने लेखन कार्य किया है।

उनकी पूर्व प्रकाशित नवगीत कृति 'काल है संक्रांति की 'उद्भट समीक्षकों द्वारा की गई समीक्षाओं को पढ़कर ही पता चलता है कि आचार्य सलिल जी ज्ञान के अक्षय भण्डार हैं अनन्त सागर हैं। आचार्य सलिल जी की सद्य प्रकाशित 'सड़क पर' मैंने अभी-अभी पढ़ी है। 'सड़क पर' नवगीत संग्रह में गीतकार सलिल जी ने देश में हो रहे राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों को स्पष्ट रूप से दर्शाया है। उनके नवगीतों में भाग्य के सहारे न रहकर परिश्रम द्वारा लक्ष्य प्राप्त करने पर सदैव जोर दिया है।छोटे छोटे शब्दों द्वारा बड़े बड़े संदेश दिये हैं और चेतावनी भी दी है। कहीं अभावग्रसित होने के कारण तो कहीं अत्याधुनिक होने पर प्यार की खरीद फरोख्त को भी उन्होंने सृजन में उकेरा है।आजकल शादी कम और तलाक ज्यादा होते हैं, यह भी आधुनिकता का एक चोला है।

इसके अतिरिक्त सलिल जी ने एक और डाइवोर्स की बात लिखी है-
निष्ठा ने मेहनत से
डाइवोर्स चाहा है।

आगे भी-
मलिन बिंब देख -देख
मन दर्पण
चटका है

आजकल बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता। सलिल जी के शब्दों में-
पद -मद ने रिश्वत का
टैक्स फिर उगाहा है ।

पाश्चात्य के प्रभाव में लोगों को ग्रसित देख गीतकार का हृदय व्यथित है-
देह को दिखाना ही
प्रगति परिचायक है
मानो लगी होड़
कौन कितना सकता है छोड़।

प्रभाव के कारण ही लोग अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में असहाय छोड़ कर अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेते हैं। अपने पुराने स्वास्थ्य वर्धक खान-पान को भूलकर हानिकारक चीजों को शौक से खाते हैं। एक शब्द-चित्र देखिए-

ब्रेड बटर बिस्कुट
मन उन्मन ने
गटका है।
अब
लोरी को राइम ने
औंधे मुँह पटका है

इसी क्रम में-
नाक बहा,टाई बाँध
अंग्रेजी बोलेंगे
कब कान्हा गोकुल में
शायद ही डोलेंगे।

आजकल शिक्षा बहुत मँहगी हो गई है।उच्च शिक्षा प्राप्त युवक नौकरी की तलाश इधर- उधर भटकते हैं। बढ़ती बेरोजगारी पर भी आचार्य जी ने चिंता व्यक्त की है।शायद ही कोई ऐसा विषय है जिस पर सलिल जी की पैनी दृष्टि न पड़ी हो।

आचार्य जी के नवगीतों के केंद्र में श्रमजीवी श्रमिक है। चाहे वह खेतों में काम करनेवाला किसान हो,फैक्ट्रियों में काम करनेवाला श्रमिक या दिनभर पसीना बहाने वाला कोई मजदूर जो अथक परिश्रम के बाद भी उचित पारिश्रमिक नहीं पाता तो दूसरी ओर मिल मालिक, सेठों,सूदखोरों की तोंद बढ़ती रहती है। देखिए-
चूहा झाँक रहा हंडी में
लेकिन पाई
सिर्फ हताशा

यह भी देखने में आता है
जो नही हासिल
वही चाहिए
जितनी आँखें
उतने सपने

समाज के विभिन्न पहलुओं पर बड़ी बरीकी से कलम चलाई है। घर में काम वाली बाइयों, ऑफिस में सहकर्मियों तथा पास पड़ोस में रहने वाली महिलाओं के प्रति पुरुषों की कुदृष्टि को भी आपने पैनी कलम का शिकार बनाया है।

आज भले ही लगभग सभी क्षेत्रों में अपना वर्चस्व स्थापित कर रही हैं फिर भी मध्यम और सामान्य वर्ग की महिलाओं की स्थिति अभी भी बहुत अच्छी नहीं है। कार्यरत महिलाओं को दोहरी भूमिका निभाने के बाद भी ताने, प्रताड़ना और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।

सलिल जी के शब्दों में-

मैंने पाए कर कमल,तुमने पाए हाथ
मेरा सर ऊँचा रहे झुके तुम्हारा माथ

सलिल जी ने नवगीतों में विसंगतियों को खूब उकेरा है।कुछ उदाहरण देखते हैं-

आँखें रहते सूर हो गए
जब हम खुद से दूर हो गए

मन की मछली तन की तितली
हाथ न आई पल में फिसली
जब तक कुर्सी तब तक ठाट
नाच जमूरा नाच मदारी

मँहगाई आई
दीवाली दीवाला है
नेता हैं अफसर हैं
पग-पग घोटाला है

आजादी के इतने वर्षों बाद भी गाँव और गरीबी का अभी भी बुरा हाल है लेकिन गीतकार का कहना है-

अब तक जो बीता सो बीता
अब न आस घट होगा रीता
मिल कर काटें तम की कारा
उजियारे के हों पौ बारा
बहुत झुकाया अब तक तूने
अब तो अपना भाल उठा

मनभावन सावन के माध्यम से जहाँ किसानों की खुशी का अंकन किया है वहीं बरसात में होने वाली समस्याओं को भी चित्रित किया है। आचार्य जी ने नये नये छंदों की रचना कर अभिनव प्रयोग किया है। सलिल जी ने नवगीतों में परिवेश की सजीवता बनाए रखने के लिए उन्होंने घरों में उपयोग में आने वाली वस्तुओं, रिश्तों के सम्बोधनों आदि का ही प्रयोग किया है। संचार क्रांति के आने से लोगों में कितना बदलाव आया है उसकी चिंता भी गीतकार को है-

हलो हाय मोबाइल ने
दिया न हाय गले मिलने
नातों को जीता छलने

आचार्य ' सलिल 'जी ने गीतों-नवगीतों में लयबद्धता पर विशेष जोर दिया है। लोकगीतों में गाये जाने वाले शब्दों, छंदों, अन्य भाषाओं के शब्दों, नये-नये बिंबों तथा प्रतीकों का निर्माण कर लोगों के लिए सड़क पर भी फुटपाथ बनाये हैं। जो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। 'सड़क पर' गीत नवगीत संग्रह में अनेकानेक छोटे-छोटे बिंदुओं को अंकित किया है, उन सब को इंगित करना असंभव है। सलिल जी ने ' सड़क पर ' गीत-नवगीत संग्रह में सड़क को केंद्र बिंदु बनाकर जीवन के अनेकानेक पहलुओं को बड़ी कुशलता से चित्रित किया है-

सड़क पर जनम है
सड़क पर मरण है
सड़क पर शरम है
सड़क बेशरम है
सड़क पर सियासत
सड़क पर भजन है
सड़क सख्त लेकिन
सड़क ही नरम है
सड़क पर सड़क से
सड़क मिल रही है।

आचार्य संजीव वर्मा ' सलिल 'जी ने अपनी सभी रचनाओं में माँ नर्मदा के वर्चस्व को सदा वर्णित किया है तथा 'सलिल' को अपनी रचनाओं में भी यथासंभव प्रयुक्त किया है। माँ नर्मदा के पावन निर्मल सलिल की तरह आचार्य 'सलिल 'जी भी सदा प्रवहमान हैं और सदा रहेंगे। उनकी इस कृति को पाठकों का भरपूर मान, सम्मान और प्यार मिलेगा ऐसा मेरा विश्वास है।
**********

सोमवार, 21 जनवरी 2019

समीक्षा- हाइकु संग्रह -मंजूषा मन

कृति परिचय:
अभिनव प्रयोग: हाइकु संग्रह की हाइकु समीक्षा
''मैं सागर सी'' हाइकु-ताँका लहरों की मंजूषा
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: मैं सागर सी, हाइकु-ताँका संग्रह, मंजूषा मन, प्रथम संस्करण, २०१७, आकर डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ९५, मूल्य १४०/-, प्रकाशक पोएट्री बुक बाजार, एफ एफ १६७९ लेखराज तौर, इंदिर नगर लखनऊ २२६०१६, कृतिकार संपर्क- कार्यक्रम अधिकारी, अंबुजा सीमेंट फाउंडेशन, ग्राम खान,  बाजार छत्तीसगढ़ ४९३३३१]
*
जापानी छंद / पाँच साथ औ' पाँच / वर्ण हाइकु।
"मैं सागर सी" / रुचिकर संग्रह / पठनीय भी।
प्रकृति नटी / छवियाँ अनुपम / मन मोहित।
निहित लय / संगीत की धुन सी / लगती प्रिय।
भाव-सागर / मंथन नवनीत / हाइकु - ताँका।
"करूँ वंदन" / प्रभु का सुमिरन / सह नमन।
मन की व्यथा / किए है समाहित / "पीर हमारी"।
हाइकु रचे / गागर में सागर / प्रिय मंजूषा।
जीवनानुभव / माला  के पुष्प सम / हुए शब्दित।
"शीशे का दिल / करें चकनाचूर / कड़वे बोल।" -पृष्ठ २९
"शोर मचाती / अधूरी कामनाएँ / चाहें पूर्णता।" -पृष्ठ ३१
"आँसुओं सींची / ये धरती बंजर / फूटा अंकुर।" -पृष्ठ ३४
मंजूषा मन / सम्यक शब्द-धनी / हुईं सफल।
"मन-साँकल / तुम खोलो आकर / सुख के पल।" -पृष्ठ ३५
निकलते हैं / अब नहीं गुलाब / पुस्तिकाओं से।
चलभाष का / बढ़ता प्रचलन / न भाए उन्हें।
लिखतीं तभी / हो दुखी हाइकु में / मंजूषा मन-
"किताब मेरी / लौटाई, थी उसमें / याद तेरी।" -पृष्ठ ३८
"मन न रँगा / रँग-रँग हारे तो / घरौंदा रँगा।" -पृष्ठ ४०
अनुभूतियाँ / सघन पिघलकर / बनीं हाइकु।
"साँस धौंकनी / चले अनवरत / आस झुलसे। -पृष्ठ ४५
"मन के भाव / कविता का रूप ले / बने लगाव।" -पृष्ठ ४८
गहराई है / विस्तार-ऊँचाई भी / हाइकुओं में।
जीवन दृष्टि / किए हैं समाहित / ये त्रिपदियाँ।
"फेंक आये हैं / सपनों की गठरी / बोझ बड़ा था।" -पृष्ठ ४८
"प्रकृति-रूप" / हाइकुकार को ही / बनाता भूप।
"नन्हीं गौरैया / तिनका चुनकर / संसार रचे।" -पृष्ठ ५७
"गुलमोहर / मन-बगिया फूला / जीवन झूला।'-पृष्ठ ६२
भारतीयता / भावनाओं का सिंधु / नवता घोले।
हाइकु पढ़े / उन्मन मन शांत / होकर डोले।
"अनजाने ही / जुड़ा मन का नाता / आपके संग।" -पृष्ठ ७१
हैं अनुभवी / आँखों ने पढ़ लिया / मन का दर्द।
नहीं बिसरी / स्वच्छता भारत की / हाइकुकार को।
सामाजिकता / सामयिकता भी है / नव आभा ले।
"अभियान ये / स्वच्छ भारत चला / हँसी धरती।' -पृष्ठ ८४
पढ़-गुनिए / ताँका छंद दे रहे / खूब आनंद।
"पगडंडी पे / मन झूमता जाए / खुशियाँ पाए।
और ये अचानक / दुःख कहाँ से आए?"         --पृष्ठ ८९
भाषा शैली है / यथोचित ही / हाइकुओं की।
शब्द-चयन / सम्यक-सटीक है / आनंद मिला।
आँसू-मुस्कान / छाँव-धूप सरीखी / है घुली-मिली।
 पठनीयता / सहज-सरलता / विशेषता है।
अपनापन / लुटा रहा है हर / हाइकु-ताँका।
जैसे बृज में / लीला कर रहा हो / कन्हैया बाँका।
"मैं सागर सी" / है सरस-सफल / आस जगाती।
मंजूषा मन / हिंदी काव्य भंडार / समृद्ध करें।

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समीक्षाकार संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, अनुडाक: salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४।
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रविवार, 20 जनवरी 2019

sabari mala

एक रचना 
सबरीमाला 
*
सबरीमाला केंद्र है, 
जनगण के विश्वास का। 
नर-नारी के साम्य का,
ईश्वर के अहसास का
*
जो पतितों को तारता,
उससे दूर न कोई रहे-
आयु-रंग प्रतिबंध न हो,
हर जन हरिजन व्यथा कहे।।
अन्धकार में देवालय
स्रोत अनंताभास का
*
बना-बदलता परंपरा,
मानव जड़ता ठीक नहीं।
लिंग-भेद हो पूजा में,
सत्य ठीक यह लीक नहीं।
राजनीति ही कारन है,
मानव के संत्रास का
*
पोंगापंथी दूर करें,
एक समान सभी संतान।
अन्धी श्रद्धा त्याज्य सखे!
समता ईश्वर का वरदान।।
आरक्षण कारण बनता
सदा विरोधाभास का
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२०-१-२०१९
संजीव, ७९९९५५९६१८