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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

समीक्षा

कृति चर्चा:

अल्पना अंगार पर - रामकिशोर दाहिया

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
नदी के कलकल प्रवाह, पवन की सरसराहट और कोयल की कूक की लय जिस मध्र्य को घोलती है वह गीतिरचना का पाथेय है। इस लय को गति-यति, बिंब-प्रतीक-रूपक से अलंकृत कर गीत हर सहृदय के मन को छूने में समर्थ बन जाता है। गति और लय को देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप नवता देकर गीत के आकाशी कथ्य को जमीनी स्पर्श देकर सर्वग्राह्य बना देता है नवगीत। अपने-अपने समय में जिसने भी पारम्परिक रूप से स्थापित काव्य के शिल्प और कथ्य को यथावत न स्वीकार कर परिवर्तन का शंखनाद किया और सृजन-शरों से स्थापित को स्थानच्युत कर परिवर्तित का अभिषेक किया वह अपने समय में नवता का वाहक बना। इस समय के नवताकारक सृजनधर्मियों में अपनी विशिष्ट भावमुद्रा और शब्द-समृद्धता के लिये चर्चित नवगीतकार रामकिशोर दाहिया की यह प्रथम कृति अपने शीर्षक 'अल्पना अंगार पर' में अन्तर्निहित व्यंजना से ही अंतर्वस्तु का आभास देती है। अंगार जैसे हालात का सामना करते हुए समय के सफे पर हौसलों की अल्पना  के नवगीत लिखना सब के बस का काम नहीं है।  

नवगीत को उसके उद्भव काल के मानकों और भाषिक रूप तक सीमित रखने के लिए असहमत रामकिशोर जी ने अपने प्रथम संग्रह में ही अपनी जमीन तैयार कर ली है। बुंदेली-बघेली अंचल के निवासी होने के नाते उनकी भाषा में स्थानीय लोकभाषाओं का पूत तो अपेक्षित है किन्तु उनके नवगीत इससे बहुत आगे जाकर इन लोकभाषाओं के जमीनी शब्दों को पूरी स्वाभाविकता और अधिकार के साथ अंगीकार करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि शब्दों के अर्थों से कॉंवेंटी पीढ़ी ही नहीं रचनाकार, शब्द कोष भी अपरिचित हैं इसलिए पाद टिप्पणियों में शब्दों के अर्थ समाविष्ट कर अपनी सजगता का परिचय देते हैं।

आजीविका से शिक्षक, मन से साहित्यकार और प्रतिबद्धता से आम आदमी की पीड़ा के सहभागी हैं राम किशोर, इसलिए इन नवगीतों में सामाजिक वैषम्य, राजनैतिक विद्रूपताएँ, आर्थिक विषमता, धार्मिक पाखंड और व्यक्तिगत दोमुँहेपन पर प्रबल-तीक्ष्ण शब्द-प्रहार होना स्वाभाविक है। उनकी संवेदनशील दृष्टि राजमार्गोन्मुखी न होकर पगडंडी के कंकरों, काँटों, गड्ढों और उन पर बेधड़क चलने वाले पाँवों के छालों, चोटों, दर्द और आह को केंद्र में रखकर रचनाओं का ताना-बाना बुनती है। वे माटी की सौंधी गंध तक सीमित नहीं रहते, माटी में मिले सपनों की तलाश भी कर पाते हैं। विवेच्य संग्रह वस्तुत: २ नवगीत संग्रहों को समाहित किये है जिन्हें २ खण्डों के रूप में 'महानदी उतरी' (ग्राम्यांचल के सजीव शब्द चित्र तदनुरूप बघेली भाषा)  और  'पाले पेट कुल्हाड़ी' (सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों से जुड़े नवगीत) शीर्षकों के अंतर्गत रखा गया है। २५-३० रचनाओं की स्वतंत्र पुस्तकें निकालकर संख्या बढ़ाने के काल में ४५ + ५३ कुल ९८ नवगीतों के  समृद्ध संग्रह को पढ़ना स्मरणीय अनुभव है। 

कवि ज़माने की बंदिशों को ठेंगे पर मारते हुए अपने मन की बात सुनना अधिक महत्वपूर्ण मानता है-
कुछ अपने दिल की भी सुन 
संशय के गीत नहीं बुन 

अंतड़ियों को खँगाल कर 
भीतर के ज़हर को निकाल 
लौंग चूस, जोड़े से चाब 
सटका दे, पेट के बबाल 
तंत्री पर साध नई धुन

लौंग को जोड़े से चाबना और तंत्री पर धुन साधना जैसे अनगिन प्रयोग इस कृति में पृष्ठ-पृष्ठ पर हैं। शिक्षक रामकिशोर को पर्यावरण की फ़िक्र न हो यह कैसे संभव है? 

धुआँ उगलते वाहन सारे 
साँसों का संगीत लुटा है

धूल-धुएँ से, हवा नहाकर 
बैठी खुले मुँडेरे 
नहीं उठाती माँ भी सोता 
बच्चा अलस्सवेरे 

छद्म प्रगति के व्यामोह में फँसे जनगण को प्रतीत हो रहे से सर्वथा विपरीत स्थिति से रू-ब-रू कराते हुए कवि अपना बेलाग आकलन प्रस्तुत करता है: 
आँख बचाकर 
छप्पर सिर की 
नव निर्माण उतारे 
उठती भूखी 
सुबह सामने 
आकर हाथ पसारे 

दिये गये 
संदर्भ प्रगति के 
उजड़े रैन बसेरे 

समाज में व्याप्त दोमुँहापन कवि की चिंता का विषय है: 
लोग बहुत हैं, धुले दूध के 
खुद हैं चाँद-सितारे 
कालिख रखते, अंतर्मन में 
नैतिक मूल्य बिसारे 

नैतिक मूल्यों की चिंता सर्वाधिक शिक्षक को ही होती है। शिक्षकीय दृष्टि सुधार को लक्षित करती है किन्तु कवि उपदेश नहीं देना चाहता, अत:,  इन रचनाओं में शब्द प्रचलित अर्थ के साथ विशिष्ट अर्थ व्यंजित करते हैं- 
स्वेद गिरकर देह से 
रोटी उगाता
ज़िंदगी के जेठ पर 
आजकल दरबान सी 
देने लगी है 
भूख पहरा पेट पर  

स्वतंत्रता के बाद क्या-कितना बदला? सूदखोर साहूकार आज भी किसानों के म्हणत की कमाई खा रहा है। मूल से ज्यादा सूद चुकाने के बाद भी क़र्ज़ न चुकाने की त्रासदी भोगते गाँव की व्यथा-कथा गाँव में पदस्थ और निवास करते संवेदनशील शिक्षक से कैसे छिप सकती है? व्यवस्था को न सुधार पाने और शोषण को मूक होकर  देखते रहने से उपजा असंतोष इन रचनाओं के शब्द-शब्द में व्याप्त है- 
खाते-बही, गवाह-जमानत 
लेते छाप अँगूठे 
उधार बाढ़ियाँ रहे चुकाते 
कन्हियाँ धाँधर टूटे 

भूखे-लाँघर रहकर जितना 
देते सही-सही 
जमा नहीं पूँजी में पाई 
बढ़ती ब्याज रही 

बने बखार चुकाने पर भी 
खूँटे से ना छूटे 

लड़के को हरवाही लिख दी 
गोबरहारिन बिटिया 
उपरवार महरारु करती 
फिर भी डूबी लुटिया 

मिले विरासत में हम बंधुआ 
अपनी साँसें कूते 

सामान्य लीक से हटकर रचे गए  नवगीतों में अम्मा शीर्षक गीत उल्लेखनीय है- 
मुर्गा बाँग न देने पाता 
उठ जाती अँधियारे अम्मा 
छेड़ रही चकिया पर भैरव 
राग बड़े भिन्सारे अम्मा 

से आरम्भ अम्मा की दिनचर्या में दोपहर कब आ जाती है पता ही नहीं चलता-
चौका बर्तन करके रीती 
परछी पर आ धूप खड़ी है 
घर से नदिया चली नहाने  
चूल्हे ऊपर दाल चढ़ी है 

आँगन के तुलसी चौरे पर 
आँचल रोज पसारे अम्मा  

पानी सिर पर हाथ कलेवा 
लिए पहुँचती खेत हरौरे 
उचके हल को लत्ती देने 
ढेले आँख देखते दौरे 

यह क्रम देर रात तक चलता है:
घिरने पाता नहीं अँधेरा 
बत्ती दिया जलाकर रखती
भूसा-चारा पानी - रोटी 
देर-अबेर रात तक करती 

मावस-पूनो ढिंगियाने को 
द्वार-भीत-घर झारे अम्मा 

ऐसा जीवन शब्द चित्र मानो पाठक अम्मा को सामने देख रहा हो। संवेदना की दृष्टि से श्री आलोक श्रीवास्तव की सुप्रसिद्ध 'अम्मा' शीर्षक ग़ज़ल के समकक्ष और जमीनी जुड़ाव में उससे बढ़कर यह नवगीत इस संग्रह की प्रतिनिधि रचना है। 

रामकिशोरजी सिर्फ शिक्षक नहीं अपितु सजग और जागरूक शिक्षक हैं। शिक्षक के प्राण शब्दों में बसते हैं। चूँकि शब्द ही उसे संसार और शिष्यों से जोड़ते हैं। विवेच्य कृति कृतिकार के समृद्ध शब्द भण्डार का परिचय पंक्ति-पंक्ति में देती है। एक ओर बघेली के शब्दों दहरा, लमतने, थूँ, निगडौरे, भिनसारे, हरौरे, ढिंगियाने, भीत, पगडौरे, लौंद, गादर, अलमाने, च्यांड़ा, चौहड़े, लुसुक, नेडना, उरेरे, चरागन, काकुन, डिंगुरे, तुरतुरी, खुम्हरी आदि को हिंदी के संस्कृतनिष्ठ शब्दों लौह्गामिनी, कीटविनाशी, दावानल, बड़वानल, वसुधा, व्योम, अनुगूँज, ऊर्जा, स्रोत, शिल्प, चन्द्रकला, अविराम, वृन्त, कुंतल, ऊर्ध्ववती, कपोल, समुच्चय, पारलौकिक, श्रृंगारित आदि को गले मिलते देखना आनंदित करता है तो  दूसरी ओर उर्दू के लफ़्ज़ों वज़ूद, सिरफिरी, सोहबत, दौलत, तब्दील, कंदील, नूर, शोहरत, सरहदों, बाजार, हुकुम, कब्ज़े, फरजी, पेशी, जरीब, दहशत, सरीखा, बुलंदी, हुनर, जुर्म, ज़हर, बेज़ार, अपाहिज, कफ़न, हैसियत, तिजारत, आदि को अंग्रेजी वर्ड्स पेपर, टी. व्ही., फ़ोकस, मिशन, सीन, क्रिकेटर, मोटर, स्कूल, ड्रेस, डिम, पावर, केस, केक, स्वेटर, डिजाइन, स्क्रीन, प्लेट, सर्किट, ग्राफ, शोकेस आदि के साथ हाथ मिलाते देखना सामान्य से इतर सुखद अनुभव कराता है।   

इस संग्रह में शब्द-युग्मों का प्रयोग यथावसर हुआ है। साही-साम्भर, कोड़ों-कुटकी, 'मावस-पूनो, तमाखू-चूना, काँदो-कीच, चारा-पानी, काँटे-कील, देहरी-द्वार, गुड-पानी, देर-अबेर, चौक-बर्तन, दाने-बीज, पौधे-पेड़, ढोर-डंगार, पेड़-पत्ते, कुलुर-बुलुर, गली-चौक, आडी-तिरछी, काम-काज, हट्टे-कट्टे, सज्जा-सिंगार, कुंकुम-रोली, लचर-पचर, खोज-खबर, बत्ती-दिया आदि गीतों की भाषा को सरस बनाते हैं। 

राम किशोर जी ने किताबी भाषा के व्यामोह को तजते हुए पारंपरिक मुहावरों दांत निपोरेन, सर्ग नसेनी, टेंट निहारना आदि के साथ धारा हुई लंगोटी, डबरे लगती रोटी, झरबेरी की बोटी, मन-आँगन, कानों में अनुप्रास, मदिराया मधुमास, विषधर वसन, बूँद के मोती, गुनगुनी चितवन, शब्दों के संबोधन, आस्था के दिये, गंध-सुंदरी, मन, मर्यादा पोथी, इच्छाओं के तारे, नदिया के दो ओंठ, नयनों के पतझर जैसी निजी अनुभूतिपूर्ण शब्दावली से भाषा को जीवंत किया है।       

बुंदेलखंड-बघेलखण्ड के घर-गाँव अपने परिवेश के साथ इस गहराई और व्यापकता के साथ उपस्थित हैं कि कोई चित्रकार शब्दचित्रों से रेखाचित्र की ओर बढ़ सके। कुछ शब्दों का संकेत ही पर्याप्त है यह इंगित करने के लिए कि ग्राम्य जीवन का हर पक्ष इन गीतों में है। निवास स्थल- द्वार, भीत, घर, टटिया, कछरा आदि, श्रृंगार- सेंदुर, कुंड़वा, कंघी, चुरिया महावर आदि, वाद्य- टिमकी, माँडल, ढोलक, मंजीर, नृत्य-गान- राई, करमा, फाग, कबीर, कजरी, राग आदि, वृक्ष-पौधे महुआ, आम, अर्जुन, सेमल, साल, पलाश, अलगोजे, हरसिंगार, बेल, तुलसी आदि, नक्षत्र- आर्द्रा, पूर्व, मघा आदि, माह- असाढ़, कातिक, भादों, कुंवार, जेठ, सावन, पूस, अगहन आदि, साग-सब्जी- सेमल, परवल, बरबटी, टमाटर, गाजर, गोभी, मूली, फल- आँवले, अमरुद, आम, बेल आदि, अनाज- उर्द, अरहर, चना, मसूर, मूँग, उड़द, कोदो, कुटकी, तिल, धान, बाजरा, ज्वार आदि, पक्षी- कबूतर, चिरैयाम सुआ, हरियर, बया, तितली, भौंरे आदि, अन्य प्राणी- छिपकली, अजगर, शेर, मच्छर सूअर, वनभैंसा, बैल, चीतल, आदि, वाहन- जीप, ट्रक, ठेले, रिक्शे, मोटर आदि , औजार- गेंती, कुदाल आदि उस अंचल के प्रतिनिधि है जहाँ की पृष्ठभूमि में इन नवगीतों की रचना हुई है. अत: इन गीतों में उस अंचल की संस्कृति और जीवन-शब्द में अभिव्यक्त होना स्वाभाविक है।       

उर्दू का एक प्रसिद्ध शेर है 'गिरते हैं शाह सवार ही मैदाने जंग में / वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले' कवि राम किशोर जी घुड़सवारी करने, गिरने और बढ़ने का माद्दा रखते हैं यह काबिले-तारीफ है। नवगीतों की बँधी-बँधाई लीक से हटकर उन्होंने पहली ही कृति में अपनी पगडंडी आप बनाने का हौसला दिखाया है। दाग की तरह कुछ त्रुटियाँ होना स्वाभविक है-

'टी. व्ही. के / स्क्रीन सरीखे 
सारे दृश्य दिखाया'... में वचन दोष, 

'सर्किट प्लेट / हृदय ने घटना 
चेहरे पर फिल्माया' तथा 

'बढ़ती ब्याज रही' में लिंग दोष है। लब्बो-लुबाब यह कि 'अल्पना अंगार पर' समसामयिक सन्दर्भों में नवगीत की ऐसी कृति है जिसके बिना इस दशक के नवगीतों का सही आकलन नहीं किया जा सकेगा। रामकिशोर जी का शिक्षक मन इस संग्रह में पूरी ईमानदारी से उपस्थित है-

'दिल की बात लिखी चहरे पर
चेहरा पढ़ना सीख'।  
७.१२.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - अल्पना अंगार पर, रचनाकार- रामकिशोर दाहिया, प्रकाशक- उद्भावना प्रकाशन, ए २१ झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया,  जी. टी.  रोड, शाहदरा दिल्ली ११००९५। प्रथम संस्करण- २००८, मूल्य- रूपये १००/-, पृष्ठ- १९२, समीक्षा- संजीव वर्मा सलिल, ISBN ९७८-९३-८०९१६-१६-३।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

चार दिन फागुन के- रामशंकर वर्मा

जगदीश पंकज 
धूप-छाँव की तरह सुख-दुःख, मिलन-विरह जीवन-सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं। इस सनातन सत्य से युवा गीतकार रामशंकर वर्मा सुपरिचित हैं। विवेच्य गीत-नवगीत संग्रह चार दिन फागुन के उत्सवधर्मी भारतीय जनमानस से पंक्ति-पंक्ति में साक्षात करता चलता है। ग्राम्य अनुभूतियाँ, प्राकृतिक दृष्यावलियाँ,  ऋतु परिवर्तन और जीवन के ऊँच-नीच को सम्भावेन स्वीकारते  आदमी इन गीतों में रचा-बसा है। गीत को  कल्पना प्रधान और नवगीत को यथार्थ प्रधान माननेवाले वरिष्ठ नवगीत-ग़ज़लकार मधुकर अष्ठाना के अनुसार ''जब वे (वर्मा जी) गीत लिखते हैं तो भाषा दूसरी तो नवगीत में भाषा उससे पृथक दृष्टिगोचर होती है।'' 

यहाँ सवाल यह उठता है कि गीत नवगीत का भेद कथ्यगत है, शिल्पगत है या भाषागत है? रामशंकर जी नवगीत की उद्भवकालीन मान्यताओं के बंधन को स्वीकार नहीं करते। वे गीत-नवगीत में द्वैत को नकारकर अद्वैत के पथ पर बढ़ते हैं। उनके किस गीत को गीत कहें, किसे नवगीत या एक गीत के किस भाग को गीत कहें किसे नवगीत यह विमर्श निरर्थक है।

गीति रचनाओं में कल्पना और यथार्थ की नीर-क्षीरवत संगुफित अभेद्य उपस्थिति अधिक होती है, केवल कल्पना या केवल यथार्थ की कम। कोई रचनाकार कथ्य को कहने के लिये किसी एक को अवांछनीय मानकर  रचना करता भी नहीं है। रामशंकर जी की ये गीति रचनाएँ निर्गुण-सगुण, शाश्वतता-नश्वरता को लोकरंग में रंगकर साथ-साथ जीते चलते हैं। कुमार रविन्द्र जी ने ठीक हे आकलन किया है कि इन गीतों में व्यक्तिगत रोमांस और सामाजिक सरोकारों तथा चिंताओं से समान जुड़ाव उपस्थित हैं।

रामशंकर जी कल और आज को एक साथ लेकर अपनी बात कहते हैं-
तरु कदम्ब थे जहाँ / उगे हैं कंकरीट के जंगल
रॉकबैंड की धुन पर / गाते भक्त आरती मंगल
जींस-टॉप ने/ चटक घाघरा चोली / कर दी पैदल 
दूध-दही को छोड़ गूजरी / बेचे कोला मिनरल
शाश्वत प्रेम पड़ा बंदीगृह / नए  उच्छृंखल

सामयिक विसंगतियाँ उन्हें  प्रेरित करती हैं-
दड़बे में क्यों गुमसुम बैठे / बाहर आओ
बाहर पुरवाई का लहरा / जिया जुड़ाओ
ठेस लगी तो माफ़ कीजिए / रंग महल को दड़बा कहना
यदि तौहीनी / इसके ढाँचे बुनियादों में
दफन आपके स्वर्णिम सपने / इस पर भी यह तुर्रा देखो
मैं अदना सा / करूँ शान में नुक्ताचीनी

रामशंकर जी का वैशिष्ट्य दृश्यों को तीक्ष्ण भंगिमा सहित शब्दित कर सकना है -
रेनकोटों / छतरियों बरसतियों की
देह में निकले हैं पंख / पार्कों चिड़ियाघरों से
हाईवे तक / बज उठे / रोमांस के शत शंख
आधुनिकाएँ व्यस्त / प्रेमालाप में

इसी शहरी बरसात का एक अन्य चित्रण देखें-
खिड़कियों से फ़्लैट की / दिखते बलाहक
हों कि जैसे सुरमई रुमाल
उड़ रहा उस पर / धवल जोड़ा बलॉक
यथा रवि वर्मा / उकेरें छवि कमाल
चंद बूँदें / अफसरों के दस्तखत सी
और इतने में खड़ंजे / झुग्गियाँ जाती हैं दूब

अभिनव बिंब, मौलिक प्रतीक और अनूठी कहन की त्रिवेणी बहाते रामशंकर आधुनिक हिंदी तथा देशज हिंदी में उर्दू-अंग्रेजी शब्दों की छौंक-बघार लगाकर पाठक को आनंदित कर देते हैं। अनुप्राणित, मूर्तिमंत, वसुमति, तृषावंत, विपणकशाला, दुर्दंश, केलि, कुसुमाकर, मन्वन्तर, स्पंदन, संसृति, मृदभांड, अहर्निश जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, सगरी, महुअन, रुत, पछुआ, निगोड़ी, गैल, नदिया, मिरदंग, दादुर, घुघुरी देशज-ग्राम्य शब्द, रिश्ते, काश, खुशबू, रफ़्तार, आमद, कसीदे, बेख़ौफ़, बेफ़िक्र, मासूम, सरीखा, नूर, मंज़िल, हुक्म, मशकें आदि उर्दू शब्द तथा फ्रॉक, पिरामिड, सेक्शन, ड्यूटी, फ़ाइल, नोटिंग, फ़्लैट, ट्रेन, रेनी डे, डायरी, ट्यूशन, पिकनिक, एक्सरे, जींस-टॉप आदि अंग्रेजी शब्दों का बेहिचक प्रयोग करते हैं वर्मा जी।   

इस संकलन में शब्द युग्मों क पर्याप्त प्रयोग हुआ है। जैसे- तीर-कमान, क्षत-विक्षत, लस्त-पस्त, राहु-केतु, धीर-वीर, सुख-दुःख, खुसुर-फुसुर, घाघरा-चोली, भूल-चूक, लेनी-देनी, रस-रंग, फाग-राग, टोंका-टाकी, यत्र-तत्र-सर्वत्र आदि। कुछ मुद्रण त्रुटियाँ समय का नदिया, हंसी-ठिठोली, आंच नहीं मद्विम हो, निर्वान है  हिंदी, दसानन, निसाचर, अमाँ-निशा आदि खटकती हैं। फूटते लड्डू, मिट्टी के माधो, बैठा मार कुल्हाड़ी पैरों, अब पछताये क्या होता है? आदि के प्रयोग से सरसता में वृद्धि हुई है। रात खिले जब रजनीगंधा, खुशबू में चाँदनी नहाई, सदा अनंदु रहैं यहै ट्वाला, कुसमय के शिला प्रहार, तन्वंगी दूर्वा, संदली साँसों, काल मदारी मरकत नर्तन जैसी अभिव्यक्तियाँ रामशंकर जी की भाषिक सामर्थ्य और संवेदनशील अभिव्यक्ति क्षमता की परिचायक हैं। इस प्रथम कृति में ही  कृतिकार परिपक्व रचना सामर्थ्य प्रस्तुत कर सका है  और पाठकों की  उत्सुकता जगाता है।
१५.२.२०१६
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गीत- नवगीत संग्रह - चार दिन फागुन के, रचनाकार- रामशंकर वर्मा, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ-१५९ , समीक्षा- जगदीश पंकज।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

नदी की धार सी संवेदनाएँ- रोहित रूसिया

गुलाब सिंह 
'नदी की धार सी संवेदनाएँ’ की रचनाओं के अनेक फलक हैं। आज समय और समाज निरपेक्ष होकर किये गए लेखन का महत्व संदिग्ध हो गया है। रोहित रुसिया अपने समाज, देश और उसके परिवेश से जुड़े हैं और उन्हें समय की रंगीनियों और विरूपताओं की पहचान भी है। छान्दसिक कविता को माध्यम के रूप में स्वीकार कर उन्होंने उसके अद्यतन शिल्प को पकड़ने का सफल प्रयत्न किया है। 

आज आगे बढ़ने के केवल वैचारिक पारे के ऊपर चढ़ने से मानवीय सम्बन्धों और उनकी वास्तविकताओं के तापमान का ज्ञान नहीं किया जा सकता, शायद इसलिये कि विचारकों के सिद्धान्तों का स्वयं उनके अपने व्यवहारों से ही मेल नहीं दिखाई पड़ता। जिस तरह प्रयोगवादी शब्द सज्जा फैशन लगने लगी थी, उसी तरह प्रगतिवादी रचनात्मक दृष्टि खेमों में बँट कर बौद्धिक कसरत और तर्कों की ओर आजमाइश का गद्देदार अखाड़ा बन गई। फिर कोई मानवीय प्रेम, मांसल सौंदर्य, रूमान, लालित्य और ‘मधुचर्या’(आचार्य राम चन्द्र शुल्क द्वारा प्रयुक्त) आदि की बातें करके वैचारिक पिछड़ेपन की तोहमत क्यों झेलता। रूमानियत किसी इन्फेक्शस रोग की तरह समझी जाने लगी, जिससे बचने के लिये परहेज आवश्यक हो गया। रूमानियत, जिस्मानियत से बचकर रूहानियत की अन्तर्दशा में पहुँचने का यह ऐसा छद्म अध्यात्म था कि इसमें मन से रससिक्त रह कर, चेहरे से रूखा ठोस बौद्धिक दिखाई पड़ना था। खड़ाऊ पहनकर नगरवधू वाली गली से गुजरने का यह हठयोग धीरे-धीरे प्रभाहीन हो गया।

रोहित रुसिया अपने ‘मैं’ से अपने ‘तुम’ को जिस संकोच के साथ सम्बोधित कर रहे थे, उस पर इस छद्म अध्यात्म का प्रभाव तो नहीं, छाया रही हो-
‘रंग फीके हों भले पर
प्यार के 
संबल रहेंगे’

संबल के स्थायित्व से मुतमइन होने पर ही गीत गाने के निश्चय पर पहुँचे
‘छोड़ो मत
अब 
जुड़ जाने दो
प्रीत भरे अनुबन्ध

या
बह जाने दो
नेह नदी को
तोड़ सभी प्रतिबन्ध’

सहज मनःस्थिति में गुनगुनाने और गाने पर रचनात्मक प्रकाश की किरणें दिखाई पड़ती हैं-
‘द्वार पर मेरे 
रखा हुआ है
दीप तुम्हारे नाम का’

और इसी दीप के प्रकाश में यह दर्शन भी उभरता है-
‘रिश्तों का 
एक गीत है जीवन 
प्रकृति उसी की एक कड़ी है’

गीत कभी-कभी एक ही कड़ी का होता है, लेकिन जीवन और उसके रिश्तों की कड़ियाँ निर्बन्ध होती है, उनके अनेक आयाम दिखाई पड़ते हैं। रोहित रुसिया ने इस विस्तार को भली प्रकार देखा है। इसलिये प्रेम और जीवन सम्बन्धों को एकाकार रूप में देख सके हैं।
‘एहसासों के 
साये गुम हैं
बंद महल में
हाँ हम तुम हैं’

इन गुम एहसासों के साये के भीतर से कुछ रंग झिलमिलाते हैं- 
‘तस्वीरों में रंग तुम्हारे 
अनजाने ही आए’ 

और 
‘नयन झील के दीप हुए 
जाने कब नाम तुम्हारे’  

‘अनजाने’ और ‘जाने कब’ की आकस्मिकताओं के कारण ही ‘कितने उलझ गए हैं हम तुम’
‘मुझको सदा।
छला करती है।
याद तुम्हारी।
साँसों के संग
आती जाती।
याद तुम्हारी।

इसलिए
‘तुम जितने हो दूर भले।
मेरा मन तेरे साथ चले।’
और साथ चलने की आत्मीय यात्रा घर बनाने के जिस मुकाम पर पहुँचती है वहाँ वास्तु शिल्प के सारे सरंजाम (बिल्डिंग मेटेरियल) उपलब्ध हैं, किन्तु रोहित रुसिया एक दुर्लभ वस्तु की तलाश में लगते हैं-

‘चलो घर बनाने को 
मुस्कान ढूँढें’
मुस्कान ढूँढने की यह ख्वाहिश निजी अनुरक्ति में भी सामाजिक अपनत्व की ओर संकेत करती है। आज घरों की भौतिक सम्पन्नता के बीच से मुस्कान ही तो गायब हो गई है। काश! कि घरों में मुस्कान लौट आए। सुखों की काँटों भरी शय्या पर अनिद्रा और अशांति से तड़पते समाज को एक बार फिर आनन्दानुभूति से तृप्त कर जाए। गीत में ‘यादों को रूमानियत की तलाश जरूर होगी।

वर्तमान समय धीमे चलने का नहीं, उड़ाने भरने का है। सिर्फ उड़ानों की कामना से भरी दुनिया से धरती छूटती जाती है। परिन्दे को लक्षित कर एक सहल अभिव्यक्ति-
‘लेकर मिट्टी का सोंधापन
सावन का भीगी बदली बन
कब आओगी मेरे आँगन
फिर से तुम
गौरैया’

अथवा
‘घट रही हैं
अब नदी की धार-सी
संवेदनायें’

पेड़ कब से 
तक रहा
पंछी घरों को लौट आयें
और फिर 
अपनी उड़ानों की खबर
हमकों सुनायें

अनकहे से शब्द में
फिर कर रही आगाह
क्या सारी दिशायें
रक्त रंजित हो चली हैं
नेह की 
सारी ऋचायें

जीवन और रचना संसार के विकास की सीढ़ियों पर अपर्वगमन की यह सहल स्वाभाविक गति बताती है कि ऊर्जा और आकांक्षा का योग ही रचनाकार को वह दृष्टि देता है जिससे वह जड़ में जीवन और जीवन में जड़ता का विपर्यय देख पाता है। बाहर बहती नदी और मनुष्य के भीतर संवेदनाओं के घटने अर्थात् उतार से जीवन प्रवाह टूटने लगता है। प्रवाह के लिए नदी को जल और जीवन को संवेदनाओं की दरकार होती है। चारे की तलाश में घोंसले से बाहर उड़ गये परिन्दे और घर से बाहर चले गये मनुष्य की वापसी की प्रतीक्षा एक ही तरह की नहीं है। घोंसले वाले पेड़ में पक्षी के लौटने की आतुर प्रतीक्षा है, दिन भर की उड़ानों और उपलब्धियों को जानने की उत्कंठा है। दूसरी ओर समाज की स्थितियों का निःशब्द संकेत दिखाई पड़ रहा है, जो आगाह कर रहा है कि प्रस्थान की सारी दिशायें और नेह की सारी ऋचायें रक्त रंजित हो चली हैं। नदी की उतरती धार और अपनी गोद में घोंसलों के संरक्षक पेड़ की संवेदनाओं में जो तरलता और हरापन (जीवन्तता) है उसकी तुलना रक्त रंजित दिशाओं और ऋचाओं से करने के पीछे मनुष्य को संवेदित करने की मंशा है जिसे ऐसे काव्यार्थों और अभिव्यक्तियों में अनायास ही समझा जा सकता है।

सिकुड़ती, मरती संवेदनाओं का एक ऐसा ही साक्ष्य उनके इस गीत में भी देखा जा सकता है-
‘आदमी बढ़ता गया
चढ़ता गया
चढ़ता गया
और समय की होड़ में
खुद, आवरण मढ़ता गया
भूल बैठा, झर रही हैं
नींव की भी गिट्टियाँ
अब नहीं आतीं
किसी की चिट्ठियाँ’

दो चार पृष्ठों पर फैले स्नेह, प्रेम, श्रद्धा, संवेदना, सुख-दुख, आत्मीयता, उपालम्य, उलाहने वाले पत्रों के स्थान पर दो चार शब्दों के चल संवाद उतने अर्थवान अचल कैसे हो सकते हैं। पत्राचार की समाप्ति भी समकालीन रीति रिवाजों की एक पहचान बन गई है। चिट्ठियों की विरलता की शुरुआत के समय करीब ढाई दशक पहले मैंने एक गीत लिखा था जो ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुआ था-
‘चिट्ठियों के सिलसिले टूटे
आइने से दूर होकर रह गये चेहरे
लहर-सी आईं गईं तिथियाँ 
दिन किनारों से मगर ठहरे’
रोहित रुसिया ने चिट्ठियों के संदर्भ में नीव की गिट्टियों तक के सड़ने का दर्द कह कर ऐसे मनोभावों को ताजा कर दिया है।

रोहित रुसिया एक सजग सावधान कवि हैं। वह चीजों को किसी गली से नहीं भीड़ भरे महत्वपूर्ण चौराहे से देखते हैं। बहुआयामी लेखन के लिये दर्शक दीर्घा से लेकर राजमार्ग गली कूचे और पगडंडियों तक से होकर गुजरना पड़ता है। भारत को देश ही नहीं उपमहाद्वीप कहा जाता है। गाँव, कस्बे, शहर, महानगर तक जीवन के कितने ही रंगों रूपों को समेटे यहाँ की धरती कर्मभूमि, वीरभूमि, देवभूमि, तपोभूमि के रूप में पूज्य है। इस माता भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ कहा गया है। रोहित रुसिया इस भूमि को पैनी दृष्टि से देखने और पहचानने की कोशिश करते हैं, इसलिए अपनी यात्रा में गाँव, नगर, प्रकृति और आध्यात्म तक के दर्शन और वर्णन से जुड़ते हैं। नगरों के आकर्षण ने बहुतेरों को गाँव से शहर का वासी बना दिया है, लेकिन गाँव की जड़ें, वहाँ की मिट्टी की सुगन्ध मिटने वाली नहीं होती, इसीलिए रोहत रुसिया में भी गाँव को छोड़ने का दर्द है, उसी सुगन्ध से सना हुआ-
‘सुविधा के मोह में
बहक गये पाँव
मेरा छूट गया गाँव’

गाँव छूटने के समय जो सुगन्ध साथ लाये वह कितने मोहक शब्दों में व्यक्त हुई -
‘शब्द मेरे गूँजते हैं
गीत बन कर
फूलों में
पत्तों में
कलियों में 
सावन में
भीनी रंगरलियों में
शब्द मेरे झूमते हैं प्रीत बनकर’

मन की इसी खिड़की से गाँव के आगे बढ़कर वह अपने देश को देखते हैं। आज की स्थितियों में देश के प्रति अनुराग और राष्ट्रप्रेम की भावात्मकता के साथ ही परम्पराओं और तर्कों की एक विस्तृत वैचारिक पृष्ठभूमि भी है, जहाँ वसुधैव कुटुम्बकम् और भूमण्डलीकरण के पुराने-नये चिन्तन की साम्यता का मानवीय बोध दिखाई पड़ता है। अपनी संस्कृति के संरक्षण और स्वायत्तता की बात करते समय विचारों को भी महत्व देते हैं, कवि से व्यापक चिन्तन की अभिव्यक्ति के लिये एक सार्वभौम भाषा की अपेक्षा की जाती है। रोहित रुसिया के देश दर्शन के पीछे इस भाषा के साथ उनके भावुक हृदय की कोमलता दिखाई पड़ती है। कोमलता की प्रतिछाया उन्हें यहाँ की धरती और उसकी प्राकृतिक सुषमा की ओर ले जाती है-

‘मेरे देश तुझको
मेरा नमन
कितनी सुहानी धरती तेरी
पावन तेरा गगन’

अथवा
‘वसुन्धरा-वसुन्धरा
अपनी प्यारी वसुन्धरा
इसके बिना न जीवन अपना
आओ सोचें जरा’

यहाँ राष्ट्रवाद, विश्ववाद और सब के साथ लगे विमर्शवाद को खोजने की गुंजाइश कम ही है, क्योंकि रोहित रुसिया अपनी आँखों की नमी, मासूमियत और भोलेपन को बचाये रखकर ही दुनिया को देखना चाहते हैं। उनकी दृष्टि में इन्हीं जन्मजात मानवीय गुणों से रिक्त होने के कारण ही विचारों का अप्रभावी वैभव और चमकती भौतिकता का अंधकार हम पर हावी हो रहा है। एक उदाहरण -
‘मेरी आँखों में
नमी है
चमकने दो इसे
चलो छोड़ो
न छीनो भोलापन
जरा मासूमियत 
जरा बचपन 
पंछी जो 
आज उड़े हैं
चहकने दो उन्हें’

मासूमियत की यह धड़कन कब संसार की निस्सारता से टकरा गई, यह तो रोहित रुसिया ही जाने -
‘राम की चिरैया
देखो
उड़ गई रे
जाने कब
अपना ये मन तो
जग है एक छलावा’

संभव है कि उन्हें लगा हो कि भारतीय धर्म-अध्यात्म का एक पक्ष अछूता ही रह जा रहा है। वास्तव में जग के इस छलावे के भीतर ही हम सब अपने हिस्से का अभिनय कर रहे हैं। अभिनय मूल्यवान, सार्थक और सफल हो, यह कोशिश ही अपनी कर्मभूमि में अपना साक्ष्य प्रस्तुत करती है।


घोर निराशा, अशांति, हठधर्म, कुतर्क, ईर्ष्या, अहंकार के अँधेरे में आकंठ डूबते जाते समाज को बच निकलने का विश्वास दिलाते हुए रोहित रुसिया इस मान्यता को बल देते हैं कि आदमी गिरने के लिए नहीं, उठने के लिए बना है। कवि के ये शब्द कितने आश्वस्तिदायक हैं -

‘जीतेंगे हम
पहुँचेंगे फिर उसी ठौर
आएगा जीवन में
फिर से अच्छा दौर
पेड़ों ने
पतझर पर
कब आँसू बहाये
पंछी कब
टूटे नीड़ों से
हार पाये
शाखों पर आयेगी
कोंपल, पत्ते, बौर
जीतेंगे हम
पहुँचेंगे फिर उसी ठौर’

और इस यात्रा, इस पहुँच में -
‘तुम्हारा साथ देंगे
दूर तक
प्रेम में भीगे हुए 
कुछ फूल
अपने सूखने के बाद भी’

दृढ़निश्चय के साथ निकलकर दूर तक जाती युवा कवि रोहित रुसिया की इस सर्जनात्मकता पर भरोसा करते, उन्हें धन्यवाद देते हुए आइये उनके इस नये संग्रह के नये गीतों के नये तेवर और नये स्वर का स्वागत करे।
१९.१०.२०१५ --------------------------
गीत- नवगीत संग्रह - नदी की धार सी संवेदनाएँ, रचनाकार- रोहित रूसिया, प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन,  इलाहाबाद।  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- ११२, समीक्षा - गुलाब सिंह।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

समय की आँख नम है- विनय मिश्र

डॉ. जगदीश व्योम
आँख नम होना, आँख भर आना, आँखें गीली होना आदि ऐसे मुहावरे हैं जिनके प्रयोग से मन में समाहित दुख अभिव्यंजित हो जाता है। वैयक्तिक प्रयोग में तो यह दुख किसी व्यक्ति विशेष के दुख तक सीमित रहकर किसी एक इकाई के दुख का बोध कराता है परन्तु जब समूचे समय की आँख नम होने की बात कही जाये तो इस दुख का फलक बहुत व्यापक हो जाता है। ऐसा महसूस होने लगता है कि हमारे इर्द-गिर्द एक ऐसी अदर्शनीय चादर फैली हुई है जिसके रेशे-रेशे में दुख पिरोया हुआ है। प्रश्न उठता है कि यह दुख किस तरह का दुख है? कहाँ से प्रक्षेपित हो रहा है यह दुख? कितने रूप हैं इस दुख के? ऐसे अनेकानेक प्रश्न बुद्धिजीवियों के मन में अक्सर उठते रहते हैं।

विनय मिश्र का समकालीन गीत संग्रह ‘समय की आँख नम है’ ऐसी ही चिन्ताओं से उपजी रचनाओं का संकलन है जिसमें उनके एक सौ पाँच नवगीत प्रकाशित किए गए हैं। हिन्दी गज़लों के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके विनय मिश्र के पास रचनात्मक अनुभव की बड़ी पृष्ठभूमि है। उनके नवगीतों में जन जन के जीवन में परिव्याप्त तमाम तरह की चिन्ताएँ हैं। 

वर्तमान समय की सबसे बड़ी त्रासदी है आपस में संवादहीनता का होना, सब अपने-अपने में व्यस्त हैं, किसी की रुचि किसी से बात करने में नहीं है और न ही किसी के पास आपस में संवाद का समय ही है। मोबाइल पर और फेसबुक पर  दुनियाभर की खोज खबर रखने वालों के पास इतना समय भी नहीं है कि वे जान सकें कि उनके पड़ोस में कौन रहता है। इस संवादहीनता से आपसी रिश्ते टूट रहे हैं, सामाजिक ताने-बाने शिथिल होते जा रहे हैं-
कीड़े लगते संवादों की
खड़ी फसल में
काँटे उगते दुविधाओं के
मन मरुथल में
धीरे-धीरे जड़ से
उखड़ रहा है बरगद .. पृष्ठ-२२ 

कोर्ट, कचहरी यों तो सत्य की रक्षा के लिए हैं परन्तु वहाँ झूठ का ऐसा कारोबार होता है कि इसमें आम आदमी पिसा जा रहा है-
दौड़ धूप में 
कोट कचहरी लगी हुई है
अपना काम बनाने झूठी
अड़ी हुई है
जब तक सँभले देश
सियासत खेल कर गई ..... पृष्ठ-२४ 

जब हर जगह झूठ और भ्रष्टाचार व्याप्त हो जाता है तब लेखक और कवियों से आशा की जाती है परन्तु विडम्बना है कि पुस्तकों की भीड़ तो है परन्तु पुस्तकों को पढ़ने वाला पाठक नहीं है। ऐसे में एक प्रश्न उठता है कि क्या रचनाकार  पाठक की सही नब्ज़ नहीं पकड़ पा रहे हैं या कुछ और बात है? विनय मिश्र ने यह एक बड़ा प्रश्न उठाया है-
पुस्तकों की भीड़ है
पाठक तिरोहित है
एक निर्णायक समय में
हम विवादित हैं
बढ़ा सुरसा के बदन-सा
रोज यह मसला .... पृष्ठ-२७ 

सन्त कवि ‘माया महा ठगिनि हम जानी’ कह कर न जाने कब से सचेत करने का प्रयास करते रहे हैं किन्तु इसे व्यवहारिक जीवन में मानने को कोई तैयार नहीं है। सोने के मृग के पीछे दौड़ने की प्रवृत्ति बहुत पहले से चली आ रही है। हर व्यक्ति रातों-रात अमीर बन जाना चाहता है। एक दूसरे को धोखा देकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति समाज के सामूहिक चरित्र में प्रविष्ट हो चुकी है। लोग सबके सामने समाज सेवा का दिखावा करते हैं परन्तु मौका मिलते ही अपना उल्लू सीधा कर निकल लेते हैं, आम आदमी कठपुतली मात्र बनकर रह गया है-
कंचन मृग के पीछे भागे
लौटे अब तक राम नहीं

गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के
हम कठपुतली बने फिजूल
हैं विशिष्ट सुविधाओं वाले
कहने को पब्लिक स्कूल
तपते पथ पर दूर-दूर तक
शीतलता का नाम नहीं

कानाफूसी बढ़ी समय की
खींचतान समझौतों में
साँसें यहाँ सुपारी होकर
कटने लगीं सरौतों में
आज धुएँ में डूबी
आँखों में गोधूली शाम नहीं .... पृष्ठ-३२

ठगने ठगाने का कारोबार केवल धान तक ही सीमित नहीं रह गया है लोग दूसरों की भावनाओं के साथ भी खिलवाड़ करने से नहीं चूकते हैं। पूजा-पाठ करना लोगों की धार्मिक आस्था के साथ जुड़ा हुआ है। परन्तु इसी पूजा-पाठ के बहाने ठगने-ठगाने का धंधा भी न जाने कब से हो रहा है। इसे भी धान कमाने का माध्यम बना लिया गया है, और अब तो इसके पीछे बड़े बड़े कारपोरेट घराने हैं जिन्होंने इसे एक बड़े कारोबार का रूप दे दिया है-  
सारी कलई इस मौसम की 
कोई सूरज खोल रहा
पूजापाठ कराने वाला
गोरखधंधा खूब चला
उसके दो को हमने अपना 
चार बनाकर खूब छला
काली काली यमुना का मन
जै राधा जी बोल रहा ... पृष्ठ- ३२ 

भारत में सरकार बनाने का कार्य जनता करती है, लेकिन जनता हर बार अपने को ठगा हुआ महसूस करती है। सरकारें बदलती हैं परन्तु जनता की दशा ज्यों की त्यों ही बनी रहती है। आम आदमी गुस्से में मुट्ठियाँ तानता है पर होता कुछ नहीं। सरकार बनने से पहले नेता जो वादा करते हैं उसके बाद हालात वही बने रहते हैं-
आती जाती सरकारों के
उलझे हुए बयान
मुट्ठी ताने आग बबूला
देखो हिन्दुस्तान

लाख टके की बोली पर
दो कौड़ के हालात .... पृष्ठ-५६ 

इसे यों भी कह सकते हैं कि समूची राजनीति का चरित्र ही बदल गया है, वहाँ झूठ बोलने के बाद जब झूठ पकड़ा जाता है तो राजनेता शर्मिन्दा होने की जगह कुतर्क गढ़ते हैं। जैसे ही पद और प्रतिष्ठा मिलती है उनकी धारणा ही बदल जाती है। आम आदमी उनके लिए सिर्फ एक वोट है और यह वोट यदि समझदार हो जायेगा, खुशहाल हो जायेगा तो फिर उस पर मनमानी भला कैसे की जा सकेगी, उनका स्वार्थी मकसद पूरा कैसे होगा, इस सब को देखकर रचनाकार भी निराश हो गया है, यह अच्छा संकेत नहीं है- 
हरसिंगार झरते आँसू के
चाहत हुई बबूल
दूर-दूर तक आँखों में
उड़ती सपनों की धूल
सुख, गूलर का फूल हो गया
अब तक दिखा नहीं
तकदीरों के पन्ने बिखरे
जीवन फटी किताब
रिश्तों की फुलवारी उजड़ी
झुलसे गीत गुलाब
लौटेगा मौसम खुशियों का
हमको लगा नहीं ..... पृष्ठ-१२८

वर्तमान में सबसे बड़ा बदलाव यह दिखाई दे रहा है कि हमारे घर तक बाजार आ गया है, बाजारवाद ने सबको अपने मायाजाल में फँसा लिया है। खराब से खराब वस्तु को विज्ञापन के द्वारा अच्छा सिद्ध किया जा रहा है, लोगों को ठगा ही नहीं जा रहा है बल्कि उनके जीवन से खिलवाड़ किया जा रहा है। हमारे राजनेता सब कुछ समझ कर अनजान बने हुए हैं और जनता को लुटेरों से लुटने दे रहे हैं क्योंकि इस लूट के माल में से जूठन उन्हें भी तो मिल रही है-
मुँह में लगी हुई उनके
झूठन देखो
सत्ता के मारों का
सनकीपन देखो
लाभ जिधर सारा दर्शन
उस ओर बहा  
दरवाजे पर विज्ञापन की
वंदनवार
हर कमरे में एक नया है कारोबार
क्या बोलूँ जब घर में ही
बाजार घुसा  ..... पृष्ठ-१४० 

 कुल मिलाकर ‘समय की आँख नम है’ के नवगीत अपने समय की तमाम तल्ख सच्चाइयों को उजागर करते हैं। भाषा का सहज रूप इन नवगीतों की विशेषता है। पेपर बैक में छपी १४४ पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ११० रुपए है जो ठीक ही है। 
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गीत- नवगीत संग्रह -समय की आँख नम है, रचनाकार- विनय मिश्र, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, एफ-७७, सेक्टर-९, रोड नं.११, कर्तारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर-३०२००६।  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये ११०/-, पृष्ठ- १४४, समीक्षा - डॉ. जगदीश व्योम।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

गीत अपने ही सुनें- वीरेन्द्र आस्तिक

डॉ. अवनीश सिंह चौहान 
हिन्दी साहित्य की सामूहिक अवधारणा पर यदि विचार किया जाए तो आज भी प्रेम-सौंदर्य-मूलक साहित्य का पलड़ा भारी दिखाई देगा; यद्यपि यह अलग तथ्य है कि समकालीन साहित्य में इसका स्थान नगण्य है। नगण्य इसलिए भी कि आज इस तरह का सृजन चलन में नहीं है, क्योंकि कुछ विद्वान नारी-सौंदर्य, प्रकृति-सौंदर्य, प्रेम की व्यंजना, अलौकिक प्रेम आदि को छायावाद की ही प्रवृत्तियाँ मानते हैं। हिन्दी साहित्य की इस धारणा को बहुत स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। कारण यह कि जीवन और साहित्य दोनों अन्योन्याश्रित हैं, यही दोनों की इयत्ता भी है और इसीलिये ये दोनों जिस तत्व से सम्पूर्णता पाते हैं वह तत्व है- प्रेम-राग। 

इस दृष्टि से ख्यात गीतकवि और आलोचक वीरेन्द्र आस्तिक जी का सद्यः प्रकाशित गीत संग्रह ‘गीत अपने ही सुनें' एक महत्वपूर्ण कृति मानी जा सकती है। बेहतरीन शीर्षक गीत- "याद का सागर/ उमड़ आया कभी तो/ गीत अपने ही सुने" सहित इस कृति में कुल 58 रचनाएं हैं जो तीन खण्डों में हैं, यथा- 'गीत अपने ही सुनें', 'शब्द तप रहा है' तथा 'जीवन का करुणेश'। तीन खण्डों में जो सामान्य वस्तु है, वह है- प्रेम सौंदर्य। यह प्रेम सौंदर्य वाह्य तथा आन्तरिक दोनों स्तरों पर दृष्टिमान है। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सौंदर्य का संतुलित समावेश कर सारभौमिक तत्व को उजागर करते हुए कवि संघर्ष और शान्ति (वार एन्ड पीस) जैसे महत्वपूर्ण उपकरणों से जीवन में आए संत्रास को खत्म करना चाहता है; क्योंकि तभी कलरव (प्रकृति) रूपी मूल्यवान प्रेम तक पहुँचा जा सकता है- "सामने तुम हो, तुम्हारा/ मौन पढ़ना आ गया/ आँधियों में एक खुशबू को/ ठहरना आ गया। देखिये तो, इस प्रकृति को/ सोलहो सिंगार है/ और सुनिये तो सही/ कैसा ललित उद्गार है/ शब्द जो व्यक्त था/ अभिव्यक्त करना आ गया। धान-खेतों की महक है/ दूर तक धरती हरी/ और इस पर्यावरण में/तिर रही है मधुकरी/ साथ को, संकोच तज/ संवाद करना आ गया। शांतिमय जीवन;/ कठिन संघर्ष है/ पर खास है/ मूल्य कलरव का बड़ा/ जब हर तरफ संत्रास है/ जिन्दगी की रिक्तता में/ अर्थ भरना आ गया।" 

आस्तिक जी का मानना है कि कवि की भावुकता ही वह वस्तु है जो उसकी कविता को आकार देती है; क्योंकि सौंदर्य न केवल वस्तु में होता है, बल्कि भावक की दृष्टि में भी होता है। कविवर बिहारी भी यही कहते हैं "समै-समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न होय/मन की रूचि जैसी जितै, तित तेती रूचि होय।" शायद इसीलिये आस्तिक जी की यह मान्यता भाषा-भाव-बिम्ब आदि प्रकृति उपादानों के विशेष प्रयोगों द्वारा सृजित उनके गीतों को सर्वांग सुन्दर बना देती है। समाज, घर-परिवेश और दैन्य जीवन के शब्द-चित्रों से लबरेज उनके ये गीत प्रेम की मार्मिक अनुभूति कराने में सक्षम हैं- "दिनभर गूँथे/ शब्द,/ रिझाया/ एक अनूठे छंद को/ श्रम से थका/ सूर्य घर लौटा/ पथ अगोरती मिली जुन्हाई/ खूँद रहा खूँटे पर बछड़ा/ गइया ने हुंकार लगायी/ स्वस्थ सुबह के लिये/ चाँदनी/ कसती है अनुबंध को।" 

जीवन के अंतर्द्वंद्वों की कविताई करना इतना सरल भी नहीं है। उसके लिए कठिन तपश्यर्चा की आवश्यकता होती है। कवि यह सब जानता है- "गीत लिखे जीवन भर हमने/ जग को बेहतर करने के/ किन्तु प्रपंची जग ने हमको/ अनुभव दिये भटकने के/ भूलें, पल भर दुनियादारी/ देखें, प्रकृति छटायें/ पेड़ों से बतियायें।" इतना ही नहीं, कहीं-कहीं कवि की तीव्र उत्कंठा प्रेम को तत्व-रूप में देखने की होती है, तब वह इतिहास और शोध-संधानों आदि को भी खंगाल डालता है; तिस पर भी उसके सौंदर्य उपादान गत्यात्मक एवं लयात्मक बने रहते हैं और मन पर सीधा प्रभाव डालते हैं। कभी-कभी तो वह स्वयं के बनाए मील के पत्थरों को भी तोड़ डालता है, कुछ इस तरह- "मुझसे बने मील के पत्थर/ मुझसे ही टूट गए/ पिछली सारी यात्राओं के/ सहयात्री छूट गए/ अब तो अपने होने का/ जो राज पता चलता है/ उससे/ रोज सामना होता है"  और - "हूँ पका फल/ अब गिरा मैं तब गिरा/ मैं नहीं इतिहास वो जो/ जिन्दगी भर द्रोण झेले/ यश नहीं चाहा कभी जो/ दान में अंगुष्ठ ले ले/ शिष्य का शर प्रिय/जो सिर मेरे टिका।" 

निष्कर्ष रूप में कहना चाहता हूँ कि जीवन के शेषांश में समग्र जीवन को जीने वाले वीरेन्द्र आस्तिक जी की पुस्तक ‘गीत अपने ही सुने’ के गीत इस अर्थ में संप्रेषणीय ही नहीं, रमणीय भी हैं कि प्रेम-सौंदर्य के बिना जीवन के सभी उद्देश्य निरर्थक-सेे हो जाते हैं। विश्वास है कि सहृदयों के बीच यह पुस्तक अपना स्थान सुनिश्चित कर सकेगी।
१५.९.२०१७ 
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गीत नवगीत संग्रह- गीत अपने ही सुने, रचनाकार- वीरेन्द्र आस्तिक, प्रकाशक-के के पब्लिकेशन्स, ४८०६/२४, भरतराम रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-२, ,  प्रथम संस्करण- २०१७, मूल्य :  रु. ३९५पृष्ठ : १२८, समीक्षा- अवनीश सिंह चौहान

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

दिन क्या बुरे थे- वीरेन्द्र आस्तिक

डॉ. संतोष कुमार तिवारी
ख्यातिलब्ध कवि श्री वीरेन्द्र आस्तिक के नवीन गीत संग्रह से गुजरते हुए मेरी स्मृति में मेरे गुरू आ गए। मेरे गुरू डॉ. प्रेम शंकर कहा करते थे कि ऐसा कभी संभव नहीं होता कि रात को आप डाका डालें और सुबह बैठकर ‘कामायनी’ लिखने लगें। पहले हमें अपने भीतर की यात्रा करनी पड़ती है यानी अपने भीतर का रचाव। यह रचाव ऊर्जा-ऊष्मा सम्पन्न होकर प्रज्ञा शिखर की सीढ़ियाँ दिखलाता है और मनुष्य अपनी सामाजिक आध्यात्मिक चेतना से आप्लावित हो उठता है। 

वीरेन्द्र आस्तिक का कवि आत्मस्थ और ऊर्जावान होकर चैतन्य होने की बात कहता है। जाहिर है कि उसकी साहित्यिक मान्यताएँ और धारणाएँ उच्चकोटि की सर्जना के सही मानदंड हैं। एक सार्थक रचना अपने समय से साक्षात्कार करती हुई उससे टकराने और मुठभेड़ करने का माद्दा भी रखती है। वह जमीनी हक़ीकत का सामना करते हुए परिवेशगत सच्चाइयों का समूचा परिदृश्य पेश करती है और बेहतर जीवन जीने की तलाश का उपक्रम बन जाती है। साहित्य की कोई भी विधा सामाजिक दायित्व से किनाराकशी नहीं कर सकती और न बदलते युग के तेवरों को अनदेखा कर सकती है। वह बदलते समय की नई प्रचलित शब्दावली को भी अनसुना नहीं कर सकती। हमें इस सत्य को स्वीकारना होगा कि कला जीवन के लिए है। जीवन की विकासशील धारा में मनुष्य के आत्यांतिक कल्याण को ओझल नहीं किया जा सकता। 

हमें इस बात की सहज प्रसन्नता है कि वीरेन्द्र आस्तिक अपनी बहुआयामी गीत-यात्रा में मानव हित, नैतिक मूल्य, अन्वेषण तथा ज्ञात से अज्ञात को जानने की कोशिश को सर्वोपरि मानते हैं। रचनाकार का निर्विकार मन स्वतः ही संवेदनाओं की गहराई के साथ मानवता से जुड़ जाता है। वीरेन्द्र की खोज का विषय यह है कि -

वो क्या है जो जीवन-तम में
सूरज को भरता है
पतझर की शुष्क, थकी-हारी
डाली में खिलता है।

गीतों में हमेशा एक ही विचार, भाव या घटनाक्रम की अन्विति का शुरू से अंत तक निर्वाह किया जाता है। रचनाकार अपनी अनुभूतिजन्य वैचारिकता या विचारजन्य अनुभूति से यहाँ-वहाँ भटक नहीं सकता अन्यथा गीत अपनी समग्रता में प्रभावहीन हो जाता है। गीत की जो उठान शुरू में होती है वही उठान समापन तक बनी रहनी चाहिए। गेयता तथा संक्षिप्तता की दृष्टि से भी आस्तिक के गीत निर्दोष हैं। मशीनीकरण के युग में भी वे अपनी प्रकृति-जन्य संवेदना और विचार जन्य संवेदना को छोड़कर व्यवसायी-संवेदना के शिकार नहीं हुए।
वीरेन्द्र के पास, पैनी अभिव्यक्ति है। शब्द और अर्थ सहचर हैं। अबूझ को सहज बनाते हैं। पैनी अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है कि सार्थक शब्दों का मितव्ययता से प्रयोग हो- 

‘आओ! बोलो वहाँ, जहाँ शब्दों को प्राण मिले
पोथी को नव अर्थो में पढ़ने की आँख मिले
बोलो आमजनों की भाषा
खास न कोई बाकी।' 

हम इक्कसवीं सदी के दूसरे दशक में जा रहे हैं फिर हमारी भाषा बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध की क्यों हो? बासी-तिबासी अभियक्ति से बचने के लिए जरूरी है कि हम आज की प्रचलित नयी शब्दावली को काव्यात्मकता प्रदान करें या पुराने शब्दों में नयी अर्थवत्ता को भरने की कोशिश करें। वीरेन्द्र आस्तिक ने नये समय की कम्प्यूटराइज्ड शब्दावली को अपनाकर गीतों को नयी कल्पना और ताजगी प्रदान की है जो काबिलेतारीफ है। विण्डो, मेमोरी, चैटिंग, कूल, मार्केटिंग, ग्लोबल, वायरस, एण्ट्री, संसेक्स और केमिस्ट्री आदि शब्दों को काव्य-माला के धागे में पिरोकर कवि ने युगानुरूप नयापन लाने का प्रयास किया है।
कई गीतों में रचनाकार ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ऐसा ‘कान्ट्रास्ट’ पैदा किया है कि हम अतीत और वर्तमान की सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों का तुलनात्मक विश्लेषण करने पर बाध्य हो जाते हैं। 

‘जंगे-आजादी के ‘दिन क्या बुरे थे’ या ‘अब न पहले सी रहीं ये लड़कियाँ’ जैसी पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं।

वीरेन्द्र की प्रकृति जन्य संवेदना उन्हें टेसू, मंजरी, कोयल, निबुआ, अंबुआ, जमुनिया, बनस्थली की ओर ले जाती है और वे प्रकृति-सुदंरी के रोमानी रूप में खो जाते हैं। गीतकार को इस बात की बड़ी शिकायत है कि हमारी संवेदनाएँ पथरा गई हैं।

 'तोते को पिंजड़े का डर है', प्यासी चोचों और जलते हुए नीड़ों ने जीवन से मोह भंग कर दिया है। सेक्स, क्राइम तथा मीडिया बाजार में हमें किसानों तक की चिंता नहीं रही- 

‘लग न जाए रोग
बच्चों को
कुछ बचा रखिए
जमीनी चेतना
अब कहाँ वो आचरण
रामायणी
पाठ से बाहर हुई
कामायनी।'  

रचनाकार को इस बात की पीड़ा है कि -

मुखड़ा मोहक आजादी का
पाँव धँसे लेकिन कीचर में।

मेरी स्पष्ट धारणा है कि जब तक माँ-पिता के वात्सल्य पूर्ण त्याग और संरक्षण को हार्दिक श्रद्धा के साथ नहीं देखा जाता तब तक स्वस्थ समाजिकता संभव नहीं। परिवार जन्य संस्कार ही योग्य नागरिकता का और जीवन का शुद्ध पाठ पढ़ा सकते हैं। ‘माँ’ पर कविता की कुछ मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ देखिये- 

‘माँ’। 
'तुम्हारी जिंदगी का गीत गा पाया नहीं
आज भी इस फ्लैट में
तू ढूँढती छप्पर
झूठे बासन माँजने को
जिद्द करती है
आज भी बासी बची रोटी न मिलने पर
बहू से दिन भर नहीं तू बात करती है
मैं न सेवा कर सका 
अर्थात् असली धन कमा पाया नहीं।' 

इसी तरह पिता का स्वतंत्रता संग्राम याद करते हुए गीतकार की चिंता का विषय, बालू पर लोट रहे, कंचे खेल रहे घरौंदे बनाते हुए बच्चों पर केन्द्रित होता है क्योंकि देश का भावी नक्शा इन्हीं के जिम्मे है। चाहे हरित वन का मनुष्यों की स्वार्थपूर्ण आरी से काटने की बात हो, या नदियों के जल-बँटवारे की, चाहे कश्मीर-गोधरा हादसे का दर्द हो या औरत पर पुरुष दासता की नीयत- सब पर वीरेन्द्र की कलम चली है। अखिल सृष्टि के साथ रागात्मक संबंध इसी का नाम है या फिर साँसों की डिबिया में ब्रह्मांड का समा जाना’ भी कहा जा सकता है। ‘स्व’ से ‘पर’ के विस्तारण की कोई हद नहीं होती। फिर भी निराशा-अवसाद-अनास्था का स्वर नकारात्मकता की ओर नहीं जाता- 

‘इस महानाश में
नव-संवेदन
मुझको रचना होगा। 
हारा-सा सूना खंडहर हूँ 
बिरवा-सा उगना होगा।' 

यह आशापूर्ण संघर्ष का स्वर है।
जाहिर है वीरेन्द्र आस्तिक ने नए शब्द-विन्यास और अभिनव शैली-शिल्प से गीतों को सँवारा है, नई धुनें दी हैं और इस मिथक को तोड़ने में सबसे ज्यादा हाथ बँटाया है कि गीतों के लिए तो बस दो दर्जन शब्दावली पर्याप्त है- हथेली, मेंहदी, महावर, चाँदनी, सागर, लहर ...मुखड़ा, चमेली आदि। वे आधुनातन शब्द विन्यास के पक्षधर हैं और इस मामले में अपने ही तटबंधों का अतिक्रमण करते हैं। विषय-वैविध्य इतना है कि इस प्रतिस्पर्धा में गीत-नवगीत नयी कविता का ग्राफ लगभग एक सा है। मेरी विनम्र राय में वीरेन्द्र आस्तिक नयी कविता को गीत-नवगीत के जवाब हैं।
२५.५.२०१५ 
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नवगीत संग्रह- दिन क्या बुरे थे, रचनाकार- वीरेन्द्र आस्तिक, प्रकाशक- कल्पना प्रकाशन, बी-१७७०,  जहाँगीरपुरी, दिल्ली - ३३, प्रथम संस्करण-२०१२, मूल्य- रूपये , पृष्ठ- ,  परिचय- डॉ. संतोष कुमार तिवारी,  ISBN- 9788188790678

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

अक्षर की आँखों से - वेद प्रकाश शर्मा वेद

जगदीश पंकज 
वर्तमान समय में जब गीत-नवगीत पर साहित्य की तथाकथित मुख्य-धारा के ध्वजवाहकों द्वारा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रहार हो रहे हैं वहीँ नवगीतकारों की एक पूरी श्रृंखला अपने लेखन में न केवल छान्दसिक काव्य की सर्जना कर रही है बल्कि आज के बहुआयामी युगबोध को गीतों के माध्यम से शब्दांकित भी कर रही है। नवगीत आज एक ऐसी सर्व-स्वीकृत विधा का रूप ले चुका है जो मानवीय संवेदना के भावुक यथार्थ को पूरी कलात्मकता से व्यक्त करता हुआ छंद के नए-नए प्रयोग करते हुए छंदमुक्त कविता के पुरोधाओं को चुनौती दे रहा है। 

सृजन की गुणवत्ता के कारण न केवल नई कविता के बल्कि पारम्परिक गीत के कवि-सम्मेलनी रचनाकारों को भी नवगीत की शैलीगत नव्यता और समसामयिक जटिल कथ्य की नवीनता असह्य हो रही है क्योंकि पारंपरिक गीत अपने वायवीय तथा अमूर्त चरित्र से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहा और युग-यथार्थ को आत्मसात करके स्वर नहीं दे पा रहा है। नवगीतकारों की गरिमामय विरासत के साथ-साथ पुरानी पीढ़ी के नवगीतकार आज भी जहाँ निरंतर सृजनरत हैं वहीँ स्थापित नवगीतकारों के साथ ही अनेक नवांकुर रचनाकार भी छंदमुक्त कविता के स्थान पर नवगीत की ओर उन्मुख होकर सृजन के नए आयाम खोल रहे हैं। ऐसे में आज का नवगीत, गीत मर गया है या नवगीत को सिर्फ गीत ही कहना चाहिए के जुमले फेंकने वाले स्वयंभू आलोचकों को अपने प्रतिमान बदलने को बाध्य कर रहा है। इसी क्रम में ,'आओ नीड़ बुनें' और 'नाप रहा हूँ तापमान को' जैसे नवगीत संकलनों से अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके सशक्त नवगीतकार श्री वेद प्रकाश शर्मा 'वेद' अपने नव्यतम संग्रह 'अक्षर की आँखों से' के द्वारा पुनः प्रस्तुत हुए हैं।

'अक्षर की आँखों से' नवगीत संग्रह में वेद जी अपने छियत्तर गीतों को लेकर उपस्थित हैं। यद्यपि प्रत्येक गीत अपने आप में शिल्प और कथ्य की दृष्टि से स्वतन्त्र होता है फिर भी एक वैचारिकता अपनी समग्रता में हर रचना में परिलक्षित होती है। वेद जी भी एक समृद्ध और पुष्ट वैचारिकी के साथ प्रत्येक नवगीत में उपस्थित हैं। संग्रह के गीतों में मानवीय संवेदनाओं, वैश्विक बाज़ारवाद, फैलता हुआ उपभोक्तावाद, सम्बन्धों की शिथिलता, आर्थिक उदारवाद के जीवन पर दुष्प्रभाव, वर्तमान समाजार्थिक व्यवस्था से मोहभंग, वैफल्यग्रस्तता और अवसाद, गलाकाट प्रतिस्पर्धा और दैनंदिन की भागमभाग के जीवन का समसामयिक यथार्थ ऐसे बिंदु हैं जो रचनाओं में अनायास आकर वर्तमान सामान्य नागरिक की चेतना को मथ रहे हैं। राजनीति जीवन के हर पक्ष को प्रभावित कर रही है जिसे वेद जी ने पारम्परिक सोच के मिथकीय प्रतीकों को वर्तमान संदर्भों के साथ इस प्रकार संगुम्फित किया है कि वह अपनी स्वाभाविक सम्प्रेषणीयता बनाये हुए है। भारतीय प्राचीन वाङ्ग्मय से पात्रों और चरित्रों को इस प्रकार गीतों में प्रयुक्त किया गया है कि वे केवल नाम नहीं बल्कि लाक्षणिक प्रतीक बनकर किसी प्रवृत्ति के जीवंत रूप हों। वेद जी के गीतों की विशेषता उनका शैलीगत शिल्प-विन्यास है जिनमें नए-नए छान्दसिक प्रयोग किये गए हैं। मुक्तक छन्द ही नहीं बल्कि मुक्त-छन्द का गीतों में प्रयोग वह विशेष गुण है जो वेद जी को अपने समकालीन रचनाकारों से अलग दिखाता हुआ विशिष्ट पहचान बनाता है।

वेद जी का आग्रह अपनी मिट्टी की शाश्वतता से जुड़े रहना है जिसे संग्रह के प्रथम गीत में ही सफलता से व्यक्त किया गया है-

'एक मिट्टी की महक
जो जन्म से हमको मिली है
हवा कहती है कि उसको छोड़ दें हम!

एक पगडण्डी हमें जो
जोड़ती शाश्वत जड़ों से
सड़क कहती, सिर्फ उससे जोड़ दें हम!' ...... (हवा कहती है)

'मन्त्र अनगाये हैं' गीत एक श्रेष्ठ रचना है जिसमें करनी और कथनी की भिन्नता के सनातन सत्य को उजागर किया गया है-

'नज़रों में तो पड़ जाते हम
लेकिन देते नहीं दिखाई
यही सनातन सत्य भोगते आये हैं!

कहलाये तो पैर मगर स्वीकार हुए कब
हाड़-माँस कब हो पाये
हम रहे काठ-भर
नीचे-नीचे बिछते आये
रहकर सिर्फ टाट-भर
हम सुविधा के भोग, धुँधलके, साये हैं!' ...... (मन्त्र अनगाये हैं)

'सच करो स्वीकार' गीत में स्वयं के ही चयन से प्राप्त हुई असहज स्थिति को स्वीकार करके आगे बढ़ने में कोई शर्म नहीं होती। मोह- भंग की स्थिति को शब्दांकित करते हुए कहा है-

'हम तुम्हारे इंगितों पर आँख मूँदे चल रहे थे
पर कहीं गन्तव्य तुमको आँख खोले छल रहे थे
वह अयन भी आपका था
यह अयन भी आपका है
तब रहा साकार
अब है छाँव का विस्तार!'

समाजार्थिक सम्बन्धों का प्रभाव वर्षों से संचित पुराने मानवीय सम्बन्धों को भी बदल रहा है जो शहर में ही नहीं बल्कि चिर-परिचित गाँव को भी बदल रहा है। 'यह तो मेरा गाँव नहीं' तथा 'डर लगता है' गीत इसी सत्य को व्यक्त करते हैं। किसी भी सृजन या निर्माण के लिए उसका स्वरूप निर्धारण करना जरूरी है। यह तथ्य लेखन सहित सभी पर लागू होता है कि कुर्ता सीना है तो उसका कोई डिजाइन भी है यदि इसमें कोई छूट लेते हैं तो वह कुर्ता तो नहीं बनेगा और चाहे कुछ बन जाये। 'चमत्कार-से क्यों ढहते हो' गीत इसी तथ्य को व्यक्त करता है। सिकुड़ते हुए विश्व में जब दुनिया विश्वग्राम में बदल रही है तब चाहे अनचाहे उसे स्वीकार तो करना ही पडेगा। 'विश्वग्राम के आँगन में' गीत की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

'नित्य सिकुड़ती जाती, सटती
जाती दुनिया में
चित्र तैरता रहता
सबकी आँखों में
सबके माघ-पौष का
सबके चैतों का!

विश्वग्राम के आँगन में
हम खड़े हुए
भूल रहे हैं
यह अपनी चौपाल नहीं
यहाँ हवा
आज़ाद घूमती रहती है
खुलकर बहती है
खुलकर सब कहती है
इस पर कहीं नहीं कुछ जोर
लठैतों का! (विश्वग्राम के आँगन में)

वेद जी ने अपनी जीवन-संगिनी को माध्यम बनाकर लिखे कई गीत संग्रह में दिए हैं जिनमे प्रणय और पीड़ा दोनों को सफलता से व्यक्त किया है। संग्रह के गीत 'एक तुम्हारे बिन' तथा 'तुम आईं तो' इसी मनस्थिति व्यक्त करते हैं। 'एक तुम्हारे बिन' गीत की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

'सब कुछ वैसा-वैसा-सा है
लेकिन कैसा-कैसा-सा है
एक तुम्हारे बिन
गूँगा-बहरा दिन!'

पिता पर केंद्रित 'पिता हमारे' शीर्षक से गीत में भावुक संवेदना को स्वर दिया गया है।
'पिता हमारे सघन छाँव थे
कोई दशरथ राम नहीं थे
ऋजु रेखा ही जीवन परिचय!
***
जब-तब पट्टी पेट बाँध कर
लिखते बच्चों के कल की जय!'

अपने समकाल के यथार्थ को व्यक्त करने की वेद जी की अपनी ही शैली है जो चीजों को आर-पार देखने में विश्वास रखती है जिसे कोई आकर्षण नहीं बाँध पाता और नयी राहों की खोज करता है। वास्तविकता से अभिनय और अभिनय से व्यापार की यात्रा करता कलाकार जब बाज़ारी शक्तियों का दास बनकर व्यावसायिकता में डूब गया तब गीतकार बिना किसी का नाम लिए सत्य को शब्द देकर अपनी प्रतिक्रिया देता है। 'सपनों को झुठलाता है' गीत इन्हीं सन्दर्भों को व्यक्त करती श्रेष्ठ रचना है। एक गीतांश देखिये ;
'वह अभिनय का कलाकार है
हर किरदार निभाता है'!

'अभिनय तक तो सभी ठीक था
पर, जब यह व्यापार हुआ
तेल बेचने चली कला तो
सब कुछ बंटाधार हुआ
अब काँटा है, भोली-भाली
मछली खूब फँसाता है!'

हर रचनाकार अपनी तरह से अपने समय पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है जो उसके लेखन का प्राण और केन्द्रीयता होती है। कभी स्वयं के माध्यम से तो कभी समाज के माध्यम से अनुभवजन्य सच को शब्द देता है। संग्रह के गीतों में यही आत्म-तत्व तरह-तरह से मुखरित हुआ है। 'मैं हुआ आश्वस्त' इसी प्रकार की रचना है। गीत की पंक्तियाँ देखिये-

'घूँट कर प्याला किसी
सुकरात ने फिर से पिया है
मैं हुआ आश्वस्त
ज़िंदा हूँ, कहीं ज़िंदा!
***
आदमी में जानवर
रहना हकीकत है
फर्क है नाखून-पंजों का
जुबानों का
शब्द जो हो, अर्थ पर
अधिकार रहता है
शाह का, उसके मुसाहिब
हुकमरानों का
अर्थ पर अधिकार से खिलवाड़
यदि अंतिम नहीं तो
कौन कह सकता, न हो
सुकरात आइंदा!'

इसी क्रम में जब राम का नाम लेकर अनेक भ्रांत धारणाओं के द्वारा समाज में उग्रता फैलाई जा रही है तब गीतकार राम से भी मिथक से बाहर आकर आज के समय के अनुसार युद्ध के प्रतीक धनुष-बाण लिये बिना आने के लिए कहता है।

'आओ राम
मिथक से बाहर होकर आओ!

सब कुछ बदला
दुनिया अब
त्रेता से आगे
प्रश्न कि दागे
अगला-पिछला
आ भी जाओ
प्रश्नों का उत्तर हो जाओ!
अबकी आना
धनुष-बाण
मत लेकर आना
सरगम लाना
गीत सिखाना
सबको खुद में
खुद में सबको राम रमाओ!'

मिथकीय पात्रों और प्रसंगों का प्रयोग अनेक गीतों में किया गया है जिनमें मुख्य रूप से 'दुविधा में हम', 'द्रोपदी हूँ', 'क्षीण हो रही टेर', 'अच्छा हुआ', 'यों ही नहीं' आदि मुख्य हैं। पुरुरवा, मनु, विदुर, शकुनि, कामदेव, विष्णुगुप्त चाणक्य, तथागत, कुरुक्षेत्र आदि अनेक नाम हैं जो केवल नाम ही नहीं बल्कि किसी प्रवृत्ति के प्रतीक बनकर गीतों में आये हैं तथा जिनसे युगानुरूप प्रासंगिकता के साथ रचनाओं को पुष्ट किया गया है।

समकालीन यथार्थ को व्यक्त करते हुए कोई भी रचनाकार अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या धार्मिक घटनाओं और प्रसंगों से विमुख नहीं रह सकता। वेद जी ने भी अपनी शैली में युगबोध को व्यक्त किया है जिनमें आज का व्यक्ति अंधी भागमभाग में इतना व्यस्त है कि स्वयं के लिए स्वयं से ही प्रतियोगिता कर रहा है। इन गीतों में 'सच करो स्वीकार', 'अर्घ्य के दौने में', 'इस बयार ने', 'सपनों को झुठलाता है', 'क्या हुआ है परिंदों को', 'अपाहिज काफिये ', 'हमको सबको बदला है', 'ढाक के तीन पात' ,'फसल पकी है ','प्रश्न बड़े हैं','यही द्वन्द्व साँसों की पूँजी' ,'जीने की अब यही शर्त है' आदि मुख्य हैं जो युग सत्य को सफलता से व्यक्त कर रहे हैं। उनके एक गीत से पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

'ओ रे किसना!
सुना चुनाव बहुत नेड़े
क्या सोचा है!

क्या सोचें, सब कुछ तो
उलट-पुलट भाई
वही धाक के तीन पात
फिर आये हैं
आँखों को कुछ
नये खिलौने लाये हैं
कंधे बदले
लेकिन वही अंगोछा है! ...(ढाक के तीन पात)

और एक दूसरे गीत में परिस्थिति में जकड़े आम आदमी की कसमसाहट को कुछ इस तरह व्यक्त किया है-

'कुछ है जो बाहर जब आये
अंतर बार-बार समझाये
यही द्वन्द्व साँसों की पूँजी!

कब जाने कुछ फिसल न जाए
अब संवादों से डरता हूँ
भ्रूणों की ह्त्या करता हूँ
हर ह्त्या में खुद मरता हूँ
रक्तबीज संसृतियाँ हँसतीं
चिढ़ा-चिढ़ा मैं भी तो हूँ जी'! ...(यही द्वन्द्व साँसों की पूँजी)

कभी-कभी प्रकृति भी मानव-सभ्यता को अपनी तरह से चेताती है जो समय-समय पर त्रासदी के रूप में प्रकट होता है। ऐसे में कवि का भावुक ह्रदय संवेदना को शब्द देने के लिए व्याकुल हो जाता है। वेद जी ने भी उत्तराखंड, नेपाल और श्रीनगर की त्रासदी को अपने गीतों में व्यक्त किया है। 'मौन के अंगार का अणुमात्र', 'जलजले की इबारत' और 'झील क्या बिफरी' शीर्षक के गीतों में इसी संवेदना को शब्दांकित किया है। 'झील क्या बिफरी' गीत की पंक्तियाँ देखिये-

'झील क्या बिफरी
जिधर देखो
कि चस्पा कर दिया है
मरण का सन्देश
तांडव कर प्रलय ने
सिर्फ प्रलयंकर लिखा है
लहर की हर भंगिमा पर
किया कुछ अक्षम्य
क्या फिर बंधु हमने'... (सन्दर्भ:श्रीनगर त्रासदी)

संग्रह के गीतों से अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो वेद जी की वैचारिक परिपक्वता, भाषा की मजबूत पकड़, शैली का सम्पुष्ट अभ्यास और कथ्य का वैविध्य स्वरुप को सफलतापूर्वक अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं। डॉ. योगेन्द्र दत्त शर्मा ने अपनी भूमिका में सही ही कहा है, '' 'अक्षर की आँखों से' देखने परखने का अर्थ है -आँख और अक्षर के बीच सामंजस्य बैठाना यानी कबीर की 'आँखिन देखी' वाली परंपरा से जुड़ना। एक तरह से यह 'आँखिन देखी' और 'कागद की लेखी' के बीच संगति स्थापित करना है।'' ये गीत, नवगीत में प्रायोगिक नव्यता के प्रखर समुच्चय हैं जिनमे वेद जी के निरंतर विकसित होते शिल्प और युगबोध के पुष्ट कथ्य अपने पिछले संग्रहों की भाँति विशाल पाठक जगत में सराहना प्राप्त करेंगे।
१.११.२०१७
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गीत नवगीत संग्रह- अक्षर की आँखों से, रचनाकार- वेद प्रकाश शर्मा वेद, प्रकाशक-अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, ,  प्रथम संस्करण- २०१७ मूल्य :  रु. १५०पृष्ठ : १२८, समीक्षा- जगदीश पंकज

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

नाप रहा हूँ तापमान को- वेद प्रकाश शर्मा 'वेद'

संजय शुक्ल 
श्री वेदप्रकाश शर्मा वेद अपने पहले नवगीत संग्रह ‘आओ नीड़ बुने’ से साहित्य जगत् में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। कथ्य का चयन और उसकी अनूठी प्रस्तुति वेद जी को अपने समकालीन कवियों से थोड़ा अलग किंतु विशेष पहचान प्रदान करती है। इन्ही विशेषताओं के साथ वेद जी अपने दूसरे नवगीत संग्रह ‘नाप रहा हूँ तापमान’ को लेकर प्रस्तुत हैं।

दरअसल, कवि के मन में जब किसी गीत की विषयवस्तु अँकुरित होती है तो उसकी रचना से पहले कवि बिंबों और प्रतीकों की चयन प्रक्रिया को पूरी करता है। बिंबों और प्रतीकों के अनुरूप भाषा स्वयं बनती चली जाती है। अतः कवि की कुशलता उसके द्वारा प्रयुक्त किए गए बिंबों और प्रतीकों से परखी जा सकती है। कभी-कभी इन दोनों के प्रयोग में हुई असावधानी कविता की सम्प्रेषणीयता को प्रभावित करती है तो कभी उसे अखबारी बना देती है। ऐतिहासिक पौराणिक, मिथकीय पात्रों और घटनाओं का कविता में प्रयोग कोई नई बात नहीं है। 

समकालीन और पूर्ववर्ती रचनाकारों ने इन सभी का सफल प्रयोग अपनी कविताओं में किया है और आने वाली पीढ़ी के कवि इस परंपरा को अपनाएँगे - इसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिए परन्तु संकट के वर्तमान युग के पाठकों के सीमित ऐतिहासिक, पौराणिक तथा सांस्कृतिक बोध के जीवन की जटिलताओं से जूझते हुए व्यक्ति अपने गौरवमयी अतीत से अनभिज्ञ ही रह जाता है। अतः जब उसके सामने ऐसी कोई कविता जिसमें उपर्युक्त क्षेत्रों से बिंब, प्रतीक, कोई पात्र अथवा कोई घटना आज के समय की विरूपताओं को व्याख्यायित करती हुई आती है तो वह कथ्य से जुड़ने में कठिनाई का अनुभव करता है भले ही उस कविता में पाठक को अपने त्रासद अथवा सुखद जीवन की ही छवि क्यों न नजर आती हो। दीर्घ और निरन्तर अभ्यास के पश्चात् ही कवि को इस प्रकार के प्रयोगों में सफलता मिल पाती है। वेद जी इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं। सरयू खोज रहा हूँ’ कविता की निम्न पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं-
तू तो अग्नि परीक्षा देकर
चिर-अर्चित उपमान हो गई
उससे जन्मे प्रश्नों से बिंध
अब तक सरयू खोज रहा हूँ

धुर अंधे विश्वास निभाये 
पर सच्चे एहसास जलाये
कुछ स्फुर्लिग जो बच्चे बचाये
उनका आधा, पौना, पूरा
खट्टा, मीठा भोज रहा हूँ

इस प्रकार की पंक्तियाँ 'कहाँ हो', हर्षवर्द्धन गीत में भी देखी जा सकती हैं- 
हर दिशा से आ रही बस
एक ही धुन
कहाँ हो तुम
हर्षवर्द्धन! 
कहाँ हो तुम? 

माघ-मेला, सांध्य बेला
में पहुँचकर थक गया है
छक गया है 
राह तककर

आँख में था
पाँख में था
साफ-सुथरा रेत पर वो
रेत-सा हो बिम्ब बिखरा

चिन्दियों में खड़ा टटका
झुर्रिया बुन 
हर्षवर्द्धन 
कहाँ हो तुम?

वेद अपने परिवेश पर बहुत ही सूक्ष्म और पैनी दृष्टि रखते हैं। उसका बहुत ही बारीकी से परीक्षण, निरीक्षण करते हैं और फिर उसमें फैली विरूपता पर पूरी ऊर्जा और शक्ति के साथ शाब्दिक चोट करते हैं। ऐसा करते हुए कवि मन आक्रोश से भरा होने के बाद भी अपने प्रहारों से मानवता को खंड-खंड नहीं अपितु उसे सुंदर और सुघड़ बनाने का प्रयास करता है और अपने कविधर्म को निभाता है-
गंगापुत्रों, अपनी अपनी
परिभाषाएँ नई लिखो अब
समय चीखता-बंधु विदुर के 
साँचों में कुछ ढले दिखो अब

शर-शैया का मर्मान्तक विष 
घूँट-घूँट क्यों पियें-पचाएँ
जाने क्या-क्या चला गया है
लिया-दिया जो शेष रह गया 
आ सुगना अब उसे बचाएँ।

वेद जी अपनी भाषा से जैसी गीत संरचनाएँ करते हैं वे उनकी विलक्षण प्रतिभा का ही बोध करातीं हैं। वह अपने देश-काल की नहीं अपितु परंपरा, संस्कृति और दार्शनिक दृष्टियों को भी अपने नवगीतों में सफलतापूर्वक अभिव्यंजित करते हैं। ‘संस्कृति का सतिया’ कवि की इस दृष्टि से परिचय कराता है-
एक लांछना लेकर सिर पर
कितना काम किया
तुलसी, शायद ठीक जिया

युग ने कैसे देखा होगा
तुझको एक आँख से
चील के पंजे लेकर
गिद्दई हठी पाँख से

तेरे सुगना ने मिट्ठू को 
कब-कब नहीं पिया
तुलसी, तू अद्भुत नदिया!

श्री वेदप्रकाश शर्मा वेद अपने गीतों में शब्द-चयन, लय-प्रवाह, संगीतात्मकता और भाषासामरस्य के प्रति अत्यंत सचेत रहते हैं। कवि ने विभिन्न छंदों में गीत रचे हैं और उनको अपने काव्य-कौशल से बखूबी साधा है-
आशंकाएँ मूल
कभी निर्मूल
बनी क्यों भूल
समय से पूछ रहे हम

विपदाओं के ठाठ
हमारे घाट
बिछाकर खाट
मजे से हुक्का पीते
सूनी-सूनी बाट
कि उजड़ी हाट
द्वार का टाट
चिलम भर-भरकर जीते

दूर कहीं मस्तूल
हवा प्रतिकूल
गई क्या भूल
समय से पूछ रहे हम। उपर्युक्त छंद-प्रवाह वेद जी के अतिरिक्त कहीं और वर्षों से देखने को नहीं मिला। हाँ! एक पुराने फिल्मी गीत की पंक्तियाँ अवश्य स्मरण हो जाती हैं- मान मेरा अहसान/अरे नादान/ कि मैंने तुझसे किया है प्यार। - इत्यादि।

पूरे संग्रह का आद्योपान्त पारायण करने के पश्चात् यह धारणा बनने में देर नहीं लगती कि वेद जी कुछ अलग सोचने वाले कवि हैं। उनकी अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति चिन्ताएँ हैं। वे आत्ममुग्धता से परे एक सचेत और चौकन्ने रचनाकार हैं। तभी तो वो अपने समय के तापमान को मापने का साहसिक कर्म करते हैं। साहसिक इसलिए के गीत में भीड़ लुभावन मांसल प्रेम, प्रकृति सौंदर्य अथवा लिजलिजी और मसृण भावुकताएँ गाकर तात्कालिक प्रसिद्धि बटोरने के मोह को त्यागकर एक कवि अपने परिवेश की तपिश को मापने निकला है और उसे लयात्मकता और संगीतात्मकता के साथ छंदों में अभिव्यक्ति करता है-
जन-गण-मन वाले पारे से
आस-पास के तापमान को 
नाप रहा हूँ!

उगते संशय बीच अनिश्चय
गहराता है धूम-धूम सा
वलय बनाकर
और निगलता नई लीक की
नई बगावत बहला-फुसला

डरा-डराकर
ढीली तो है कीली, लेकिन
दिल्ली अब भी दूर बहुत है
भाँप रहा हूँ!

वेद जी न तो संपूर्णत या कलावादी हैं, न ही यथार्थवादी अथवा तात्कालिकतावादी और न ही महल मनोरंजनवादी। वे एक समर्पित और समर्थ गीतकार हैं जिनकी कथ्य और शिल्प की नव्यता स्वागत योग्य है। वेगमयी भाषा पाठक को गीतों से जोड़े रखने में सफल है। कहीं-कहीं विचारों के क्रम और भाव-विस्तार के सूत्रों को पकड़ने में कठिनाई अवश्य होती है परन्तु एक बार यह धुँधलका छटते ही कुनकुनी धूप की-सी चमक पाठक को चमत्कृत कर देती है।
९.११.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - नाप रहा हूँ तापमान को, वेद प्रकाश शर्मा 'वेद', प्रकाशक ज्योति पर्व प्रकाशन, ९९-ज्ञान खंड-३, इंदिरापुरम, गाजियाबाद।  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये २४९/-, पृष्ठ- १२८, समीक्षा - संजय शुक्ल।