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रविवार, 5 अगस्त 2018

nepali

गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह 'नेपाली'
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गोपाल सिंह नेपाली (११ अगस्त १९११-१७ अप्रैल १९६३) का जन्म बेतिया, पश्चिमी चम्पारन बिहार में हुआ था। उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह था। वे हिंदी - नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिये गाने भी लिखे। वे एक पत्रकार भी थे जिन्होने "रतलाम टाइम्स", चित्रपट, सुधा, एवं योगी पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। १९३३ में उनका पहला काव्य संग्रह ‘उमंग’ प्रकाशित हुआ था। ‘पंछी’, ‘रागिनी’, ‘पंचमी’, ‘नवीन’ और ‘हिमालय ने पुकारा’ इनके काव्य और गीत संग्रह हैं। नेपाली ने देश-प्रेम, प्रकृति-प्रेम तथा मानवीय भावनाओं का सुंदर चित्रण किया है। उन्हें "गीतों का राजकुमार" कहा जाता था। नेपाली ने तकरीबन चार दर्जन फिल्मों के लिए गीत लिखे थे। उन्होंने ‘हिमालय फिल्म्स’ और ‘नेपाली पिक्चर्स’ की स्थापना की थी। निर्माता-निर्देशक के तौर पर नेपाली ने तीन फीचर फिल्मों-नजराना, सनसनी और खुशबू का निर्माण भी किया था।
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गीत
गोपालसिंह नेपाली
*
तुम जलाकर दिये, मुँह छुपाते रहे, जगमगाती रही कल्पना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना
*
चाँद घूँघट घटा का उठाता रहा
द्वार घर का पवन खटखटाता रहा
पास आते हुए तुम कहीं छुप गए
गीत हमको पपीहा रटाता रहा
तुम कहीं रह गये, हम कहीं रह गए, गुनगुनाती रही वेदना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना
*
तुम न आए, हमें ही बुलाना पड़ा
मंदिरों में सुबह-शाम जाना पड़ा
लाख बातें कहीं मूर्तियाँ चुप रहीं
बस तुम्हारे लिए सर झुकाता रहा
प्यार लेकिन वहाँ एकतरफ़ा रहा, लौट आती रही प्रार्थना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना
*
शाम को तुम सितारे सजाते चले
रात को मुँह सुबह का दिखाते चले
पर दिया प्यार का, काँपता रह गया
तुम बुझाते चले, हम जलाते चले
दुख यही है हमें तुम रहे सामने, पर न होता रहा सामना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना
***

शनिवार, 4 अगस्त 2018

muktak

मुक्तक 
*
हिंदी कहो, हिंदी पढ़ो, हिंदी लिखो, नित जाल पर
हिंदी- तिलक हँसकर लगाओ, भारती के भाल पर
विश्व वाणी है यही, कल सब कहेंगे सत्य यह
मीडिया-मित्रों कहो 'जय हिन्द-हिंदी' जाल पर
*
हिंदी में हिंदी नहीं तो, सब दुखी हो जाएँगे
बधावा या मर्सिया इंग्लिश में रटकर गाएँगे?
आरती या भजन समझेंगे नहीं जब देवता-
कहो कोंवेंट-प्रेमियों वरदान कैसे पाएँगे?
*
गले मिल, झगड़ा करो स्वीकार है
अधर पर रख अधर सिल, स्वीकार है
छोड़ दें हिंदी किसी भी शर्त पर
है असंभव यही अस्वीकार है
*



dohe barsaat ke

दोहे बरसात के
*
मेघदूत संदेश ले, आये भू के द्वार 
स्नेह-रश्मि पा सु-मन हँस, उमड़े बन जल-धार 
*
पल्लव झूमे गले मिल, कभी करें तकरार
कभी गले मिलकर 'सलिल', करें मान मनुहार 
*
आदम दुबका नीड़ में, हुआ प्रकृति से दूर
वर्षा-मंगल भूलकर, कोसे प्रभु को सूर
*

navgeet

नवगीत:
महका-महका
संजीव
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
लख मयंक की छटा अनूठी
सज्जन हरषे.
नेह नर्मदा नहा नवेली
पायस परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
***
salil.sanjiv@gmil.com
#दिव्यनर्मदा
#divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

doha salila

दोहा सलिला 
*
लिखा बिन लिखे आज कुछ, पढ़ा बिन पढ़े आज 
केर-बेर के संग से, सधे न साधे काज
*
अर्थ न रहे अनर्थ में, अर्थ बिना सब व्यर्थ 
समझ न पाया किस तरह, समझा सकता अर्थ
*
सजे अधर पर जब हँसी, धन्य हो गयी आप 
पैमाना कोई नहीं, जो खुशियाँ ले नाप
*
सही करो तो गलत क्यों, समझें-मानें लोग? 
गलत करो तो सही, कह; बढ़ा रहे हैं रोग

*
दिल के दिल में क्या छिपा, बेदिल से मत बोल 
संग न सँगदिल का करो, रह जाएगी झोल
*
प्राण गए तो देह के, अंग दीजिए दान
जो मरते जी सकेंगे, ऐसे कुछ इंसान

*
कंकर भी शंकर बने, कर विराट का संग 
रंग नहीं बदरंग हो, अगर करो सत्संग
*
कृष्णा-कृष्णा सब करें, कृष्ण हँस रहे देख
मैं जन्मा क्यों द्रुपदसुता,का होता उल्लेख?

*
मटक-मटक जो फिर रहे, अटक रहे हर ठौर 
फटक न;  सटके सफलता, अटके; करिए गौर।  
*
३.८.२०१८, ७९९९५५९६१८ 
salil.sanjiv@gmail.com  

varsha geet

वर्षा गीत  
*
बारिश तो अब भी होती है 
लेकिन बच्चे नहीं खेलते. 
*
नाव बनाना 
कौन सिखाये?
बहे जा रहे समय नदी में.
समय न मिलता रिक्त सदी में.
काम न कोई
किसी के आये.
अपना संकट आप झेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
डेंगू से भय-
भीत सभी हैं.
नहीं भरोसा शेष रहा है.
कोइ न अपना सगा रहा है.
चेहरे सबके
पीत अभी हैं.
कितने पापड विवश बेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
उतर गया
चेहरे का पानी
दो से दो न सम्हाले जाते
कुत्ते-गाय न रोटी पाते
कहीं न बाकी
दादी-नानी.
चूहे भूखे दंड पेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

shanatiraj pustakalay

विश्व वाणी हिंदी संस्थान - शांति-राज पुस्तक संस्कृति अभियान
समन्वय प्रकाशन अभियान
समन्वय ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
***
ll हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल l
'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल ll
ll जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार l
'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ll
***
प्रति- निदेशक / प्राचार्य,
वेदांत इंटरनेशनल स्कूल,
समीप सुखाड़िया स्टेडियम,
गोविन्द नगर, भीलवाड़ा।
चलभाष: ९२१४२३२४१५/२९०४५०२५ /५४१५६४।
विषय: शांतिराज पुस्तकालय योजना के अंतर्गत पुस्तक प्रदाय।
सन्दर्भ: आपका आवेदन दिनांक ५ जुलाई २-१७।
महोदय,
वंदे भारत-भारती।
सहर्ष सूचित किया जाता है की आपके आवेदन पर विचार कर संस्थान-कार्यकारिणी द्वारा शांतिराज पुस्तकालय योजना के अन्तर्गत निशुल्क पुस्तक प्रदाय हेतु आपकी संस्था का चयन किया गया है।
तदनुसार निम्नानुसार पुस्तकें भेजी जा रही हैं। इस योजना के नियम भी संलग्न हैं।
आपसे अपेक्षा है कि यथाशीघ्र पुस्तकों की पावती भेजें। पुस्तकों को अभिलेखों में दर्ज कर, पाठकों को उपलब्ध कराएं। पुस्तकालय में यथास्थान 'विश्व वाणी हिंदी संस्थान - शांति-राज पुस्तक संस्कृति अभियान, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१' का बोर्ड या बैनर लगाएं। हर तीन माह में पाठकों को दी गयी पुस्तकों तथा पाठकों की संख्या सूचित करते रहें ताकि हम पुनः: पुस्तकें उपलब्ध कराने हेतु पुस्तकों के सदुपयोग से आश्वस्त हो सकें। पुस्तकालय के स्वामित्व तथा सञ्चालन दायित्व पूर्णत: आपका होगा।
पुस्तक सूची-
००१. काल है संक्रांति का, नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', ३००/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००२. मीत मेरे, कविता संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', ८०/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००३. कुरुक्षेत्र गाथा, प्रबंध काव्य, स्व. द्वारका प्रसाद खरे- आचार्य संजीव वर्मा ३००/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००४. भूकंप के साथ जीना सीखें, तकनीकी, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००५. ऑफ़ एंड ऑन, अंग्रेजी ग़ज़ल, डॉ. अनिल जैन, ८०/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००६. यदा-कदा, काव्यानुवाद, डॉ. बाबू जोसेफ, ८०/- समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
००७. काव्य मन्दाकिनी २००८, काव्य संग्रह, श्यामलाल उपाध्याय, ३२५/-, भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता।
००८. काव्य मन्दाकिनी २०१०, काव्य संग्रह, श्यामलाल उपाध्याय, ३२५/-, भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता।
००९. देश का नसीब, क्षणिकाएं, रमेश मनोहरा, १००/-, मांडवी प्रकाशन गाजियाबाद।
०१०. काँटों के बीच, गीत संग्रह, सूर्यदेव पाठक 'पराग', ७५/-, प्रत्यय प्रकाशन पटना।
०११. दिमाग में बकरा युद्ध, व्यंग्य संग्रह, सुधारानी श्रीवास्तव, १००/-, विधि चेतना प्रकाशन जबलपुर।
०१२. कौआ कान ले गया, व्यंग्य संग्रह, विवेक रंजन श्रीवास्तव, ६०/-, सुकीर्ति प्रकाशन कैथल।
०१३. हँसोगे तो फँसोगे, हास्य कवितायें, राम सहाय वर्मा, ५०/-, मकरंद प्रकाशन नोएडा।
०१४. इक्कीसवीं सदी की ओर, बाल नाटक, डॉ. शकुंतला चौधरी, २०/-, प्रसाद प्रकाशन जबलपुर।
०१५. अनाम भामाशाह, कमलेश शर्मा, कहानी संग्रह, १००/-, साधु आश्रम होश्यारपुर।
०१६. मुक्त उड़ान, हाइकु, कुमार गौरव अजितेंदु, १००/-, शुक्तिका प्रकाशन कोलकाता।
०१७. उदगार, डॉ. कमला डोगरा, कवितायें, १५०/-, पहले पहल प्रकाशन भोपाल।
०१८. पूजाग्नि, बृजेंद्र अग्निहोत्री, कवितायें, ९५/-, उमा प्रेस फतेहपुर।
०१९. कमबख्त तीसरा बच्चा, व्यंग्य संग्रह, रविशंकर परसाई, ८०/-, कैलाश प्रकाशन पिपरिया।
०२०. कलम मुखबिर है, व्यंग्य संग्रह, रविशंकर परसाई, ८०/-, कैलाश प्रकाशन पिपरिया।
२१. नीरव का संगीत, कवितायें डॉ. अग्निभ मुखर्जी, ८०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर।
०२२. गाँधी दर्शन, सुमन जेतली, ५०/-, लोक हितकारी परिषद् मुरादाबाद।
०२३. दूध का दूध, समीक्षाएँ, सदाशिव कौतुक, १००/-, साहित्य संगम इंदौर।
०२४. मानस के मोती, विवेचना, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, गणपति प्रकाशन दिल्ली।
०२५. अंतर्ध्वनि, कवितायेँ, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, अर्पित प्रकाशन कैथल।
०२६. रघुवंशम, काव्यानुवाद, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, अर्पित प्रकाशन कैथल।
०२७. स्वयं प्रभा, पद्य, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, पाथेय प्रकाशन जबलपुर।
०२८. बाल कौमुदी, कविता, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', ६०/-, विमल प्रकाशन जयपुर।
०२९. सुमन साधिका, बालगीत, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, ६०/-, विमल प्रकाशन जयपुर।
०३०. गहराती हुई धुंध,काव्य, डॉ. मणि शंकर प्रसाद, ८५ /-, अ. भा. भाषा साहित्य सम्मेलन पटना।
०३१. हिंदी भाषा के विविध आयाम, निबंध, डॉ. राजेश्वरी शांडिल्य, २००/-, राज्य श्री प्रकाशन लखनऊ।
०३२. साँझ का सूनापन, गद्य काव्य, डॉ. ॐप्रकाश हयारण 'दर्द', ५०/-, चंद्रकांता प्रकाशन झाँसी।
०३३. आकाश के मोती, कविता संग्रह, अनिरुद्ध सिंह सेंगर, २५/-, राजेश्वरी प्रकाशन गुना।
०३४. अंतर-संवाद, कहानी संग्रह, रजनी सक्सेना, १२०/-, जन परिषद् भोपाल।
०३५. तुम्हारे लिए, गद्य काव्य, डॉ. ॐ प्रकाश हयारण 'दर्द', १५०/-, चंद्रकांता प्रकाशन झाँसी।
०३६. स्वर्णिम कलश, डॉ. जगदीश चंद्र चौरे, २५०/-, श्रेष्ठ प्रकाशन खंडवा।
०३७. जादू शिक्षा का, नाटक, विवेकरंजन श्रीवास्तव, ९०/-, विमल प्रकाशन जयपुर।
०३८. मेरे प्रिय व्यंग्य लेख, विवेक रंजन श्रीवास्तव, ७०/-, विमल प्रकाशन जयपुर।
०३९. सद्विचार, छंटन, दामोदर भगेरिया, १००/-, भगेरिया प्रकाशन जयपुर।
०४०. शहर में सांप ज़िंदा है, कवितायें, संतोष शर्मा 'चहेता, २०/-, स्मृति प्रकाशन शाजापुर।
०४१. समीक्षा के अभिनव सोपान, डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, २००/-, शिव संकल्प साहित्य परिषद् होशंगाबाद।
०४२. अनुभव सतसई, दोहा संग्रह, आत्म प्रकाश, १००/-, तक्षशिला अपार्टमेंट अहमदाबाद।
०४३. वक़्त का शाहकार, कविताएँ,डॉ. रामप्रकाश 'अनंत', २५/-, आल्टरनेटिव पब्लिकेशन आगरा।
०४४. निसर्ग, काव्य संग्रह, प्रमोद सक्सेना, ६०/-, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल।
०४५. हालात से दो-दो हाथ, ग़ज़ल संकलन, श्री राम मीणा, ५१/-, राष्ट्र भारती प्रकाशन नर्मदापुरम।
०४६.तितलियाँ आसपास, तसलीस (त्रिपदी), अज़ीज़ अंसारी, १२०/-, सुर्खाब पब्लिकेशन उज्जैन।
०४७. स्मृतियों के दीप, काव्य संकलन, राजेंद्र प्रसाद 'ऱाज, १५०/-, प्रेरणा साहित्य परिषद्, रहटवाड़ा, होशंगाबाद।
०४८. तपिश, कविता संग्रह, लक्ष्मी ताम्रकार, ६०/-, श्री प्रकाशन दुर्ग।
०४९. शब्दों के शिला खंड, कवितायें, जगदीश चंद्र शर्मा, ६०/-, हंसा प्रकाशन जयपुर।
०५०. परछाइयाँ, ग़ज़ल संग्रह, आत्म प्रकाश, ७०/-, तक्षशिला अपार्टमेंट अहमदाबाद।\
०५१. इंद्रधनुषी, कवितायेँ, शास्त्री राम गोपाल चतुर्वेदी 'निस्छल, १००/-, मनसा ग्राफिक्स भोपाल।
०५२. उड़ान, कवितायें, प्रो. धर्मवीर साहनी, २००/-, अमृत प्रकाशन ग्वालियर।
०५३. हास्य बम, कवितायेँ, इंजी.राजेश अरोरा 'शलभ', २५/-, डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली।
०५४. खटमल दर्शन, हास्य कुण्डलिया, केहरि एस. जी. पटेल, २०/-, मुक्त चेतना विचार मंच, बाँसा, हरदोई।
०५५. लोक सतसई, दोहा संग्रह, शिव गुलाम सिंह 'केहरि', ४०/-, अक्षय प्रकाशन कानपुर।
०५६. भावनामृत, काव्य, डिहुर राण निर्वाण, ६/-, संगम साहित्य समिति. मगरलोड छत्तीसगढ़।
०५७. जपु जी साहिब,समूह सिख संगत जबलपुर।
०५८. समाधान, उपन्यास, जी. वी.एस. ए. पाण्डुरंगइया, ४०/-, विजय प्रिंटर्स मेरठ।
०५९. गायत्री सार, , शिव गुलाम सिंह 'केहरि', १/-, केहरि प्रकाशन तेंदुआ हरदोई।
०६०. कटपीस, हास्य कविता, रासबिहारी पांडेय, ३०/-, सरयू प्रकाशन जबलपुर।
०६१. शेयर खाता खोल सजनिया, हास्य कविता, प्रबोध कुमार गोविल, १८/-, राही सहयोग संस्थान वनस्थली। ०६२. तृप्ति, लघुकथा संग्रह, रविंद्र खरे 'अकेला', ४०/-, समीर प्रकाशन जबलपुर।
०६३. काका के जूते, व्यंग्य लेख, रासबिहारी पांडेय, ३०/-, सरयू प्रकाशन जबलपुर।
०६४. काव्य अर्चना, कवितायेँ, रत्न लाल वर्मा, २०/-, हमीरपुर हिमाचल प्रदेश।
०६५. वेद काव्य, कवितायेँ, आचार्य ॐ प्रकाश, गाज़ियाबाद।
०६६. वतन को नमन, कवितायेँ, प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, विकास प्रकाशन मंडला।
०६७. अनुगुंजन, काव्य संग्रह, प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव 'विदग्ध', १५०/-, विकास प्रकाशन मंडला।
०६८. बिजली का बदलता परिदृश्य, लोकोकपयोगी, विवेक रंजन श्रीवास्तव, २००/-, विमल प्रकाशन जयपुर।
०६९. मन का साकेत, गीत, जयप्रकाश श्रीवास्तव, १५०/-, विभोर ग्राफिक्स भोपाल।
०७०. पनघट पर गागर, काव्य, रामखिलावन गर्ग, १५०/-, प्रकाशन जबलपुर।
०७१. श्री गीता मानस, काव्यानुवाद, डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर', २७१/-, गुप्तेश्वर मंदिर जबलपुर।
०७२. खोया हुआ शहर, काव्य, अमरनाथ मेहरोत्रा, १००/-, समीक्षा प्रकाशन दिल्ली।
०७३. आक्रोश कवितायें, विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र', ३५/-, विकास प्रकाशन मंडला।
०७४. ईशाराधन, प्रार्थना संग्रह, प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', २५/-, विकास प्रकाशन मंडला।
७५. मुद्रा विज्ञान, डॉ. जयशंकर यादव-वीर राजेंद्र जैन, २०/-, महावीर इंटरनेशनल बेलगाम।
०७६. आदित्य ह्रदयस्तोत्रम, काव्यानुवाद, डॉ. सतीश सक्सेना 'शून्य', ५/-, शानू पब्लिकेशन ग्वालियर।
०७७. सिक्ख इतिहास की झलक, मनमोहन दुबे, २०/-, खन्ना बुक डिपो जबलपुर।
०७८. यादें, कवितायें, बृजेन्द्र अग्निहोत्री, ५०/-, फतेहपुर।
०७९. अहल्याकरण, आर. सी. शर्मा 'आरसी', १०५/-, दीपशिखा प्रकाशन कोटा।
०८०. हाशिये पर, क्षणिकाएँ, सुगन चंद्र जैन 'नलिन', १००/-, रूपसी प्रकाशन भोपाल।
०८१. आँगन भर आकाश, गीत संग्रह, मधु प्रसाद, १००/-, श्री प्रकाशन कोलकाता।
०८२. सतपुड़ा के स्वर, काव्य संग्रह, अब्बास खान संगदिल, ७५/-, समय प्रकाशन दिल्ली।
०८३. म्हां सूं असी बणी, काव्य संग्रह, रामेश्वर शर्मा 'रामू भैया', ८०/-, हितैषी प्रकाशन कोटा।
०८४. कल की कलकल, सुशीला अवस्थी, ४००/-, सर्जनात्मक संतुष्टि संस्थान जोधपुर।
०८५. सदी के इन अंतिम दिनों में, कवितायें, राजेंद्र नागदेव, ९०/-, राजसूर्य प्रकाशन दिल्ली।
०८६. अंतर्मन के साथ, काव्य, शिवनारायण जौहरी 'विमल', १५०/-, कैलाश पुस्तक सदन भोपाल।
०८७. अब तक रही कुँवारी धूप, नवगीत, निर्मल शुक्ल, १५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ।
०८८. नावक के तीर, दोहा संग्रह, अनंत राम मिश्र 'अनंत', १८०/-, भारती भाषा प्रकाशन दिल्ली।
०८९. मैं सागर सी, हाइकु-ताँका संग्रह, मञ्जूषा मन, १४०/-, पोएट्री बुक बाजार लखनऊ।
०९०. उपकार जनरल नॉलेज २०११, कुमार सुंदरम, १४५/-, उपकार प्रकाशन आगरा।
०९१. ईयर बुक २०१०, पी. एस. ब्राइट, १८०/-, ब्राइट पब्लिकेशन दिल्ली।
०९२. यथार्थ, कवितायें, देवेंद्र मिश्र, १००/-, श्री विष्णु प्रकाशन छिंदवाड़ा।
०९३. माई अर्ली लाइफ, आत्म कथा, विंस्टन चर्चिल, कोलिन्स फोंटाना बुक्स।
०९४. १९८४, उपन्यास, जोर्ज ओरवेल, सिग्नेट बुक्स।
०९५. लेस मिजेरेब्लस, उपन्यास, विक्टर ह्यूगो, मैकमिलन।
०९६. डेविड कोपर फील्ड, उपन्यास, चार्ल्स डिकेंस, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस।
०९७. द लाइफ एंड डेथ ऑफ़ मेयर ऑफ़ कैस्टरब्रिज, थॉमस हार्डी, मैकमिलन।
०९८. द माँउंटेंस ऑफ़ एडवेंचर्स, उपन्यास, स्निड ब्लायटन, कोलिन्स एंड कंपनी।
०९९. लिविंग इंग्लिश स्ट्रक्चर, स्टेनर्ड एलन ओरिएंट लॉन्गमैन।
१००. एक्सरसाइज़ इन इंग्लिश कंपोजीशन, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस।

जबलपुर, १.८.२०१७ (संजीव वर्मा 'सलिल')
सभापति विश्व वाणी हिंदी संस्थान
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१,

laghukatha


लघुकथा 
बीज का अंकुर
*
चौकीदार के बेटे ने सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। समाचार पाकर कमिश्नर साहब रुआंसे हो आये। मन की बात छिपा न सके और पत्नी से बोले बीज का अंकुर बीज जैसा क्यों नहीं होता?
अंकुर तो बीज जैसा ही होता है पर जरूरत सेज्यादा खाद-पानी रोज दिया जाए तो सड़ जाता है बीज का अंकुर। 
***

laghukatha

लघुकथा :
सोई आत्मा 
*
मदरसे जाने से मना करने पर उसे रोज डाँट पड़ती। एक दिन डरते-डरते उसने पिता को हक़ीक़त बता ही दी कि उस्ताद अकेले में.....

वालिद गुस्से में जाने को हुए तो वालिदा ने टोंका गुस्से में कुछ ऐसा-वैसा क़दम न उठा लेना उसकी पहुँच ऊपर तक है।
फ़िक्र न करो, मैं नज़दीक छिपा रहूँगा और आज जैसे ही उस्ताद किसी बच्चे के साथ गलत हरकत करेगा उसकी वीडियो फिल्म बनाकर पुलिस ठाणे और अखबार नवीस के साथ उस्ताद की बीबी और बेटी को भी भेज दूँगा।
सब मिलकर उस्ताद की खाट खड़ी करेंगे तो जाग जायेगी उसकी सोई आत्मा। 
*

muktak

मुक्तक 
बह्रर 2122-2122-2122-212
*
हो गए हैं धन्य हम तो आपका दीदार कर 
थे अधूरे आपके बिन पूर्ण हैं दिल हार कर 
दे दिया दिल आपको, दिल आपसे है ले लिया
जी गए हैं आप पर खुद को 'सलिल' हम वार कर
*
बोलिये भी, मौन रहकर दूर कब शिकवे हुए
तोलिये भी, बात कह-सुन आप-मैं अपने हुए
मैं सही हूँ, तू गलत है, यह नज़रिया ही गलत
जो दिलों को जोड़ दें, वो ही सही नपने हुए
*

लेख: नाग को नमन

लेख :
नागको नमन : 
संजीव 
*
नागपंचमी आयी और गयी... वन विभागकर्मियों और पुलिसवालोंने वन्य जीव रक्षाके नामपर सपेरों को पकड़ा, आजीविका कमानेसे वंचित किया और वसूले बिना तो छोड़ा नहीं होगा। उनकी चांदी हो गयी.

पारम्परिक पेशेसे वंचित किये गए ये सपेरे अब आजीविका कहाँसे कमाएंगे? वे शिक्षित-प्रशिक्षित तो हैं नहीं, खेती या उद्योग भी नहीं हैं. अतः, उन्हें अपराध करनेकी राह पर ला खड़ा करनेका कार्य शासन-प्रशासन और तथाकथित जीवरक्षणके पक्षधरताओंने किया है.
जिस देशमें पूज्य गाय, उपयोगी बैल, भैंस, बकरी आदिका निर्दयतापूर्वक कत्ल कर उनका मांस लटकाने, बेचने और खाने पर प्रतिबंध नहीं है वहाँ जहरीले और प्रतिवर्ष लगभग ५०,००० मृत्युओंका कारण बननेवाले साँपोंको मात्र एक दिन पूजनेपर दुग्धपानसे उनकी मृत्युकी बात तिलको ताड़ बनाकर कही गयी. दूरदर्शनी चैनलों पर विशेषज्ञ और पत्रकार टी.आर.पी. के चक्करमें तथाकथित विशेषज्ञों और पंडितों के साथ बैठकर घंटों निरर्थक बहसें करते रहे. इस चर्चाओंमें सर्प पूजाके मूल आर्य और नाग सभ्यताओंके सम्मिलनकी कोई बात नहीं की गयी. आदिवासियों और शहरवासियों के बीच सांस्कृतिक सेतुके रूपमें नाग की भूमिका, चूहोंके विनाश में नागके उपयोगिता, जन-मन से नागके प्रति भय कम कर नागको बचाने में नागपंचमी जैसे पर्वोंकी उपयोगिता को एकतरफा नकार दिया गया.
संयोगवश इसी समय दूरदर्शन पर महाभारत श्रृंखला में पांडवों द्वारा नागों की भूमि छीनने, फलतः नागों द्वारा विद्रोह, नागराजा द्वारा दुर्योधन का साथ देने जैसे प्रसंग दर्शाये गये किन्तु इन तथाकथित विद्वानों और पत्रकारों ने नागपंचमी, नागप्रजाजनों (सपेरों - आदिवासियों) के साथ विकास के नाम पर अब तक हुए अत्याचार की और नहीं गया तो उसके प्रतिकार की बात कैसे करते?
इस प्रसंग में एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह भी है कि इस देशमें बुद्धिजीवी माने जानेवाले कायस्थ समाज ने भी यह भुला दिया कि नागराजा वासुकि की कन्या उनके मूलपुरुष चित्रगुप्त जी की पत्नी हैं तथा चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों के विवाह भी नाग कन्याओं से ही हुए हैं जिनसे कायस्थों की उत्पत्ति हुई. इस पौराणिक कथा का वर्ष में कई बार पाठ करने के बाद भी कायस्थ आदिवासी समाज से अपने ननिहाल होने के संबंध को याद नहीं रख सके. फलतः। खुद राजसत्ता गंवाकर आमजन हो गए और आदिवासी भी शिक्षित हुआ. इस दृष्टि से देखें तो नागपंचमी कायस्थ समाज का भी महापर्व है और नाग पूजन उनकी अपनी परमरा है जहां विष को भी अमृत में बदलकर उपयोगी बनाने की सामर्थ्य पैदा की जाती है.
शिवभक्तों और शैव संतों को भी नागपंचमी पर्व की कोई उपयोगिता नज़र नहीं आयी.
यह पर्व मल्ल विद्या साधकों का महापर्व है लेकिन तमाम अखाड़े मौन हैं बावजूद इस सत्य के कि विश्व स्तरीय क्रीड़ा प्रतियोगिताएं में मल्लों की दम पर ही भारत सर उठाकर खड़ा हो पाता है. वैलेंटाइन जैसे विदेशी पर्व के समर्थक इससे दूर हैं यह तो समझा जा सकता है किन्तु वेलेंटाइन का विरोध करनेवाले समूह कहाँ हैं? वे नागपंचमी को यवा शौर्य-पराक्रम का महापर्व क्यों नहीं बना देते जबकि उन्हीं के समर्थक राजनैतिक दल राज्यों और केंद्र में सत्ता पर काबिज हैं?
महाराष्ट्र से अन्य राज्यवासियों को बाहर करनेके प्रति उत्सुक नेता और दल नागपंचमई को महाराष्ट्र की मल्लखम्ब विधा का महापर्व क्यों कहीं बनाते? क्यों नहीं यह खेल भी विश्व प्रतियोगिताओं में शामिल कराया जाए और भारत के खाते में कुछ और पदक आएं?
अंत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि जिन सपेरों को अनावश्यक और अपराधी कहा जा रहा है, उनके नागरिक अधिकार की रक्षा कर उन्हें पारम्परिक पेशे से वंचित करने के स्थान पर उनके ज्ञान और सामर्थ्य का उपयोग कर हर शहर में सर्प संरक्षण केंद्र खोले जाए जहाँ सर्प पालन कर औषधि निर्माण हेतु सर्प विष का व्यावसायिक उत्पादन हो. सपेरों को यहाँ रोजगार मिले, वे दर-दर भटकने के बजाय सम्मनित नागरिक का जीवन जियें। सर्प विष से बचाव के उनके पारम्परिक ज्ञान मन्त्रों और जड़ी-बूटियों पर शोध हो.
क्या माननीय नरेंद्र मोदी जी इस और ध्यान देंगे?

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

hasya: lalu karj

हास्य सलिला:
संजीव
*
लालू जी बाजार गये, उस दिन लाली के साथ
पल भर भी छोड़ा नहीं, थे लिये हाथ में हाथ
मित्र साथ था हुआ चमत्कृत बोला: 'तुम हो खूब
दिन भर भउजी के ख्याल में कैसे रहते डूब?
इतनी रहती फ़िक्र न करते पल भर को भी दूर'
लालू बोले: ''गलत न समझो, हूँ सचमुच मजबूर
अगर हाथ छोड़ा तो मेरी आ जाएगी शामत
बिना बात क्यों कहो बुलाऊँ खुद ही अपनी आफत?
जैसे छोड़ा हाथ खरीदी कर लेगी यह खूब
चुका न पाऊँ इतने कर्जे में जाऊँगा डूब''
***

kayastha nag panchami

विचारोत्तेजक लेख:
कायस्थों का महापर्व नागपंचमी
संजीव
*
कायस्थोंके उद्भव की पौराणिक कथाके अनुसार उनके मूल पुरुष श्री चित्रगुप्तके २ विवाह सूर्य ऋषिकी कन्या नंदिनी और नागराजकी कन्या इरावती हुए थे। सूर्य ऋषि हिमालय की तराईके निवासी और आर्य ब्राम्हण थे जबकि नागराज अनार्य और वनवासी थे। इसके अनुसार चित्रगुप्त जी ब्राम्हणों तथा आदिवासियों दोनों के जामाता और पूज्य हुए। इसी कथा में चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों नागराज वासुकि की १२ कन्याओं से साथ किये जाने का वर्णन है जिनसे कायस्थों की १२ उपजातियों का श्री गणेश हुआ।
इससे स्पष्ट है कि नागों के साथ कायस्थॉ का निकट संबंध है। आर्यों के पूर्व नाग संस्कृति सत्ता में थी। नागों को विष्णु ने छ्ल से हराया। नाग राजा का वेश धारण कर रानी का सतीत्व भंग कर नाग राजा के प्राण हरने, राम, कृष्ण तथा पान्ड्वों द्वारा नाग राजाओं और प्रजा का वध करने, उनकी जमीन छीनने, तक्षक द्वारा दुर्योधन की सहायता करने, जन्मेजय द्वारा नागों का कत्लेआम किये जाने, नागराज तक्षक द्वारा फल की टोकनी में घुसकर उसे मारने के प्रसंग सर्व ज्ञात हैं।
यह सब घट्नायें कयस्थों के ननिहाल पक्ष के साथ घटीं तो क्या कायस्थों पर इसका कोई असर नहीं हुआ? वास्तव में नागों और आर्यों के साथ समानता के आधार पर संबंध स्थापित करने का प्रयास आर्यों को नहीं भाया और उन्होंने नागों के साथ उनके संबंधियों के नाते कायस्थों को भी नष्ट किया। महाभारत युद्ध में कौरव और पांडव दोनों पक्षों से कायस्थ नरेश लड़े और नष्ट हुए। बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना....
कालान्तर में शान्ति स्थापना के प्रयासों में असंतोष को शांत करने के लिए पंचमी पर नागों का पूजनकर उन्हें मान्यता तो दी गयी किन्तु ब्राम्हण को सर्वोच्च मानने की मनुवादी मानसिकता ने आजतक कार्य पर जाति निर्धारण नहीं किया। श्री कृष्ण को विष्णु का अवतार मानने की बाद भी गीता में उनका वचन 'चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुण कर्म विभागष:' को कार्य रूप में नहीं आने दिया गया।
कायस्थों को सत्य को समझना होगा तथा आदिवासियों से अपने मूल संबंध को स्मरण और पुनर्स्थापित कर खुद को मजबूत बनाना होगा। कायस्थ और आदिवासी समाज मिलकर कार्य करें तो जन्मना ब्राम्हणवाद और छद्म श्रेष्ठता की नींव धसक सकती है। सभी सनातन धर्मी योग्यता वृद्धि हेतु समान अवसर पायें, अर्जित योग्यतानुसार आजीविका पायें तथा पारस्परिक पसंद के आधार पर विवाह संबंध में बँधने का अवसर पा सकें तो एक समरस समाज का निर्माण हो सकेगा। इसके लिए कायस्थों को अज्ञानता के घेरे से बाहर आकर सत्य को समझना और खुद को बदलना होगा।
नागों संबंध की कथा पढ़ने मात्र से कुछ नहीं होगा। कथा के पीछे का सत्य जानना और मानना होगा। संबंधों को फिर जोड़ना होगा। नागपंचमी के समाप्त होते पर्व को कायस्थ अपना राष्ट्रीय पर्व बना लें तो आदिवासियों और सवर्णों के बीच नया सेतु बन सकेगा।
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लघुकथा:
काल की गति 
'हे भगवन! इस कलिकाल में अनाचार-अत्याचार बहुत बढ़ गया है. अब तो अवतार लेकर पापों का अंत कर दो.' - भक्त ने भगवान से प्रार्थना की.
' नहीं कर सकता.' भगवान् की प्रतिमा में से आवाज आयी .
' क्यों प्रभु?'
'काल की गति.'
'मैं कुछ समझा नहीं.'
'समझो यह कि परिवार कल्याण के इस समय में केवल एक या दो बच्चों के होते राम अवतार लूँ तो लक्ष्मण, शत्रुघ्न और विभीषण कहाँ से मिलेंगे? कृष्ण अवतार लूँ तो अर्जुन, नकुल और सहदेव के अलावा ९८ कौरव भी नहीं होंगे. चित्रगुप्त का रूप रखूँ तो १२ पुत्रों में से मात्र २ ही मिलेंगे. तुम्हारा कानून एक से अधिक पत्नियाँ भी नहीं रखने देगा तो १२८०० पटरानियों को कहाँ ले जाऊँगा? बेचारी द्रौपदी के ५ पतियों की कानूनी स्थिति क्या होगी?
भक्त और भगवान् दोनों को चुप देखकर ठहाका लगा रही थी काल की गति.
*****

navgeet: kisaka boota

नवगीत 
किसका बूता
*
तन पर 
पहरेदार बिठा दो 
चाहे जितने, 
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
तनता-झुकता
बढ़ता-रुकता
तन ही हरदम।
हारे ज्ञानी
झुका न पाये
मन का परचम।
बाखर-छानी
रोक सकी कब
पानी चूता?
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
ताना-बाना
बुने कबीरा
ढाई आखर।
ज्यों की त्यों ही
धर जाता है
अपनी चादर।
पैर पटककर
सना धूल में
नाहक जूता।
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
चढ़ी शीश पर
नहीं उतरती
क़र्ज़ गठरिया।
आस-मदारी
नचा रहा है
श्वास बँदरिया।
आसमान में
छिपा न मिलता
इब्नबतूता।
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
******
१-८-२०१६
salil.sanjiv@gmail.com
#divyanarmada.blogspot.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

baal geet: barase pani

बाल गीत:
बरसे पानी
संजीव 'सलिल'
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
*

elegy: onkar shrivastav

भाई ओंकार श्रीवास्तव के प्रति 
स्मरण गीत 
*
वह निश्छल मुस्कान 
कहाँ हम पायेंगे?
*
मन निर्मल होता तुममें ही देखा था
हानि-लाभ का किया न तुमने लेखा था
जो शुभ अच्छा दिखा उसी का वन्दन कर
संघर्षित का तिलक किया शुचि चन्दन कर
कब ओंकारित स्वर
हम फिर सुन पायेंगे?
*
श्री वास्तव में तुमने ही तो पाई है
ज्योति शक्ति की जन-मन में सुलगाई है
चित्र गुप्त प्रतिभा का देखा जिस तन में
मिले लक्ष्य ऐसी ही राह सुझाई है
शब्द-नाद जयकार
तुम्हारी गायेंगे
*
रेवा के सुत,रेवा-गोदी में सोए
नेह नर्मदा नहा, नए नाते बोए
मित्र संघ, अभियान, वर्तिका, गुंजन के
हित चिंतक! हम याद तुम्हारी में खोए
तुम सा बंधु-सुमित्र न खोजे पायेंगे
***

बुधवार, 1 अगस्त 2018

२०.२.२०१८
आ जाओ सब भूलकर, दिल में शेष न सब्र।
आस टूटकर श्वास की, बना नहीं दे कब्र।।
लय सांचे में ढालिए, मन की बात विचार।
दोहा बनता खुद-ब-खुद, हों न तनिक बेज़ार।।
शुभ प्रभात अरबों लुटा, कहो रहो बेफिक्र। चौकीदारी गजब की, सदियों होगा जिक्र।।
दोहों की महिमा अमित, कहते युग का सत्य
जो रचता संतुष्ट हो, मंगलकारी कृत्य
धरती मैया निरुपमा, धरती रूप अनूप
कभी किसी की कब हुई?, जीत मर गए भूप .
२६.२.२०१८
होली फागुन पर हुई, दोहों की बौछार। तन-मन दोनों मुदित हो, निरखें नेह-बहार।।
निरुपमा उपमान पा, उपमा को ले संग। भांग भवानी कर ग्रहण, नाच बजाती चंग।।
सजन दूर मन खिन्न है, लिखना लगता त्रास।
सजन निकट कैसे लिखूँ, दोहा हुआ उदास।।


दोहा मुक्तिका
*
खुद से खुद मिलते नहीं, जो वे हैं मशहूर।
हुए अकेले मर गए, थे कमजोर हुजूर।।
*
जिनको समझा था निकट, वे ही निकले दूर।
देख रहा जग बदन की, सुंदरता भरपूर।
*
मन सुंदर हो, सबल हो, लिए खुदाई नूर।
शैफाली सा महकता, पल-पल लिए सुरूर।।
*
नेह नर्मदा 'सलिल' है, निर्मल विमल अथाह।
शिला संग पर रह गई, श्यामल हो मगरूर।।
*

कल न गंवाएं व्यर्थ कर, कल की चिंता आप।
दोहा-पुष्पा सुरभि से, दोहा दुनिया मस्त
दोस्त न हो दोहा अगर, रहे हौसला पस्त.
किलकिल तज कलकल करें, रहें न खुद से दूर।।
कथ्य, भाव, लय, बिंब, रस, भाव, सार सोपान।
ले समेट दोहा भरे, मन-नभ जीत उड़ान।।


संजीव






savan ke dohe

दोहा सलिला:
सावन
*
सावन भावन मन हरे, हरियाया संसार।
अंकुराए पल्लव नए, बिखरे हरसिंगार।।
*
सावन सा वन हो नहीं, बाकी ग्यारह मास।
चूनर हरी पहन धरा, लगे सुरूपा ख़ास।।
*
सावन में उफना नदी, तोड़े कूल-किनार।
आधुनिकाएँ तोड़तीं, जैसे घर-परिवार।।
*
बादल-बिजली ने रखा, 'लिव-इन' का संबंध।
वर्षा 'हैपी' की तरह, भागी तज अनुबंध।।
*
लहर-लहर के साथ है, पवन पवन के साथ।
समलैंगिक संबंध कर, दोनों हुए अनाथ।।
*
नदी-घाट के बीच है, पुरा-पुरातन प्यार।
नाव और पतवार में टूटन है दुश्वार।।
*
बरगद ताके नीम को, गुपचुप करे न बात।
इमली ने समझे नहीं पीपल के जज्बात।।
*
रिश्ते-नाते बन-मिटे, दूब खूब की खूब।
माँ वसुधा के संग में, गप मारे बिन ऊब।।
*
बीरबहूटी की तकें, दूब-धरा मिल राह।
गई सासरे कभी की, याद करें भर आह।।
***
१.८.२०१८, ७९९९५५९६१८

laghu katha: nav vidhan

लेख-
लघु कथा - नव विधान और मूल्यों की आवश्यकता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पारंपरिक लघुकथा का उद्गम व् उपयोगिता -
लघु कथा का मूल संस्कृत वांग्मय में है। लघु अर्थात देखने में छोटी, कथा अर्थात जो कही जाए, जिसमें कहने योग्य बात हो, बात ऐसी जो मन से निकले और मन तक पहुँच जाए। यह बात कहने का कोई उद्देश्य भी होना चाहिए। उद्देश्य की विविधता लघु कथा के वर्गीकरण का आधार होती है। बाल कथा, बोध कथा, उपदेश कथा, दृष्टान्त कथा, वार्ता, आख्यायिका, उपाख्यान, पशु कथा, अवतार कथा, संवाद कथा, व्यंग्य कथा, काव्य कथा, गीति कथा, लोक कथा, पर्व कथा आदि की समृद्ध विरासत संस्कृत, भारतीय व विदेशी भाषाओँ के वाचिक और लिखित साहित्य में प्राप्त है। गूढ़ से गूढ़ और जटिल से जटिल प्रसंगों को इन कथन के माध्यम से सरल-सहज बनाकर समझाया गया। पंचतंत्र, हितोपदेश, बेताल कथाएँ, अलीबाबा, सिंदबाद आदि की कहानियाँ मन-रंजन के साथ ज्ञानवर्धन के उद्देश्य को लेकर कही-सुनी और लिखी-पढ़ी गयीं। धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवचनों में गूढ़ सत्य को कम शब्दों में सरल बनाकर प्रस्तुत करने की परिपाटी सदियों तक परिपुष्ट हुई। 
दुर्भाग्य से दुर्दांत विदेशी हमलावरों ने विजय पाकर भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक संस्थाओं का विनाश लगातार लंबे समय तक किया। इस दौर में कथा साहित्य धार्मिक पूजा-पर्वों में कहा-सुना जाकर जीवित तो रहा पर उसका उद्देश्य भयभीत और संकटग्रस्त जन-मन में शुभत्व के प्रति आस्था बनाये रखकर, जिजीविषा को जिलाये रखना था। बहुधा घर के बड़े-बुजुर्ग इन कथाओं को कहते, उनमें किसी स्त्री-पुरुष के जीवन में आये संकटों-कष्टों के कारन शक्तियों की शरण में जाने, उपाय पूछने और अपने तदनुसार आचरण में सुधार करने पर दैवीय शक्तियों की कृपा से संकट पर विजयी होने का संदेश होता था। ऐसी कथाएँ शोषित-पीड़ित ही नहीं सामान्य या सम्पन्न मनुष्य में भी अपने आचरण में सुधार, सद्गुणों व पराक्रम में वृद्धि, एकता, सुमति या खेती-सड़क-वृक्ष या रास्तों की स्वच्छता, दीन-हीन की मदद, परोपकार, स्वाध्याय आदि की प्रेरणा का स्रोत बनता था। ये लघ्वाकारी कथाएँ महिलाओं या पुरुषों द्वारा अल्प समय में कह-सुन ली जाती थीं, बच्चे उन्हें सुनते और इस तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जीवन मूल्य पहुँचते रहते। देश, काल, परिस्थिति, श्रोता-वक़्ता, उद्देश्य आदि के अनुसार कथावस्तु में बादलाव होता रहता और देश के विविध भागों में एक ही कथा के विविध रूप कहे-सुने जाते किन्तु सबका उद्देश्य एक ही रहता। आहत मन को सांत्वना देना, असंतोष का शमन करना, निराश मन में आशा का संचार, भटकों को राह दिखाना, समाज सुधार या राष्ट्रीय स्वाधीनता के कार्यक्रमों हेतु जन-मन को तैयार करना कथावाचक और उपदेशक धर्म की आड़ में करते रहे। फलत:, राजनैतिक पराभव काल में भी भारतीय जन मानस अपना मनोबल, मानवीय मूल्यों में आस्था और सत्य की विजय का विश्वास बनाये रह सका। 
आधुनिक हिंदी का उद्भव 
कालान्तर में आधुनिक हिंदी ने उद्भव काल में पारंपरिक संस्कृत, लोक भाषाओँ और अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य की उर्वर विरासत ग्रहण कर विकास के पथ पर कदम रखा। गुजराती, बांग्ला और मराठी भाषाओँ का क्षेत्र हिंदी भाषी क्षेत्रों के समीप था।विद्वानों और जन सामान्य के सहज आवागमन ने भाषिक आदान-प्रदान को सुदृढ़ किया। मुग़ल आक्रांताओं की अरबी-फ़ारसी और भारतीय मजदूर-किसानों की भाषा के मिलन से लश्करी का जन्म सैन्य छवनियों में हुआ जो रेख्ता और उर्दू के रूप में विकसित हुई। राजघरानों, जमींदारों तथा समृद्ध जनों में अंग्रेजी शिक्षा तथा विदेश जाकर उपाधियाँ ग्रहण करने पर अंग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण बढ़ा। शासन की भाषा अंग्रेजी होने से उसे श्रेष्ठ माना जाने लगा।अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों के मन में अपने विरासत के प्रति हीनता का भाव सुनियोजित तरीके से पैदा किया गया। स्वतंत्रता के संघर्ष काल में साम्यवाद युवा वर्ग को आकर्षित कर सका। स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र तथा अहिंसक दोनों तरीकों से प्रयास किये जाते रहे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आकस्मिक रूप से लापता होने पर स्वन्त्रता प्राप्ति का पूर्ण श्रेय गाँधी जी के नेतृत्व में चले सत्याग्रह को मिला। फलत:, कोंग्रेस सत्तारूढ़ हुई। श्री नेहरू के व्यक्तित्व में अंग्रेजी राजतंत्र और साम्यवादी व्यवस्था के प्रति विकट सम्मोहन ने स्वातंत्र्योत्तर काल में इन दोनों तत्वों को सत्ता और साहित्य में सहभागी बना दिया जबकि भारतीय सनातन परंपरा में विश्वास करने वाले तत्व पारस्परिक फूट के कारण बलिपंथी होते हुए भी पिछड़ गए। 
सत्ता और साहित्य की बंदरबाँट 
सत्ता समीकरणों को चतुरता से साधते हुए आम चुनावों में विजयी कोंग्रेस ने सरकार बनायी। सरकार निर्विघ्न चले इस हेतु हिंसा में विश्वास रखने वाले साम्यवादियों को शिक्षा प्रतिष्ठानों में स्थान दिया गया। इस केर-बेर के संग ने समाजवादियों तथा तत्कालीन हिंदुत्ववादी शक्तियों को सत्ता से बाहर रखने में सफलता पा ली। साम्यवादी अपने बल पर कभी सत्ता-केंद्र में नहीं आ सके किन्तु शिक्षा संस्थानों और साहित्य में अपना प्रभुत्व स्थापित कर साम्यवादी विचारों के अनुरूप सृजन और समीक्षा के मानक थोपने में कुछ काल के लिए सफल हो गए। उन्होंने लघु कथा, व्यंग्य लेख, नवगीत, फिल्म निर्माण आदि क्षेत्रों में सामाजिक वर्गीकरण, विभाजन, शोषण, टकराव, वैषम्य, पीड़ा, दर्द, दुःख और पतन को केंद्र में रखकर रचनाकर्म किया ताकि समाज के विविध वर्ग आपस में लड़ें और वे हँसिया-हथौड़ा चलकर सत्ता पा सकें। विधि का विधान कि कुछ प्रान्तों को छोड़ साम्यवादी साहित्यकार और राजनेता सफल नहीं हुए किंतु शिक्षा और साहित्य में अपनी विचारधारा के अनुरूप मानक निर्धारित कर, साहित्य प्रकाशित करने, पुरस्कृत होने में सफल हो गए। परोक्षतः: कोंग्रेस ने इस कार्य में उन्हें समर्थन दिया और अपनी सत्ता बनाये रखने में उनका समर्थन लिया। गैर कॉंग्रेसवादी सरकार आते ही इस वर्ग ने शिक्षा संस्थानों में अराजकता, अभारतीयता और राष्ट्रीयता का उद्गोष किया और प्रतिबंधित होते ही आवेदन कर येन-केन-प्रकारेण जुगाड़े गए सम्मान वापसी की नौटंकी की। 
साम्यवादी रचना विधान 
यह निर्विवाद है कि भारतीय जन मानस चिरकाल से सात्विक, आस्थावान, अहिंसक, सहिष्णु, उत्सवधर्मी तथा रचनात्मक प्रवृत्तिवाला है। अशिक्षाजनित सामाजिक प्रदूषण काल में छुआछूत, सती प्रथा, पर्दा प्रथा और ब्राम्हणों द्वारा धर्म की आड़ में खुद को सर्वश्रेष्ठ बनाये रखने के प्रयास में दलितवर्ग को निम्न बताने जैसी बुराइयों के पनपने पर उनके निराकरण के प्रयास सतत होते रहे किंतु विदेशी शासन ने इन्हें असफल कर समाज विभाजित किया। स्वतंत्रता के पश्चात बहुमत पाने में असफल साम्यवादियों ने यही तरीका अपनाया और एक ओर नक्सलवाद जैसे आंदोलन और दूसरी ओर अपनी विचारधारा के साहित्यिक मानक बनाकर उनके अनुरूप साहित्य की रचना कर समाज को पराभव में लेने का कुचक्र रचा पर पूरी तरह सफल न हो सके। ऐसे साहित्यकारों और समीक्षकों ने भारतीय वांग्मय की सनातन विरासत और परंपरा को हीन, पिछड़ा, अवैज्ञानिक और अनुपयुक्त कहकर अंग्रेजी साहित्य की दुहाई देते हुए, उसकी आड़ में साम्यवादी विचारधारा के अनुकूल जीवनमूल्यों को विविध विधाओं का मानक बता दिया। फलत:, रचनाकर्म का उद्देश्य समाज में व्याप्त शोषण, टकराव, बिखराव, संघर्ष, टूटन, फुट, विसंगति, विडंबना, असंतोष, विक्षोभ, कुंठा, विद्रोह आदि का शब्दांकन मात्र हो गया। उन्होंने देश में हर क्षेत्र में हुई उल्लेखनीय प्रगति, सद्भाव, एकता, साहचर्य, सहकारिता, निर्माण, हर्ष, उल्लास, उत्सव आदि की जान-बूझकर अनदेखी और उपेक्षा की। इन तथाकथित साहित्यकारों की पृष्ठभूमि देखें तो अपने छात्र जीवन में ये साम्यवादी छात्र संगठनों से जुड़े मिलेंगे। कोढ़ में खाज यह कि इस वैचारिक पृष्ठभूमि के अनेक जन उच्च प्रशासनिक पदों पर जा बैठे और उन्होंने 'अपने लोगों' को न केवल महिमामण्डित किया अपितु भिन्न विचारधारा के साहित्यकारों का दमन और उपेक्षा भी की। 
लघुकथा और शार्ट स्टोरी 
अंग्रेजी साहित्य में गद्य (प्रोज) के अंतर्गत उपन्यास (नावेल), निबन्ध (एस्से), कहानी (स्टोरी), व्यंग्य (सैटायर), लघुकथा (शार्ट स्टोरी), गल्प (फिक्शन), संस्मरण (मेमायर्स), आत्मकथा (ऑटोबायग्राफी) आदि प्रमुख हैं। अंग्रेजी की कहानी लघु उपन्यास की तरह तथा शार्ट स्टोरी सामान्यत:६-७ पृष्ठों तक की हो सकती है। हिंदी लघु कथा का आकार सामान्यत: कुछ वाक्यों से लेकर एक-डेढ़ पृष्ठ तक होता है। स्पष्ट है कि शार्ट स्टोरी और लघुकथा सर्वथा भिन्न विधाएँ हैं। 'शॉर्ट स्टोरी' छोटी कहानी हो सकती है पर वह 'लघुकथा' नहीं हो सकती। हिंदी साहित्य में विधाओं का विभाजन आकारगत नहीं अन्तर्वस्तु या कथावस्तु के आधार पर होता है। उपन्यास सकल जीवन या घटनाक्रम को समाहित करता है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, वातावरण, भाषा शैली आदि हैं। कहानी जीवन के काल विशेष या घटना विशेष से जुड़े प्रभावों पर केंद्रित होती है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र चित्रण, कथोपकथन, उद्देश्य तथा भाषा शैली हैं। लघुकथा किसी क्षण विशेष में घटित प्रसंग और उसके प्रभाव पर केंद्रित होती है। प्रसिद्ध समीक्षक लक्ष्मीनारायण लाल ने लघु कथा और कहानी में तात्विक दृष्टि से कोई अंतर न मानते हुए व्यावहारिक रूप से आकारगत अंतर स्वीकार किया है। उनके अनुसार 'लघुकथा में भावनाओं का उतना महत्व नहीं है जितना किसी सत्य का, किसी विचार का विशेषकर उसके सारांश का महत्व है।'
लघुकथा क्या है?, अंधों का हाथी ?
सन १९८४ में सारिका के लघु कथा विशेषांक में राजेंद्र यादव ने 'लघुकथा और चुटकुला में साम्य' इंगित करते हुए लघुकथा लेखन को कठिन बताया। मनोहरश्याम जोशी ने' लघु कथाओं को चुटकुलों और गद्य के बीच' सर पटकता बताया। मुद्राराक्षस के अनुसार 'लघु कथा ने साहित्य में कोई बड़ा स्थान नहीं बनाया'। शानी भी 'लघुकथाओं को चुटकुलों की तरह' बताया। इसके विपरीत पद्म श्री लक्ष्मीनारायण लाल ने लघुकथा को लेखक का 'अच्छा अस्त्र' कहा है। 
सरला अग्रवाल के शब्दों में 'लघुकथा में किसी अनुभव अथवा घटना की टीस और कचोट को बहुत ही गहनता के साथ उद्घाटित किया जाता है।' प्रश्न उठता है कि टीस के स्थान पर रचना हर्ष और ख़ुशी को उद्घाटित करे तो वह लघु कथा क्यों न होगी? गीत सभी रसों की अभिव्यक्ति कर सकता है तो लघुकथा पर बन्धन क्यों? डॉ. प्रमथनाथ मिश्र के मत में लघु कथा 'सामाजिक बुराई के काले-गहरे बादलों के बीच दबी विद्युल्लता की भाँति है जो समय-बेसमय छटककर पाठकों के मस्तिष्क पर एक तीव्र प्रभाव छोड़कर उनके सुषुप्त अंत:करण को हिला देती है।' सामाजिक अच्छाई के सफेद-उजले मेघों के मध्य दामिनी क्यों नहीं हो सकती लघुकथा? रमाकांत श्रीवास्तव लिखते हैं 'लघुकथा का नि:सरण ठीक वैसे ही हुआ है जैसे कविता का। अत: वह यथार्थपरक कविता के अधिक निकट है, विशेषकर मुक्त छंद कविता के।' मुक्तछंद कविता से हिंदी पाठक के मोहभंग काल में उसी पथ पर ले जाकर लघुकथा का अहित करना ठीक होगा या उसे लोकमंगल भाव से संयुक्त रखकर नवगीत की तरह नवजीवन देना उपयुक्त होगा? कृष्णानन्द 'कृष्ण' लघुकथा लेखक के लिए 'वैचारिक पक्षधरता' अपरिहार्य बताते हैं। एक लघुकथा लेखक के लिए किसी विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्ध होना जरूरी क्यों हो? कथ्य और लक्ष्य की आवश्यकतानुसार विविध लघुकथाओं में विविध विचारों की अभिव्यक्ति प्रबंधित करना कैसे ठीक हो सकता है? एक रचनाकार को किसी राजनैतिक विचारधारा का बन्दी क्यों होना चाहिए? रचनाकार का लक्ष्य लोक-मंगल हो या राजनैतिक स्वार्थपूर्ति? 
'हिंदी लघुकथा को लेखन की पुरातन दृष्टान्त, किस्सा या गल्प शैली में अवस्थित रहना है या कथा लेखन की वर्तमान शैली को अपना लेना है- तय हो जाना चाहिए' बलराम अग्रवाल के इस मत के सन्दर्भ में कहना होगा कि साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा के स्वरूप में अंतिम निर्णय करने का अधिकार पाठक और समय के अलावा किसी का नहीं हो सकता। तय करनेवालों ने तो गीत के मरण की घोषणा कर दी थी किंतु वह पुनर्जीवित हो गया। समाज किसी एक विचार या वाद के लोगों से नहीं बनता। उसमें विविध विचारों और रुचियों के लोग होते हैं जिनकी आवश्यकता और परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, तदनुसार साहित्य की हर विधा में रचनाओं का कथ्य, शल्प और शैली बदलते हैं। लघुकथा इसका अपवाद कैसे हो सकती है? लघुकथा को देश, काल और परिस्थिति सापेक्ष्य होने के लिए विविधता को ग्रहण करना ही होगा। पुरातन और अद्यतन में समन्वय से ही सनातन प्रवाह और परंपरा का विकास होता है।
अवध नारायण मुद्गल उपन्यास को नदी, कहानी को नहर और लघुकथा को उपनहर बताते हुए कहते हैं कि जिस बंजर जमीन को नहरों से नहीं जोड़ा जा सकता उसे उपनहरों से जोड़कर उपजाऊ बनाया जा सकता है। यदि उद्देश्य अनछुई अनुपजाऊ भूमि को उर्वर बनाना है तो यह नहीं देखा जाता कि नहर बनाने के लिए सामग्री कहाँ से लाई जा रही है और मजदूर किस गाँव, धर्म राजनैतिक विचार का है? लघुकथा लेखन का उद्देश्य उपन्यास और कहानी से दूर पाठक और प्रसंगों तक पहुँचना ही है तो इससे क्या अंतर पड़ता है कि वह पहुँच बोध, उपदेश, व्यंग्य, संवाद किस माध्यम से की गयी? उद्देश्य पड़ती जमीन जोतना है या हलधर की जाति-पाँति देखना?
लघुकथा के रूप-निर्धारण की कोशिशें
डॉ. सतीश दुबे मिथक, व्यंग्य या संवेदना के स्तरों पर लघुकथाएँ लिखी जाने का अर्थ हर शैली में अभिव्यक्त होने की छटपटाहट मानते हैं। वे लघुकथा के तयशुदा स्वरूप में ऐसी शैलियों के आने से कोई खतरा नहीं देखते। यह तयशुदा स्वरूप साध्य है या साधन? यह किसने, कब और किस अधिकार से तय किया? यह पत्थर की लकीर कैसे हो सकता जिसे बदला न जा सके? यह स्वरूप वही है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप और पाठक की रूचि के अनुसार लघुकथा का जो स्वरूप उपयुक्त होगा वह जीवित रहेगा, शेष भुला दिया जाएगा। लघुकथा के विकास के लिए बेहतर होगा कि हर लघुकथाकार को अपने कथ्य के उपयुक्त शैली और शिल्प का संधान करने दिया जाए। उक्त मानक थोपने के प्रयास और मानकों को तोडनेवाले लघुकथाकारों पर सुनियोजित आक्रमण तथा उनके साहित्य की अनदेखी करने की विफल कोशिशें यही दर्शाती हैं कि पारंपरिक शिल्प और शैली से खतरा अनुभव हो रहा है और इसलिए विधान के रक्षाकवच में अनुपयुक्त और आयातित मानक थोपे जाते रहे हैं। यह उपयुक्त समय है जब अभिव्यक्ति को कुंठित न कर लघुकथाकार को सृजन की स्वतंत्रता मिले।
सृजन की स्वतंत्रता और सार्थकता
पारंपरिक स्वरूप की लघुकथाओं को जन स्वीकृति का प्रमाण यह है कि समीक्षकों और लघुकथाकारों की समूहबद्धता, रणनीति और नकारने के बाद भी बोध कथाओं, दृष्टान्त कथाओं, उपदेश कथाओं, संवाद कथाओं आदि के पाठक श्रोता घटे नहीं हैं। सच तो यह है कि पाठक और श्रोता कथ्य को पढ़ता और सराहता या नकारता है, उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि समीक्षक उस रचना को किस खाँचे में वर्गीकृत करता है। समय की माँग है कि लघुकथा को स्वतंत्रता से सांस लेने दी जाए। नामवर सिंह भारतीय लघुकथाओं को पश्चात्य लघुकथाओं का पिछलग्गू नहीं मानते तथा हिंदी लघुकथाओं को निजत्व और विराट भावबोध से संपन्न मानते हैं। हिंदी भाषा जिस जमीन पर विकसित हुई उसकी लघुकथा उस जमीन में आदि काल से कही-सुनी जाती लघुकथा की अस्पर्श्य कैसे मान सकती है?
सिद्धेश्वर लघुकथा को सर्वाधिक प्रेरक, संप्रेषणीय, संवेदनशील और जीवंत विधा मानते हुए उसे पाठ्यक्रम में स्थान दिए जाने की पैरवी करते है जिससे हर लघुकथाकार सहमत होगा किन्तु जन-जीवन में कही-सुनी जा रही देशज मूल्यों, भाषा और शिल्प की लघुकथाओं की वर्जना कर केवल साम्यवादी विचारधारा को प्रोत्साहित करती लघुकथाओं का चयन पाठ्यक्रम में नहीं किया जा सकता। इसलिए लघुकथा के रूढ़ और संकीर्ण मानकों को परिवर्तित कर हिंदी भाषी क्षेत्र की सभ्यता-संस्कृति और जन मानस के आस्था-उल्लास-नैतिक मूल्यों के अनुरूप रची तथा राष्ट्रीयता को बढ़ावा देती लघु कथाओं को हो चुना जाना उपयुक्त होगा। तारिक असलम 'तनवीर' लिजलिजी और दोहरी मानसिकता से ग्रस्त समीक्षकों की परवाह करने के बजाय 'कलम की ताकत' पर ध्यान देने का मश्वरा देते हैं।
डॉ. कमलकिशोर गोयनका, कमलेश भट्ट 'कमल' को दिए गए साक्षात्कार में लघुकथा को लेखकविहीन विधा कहते हैं। कोई बच्चा माँ विहीन कैसे हो सकता है। हर बच्चे का स्वतंत्र अस्तित्व और विकास होने पर भी उसमें जीन्स माता-पिता के ही होते हैं। इसी तरह लघुकथा भी लघुकथाकार तथा उसके परिवेश से अलग होते हुए भी उसका प्रतिनिधित्व करती है। लघुकथाकार रचना में सतही तौर पर न दिखते हुई भी पंक्ति-पंक्ति में उसी तरह उपस्थित होता है जैसे रोटी में नमी के रूप में पानी या दाल में नमक। अत:, स्पष्ट है कि हिंदी की आधुनिक लघुकथा को अपनी सनातन पृष्ठभूमि तथा आधुनिक हिंदी के विकास काल की प्रवृत्तियों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करते हुए भविष्य के लिए उपयुक्त साहित्य सृजन के लिए सजग होना होगा। लघुकथा एक स्वतंत्र विधा के रूप में अपने कथ्य और लक्ष्य पाठक वर्ग को केंद्र में रखकर लिखी जाय और व्यवस्थित अध्ययन की दृष्टि से उसे वर्गीकृत किया जाए किन्तु किसी वर्ग विशेष की लघुकथा को स्वीकारने और शेष को नकारने की दूषित प्रथा बन्द करने में ही लघुकथा और हिंदी की भलाई है। लघुकथा को उद्यान के विविध पुष्पों के रंग और गन्ध की तरह विविधवर्णी होने होगा तभी वह जी सकेगी और जीवन को दिशा दे सकेगी।
लघुकथा के तत्व
कुंवर प्रेमिल कथानक, प्रगटीकरण तथा समापन को लघुकथा के ३ तत्व मानते हैं। वे लघुकथा को किसी बंधन, सीमा या दायरे में बाँधने के विरोधी हैं। जीवितराम सतपाल के अनुसार लघुकथा में अमिधा, लक्षणा व व्यंजना शब्द की तीनों शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है। वे लघुकथा को बरसात नहीं फुहार, ठहाका नहीं मुस्कान कहते हैं। गुरुनाम सिंह रीहल कलेवर और कथनीयता को लघुकथा के २ तत्व कहते हैं। मोहम्मद मोइनुद्दीन 'अतहर' के अनुसार भाषा, कथ्य, शिल्प, संदर्भगत संवेदना से परिपूर्ण २५० से ५०० शब्दों का समुच्चय लघुकथा है। डॉ. शमीम शर्मा के अनुसार लघुकथा में 'विस्तार के लिए कोई स्थान नहीं होता। 'थोड़े में अधिक' कहने की प्रवृत्ति प्रबल है। सांकेतिक एवं ध्वन्यात्मकता इसके प्रमुख तत्व हैं। अनेक मन: स्थितियों में से एक की ही सक्रियता सघनता से संप्रेषित करने का लक्ष्य रहता है।'

बलराम अग्रवाल के अनुसार कथानक और शैली लघुकथा के अवयव हैं, तत्व नहीं। वे वस्तु को आत्मा, कथानक को हृदय, शिल्प को शरीर और शैली को आचरण कहते हैं। योगराज प्रभाकर लघु आकार और कथा तत्व को लघुकथा के तत्व बताते हैं। उनके अनुसार किसी बड़े घटनाक्रम में से क्षण विशेष को प्रकाशित करना, लघुकथा लिखना है। कांता रॉय लघुकथा के १५ तत्व बताती है जो संभवत: योगराज प्रभाकर द्वारा सुझाई १५ बातों से नि:सृत हैं- कथानक, शिल्प, पंच, कथ्य, भूमिका न हो, चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्त, बोध-नीति-शिक्षा न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो, शैली तथा सामाजिक महत्व । नया लघुकथाकार और पाठक क्या करे? बलराम अग्रवाल कथानक को तत्व नहीं मानते, कांता रॉय मानती हैं। 
डॉ. हरिमोहन के अनुसार लघुकथा विसंगतियों से जन्मी तीखे तेवर वाली व्यंग्य परक विधा है तो डॉ. पुष्पा बंसल के अनुसार 'घटना की प्रस्तुति मात्र'। अशोक लव 'संक्षिप्तता में व्यापकता' को लघुकथा का वैशिष्ट्य कहते हैं तो विक्रम सोनी 'मूल्य स्थापन' को। कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। यही स्थिति लघुकथा और लघुकथाकारों की है 'जितने मुँह उतनी बातें'। 
लघुकथा के तत्व 
मेरे अनुसार उक्त तथा अन्य सामग्री का अध्ययन से स्पष्ट होता है कि लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३.तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इन में से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है। घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुडी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी। इस ३ तत्वों का प्रयोग कर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है। योगराज प्रभाकर तथा कांता रॉय इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं। 
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग घटते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघ्यकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो। 
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों के चरित्र-चित्रण नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है। शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं। 
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है। एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है। कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है। सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है। व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा? व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है। *: 
सन्दर्भ-
१. सारिका लघुकथा अंक १९८४
२. अविरल मंथन लघुकथा अंक सितंबर २००१, संपादक राजेन्द्र वर्मा 
३. प्रतिनिधि लघुकथाएं अंक ५, २०१३, सम्पादक कुंवर प्रेमिल 
४. तलाश, गुरुनाम सिंह रीहल 
५. पोटकार्ड, जीवितराम सतपाल 
६. लघुकथा अभिव्यक्ति अक्टूबर-दिसंबर २००७
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जबलपुर में लघुकथाकार 
१. संजीव वर्मा 'सलिल', २. डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', ३. कुँवर प्रेमिल,
४. प्रदीप शशांक, ५. गीता गीत, ६. सुरेश तन्मय, ७. ओमप्रकाश बजाज, ८. सनातन कुमार बाजपेयी, ९. विजय किसलय, १०. दिनेश नंदन तिवारी, ११. धीरेन्द्र बाबू खरे, १२. गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, १३ सुरेंद्र सिंह सेंगर, १४. विजय बजाज, १५. रमेश सैनी, १६. प्रभात दुबे, १७. पवन जैन, १८. नीता कसार, १९. मधु जैन, २० शशि कला सेन, २१. प्रकाश चंद्र जैन, २२. अनुराधा गर्ग, २३. सुनीता मिश्र, २४. आशा भाटी, २५. राकेश भ्रमर, २६.अशोक श्रीवास्तव 'सिफर', २७. आरोही श्रीवास्तव, २८ छाया त्रिवेदी, २९.रामप्रसाद अटल, ३०.अविनाश दत्तात्रेय कस्तूरे, ३१. अर्चना मलैया, ३२ बिल्लोरे, ३३. अरुण यादव, ३४. आशा वर्मा, ३५, मिथलेश बड़गैयां, ३६. सुरेंद्र सिंह पवार, ३७. मनोज शुक्ल, ३८ आचार्य भगवत दुबे, ३९. गार्गीशरण मिश्र ४०. विनीता श्रीवास्तव, ४१. डॉ. वीरेंद्र कुमार दुबे, ४२. 
दिवंगत लघुकथाकार- सर्व स्वर्गीय- हरिशंकर परसाई, श्री राम ठाकुर 'दादा', गुरुनाम सिंह रीहल, मनोहर शर्मा 'माया', गायत्री तिवारी, मो. मोईनुद्दीन 'अतहर', 
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