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रविवार, 1 जुलाई 2018

समीक्षा: काल है संक्रांति का -राजेंद्र वर्मा

समीक्षा
यह ‘काल है संक्रांति का’
- राजेंद्र वर्मा
[कृति  विवरण- काल है संक्रांति का (नवगीत-संग्रह); नवगीतकार- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, संस्करण- प्रथम, पृष्ठ संख्या- १२८, मूल्य- पुस्तकालय संस्करण: तीन सौ रुपये। प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन, अभियान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर- ४८२००१, नवगीतकार संपर्क: विशव वाणी हिंदी संस्थान ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com]

                      गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजनरत और हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने खड़ी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरियाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। अपनी बुआश्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा-प्रेम की प्रेरणा माननेवाले ‘सलिल’ जी आभासी दुनिया में भी वे अपनी सतत और गंभीर उपस्थिति से हिंदी के साहित्यिक पाठकों को लाभान्वित करते रहे हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता और उसके व्याकरण पर भी उन्होंने अपेक्षित प्रकाश डाला है। रस-छंद- अलंकारों पर उनका विशद ज्ञान लेखों के माध्यम से हिंदी संसार को लाभान्वित करता रहा है। वस्तु की दृष्टि से शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी लेखनी से अछूता रहा हो- भले ही वह गीत हो, कविता हो अथवा लेख! नवीन विषयों पर पकड़ के साथ-साथ उनकी रचनाओं में विशद जीवनानुभव बोलता-बतियाता है और पाठकों-श्रोताओं में संजीवनी भरता है।

                             ‘काल है संक्रांति का’ संजीव जी का नवीनतम गीत-संग्रह है जिसमें ६५ गीत-नवगीत हैं। जनवरी २०१४  से मार्च २०१६ के मध्य रचे गये ये गीत शिल्प और विषय, दोनों में बेजोड़ हैं। संग्रह में लोकगीत, सोहर, हरगीतिका, आल्हा, दोहा, दोहा-सोरठा मिश्रित, सार आदि नए-पुराने छंदों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति में सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर शिल्प और वास्तु में अधिकाधिक सामंजस्य बिठाकर यथार्थवादी भूमि पर रचनाकार ने आस-पास घटित हो रहे अघट को कभी सपाट, तो कभी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। विसंगतियों के विश्लेषण और वर्णित समस्या का समाधान प्रस्तुत करते अधिकांश गीत टटकी भाव-भंगिमा दर्शाते हैं। बिम्ब-प्रतीक, भाषा और टेक्नीक के स्तरों पर नवता का संचार करते हैं। इनमें ऐंद्रिक भाव भी हैं, पर रचनाकार तटस्थ भाव से चराचर जगत को सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम् के वैचारिक पुष्पों से सजाता है।

                             शीर्षक गीत, ‘काल है संक्रांति का’ में मानवीय मूल्यों और प्राची के परिवेश से च्युत हो रहे समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से नवगीतकार, सूरज के माध्यम से उद्बोधन देता है। यह सूरज आसमान में निकलने वाला सूरज ही नहीं, वह शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों के पुरोधा भी हो सकते हैं जिन पर दिग्दर्शन का उत्तरदायित्व है—
                          काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज!
                          दक्षिणायन की हवाएँ / कँपाती हैं हाड़
                          जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी / काटती है झाड़
                          प्रथा की चूनर न भाती / फेंकती है फाड़
                          स्वभाषा को भूल, इंग्लिश / से लड़ाती लाड़
                          टाल दो दिग्भ्रांति को / तुम मत रुको सूरज!
                             .......
               प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग
               कौन, किसको सम्हाले / पी रखी मद की भंग
               शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग
               मनुज-करनी देखकर है / ख़ुद नियति भी दंग
               तिमिर को लड़, जीतना / तुम मत चुको सूरज! (पृ.१६)

                            एक अन्य गीत, ‘संक्रांति काल है’ में रचनाकार व्यंग्य को हथियार बनाता है। सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों से अब किसी भले काम की आशा ही नहीं रही, अतः गीतकार वक्रोक्ति का सहारा लेता है-
               प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखे रहते भी हो सूर
               संसद हो चौपालों पर / राजनीति तज दे तंदूर
               अब भ्रान्ति टाल दो / जगो, उठो!
अथवा,
               सूरज को ढाँके बादल / सीमा पर सैनिक घायल
               नाग-साँप फिर साथ हुए / गुँजा रहे बंसी-मादल
               झट छिपा माल दो / जगो, उठो!

                             गीतकार सत्ताधीशों की ही खबर नहीं लेता, वह हममें-आपमें बैठे चिन्तक-सर्जक पर भी व्यंग्य करता है; क्योंकि आज सत्ता और सर्जना में दुरभिसंधि की उपस्थिति किसी से छिपी नहीं हैं--
               नवता भरकर गीतों में / जन-आक्रोश पलीतों में
               हाथ सेंक ले कवि, तू भी / जी ले आज अतीतों में
               मत खींच खाल दो / जगो, उठो! (पृ.२०)

                             शिक्षा जीवन की रीढ़ है। इसके बिना आदमी पंगु है, दुर्बल है और आसानी से ठगा जाता है। गीतकार ने सूरज (जो प्रकाश देने का कार्य करता है) को पढने का आह्वान किया है, क्योंकि जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलता है, तब तक किसी भी प्रकार के विकास या उन्नयन की बात निरर्थक है। सन्देश रचने और अभिव्यक्त करने में रचनाकार का प्रयोग अद्भुत है—
            सूरज बबुआ! / चल स्कूल।
            धरती माँ की मीठी लोरी / सुनकर मस्ती ख़ूब करी।
            बहिन उषा को गिरा दिया / तो पिता गगन से डाँट पड़ी।
             धूप बुआ ने लपचुपाया / पछुआ लायी बस्ता-फूल।
                             ......
   चिड़िया साथ फुदकती जाती / कोयल से शिशु गीत सुनो।
   ‘इकनी एक’ सिखाता तोता / ’अ’ अनार का याद रखो।
   संध्या पतंग उड़ा, तिल-लडुआ / खा, पर सबक़ न भूल। (पृ.३५)

                             परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षोल्लास लाता है और मानव को मानवता के पक्ष में कुछ संकल्प लेने का अवसर भी, पर हममें से अधिकांश की अन्यमनस्कता इस अवसर का लाभ नहीं उठा पाती। ‘सलिल’ जी दार्शनिक भाव से रचना प्रस्तुत करते हैं जो पाठक पर अन्दर-ही- अन्दर आंदोलित करती चलती है—
                             नये साल को/आना है तो आएगा ही।
                             करो नमस्ते या मुँह फेरो।
                             सुख में भूलो, दुख में टेरो।
                             अपने सुर में गायेगा ही/नये साल...।
                             एक-दूसरे को ही मारो।
                             या फिर, गले लगा मुस्काओ।
                             दर्पण छवि दिखलायेगा ही/नये साल...।
                             चाह, न मिटना, तो ख़ुद सुधरो।
                             या कोसो जिस-तिस को ससुरो!
                            अपना राग सुनायेगा ही/नये साल...। (पृ.४७)

                             विषयवस्तु में विविधता और उसकी प्रस्तुति में नवीनता तो है ही, उनके शिल्प में, विशेषतः छंदों को लेकर रचनाकार ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं, जो रेखांकित किये जाने योग्य हैं। कुछ उद्धरण देखिए—
                             सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
                             सब मिल कविता करिये होय!
                             कौन किसी का प्यारा होय!
                             स्वार्थ सभी का न्यारा होय!
                             जनता का रखवाला होय!
                             नेता तभी दुलारा होय!
                             झूठी लड़ै लड़ाई होय!
                             भीतर करें मिताई होय!
                             .....
                             हिंदी मैया निरभै होय!
                             भारत माता की जै होय! (पृ.४९)

                             उपर्युक्त रचना पंजाब में लोहड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ़ दुल्ला भट्टी को याद कर गाये जानेवाले लोकगीत की तर्ज़ पर है। इसी प्रकार निम्नलिखित रचना बुन्देली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों (पद भार१६/१२) पर आधारित है। दोनों ही गीतों की वस्तु में युगबोध उमगता हुआ दिखता है—
            मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमको गुइयाँ!
            हमखों बिसरत नहीं बिसारे / अपनी मन्नत प्यारी
            जुलुस, विसाल भीर जयकारा / सुविधा संसद न्यारी
             मिल जाती, मन की कै लेते / रिश्वत ले-दे भइया!
                             ......
              कौनउ सगो हमारो नैयाँ / का काऊ से काने?
               पने दस पीढ़ी खें लाने / हमें जोड़ रख जानें।
               बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम-रमैया! (पृ.५१)

                             इसी छंद में एक गीत है, ‘जब लौं आग’, जिसमें कवि ने लोक की भाषा में सुन्दर उद्बोधन दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें—
              जब लौं आग न बरिहै, तब लौं / ना मिटिहै अन्धेरा!
              सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें / बन सूरज पगफेरा।
                             ......
               गोड़-तोड़ हम फ़सल उगा रए / लूट रए व्यापारी।
               जन के धन से तनखा पा खें / रौंद रए अधिकारी।
               जागो, बनो मसाल / नई तो / घेरे तुमै / अँधेरा! (पृ.६४)

                             गीत ‘सच की अरथी’ (पृ.55) दोहा छंद में है, तो अगले गीत, ‘दर्पण का दिल’ का मुखड़ा दोहे छंद में है और उसके अंतरे सोरठे में हैं, तथापि गीत के ठाठ में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ अंश देखिए—
                        दर्पण का दिल देखता, कहिए, जब में कौन?
                        आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।
                         करता नहीं ख़याल, नयन कौन-सा फड़कता!
                         सबकी नज़र उतारता, लेकर राई-नौन! (पृ.५७)

                       छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे-छोटे अंतरों के गीत ‘हरगीतिका’ में होने के कारण पाठक का ध्यान खींचते हैं। एक रचनांश का आनंद लीजिए—
                             करना सदा, वह जो सही।
                             ........
                             हर शूल ले, हँस फूल दे
                             यदि भूल हो, मत तूल दे
                             नद-कूल को पग-धूल दे
                             कस चूल दे, मत मूल दे
                             रहना सदा, वह जो सही। (पृ.६२)

                             सत्ता में बैठे छद्म समाजवादी और घोटालेबाजों की कमी नहीं है। गीतकार ने ऐसे लोगों पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ी है—
                          बग्घी बैठा / बन सामंती समाजवादी।
                          हिन्दू-मुस्लिम की लड़वाये
                          अस्मत की धज्जियाँ उड़ाये
                          आँसू, सिसकी, चीखें, नारे
                          आश्वासन कथरी लाशों पर
                          सत्ता पाकर / उढ़ा रहा है समाजवादी! (पृ.७६)

                             देश में तमाम तरक्क़ी के बावजूद दिहाड़ी मज़दूरों की हालत ज्यों-की- त्यों है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसके संगठितहोने की चर्चा भी नहीं होती, परिणाम यह कि मजदूर को जब शाम को दिहाड़ी मिलती है, वह खाने-पीने के सामान और जीवन के राग को संभालने-सहेजने के उपक्रमों को को जुटाने बाज़ार दौड़ता है। ‘सलिल’ जी ने इस क्षण को बखूबी पकड़ा है और उसे नवगीत में सफलतापूर्वक ढाल दिया है—
                     मिली दिहाड़ी / चल बाज़ार।
                     चावल-दाल किलो-भर ले ले / दस रुपये की भाजी
                     घासलेट का तेल लिटर-भर / धनिया- मिर्चा ताज़ी
                      तेल पाव-भर फल्ली का / सिन्दूर एक पुड़िया दे-
                      दे अमरूद पाँच का / बेटी की न सहूँ नाराजी
  ख़ाली ज़ेब, पसीना चूता / अब मत रुक रे! / मन बेज़ार! (पृ.८१)

                             आर्थिक विकास, सामाजिक विसंगतियों का जन्मदाता है। समस्या यह भी है कि हमारे अपनों ने अपने चरित्र में भी संकीर्णता भर ली है। ऐसे हम चाहते भी कुछ नहीं कर पाते और उच्छवास ले-ले रह जाते हैं। ऐसी ही व्यथा का चित्रांकन एक गीत, ‘राम बचाये’ में द्रष्टव्य है। इसके दो बंद देखें—
      अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,
       राम बचाये!
       वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय / कुछ तो कहते हैं!
       महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?
       राम-रहीम बीनते कूड़ा / रजिया-रधिया झाडू थामे
       सड़क किनारे, बैठे लोटे बतलाते / कितने विपन्न हम,
       राम बचाये!
       अमराई पर चौपालों ने / फेंका क्यों तेज़ाब, पूछिए!
        पनघट ने खलिहानों को क्यों / नाहक़ भेजा जेल बूझिए।
        सास-बहू, भौजाई-ननदी / क्यों माँ-बेटी सखी न होती?
        बेटी-बेटे में अंतर कर / मन से रहते सदा खिन्न हम,
        राम बचाये! (पृ.९४)

                             इसी क्रम में एक गीत, ख़ुशियों की मछली’ उल्लेखनीय है जिसमें समाज और सत्ता का गँठजोड़ आम आदमी को जीने नहीं दे रहा है। गीत की बुनावट में युगीन यथार्थ के साथ दार्शनिकता का पुट भी है—
           ख़ुशियों की मछली को / चिंता का बगुला/खा जाता है।
           श्वासों की नदिया में / आसों की लहरें
            कूद रही हिरनी-सी / पल भर ना ठहरें
             आँख मूँद मगन / उपवासी साधक / ठग जाता है।
                             ....
              श्वेत वसन नेता है / लेकिन मन काला
               अंधे न्यायालय ने / सच झुठला डाला
     निरपराध फँस जाता / अपराधी शातिर बच जाता है।। (पृ.९८)

                             गीत, ‘लोकतंत्र’ का पंछी’ में भी आम आदमी की व्यथा का यथार्थ चित्रांकन है। सत्ता-व्यवस्था के दो प्रमुख अंग- विधायिका और न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं और जनमत की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही ध्वस्त होती जा रही है—
                             लोकतंत्र का पंछी बेबस!
                नेता पहले डालें दाना / फिर लेते पर नोच
                अफ़सर रिश्वत-गोली मारें / करें न किंचित सोच
                             व्यापारी दे नाश रहा डँस!
                             .......
                 राजनीति नफ़रत की मारी / लिए नींव में पोच
                 जनमत बहरा-गूंगा खो दी / निज निर्णय की लोच
                 एकलव्य का कहीं न वारिस! (पृ.१००)

                             प्रकृति के उपादानों को लेकर मानवीय कार्य-व्यापार की रचना विश्वव्यापक होती है, विशेषतः जब उसमें चित्रण-भर न हो, बल्कि उसमें मार्मिकता, और संवेदनापूरित जीवन्तता हो। ‘खों-खों करते’ ऐसा ही गीत है जिसमें शीत ऋतु में एक परिवार की दिनचर्या का जीवन्त चित्र है—
     खों-खों करते बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी।
     आसमान का आँगन चौड़ा / चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
     ऊधम करते नटखट तारे / बदरी दादी, ‘रुको’ पुकारे
     पछुआ अम्मा बड़-बड़ करती / डाँट लगाती तगड़ी!
     धरती बहिना राह हेरती / दिशा सहेली चाह घेरती
     ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम / रात और दिन बेटे अनुपम
     पाला-शीत / न आये घर में / खोल न खिड़की अगड़ी!
     सूर बनाता सबको कोहरा / ओस बढ़ाती संकट दोहरा
     कोस न मौसम को नाहक़ ही / फ़सल लायगी राहत को ही
     हँसकर खेलें / चुन्ना-मुन्ना / मिल चीटी-ढप- लँगड़ी! (पृ.१०३)

                             इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कवि-धर्म नहीं भूलता। नकारात्मकता को विस्मृत कर वह आशा की फ़सल बोने और नये इतिहास लिखने का पक्षधर है—
                             आज नया इतिहास लिखें हम।
                             अब तक जो बीता, सो बीता
                             अब न आस-घट होगा रीता
                             अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता,
                             अब न कभी लांछित हो सीता
                             भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
                             हया, लाज, परिहास लिखें हम।
                             आज नया इतिहास लिखें हम।।
                             रहें न हमको कलश साध्य अब
                             कर न सकेगी नियति बाध्य अब
                             स्नेह-स्वेद- श्रम हों अराध्य अब
                             कोशिश होगी महज माध्य अब
                             श्रम-पूँजी का भक्ष्य न हो अब
                             शोषक हित खग्रास लिखें हम।। (पृ.१२२)

                             रचनाकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा तुकांत के मामले में, अकारांत शब्दों का तुक इकारांत या उकारांत शब्दों से (उलट स्थिति भी)। इसी प्रकार, उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- गुइयाँ / भइया (पृ.५१), प्रसन्न / खिन्न (पृ.९४) सिगड़ी / तगड़ी / लंगड़ी (पृ.१०३)। एकाध स्थलों पर भाषा की त्रुटि भी दिखायी पड़ी है, जैसे- पृष्ठ १२७ पर एक गीत में‘दम’ शब्द को स्त्रीलिंग मानकर ‘अपनी’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।

                             गीतकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। अधिकांश गीतों में लोक का पुट दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आज हम गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना करने में अधिक लगे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि उनमें मार्मिकता और अपेक्षित संवेदना का स्तर नहीं आ पाता है। भोथरी संवेदनावाली कविता से हमें रोमावलि नहीं हो सकती, जबकि आज उसकी आवश्यकता है। ‘सलिल’ जी ने इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है जिसका हिंदी नवगीत संसार द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।

                             वर्तमान संग्रह निःसंदेह नवगीत के प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है और आने वाले समय में उसका स्थान इतिहास में अवश्य लिया जाएगा, यह मेरा विश्वास है।... लोक की शक्ति को सोद्देश्य नवगीतों में ढालने हेतु ‘सलिल’ जी साधुवाद के पात्र है।
- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)
***

शनिवार, 30 जून 2018

doha salila

दोहा सलिला
*
नहीं कार्य का अंत है, नहीं कार्य में तंत। माया है सारा जगत, कहते ज्ञानी संत।।
*
आता-जाता कब समय, आते-जाते लोग। जो चाहें वह कार्य कर, नहीं मनाएँ सोग।।
*
अपनी-पानी चाह है, अपनी-पानी राह। करें वही जो मन रुचे, पाएँ उसकी थाह।।
*
एक वही है चौधरी, जग जिसकी चौपाल। विनय उसी से सब करें, सुन कर करे निहाल।।
*
जीव न जग में उलझकर, देखे उसकी ओर। हो संजीव न चाहता, हटे कृपा की कोर।।
*
मंजुल मूरत श्याम की, कण-कण में अभिराम। देख सके तो देख ले, करले विनत प्रणाम।।
*
कृष्णा से कब रह सके, कृष्ण कभी भी दूर।
उनके कर में बाँसुरी, इनका मन संतूर।।
*
अपनी करनी कर सदा, कथनी कर ले मौन। किस पल उससे भेंट हो, कह पाया कब-कौन??
*
करता वह, कर्ता वही, मानव मात्र निमित्त। निर्णायक खुद को समझ, भरमाता है चित्त।।
***
३०.६.२०१८, ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४

pad: doha chhand

पद
छंद: दोहा.
*
मन मंदिर में बैठे श्याम।।
नटखट-चंचल सुकोमल, भावन छवि अभिराम।
देख लाज से गड़ रहे, नभ सज्जित घनश्याम।।
मेघ मृदंग बजा रहे, पवन जप रहा नाम।
मंजु राधिका मुग्ध मन, छेड़ रहीं अविराम।।
छीन बंसरी अधर धर, कहें न करती काम।
कहें श्याम दो फूँक तब, जब मन हो निष्काम।।
चाह न तजना है मुझे, रहें विधाता वाम।
ये लो अपनी बंसरी, दे दो अपना नाम।।
तुम हो जाओ राधिका, मुझे बना दो श्याम।
श्याम थाम कर हँस रहे, मैं गुलाम बेदाम।।
*
२९.६.२०१२, ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४

शुक्रवार, 29 जून 2018

sadgodasani

सड़गोड़ासनी:
बुंदेली छंद, विधान: मुखड़ा १५-१६, ४ मात्रा पश्चात् गुरु लघु अनिवार्य,
अंतरा १६-१२, मुखड़ा-अन्तरा सम तुकांत .
*
जन्म हुआ किस पल? यह सोच
मरण हुआ कब जानो?
*
जब-जब सत्य प्रतीति हुई तब
कह-कह नित्य बखानो.
*
जब-जब सच ओझल हो प्यारे!
निज करनी अनुमानो.
*
चलो सत्य की डगर पकड़ तो
मीत न अरि कुछ मानो.
*
देख तिमिर मत मूँदो नयना
अंतर-दीप जलानो.
*
तन-मन-देश न मलिन रहे मिल
स्वच्छ करेंगे ठानो.
*
ज्यों की त्यों चादर तब जब
जग सपना विहँस भुलानो.
***
२९.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

गुरुवार, 28 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी २३. रेल अभियांत्रिकी का अंग : छंद

२३. रेल अभियांत्रिकी का अंग : छंद
बसंत कुमार शर्मा
संपर्क: ३५४ रेल्वे डुप्लेक्स बंगला, फेथ वेली स्कूल के सामने, पचपेढ़ी, साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर (म.प्र.) ४८२००१, चलभाष: ९७५२४ १५९०७।
*
  शिशु के जन्म के समय रोने की आवाज, माँ की मीठी लोरी से लेकर राम नाम सत्य की आवाज तक अगर हम किसी शब्द या शब्दों के समूह की ध्वनि को ध्यान से सुनें तो पायेंगे कि उसमें लय है, जो छंद का एक आवश्यक गुण है। छोटी-छोटी ध्वनियाँ जो आसपास हमें सुनाई देतीं हैं, उनमें भी एक लय होती है, गति-यति होती है। इन लयबद्ध ध्वनियों को सुनकर मन को सुकून मिलता है, आनंद होता है, मानव ही नहीं, अपितु पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों तक की कार्यदक्षता में अभूतपूर्व वृद्धि होती है। कोयल की पिहू-पिहू, पपीहे के पीहू, मोर की कूक सुनकर तो मन मन्त्र-मुग्ध हो जाता है। काव्य में इन ध्वनियों का प्रयोग आदिकाल से होता रहा है।छंद में कही गई बातें मन में सीधे बैठ जाती हैं, मन को झकझोर देती हैं। काव्य में छंद का अति महत्वपूर्ण स्थान है। कबीर के दोहे, तुलसी के दोहे और चौपाइयाँ, रसखान के सवैये जनमानस के पटल पर आज तक अंकित हैं।  
शिशु
अब बात करते हैं रेल की और उसमें छंदों के प्रयोग की, रेल जब चलती है तो उसकी छुक-छुक की आवाज जिसकी गति धीरे-धीरे बढ़ती है, एक छंद में ढलकर, लयबद्ध होकर ही निकलती है। रेल की पटरी को जब रख-रखाव के लिए ट्रैकमैन एक साथ उठाने के लिए आवाज लगाते हैं, उसमें भी एक लय होती है, जो लोहे की भारी पटरी को भी उठाने में उनको सक्षम बना देती है। उनकी यह एकजुटता देखते ही बनती है, यह छंद की शक्ति का ही कमाल है। यह भी देखा है कि 'हैया हो' या ऐसी ही अन्य निरर्थक ध्वनि एक साथ उच्चारते श्रमिक अपनी सामर्थ्य से भारी कार्य कर गुजरते हैं किंतु किसी कारण से उनकी लय भंग हो जाए तो अपेक्षाकृत हल्का काम भी नहीं कर पाते।
रेलवे में छंदों के माध्यम से भी विभिन्न सार्थक संदेश, जनता और रेल कर्मियों के बीच पहुँचाए जाते हैं। ये नारे, उक्तियाँ आदि भी छंद में ही होते हैं और सबकी जुबान पर चढ़े होते हैं। कर्मचारियों और श्रमिकों को इनसे कार्य संपादन की प्रेरणा मिलाती है। समय-समय पर रेल मजदूरों के आंदोलनॉन में नारों का प्रयोग किया जाता है। इनका व्यापक प्रभाव होता जो कार्यकर्ताओं में जोश भरने का कार्य करता है। यही छंद की शक्ति है। (इन नारों की दो सम तुकांती पंक्तियाँ हों तो उन्हें छंद स्वीकारने में किसी को कठिनाई न होगी किंतु द्विपदिक छंद की अर्धाली मान कर नारे को छंद कहना अजीब लगने के बाद भी सत्य है- सं.)
भारतीय रेल में प्रयुक्त किये जाने वाले नारे और उनमें प्रयोग किये गए छंदों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं: 'राष्ट्र की जीवन रेखा' -१३ मात्रिक छंद, 'स्वच्छ रेल स्वच्छ भारत' -१३ मात्रिक छंद, सावधानी हटी, दुर्घटना घटी - -१९ मात्रिक छंद; १०-९ पर यति, 'दुर्घटना से देर भली' -१४ मात्रिक हाकलि छंद, संरक्षा का वरण करो / दुर्घटना का हरण करो -१४ मात्रिक सखी छंद।
भारतीय चलचित्र जीवन के हर क्षेत्र का प्रतिबिंब होते हैं। अनेक चलचित्रों में श्रमिकों की महत्ता,श्रम की अवहेलना, श्रमिक-जीवन की विसंगतियाँ चित्रित की गई हैं। दो उदाहरण देखें: १. फ़ौलादी हैं सीने अपने फ़ौलादी हैं बाहें  हम चाहें तो पैदा कर दें चट्टानों में राहें -२८ मात्रिक छंद; यति १६-१२ यौगिक जातीय सार छंद, २. गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है / चलना ही जिंदगी है, चलती ही जा रही है - १२ मात्रिक आदित्य छंद + १३ मात्रिक भागवत जातीय छंद का मिश्रण।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने भारतीय रेल को लेकर मुक्तक रचे हैं जो छंदों पर आधारित हैं:
प्रभु तो प्रभु है, ऊपर हो या नीचे हो। / नहीं रेल के प्रभु सा आँखें मीचे हो।। / निचली श्रेणी की करता कुछ फ़िक्र न हो- / ऊँची श्रेणी के  हित लिए गलीचे हो।।(२२ मात्रिक महारौद्र जातीय कुंडल छंद, १२-१० पर यति)
ट्रेन पटरी से उतरती जा रही। / यात्रियों को अंत तक पहुँचा रही।। / टिकिट थोड़ी यात्रा का था लिया- / पार भव  से मुफ्त में करवा रही।। (महापौराणिक जातीय, सुमेरु छंद)
शुक्र करिए रेलवे का रात-दिन। / काम चलता ही नहीं है ट्रेन बिन।। / करें पल-पल याद प्रभु को आप फिर- / समय काटें यार चलती श्वास गिन।। (महापौराणिकजातीय छंद )
जो चाहे भगवान् वही तो होता है। / दोष रेल मंत्री को क्यों जग देता है।। / चित्रगुप्त प्रभु दुर्घटना में मार रहे- / नाव आप तू कर्म नदी में खेता है।। (२२ मात्रिक महारौद्र जातीय कुंडल छंद, १२-१० पर यति)
१५ मात्रिक तैथिक जातीय पुनीत छंद में रचा गया मेरा बाल गीत देखें: नगर गाँव जब आती रेल / सबका मन हर्षाती रेल / मिल जाता है सबका साथ / आगे  बढ़ती जाती  रेल / ऊँचे पर्वत, नदियाँ, खेत / सबकी सैर कराती रेल / धीमी कभी; कभी हो तेज / मंजिल पर पहुँचाती रेल / हो जाओ पटरी से दूर / सीटी खूब बजाती रेल / करती नहीं किसी में भेद / सबको पास बिठाती रेल / रहे स्वच्छ रखना यह ध्यान / गन्दी तनिक न भाती रेल।
निस्संदेह सरसरी तौर पर भारतीय रेल और छंद में कोई संबंध भेले ही प्रतीत न हो, गहराई से विचारें तो पाएँगे कि रेल की पटरी बिछाने हेतु गिट्टी डालना हो, पटरी बिछाना हो, रेल आरम्भ होने की सीटी या घंटी बजाना हो, इंजिन का चका घुमाना हो या अन्य कोई कार्य ध्वनि-खण्डों की आवृत्तियाँ, गति और यति हर जगह सहज ही देखी जा सकती है और यह कहा जा सकता है कि रेल-यांत्रिकी और छंद का अन्योन्याश्रित संबंध है।

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साहित्य त्रिवेणी २४. मगही लोकगीत: कुमार गौरव

२४. मगही लोक गीतों में छंद-छटा
कुमार गौरव अजितेंदु
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परिचय: नवोदित कवि, प्रकाशित: मुक्त उड़ान हाइकु संग्रह, संपर्क: द्वारा: श्री नवेंदु भूषण कुमार, शाहपुर, ठाकुरबाड़ी मोड़ के पास, पोस्ट दाउदपुर, दानापुर कैंट, पटना ८०१५०२ बिहार, चलभाष ९६३१६५५१२९।
छंद अर्थात अनुशासन और अनुशासन के बिना समस्त ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं है। यह सकल सृष्टि जगत ही छांदसिक है। कोई लाख छंदमुक्त होना चाहे, हो ही नहीं सकता। कब, कैसे और कहाँ छंद उसे अपने अंदर ले लेंगे या उसके अन्दर समाहित हो जाएँगे, उसे खुद ही पता नहीं चलेगा। छंदबद्ध रचनाओं का इतिहास हमारी गौरवशाली परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग है। धार्मिक से लेकर लौकिक साहित्य तक, छंदों ने अपनी गरिमामय उपस्थिति दर्ज कराई है। लोकगीत, स्थानीय भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति करते हैं। उनके रचयिता उनको किसी दायरे में बँधकर नहीं लिखते परंतु छंदों की सर्वव्यापकता के कारण ऐसा हो नहीं पाता। बिहार की प्राचीन लोक भाषाओँ में मगही का महत्वपूर्ण स्थान है। देश की अन्य लोकभाषाओँ की तरह मगही में भी लोकगीतों की एक समृद्ध परंपरा है। इन गीतों को यदि हम छंदों की कसौटी पर परखें तो विविध छंदों के सुंदर दृश्य सामने आते हैं:
कत दिन मधुपुर जायब, कत दिन आयब हे। / ए राजा, कत दिन मधुपुर छायब, मोहिं के बिसरायब हे॥
छव महीना मधुपुर जायब, बरिस दिन आयब हे। / धनियाँ, बारह बरिस मधुपुर छायब, तोहं नहिं बिसरायब हे॥
बारहे बरिस पर राजा लउटे दुअरा बीचे गनि ढारे हे। / ए ललना, चेरिया बोलाइ भेद पूछे, धनि मोर कवन रँग हे॥
तोर धनि हँथवा के फरहर,, मुँहवा के लायक हे। / ए राजा, पढ़ल पंडित केर धियवा, तीनों कुल रखलन हे॥
उहवाँ से गनिया उठवलन, अँगना बीचे गनि ढारे हे। / ए ललना, अम्माँ बोलाइ भेद पुछलन, कवन रँग धनि मोरा हे॥
तोर धनि हँथवा के फरहर, मुँहवा के लायक हे।
इसकी पंक्तियों में "सुखदा छंद" जो कि १२-१० मात्राओं पर यति, अंत गुरु की झलक स्पष्ट है। इसी प्रकार
देखि-देखि मुँह पियरायल, चेरिया बिलखि पूछे हे। / रानी, कहहु तूँ रोगवा के कारन, काहे मुँह झामर हे॥
का कहुँ गे चेरिया, का कहुँ, कहलो न जा हकइ हे। / चेरिया, लाज गरान के बतिया, तूँ चतुर सुजान हहीं गे॥
लहसि के चललइ त चेरिया, त चली भेलइ झमिझमि हे। / चेरिया, जाइ पहुँचल दरबार, जहाँ रे नौबत बाजहइ हे॥
सुनि के खबरिया सोहामन अउरो मनभावन हे।/ नंद जी उठलन सभा सयँ भुइयाँ न पग परे हे॥
जाहाँ ताहाँ भेजलन धामन, सभ के बोलावन हे। / केहु लयलन पंडित बोलाय, केहु रे लयलन डगरिन हे॥
पंडित बइठलन पीढ़ा चढ़ि, मन में विचारऽ करथ हे। / राजा, जलम लेतन नंदलाल जगतर के पालन हे॥
जसोदाजी बिकल सउरिया, पलक धीर धारहु हे। जलम लीहल तिरभुवन नाथ, महल उठे सोहर हे॥
यह गीत विद्या छंद के १४-१४ मात्राओं का अनुपालन करता है। एक तिलक गीत देखिए:
सभवा बइठले रउरा बाबू हो कवन बाबू। / कहवाँ से अइले पंडितवा, चउका सभ घेरि ले ले॥
दमड़ी दोकड़ा के पान-कसइली। / बाबू लछ रुपइया के दुलहा, बराम्हन भँडुआ ठगि ले ले॥
बाबू, लछ रुपइया के दुलहा, ससुर भँडुआ ठगि ले ले॥
इसकी लय कुकुभ छंद (३० मात्रिक, यति १६-१४) के बेहद निकट है। अंत में दो गुरु भी प्रतिष्ठित हैं।
मगही लोक गीत जीवन के हर क्षेत्र (सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि) के क्रिया-कलापों से जुड़े हैं। विस्मय यह है कि अधिकाँश लोकगीत अल्प शिक्षित या अशिक्षित लोक कवियों द्वारा रचे जाने के बाद भी उनमें छंदों के मूल विधान का पालन किया गया है। मात्रा या वर्ण गणना के स्थान पर ध्वनिखंड के आधार पर परिक्षण किया जाए तो ये लोकगीत छांदस परंपरा में रचे गए हैं। स्थानीय उच्चारण भेद के कारण वर्ण या मात्रा गणना में यत्किंचित भिन्नता सहज स्वीकार्य होनी चाहिए।
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रुनुक झुनुक बिछिया[1] बाजल, पिया पलँग पर हे।
ललना, पहरि कुसुम रँग चीर, पाँचो रँग अभरन[2] हे॥1॥
जुगवा खेलइते तोंहे देवरा त, सुनहऽ बचन मोरा हे।
देवरा, भइयाजी के जलदी बोलावऽ, हम दरदे बेयाकुल हे॥2॥
जुगवा खेलइते तोंहे भइया त, सुनहऽ बचन मोरा हे।
भइया, तोर धनि दरद बेयाकुल, तोरा के बोलावथु[3] हे॥3॥
डाँर[4] मोर फाटहे करइली जाके, ओटिया चिल्हकि मारे हे।
पसवा त गिरलइ बेल तर, अउरो बबूर तर हे।
ललना, धाइ के पइसल गजओबर, कहु धनि कूसल हे॥4॥
हथिया खोलले हथिसरवा, त घोड़े घोड़सार खोलल हे।
राजा, का कहूँ दिलवा के बात, धरती मोर अन्हार लागे हे॥5॥
घोड़ा पीठे होबऽ असवार त डगरिन[5] बोलवहु हे॥6॥
कउन साही[7] के हहु तोही बेटवा, कतेक[8] राते आयल हे॥8॥
राजा, घोड़े पीठ भेलन असवार, त डगरिन बोलावन हे॥7॥
के मोरा खोले हे केवड़िया त टाटी फुरकावय[6] हे।
हम तोरा खोलऽ ही केवड़िया त टाटी फुरकावहि हे।
किया तोरा हथु गिरिथाइन[13] कते राते आयल हे॥10॥
डगरिन, दुलरइता[9] साही के हम हीअइ बेटवा, एते राते आयल हे॥9॥
किया तोरा माय से मउसी[10] सगर[11] पितियाइन[12] हे।
न मोरा माय से मउसी, न सगर पितिआइन हे।
डगरिन, हथिन मोर घर गिरिथाइन एते राते आयल हे॥11॥
डगरिन, जब मोरा होयतो त बेटवा, त कान दुनु सोना देबो हे।
हथिया पर हम नहीं जायब, घोड़े गिरि जायब हे।
लेइ आबऽ रानी सुखपालक,[14] ओहि रे चढ़ि जायब हे॥12॥
जवे तोरा होयतो त बेटवा, किए देबऽ दान दछिना हे।
जबे तोरा होयतो लछमिनियाँ, त कहि के सुनावह हे॥13॥
काहेला डगरिन रोस करे, काहेला बिरोध करे हे।
डगरिन, जब होयत मोरा लछमिनियाँ, पटोर[15] पहिरायब हे॥14॥
सोने के सुखपालकी चढ़ल डगरिन आयल हे।
डगरिन बोलले गरभ सयँ, सुनु राजा दसरथ ए॥15॥
राजा, तोर धनि हथवा के साँकर,[16] मुहँवा के फूहर हे।
नहीं जानथू[17] दुनियाँ के रीत, दान कइसे हम लेबो हे॥16॥
जुग-जुग जियो तोर होरिलवा, लबटि अँगना आयब हे॥18॥
डगरिन हम देबो अजोधेया के राज, लहसि[18] घर जयबऽ हे॥17
इयरी पियरी पेन्हले डगरिन, लहसि घर लउटल हे।

साहित्य त्रिवेणी २५. विवाह गीतों में छंद सविता वर्मा


२५. विवाह गीतों में छंद वैविध्य

पुष्पा सक्सेना-सविता वर्मा 'गजल' 
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संपर्क: पुष्पा
सक्सेना, द्वारा डॉ, ओ. पी, सक्सेना, साकेत नगर ग्वालियर।
सविता वर्मा "ग़ज़ल" संपर्क: 230,कृष्णापुरी मुजफ़्फ़र नगर २५१००१ उ. प्र. चलभाष: ०८७५५३१५५५।
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हमारी सभ्यता और संस्कृति प्रथाओं-लोक नृत्यों, परंपराओं और  परंपरागत विश्वासों और लोक गीतों में रची-बसी  है। मानव समुदाय के सांस्कृतिक इतिहास का ज्ञान उसकी प्रथाओं, लोक-विधाओं और गीतों से सहज ही लगाया जा सकता है। जन-समुदायों में जी रही अमूर्त संस्कृति महान संपदा है, जिसकी झलक उनके त्यौहारों और उत्सवों सबंधी गीतों में है। पौराणिक और परंपरागत कथाओं से गुँथे हुए भारतीय लोकगीत पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलते हैं। ये लोकगीत सुख-दु:ख, ऐतिहासिक घटनाओं व पौराणिक कथाओं का प्रतिनिधित्व करते है। उत्तर-प्रदेश मॆं  लोकगीत प्रत्येक मौसम मॆं आने वाले तीज-त्योहारों जैसे  सावन , होली, दीवाली, दशहरा और रक्षाबंधन आदि पर गाए जाते हैं। ग्रामीण अँँचल मॆं नृत्य भी लोकगीतों पर ही किया जाता है। कम पढ़ा-लिखा या अनपढ़  व्यक्ति भी इनकी सादगी, भोलेपन और माधुर्य को समझ सकता है। इन लोकगीतों के माध्यम से भावी पीढ़ी अपनी लोक संस्कृति से भली-भाँति परिचित हो कर एकता भाव से जुडी रह सकती है। लोकगीतों में सामान्यत: अनपढ़ अथवा अल्प शिक्षित लोक मानस अपनी भावाभिव्यक्ति कर मन की बात कह पाता है। ये लोकगीत मन की कुंठाओं और आक्रोश की अभिव्यक्ति हास्य-व्यंग्य की आड़ में अभिव्यक्त कर पाते हैं। युवा-मन लोकगीत और उनके छंदों को पढ़-समझकर खुद को अभिव्यक्त कर सकें अपराध की और जाने से बच सकते हैं। उत्तर प्रदेश में मुख्य मांगलिक अवसरों पर गाये जानेवाले कुछ  लोकगीत यहाँ प्रस्तुत हैं जिनके कथ्य तथा छंद गीतकार तथा गायक के मन की बानगी हैं। 

निम्न बन्ना गीत में तीन छंदों का मिश्रण है। मुखड़े में १५-१४, २९ मात्रिक महायौगिक जातीय  धारा छंद  का प्रयोग है जबकि अंतरे की पंक्तियों में क्रमश: १८ व १६ मात्रिक पौराणिक तथा संस्कारी जातीय छंद का प्रयोग किया गया है। 
"बन्ना है चाँद पूनो का / निकल आया, निकल आया॥  १५- १४ मात्रा 
बन्ना अपने बाबा का प्यारा, / दादी की आँखों का तारा  १८-१६=३४ मात्रा 
जगत का है  ये उजियारा, / निकल आया, निकल आया॥ १५-१४ मात्रा 
ऐसे लोकगीतों मॆं दादा,दादी के बाद फूफा-फूफी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसा-मौसी, भैया-भाभी आदि रिश्तों को लेकर गया जाता है। 
एक और बन्ना गीत का आनंद लें जिसमें १८ मात्रिक पौराणिक जातीय छंद निहित है: 
"बन्ने काला कोट सिलाना रे, नाइलोन के बटन लगाना रे! १८-१८ 
पहन के कालिज चले जाना रे, बाबा जी को संग ले जाना रे!
बन्ने! रोम-रोम से रंग बरसे, कॉलेज की सब लडकियाँ तरसे!
बन्ने तरसी को और तरसाना रे॥
लड़की की शादी में गाए जाने वाले लोकगीतों को बन्नी या लाडो कहते हैं। इस लोकगीत  मॆं अल्हड लाडो यानि बन्नी अपने बाबा से पूछ रही है कि मैं कैसे जाऊँ बाग मॆं खेलने क्योंकि वहाँ पर रंगीले (उसके ससुराल वाले) आ गये हैं। बाबा कहते हैं फूलों की डलिया लेकर मालिन का वेश रख ले।    
"लाडो पूछे बाबा से, हे बाबा! मै किस विध खेलन जाऊँ?  
रंगीले आये गये बागों मॆं ?!
बाबा अपनी लाडो को समझाते हुये कहते हैं
"हाथ मॆं डलिया फूल की लाडो, धर मालिन का भेष 
रंगीले आये गये बागो मॆं ॥
देख गये दिखलाये गये बागोँ मॆं ! मेरी रंगभरी लाडो को 
नज़र लगाये गये बागोँ मॆं ॥
मामा द्वारा भांजे-भांजी के विवाह में बहन-बहनोई, उनकी संतानों तथा स्वजनों को उपहार देने की परंपरा को भात चढ़ाना कहा जाता है। बहिन द्वारा भात लेकर आने के लिए भाई को न्योता भेजा जाता है। इस वस्र पर भात गीत गाए जाते हैं:
'अरे भैया रघुवीर, भात सबेरे लइयौ! (१२-१२) /मेरे माथे को बिंदी लइयौ, झूमर पे रत्न जडइयो (१८-१४) / गले को लइयौ जंजीर, भात सबेरे लइयौ॥' (१४-१२) 
एक और भात गीत का आनंद लें: ' भैया तोरी भांजी का ब्याह, भात ले के अइयो रे! (१७ -१३) शेष गीत में बहिन किसके लिए क्या लाना है बताती है। इस मध्य हँसी-मजाक, चुहुल होती है। भाई कहता है: 'बहन क्या घर को बेचूँगा? / बहन क्या खुद बिक जाऊँगा? १५-१५
इसके विपरीत एक उत्साही भाई बहिन उसके ससुरालियों सहित भात पहनने के लिए मंडप में आमंत्रित करता है: 'बहिना! चल मंडप के बीच, अनोखा भात पिन्हाऊँगा (१५-१५) / सास तुम्हारी को पैंट-कोट और टाई चढ़ाऊँगा (१६- १४=३०) / ससुर तुम्हारे को साडी-ब्लाउज लौंग पहनाऊँगा (१८-११ =२९) इसी तरह शेष संबंधियों के नाम लेकर महातैथिक जातीय ताटंक छंद में शेष गीत गया जाता है। 
बच्चे का जन्म होने पर जो लोकगीत गाये जाते हैं उन्हें ब्याही या जच्चा कहते हैं: 'जच्चा झुक-झुक देखे पलना / तू चाँद जैसा किस पे हुआ / मेरे ललना ! (१६-१६-८) / तेरे बाबा काले-काले / तू गोरा नाना पे  हुआ / मेरे ललना॥
शिशु जन्म पर बधाई गीत भी गाये जाते हैं।  स्व. शांति देवी वर्मा रचित बधाई गीत में गणेश जन्म पर पार्वती जी को बधाई दी गयी है। इसका मुखड़ा नाक्षत्रिक जातीय छंद में है जबकि अंतरे में यौगिक जातीय छंद का प्रयोग हुआ है: ' मंगल बेला आई / भोले घर बाजे बधाई (१२-१५) / गौरा मैया ने लालन जन्में /गणपति नाम धराई (१६-१२) । अन्य बधाई गीत 'धूम-धाम भोले के गाँव, चलो पाँव-पाँव सखी' में शांति देवी जी ने मुखड़े में नाक्षत्रिक जातीय छंद का प्रयोग किया है।
सावन मॆं गाये जाने वाले गीतों को उत्तर-प्रदेश मॆं कजरी गीत कहते हैं: " आया तो री सासू यौ सावन मास। /  बेड (झूल) बटा  दे पीले पाट की जी। / म्हारे तो री बहुवड यौ बेडो की आन।/   जायें बटाइयो अपने बाप के जी / म्हारे तो री सासू हैं छोटे-छोटे बीर / बटनी न जाने सन की जेवडी जी / सुन-सुन रे बेटा तू लच्छो के बोल / लच्छौ तो बोले हमसे बोलने जी !
एक और सावन-गीत देखिये: अरी सखी सावन महीना आया / हम तो बैठ गये मन मार के॥ / रो-रो कह रही कंवल निहाल दे॥ बीबी ऐसा ख़त भीजवाइयो  /
हमरे बालम पास पुचाईयो / सुनते ही आवें नर सुल्तान जी॥ यह गीत बारामासी कहा जाता है क्योंकि इसमें बारहों महीनों के नाम लिये जाते हैं। 
होली पर फाग कहे जाते है जो उत्साह और उल्लास लिये होते हैं और रिश्तों को अनेक प्रेम के रंगो से सराबोर करते हैं। महातैथिक ज्तीय १४-१६ मात्रिक छंद में फाग का आनंद लें: 'मै होली कैसे खेलूँ जी, साँवरियाजी के सँग-रँग (१६-१४) / कोरे-कोरे कलश मँगाये, उनमें घोला केसर रँग (१६-१४) / भर पिचकारी माथे मारी, टीका हो गया रंग-रंग / मैं होली कैसे खेलूं जी,सांवरिया जी संग-रंग॥'
देश के हर प्रदेश मॆं जो हमारी संस्कृति से परिचय कराते हुए, मांगलिक अवसरों पर नृत्य-गीत हमारी स्वस्थ्य परंपरा है। आइए, एक प्रसिद्ध लोक नृत्य गीत के साथ नाचें-झूमें:: 'छन कंगन के तीन घुँघरू तीनों मेल मिला दूँगी। / जो मेरी सासू राजी बोले रोटी पौ के खिला दूँगी। / जो मेरी सासू करे लड़ाई चूल्हा बाहर भगा दूँगी॥"
एक और नृत्य गीत देखिए: 'जरा धीरे-धीरे बाँसुरी बजाना / श्याम रे! , बजाना श्याम रे! / श्याम रे मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / उड जारे कौउये पूरब दिशा को, / सुध ले आ मेरे प्रियतम की॥ / मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / कौआ बेचारा उड़ने ना पाया / घर आये मेरे परदेशी। / मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / तुम तो प्रभु जी मेरे फुल गुलाबी / हम कलियाँ सुखदर्शन की॥ / मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / तुमको लाज प्रभु अपने मुकुट की / हमें लाज इस घूंघट की॥ मैं ग्वालन इस पनघट की॥
आज बहुत आवश्यक है कि हमारी युवा पीढी भी हमारी संस्कृति ,हमारे लोकगीतों और लोककलाओं से परिचित हो। 
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